कामलीला complete

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kunal
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Re: कामलीला

Post by kunal »

जबरदस्त अपडेट
अगली कड़ी की उत्सुकता से प्रतीक्षा में . . . .
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rangila
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Re: कामलीला

Post by rangila »

kunal wrote: 27 Aug 2017 16:56 जबरदस्त अपडेट
अगली कड़ी की उत्सुकता से प्रतीक्षा में . . . .
Ankit wrote: 27 Aug 2017 12:41superb update

thanks mitro
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rangila
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Re: कामलीला

Post by rangila »

मैं आज्ञाकारी बच्चे की तरह औंधा लेट गया।
उसने तेल लेकर मेरी पूरी पीठ गर्दन पर फैला दिया और पहले अपने नरम नरम हाथों से मेरी पीठ रगड़ती रही फिर मेरी गर्दन चूमते हुए… मेरे पेट के दोनों तरफ फैले अपने घुटनों पर भार रखते हुए, मेरी पीठ पर इस तरह झुक गई कि उसके मम्मे पीठ से रगड़ने लगे।
अब वह अपने तेल से चिकनाए वक्षों को सख्ती से मेरी पूरी पीठ पर रगड़ने लगी।
यह नरम नरम छुअन मेरे लिंग को कड़ा करने लगी।
वह अपने वक्षों को रगड़ती नीचे जाती, ऊपर आती, दाएं जाती, बाएं जाती और ऐसी ही अवस्था में नीचे खिसकते हुए मेरे घुटनों तक पहुँच गई और अपने वक्षों से ही मेरे कूल्हों को रगड़ने मसलने लगी।
फिर दोनों हाथों से मुट्ठियों में मेरे चूतड़ों को मसलती रगड़ती मेरे जुड़े हुए पैरों पर घुटनों के पीछे अपने पेट के निचले सिरे, यानि उस हिस्से को जहाँ उसकी गीली होकर बह रही योनि थी और तेल से नहाया गुदाद्वार था, रगड़ने लगी।
वहाँ से उठती भाप जैसे मैं अपने पैरों पर महसूस कर सकता था।
दोनों कूल्हों को मसलती कहीं वह उन्हें एक दूसरे से मिला देती तो कहीं एकदूसरे के समानांतर फैला देती और यूँ मेरे गुदाद्वार को अपने सामने नुमाया कर लेती।
फिर उसने वहाँ भी तेल टपकाया और मेरे छेद को उंगली से सहलाने लगी।
मेरे दिमाग पर नशा सा छा रहा था।
भले मैं ‘गे’ नहीं था लेकिन यह ऐसी संवेदनशील जगह थी जहाँ इस तरह की छुअन आपको उत्तेजित ही कर देती है, भले करने वाला पुरुष हो या औरत।
और जैसा कि मैं उम्मीद कर रहा था उसने सहलाते सहलाते अपनी उंगली अंदर उतार दी।
मुझे भी वैसा ही मज़ा आया जैसा उसने महसूस किया होगा और मेरी भी ‘आह’ छूट गई जिसे सुन कर वह हंसने लगी- क्या तुम्हें भी मज़ा आता है यहाँ?
उसने शरारत भरे अंदाज़ में पूछा।
‘किसे नहीं आता? मगर मर्द के दिमाग में बचपन से यह बात पारम्परिक मान्यता की तरह ठूंस दी जाती है कि यह गलत है और मर्द होकर मर्द से करना तो बिल्कुल गलत है इसलिए सामान्य मर्द इस हिस्से के मज़े से बेहिस बने रहते हैं, जो इस वर्जना को तोड़ देते हैं वह भले मज़ा हासिल करने में कामयाब रहते हो लेकिन ‘गे’ के रूप में समाज में अपमानित भी होते हैं।’
फिर वह बड़ी लगन और दिलचस्पी से उंगली अंदर बाहर करने में लग गई और मैं आँखें बंद करके उस मज़े पर कन्सन्ट्रेट करने लगा जो मुझे अपने जिस्म के उस हिस्से से मिल रहा था जो मेरे संस्कारों के हिसाब से इस क्रिया के लिये वर्जित था।
फिर उसने उंगली हटा ली और मेरे कूल्हों को छोड़ कर परे हटी और मुझे पलट कर सीधा कर लिया।
अब वह अपनी दोनों टांगें मेरे इधर उधर रखे मेरे पेट पर बैठ गई… उसकी गर्म, रस और भाप छोड़ती योनि और तेल से चिकना हुआ गुदाद्वार मेरे पेट से रगड़ता उसे गीला करने लगा और वह मेरे कन्धों और सीने की मालिश करने लगी।
इस घड़ी उसके चेहरे पर शरारत थी और आँखों में मस्ती…
मसाज करते करते वह पीछे खिसकी और वहाँ पहुँच गई जहाँ लकड़ी की तरह तना मेरा लिंग मौजूद था जो अब उसकी दरार की गर्माहट को अपने ऊपर महसूस कर रहा था।
फिर गौसिया मेरे सीने पे ऐसे झुकी कि उसके दूध मेरे पेट के ऊपरी हिस्से से रगड़ खाने लगे और उसने जीभ निकाल कर मेरे छोटे से निप्पल को चाटा, मेरे शरीर में एक सिहरन दौड़ गई।
वह हंस पड़ी।
‘मतलब आदमी को भी वही संवेदनाएं होती हैं।’
‘कुछ हद तक… वैसी सहरंगेज नहीं पर होती हैं।’
फिर वह अपनी ज़ुबान से मेरे दोनों तरफ के निप्पल छेड़ने चुभलाने लगी।
नीचे उसकी गीली दरार मेरे पप्पू को बुरी तरह भड़का रही थी।
फिर उसने खुद से अपने चूतड़ों को इस तरह सेट किया कि मेरे लिंग की नोक उसके पीछे वाले छेद से सट गई और अपना एक हाथ पीछे ले जा कर वह लिंग को पकड़ कर अंदर घुसाने की कोशिश करने लगी।
अगर यह कोशिश शुरू में की होती तो अंदर होने में थोड़ी मुश्किल आती भी लेकिन अब तक तो हम कामोत्तेजना से ऐसे तप चुके थे कि मेरा लिंग लकड़ी बन चुका था और उसका छेद खुद से गीला होकर ढीला हो गया था।
थोड़ी कसाकसी के साथ वह गर्म गड्ढे में उतर गया।
एक आह सी उसके मुंह से ख़ारिज हुई और उसने मेरे निप्पल से मुंह हटा लिया और कुछ ऊपर होकर मेरी आँखों में देखते हुए मुस्कराने लगी।
‘इस तरह आगे पीछे होना तो ध्यान रखना कहीं आगे ही न घुस जाए।’
‘नहीं घुसने दूँगी और घुस भी गया तो देखा जायेगा।’
हम दोनों के शरीर तेल से चिकने हुए पड़े थे… वह मेरे पेट से सीने तक अपने दूध रगड़ते आगे हुई तो लिंग धीरे धीरे सरकता हुआ बाहर हो गया।
