अलिफ लैला की रहस्यमई कहानियाँ

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Jemsbond
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Re: अलिफ लैला की रहस्यमई कहानियाँ

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पत्नी के समझाने से मंत्री को ढाँढ़स बँधा। उसका नूरुद्दीन पर उतना क्रोध न रहा किंतु वह उसे क्षमा भी नहीं कर सका। नूरुद्दीन अपने पिता से छुप कर रात के समय महल में आता और सुबह पिता के जागने के पहले बाहर चला जाता। फिर भी उसकी माँ को यह भय और चिंता लगी रहती थी कि कभी मंत्री ने नूरुद्दीन को देखा तो उसका क्रोध फिर भड़क उठेगा और वह उसे जरूर मार डालेगा। उसने एक दिन अपने पति से यह बात पूछी तो उसने कहा कि मैं पाऊँगा तो जरूर उसे मार डालूँगा। पत्नी ने कहा, देखो, वह तुम्हारा इकलौता बेटा है। जवानी में आदमी से भूल हो ही जाती है। उससे भी हो गई। रही यह बात कि उसे अपने अपराध की गंभीरता का पता चल जाए तो उसकी तरकीब मैं बताती हूँ। तुम उसे पकड़ लेना और मारने के लिए तलवार निकाल लेना। फिर मैं तुम्हारी खुशामद कर के उसे छुड़ा लूँगी। मंत्री को यह सुझाव पसंद आया।

दूसरे दिन सवेरे पत्नी के इशारे पर मंत्री ने दरवाजे पर जा कर नूरुद्दीन को धर दबोचा और तलवार निकाल कर उसे मारने के लिए उठाई। तभी उसकी पत्नी ने आ कर उसका हाथ पकड़ लिया और बोली, तुम इसे मारना ही चाहते हो तो पहले मुझे मार डालो। नूरुद्दीन ने भी गिड़गिड़ा कर प्राण-भिक्षा माँगी और कहा कि इतने-से कसूर पर आप मेरी जान लेंगे तो कयामत में खुदा को क्या जवाब देंगे? मंत्री ने तलवार फेंक कर कहा, तुम मेरे नहीं, अपनी माँ के पाँवों पर गिरो, उसी के कहने पर मैंने तुम्हें छोड़ा है। मैं तुम्हें हुस्न अफरोज भी देता हूँ लेकिन खबरदार उसके साथ ब्याहता का व्यवहार करना, दासी का नहीं। और उसे किसी दशा में न बेचना।

इसके बाद नूरुद्दीन आनंदपूर्वक हुस्न अफरोज के साथ रहने लगा और मंत्री भी उन दोनों की परस्पर प्रीति देख कर प्रसन्न हुआ और संतोष से रहने लगा। जुबैनी के सामने उसने दासी के बारे में वही कह दिया जो उसकी पत्नी ने कहा था।

इसके एक वर्ष बाद की बात है। मंत्री ने गरम पानी से देर तक स्नान किया किंतु अचानक कुछ ऐसा काम आ पड़ा कि वह बाहर निकल आया। गर्मी से अचानक सर्दी में आ जाने के कारण वह बीमार हो गया और उसका रोग बढ़ता गया। अपना अंत समय निकट देख कर नूरुद्दीन से, जो उसकी परिचर्या के लिए बराबर उसके पास रहता था, कहा, मैंने पहले भी कहा था और अब फिर कहता हूँ कि हुस्न अफरोज को प्यार से रखना और उसे कभी बेचना नहीं। इसके बाद उसने शरीर छोड़ दिया।

नूरुद्दीन ने उसकी बड़ी धूमधाम से अंत्येष्टि की और चालीस दिन तक बाप का मातम किया। इसी बीच उसने किसी मित्र आदि को अपने पास आने की अनुमति नहीं दी। फिर धीरे-धीरे उसके मित्र उसे तसल्ली देने के लिए आने लगे और कुछ दिनों में मित्रों के आने का ताँता लग गया। नूरुद्दीन अल्पवयस्क और अनुभवहीन था। उसके मित्रों ने इस बात का अनुचित लाभ उठाया। उन्होंने रासरंग के सुझाव दिए और नूरुद्दीन ने दोनों हाथों से धन लुटाना आरंभ किया और उसके मित्र धन से अपना घर भरने लगे। एक दिन हुस्न अफरोज ने उसे समझाया, तुमने अपने कमीने मित्रों पर बहुत कुछ लुटा दिया, अब चेत जाओ और यह फिजूलखर्चियाँ बंद कर दो। नूरुद्दीन हँस कर बोला, क्या बात करती हो? क्या मेरे पिता मरने पर अपने साथ ले गए और क्या मैं ले जाऊँगा? फिर जीवन में आनंद लेने के लिए अपने धन का प्रयोग क्यों न करूँ?

दो-चार दिन बाद उसका गृह-प्रबंधक उसके पास आया और बही-खाता खोल कर उसे सारी स्थिति बताने के बाद उससे बोला, आप ने इस थोड़े ही समय में बहुत अधिक खर्च कर दिया है। आपके स्वामिभक्त सेवकों से आपकी यह बरबादी नहीं देखी जाती। इसलिए उनमें से बहुत-से लोग काम छोड़ कर चले गए हैं। यही हाल रहा तो मैं भी अधिक दिनों तक आपकी सेवा नहीं कर सकूँगा। या तो आप अपने अपव्यय को रोकिए या मेरा हिसाब साफ कर मुझे विदा कीजिए।

प्रबंधक के लाख समझने पर भी नूरुद्दीन ने अलल्ले-तलल्ले नहीं छोड़े। उसके मित्र उसे पहले से अधिक लूटने लगे। कभी कोई आता और कहता, आपका अमुक बाग और उसमें बना मकान मुझे बहुत भा गया है। आपको तो कोई कमी नहीं, आप उसे मुझे दे दीजिए। और मूर्ख नूरुद्दीन उसके नाम वह बाग और उसके अंदर का मकान लिख देता। इसी प्रकार कोई उसके अरबी घोड़े या विशालकाय हाथी की प्रशंसा करता और नूरुद्दीन उसे भी दे डालता। कुछ ही दिनों में यह हाल हो गया कि उसके पास अपने रहने के महल के अलावा और कुछ नहीं रहा।

अब उसके मित्र उससे कन्नी काटने लगे। वे उसके पास नहीं आते थे। अकेलेपन से घबरा कर वह किसी को बुलाता तो वह न आता और अगर आता भी तो दो-चार मिनट बैठ कर चला जाता। कभी-कभी कोई मित्र घर ही से पत्नी की बीमारी का या इसी प्रकार का कोई और कुछ बहाना बना लेता। इसी प्रकार मित्रों की उदासीनता से आश्चर्यान्वित हो कर उसने एक दिन हुस्न अफरोज से इस बात का उल्लेख किया। उसने कहा, प्रियवर, मैंने तो पहले ही कहा था कि यह सारे आदमी स्वार्थी हैं।

बात मित्रों की उदासीनता तक ही नहीं रही। आमदनी तो कुछ भी नहीं थी। धीरे-धीरे घर का सामान और दास-दासियाँ बिक गए। वेतनभोगी सेवक पहले ही चले गए थे। अब घर में खाने को भी कुछ नहीं रहा। दो दिन तक उपवास हुआ तो तीसरे दिन हुस्न अफरोज आँखों में आँसू भर कर बोली, प्रियतम, अब इसके अलावा कोई रास्ता नहीं है कि तुम मुझे बाजार में बेच दो। और जो मिले उससे भाग्य आजमाओ। नूरुद्दीन ने कहा, तुम्हें बेचना तो असंभव है। किंतु मुझे कुछ मित्रों से आशा है, वह इस आड़े समय में मेरी सहायता अवश्य करेंगे। हुस्न अफरोज बोली, यह तुम्हारा ख्याल ही ख्याल है। तुम्हारे मित्रों में कोई भी तुम्हारा हितचिंतक नहीं था। नूरुद्दीन ने कहा, ऐसी बात नहीं है। तुम क्या जानो कि वह लोग कैसे हैं? वह चुप हो रही। नूरुद्दीन सवेरे उठ कर एक मित्र के घर कुछ कर्ज माँगने के लिए गया। दरवाजे पर आवाज देने पर एक दासी बाहर निकली। नूरुद्दीन ने उसे अपना नाम बताया। उसने कहा, आप अंदर जा कर बैठें, मैं अभी खबर करती हूँ। उसे बिठा कर दासी ने अपने मालिक से कहा कि नूरुद्दीन आपसे मिलने आए हैं। मालिक ने क्रुद्ध हो कर कहा, तुमने उसे अंदर क्यों बिठाया। अब जा कर उससे कह दे मालिक घर पर नहीं हैं।

नूरुद्दीन ने यह वार्तालाप सुन लिया। दासी ने बाहर आ कर लज्जित स्वर में मालिक की अनुपस्थिति की बात कहीं। नूरुद्दीन चुपचाप उठ आया। वह मन में सोचने लगा कि यह आदमी तो बड़ा ही दुष्ट निकला। कल तक मेरी प्रशंसा के पुल बाँधा करता था, मेरे ही मकान में रहता है और अब मुझसे हीं नही मिल रहा है। वह एक और मित्र के यहाँ गया जो पहले मित्र से कुछ कम धनवान था। वहाँ भी उसके साथ वही व्यवहार हुआ। इस तरह एक-एक कर के अपने दस मित्रों के घरों पर नूरुद्दीन गया किंतु किसी मित्र ने उससे बात भी न की, सहायता देना तो दूर की बात थी।

वह बेचारा अत्यंत आहत हो कर घर आया और अपनी प्रेयसी के सामने फूट पड़ा। आँसू बहाते हुए बोला, कैसी नीच है ये दुनिया। यही लोग कल तक मेरी जूतियाँ सीधी करने में गर्व का अनुभव करते थे और आज यह हाल है कि मुझ से कोई बात भी नहीं करना चाहता। मेरा हाल तो फलदार वृक्ष जैसा हो गया। जब तक फलों से लदा था सभी आदमी मेरे आसपास घूमा करते थे, अब कोई पास भी नहीं फटकता।

हुस्न अफरोज ने कहा, तुम्हें अब यह मालूम हुआ हैं। मैं तो शुरू ही से उनके रंग-ढंग से जानती थी कि वे सब महास्वार्थी हैं। मैं इसीलिए तुम्हें समझाया करती थी कि उनका साथ न करो।

खैर अब पिछली बातों का क्या रोना, अब यह सोचना है कि आगे क्या होगा। अब तो घर में भी कोई ऐसा सामान नहीं है जो बेच सको और दास-दासी तो तुम पहले ही बेच चुके हो। मकान बेच दोगे तो हम लोग रहेंगे कहाँ। इसलिए ऐसा करो कि मुझे दासों की मंडी में ले चलो। तुम्हें याद होगा कि तुम्हारे पिता ने मुझे दस हजार अशर्फियों में खरीदा था। अब मेरा इतना तो मोल नहीं होगा किंतु इससे आधे को जरूर बिक जाऊँगी। तुम उससे व्यापार करो और जब तुम्हारे पास व्यापार से पैसा आ जाए तो मुझे फिर खरीद लेना।

नूरुद्दीन ने रोते हुए कहा, एक तो मैं तुम्हें अपनी जान से ज्यादा चाहता हूँ फिर मैंने पिता को उनके अंत समय में वचन दिया है कि किसी भी दशा में तुम्हें नहीं बेचूँगा। हुस्न अफरोज ने कहा, प्रियतम, तुम ठीक कहते हो। मैं भी तुम्हें अपनी जान से ज्यादा चाहती हूँ। किंतु हमारे धर्म के अनुसार विपत्ति पड़ने पर प्रतिज्ञा तोड़ी भी जा सकती है। जैसी विपत्ति तुम पर है उसमें तुम और क्या कर सकते हो।

