Romance जलन

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rajan
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Re: Romance जलन

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“उफ ! मैं कहाँ हूँ? सिर में दर्द, बदन में दर्द, यह सब क्या है ?*- रोगी ने कराहते हुए अपनी आंखें खोली।

चारपाई के सिराहने खडी हुई लड़की को देखकर वह चौंक पड। बोला- मेहर तुम? मेरे पास? या खुदा, क्या यह सच है?"

मेहर उसके काले-काले बालों पर हाथ फेरती हुई बोली- “जहूर! तुम्हारी तबीयत खराब है। आठ घंटे बाद तुम होश में आए हो। ज्यादा बोलने की कोशिश मत करो।'

___"मगर मैं तुम्हारी झोंपड में कैसे आया? मेरे बदन में इतना दर्द क्यों है? सिर में चक्कर आने की वजह से मुझे बीती बातें भी याद नहीं आ रही हैं। तुम मुझे बताने की मेहरबानी करो, मेहर!" -जहूर ने उठकर बैठने का प्रयत्न करे हुए कहा। ___

मेहर ने कहा- "लेटे रहो। उठने की कोशिश न करो। ...या खुदा ! तुम तो जैसे सुनते ही नहीं। सुनो, मेरे अब्बा तुम्हें तुम्हारे कबीले से पकड़ लाए हैं। तुम इस वक्त हमारे कैदी हो..." ___

कैदी हूँ?... ओह ! याद आ गई सारी बातें। मेहर, मैं कैदी होने पर भी खुश हूं। जहां तुम हो, वहां कैदी की हालत में रहना, मैं अपनी खुशकिस्मती समझता हूं, लेकिन मेहर! तुमने अब्बा से कहकर यह सब तूफान क्यों खड किया?"

"मैं शरमिंदा हूं जहूर ! मुझे इस बात का दिली अफसोस है, मगर तुम भी तो हमेशा मुहब्बत मुहब्बत रटा करते हो। मुहब्बत क्या बला है- मैं यह जानती भी नहीं?"

"तुम अभी नादान हो, मेहर! मुहब्बत के फौलादी पंजों में तुम अभी गिरफ्तार नहीं हुई हो। जिस दिन तुम्हारे दिल पर मुहब्बत की छाया पड गी उस दिन तुम महसूस करोगी कि उसमें कितनी दाह, कितनी जलन होती है। मेहर ! मुहब्बत वह छाया है जो हैवान को इंसान और इंसान को शैतान बना देती है। उफ, यह कैसी बुरी बला है?" -कहते-कहते कमजोर जहर ने मेहर का हाथ अपने हाथ में ले लिया। ___

"तुम, फिर वही हरकत करने लगे न? मैं तुमसे नफरत करती हूं -नफरत!" -मेहर ने गुस्से में कहा और तुनक कर दूर जा बैठी। ____

"मेहर, मैं जानता है जो तुम्हारे दिल में है, मगर तुम मुझे परेशान करने की अपनी आदत से बाज नहीं आती..." जहूर ने कहा और मुंह फेरकर लेटा रहा। झोंपड की खिड़की से मंद मंद हवा आ रही थी- "बादल घिरे आ रहे है मेहर!" जहर ने खिडकी की राह बाहर देखते हए कहा। मेहर उठकर खिडकी के पास आई। उसकी दृष्टि एक बार सूर्य की और जा पड , जिसे एक बड़ा सा बादल का टुकड आत्मसात करने के लिए आतुरता से बढ आ रहा था।

हवा में कुछ नमी आ गई थी, जिससे मालूम होता था कि वर्षा शीघ्र ही आने वाली है। "खुदा मुश्किल आसान करे !" झोंपड के दरवाजे पर से आवाज आई।

मेहर बोली- “यह नया फकीर कौन आ गया? देखू तो!" मेहर बाहर आई देखा-एक फकीर द्वार पर खड़ा है।
rajan
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"खुदा मुश्किल आसान करेगा, बेटा! कुछ फकीर को देने की मेहरबानी करो..." बुड्डा फकीर बोला। मेहर खिलखिलाकर हंस पड। बोली- "बाबा हम भी तो फकीर ही हैं। हमारे पास सोना-चांदी नहीं, महज गरीबी है। ___