फिर उसी तरह वह वापस नीचे खिसकी और यह चाहा कि लिंग खुद छेद में घुस जाए लेकिन इस तरह योनि में तो घुस सकता है मगर गुदा में नहीं।
उसे फिर हाथ की मदद लेनी पड़ी।
वह बार बार ऐसे ही मेरे फ्रंट से अपना फ्रंट रगड़ती आगे पीछे होती लिंग को बाहर और हाथ के सपोर्ट से अंदर करती रही, इस तरह उसकी योनि का ऊपरी सिरा भी मेरे पेट के निचले सिरे से घर्षण का मज़ा पा रहा था और उसके आनन्द को दोगुना कर रहा था।
लेकिन यह स्थिति बहुत सुविधाजनक नहीं थी और जब लगा कि अब कुछ चेंज होना चाहिए तो सीधे होकर मेरे ऊपर इस तरह बैठ गई कि लिंग उसके छेद के अंदर ही रहा और अपने हाथ मेरे सीने से टिका कर अपने कूल्हों या कहो कि कमर को इस तरह राउंड घुमाने लगी जैसे बैले डांस में घुमाते हैं।
लिंग चरों तरफ मूव करते उसके छेद के साथ अंदर बाहर सरक रहा था और दोनों की उत्तेजना को अपने शिखर की तरफ ले जा रहा था।
‘मार्वलस! तुम तो सीख गई… ग़ज़ब हो यार!’ आज बड़बड़ाने की बारी मेरी थी।
कुछ झटकों के बाद वह रुक जाती और एक ही पोजीशन में बैठे बैठे ऐसे हिलती जैसे ऊँट की सवारी कर रही हो।
इस तरह लिंग तो अंदर बाहर न होता जिससे मुझे आराम था लेकिन उसकी योनि मेरे लिंग के ऊपर के तीन दिन के बालों से जो रगड़ खाती वह उसे ज़रूर मस्त कर देती।
फिर मेरे आराम के पल पूरे हुए और उसने थकन के आसार दिखाये लेकिन उठी फिर भी नहीं, बस लिंग के ऊपर बैठे बैठे इस तरह घूम गई कि लिंग एक ही पोजीशन में रहा और उस पर चढ़ा छल्ला घूम गया।
उसके सीने के बजाय अब उसकी पीठ मेरी तरफ हो गई और उसने थोड़ा पीछे होते हुए मेरे सीने पर अपने पंजे टिकाये और अपने चूतड़ों को इतना ऊपर उठा लिया कि नीचे से मैं धक्के लगा सकूँ।
उसकी मनोस्थिति मैं समझ सकता था… मैंने सहारे के लिए उसके दोनों कूल्हों के नीचे अपनी हथेलियाँ लगा लीं और फिर अपनी कमर के जोर से धीरे धीरे धक्के लगाने लगा।
उसकी कामुक सीत्कारें कमरे में गूंजती तेज़ होने लगीं।
बीच में कभी इस हाथ से कभी उस हाथ से वह अपनी क्लिटरिस भी सहलाने लगती जिससे उसे चरम पर पहुँचने में देर नहीं लगी।
‘जोर जोर से करो… हार्डर हार्डर…’ वह तेज़ होती साँसों के बीच बड़बड़ाई।
मैंने धक्कों की स्पीड तेज़ कर दी और जितनी मुझमें क्षमता थी मैं तेज़ और जोर से धक्के लगाने लगा।
कमरे में ‘थप-थप’ की संगीतमय आवाज़ गूंजने लगी।
और जब वह स्खलन के जोर में अकड़ी तभी मेरे लिंग ने भी लावा छोड़ दिया और वह एकदम मेरे सीने पर फैल गई और एक हाथ से चादर तो दूसरे हाथ से मेरी बांह दबोच ली…
जबकि मैंने स्खलन के क्षणों में दोनों हाथों से उसके पेट को दबोच लिया था।
तूफ़ान गुज़र गया… दिमाग की सनसनाहट काबू में आई तो हम अलग हुए और थोड़ी देर में हम बिस्तर के सरहाने टिके साँसें नियंत्रित कर रहे थे।
‘हर दिन एक नया मज़ा… शायद यही तो चाहती थी मेरे अंदर की मिस हाइड!’ उसने खुद से एक सिगरेट सुलगा ली और कश लेकर धुआं छोड़ती हुई बोली- लेकिन एक बात कहूँ… यह ठीक है कि मैं हर रोज़ बेशर्म होती जा रही हूँ लेकिन एक डर भी दिल में समां रहा है कि कभी ये बातें लीक हो गईं तो… किसी को पता चल गया तो?’
‘कैसे?’
‘पता नहीं… मैं तो बताने से रही। शायद तुमसे… मुझसे वादा करो कि कभी तुम यह सब किसी को बताओगे नहीं।’
‘नहीं… मैं यह वादा नहीं कर सकता कि बताऊँगा नहीं, पर यह वादा कर सकता हूँ कि तुम्हारी आइडेंटिटी डिस्क्लोज नहीं करूँगा।’
‘और बताओगे किसे?’
‘कह नहीं सकता। हो सकता है न ही बताऊँ पर वादा करने की हालत में नहीं क्योंकि मैं खुद को जानता हूँ। खैर छोड़ो- अगर तुम्हारी एम एम ऍफ़ की ख्वाहिश हो तो कहो वह भी पूरी कर दूँ।’
‘मतलब?’
‘मतलब दो लड़के और एक लड़की… मतलब कोई और लड़का भी हमारे साथ?’
‘नहीं, अब मेरे अंदर की मिस हाइड इतनी बेलगाम भी नहीं हुई और वैसे भी उसका मज़ा तब आएगा जब एक आगे करे एक पीछे और यहाँ आगे कुछ होना नहीं। ऐसे नाज़ुक वक़्त में सँभलने की उम्मीद मैं तुमसे कर सकती हूँ किसी और से नहीं, चलो पैग बनाओ।’
बोतल में अब इतनी ही बची थी कि एक बड़ा पैग बन सकता।
मैंने पैग तो बनाया पर पिया अलग ढंग से… मैं घूँट लेता, थोड़ी अपने गले में उतारता और थोड़ी उसके मुंह से मुंह जोड़ कर उसमें उगल देता जिसे वह गटक जाती और दूसरा घूँट वह लेती और उसी तरह मुझे पिलाती।
साथ ही मोबाइल भी हाथ में ले लिया और कुछ मज़ेदार पोर्न देखने लगे।
थोड़ी देर बाद जब फिर गर्म हुए तो फिर तेलियाए हुए जिस्मों के साथ शुरू हो गए, खेलने वाला एक लम्बा सिलसिला फिर चला और अंत वही हुआ जो ऐसी हालत में होता है।
आज दो बार में ही उसका दम भी निकल गया और फिर मुझे वहाँ से रुखसत होना पड़ा।
अगले दिन शुक्रवार था और आज भी उसकी क्लास थी जिससे वह साढ़े बारह बजे फारिग हुई। मैंने उसे यूनिवर्सिटी से पिक किया और पहले ही साहू के पीछे जाकर पेट पूजा कर ली।
उसके बाद नरही की तरफ चले आये और बाकी का दिन चिड़ियाघर में घूमते फिरते, बकैती करते, मस्ती करते गुज़ारा और छः बजे मैंने उसे यूनिवर्सिटी के पास ही छोड़ दिया जहाँ से वह अपने रास्ते चली गई और मैं अपने रास्ते।
रात को मुझे फिर ड्रिंक और स्मोकिंग के इंतज़ाम के साथ पहुंचना पड़ा।
‘आज कुछ नया फीचर बचा हो तो वह भी अपलोड कर दो मिस हाइड की हार्ड डिस्क में।’ वह आँखें चमकाती हुई बोली।
‘आज हम बाथरूम सेक्स करेंगे, साथ में नहाते हुए!’
