काली घटा/ गुलशन नन्दा KALI GHATA by GULSHAN NANDA

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adeswal
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Re: काली घटा/ गुलशन नन्दा KALI GHATA by GULSHAN NANDA

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होनी को कौन टाल सकता है ! कुछ दिन के पश्चात् राजेन्द्र का एक एक्सप्रेस तार आप्त हुआ ! कुमुद की दशा बहुत बिगड़ चुकी थी। उसने वासुदेव को बुलाया था। वासुदेव ने माधुरी को फिर साथ चलने को कहा, परन्तु उसने फिर भी इन्कार कर दिया और वासुदेव अकेला ही जाने की तैयारी करने लगा।

वह चला गया और माधुरी अकेली रह गई । किन्तु, उसके मन की व्यग्रता वैसी ही रही 1. उसकी व्याकुलता बढ़ती ही चली गई। वह वहाँ अकेली घबराने लगी और वासुदेव के साथ न जाकर पछता रही थी। भाँति-भाँति के विचार उसे घेर लेते । 'राम जाने वह क्या सोचते होंगे ? जब वह वहाँ अकेले जायेंगे तो राजी उनके साथ मुझे न देखकर क्या सोचेगा ? क्या कहेगा ? कहीं वह यह न सोच बैठे कि मैं कुमुद से ईय करने लगी हूँ।' ऐसे ही विचार उसके मस्तिष्क में चकर काटने लगते। वह एक पिंजरे के पक्षी के समान फड़फड़ाकर रह जाती है उसे किसी भी भाँति चैन न पड़ता।
वासुदेव को गये दस दिन बीत गये, पर उसकी कोई सूचना न थी। जाते हुए वह कह गया था कि कुमुद के ठीक होने पर वह दोनों को संग ले पायेगा । यदि उनके आने की सम्भावना न हुई तो वह उन्हें देख कर स्वयं वापस लौट पायेगा । उसने इस बीच में एक पत्र भी न डाला हो सकता है कि उन लोगों ने आने का निश्चय कर लिया हो और वह रुक गया हो । बस, इसी विचार से उसे कुछ सांत्वना मिलती। वह अपने घर को नये-नये ढंग से सजाती और सँवारती ताकि कुमुद को अपनी योग्यता से प्रभावित कर पाये।
अगले दिन भी कोई पत्र न आया । नह निराश हो गई। उसने खाना भी न खाया और अपने कमरे में जा पलंग पर पड़ रही । साँझ ढलती । जा रही थी । अनजाने ही उसका मन बैठा जा रहा था । वह मन ही मन
कहती कि रात हो ही न । यह अंधेरे की चादर उसके मन में भय का संचार कर देती । वह इस दिन के उजाले का साथ लाती थी। .मन के भीतर जब भय अंगड़ाइयाँ लेने लगे तो बाहर के अंधेरे और तनिक से खटके से भी वह उरने लगता है, जब दिन भर के उजले नारों को राभिकी काली चादर अपने में छुपाकर प्रांखों के सामने छा जाती है तब मन की परतों में पा पाप साक्षातकार होने लगता है, जिसके स्मरण मात्र से ही हृदर थरथराने लगता है।
उस समय ठीक ऐसी ही देशा माधुरी की भी थी। रात्रि की काली चादर को फलते देखकर बह अपने मन को संभालने की चेष्टा कर रही थी। उसके मन में उठता गुजार और मस्तिष्क का विकार आपने सब बीते दिनों की वह पाप-बुक्त घड़ियाँ उजागर कर रहा था जो उसे इन अंधेरी रातों में न जाने कब तक तड़पाती रहतीं। उसे लगता कि कोई उसके मन को दृढ़ता से अपनी मुट्ठी में जकड़े हुए हैं और उसे निर्दयता से कुचल देना चाहता है।
यह बीती भीगी रातें, भील के मदहोश किनारे, सरसराते हुए हवा के नील झोंके और उनमें बसो मानक सुगन्ध ! क-करो इस अंधेरे में जुगनू की भाँति जम के मानस पटल पर चमकने लगी थी । उसको नसें खिची जा रही थीं, नाड़ी थरथरा रही थी, होट पकमा रहे थे
और धवराहट के कारण माथे पर पसीने के कतरे जमा हो रहे थे।
अचानक उसे वासुदेव का ध्यान पाया। मन को सहारा मिला और वह गुमसुम सी अपने कमरे में आ गई । - रात अभी हुई ही थी। माधुरी पलंग पर लेटी वासुदेव के विषय में सोचती जा रही थी। अकेले में भव न लगे इस कारण उसने गंगा को अपने पास ही बिठा लिया और उससे बातें करने लगी। माधुरी के कान गंगा की बातों पर लगे थे और मन पूना में था ।
रात का भी पहला पहर ही था । बाहर हल्की सी चूदाबांदी हो..