"बेटी!.." फकीर कहने लगा, गरीबों के दरवाजे पर खुदा साया रहता है। खुदा का तेरी सब मुरादे पूरी करेगा, बेटी! ला, फकीर को मायूस न कर। एक मुट्ठी भीख देकर फकीर की दुआ ले।"

तुम दुआ दोगे ?..." मेहर अपनी हंसी को न रोक सकी और खिलखिला पड। -इन्सान होकर इंसान को दुआ दोगे? इतनी ताकत है तुममें?"

"फकीरों की ताकत त् नहीं जान सकती, बेटी ! तेरी जिंदगी हंसी-खुशी में बीत रही है। खुदा के फजल से, फकीरों की जुबान से निकली हुई दुआ हमेशा बर आया करती है, बेटी! मांग जो तेरी मुराद हो..." ‘

फकीर ने कहा और पत्थर के चबूतरे पर जमकर बैठ गया- "बेटी! तु हंस रही है। तुझे इस फकीर पर यकीन नहीं आ रहा है। तु सोच रही है कि हाड-मांस का यह पुतला, तुम जैसी हर को क्या दुआ सकेगा? यही सोच रही है न तू?... मगर तेरा ख्याल गलत है... ____

बाबा!..." मेहर अविश्वासयुक्त स्वर में बोली- "तुम मुझे दुआ देना चाहते हो? अच्छा, मैं भी तुम्हारी ताकत देखना चाहती हूं, जईफ फकीर! बोलो तुम मुझे क्या दुआ दोगे?"

"दूंगा बेटी ! खुदा की कसम खाकर कहता हूं कि मैं तुझे दुआ दूंगा। तेरी मुराद पूरी करने के लिए खदा से मिन्नत करूंगा।" -फकीर बोला। लम्बी-लम्बी सफेद दाढ़ी वाले उस बयोवृद्ध के चेहरे से गंभीरता टपक रही थी।

"मैं जानना चाहती हूं कि मेरी किस्मत में क्या लिखा है।" मेहर ने पूछा।

"बस, इतनी-सी बात!..." फकीर बोला और पत्थर के चबूतरे पर घुटने के बल बैठ गया। जमीन पर सिर टेककर उसने न जाने क्या पड। उसके अंतिम शब्द थे- “या रब, या खुदा। इस नादान छोकरी की सब ख्वाहिशें पूरी कर। फकीर की मिन्नत है, तेरे फरिश्ते की आरजू है।"

मिन्नतें करते-करते एकाएक फकीर चौंक पड_T। उसके मुंह से कांपती हुई आवाज निकली- “यह क्या? कहर ! खुदा का कहर ! गजब!"

फकीर की आंखें मेहर पर आकर रुक गईं- "बेटी ! मैं तेरी किस्मत पढ़ रहा हूं, मैं देख रहा हूं कि तेरी ख्वाहिश पूरी होगी- जरूर होगी। तू सुलतान काशगर की महबूबा बनेगी, मगर खुश न रह सकेगी। तेरी जिंदगी उलट-फेर की जिंदगी है। शहंशाह को पाकर दुनिया के सारे ऐश व इशरत पाकर भी, तेरा दिल हमेशा जलता रहेगा। तेरी ही वजह से सुलतान पर भी- खुदा न करे आफत आएगी, मगर खैर। खुदा यही चाहता है और यही होगा भी..." कहता हुआ फकीर उठ खडा हुआ।


इसके बाद फकीर ने मेहर के चेहरे को ध्यानपूर्वक देखा। मेहर की मुखाकृति इस समय पीतवर्ण धारण करती जा रही थी।

उफ! बुड्डा फकीर पागल हो गया है क्या? कहां यह एक मामूली कबीले के सरदार की लडकी और कहां दीन-दुनिया के बादशाह सुलतान काशगर। फिर वह उन्हें कैसे पा सकती है? क्या सिर्फ फकीर की दुआ से, एक इंसान के कहने से ऐसा है सकता है?