‘वॉव।’ उसने खुश होकर मुट्ठियां भींची।
पहले हमने स्मोकिंग और ड्रिंक का मज़ा लिया फिर कपड़े उतार कर वो पोर्न मसाला देखने बैठ गए जो बाथरूम सेक्स से जुड़ा था। इसके बाद जब जिस्म में हरारत पैदा होने लगी तो एक दूसरे को बिस्तर पर ही रगड़ना शुरू कर दिया और अच्छे खासे मस्त हो चुके तो बाथरूम में घुसे।
बाथरूम में लगे शीशे को हमने ऐसे एडजस्ट कर लिया कि हम खुद को अपनी हरकतों के दौरान देखते रह सकें और शावर चला दिया। आज यह तय हुआ था कि वह पीछे से सेक्स कराते कराते स्क्वर्टिंग करेगी।
फिर हमने वैसा ही किया।
जी भर के पानी में भीगते हुए मैंने उसकी योनि ही नहीं, गुदा के छेद को भी चूसा चाटा, खूब खींच खींच कर दूध पिये और खड़े बैठे ही नहीं लेटे वाले आसन में भी जी भर से उसे पीछे से फक किया।
उसने भी हर आसन को खूब एन्जॉय किया, अच्छे से लिंग चूषण किया और खूब स्क्वर्टिंग भी की… तीन बार तो मैंने छोटी छोटी फुहारें अपने मुंह में झेलीं।
साथ ही हम खुद को शीशे में देखते उत्तेजित होते रहे थे।
मुझे इस बीच टाइम का एक्सटेंशन इसलिए मिल गया था कि बार बार पानी में भीगने के कारण लिंग की गर्माहट कम हो जाती थी और मुझे यह डर नहीं रहता था कि मैं जल्दी डिस्चार्ज हो जाऊंगा।
आज उसने एक बाधा और पार की… वह भी इसलिए कि हम पानी में थे। जिस वक़्त उसका पानी निकला, मैं स्खलित होने से बच गया था और जब मैं स्खलित होने को हुआ तो उस वक़्त हम बाथरूम के टाइल पर लोट रहे थे…
मैंने मौके का फायदा उठाते हुए, झड़ने से पहले लिंग हाथ में पकड़ा और उसके चेहरे के सामने ले आया। करीब था कि मेरी मंशा समझ कर वह इंकार करके चेहरा घुमा लेती कि मेरी बेचारगी और इच्छा देख कर उम्मीद के खिलाफ उसने मुंह खोल दिया।
मन में यह ज़रूर रहा होगा कि शावर से गिरती पानी की फुहार उसके मुंह को फ़ौरन धो देगी।
वीर्य की जो पिचकारी छूटी उसमें थोड़ी उसकी नाक, आँख और गाल पे गई मगर ज्यादातर उसके खुले मुंह में गई।
मैं आखिरी वाली छोटी पिचकारी के निकल जाने के बाद दीवार से टिक कर पड़ गया और वह मुंह बंद करके उस चीज़ के ज़ायके को महसूस करने लगी जो उसके मुंह में था।
फिर उसने ‘पुच’ करके उसे उगल दिया और फुहार के नीचे मुंह करके पानी से अंदर का मुंह धोने लगी।
मुंह साफ़ हो गया तो उसने शावर बंद कर दिया।
थोड़ी देर बाद सामान्य हुए तो नए सिरे से तैयार होने के लिए बाहर आ गए।
‘अजीब सा टेस्ट लगा, न अच्छा न बुरा!’
‘चार छः बार मुंह में ले लो, न अच्छा लगने लगे तो कहना।’
‘चलो ठीक है, तुम्हारी यह ख्वाहिश भी पूरी कर देती हूँ। अब से परसों तक जितनी बार भी निकालना मेरे मुंह में ही निकालना। मिस हाइड उस घिन से लड़ने और जीतने की कोशिश करेगी जो कल तक सोचने से भी आती थी।’
फिर एक बार स्मोकिंग, ड्रिंक और पोर्न का दौर चला और फिर जब हम गर्म हुए तो बाथरूम चले आये और शावर खोल कर उसके नीचे वासना का नंगा नाच नाचने लगे।
अब चूँकि मेरे दिमाग में यह था कि उसके मुंह में निकालना है तो उससे मेरा ध्यान बंट गया और आधे घंटे की धींगामुश्ती के बाद जब वह स्खलित हो कर मेरे लिंग के सामने अपना मुंह खोल कर बैठी भी तो मेरा वीर्य फ़ौरन नहीं निकला बल्कि उसे हाथ से घर्षण करते हुए निकालना पड़ा।
इस बार भी थोड़ा गाल पर तो बाकी मुंह में गया, जिसे थोड़ी देर मुंह में रख के उसने उगल दिया और पानी से मुंह साफ़ करने लगी।
अब शायद टंकी में पानी कम हो गया था जिससे टोंटी खोखियाने लगी थी और रात के इस वक़्त तो मोटर चलाई नहीं जा सकती थी जबकि सुबह फजिर में उठने पर दादा दादी को पानी चाहिए होगा।
यह सोच कर हमने अपने प्रोग्राम को वही ख़त्म किया और बाहर आ गए।
इसके बाद थोड़ी देर बिस्तर पर रगड़ घिस करते हुए चादर की मां बहन एक की और फिर वहां से निकल कर अपनी राह ली।
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Re: कामलीला

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अगला दिन इस हिसाब से अंतिम दिन था कि कल रविवार था और वह यूनिवर्सिटी का बहाना नहीं कर सकती थी तो आज ही आखिरी दिन था जो हम साथ घूम सकते थे।
आज वह यूनिवर्सिटी नहीं गई बल्कि ग्यारह बजे ही मुझ तक पहुँच गई।
पहली सुरक्षित जगह पाते ही नक़ाब से छुटकारा पाया और आज हमने जितना वक़्त मिला सिर्फ सैर सपाटा किया। पूरे लखनऊ की सड़कें नापीं… मड़ियांव से लेकर सदर तक, और दुबग्गा से लेकर चिनहट तक।
दोपहर के खाने के रूप में टेढ़ी पुलिया पर मुरादाबादी बिरयानी खाई और शाम को अकबरी गेट पर टुंडे के कबाब। कोई फिल्म, माल, पार्क का रुख किये बगैर सिर्फ राइडिंग करते शाम हो गई तो वापसी की राह ली।
आज रात नए रोमांच के रूप में उसने खुद को दुल्हन के रूप में सजाया और ऐसे खुद को पेश किया जैसे आज हमारी सुहागरात हो।
उसे यह अहसास अब बुरी तरह साल रहा था कि हमारे सफर का अब अंत हो चला है। वह कुछ ग़मगीन थी और ऐसे मौके पर खुद को मेरी दुल्हन के रूप में जी लेना चाहती थी।
एक आभासी दूल्हे के रूप में मुझे दूध भी पीने को मिला और मिठाई भी खाने को मिली।
आज हमने रोशनी बंद कर दी थी- उसकी इच्छा के मुताबिक।
बस ऐसे ही बातें करते, एक दूसरे को छूते सहलाते उत्तेजित होते रहे और जब दिमाग पर सेक्स हावी हो गया तो मैंने उसके कपड़े उतार दिए।
आज वह उस तरह सहयोग नहीं कर रही थी बल्कि खुद को एक शर्मीली दुल्हन के रूप में तसव्वुर कर रही थी जो पहली बार ऐसे हालात का सामना कर रही हो।
मैंने बची हुई मिठाई उसके पूरे जिस्म पर मल दी थी और खुद कुत्ते की तरह उसे चाटने लगा था।