अब नूरुद्दीन मजबूर हो कर हुस्न अफरोज को ले कर बाजार में गया। पुराने दलाल को बुला कर उसने कहा, कई वर्ष हुए मेरे पिता के हाथ तुमने एक फारस देश की दासी दस हजार अशर्फियों में बेची थी। अब मैं उसे बेचना चाहता हूँ। तुम उसके लिए खरीदार देखो। दलाल ने उसकी बात मान कर हुस्न अफरोज को एक मकान में बंद कर के बाहर ताला डाल दिया जैसे बिकनेवाले दास-दासियों के साथ करते हैं। फिर वह दासों को खरीदनेवाले व्यापारियों के पास गया। उन व्यापारियों ने कई देशों तथा यूनान, फ्रांस, अफ्रीका आदि की दासियाँ मोल ले रखी थीं।

दलाल ने उन से कहा, तुम लोगों ने देश-देश की दासियाँ ले रखी हैं किंतु मैं फारस देश की ऐसी दासी तुम्हें दिखाऊँगा जिसके सामने कोई नहीं ठहरेगी। तुम लोगों ने विद्वानों का यह कथन तो सुना ही होगा कि हर गोल चीज सुपारी नहीं होती, हर चपटी चीज अंजीर नहीं होती, हर लाल चीज मांस नहीं होती और हर सफेद चीज अंडा नहीं होती। इसी तरह यह दासी जो चीज है वह कोई और दासी नहीं हो सकती।

दलाल के साथ जा कर व्यापारियों ने हुस्न अफरोज को देखा। वे कहने लगे कि इसमें संदेह नहीं कि ऐसी सुंदर और बुद्धिमती दासी हमने और कहीं नहीं देखी लेकिन हम सब मिल कर इसे खरीदेंगे और इसका मोल चार हजार अशर्फी लगाएँगे, इससे अधिक देना हमारे वश की बात नहीं है। यह कह कर वे मकान के बाहर आ कर खड़े हो गए। दलाल भी मकान बंद करने के बाद सौदेबाजी करने के लिए उनके पास आया। इसी बीच दुष्ट मंत्री सूएखाकान की सवारी उधर से निकली। उसने पूछा कि यह भीड़ कैसी है। दलाल ने कहा कि यह सब एक दासी लेने के लिए आए हैं और उसका मोल चार हजार अशर्फी लगा रहे हैं। सूएखाकान ने कहा, मुझे भी एक अच्छी लौंडी चाहिए। तुम मुझे वह दासी दिखाओ।

दलाल ने वजीर को मकान में ले जा कर हुस्न अफरोज को दिखाया। वजीर ने कहा कि मैं चार हजार अशर्फी इसके लिए दूँगा, अगर कोई और इससे अधिक लगाए तो ले जाए। लेकिन इसके साथ ही उसने संकेत ही से सारे व्यापारियों से कह दिया कि खबरदार इसका अधिक मूल्य न लगाना इसलिए वे चुपचाप खड़े रहे। दलाल ने कहा, मैं इसके मालिक को जा कर बताता हूँ कि आपने इसके लिए चार हजार अशर्फियों का दाम लगाया है। अगर वह इस मूल्य पर बेचने को तैयार हो तो आप निस्संदेह दाम दे कर इसे अपने घर ले जाएँ।

इसके बाद दलाल नूरुद्दीन के पास आ कर बोला, मुझे खेद है कि आपकी दासी उचित से कम मूल्य पर बिक रही है। मैंने व्यापारियों को उसे दिखाया तो वे उसका चार हजार अशर्फी मूल्य देने को तैयार हो गए। मैं इस फिक्र में था कि कुछ देर और प्रतीक्षा करूँ, संभव है कोई आदमी उसका पाँच छह हजार देने के लिए तैयार हो जाए। उसी समय वजीर सूएखाकान की सवारी निकल रही थी। भीड़ देख कर उसने पूछा कि क्या बात है। यह मालूम होने पर कि एक अच्छी दासी बिक रही है उसने उसे देखना चाहा और देखने पर उसके लिए चार हजार अशर्फियाँ लगा दीं।

साथ ही अन्य व्यापारियों को भी इशारा कर दिया कि इससे अधिक दाम न लगाना। अब बोलो, तुम क्या कहते हो?

नूरुद्दीन ने कहा, सूएखाकान हमारे कुटुंब का पुराना दुश्मन है। मुझे यह बिल्कुल मंजूर नहीं कि किसी भी कीमत पर उसके हाथों अपनी प्रिय दासी बेचूँ। दलाल ने कहा, वैसे तो वही उसके कुछ अधिक दाम लगा सकता है और मैं उसके हाथ दासी बेचने को विवश हो जाऊँगा। लेकिन अगर तुम वास्तव में उसे किसी दाम पर न बेचना चाहो तो सिर्फ एक तरकीब है। मैं उसे वजीर के हाथ में देने लगूँ तो तुम उसी समय आ जाना और दासी के मुँह पर झूठ-मूठ का थप्पड़ मार कर उसे अपनी ओर घसीट लेना और कहना कि मुझे एक बात पर इस दासी पर क्रोध आ गया था और मैंने प्रतिज्ञा की थी कि बाजार में खड़े-खड़े तेरा सौदा कर दूँगा। वह सौदा हो गया और मेरी प्रतिज्ञा पूरी हो गई। अब मैं इसे बेचना नहीं चाहता और किसी दाम पर भी इसे नहीं बेचूँगा। नूरुद्दीन ने दलाल की बात बड़ी खुशी से मंजूर कर ली और चुपके-चुपके उसके पीछे दास-दासियों के बाजार में पहुँच गया।

जिस समय दलाल दासी का हाथ सूएखाकान के हाथ में देने लगा तभी नूरुद्दीन बीच में आ गया। हुस्न अफरोज का दूसरा हाथ पकड़ कर उसने अपनी ओर उसे खींचा और उसके मुँह पर दो तमाचे हलके से मार कर कहा, तू जाती कहाँ है? वह तो तेरी बदतमीजी और आज्ञा न मानने पर मैंने तूझे बेच देने को कहा था। अब तेरी बिक्री हो चुकी। तू सीधी तरह से घर चल। यह कह कर नूरुद्दीन उसे घसीटता हुआ अपने घर की ओर ले चला। सूएखाकान कुछ देर तक इस आकस्मिक घटना के कारण स्तंभित-सा रहा क्योंकि उसे यह भी नहीं मालूम था कि लौंड़ी नूरुद्दीन की संपत्ति है। फिर वह अपमान के कारण क्रोध में जल उठा और घोड़ा दौड़ा कर उसने रास्ते में नूरुद्दीन को जा पकड़ा।

उसने नूरुद्दीन के एक कोड़ा मारना चाहा लेकिन नूरुद्दीन पहले से होशियार था। उसने कोड़े का वार बचा कर सूएखाकान का हाथ पकड़ कर उसे घोड़े से नीचे खींच लिया। अब दोनों में मल्लयुद्ध होने लगा। वजीर बूढ़ा था और नूरुद्दीन जवान। उसने वजीर को उठा-उठा कर कई बार जमीन पर पटका और खूब रगड़े दिए। बाजार के सारे लोग तमाशा देखने खड़े हो गए। चूँकि सभी सूएखाकान से नाराज थे इसलिए सभी चुपचाप उसकी दुर्दशा देखते रहे और किसी ने सूएखाकान की सहायता नहीं की। यहाँ तक कि जब वजीर के नौकर बचाने के लिए बढ़े तो वहाँ उपस्थित लोगों ने उन्हें यह कह कर रोक दिया, तुम लोग इन दोनों के बीच में न पड़ो। तुम्हें मालूम नहीं कि यह नौजवान भी मंत्री-पुत्र है, दिवंगत मंत्री खाकान का पुत्र है। इसलिए वे भी डर कर रुक गए।

नूरुद्दीन ने बूढ़े वजीर की दुर्गति कर दी। उसके शरीर से कई जगह खून निकल आया और उसके सारे वस्त्र और शरीर के सारे अंग खून और मिट्टी से सन गए और वह बेदम-सा हो कर एक ओर गिर रहा। नूरुद्दीन हुस्न अफरोज को ले कर अपने घर को चला गया। सूएखाकान वैसे ही लहू और मिट्टी से सने कपड़े और बदन ले कर हाकिम जुबैनी के पास पहुँचा। उसे वजीर को ऐसी दशा में देख कर आश्चर्य हुआ और वह बोला, तुम्हें किसने मारा? सूएखाकान ने हाथ जोड़ कर कहा, सरकार, पुराने मंत्री खाकान के बेटे नूरुद्दीन ने मेरी यह दुर्दशा की है। जुबैनी ने विस्तृत विवरण चाहा तो सूएखाकान ने कहा -

'मैं आज बाजार की तरफ से निकला तो एक जगह भीड़ देखी। पूछने पर मालूम हुआ कि एक दासी बिक रही है। मुझे भी गृह-कार्य के लिए एक दासी की जरूरत थी इसलिए मैं भी रुक गया। दासी के देखने पर मुझे वह आपकी सेवा के उपयुक्त मालूम हुई इसलिए मैंने चार हजार अशर्फी पर उसका सौदा कर लिया। इतने में नूरुद्दीन आ गया और बोला कि मैं अपनी दासी तुम्हारे हाथ नहीं बेचूँगा। मैंने उसे बहुत समझाया कि मैं यह दासी अपने लिए नहीं बल्कि हाकिम के लिए खरीद रहा हूँ लेकिन उसने मेरी एक न सुनी। आपको भी भला-बुरा कहा और मुझे मार-पीट कर दासी को ले गया।

'सरकार, आप को याद होगा कि तीन-चार बरस पहले आपने खाकान को दस हजार अशर्फियाँ एक सर्वगुण-संपन्न दासी खरीदने के लिए दी थीं। उसने इसी धन से यह दासी खरीद कर अपने बेटे को दे दी। तब से वह दासी उसी के पास है। पिता के मरने के बाद नूरुद्दीन ने अपनी सारी संपत्ति भोग-विलास में उड़ा दी। अब उसके पास अपने एक मकान और इस लौंडी के अलावा कुछ नहीं है। भूख से तंग आ कर वह अपनी उस दासी को बेच रहा था किंतु मुझ से दुश्मनी होने के कारण उसने मेरे साथ यह किया।'
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Jemsbond
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Re: अलिफ लैला की रहस्यमई कहानियाँ

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हाकिम जुबैनी को पुरानी बात याद आ गई और वह गुस्से में भर गया। उसने वजीर सुएखाकान को विदा किया और अपने एक सरदार को आज्ञा दी कि चालीस सिपाहियों को ले कर जाओ, नूरुद्दीन और उसकी दासी को बाँध कर यहाँ लाओ और उसके मकान को खुदवा कर भूमि को समतल कर दो। यह सरदार नूरुद्दीन के पिता से बड़ा उपकृत था। वह छुप कर अकेला उसके घर पर पहुँचा और उसे हाकिम की आज्ञा को बता कर कहा, यह चालीस अशर्फियाँ लो। इस समय मेरे पास इतना ही है। तुम तुरंत दासी को ले कर कहीं भाग जाओ वरना जान से हाथ धोओगे। मैं भी भागता हूँ, कोई मुझे यहाँ देख कर हाकिम से कह देगा तो मैं भी मारा जाऊँगा।

यह कह कर सरदार उसी तरह छुप कर चला गया। इधर नूरुद्दीन ने जा कर हुस्न अफरोज को यह सब बताया और उसे ले कर मकान के पिछवाड़े की दीवार फलाँग कर नदी के तट पर भागता हुआ पहुँचा। संयोग से उसी समय एक छोटा जहाज बगदाद जाने के लिए लंगर उठा रहा था। नूरुद्दीन और दासी के सवार होते ही जहाज ने लंगर उठा दिया और बगदाद को चल पड़ा।

उधर कुछ देर बाद वही सरदार अपने साथ सशस्त्र सैनिकों को ला कर नूरुद्दीन का दरवाजा ऐसे क्रोध से खटखटाने लगा जैसे वास्तव में उसे गिरफ्तार करने आया हो। दरवाजा न खुलने पर उसने उसे तुड़वा दिया और अंदर जा कर सिपाहियों को मकान की तलाशी लेने और नूरुद्दीन और उसकी दासी को पकड़ने की आज्ञा दी। सिपाहियों ने मकान में न कोई सामान पाया न कोई आदमी।