"खुदाई खिदमतगार ने जो कुछ देना था, दे दिया..." फकीर बोला- “अब उसका सवाल पूरा कर।"

मगर मेहर ने मानो सुना ही नहीं। वह तो मूर्तिवत् विस्फरित नेत्रों से देखती खडा थी एकदम मौन।
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rajan
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शहजादा परवेज का महल भी बहुत सुंदर और विशाल बना हुआ है। आराम की सभी आवश्यक चीजें एकत्रित करने में कोई कमी नहीं की गई थी।

परवेज अपने महल में अकेला ही रहता था। न तो उसकी अभी शादी हुई है और न उसका शादी की ओर झुकाव ही हैं।

इस समय शहजादा परवेज अपने प्रकोष्ठ में गावतकिए के सहारे एक पलंग पर बैठा है। उसके सामने ही चांदी की एक सुंदर चौकी पर एक नवयुवक बैठा है। इस नवयुवक के चेहरे पर की बारीक मछे उसके कम उम्न होने की साक्षी है। सिर पर बहमुल्य पगडा बंधी है। हाथ की उंगलियों में हीरे की अंगूठियां चमक रही हैं। मुखाकृति का विशेष रूप से निरीक्षण करने पर,यह भी स्पष्ट हो जाता है कि युवक का आचरण ठीक नहीं है।

"शहजादे साहब ! देखना, मेरा असली राज किसी पर जाहिर न होने पाए। जो कुछ कहना या करना, समझ-बूझकर करना- नहीं तो राज फाश होने पर हम और तुम कहीं के नहीं रहेंगे-" उस नवयुवक ने कहा।

"नहीं-नहीं दोस्त, कमर। तुम इत्मीनान रखो। तुम्हारा राज कोई नहीं जान सकेगा..." परवेज ने कहा- "हां तो तुम्हारा यह कहना है कि मैं बहुत ही बदकिस्मत हूं और किस्मत बनाने के लिए मुझे तुम्हारी सलाह लेनी चाहिए, यहीं न।।

"तुम ठीक समझे, शहजादे ! .." कमर ने कहा- "तुम दुनिया के सबसे बदकिस्मत आदमी हो। सुलतान का भाई होकर भी तुम्हें कुछ भी इख्तियार हासिल नहीं। तुम सुलतान और वजीर के हाथ की कठपुतली हो। तुम्हें तो अच्छे सल्तनत के वे अदने अहलकार हैं, जो मौजमस्ती में जिंदगी बसर करते हैं, यह कितने शर्म की बात है। तुम्हें चाहिए कि सुलतान को शिकारे-शमशीर बनाकर इस परदा-ए-दुनिया से हमेशा के लिए उठा दो और खुद सुलतान बनकर ऐश करो।"

"दोस्त।" परवेज बोला- "आपने वर्षों से सोई हुई ख्वाहिश जगा दी है। सालों तक मैं भी यही सोचता रहा कि किसी तरह मैं बादशाह बन जाऊं, मगर मेरी बह ख्वाहिश अंदर ही अंदर घुटकर दम तोड देती थी! आज जबकि मुझे तुम जैसा हमदर्द मददगार मिल गया है, जो सल्तनत के हर राज से वाकिफ है, तो में सल्तनत पाने की पूरी कोशिश करूंगा। भाई के साथ दगा करूंगा सब कुछ करूंगा। सल्तनत पाने के लिए, बस तुम मेरी जी-जान से मदद करना।"

"सुलतान का क्या हाल है ?" कमर ने पूछा।

"भाईजान की हालत बदतर होती जा रही है। सभी औरतों से नफरत करने लगे हैं और अपने ख्वाबगाह में पड हुए न जाने नया-नया बडबडया करते हैं। सिर्फ अजूरी नाम की बांदी उनके साथ रहती है, मगर उससे भी वे खुश नहीं रहते। सल्तनत के कामों से उन्होंने एकदम हाथ खींच लिया है। सिर्फ बुड्ढा वजीर ही सल्तनत की देखरेख कर रहा है।"