उसके जिस्म का कोई ऐसा हिस्सा नहीं बचा था जिसे मिठाई और मेरी जीभ के स्पर्श से वंचित रहना पड़ा हो… और जो बची भी तो उसे मैं अपने लिंग पर मल कर उसके होंठों के पास ले आया।
थोड़ी शर्माहट, नखरे और हिचकिचाहट के बाद उसने मेरे लिंग को स्वीकार किया और उसे अपने मुंह में लेकर सारी मिठाई साफ़ कर दी।
इसके बाद मैंने उसे चित लिटाए हुए ही उसकी योनि से छेड़छाड़ शुरू की और जब वह कामोत्तेजना से तपने लगी तो उसकी टांगों के बीच और कूल्हों के पास बैठते हुए मैंने बड़े आराम से पीछे के रास्ते प्रवेश पा लिया और ऐन सुहागरात के स्टाइल में उसके ऊपर लद कर उसके बूब्स मसलते, चूसते हल्के हल्के धक्के लगाने लगा।
मूल सुहागरात और इस सुहागरात में फर्क यह था कि यहाँ वेजाइनल सेक्स के बजाय एनल सेक्स हो रहा था।
धीरे धीरे दोनों चरम पर पहुँच गए तो उसने तो मुझे दबोचते हुए अपने स्खलन को अंजाम दे दिया लेकिन मैं उसके मुंह के लालच में रुका रहा और निकालने से ऐन पहले एकदम लिंग बाहर निकाल कर उसे हाथ से पकड़े गौसिया के मुंह के पास ले आया।
हालांकि स्थिति को समझते हुए उसने फ़ौरन मुंह खोल दिया था लेकिन मैं लगभग छूट चुका था इसलिए पहली फुहार गाल को छूती बिस्तर पर गई, दूसरी गाल पर और तीसरी चौथी बची खुची उसके मुंह में जा सकी।
कुछ देर उसे मुंह में रखने के बाद उसने पास रखे अपने एक कॉटन के दुपट्टे पर उगल कर उसी से अपना मुंह पोंछ लिया, दुपट्टे से ही गाल और तकिए पर गिर वीर्य भी साफ़ कर दिया।
इसके बाद फिर हम थोड़ी देर लेटे कल के विषय में बाते करते रहे और जब बुखार वापस चढ़ा तो इस बार कल की बची हुई शराब थोड़ी अपने मुंह में लेकर उसे पिलाई और बाकी उसके जिस्म पर डाल कर एक बार फिर कुत्ते की तरह चाट चाट कर साफ़ कर दी।
इस चटाई से उत्तेजित होना स्वाभाविक था और फिर मैंने उंगली से योनिभेदन करते हुए उसे फिर लगभग चरम पर पहुंचा दिया, जब वह स्खलन के करीब पहुँच गई तब उसे घोड़ी बना के पीछे से घुसा दिया और सम्भोग करने लगा।
करीब पांच मिनट के बाद वह भी स्खलित हो गई और मेरा भी निकलने वाला हो गया तो मैंने इस बार ज्यादा नियंत्रण के साथ वक़्त से पहले उसे गौसिया के मुंह तक पहुंचा दिया और इस बार बाहर कुछ नहीं गिरा।
एक तो कम माल था दूसरे फ़ोर्स भी कम था जिससे वेस्टेज नहीं हुई और कुछ देर मुंह में रखने के बाद फिर उसने मुंह साफ़ कर लिया।
आखिरी रात ऐसे ही गुज़री लेकिन उसने मुझे जाने नहीं दिया और वही रोके रखा- यह कह कर कि मैं अभी गया तो कल दिन के उजाले में आ नहीं पाऊँगा और घरवाले तो शादी, जनानी चौथी, मर्दानी चौथी सब निपटा कर कहीं रात तक पहुंचेंगे। उनके पहुँचने से पहले अँधेरा होते ही निकल लेना।
यानि मैं शनिवार रात का उसके घर घुस रविवार रात उनके घर से निकला, वहीं सोया, खाया पिया, वहीं हगा, मूता।
सुबह वह दादा दादी का नाश्ता बनाने नीचे चली गई और अपने लिए इतना ऊपर ले आई कि मेरा भी हो गया।
ऐसे ही उसने दोपहर के खाने और शाम के नाश्ते के वक़्त भी किया। साथ ही पूरे कमरे की सफाई करके उसे रूम फ्रेशनर से महका दिया और हर अवांछित चीज़ पैक करके रख दी कि जाते समय मैं लेता जाऊं।
इस बीच हमने कई बार सेक्स किया जिसे अगर हम डिस्चार्ज के हिसाब से देखें तो आठ बार वह स्खलित हुई थी और पांच बार मैं। पांच बार में मेरी हालत ऐसी हो गई थी कि कदम लड़खड़ाने लगे थे।
अब कोई जवान लौंडा तो था नहीं।
सबसे आखिरी बार में उसने मेरी वह इच्छा पूरी की थी जो इससे पहले कभी नहीं पूरी हुई थी और बकौल उसके यह मेरी सेवाओं का इनाम था जो उसने मुझे दिया था।
उसने मुंह से मुझे स्खलित कराया था और इस हालत में जो वीर्य निकला था वह बिना किसी झिझक उसने अपने गले में उतार लिया था और ऐसा करते वक़्त उसने मुझे जिन निगाहों से देखा था वह मुझे आने वाली पूरी ज़िन्दगी याद रहेंगी।

और रात के आठ बजे मैंने उसका घर छोड़ दिया था, उसने अपनी तड़प अपने गले में घोंट ली थी, बरसती आँखों को मुझसे छुपाने के लिए चेहरा घुमा लिया था और आखिरी वक़्त में इतनी ताक़त भी न जुटा पाई थी कि मेरे अलविदा का जवाब दे पाती।
जिस दिन मैंने यह कहानी लिखनी शुरू की थी उससे अलग हुए तीन दिन हुए थे और आज लिखते लिखते दस दिन हो गए थे।
इस बीच उसका आते जाते कई बार मेरा आमना सामना हुआ था और मैंने एक तड़प, एक कसक उसकी आँखों में देखी थी।
मैं जानता था कि यूँ किसी से अलग होना उसकी उम्र की लड़की के लिए बेहद मुश्किल था।
मेरा क्या था, मेरे लिए यह खेल था।
ऐसा नहीं था कि मुझे तकलीफ नहीं हुई थी लेकिन उसकी तुलना में यह कुछ भी नहीं थी।
मैंने वैसा ही किया था जैसा उसने कहा था, उसका नंबर, कॉल और व्हाट्सप्प पर ब्लॉक कर दिया था।
वह सामने पड़ती तो मैं चेहरा घुमा लेता कि कहीं कुछ बोल न दे और दूर होती तो रास्ता बदल लेता।
यह ठीक था कि मुझे ऐसा करते अच्छा नहीं लगता था मगर उसके लिए यही ठीक था।
इन दस दिनों में मैंने उस दूसरी लड़की से अच्छी खासी दोस्ती कर ली थी जिसका ज़िक्र मैंने कहानी के शुरू में किया था और उसके बारे में काफी कुछ जान लिया था।
जो पहले बंद गठरी थी अब धीरे धीरे खुलने लगी थी
गौसिया से अलग होने की तकलीफ मैंने उसमें दिलचस्पी लेकर ही कम की थी।
पहले आते जाते हाय हैलो होती थी और फिर एक दिन मोहल्ले से निकल कर फैज़ाबाद रोड पर बस पकड़ने के लिए खड़ी थी कि मैं आ टकराया था और उसका नम्बर ले लिया था जिससे थोड़ी बहुत बात फोन पर भी हो जाती थी।
उसने पूछा था मुझसे- क्यों दिलचस्पी है मुझमें?