उसने पड़ोसियों से पूछा कि नूरुद्दीन कहाँ है। उनमें दो-एक को मालूम था कि वह पिछवाड़े से भाग गया है किंतु सभी लोग उसे चाहते थे इसलिए बोले कि हम लोगों को बिल्कुल नहीं मालूम कि वह कहाँ गया। सरदार ने हाकिम से जा कर सारा हाल कहा तो उसने कहा कि उसका घर गिरवा कर समतल कर दो। और शहर में मुनादी करवा दो कि जो नूरुद्दीन को पकड़ कर लाएगा उसे एक हजार अशर्फियों का इनाम मिलेगा और अगर कोई उसे या उसकी दासी को शरण देगा तो उसे तथा उसके कुटुंबियों को मृत्यु-दंड दिया जाएगा। अतएव ऐसा ही किया गया।

उधर नूरुद्दीन का जहाज बगदाद पहुँचा तो कप्तान ने यात्रियों को समझाया कि यह नगर अद्भुत है, यहाँ क्षण मात्र में गरीब अमीर बन जाता है और अमीर गरीब इसलिए यहाँ परदेशियों को सावधान रहना जरूरी है। खैर, बगदाद पहुँच कर अन्य व्यापारी तो अपने-अपने ठिकानों पर गए, नूरुद्दीन ने कप्तान को पाँच अशर्फियाँ किराए में दीं और हुस्न अफरोज को ले कर उतरा। उसके लिए यह नगर नितांत अपरिचित था और उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि किस जगह ठहरे। दोनों बहुत देर तक भटकने के बाद एक बाग में पहुँचे जो नदी के तट पर था और जिसका द्वार खुला था। यहाँ बहुत देर तक बाग के कुंड में हाथ-पाँव धोने और जल पीने के बाद वे एक दालान में जा बैठे। वे दोनों बहुत थक गए थे इसलिए लेट गए और लेटते ही सो गए।

यह बाग खलीफा हारूँ रशीद का था। वह इसमें रात को सैर के लिए आया करता था। उस बाग में रात दिन मोमबत्तियाँ जला करती थीं। उसमें एक विशाल बारहदरी थी जो इतनी ऊँची थी कि उसकी छत पर होनेवाली रोशनी सारे नगर में दिखाई देती थी। उस बारहदरी में अस्सी द्वार थे जिनके किवाड़ बिल्लौर के बने हुए थे। बाग के रक्षक का नाम शेख इब्राहिम था। उसकी अनुमति के बगैर कोई आदमी बाग में प्रवेश नहीं कर पाता था। उस दिन वह थोड़ी देर के लिए बाग का दरवाजा खुला छोड़ कर बाहर चला गया था। फिर उसे कुछ देर लग गई।

संध्याकाल निकल आने पर शेख इब्राहीम आया तो देखा कि कुंड के समीप की दालान में दो व्यक्ति मुँह पर महीन चादरें डाले सो रहे हैं। उसे बड़ा क्रोध आया और उसने इरादा किया कि डंडा उठा कर दोनों को पीटे। फिर यह सोच कर रुक गया कि शायद ये परदेशी हों, बगैर सोचे-विचारे इन्हें दंड देना ठीक नहीं है। पहले इनसे पूछूँ कि ये यहाँ क्यों और कैसे आए। उसने दोनों के मुँह की चादरें हटाईं तो देखा कि एक से बढ़ कर एक सुंदर स्त्री पुरुष हैं। उसने नूरुद्दीन का पाँव हिला कर उसे जगाया। उसने जाग कर देखा कि एक सफेद दाढ़ीवाला बूढ़ा मौजूद है तो उसने फौरन उठ कर उसके हाथ चूमे और अदब से सलाम किया और बोला, पिताजी, मेरे लिए क्या आज्ञा है? रक्षक उसके विनय से प्रभावित हो कर बोला, बेटे, तुम कौन हो? कहाँ से आए हो? नूरुद्दीन ने कहा, हम लोग परदेशी हैं। हम यहाँ किसी को नहीं जानते। आप कृपया हमें रात भर यहाँ रहने की अनुमति दें, सवेरा होते ही हम चले जाएँगे।

बूढ़ा और प्रभावित हुआ। कहने लगा, यहाँ सोने में तुम्हें कष्ट होगा। तुम मेरे साथ चलो। मैं तुम्हें ऐसी जगह ठहराऊँगा जहाँ तुम आराम से सो सको। वहाँ से इस सारे बाग की सैर भी कर सकते हो। नूरुद्दीन ने पूछा, क्या यह बाग आप का है? उसने मुस्कुरा कर कहा, हाँ, यह मेरे बाप की जायदाद है। फिर उसने बाग की एक और आरामदह इमारत में उन्हें ठहराया जहाँ से सारा बाग दिखाई देता था। उसने उन्हें वहाँ की और भी इमारतें दिखाईं। फिर नूरुद्दीन ने रक्षक के हाथ में दो अशर्फियाँ रखीं और कहा कि इससे हम लोगों के लिए सुस्वाद भोजन मँगा दीजिए। बूढ़े ने सोचा कि बहुत अच्छा हुआ कि मैंने ऐसे धनी और सुसंस्कृत आदमी को नहीं मारा। इन अशर्फियों से तो बढ़िया से बढ़िया खाना लाने पर भी मेरे पास बहुत-कुछ बचा रहेगा। अतएव वह उन्हें बाग की बारहदरी में बिठा कर भोजन लाने चला गया। इधर नूरुद्दीन ने चाहा कि ऊपर जा कर सैर करे किंतु जा कर देखा कि जीने में ताला जड़ा था।

बाग का रक्षक भोजन लाया तो नूरुद्दीन ने कहा कि हम ऊपर जा कर भी देखना चाहते हैं, क्या आप हमें दिखा सकेंगे? दरोगा ने ताली निकाल कर ताला खोल दिया। वे दोनों ऊपर जा कर बहुत खुश हुए। नूरुद्दीन ने कहा कि आप कृपा कर के हम लोगों को यहीं सोने की अनुमति दे दीजिए।

उसने यह भी कहा कि आप भी हमारे साथ भोजन करें और यहीं आराम करें। बूढ़े ने सोचा कि आज खलीफा तो आनेवाले हैं नहीं, आनेवाले होते तो अब तक संदेश भिजवा देते। उसने यह भी सोचा कि ऐसे उदार आदमी की बात नहीं टालनी चाहिए। इसलिए वह न केवल उन्हें स्थान देने पर राजी हो गया अपितु उसने खलीफा के लिए रखे हुए जड़ाऊ बरतनों में उन्हें भोजन परोसा। सब लोग खाना खा कर हाथ धो चुके तो नूरुद्दीन ने कहा, कुछ पीने को भी मिल सकता है?

रक्षक ने कहा, मैं शरबत ला सकता हूँ लेकिन शरबत खाने के पहले पिया जाता है, बाद में नहीं। नूरुद्दीन बोला, आप ठीक कहते हैं लेकिन मेरा मतलब शरबत से नहीं था, अंगूरी शराब से था। उद्यान-रक्षक ने कहा, देखो इस्लाम में शराब हराम है। फिर मैं तो चार बार हज कर आया हूँ, मैं तो शराब पीना क्या उसे हाथ से भी नहीं छू सकता। बल्कि मैंने कभी शराब देखी भी नहीं है। नूरुद्दीन ने कहा, मैं एक तरकीब बताता हूँ। बाग की खाई के पास एक गधा बँधा है। उसे ले आइए। मैं रूमाल में एक अशर्फी बाँध कर उसकी पीठ पर रख दूँगा। आप उसे हाँकते हुए शराबखाने तक ले जाएँ और शराबखाने के मालिक को इशारे से अशर्फी दिखा दें। वह समझ जाएगा और अशर्फी ले कर शराब की मटकियाँ गधे पर लाद देगा। फिर आप गधे को यहाँ ले आएँ। यहाँ हम वे पात्र उतार लेंगे। आपको शराब छूने या मुँह से माँगने की जरूरत ही नहीं पड़ेगी।

बूढ़े को इसमें कोई बुरी बात नहीं दिखाई दी। उसने वही किया जो नूरुद्दीन ने कहा था। गधे के वापस आने पर नूरुद्दीन ने मटकियाँ गधे से उतार कर रखीं और बूढ़े से कहा, आपने हम लोगों पर बड़ी कृपा की है, अब थोड़ी और दया कीजिए। दो-तीन गिलास और शराब के साथ खाने के लिए कुछ फल ले आइए। बाग के रक्षक दारोगा ने यह चीजें भी ला कर दीं और साफ कपड़ा जमीन पर बिछा कर उस पर फल काट कर तश्तरियों में रख दिए और गिलास भी। यह कर के वह कुछ दूर जा बैठा ताकि कहीं यह लोग मुझ से भी मदिरा पान के लिए न कहें।

जब दोनों को शराब पी कर नशा आ गया तो नूरुद्दीन ने हुस्न अफरोज से कहा कि हम लोग कितने भाग्यवान हैं कि इस निपट अनजाने शहर में भी हमें ऐसी सुंदर जगह ठहरने को मिली है। फिर वे दोनों गाने लगे। उनका गाना सुन कर दारोगा खुश हुआ और कुछ पास आ कर गाना सुनने लगा। नूरुद्दीन ने उससे कहा, दारोगा साहब, आप बहुत अच्छे आदमी हैं। आप भी हमारे इस आनंद में शामिल हो जाएँ। मैं आपकी प्रशंसा में कसीदा सुनाऊँगा। दारोगा ने हँस कर कहा, आप दोनों के आनंद से मुझे काफी आनंद आ रहा है, अब और आनंद क्या चाहिए। यह कह कर वह फिर दूर जा बैठा।

हुस्न अफरोज ने नूरुद्दीन से कहा, आप कहें तो में इस बूढ़े कर्मकांडी को भी शराब पिला दूँ।

उसने कहा, ऐसा हो जाए तो बड़ा मजा आएगा। हुस्न अफरोज बोली, आप उसे बुला कर अपने हाथ से शराब का गिलास दें। वह पी ले तो ठीक है वरना आप खुद उस गिलास को पी कर चारपाई पर लेट कर सोने का बहाना करना। फिर देखो मैं इसे किस तरह राह पर लाती हूँ। नूरुद्दीन ने यह मान लिया।

नूरुद्दीन ने दारोगा को आवाज दे कर कहा, बुजुर्गवार, यह अच्छा नहीं लगता कि आप जीने में बैठे रहें और हम यहाँ चाँदनी का आनंद लें। हम कोई जबरदस्ती तो आपको पिला नहीं देंगे। आप कृपया यहाँ आ कर इस सुंदरी के बगल में बैठें। बूढ़ा यह सुन कर खुश तो हुआ कि ऐसी सुंदरी के पास बैठने को मिलेगा किंतु प्रकटतः नाक-भौं चढ़ाता हुआ आया और हुस्न अफरोज के बगल में बैठ गया। नूरुद्दीन ने इशारा किया तो हुस्न अफरोज ने सुंदर गाना आरंभ किया। गाना खत्म होने पर नूरुद्दीन ने एक गिलास भर कर दारोगा को दिया और कहा कि अगर आप गाने से खुश हैं और इसका इनाम देना चाहते हैं तो यह गिलास तो पी ही लें।

बूढ़े ने कहा, मैं पहले ही आपको अपनी मजबूरी बता चुका हूँ। वरना आपकी बात क्यों टालता? नूरुद्दीन ने कहा, जैसी आपकी इच्छा। यह कह कर वह गिलास को खुद पी गया। अब हुस्न अफरोज ने एक सेब के दो टुकड़े किए और एक टुकड़ा वृद्ध की ओर बढ़ा कर बोली, शराब नहीं पीते तो फल तो लीजिए, इसे खाने से तो धर्म नहीं रोकता। बूढ़े ने धन्यवाद सहित सेब ले लिया और उसे खाने लगा। हुस्न अफरोज ने फिर गाना शुरू किया। अब बूढ़े पर हुस्न अफरोज का जादू चढ़ने लगा था। नूरुद्दीन पलंग पर जा कर सोने का बहाना करने लगा।