"अभी तक तुम्हें सारी बातों का पता नहीं है, शहजादे! मुझसे सुनो। मैंने छिपे तौर पर पता लगाया है कि सुलतान की तबीयत अब यहां से एकदम ऊब गई है। वे इस सल्तनत को छोड कर एक ऐसी जगह चले जाना चाहते है, जहां जाकर उनके तडपते दिल को राहत मिल सके।"

यह बात तो हम लोगों के हक में अच्छी ही होगी। कमर ने कहा। दोनों उठ खडा हुए। शहजादे ने कहा, “आधी रात होने को आई-"अब आराम करना जरूरी है।
दोनों पास के कमरे में चले गए।
Nnnnnnnnnnnnnnnnnnnnnnnnnnnnnnnnnnnnnnnnnnnnn

औरत
औरत.
"त मेरे सामने क्यों आती है? क्यों आती है त यहां। उफ! औरत! औरत! औरत... सुलतान ने अपना माथा ठोक लिया। क्रोध से मस्तिष्क की सिराएं तन गई- “जब देखो, तब साकी। शराब, औरत।

बेचारी अजुरी हाथ में प्याला लिये हुए थर-थर कांपती खड़ी थी। उसे सुलतान के गुस्से का डर था, मगर वह उन्हें अकेला नहीं छोडना चाहती थी। ऐसी हालत में सुलतान न जाने क्या कर बैठे। “पी लीजिए मेरे मालिक।* अजूरी ने दबी जबान से कहा।

"पी लं? जहर पी लं?" सुलतान एकाएक उठकर खड हो गए। आगे बढ कर उन्होंने अजुरी का गला पकड लिया, "शैतान की बच्ची।" उन्होंने कहा और फूल-सी मुलायम अजूरी को दूर धकेल दिया। हांफते हुए पलंग पर बैठ गए। न जाने क्या स्वत: बोलते रहे। अजूरी जमीन पर पड सिसकती रही। कुछ देर बाद वह उठी और आकर सुलतान के पलंग के पास आकर खड़ी हो गईं।

"मेरे आका!" नम्र स्वर में उसने पुकारा।

"अजूरी।" एकाएक सुलतद्रन ने अजूरी को अपने पास खींच लिया और उसके अधरोष्ठ पर प्रेम की मुहर लगा दी। -"मुझे माफ करना, मेरी तितली। मुझे अपने नाजुक हाथों से शरबते अनार पिलाओ।"

सुलतान की मीठी बातों से बजरी अपना दर्द भूल गईं। वह मुस्कराती हई उठी, प्याला उठाकर उसमें शरबते-अनार भरा।

“अजूरी, तू जा।" एकाएक सुलतान का पारा, फिर चढ गया, “काली नागिन!... तू जा यहाँ से। साकी, शराब। औरत! उफ। मेरा दम घुटता जा रहा है। में इस महल से, इस सल्तनत से, इस मक्कार दुनिया से ऊब गया है। में जाऊंगा। तु जाती है या नहीं। जा शहजादे को भेज। वजीर को भेज। सबको भेज दे- कह दे मैं जा रहा हूं। मैं इस दुनिया को छोड कर जा रहा हूं- यह ले।" कहते हुए शहंशाह ने अपना शाही चोगा फाडकर चिथड-चिथड कर डाला। उनकी आंखें क्रोध से लाल हो गई। अजरी धीरे-धीरे कमरे से बाहर हो गईं।
rajan
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सुलतान बदहवास से पलंग पर लेट गए। सांस जोरों से चलने लगी। दिल की धडकन तेज हो गईं। संसार की विश्वासघातिनी स्त्रियों की दुश्चरित्रता देखकर उनका मसितष्क चक्कर खा रहा था। भयानक चिंता उन्हें सता रही थी। वे दिन-रात यही सोचते रहते कि उफ! फूल सी कोमल सित्रयां भी कितनी कठोर एवं भयंकर होती हैं। अपनी मल्का का दृष्टाचरण देखकर उन्हें संसार की सभी औरतों से घृणा हो गई थी। औरतों की छाया से भी घबरा उठते थे। अजूरी द्वारा सुलतान की अवस्था की बात सुनकर थोडी ही देर में वजीर और परवेज आ पहुंचे।