और मैंने कहा था- क्योंकि तुम मेरे जैसी एक आम लड़की हो, एकदम आर्डिनरी… कोई खास चीज़ नहीं। न शक्ल सूरत, न फिगर और न ही वह उत्साह उमंगों से भरी उम्र। बस यही कारण है मेरे तुममें दिलचस्पी लेने का!
दो टूक सच किसे नहीं चुभता… उसके चेहरे पर भी नागवारी के भाव आकर चले गए थे।
पर वो कम उम्र की कोई नवयौवना नहीं थी बल्कि तीस पर की एक युवती थी जिसे अब तक सच का सामना करने की आदत पड़ चुकी होनी चाहिए थी।
उसने दो दिन बात नहीं की और तीसरे दिन शाम की छुट्टी के बाद मेरे साथ बजाय घर के कहीं चलने की इच्छा प्रकट की।
मैं पूरी शराफत से उसे उसी ओर के एक पार्क में ले आया जिधर उसका मोहल्ला था।
यहाँ उसके मोहल्ले का मैं कोई ज़िक्र नहीं करूँगा क्योंकि उसकी जो कहानी है वो उसकी आइडेंटिटी स्पष्ट कर देगी जो मुझे स्वीकार नहीं।
बस यूँ समझिये कि वह सिटी बस से निशातगंज आती जाती थी।
बहरहाल अकेले में पहुंचे तो उसने यही कहा- खुद को समझते क्या हो?
‘वही जो तुम हो… भीड़ में शामिल एक आम सा इंसान, जिसकी कोई खास पहचान नहीं। जो ऐसा हैंडसम नहीं कि उस पर लड़कियां मर मिटें और इतना सक्षम भी नहीं कि फिज़िकली हर लड़की या औरत को संतुष्ट कर सके।’
‘खुद से मेरी तुलना किस आधार पर की… सेहत में अच्छे हो, शक्ल में कोई हीरो जैसे न सही लेकिन बुरे भी नहीं और उम्र कुछ भी हो लगते तो तीस के नीचे ही हो।’
‘तो?’
‘तो मैं क्या हूँ… यह सांवला रंग, यह मोटी सी नाक और मोठे होंठ वाला बुरा सा चेहरा… ये पेट वाली बत्तीस इंच की कमर और ये चार फुट से थोड़ी ज्यादा लंबाई। मैं तुम्हारी तरह आम नहीं एक बुरी सी लड़की हूँ।’
‘तुम्हें लगता होगा पर शायद मेरी नज़र में तुम बुरी सी नहीं, आम सी ही लड़की हो।’
‘और कुंवारा आदमी चालीस का हो तो तीस का लगता है लेकिन मेरे जैसी कोई लड़की कुंवारी हो तो तीस की होने पर भी पैंतीस की लगती है।’
‘शायद ऐसा हो, पर कहना क्या चाहती हो?’
‘यही कि एक बुरी सी लड़की में जो शक्ल या जिस्म से अच्छी नहीं, जिसकी खेलने की उम्र निकल चुकी हो उसमें दिलचस्पी क्यों? इश्क़ तो होगा नहीं।’
‘नहीं… मैं उम्र के उस दौर को बहुत पीछे छोड़ चुका हूँ जहाँ इश्क़ हुआ करता है।’
‘फिर… सेक्स करना चाहते हो?’
‘नहीं… वैसे मैं ऑप्शन लेस बंदा नहीं कि इस वजह से तुमसे दोस्ती करूँ।’
‘फिर- आखिर मैं समझ नहीं पा रही कि दुनिया भर की खूबसूरत लड़कियां पड़ी हैं लखनऊ में लेकिन तुम्हें मुझमें ऐसा क्या नज़र आया जो मुझ पर अपना वक़्त खपा रहे हो। चलो मुझसे पूछो कि मेरी दिलचस्पी क्या है जो मैंने तुम्हें लिफ्ट दी।’
‘चलो बताओ- क्यों दी लिफ्ट?’
‘क्योंकि मैं कुंठित हूँ… फ्रस्टेट हूँ… मैं शक्ल सूरत से अच्छी नहीं कि कोई मुझसे प्यार करे और न रूपये पैसे से मज़बूत कि कोई मुझे ब्याहे और न कम उम्र की कोई जवान और सेक्सी लड़की कि मुझसे सेक्स करने के इच्छुक लोगों की लाइन लगी हो।’
मैं सरापा सवाल बना उसे देखता रहा।
‘पर मेरे शरीर में भी इच्छाएं पैदा होती हैं। मुझे भी रातों को नींद नहीं आती और बिस्तर पर सुलगते हुए रात गुज़रती है। मेरे पास क्या विकल्प है?’
‘तुम्हारे हिसाब से वो विकल्प तुम्हें मुझमें दिखा?’
कुछ बोलने के बजाय वह ख़ामोशी से मुझे देखती रही।
‘नहीं… मैं ज़िन्दगी का दर्शन तुमसे कहीं बेहतर समझता हूँ। तुम एक ऐसी ज़िंदगी गुज़ार रही हो जो तुम्हें मंज़ूर नहीं लेकिन विकल्पहीनता की वजह से इसे अपनाये हुए हो।
तुम्हारी उम्र हो गई और तुम एक स्वीकार्य सेक्स पार्टनर न पा सकी, यह तुम्हारे अंदर कुंठा की मुख्य वजह है। ज़ाहिर है कि अगर कोई समाज को स्वीकार्य सेक्स पार्टनर तुम्हारे पास होता तो तुम ऐसी न होती। पर इसके लिए तुमने मुझे लिफ्ट नहीं दी।’
‘फिर?’