गाना खत्म होने पर हुस्न अफरोज ने शिकायत के स्वर में बूढ़े से कहा, देखिए, इनकी कैसी बुरी आदत है। दो गिलास पी कर ही नींद की गोद में चले जाते हैं। मैं अकेली रह जाती हूँ। अब कृपया आप मुझे अकेला न छोड़ें, मेरे और पास आ कर बैठ जाएँ। बूढ़ा तो उसके नयन-शर से पहले ही बिंध चुका था, वह उसके पास जा बैठा। हुस्न अफरोज समझ गई कि अब इसे पिलाई जा सकती है। उसने शराब का एक गिलास भर कर उसकी ओर बढ़ा कर कहा, देखिए, आपको मेरे सिर की कसम है, इससे इनकार न कीजिए। इसके पीने से जो पाप आप पर पड़ेगा वह मैं अपने सिर लेती हूँ। यह कह कर उसने हाव-भाव के साथ गिलास उसके मुँह से लगा दिया। बूढ़ा उसे पी गया और बचा हुआ आधा सेब भी खा गया। हुस्न अफरोज ने दूसरा गिलास बढ़ाया तो उसने बगैर हिचके पी लिया। इसके बाद उसे नशा चढ़ा तो वह खुद अपने हाथ से भर-भर कर कई गिलास पी गया। इतने में नूरुद्दीन भी पलँग से उठ कर आया और मुस्कुरा कर बोला, बड़े मियाँ, तुम तो बड़े परहेजगार थे, अब क्या हो गया। बूढ़ा ठठा कर हँसा और कहने लगा, मैंने पी कहाँ है, यह तो तुम्हारी साथिन ने जबर्दस्ती मुझे पिलाई है। इसी तरह वे लोग हँसी-खुशी के साथ आधी रात तक बैठे-बैठे मदिरापान करते रहे।

जब दारोगा को काफी नशा चढ़ गया तो हुस्न अफरोज ने कहा कि अब अँधेरा डरावना लगता है, कहो तो शमादान (मोमबत्तियों के पात्र) जला दूँ। बूढ़े ने कहा, अच्छा, यही चाहती हो तो जला लो लेकिन दो-चार ही जलाना। किंतु हुस्न अफरोज ने वहाँ के सारे ही शमादान जला दिए।

बूढ़ा नशे में था और हुस्न अफरोज के सौंदर्य से मस्त भी। उससे हुस्न अफरोज ने पूछा, कहिए तो जीने के शमादान भी जला दूँ ताकि किसी आने-जानेवाले को कष्ट न हो। बूढ़े ने बगैर समझे-बूझे इस की भी अनुमति दे दी। वह इस समय हुस्न अफरोज की हर बात मानने को तैयार था।

खलीफा हारूँ रशीद उस दिन देर तक राज-काज में लगा रहा था। आधी रात को उसकी इच्छा हुई कि बाग में जा कर थकन मिटाए। महल से उसने देखा तो बाग की बारहदरी के ऊपर प्रकाश-पुंज दिखाई दिया क्योंकि हुस्न अफरोज ने सारे शमादान जला दिए थे। उसने अपने मंत्री जाफर से कहा, समझ में नहीं आता। मैं तो यहाँ हूँ, इस बाग की बारहदरी में रोशनी किसने करवाई है। जाफर की समझ में भी कुछ न आया लेकिन वह दिल का अच्छा आदमी था। बाग के दारोगा को बचाने के लिए झूठ बोल गया, बाग के दारोगा ने एक मानता मानी थी और कहा था कि यह पूरी होगी तो अपने मित्रों को दावत दूँगा। उसने आज दावत दी होगी।
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Re: अलिफ लैला की रहस्यमई कहानियाँ

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खलीफा को इस बात पर विश्वास न हुआ, उसने खुद भी साधारण नागरिक के वस्त्र पहने और जाफर तथा अपने प्रधान अंगरक्षक मसरूर को भी पहनवाए और उन दोनों को ले कर चुपके से बाग की ओर चला। वहाँ जा कर देखा कि बाग का बाहरी द्वार खुला है। उसे दारोगा की असावधानी पर रोष हुआ और वह कहने लगा कि यह दरवाजा क्यों खुला है? जाफर इसका क्या जवाब देता। फिर खलीफा इन लोगों को बाग में बिठा कर खुद चुपचाप जीने पर चढ़ कर छत का तमाशा देखने लगा। उसने देखा कि एक अति सुंदर युवक के साथ एक अनिंद्य सुंदरी बैठी है और दारोगा शराब का गिलास उस स्त्री को देते हुए कह रहा है, हे परमसुंदरी, मैंने अभी जी भर कर तुम्हारा गाना नहीं सुना। एक गाना सुनाओ। इसके बाद मैं भी तुम्हें गाना सुनाऊँगा। किंतु वह स्त्री का गाना सुनने के बजाय खुद गाने लगा। स्पष्ट था कि उसे गाना नहीं आता था, यूँ ही रेंक रहा था।

खलीफा को यह देख कर आश्चर्य हुआ। उसने सोचा कि इस दारोगा को क्या हो गया, यह तो बड़ा सदाचारी था। वह चुपके से उतरा और मंत्री जाफर को साथ ला कर उसे इशारे से दिखाया कि यहाँ क्या हो रहा है। उसने कहा, सरकार, मैं तो कुछ समझ नहीं पाया। खलीफा ने कहा, मैं इन सब को कड़ा दंड दूँगा किंतु यदि इस सुंदरी ने अच्छा गाया तो क्षमा कर दूँगा। वे दोनों छुप कर सुनने लगे। बूढ़े ने कहा, कुछ ऐसा गाओ कि जी खुश हो जाए। हुस्न अफरोज बोली, यहाँ बाँसुरी होती तो मैं वह गाना सुनाती कि तुम भी याद करते। अगर मिल सके तो बाँसुरी लाओ।

बूढ़ा झूमता हुआ उठा और एक कोठरी खोल कर उसमें से बाँसुरी निकाल लाया। हुस्न अफरोज बाँसुरी बजाने लगी। खलीफा ने मंत्री से कहा, यह स्त्री तो बड़ी अच्छी बाँसुरी बजाती है। इस कारण मैंने इसका अपराध क्षमा किया और उसके कारण उसके साथी को भी। किंतु बूढ़े की हरकत प्रशासन की बात है और तुम्हारी जिम्मेदारी है, इसलिए तुम जरूर फाँसी पाओगे। मंत्री ने कहा, भगवान करता कि वह बुरा बजाती। खलीफा ने कहा, तुम यह बात क्यों कर रहे हो।

मंत्री बोला, अगर ऐसा होता तो यह दोनों मारे जाते और इन दोनों के साथ मरने में सुख मिलता। खलीफा इस चतुराई के उत्तर से हँस पड़ा।

हुस्न अफरोज ने बार-बारी से बाँसुरी और गले से वही राग निकाला तो खलीफा लोट-पोट हो गया। वह संगीत का अच्छा मर्मज्ञ था। उसने इस डर से कि जीने ही में कहीं उससे वाह-वाह न निकल जाए, मंत्री के साथ चुपचाप नीचे उतर आया और बोला, भाई, यह स्त्री तो गाने और बजाने दोनों में अद्वितीय है। हमारा दरबारी गवैया गाने- बजाने में विश्वविख्यात है किंतु इसके सामने वह अनाड़ी बच्चा मालूम होता है। मैं चाहता हूँ कि पास से जा कर इसका गायन-वादन सुनूँ किंतु मेरी समझ में नहीं आ रहा है कि यह बात कैसे हो।

मंत्री ने कहा, आपकी बात बिल्कुल ठीक है। अगर आप उन लोगों के सामने गए तो दारोगा आपको इन साधारण वस्त्रों में भी पहचान लेगा और डर के मारे ही मर जाएगा। और यह दोनों भी आप के डर से गाना-बजाना भूल जाएँगे। खलीफा ने कुछ सोच कर कहा, तुम मसरूर के साथ बाग में बैठो। मैं बाहर जा रहा हूँ। मेरे लौटने तक प्रतीक्षा करो।

खलीफा ने बाग से निकलते ही देखा कि एक मछवाहा चार-पाँच बड़ी-बड़ी मछलियाँ ले कर नदी की ओर से आ रहा है। खलीफा ने उसे रोक कर कहा कि मुझे दो अच्छी मछलियाँ बेच दो। मछवाहे ने खलीफा को साधारण वस्त्रों में भी पहचान लिया और डर के मारे काँपने लगा। खलीफा ने कहा, तुम डरो नहीं। मैं तुम्हें अच्छा इनाम दूँगा। लेकिन तुम मेरे यह कपड़े पहन लो और अपने कपड़े मुझे दे दो और चुपचाप घर चले जाओ। उसने ऐसा ही किया। खलीफा उसके कपड़े पहन कर दो बड़ी मछलियाँ ले कर बाग में आ गया।

जाफर और मसरूर उसे इस वेश में देख कर पहचान न सके। मंत्री ने समझा कि यह मछवाहा बेवक्त कुछ इनाम माँगने आया है। उसने झिड़क कर उससे भाग जाने के लिए कहा। इस पर खलीफा खिलखिला कर हँस पड़ा। अब मंत्री ने गौर से देखा तो उसे पहचान गया और क्षमा माँगने लगा कि आपको पहचान न पाने पर ऐसी भूल हुई। उसने कहा, जब मैं ही इस वेश में आपको पहचान नहीं सका तो और कोई क्या पहचानेगा। अब आप बेधड़क बारहदरी की छत पर जाएँ और जी भर कर उस सुंदरी का गाना सुनें।

खलीफा मछवाहे के वेश में और दो मछलियाँ लिए हुए ऊपर गया और दरवाजा खटखटाया। दारोगा ने पूछा, कौन है? खलीफा ने दरवाजा खोल कर बहुत झुक कर सलाम किया ताकि पहचाना न जाए। फिर वह बोला, मैं करीम मछवाहा हूँ। मैंने सुना है कि आपने अपने मित्रों की दावत की है। इसलिए मैं आपकी सेवा में दो बहुत ही उत्तम मछलियाँ लाया हूँ ताकि आप मेहमानों को भली भाँति संतुष्ट कर सकें। दारोगा ने नशे में खलीफा को बिल्कुल न पहचाना और बोला, तुम मछवाहे हो या चोर? रात में इस तरह घूमते हो? खैर, यहाँ आओ और दिखाओ कि क्या लाए हो।

खलीफा मछलियाँ ले गया तो हुस्न अफरोज को वे पसंद आईं। उसने दारोगा से कहा कि इन्हें भुनवा दीजिए तो मजा आ जाए। दारोगा ने हुक्म दिया, करीम, फौरन बावरचीखाने में जाओ और यह मछलियाँ भून लाओ। खलीफा बोला, बहुत अच्छा सरकार। यह कह कर नीचे आया और जाफर और मसरूर से कहा कि इन मछलियों को साफ कर के भूनना है। जाफर पाक-शास्त्र में निपुण था। चुनांचे तीनों बावरचीखाने में गए और तेल, मसाला आदि ढूँढ़ कर मछलियों को साफ कर के उन्हें अच्छी तरह प्रकार से भूना। उन्होंने कुछ नींबू भी काट कर मछली के टुकड़ों के साथ थालियों में सजा दिए और उन्हें ऊपर ले गए। उन तीनों ने स्वाद ले ले कर मछलियाँ खाईं क्योंकि जाफर ने बहुत स्वादिष्ट मछलियाँ बनाई थीं। हुस्न अफरोज ने कहा, वास्तव में मैंने जीवन में ऐसी स्वादिष्ट मछलियाँ नहीं खाई थीं। नूरुद्दीन को भी मछलियाँ पसंद आईं। फिर हुस्न अफरोज की प्रशंसा से उस पर और असर पड़ा। उसने अशर्फियों की थैली निकाली और मछवाहा बने हुए खलीफा को दे कर कहा, देखो भाई, मेरे पास जो कुछ था वह सब मैंने तुम्हें दे डाला। काश, तुम मेरे पास पहले आए होते जब मैं वास्तव में इनाम देने की हालत में था। तब तुम देखते कि में किस तरह खुश होने पर इनाम दिया करता हूँ। अभी जो मिला है उसी से संतोष करो।