वजीर ने कहा- “जहाँपनाह, किसलिए याद फरमाया है ? "

"मेरे बुजुर्ग वजीर!" शहंशाह बोले- “अब मैं जा रहा हूं।"

“कहाँ जा रहे हैं, भाईजान?" परवेज ने पूछा।

*पता नहीं कहा जाऊंगा शहजादे !* सुलतान बोले। इस समय वे इस प्रकार बातें कर रहे थे मानो एकदम स्वस्थ हों- मगर जाऊंगा जरूर। रोने की कोशिश बेकार है। मेरे लौटने की भी कोई उम्मीद नहीं, यही मुलाकात आखिरी होगी। तुम बजीर ! अपनी आंखें पोंछ लो। तुम्हें रोना नहीं चाहिए।"

"मगर शहंशाह! सल्तनत का क्या होगा। मेरा क्या होगा? रियाया का क्या होगा? " बुड्डा वजीर सुबक रहा था। ___

“तुम और शहजादा परवेज मिलकर सल्तनत की देखभाल करना। अब मुझसे कोई उम्मीद न रखो। जिस शख्स का दिलों-दिमाग बेकाबू हो गया हो, वह रियाया का- सल्तनत का, क्या भला कर सकेगा? मुझे दिन-रात ये दुनियादारी खटका करती है। यह महल,यह सल्तनत,यह दुनिया सब मेरे दिल की जलन को बढ़ा रहे हैं। अब मैं इन सबसे दूर, बहुत दूर भाग जाना चाहता है। तुम शहजादे गमगीन क्यों हो? दुनिया में कोई हमेशा नहीं रहता। आजतक मैंने तुम्हें कलेजे से लगाकर रखा, तुम्हें अपनी जान से बढ़ कर प्यार किया...! मगर अफसोस न करना!... और अजुरी। इधर आओ। छिपी क्यों हो? तुमने मुझे आराम से रखने की बहुत कोशिश की। मैं तुम पर बहुत खुश हूँ अजूरी। अब मैं तुम्हें हमेशा के लिए छोड़कर जा रहा है। ना-ना! आंसू न गिराओं, अजूरी। मैं जानता है कि तुम मुझे बहुत चाहती हो, मगर मैं अपने दिल से मजबूर हूं। मुझे जाना ही होगा। मैं तुम्हें आजाद करता हूँ। तुम जाकर बाहरी दुनिया में आराम की जिंदगी बसर करो। वजीर, इस छोकरी को इतनी रकम दो, जो इसकी जिंदगी से काफी ज्यादा हो।" कहते हुए सुलतान आगे बढ़।।

वजीर, अजरी और परवेज ने जाते हुए सुलतान को अंतिम बार क्रमश: तीन बार अभिवादन किया। सुलतान बाहर आकर पैदल ही चल पड़। जो एक दिन फूलों की शय्या पर सोता था,हीरों और जवाहरात से खेला करता था, वही शहंशाह सारे सुखों पर लात मारकर सबको रोता हुआ छोडकर, सबके देखते-देखते आंखों से ओझल हो गया। समय परिवर्तनशील होता है न।

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पाच
कबीले वालों में भयानक कोलाहल मचा हुआ था। स्त्री-पुरुष, बाल-बद्ध सभी भय से अर्तनाद कर रहे थे। अर्धरात्रि की बेला में भयावह वातावरण उपस्थित हो गया था।

झोपडी में सोई हुई मेहर की निद्रा इस कोलाहल से भंग हो गईं। उसने सुना कबीले वालों का अर्तनाद।