‘क्योंकि जो ज़िन्दगी तुम गुज़र रही हो वो तुम्हारी पसंद नहीं मज़बूरी है। तुम्हारे अंदर भी सारी तकलीफें सारी परेशानियां किसी से कह देने की ख्वाहिश होती है पर शायद कोई है नहीं और मैं शायद तुम्हें इस रूप में फिट दिखा होऊँ।’
‘ओके, चलो मैं स्वीकार करती हूँ कि वाकई ऐसा है और मैं अपना पहला सच स्वीकार करती हूँ कि मैं एक रंडी हूँ।’ कहते वक़्त उसकी आँखें मुझ पर ऐसे टिकी थीं जैसे मेरे रिएक्शन को गौर से पढ़ना चाहती हो।
मैं हंस पड़ा- ऐसा होता तो तुम इतने गौर से मेरे एक्सप्रेशन को पढ़ने की कोशिश न करती कि तुम्हारी बात ने मुझ पर क्या असर डाला बल्कि कहते वक़्त आवाज़ में अपराधबोध की भावना होती।
इस बार वह मुस्कराई और मैंने साफ़ महसूस किया कि उसकी आँखें भीग गई थीं।
मैं बस चुपचाप उसे देखता रहा, उन निगाहों से जैसे कह रहा होऊँ कि तुम मुझ पर भरोसा कर सकती हो।
इस बार वह बड़ी देर बाद बोली- शायद बहुत तजुर्बेकार हो, मैंने जो खुद में छुपाया हुआ है उसे मेरी आँखों और हावभाव से पढ़ लेते हो। मेरे साथ सोना चाहते हो?’
‘शायद ही किसी पल मुझमें ये ख्वाहिश पैदा हुई हो। मेरी नज़र में सेक्स लिंग और योनि के घर्षण से इतर भी कोई चीज़ है। मैं वह मज़ा चूमकर, छूकर, सहलाते हुए और यहाँ तक बात करते हुए भी महसूस कर सकता हूँ।
तुम मेरी इच्छा की फ़िक्र मत करो… मैं तुम्हारे अंदर की उस लड़की को बाहर निकालना चाहता हूँ जो अंदर ही अंदर घुट रही है।
शायद इससे मुझे कुछ न हासिल हो मगर तुम अपने को बेहद हल्का महसूस करोगी।’
‘तुम्हें लगता है कि मैं तुम पर इस हद तक भरोसा कर पाऊँगी?’
‘कोशिश करो… अच्छा चलो अपने बचपन के बारे में कुछ बताओ।’
वह फिर काफी देर तक मुझे गौर से देखती समझने की कोशिश करती रही लेकिन अंततः उसे बोलना पड़ा।
अपने बचपन से जुडी कई बातें उसने बताईं और मैं बड़ी तवज्जो से उन्हें सुनता रहा। किसी मोड़ पर उसे ये अहसास नहीं होने दिया कि मेरी दिलचस्पी उसकी बातों में नहीं।
ऐसे ही एक घंटा गुज़र गया और वह वहाँ से चली गई।
फिर फोन पे ऐसे ही मैं उसे छेड़ कर कुरेदता रहा और वह कुछ न कुछ बताती रही… बीच में तीन बार शाम में छुट्टी के बाद वह मेरे साथ घंटे भर के लिए घूमी भी और मैं उसे बोलने पर मजबूर करता रहा।
मैं अपनी बातें बहुत कम ही कहता था मगर उसकी हर बात बड़ी गौर से सुनता था और रियेक्ट भी करता रहता था जिससे उसे लगे कि मैं उसकी बातों में वाकई इंटरेस्टेड हूँ।
और फिर उससे दोस्ती के एक महीने बाद उसने मेरे लिये छुट्टी की।
वह अपने अंदर का सारा उद्गार निकाल फेंकना चाहती थी इसलिए किसी ऐसी जगह जाना चाहती थी जहाँ हम सुबह से शाम तक रह सकें।
मैं उसे टीले वाली मस्जिद के साथ वाली रोड से होता कुड़िया घाट ले आया जहाँ हम जैसे एकाकी पसंद लोगों के लिए काफी स्पेस उपलब्ध था।
हम दिन भर यहीं रहे… दोपहर में भूख लगी तो वहाँ से निकल के खदरे पहुंचे और थोड़ा खा पीकर वापस वहीं पहुंच गए और शाम तक वहीं रहे।
इस बीच उसने अपनी हज़ारों बातें बताई।
कहीं कुछ छूटा नहीं… एक-एक छोटी बड़ी बात, बचपन से लेकर जवानी और जवानी से लेकर अब तक!
कभी किसी बात को बताते बच्चों की तरह खुश हो जाती, तो कभी आंखें भीग जातीं, कहीं एकदम गुस्से में आ कर मुट्ठियां भींचने लगती तो कहीं एकदम उत्तेजित हो जाती।
मैं उसकी हर बात उतनी ही गौर से सुनता रहा जितना वो अपेक्षा कर रही थी।
और अंत में उसके अंदर का सारा लावा निकल चुका तो मैं इस नतीजे पर पहुंचा कि उसकी आइडेंडिटी हाइड कर दी जाए तो उसकी कहानी ऐसी थी जो इस मंच पर आप लोगों से साझा की जा सकती है।
मैंने वही कोशिश की है… कहानी में रोमांच पैदा करने के लिए मैंने रचनात्मक छूट अवश्य ली है लेकिन कहानी के सार-सत्व से कोई छेड़छाड़ नहीं की।
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rangila
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Re: कामलीला

Post by rangila »

मूलतः मैं उसके बचपन या जवानी में नहीं जाऊँगा बल्कि उसकी कहानी वहाँ से शुरू करूंगा जहाँ से उसका नैतिक पतन हुआ।
नैतिक पतन मेरे हिसाब से एक बेहूदा और अव्यवहारिक शब्द है जो किसी के चरित्र को डिफाइन नहीं करता, पर चूंकि सामाजिक परिपेक्ष्य में प्रचलन में है तो इसी शब्द का इस्तेमाल करना पड़ेगा।
वह इस वक़्त बत्तीस की वय की थी और ये नैतिक पतन अब से दो साल पहले हुआ था जब उसने सारे संस्कार, सामाजिक मूल्य और नैतिकता के ओढ़ने बिछौने उठा कर ताक पर रख दिए थे और अपनी शारीरिक इच्छाओं के आगे समर्पण कर दिया था।
वह लखनऊ के एक पुराने मोहल्ले में पुश्तों से आबाद थी जिसके कारण एक बड़ा सा घर विरासत में मिला हुआ था।
बाप अमीनाबाद की एक कपड़ों की दुकान पर मुनीम थे और जब तक जिन्दा थे, घर के हालात ठीक ही थे।
उसकी मां को गुज़रे पांच साल हो चुके थे… घर में उसके सिवा पिताजी, एक मानसिक विकलांग चाचा, उसकी छोटी बहनें रानो, आकृति और एक छोटा भाई बबलू था।
दो साल पहले बाबा एक हादसे का शिकार होकर चल बसे थे और अब वे भाई बहन ही एक दूसरे का सहारा थे।
पीढ़ियों से वहीं रहते आये थे इसलिए सबसे जान-पहचान भी थी और वक़्त ज़रूरत सभी साथ और सहारे के लिये उपलब्ध भी थे लेकिन कोई माँ बाप की जगह की पूर्ति कर सकता है क्या?