खलीफा ने थैली खोली तो देखा कि उसमें चौबीस अशर्फियाँ हैं। उसे आश्चर्य हुआ कि यह कौन ऐसा मनचला है कि पकी हुई मछलियों के लिए चौबीस अशर्फियाँ दिए डाल रहा है। उसने कहा, मालिक, भगवान आप को युगों-युगों तक कुशलतापूर्वक और प्रसन्नतापूर्वक रखे। मैंने अपने सारे जीवन में आप जैसा दानवीर नहीं देखा। अब आप नाराज न हों तो एक निवेदन करूँ। मैंने आपकी सुंदरी साथिन के पास बाँसुरी रखी देखी है। मालूम होता है कि इसे बाँसुरी बजाने का शौक है। मुझे भी संगीत सुनना बहुत अच्छा लगता है। आप आज्ञा दें तो मैं भी दो मिनट बैठ कर इनकी वादन कला देख लूँ और फिर आप लोगों को आशीर्वाद देता हुआ अपने घर चला जाऊँ।

नूरुद्दीन उदारता की धुन में तो था ही। उसने हुस्न अफरोज से कहा, चलो इस बेचारे को भी कुछ सुना दो। इसे कहाँ गाना-बजाना सुनने को मिलता होगा। हुस्न अफरोज पर भी शराब का नशा खूब चढ़ा था, साथ ही सुस्वादु मछलियाँ खा कर वह भी बहुत प्रसन्न थी। उसने सोचा कि मैं अपना पूरा कमाल दिखाऊँ। उसने बाँसुरी उठाई और एक साथ ही बाँसुरी और मुँह से एक ही राग इस कौशल के साथ निकाला कि दोनों में एक स्वर का भी अंतर नहीं था। खलीफा ने बहुत प्रशंसा की। फिर उसने खाली बाँसुरी पर एक बड़ा कठिन राग निकाला।

खलीफा ने जी खोल कर प्रशंसा की। उसने कहा, मालिक, मैंने ऐसी गुणवंती नारी कभी नहीं देखी। इनमें संगीत निपुणता भी है और अमृत जैसा कंठ भी। ऐसा गुणज्ञ संसार भर में कोई न होगा। आप धन्य हैं कि आपको ऐसी अनिंद्य सुंदरी और ऐसी गुणवंती साथिन मिली है।

नूरुद्दीन की आदत थी कि अगर कोई उसकी चीज की बहुत प्रशंसा करता था तो वह चीज उसी को दे देता था। हुस्न अफरोज उसकी दासी थी। उसने कहा, अगर यह नारी तुम्हें ऐसी ही पसंद है तो इसे ले जा सकते हो। मैंने इसे तुम्हें दे डाला। तुम संगीत मर्मज्ञ जान पड़ते हो, इसकी अच्छी कद्र करोगे।

हुस्न अफरोज को बड़ी परेशानी हुई कि ऐसे सुंदर मालिक के बजाय मछवाहे के साथ रहना पड़ेगा। नूरुद्दीन उठ कर चलने लगा था। हुस्न अफरोज ने आँसू भर कर कहा, मालिक, चलते-चलते मेरा एक और गीत तो सुनते जाओ। नूरुद्दीन रुक गया। हुस्न अफरोज ने छुप कर आँसू पोंछे और एक सद्यःरचित वियोग गीत गाने लगी जिसका अर्थ यह था कि मुझे अपने पास ही रखो, मछवाहे के हाथ में न दो। नूरुद्दीन ने उसका भाव तो समझ लिया किंतु वह विवश हो कर चुप बैठा रहा, दी हुई चीज के लिए कैसे कहता कि मैं इसे नहीं दूँगा।

खलीफा ने आश्चर्य से पूछा, यह स्त्री आपकी दासी है? उसके स्वर में सहानुभूति पाई तो नूरुद्दीन ठंडी साँस भर कर कहने लगा, करीम, तुम इतने पर क्या आश्चर्य करते हो। मेरी पूरी कहानी सुनो तो वास्तव में आश्चर्य में पड़ जाओगे। यह कह कर उसने सारा किस्सा उसे बताया।

मछवाहे बने हुए खलीफा ने कहा, अब आप कहाँ जाएँगे, क्या करेंगे? नूरुद्दीन ने कहा, जो भी भगवान चाहेगा वही होगा। खलीफा ने कहा, आप कहीं न जाएँ, वापस बसरा चले जाएँ। मैं वहाँ के हाकिम को एक छोटा-सा पत्र लिखे देता हूँ। वह जुबेनी को दे देना। इसके बाद तुम्हारे सारे दुख दूर हो जाएँगे।

नूरुद्दीन ठठा कर हँस पड़ा। बोला, भाई, तेरा दिमाग तो ठीक है? कहाँकहाँ राजा और कहाँ रंक।। जुबैनी तेरे पत्र पर क्या ध्यान देगा? खलीफा ने कहा, आप जानते नहीं। जुबैनी मेरा बचपन का साथी है। वह कई बार मुझे मंत्री बनाने के लिए बुला चुका है किंतु मैं उसका अहसान लेने के बजाय पैत्रिक धंधा करना पसंद करता हूँ। नूरुद्दीन इस पर पत्र लेने को तैयार हो गया। खलीफा ने कलम और कागज ले कर इस प्रकार का पत्र लिखा :

मैं मेहँदी का पुत्र खलीफा हारूँ रशीद अपने चचेरे भाई जुबैनी को, जो बसरा का हाकिम है, यह आदेश देता हूँ कि इस पत्र को देखते ही मंत्री खाकान के पुत्र नूरुद्दीन को, जिसके हाथों यह पत्र जा रहा है, अपनी जगह बसरा का हाकिम बनाओ और शासन की कुरसी पर बिठाओ। इस आज्ञा का रंचमात्र भी उल्लंघन नहीं होना चाहिए। यह लिख कर खलीफा ने पत्र बंद किया और जाफर को दिया। उसने चुपचाप खलीफा की मुहर उस पर लगा दी। फिर वह पत्र नूरुद्दीन को दे दिया।

यह ज्ञात रहे कि खलीफा जिस समय मछली भूनने गया था उसी समय उसने मसरूर से कहा था कि मेरे लिए राजमहल से राजसी पोशाक ले आना। वह पोशाक आ गई थी। खलीफा ने यह भी कहा था कि तुम जीने पर प्रतीक्षा करना और जब मैं जीने के दरवाजे पर हाथ मारूँ तो तुम सिपाहियों के साथ पोशाक ले कर छत पर आ जाना।

इधर बूढ़ा दारोगा नशे की हालत में यह सब देख रहा था। नूरुद्दीन जब पत्र ले कर गया तो हुस्न अफरोज भी उसके पीछे रोती हुई जीने के दरवाजे तक गई और फिर लौट आई। दारोगा ने खलीफा से कहा, करीम, तू एक-दो कौड़ी का मछवाहा है। तेरी दो मछलियों का मूल्य दो-चार आने से अधिक नहीं। इनके बदले में तूने इतनी अशर्फियाँ और ऐसी सुंदर और गुणवंती दासी पाई। तू यह सब अकेले हजम नहीं कर सकेगा। इनमें से आधा मुझे दे दे वरना मैं तुझे बड़ी मुसीबत में फँसा दूँगा। खलीफा ने कहा, मुझे थैली में नहीं मालूम अशर्फियाँ हैं या कुछ और। चलो जो भी होगा आधा-आधा बाँट लेंगे। लेकिन तुम इस लौंडी में हिस्सा पाने की आशा छोड़ दो। यह मुझे मिली है और मैं इसे अपने पास रखूँगा। अब इसमें चाहे आप खुश हों या नाखुश।

दारोगा नशे में तो था ही, तथाकथित मछवाहे की इस बात पर उसे इतना क्रोध आया कि उसने एक चीनी की तश्तरी फेंक कर खलीफा के सर पर मारी। खलीफा सिर टेढ़ा कर के चोट से बच गया और तश्तरी दीवार से टकरा कर टूट गई। दारोगा इस बात से और आगबबूला हुआ और रोशनी ले कर एक कोठरी में गया ताकि वहाँ से लकड़ी ला कर मछवाहे को मारे। इसी बीच खलीफा ने जीने के किवाड़ पर हाथ मारा। इस पर मसरूर और चार गुलाम छत पर आ गए। वहाँ एक छोटा सिंहासन भी पड़ा था। खलीफा राजसी वस्त्र पहन कर उस पर जा बैठा और उसके पीछे चारों गुलाम और बगल में एक ओर जाफर और दूसरी ओर मसरूर खड़े हो गए। बारहदरी की छत पर छोटा-मोटा दरबार लग गया।

उधर बूढ़ा एक मोटी लाठी ले कर आया और मछवाहे को ढूँढ़ने लगा। उसे मछवाहा न दिखाई दिया बल्कि खलीफा तख्त पर बैठा दिखाई दिया। वह आँखें मल-मल कर देखने लगा कि यह स्वप्न है या सत्य। कुछ क्षणों के बाद खलीफा बोला, बड़े मियाँ, क्या बात है? क्यों घबराहट में इधर-उधर देख रहे हो? अब बूढ़े ने पहचाना कि खलीफा ही मछवाहा बना हुआ था। वह उसके पाँवों पर गिर पड़ा और अपनी दाढ़ी खलीफा की जूतियों पर मल-मल कर अपने अपराध के लिए क्षमा माँगने लगा। खलीफा ने कहा, तुम्हारे एक नहीं, कई अपराध हैं। बाग को खुला छोड़ दिया, अजनबियों के साथ शराब पी, दूसरे को मिली चीज में हिस्सा बँटाने लगे और न मिलने पर मार-पीट पर उतारू हो गए। लेकिन मुझे तुम्हारे बुढ़ापे और तुम्हारे सारे जीवन के सदाचार का ख्याल है इसलिए मैं तुम्हारे सारे अपराध क्षमा करता हूँ। लेकिन आगे से होशियार रहना।

अब हुस्न अफरोज समझ गई कि यह बाग का मालिक स्वयं खलीफा है। उसे इस बात से बड़ा संतोष मिला कि किसी मछवाहे के हाथ नहीं दी गई। खलीफा ने उससे कहा, अब तो तुम्हें मालूम ही हो गया होगा कि मैं कौन हूँ। मैंने संसार भर में नूरुद्दीन से बढ़ कर बड़े दिलवाला कोई आदमी नहीं देखा जो केवल प्रशंसा करने पर अपनी सब से प्यारी चीज दे डाले। मैंने पत्र द्वारा उसे बसरा का हाकिम नियुक्त किया है। जब वह अपना काम सँभाल लेगा तो मैं तुम्हें भी उसके पास भेज दूँगा। तब तक तुम मेरे महल में रहोगी। यह सुन कर हुस्न अफरोज की खुशी का ठिकाना नहीं रहा। खलीफा उसे ले कर महल में आया। दूसरे दिन उसने हुस्न अफरोज को अपनी रानी जुबैदा के हाथ में सौंपा और कहा कि इसका ख्याल रखना, यह बसरा के नए हाकिम नूरुद्दीन की स्त्री है और कुछ दिनों बाद इसे उसी के पास भेजना है।
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Re: अलिफ लैला की रहस्यमई कहानियाँ

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इधर नूरुद्दीन एक जहाज में बैठ कर, जो उसी समय छूट रहा था, बसरा पहुँचा और अपने किसी मित्र या परिचित से मिले बगैर सीधे हाकिम जुबैनी के पास पहुँचा। वह उस समय मुकदमों के फैसले कर रहा था। नूरुद्दीन बेधड़क उसके पास पहुँचा और कहा, आपके पुराने मित्र ने यह पत्र आप के लिए दिया है। जुबैनी ने खलीफा की हस्तलिपि देख कर पत्र को चूमा और मंत्री सूएखाकान से उसे पढ़ने के लिए कहा। मंत्री ने पत्र देखा तो उसकी जान निकल गई। उसने प्रकाश में अच्छी तरह पत्र पढ़ने के बहाने बाहर आ कर खलीफा की मुहरवाला लिफाफे का भाग दाँतों से कुतर कर खा लिया। वापस दरबार में आ कर कहा कि इस पत्र में नूरुद्दीन को बसरा का हाकिम बनाने को लिखा है किंतु यह पत्र जाली मालूम होता है। उसने कहा, सरकार, मुझे ऐसा मालूम होता है कि नूरुद्दीन ने मुझसे और आपसे अपने अपमान का बदला लेने के लिए यह ढोंग रचा है। इसने खलीफा से हम लोगों की शिकायत जरूर की होगी किंतु खलीफा बच्चा तो है नहीं जो बहकावे में आ जाए। वह ज्यादा से ज्यादा यह लिखता कि इसे दंड न दो या कोई नौकरी दे दो। ऐसे निठल्ले आदमी को वह बसरे का हाकिम किस तरह बना देगा?