मेहर का वृद्ध पिता अब्दुल्ला एक कोने में पड़ा हुआ आराम से खरटि ले रहा था। दूसरे कोने में एक टूटी चारपाई पर जहूर बंदी की अवस्था में सोया पड़ा हुआ था, परंतु कुछ-कुछ जाग चुका था।

झोंपड़ी में घना अंधेरा छाया हुआ था। मेहर टटोलती हुई जहर की चारपाई की और बढ, क्योंकि वहीं ताक पर मशाल रखी हुई थी, जो आवश्यकता के समय पर प्रकाश का काम देती थी।

मेहर जहर की चारपाई के पास आकर रुकी। जहर जाग गया था, परंतु उसने सोने का बहाना कर लिया। बाहर अभी तक कोलाहल हो रहा था। ज्योहि मेहर ने मशाल लेने के लिए हाथ बढ या कि झोंपड के द्वार पर किसी जंगली जानवर के गरजने का स्वर सुनाई पड़ाI महा आपाद मस्तक सिहर उठी और 'या खुदा' कहती हुई जहर की चारपाई पर धड़ाम से गिर पड । जहर ने लपककर उसे अपने अंकपाश में ले लिया और धीरे से बोला-मेहर! मेरी मल्का! डरो नहीं, मालूम होता है कोई जंगली जानवर आ घुसा है।"

जहर ने मेहर को अपने अंक में कस लिया था। मेहर को उसका यह व्यवहार अरुचिकर प्रतीत हुआ। उसने अंक से अपने को छुडने का बहुत प्रयत्न किया, मगर जहूर ने उसे नहीं छोड।

"काफिर कहीं का...!" मेहर ने कसकर एक तमाचा जहूर के मुंह पर जड दिया।

उसी समय अकस्मात् वृद्ध अब्दुल्ला की निद्रा भंग हो गईं। बाहर का कोलाहल सुनकर वह उठ बैठा-"यह शोरगुल कैसा, बेटी! जरा मशाल तो जला।"

अब्दल्ला को जगा देखकर जहर ने मेहर को छोड़ दिया। मेहर ने आगे बढ़ कर मशाल जलाई। इतने में कबीले का एक आदमी दौडता हुआ झोपडी के द्वार पर आया और चिल्लाकर बोला—"सरदार। सरदार।"

"क्या है?" -कहते हुए अब्दुल्ला ने द्वार खोल दिया। वह आदमी डर से बुरी तरह कांप रहा था। उसके मुंह से शब्द नहीं निकल पा रहे थे। ___

"बोल! बोल इस तरह कांप क्यों रहा है? क्या बात है? क्यों शोर हो रहा है. अपने पैर जरा देख। इस तरह कांप रहे हैं, जैसे पेड की टहनियां हवा का झोंका खाकर कांपने लगती हैं। सम्हाल अपने को।" ___

अब्दुल्ला की घुड की सुनकर उस आदमी का होश कुछ ठिकाने आया, “सरदार।" वह कहने लगा— एक जंगली जानवर कबीले में घुस आया है और इधर-उधर लोगों को चीरता फाडता हुआ दौड रहा है! वह लीजिये!—या खुदा !" जानवर की आवाज सुनकर वह आदमी गिरते-गिरते बचा—“वह अब तक दस आदमियों को शिकार बना चुका है, और कई घायल पड] हैं।"

"मैं देखता हूं। सरदार अब्दुल्ला बोला— “ला मेरी तलवार ...ला मेरी बोतल ! "

मेहर ने बुद्धे को तलवार दी और शराब की बोतल भी। बुड्डा बोतल को मुंह से लगाते ही एक सांस में पी गया और उस ओर झपटा, जिधर से जानवर के दहाडने का स्वर सुनाई पड़ रहा था।

*अब क्या होगा?" मेहर ने कांपते हुए कहा।

"घबड ओ नहीं मेहर!" जहूर ने उसको सांत्वना देने का प्रयत्न किया- "फिक्र न करो, खुदा हाफिज !"

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