वह रंग में सांवली थी, शरीर में भी कम लंबाई और थोड़े भरे शरीर की थी, पढ़ाई भी सिर्फ बारहवीं तक की थी… ऐसे ही उससे पांच साल छोटी रानो भी साधारण शक्ल-सूरत, और हल्की रंगत की बेहद दुबली पतली लड़की थी।
लाख कोशिश करके भी पहले उसके माँ-बाप और बाद में उसके बाबा उन दोनों बहनों की शादी न करा पाए थे तो मोहल्ले वाले इस सिलसिले में भला क्या कर पाते।
पर जिसकी शादी नहीं होती, उसमें क्या उमंगें नहीं होतीं, जवानी के तूफ़ान उन्हें बिना छुए गुज़र जाते हैं, उनके शरीर में वह ऊर्जा नहीं पैदा होती जो एक सम्भोग की डिमांड करती है… और ऐसे में सिवा घुटने के, कुढ़ने के उनके पास विकल्प ही क्या होते हैं।
मर्यादा, सामाजिक मूल्य, संस्कार और परिवार का सम्मान… ये वो वेदियां हैं जिनपे किसी ऐसी विकल्पहीन स्त्री की शारीरिक इच्छाओं की बलि ली जाती है।
यह बलि वह भी देती आ रही थी।
शरीर में सहवास से शांत हो सकने वाली ऊर्जा तो सोलहवें सावन से ही शुरू हो गई थी लेकिन इन्हीं मूल्यों को ढोते-ढोते वह चौदह और साल गुज़ार लाई थी और अब तो उसमें इन मर्यादाओं के विरुद्ध लड़ जाने की इच्छा भी बलवती होने लगी थी।
रानो से तीन साल छोटा बबलू और उससे दो साल छोटी आकृति उन दोनों बहनों से अलग गोरे चिट्टे और खूबसूरत थे।
उसने बहुत पहले कई बार माँ-बाबा को किसी ऐसी बात पे कलह करते देखा था जिससे उसने अंदाज़ा लगाया था कि दोनों शायद उसकी माँ के बच्चे तो थे लेकिन उनका पिता कोई और था।
सच्चाई कुछ भी हो पर उनके लिये तो वह माँ-जाया भाई बहन ही थे।
रानो भले उससे पांच साल छोटी थी लेकिन वही उसकी सबसे करीबी सहेली थी।
आखिर दोनों एक ही कश्ती की सवार थी।
दोनों की पीड़ा साझा थी… तो ऐसी हालात में उनका एकदूसरे के दुखदर्द का साथी बन जाना कौन सा बड़ी बात थी।
बबलू बीबीए के अंतिम सेमेस्टर में था और आकृति बीटेक कर रही थी।
उन दोनों की शादी के लिए जो धन संचित करके रखा गया था, अब ऐसी कोई उम्मीद न देख दोनों बड़ी बहनों ने वह धन दोनों छोटे भाई बहन की पढाई के लिए लगाने का फैसला किया था।
हालांकि रोज़ की गुज़र बसर के लिए बाबा के मरने के बाद से ही शीला ने एक दुकान पर नौकरी कर ली थी, रानो रंजना के घर बाकायदा ट्यूशन क्लास चलाती थी जहाँ कई छोटे बच्चे रानो और रंजना से पढ़ते थे।
रंजना उन चौधरी साहब की एक पैर से विकलांग बेटी थी जिनके घर से उन लोगों के पारिवारिक सम्बन्ध थे और बाबा के गुजरने के बाद अब कभी ऐसी गार्जियन की ज़रूरत होती थी तो यह भूमिका वही चाचा-चाची निभाते थे।
उनके परिवार में रानो की हमउम्र विकलांग बेटी के सिवा उससे सात साल छोटा बेटा सोनू था जो बीए की पढ़ाई कर रहा था।
रंजना भी उसी कश्ती की सवार थी जिस पे रानो और शीला थीं।
उम्र हो गई थी लेकिन विकलांग और खूबसूरत न होने की वजह से उसका भी रिश्ता नहीं हो पा रहा था और वह भी उन दोनों बहनों की ही तरह अपनी ही आग में झुलस रही थी।
रानो की ही तरह बबलू भी अपनी ज़िम्मेदारी समझते हुए मोहल्ले की एक कोचिंग में पढ़ाने जाता था।
दो बजे कॉलेज से आकर चार बजे जाता था और रात को आठ बजे आता था।
उनकी सबसे छोटी बहन आकृति ऐसा कोई कमाई वाला काम नहीं करती थी, बल्कि वह तो कॉलेज से आकर कोचिंग पढ़ने जाती थी और बारी बारी से कोई न कोई घर में रहता था।
घर में मानसिक रूप से अपंग चाचा एक ऐसी ज़िम्मेदारी था जो उन्हें उसके मरने तक उठानी थी।
वह उनके पिता से काफी छोटा था और शीला से आठ साल बड़ा था। दिमाग सिर्फ खाने, उलटे सीधे ढंग से कपड़े पहन लेने, हग-मूत लेने तक ही सीमित था।
दिमाग के साथ ही उसकी रीढ़ की हड्डी में भी ऐसी समस्या थी कि बहुत ज्यादा देर न खड़ा रह सकता था न चल फिर सकता था। बस कमरे तक ही सीमित रहता था।
एक तरह से जिन्दा लाश ही था, जिसके लिए वह लोग मनाते थे कि मर ही जाए तो उसे मुक्ति मिले और उन्हें भी…
लेकिन किसी के चाहने से कोई मरता है क्या।
सेक्स असल में शरीर में पैदा होने वाली अतिरिक्त ऊर्जा है जिसे वक़्त-वक़्त पर निकालना ज़रूरी होता है, न निकालें तो यह आपको ही खाने लगती है।
इस यौनकुंठा के शिकार सिर्फ वही दोनों बहनें नहीं थीं उस घर में, बल्कि वह चाचा भी था जिसका दिमाग भले कुछ सोचने समझने लायक न हो लेकिन उसके पास एक यौनांग था और उसके शरीर में भी वह ऊर्जा वैसे ही पैदा होती थी जैसे किसी सामान्य इंसान के शरीर में।
बल्कि शायद दिमाग की लिमिटेशन के कारण किसी सामान्य इंसान से ज्यादा ही पैदा होती थी।
कभी किसी वक़्त में प्राकृतिक रूप से या किसी इत्तेफ़ाक़ से उसे हाथ के घर्षण के वीर्यपात करने के तरीके का पता चल गया होगा और अब वह रोज़ वही करता था।
उसे न समझ थी न ज्ञान… कई बार तो वह भतीजियों की मौजूदगी में ही हस्तमैथुन करने लगता था और उन्हीं लोगों को हटना पड़ता था।

हमेशा से ऐसे हर हस्तमैथुन के बाद उसने बाबा को ही उसकी सफाई धुलाई करते देखा था और जब से बाबा गुज़रे थे, यह ज़िम्मेदारी उस पर आन पड़ी थी।
लड़की होकर यह सब करना उसे वितृष्णापूर्ण और अजीब लगता था लेकिन विकल्पहीनता के कारण करना उसे ही था। वही घर की बड़ी थी और किसी बड़े की सारी ज़िम्मेदारियां उसे ही निभानी थी।
न उनके घर में कोई स्मार्टफोन था, न कंप्यूटर, लैपटॉप और न ही ऐसी किसी जगह से उसका कोई लेना देना था जो वह कभी पोर्न देखती या सेक्स ज्ञान हासिल करती और न ही उसकी कोई ऐसी सखी सहेली थी जो उसे यह ज्ञान देती।