उसने यह भी कहा कि आप नूरुद्दीन को मेरे सुपुर्द कर दीजिए, मैं खोज कर के असल तथ्य का पता लगाऊँगा। जुबैनी भी क्यों आसानी से अपना पद देता। उसने सूएखाकान की बात मंजूर कर ली। सूएखाकान नूरुद्दीन को अपने भवन में लाया। वह उसकी जान का प्यासा हो ही रहा था। चुनांचे उसने नूरुद्दीन को इतना पिटवाया कि वह बेहोश हो कर गिर गया और मरने के समीप हो गया। फिर उसने उसे एक तंग कोठरी में बंद कर दिया और उस पर कड़ा पहरा बिठा दिया और आदेश दिया कि इसे दिन में सिर्फ एक बार कुछ रोटी के टुकड़े और पानी दिया जाए, इससे अधिक कुछ न दिया जाए।

नूरुद्दीन को होश आया तो देखा कि उसे एक सीली, दुर्गंधपूर्ण और ऐसी तंग कोठरी में बंद किया गया है जिसमें वह हिल-डुल भी नहीं सकता। उसे यह तो मालूम ही नहीं था कि जुबैनी के नाम पत्र में क्या लिखा था। वह रो-रो कर कहने लगा, वाह रे मछवाहे! मैंने तो तुझे अपना सब कुछ दे डाला। अशर्फियों के साथ अपनी प्राणों से भी प्यारी दासी भी दे डाली। और तूने मेरे इस उपकार का बदला इस प्रकार दिया। भगवान तुझे तेरी इस दुष्टता के लिए कभी क्षमा नहीं करेगा। मैं भी कैसा नादान हूँ कि उस मछवाहे के कहने में आ गया।

सूएखाकान ने नूरुद्दीन को छह दिन तक ऐसे ही कष्ट में रखा। वह चाहता तो था कि नूरुद्दीन का प्राणांत हो जाए किंतु उसकी हिम्मत उसे अपने घर में मारने की नहीं हो रही थी, वह उसे हाकिम ही से मृत्युदंड दिलाना चाहता था। सातवें दिन उसने अच्छी-अच्छी चीजों की टोकरियाँ नौकरों के सिर पर लदवाईं और जुबैनी के सामने पेश कीं। उसने पूछा यह क्या है, तो सूएखाकान ने कुटिलतापूर्वक कहा, यह बसरे के नए हाकिम ने आप के पास भेजा है ताकि इनके बदले आप उसे बसरे का हाकिम बनाएँ। इससे जुबैनी को बड़ा गुस्सा आया। उसने कहा, वह अभी जिंदा है? मैंने समझा था कि तुमने उसे मार डाला होगा। मंत्री ने कहा, मुझे किसी को प्राणदंड देने का अधिकार नहीं है। जुबैनी ने कहा, मैं आज्ञा देता हूँ कि तुम उसकी गर्दन उतारो। कमबख्त मुझसे मजाक करता है? सूएखाकान ने कहा, आपकी आज्ञा सिर-आँखों पर किंतु मैं चाहता हूँ कि वह सर्वसाधारण के सामने मारा जाए, तभी मैं उससे उस सार्वजनिक अपमान का बदला लूँगा जो उसने किया है।

जुबैनी ने मान लिया। शहर में मुनादी की गई कि कल नूरुद्दीन की, जिसने मंत्री का खुलेआम अपमान किया था, अमुक स्थान पर गरदन काटी जाएगी। सुएखाकान उसे अत्यंत अपमानपूर्वक अंधे, बेजीन के घोड़े पर बिठा कर वधस्थल पर लाया। नूरुद्दीन ने कहा, बुड्ढे खबीस, तू मुझ निर्दोष को झूठ और छल से अपमानपूर्वक मरवा रहा है। मगर याद रखना कि भगवान निर्दोष व्यक्ति का खून बहानेवाले आदमी को कभी क्षमा नहीं करता। सूएखाकान दाँत पीस कर बोला, दुष्ट, तू इस तरह से मेरा सब लोगों के सामने अपमान कर रहा है? खैर, इसकी सजा क्या दी जाए। तुझे तो सबसे बड़ी सजा मिलनेवाली है।

नूरुद्दीन को महल से लगे एक बड़े मैदान में पहुँचा दिया गया जहाँ लोगों को आम जनता के सामने मारा जाता था। जल्लाद ने कहा, मुझे आपके पिता का जमाना याद है। मैं आपका सेवक हूँ किंतु इस समय मेरा कर्तव्य आपको मारना है। आपकी कुछ अंतिम इच्छा हो तो कहें। नूरुद्दीन ने कहा कि मुझे पानी पीना है। जल्लाद ने एक आदमी से पानी मँगाया और नूरुद्दीन पीने लगा।

सूएखाकान जल्लाद पर बिगड़ने लगा कि देर क्यों कर रहा है, तुरंत ही इसकी गरदन क्यों नहीं काट देता। जो लोग वहाँ मौजूद थे वे मंत्री की कठोरता पर उसे बुरा-भला कहने लगे किंतु उस पर कुछ प्रभाव न हुआ। जल्लाद ने देखा कि मंत्री नाराज हो रहा है तो उसने तलवार निकाली। वह वार करना ही चाहता था कि जुबैनी ने महल की खिड़की से सिर निकाल कर कहा, अभी इसे न मारो। मुझे दिखाई देता है एक बड़ी फौज चली आ रही है, पहले मालूम तो हो कि यह क्या मामला है। सूएखाकान चाहता था कि नूरुद्दीन जल्दी से जल्दी मारा जाए। उसने कहा, यह धूल तो उन लोगों के आने से उठी है जो इस पापी के मारने का तमाशा देखने आ रहे हैं। आप जल्लाद को आज्ञा दें कि वह तुरंत अपना काम करें। जुबैनी बोला, नहीं, यह सेना ही है। अभी जल्लाद हाथ रोके रहे। मैं पहले पता तो लगाऊँ कि कौन आ रहा है।

हुआ यह था कि हुस्न अफरोज को अपनी मलिका के पास भेज कर खलीफा उसके और नूरुद्दीन के बारे में भूल गया था। दो-चार दिन बाद उसने अपने महल में एक दुखभरे गाने की आवाज सुनी।

उसे आश्चर्य हुआ कि इतना दुखी हो कर कौन गा रहा है। पुछवाया तो सेवकों ने बताया कि यह नूरुद्दीन की दासी है जिसे आपने आश्रय दिया था, वही नूरुद्दीन के वियोग में विरह-गीत गा रही है। मंत्री जाफर को बुला कर कहा, नूरुद्दीन के मामले में देर नहीं होनी चाहिए। तुम मेरी सनद और हुक्मनामा ले कर फौज के साथ खुद जाओ। अगर सूएखाकान ने दुरभिसंधि कर के नूरुद्दीन को मरवा डाला हो तो तुम फौरन उसे मरवा डालना। अगर नूरुद्दीन जिंदा हो तो तुरंत उसे और जुबैनी को मेरे पास ले आओ। मैं इस संबंध में सारे फरमान लिखवा कर देता हूँ।

नूरुद्दीन के सौभाग्य से जाफर ठीक उसी समय पहुँचा जब जल्लाद नूरुद्दीन को मारने ही वाला था। उसकी सेना नगर में आई तो लोगों ने सत्कारपूर्वक उसे रास्ता दिया। जाफर जुबैनी के दरबार में पहुँचा। जुबैनी उसके सम्मानार्थ अपने तख्त से उतर कर स्वागत के लिए दरवाजे तक आया। जाफर ने पूछा, नूरुद्दीन का क्या हाल है? उसे मरवा तो नहीं डाला? अगर वह जिंदा है तो उसे तुरंत मेरे सामने लाओ। नूरुद्दीन उसी तरह बँधा-बँधाया लाया गया। जाफर ने उसकी रस्सी खुलवाई और खलीफा का फरमान दिखा कर सूएखाकान को उसी रस्सी में बँधवाया।

जाफर उस दिन तो वहीं ठहरा। दूसरे दिन नूरुद्दीन, जुबैनी और बंदी अवस्था में सूएखाकान को ले कर बगदाद की ओर चल पड़ा। वहाँ पहुँचने पर उसने और जुबैनी ने खलीफा से सारी कहानी कही। खलीफा ने कहा, नूरुद्दीन, तुम पर भगवान की असीम कृपा है। जाफर को पहुँचने में थोड़ी भी देर हो जाती तो तुम मारे जाते। अब तुम अपने इस पुराने दुश्मन को अपने हाथ से मारो।

नूरुद्दीन ने खलीफा के सामने की भूमि को चूम कर कहा, सरकार, इसमें संदेह नहीं कि यह मेरा पुराना शत्रु है किंतु यह इतना बड़ा पापी है कि मैं इसके खून से अपने हाथ रँगना नहीं चाहता। आप मुझे इस बारे में माफी दें। खलीफा ने मुस्कुरा कर कहा, तुम सचमुच बड़े सुसंस्कृत आदमी हो। नहीं चाहते तो इसे न मारो। यह कह कर उसने जल्लाद को इशारा किया और जल्लाद ने तुरंत ही सूएखाकान का सिर उसके धड़ से अलग कर दिया। नूरुद्दीन को बसरा का हाकिम बनाने की बात पर वह बोला, सरकार, आप की बड़ी कृपा है किंतु मैं उस मनहूस शहर में नहीं जाना चाहता। मुझे अपने चरणों ही में रहने की अनुमति दीजिए।

खलीफा ने उसकी बात मान ली। उसे एक बड़ी जागीर और विशाल भवन दे कर अपना दरबारी बना लिया और हुस्न अफरोज को उसे दे दिया। खलीफा जुबैनी से भी नाराज था कि उसने पहली आज्ञा क्यों नहीं मानी। किंतु जाफर ने उसकी सिफारिश की कि इसी ने अंत समय में नूरुद्दीन की हत्या रुकवाई। अतएव खलीफा ने उसका पद उसे वापस दे दिया।

दुनियाजाद ने कहा, बहन, बहुत ही बढ़िया कहानी कही। तुम्हें तो बहुत अच्छी कहानियाँ आती हैं। कोई और कहानी कहो ना। बादशाह शहरयार ने भी अपने मौन द्वारा दुनियाजाद की बात का समर्थन किया और शहजाद ने अगली कहानी आरंभ कर दी।
प्यास बुझाई नौकर से Running....कीमत वसूल Running....3-महाकाली ....1-- जथूराcomplete ....2-पोतेबाबाcomplete
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Re: अलिफ लैला की रहस्यमई कहानियाँ

Post by Jemsbond »

बादशाह बद्र और शमंदाल की शहजादी की कहानी

शहरजाद ने कहा कि बादशाह सलामत, ईरान बहुत बड़ा देश है। पुराने जमाने में वहाँ बड़े शक्तिशाली और प्रतापी नरेश हुआ करते थे और उन्हें शहंशाह यानी बादशाहों का बादशाह कहा जाता था। उसी काल का वहाँ का एक बादशाह बद्र था। उसके पास अपार धन- दौलत और सैनिक शक्ति थी। उसके सौ पत्नियाँ और हजारों दासियाँ थीं किंतु उसे बड़ा दुख था कि उसके कोई पुत्र नहीं था। दूर-दूर के व्यापारी उसके लिए सुंदर दासियाँ लाते। वह उनसे पुत्र प्राप्ति की इच्छा से भोग करता। अपने देश के सिद्धों और तांत्रिकों से भी इस बारे में सहायता करने को कहा, हजारों कँगलों को धन का दान करता कि किसी के आशीर्वाद से पुत्र प्राप्ति हो। किंतु कोई उपाय सफल नहीं हो सका था और बादशाह की चिंता का अंत नहीं था।

एक दिन उसके एक सेवक ने आ कर बताया कि एक दूर देश का व्यापारी एक अति सुंदरी दासी ले कर बेचने के लिए आया है। बादशाह ने आज्ञा दी कि व्यापारी दासी को लाए। दूसरे दिन व्यापारी उस दासी को ले कर उपस्थित हुआ। बादशाह ने उससे पूछा कि तुम किस देश से दासी लाए हो। उसने कहा, मैं बहुत दूर देश की बाँदी लाया हूँ। आप उसकी सूरत देखेंगे तो यह पूछना भूल जाएँगे कि वह कहाँ की है। बादशाह ने कहा कि उसे दिखाते क्यों नहीं। व्यापारी ने कहा, मैं पहले आपकी अनुमति चाहता था। अभी मैंने उसे एक विश्वस्त दास को सौंप रखा है, आप कहें तो अभी ले आऊँ। बादशाह ने कहा कि फौरन लाओ।

व्यापारी ने ला कर दिखाया तो बादशाह ने देखा कि दासी वास्तव में अजीब-सी छटा बिखेर रही है। गौरवर्ण, कुंचित केशी, सुडौल शरीरवाली दासी थी जिसका चेहरा नकाब के अंदर से भी सौंदर्य की किरणें-सी बिखेर रहा था। बादशाह व्यापारी और दासी दोनों को अपने रंगमहल में ले गया। वहाँ पर दासी का नकाब उठा कर देखा तो उसके रूप की छवि से लगभग अचेत हो गया। जब थोड़ी देर में उसे पूर्ण चेत हुआ तो उसने व्यापारी से पूछा कि इस दासी का कितना मूल्य है। व्यापारी ने कहा, महाराज, इसे मैंने एक हजार अशर्फियों में मोल लिया था। इसे तीन वर्ष पहले लिया था। इस काल में इतना ही धन इसके भोजन, वस्त्र आदि पर व्यय हुआ। लेकिन मैं इसे यूँ ही आपको भेंट करने के लिए लाया हूँ अगर यह आपको पसंद हो।

बादशाह व्यापारी की विनयपूर्ण बातों से प्रसन्न हुआ। वह बोला, हम किसी से यूँ ही कोई वस्तु नहीं लेते। और जो चीज हमें पसंद आती है उसके दूने-चौगुने दाम भी दे देते हैं। यह दासी हमें बहुत पसंद है। हम इसके मूल्य के तौर पर तुम्हें दस हजार अशर्फियाँ देंगे। व्यापारी ने सिर झुका कर कई बार बादशाह को नमन किया और हजार अशर्फियों के दस तोड़े ले कर शाही महल से विदा हुआ। इधर बादशाह ने कई दासियों को बुला कर आज्ञा दी कि इसे हम्माम में ले जाओ और नहला-धुला कर अच्छे कपड़े पहनाओ।

सुघड़ परिचारिकाओं ने नई दासी को हम्माम में ले जा कर गरम पानी से भली भाँति नहलाया और जरी के काम के रत्नजटित वस्त्र पहनाए। परिचारिकाओं ने, जिन्हें बादशाह ने नई दासी के निमित्त नियुक्त किया था, उसके निखरे हुए रूप को देख कर आश्चर्य किया। उसे बादशाह के सामने ला कर उन्होंने कहा, इसे दो-चार दिन पूरा आराम दिया जाए और पौष्टिक भोजन दिया जाए तो इसका रूप और निखरेगा क्योंकि अभी इस पर लंबी यात्राओं की थकन बढ़ी होगी। तीन दिन बाद अगर आप इसे देखेंगे तो शायद पहचान भी न सकेंगे। बादशाह ने यह बात मान ली और कहा कि इसे तीन दिन के बाद ही रंगमहल में भेजा जाए।

बादशाह की राजधानी समुद्र तट पर थी और शाही महल का पिछवाड़ा बिल्कुल समुद्रतट के सामने पड़ता था। वह नई दासी अक्सर अपने कमरे के छज्जे पर बैठ जाती और एकटक समुद्र की लहरों के तट पर टकराने का तमाशा देखती थी। तीन दिन के बाद चौथे दिन भी उसी प्रकार वह समुद्र की ओर देख कर अपना मन बहला रही थी कि उसी समय परिचारिकाओं ने बादशाह से कहा कि अब नई दासी अपनी पूरी छवि में आ चुकी है। बादशाह उससे मिलने को इतना बेचैन हुआ कि उसे बुला भेजने के बजाय खुद उसके पास जा पहुँचा। पहले तो उसके आने की आहट से नई दासी ने यह समझा कि कोई परिचारिका आई होगी। किंतु जब कुछ क्षणों के बाद उसने बादशाह को देखा तो भी कुरसी से न उठी, न किसी और तरह सम्मान प्रदर्शित किया। बादशाह को इस पर बड़ा आश्चर्य हुआ। किंतु उसे क्रोध नहीं आया, उसने यह समझा कि यह इतनी उद्दंडता इसलिए दिखा रही है कि उसकी शिक्षा-दीक्षा नहीं हुई।

बादशाह के इशारे से परिचारिकाएँ हट गईं। बादशाह ने समीप जा कर उसके गले में हाथ डाला। दासी ने कोई आपत्ति नहीं की किंतु वह बोली-चाली भी नहीं। बादशाह उसे कमरे में ले गया। रतिक्रिया के बाद उसने दासी से कहा, मेरी प्राणप्यारी, तुम किस देश की निवासिनी हो और तुम्हारे माता-पिता का क्या नाम है। मेरे महल में सौ रानियाँ और कई हजार दासियाँ हैं किंतु उनमें से कोई एक भी सौंदर्य में तुम्हारे पास भी नहीं फटक पाती। मुझे तुमसे जितना प्रेम है उतना किसी रानी से भी नहीं है।

नई दासी इस पर भी चुप रही। बादशाह ने कहा, प्रिये, तुमने मेरी किसी बात का उत्तर नहीं दिया। कुछ तो बोलो ताकि मैं जैसे तुम्हारे सुंदर मुखमंडल से आनंदित होता हूँ वैसे ही तुम्हारे मीठे वचनों को सुन कर भी तृप्ति प्राप्त करूँ। तुमने तो मेरी ओर आँख उठा कर भी नहीं देखा जिससे मेरे नयन तृप्त होते। आखिर तुम्हें कौन-सी चिंता सता रही है जिसने तुम्हारी वाणी को अवरुद्ध कर दिया है। तुम मुझे अपनी व्यथा बताओ। अगर तुम अपने माँ-बाप को याद कर रही हो तो उनका मिलना तो असंभव है, हाँ इसके अतिरिक्त तुम जो कुछ भी चाहो उसे तुम्हारी सेवा में उपस्थित कर दिया जाएगा।

बादशाह ने उससे इस प्रकार की बहुत-सी बातें कहीं किंतु दासी मुँह नीचा किए भूमि की ओर ही देखती रही। बादशाह फिर भी उससे क्रुद्ध न हुआ। उसने परिचारिकाओं को आवाज दी और उनसे भोजन मँगवाया, वह स्वयं भी खाने लगा और अपने हाथ से स्वादिष्ट व्यंजनों के ग्रास नई दासी के मुख में देने लगा। वह खाती रही किंतु चुप ही रही। फिर बादशाह ने आज्ञा दी कि गायन-वादन और नृत्य का आयोजन किया जाए। इस पर भी वह चुप रही। बादशाह ने दासी की परिचारिकाओं से पूछा कि यह कभी बोलती भी है या नहीं, उन्होंने कहा कि किसी ने इसे बोलते क्या मुस्कुराते भी नहीं देखा। खैर, बादशाह ने रात भर उससे विहार किया और तय किया कि उसके अतिरिक्त किसी से संभोग न करेगा।

इस निर्णय के बाद बादशाह ने कुछ दासियों को सेवा कार्य के लिए रख कर बाकी दासियों और सभी रानियों को बुला कर उन्हें काफी धन दे कर स्वतंत्र कर दिया कि वे जहाँ चाहें जाएँ और जिस से चाहें विवाह करें। एक वर्ष तक वह प्रतीक्षा करता रहा कि नई दासी उससे कुछ बात करेगी। किंतु जब ऐसा न हुआ तो उसने विकल हो कर कहा, मेरी प्राणप्रिया, मुझे बड़ा दुख है कि तुम्हारे बारे में अभी तक कुछ पता नहीं चल सका है। मैं यह तक नहीं जान पाया कि तुम मेरे साथ रहने में प्रसन्न हो या अप्रसन्न। मैं तो तुम्हारे लिए कुछ उठा नहीं रखता हूँ। तुम्हारे पीछे मैंने अपनी सारी रानियों और दासियों को छोड़ दिया। कहीं ऐसा तो नहीं कि तुम गूँगी हो। ऐसा हुआ तो यह ईश्वर का बड़ा अन्याय होगा कि ऐसा भुवन मोहन रूप दे कर अंदर ऐसा दोष पैदा कर दिया। अगर तुम गूँगी नहीं हो तो भगवान के लिए कुछ बोलो क्योंकि तुम्हारे चुप रहने से मैं बड़े कष्ट में रहता हूँ। मैं इस सारे वर्ष में भगवान से प्रार्थना करता रहा कि तुम्हारे पेट से मेरा कोई लड़का पैदा हो जो मेरे बाद राज-काज सँभाले क्योंकि मेरा बुढ़ापा आ रहा है और शारीरिक निर्बलता मेरे अंदर घर करती जा रही है। अगर तुम गूँगी नहीं हो तो मुझसे बातें करो। मैं और अधिक तुम्हारी चुप्पी नहीं सह सकता। तुम न बोलीं तो मैं जान दे दूँगा और मेरी हत्या का पाप तुम पर पड़ेगा।

वह सुंदरी यह सुन कर मुस्कुराई और बादशाह की ओर देखने लगी। वह भी समझ गया कि यह कुछ बोलेगी और उसकी बात की प्रतीक्षा करने लगा। कुछ देर बाद वह परम सुंदरी बोली, मुझे आप से बहुत-सी बातें कहनी हैं। मेरी समझ में नहीं आ रहा कि किस बात से आरंभ करूँ। आप ने इस सारे समय में मुझ पर इतनी दया की है और ऐसा मान दिया है जो वर्णन के बाहर है। मैं आपकी बड़ी आभारी हूँ और भगवान से प्रार्थना करती हूँ कि वह आप को सवा सौ बरस की आयु दे और आपके शत्रु आपके प्रताप से ऐसे नष्ट हो जाएँ जैसे दीपक से पतिंगे। आप को कभी कोई कष्ट न हो। एक शुभ समाचार मैं आप को यह देती हूँ कि आप से गर्भ रह गया है। मुझे पूरी आशा है कि मेरे बेटा ही पैदा होगा। इस बीच मुझ से जो कुछ अविनय हुआ इसके लिए मैं क्षमा माँगती हूँ। अभी तक मैं इसलिए नहीं बोली थी कि जबर्दस्ती यहाँ लाए जाने से मुझे बड़ा क्रोध चढ़ा था किंतु अब मैं आपसे जान से प्यार करने लगी हूँ।