सेक्स की ज़रूरत भर जानकारी तो कुदरत खुद आपको दे देती है लेकिन व्यावहारिक ज्ञान तो आपको खुद दुनिया से हासिल करना होता है जिसमें वह नाकाम थी।
उसे पहला और अब तक का अकेला परिपक्व लिंग देखने का मौका तो काफी पहले ही मिल गया था, जब एक दिन चाचा ने उसकी मौजूदगी में ही उसे निकाल कर हाथ से रगड़ना शुरू कर दिया था।
तब वह घबरा कर भागी थी।
लेकिन अब भाग नहीं सकती थी।
अब तो उसे जब तब देखना पड़ता था और जब भी चाचा हस्तमैथुन करता था तो घर पे वह होती थी तो वह साफ़ करती थी या रानो हुई तो वह साफ करती थी।
वैसे ज्यादातर चाचा को रात में सोने से पहले ही हस्तमैथुन की इच्छा होती थी और इस वजह से ये ज़िम्मेदारी दस में से नौ बार उसे ही उठानी पड़ती थी।
चाचा को जब भी खाने पीने या किसी भी किस्म की हाजत होती थी तो वह बड़ी होने के नाते उसे ही बुलाता था। उसका नाम भी ठीक से नहीं ले पाता था तो ‘ईया’ कहता था।
जब वह हस्तमैथुन करके अपने कपडे ख़राब कर चुकता था तो ‘ईया’ की पुकार लगाता था और उसे पहुंच कर चाचे को साफ़ करना होता था।
पहले उसने कभी चाचा का लिंग देखा था तो इतना ध्यान नहीं दिया था पर अब देती थी। उसका सिकुड़ा रूप, उसका उत्तेजित रूप… सब वह बड़े गौर से देखती थी।
और ये देखना उसके अवचेतन में इस कदर घुस गया था कि सोने से पहले उसके मानस पटल पर नाचा करता था और सो जाती थी तो सपने में भी पीछा नहीं छोड़ता था।
उसे साफ़ करते वक़्त जब छूती थी, पकड़ती थी तो उसकी धड़कनें तेज़ हो जाया करती थीं, सांसों में बेतरतीबी आ जाती थी और एक अजीब से सनसनाहट उसके पूरे शरीर में दौड़ जाती थी।
उसने कोई और परिपक्व लिंग नहीं देखा था और जो देख रही थी उसकी नज़र में शायद सबके जैसा ही था।
वह जब मुरझाया हुआ होता था तब भी सात इंच तक होता था और जब उत्तेजित होता था तो दस इंच से भी कुछ ज्यादा ही होता था और मोटाई ढाई इंच तक हो जाती थी।
उसकी रंगत ऊपर शिश्नमुंड की तरफ ढाई-तीन इंच तक साफ़ थी और नीचे जड़ तक गेहुंआ था, जिसपे मोटी-मोटी नसें चमका करती थीं।
तब उसे भारतीय पुरुषों के आकार का कोई अंदाज़ा नहीं था और वो इकलौता देखा लिंग उसे सामान्य लिंग लगता था, उसे लगता था सबके ऐसे ही होते होंगे।
सेक्स के बारे में उसे बहुत ज्यादा जानकारी नहीं थी। बस इतना पता था कि यह भूख शरीर में खुद से पैदा होती है और इस पर कोई नियंत्रण नहीं किया जा सकता।
एक तरह की एनर्जी होती है जिसे शरीर से निकालना ज़रूरी होता है और इसे निकालने के तीन तरीके होते हैं। पहला सम्भोग, दूसरा हस्तमैथुन और तीसरा स्वप्नदोष।
पहले दो तरीकों से आपको खुद ये ऊर्जा बाहर निकालनी है और खुद से नहीं निकाली तो स्वप्नदोष के ज़रिये आपका शरीर खुद ये ऊर्जा बाहर निकाल देगा।
उसके लिये तीसरा तरीका ही जाना पहचाना था। सम्भोग का कोई जुगाड़ नहीं था, हस्तमैथुन के तरीकों से अनजान भी थी और डरती भी थी। बस स्वप्नदोष के सहारे ही जो सुख मिल पता था, उसे ही जानती थी।
इन सपनों ने उसे अट्ठारह से अट्ठाइस तक बहुत परेशान किया था जब अक्सर बिना चेहरे वाले लोग (जिनके चेहरे याद नहीं रहते थे) उसके साथ सहवास करते थे और वह स्खलित हो जाती थी।
चूंकि उसने एक साइज़ का ही लिंग देखा था जो उसके अवचेतन में सुरक्षित हो गया था और उसी लिंग को वो योनिभेदन करते देखती थी… समझना मुश्किल था कि कैसे इतनी छोटी जगह में इतनी मोटी और बड़ी चीज़ घुस पाती थी।
लेकिन सपने में तो घुसती थी और उसे दर्द भी नहीं होता था बल्कि अकूत आनन्द की प्राप्ति होती थी।
पर सपनों पर किसका वश चला है… वह रोज़ ऐसे रंगीन सपने देखना चाहती थी पर वह दो तीन महीने में आते थे और बाकी रातें वैसे ही तड़पते, सुलगते गुज़रती थीं।
रानो भले ही शीला की सखी जैसी बहन थी लेकिन चाचा का हस्तमैथुन और इसके बाद उसके लिंग और जहां-तहां फैले उसके वीर्य को साफ़ करना एक ऐसा विषय था जिसपे दोनों चाह कर भी बात नही कर पाती थीं।
पर हर गुज़रते दिन के साथ उसकी बेचैनी बढ़ती जा रही थी।
जितना वह चाचा के लिंग को छूती, पकड़ती, साफ़ करती, उतनी ही उसकी दिलचस्पी उसमें बढ़ती जा रही थी और उसके पकड़ने छूने में एक अलग भावना पैदा होने लगी थी।
उस दिन वह घर पहुंची थी तो उसका खून खौल रहा था, दिमाग रह रह कर कह रहा था कि या तो वह चंदू का खून कर दे या खुद ही आग लगा ले।
चंदू समाज का कोढ़ था, पूरे मोहल्ले के लिये नासूर था। वह उसे आज से नहीं जानती थी बल्कि तब से जानती थी जब बचपन में वह उसकी फ्रॉक ऊपर करके चड्डी उतार कर भाग जाया करता था और वह रोते हुए घर आती थी।
वह उससे भी दस साल बड़ा एक मवाली, मोहल्ले का छंटा हुआ बदमाश था। बचपन से ही लड़ाई झगड़े करता आया था और अब हिस्ट्री शीटर बन चुका था।
उस पर मर्डर, मर्डर अटैम्प्ट, रेप और एक्सटॉर्शन जैसे कई केस चल रहे थे… अक्सर पकड़ा जाता मगर पहुंच ऐसी बना रखी थी कि कुछ दिन में ही छूट जाता था और अब तो स्थानीय विधायक ने अपनी सरपरस्ती में ले लिया था।
वह पूरे मोहल्ले में आतंक फैलाये रहता था, अपने चमचों के साथ मोहल्ले में ही इधर उधर डेरा जमाये रहता था। जुआ, शराब, रंडीबाज़ी कोई शौक बाकी नहीं था और मोहल्ले की लड़कियों से छेड़छाड़ तो उसे खास पसंद थी।
और दिखने में पूरा राक्षस था। साढ़े छह फुट से ऊपर तो लंबाई थी और उसी अनुपात में चौड़ाई। हराम की खा-खा के ऐसा सांड हुआ पड़ा था कि लोगों को देखे खौफ होता था, उसके खिलाफ कोई कुछ बोलता क्या!
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