बादशाह इतनी बात सुन कर खुशी से पागल हो गया। उसने उसे खींच कर सीने से लगा लिया और कहा कि गर्भ रहने का समाचार दे कर तुमने मेरे सारे दुख दूर कर दिए। यह कह कर बाहर आया और मंत्री को यह शुभ सूचना दे कर कहा कि फौरन एक लाख अशर्फियाँ गरीबों और भिखारियों में बँटवा दो, मेरे राज्य में कोई दीन-दुखी न रहे। इसके बाद वह फिर उस सुंदरी के पास आ कर बोला, माफ करना, मैं तुम्हारे गर्भ धारण के समाचार से इतना प्रसन्न हुआ कि सार्वजनिक दान की घोषणा में विलंब न कर सका। अब तुम यह बताओ कि तुम्हें ऐसी क्या नाराजगी थी कि तुम साल भर तक मुझ से या किसी से भी नहीं बोलीं। वह बोली, कारण यह था कि भगवान ने मुझे आपके पास दासी रूप में भेजा और अपने देश से इतनी दूर कर दिया कि कभी वहाँ जा ही न सकूँ। विशेषतः अपने माँ-बाप, भाई-बंधु आदि का बिछोह मुझे सता रहा था। आप जानते हैं कि परतंत्र हो कर जीने में कोई आनंद नहीं, इससे तो मौत ही अच्छी। बादशाह ने कहा, तुम्हारी बात ठीक है लेकिन जब कोई स्त्री तुम्हारी जैसी सुंदर हो और मेरे जैसे व्यक्ति के हृदय में घर कर ले तो फिर उसे परेशान होने की क्या जरूरत है। सुंदरी ने कहा, आप ठीक कहते हैं। आपकी बड़ी कृपा है, किंतु दासी फिर भी दासी है।

बादशाह ने कहा, तुम्हारी बातों से मालूम होता है कि तुम किसी बड़े घराने की संतान हो। मुझे विस्तार से बताओ कि तुम कहाँ की हो और तुम्हारे माँ-बाप कौन हैं।

वह बोली, मेरा नाम गुल अनार आसीन है। मेरा पिता आसनी नामी समुद्र का राजा था। मरते समय उसने अपना राज्य मेरी माता और मेरे भाई सालेह को सौंप दिया। मेरी माँ भी किसी समुद्री राजा की बेटी थीं। हम तीनों आनंद से समय बिता रहे थे कि हमारे राज्य पर एक अन्य राजा ने चढ़ाई कर दी और हमारा राज्य छीन लिया। मेरा भाई उसका मुकाबला न कर सका और मुझे और माँ को ले कर चुपके से राज्य से निकल गया। सुरक्षित स्थान पर पहुँच कर वह बोला कि हम पर विपत्ति पड़ी है और हमारी दुर्दशा हो गई है, भगवान चाहेगा तो मैं दुबारा अपने राज्य पर कब्जा करूँगा किंतु मैं चाहता हूँ कि इससे पहले तुम्हारे विवाह से छुट्टी पा जाऊँ और चूँकि किसी जल राज्य का कोई शहजादा तुम्हारे लायक नहीं है इसलिए मैं चाहता हूँ कि तुम्हारा विवाह किसी थल के राजा से कर दूँ और अपनी हैसियत के अनुसर काफी दहेज आदि दूँ।

मैं यह सुन कर बहुत बिगड़ी। मैंने उससे कहा कि देखो हम दोनों एक ही माँ-बाप की संतान हैं। मैं तुम्हारा हमेशा साथ देना चाहती हूँ बल्कि जरूरत हो तो तुम्हारे लिए जान भी दे सकती हूँ किंतु जब आज तक किसी जल देश की राजकुमारी का विवाह किसी स्थलवासी राजा के साथ नहीं हुआ तो मैं ही ऐसी कहाँ गिरी-पड़ी हूँ कि किसी थलवासी के गले मढ़ी जाऊँ। मेरे भाई ने कहा कि आखिर ऐसी क्या बात है कि तुम किसी थलवासी राजा से विवाह नहीं करना चाहतीं। क्या तुम समझती हो कि सारे थलवासी कमीने और दुष्ट होते हैं। ऐसी बात बिल्कुल नहीं है, उनमें भी बहुत-से भलेमानस होते हैं। इस प्रकार उसने मुझे बहुत समझाया। मैंने उससे बहस तो नहीं की किंतु मुझे क्रोध बहुत आया। मैंने मन में कहा कि यह लोग मुझे भारस्वरूप समझ रहे हैं इसलिए मुझे हटाना चाहते हैं, मैं खुद चली जाऊँगी।

अतएव एक दिन जब सब लोग अपने काम में व्यस्त थे मैं अवसर पा कर जल से निकल आई और एक टापू पर एक सुरक्षित स्थान तलाश कर के लेट गई और लेटते ही गहरी नींद में सो गई। किंतु मेरा अनुमान गलत था। एक धनी आदमी वहाँ आया और मुझे सोते देख कर अपने नौकरों से उठवा कर अपने विशाल मकान में ले गया। मुझे शयनकक्ष में ले जा कर उसने मुझसे बड़ा प्रेम दिखाया किंतु मैंने उसकी ओर से पूरी उदासीनता बरती। फिर उसने चाहा कि बलपूर्वक मेरा कौमार्य भंग करे। इस पर मैंने उसे उठा कर फेंक दिया। उसका क्रोध और ग्लानि से बुरा हाल हो गया। दूसरे ही दिन उसने एक व्यापारी को बुला कर मुझे उसके हाथ बेच डाला। वह व्यापारी बड़ा भला आदमी था। उसने मुझसे कभी कोई ऐसी-वैसी बात नहीं की। उससे मुझे आपने खरीद लिया।

यह कह कर गुल अनार बोली, मैं सारे थलवासियों से घृणा करती थी इसलिए आप से भी नहीं बोली। किंतु आपका सौहार्द देख कर मुझे आपसे घृणा भी न हुई। अगर आप मेरे साथ किसी प्रकार की जोर-जबर्दस्ती करते तो मैं समुद्र में कूद जाती और अपने कुटुंबी जनों से जा मिलती। मुझे एक ही भय था कि अगर मेरी माता और भाई को यह मालूम होगा कि मैं थल देश के किसी बादशाह के पास दासी के तौर पर रही हूँ तो वे लज्जावश मुझे जीता न छोड़ते। अब तो मैं आप के पुत्र की माँ बननेवाली हूँ। अब अगर कभी चाहूँ भी तो आप का आश्रय छोड़ कर कहीं नहीं जा सकती। मैं अपनी ओर से स्वयं को आपकी दासी समझती हूँ और आगे भी समझूँगी किंतु मेरी प्रार्थना है कि मेरे साथ जैसे अब तक रानियों जैसा व्यवहार किया गया है आयंदा भी वैसा ही किया जाता रहे।

बादशाह ने कहा, तुम्हारा सुंदर मुख देख कर ही मैं तुम्हारा दीवाना हो गया था, अब तुम्हारी सुमधुर बातें सुन कर और भी हो गया हूँ। यह सुन कर मेरी प्रसन्नता का ठिकाना न रहा कि तुम भी एक शहजादी हो। इससे पहले तुम समुद्र के एक देश की राजकुमारी थी और आज से तुम ईरान की मलिका हो। मैं आज ही दरबार में इस बात की घोषणा करूँगा और सारे देश में मुनादी करवा दूँगा। मैं अभी तक तुम से जितना प्यार करता था आगे उससे भी अधिक करूँगा। तुम भी मेरे अलावा किसी और आदमी का ध्यान भी न करना। लेकिन एक बात बताओ। तुमने कहा कि तुम जल की निवासिनी हो। मेरी समझ में यह नहीं आया कि तुम लोग पानी में डूबते क्यों नहीं हो। सुना तो पहले भी था कि जल के अंदर भी मनुष्य रहते हैं किंतु इस बात पर विश्वास नहीं कर सकता था। अब तुमने खुद कहा कि मैं जल की निवासिनी हूँ तो विश्वास करना पड़ा लेकिन समझ में अब तक नहीं आया कि यह बात संभव किस तरह है। आदमी किस तरह पानी के अंदर रह सकता है और किस तरह वहाँ काम-काज कर सकता है?

गुल अनार ने कहा, 'देखिए, पानी कितना ही गहरा हो किंतु आप उसकी तह तक देख सकते हैं। जैसे निगाह पर पानी रोक नहीं लगाता उसी प्रकार कुछ लोग पानी के अंदर रहते भी हैं। वैसे तो समुद्र के नीचे जहाँ हम लोग रहते हैं रात-दिन के बीच कोई अंतर नहीं दिखाई देता किंतु हम लोग पानी के अंदर से भी आसमान में चलनेवाले सूर्य तथा चंद्रमा और तारों को देख सकते हैं। जैसे धरती पर कई देश हैं और कई नगर बसे हुए हैं वैसे ही समुद्र की तलहटी में कई देश बसे हुए हैं जो अलग-अलग बादशाह के अंतर्गत हैं। बल्कि सच तो यह है कि पृथ्वी के ऊपर जितने देश हैं उसके तिगुने देश जल के नीचे आबाद हैं। यहाँ की तरह ही वहाँ भी मनुष्यों की कई जातियाँ हैं। हम लोगों के अच्छे-अच्छे भवन और राजमहल बड़े भव्य होते हैं। वे संगमरमर के बने होते हैं और उनकी दीवारों और छतों में सीप, मोती और मूँगे ही नहीं, तरह-तरह के बिल्लौर और रत्नादि जड़े होते हैं। पानी में पृथ्वी से अधिक रत्न पाए जाते हैं और मोती तो इतने बड़े होते हैं जिनकी आप कल्पना भी नहीं कर सकते और न मैं आप को ठीक तरह बता ही सकती हूँ।

'जल निवासियों में हर व्यक्ति अपने लिए सुंदर भव्य महल बना लेता है। वहाँ आने-जाने के लिए गाड़ियों की जरूरत नहीं पड़ती, हर आदमी जितनी दूर चाहे बगैर थके जा सकता है। आम आदमी घोड़ा भी नहीं रखते, सिर्फ बादशाह लोग शोभायात्रा के लिए अपनी घुड़सालों में दरियाई घोड़े रखते हैं। जब वे जुलूस में निकलते हैं या कहीं तमाशा देखने जाते हैं तो इन दरियाई घोड़ों को विशेष रूप से बनाई हुई गाड़ियों में जोत देते हैं। गाड़ियाँ इतनी आरामदेह होती हैं और घोड़े इतने होशियार होते हैं कि सवार का शरीर भी नहीं हिलता और घोड़े इशारे भर से चलते हैं। हमारे देश की स्त्रियाँ बड़ी सुंदर, चतुर और पतिपरायण होती है।'

यह कह कर गुल अनार बोली, स्वामी, यदि आज्ञा हो तो मैं अपने भाई और माता को यहाँ बुला लूँ ताकि वे खुद अपनी आँखों से देखें कि उनकी बेटी अब ईरान की मलिका बन गई है। बादशाह ने कहा, मुझे उनका स्वागत करने में अति प्रसन्नता होगी किंतु मेरी यह समझ में नहीं आता कि तुम उन्हें कैसे बुलाओगी। तुम्हें तो यह भी नहीं मालूम कि तुम्हारे देश को कौन सा रास्ता जाता है। गुल अनार बोली, वह सब मुझ पर छोड़िए। आप सिर्फ कुछ देर के लिए बगलवाले भवन में बैठें और तमाशा देखें।
प्यास बुझाई नौकर से Running....कीमत वसूल Running....3-महाकाली ....1-- जथूराcomplete ....2-पोतेबाबाcomplete
बन्धन
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दिल से दिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
तुफानो में साहिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
यूँ तो मिल जाता है हर कोई!
मगर आप जैसे दोस्त नसीब वालों को मिलते हैं!
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