रही थी। एकाएक फाटक पर खटका हुआ। कोई द्वार खटखटा रहा था। वह चौंककर उठ बैठी-गंगा बात करते-करते मू रुक गई मानो रिकार्ड पर से कोई सुई हटा ले । दोनों एक दूसरे की ओर देखने लगीं।
"जरा देख तो कौन है ?" माधुरी ने गंगा से कहा । गंगा बाहर चली गई। उसने लपककर साथ की खिड़की खोली और नीचे झांक कर देखा जहाँ सहमी हुई गंगा ड्योढ़ी की ओर जा रही थी।
___ गंगा के पहुँचने से पहले ही चौकीदार ने फाटक खोल दिया था। माधुरी साँस रोके नीचे देख रही थी। उसके कानों में वासुदेव का स्वर पड़ा। वह कह रहा था---
"नये अलिथि को भीतर ले आओ।" माधुरी वापस बिस्तर पर आ बैठो । उसका पति आ गया था-शायद राजन्द्र और कुमुद भी साथ थे। राजेन्द्र के विचार से ही वह सिहर उठी और सांस रोके उनकी पदचाप सुनने लगी। उसमें इतना साहस न था कि बाहर जाकर वह उन लोगों का स्वागत करती।
ज्यों ही वासुदेव पर्दा हटाकर भीतर आया, वह झट से खड़ी हो गई। दृष्टि मिली--बासुदेव ने गम्भीर मुख पर मुस्कराहट लाते हुए कहा--
"माधुरी कैसी हो?" "अच्छी हूँ..'आप पा गये...?" . "लगता तो ऐसा ही है।" . "परदेश क्या गये कि बात करने का ढंग ही बदल गया।"
"क्यों ?"
"अपने घर पाकर भी प्रत्येक वस्तु को एक अपरिचित की दृष्टि । से देख रहे हैं।"
"लेकिन तुम्हें नहीं।" "कसे विश्वास करू ?"
"अपने मन से पूछो।" "हटिये..."
उसने निकट ही खड़ी गंगा की ओर संकेत किया और फिर नजरें अपने पनि की ओर लगा दी। माधुरी ने अपनी चोर-निगाहों को थोड़ी दूर तक ले जाते हुए, श्री मे से पूछा--
___ "कोई साथ भी है क्या?"
"हाँ !.."देखो तो किसे लाया हूँ...!" माधुरी ने द्वार पर देखा वहाँ कोई न था । बोली---- "क्या वह संग पाये हैं ?"
"कौन ? राजी ! 'नहीं वह नहीं आया ।" : "तो क्या कुमुद अकेली आई है ?"
- "वह अब क्या आयेगी माधुरी...!" बह एकाएक गम्भीर हो गया।
'क्यू..? क्या...?" अनायास माधुरी ने पूछा और अपने पति के मुख को देखने लगी । उसकी आँखों में आँसू देखकर माधुरी ने अपना प्रश्न फिर दोहराया।
"माधुरी ! कुमुद तो भगवान को प्यारी हो गई।" बामुधि का गाना भर पाया और उसने मुह मोड़ लिया।
"क्या हुआ था उसे...?"
उसी समय पर्दा हटाकर गंगा एक स्त्री को साथ लिये भीतर पाई, जिसकी गोद में एक नन्हा सा बालक था- उसके प्रश्न का उत्तर ।
स्त्री वेश-भूषा से दासी प्रतीत हो रही थी।
"यह है राजी का बेटा.."जो इस संसार में आते ही अपनी मां को खो बैठा।" वासुदेव ने कहा । माधुरी की समझ में सब आ गया । वासुदेव
• ने फिर कहा
"मेरे जाने से पूर्व ही वह इस लोक से जा चुकी थी। और दो दिन ।
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का यह बालक राजेन्द्र के लिये प्रश्न बनकर रह गया ।"
"वह स्वयं नहीं पाये क्या ?"
"नहीं.''इसे ही भेजा है तुम्हारे लिये । कह रहा था, माधुरी को छोड़ कोई भी तो अपना नहीं जो इसे अपने बच्चे के समान पाल सके...।" ___माधुरी की आँखों में रुके हुए आँसू बरस पड़े। वह धीरे-धीरे उस दासी की ओर बढ़ी जिसकी गोद में बच्चा हाथ-पांव चला रहा था । बच्चा बड़ा ही प्यारा था । कुछ क्षरण वह एकटक उसे देखती रही और फिर उसे अपनी बाँहों में लेकर वक्ष से चिपका लिया !
भावना का बाँध टूट पड़ा। ममत्व जागृत हो उठा । बुझे दीप फिर जल उठे । अँधेरे मन में फिर उजाला भर गया जैसे काली घटा में सूर्य की किरण फूट पड़ी हो।


उसे अनुभव हुआ कि उसके जीवन के सब से बड़े अभाव की पूर्ति हो गई हो । बालक को वक्ष से लगाये वह खो गई । उसे सुध तब आई, जब वासुदेव ने उसे छुपा और बाँहों का सहारा देकर दूसरे कमरे में ले गया।

पति के साथ वह अन्दर जा रही थी तो उसने अनुभव किया जैसे मझधार में घिरी नाव को पतवार मिल गया हो और उसी का सहारा लिये वह तुफानी भँवर से मुक्त हो गई हो। अंधेरे मस्तिष्क में उभरते हुए विचित्र भाव और बीते दिनों की अधूरी रेखायें धीरे-धीरे मिलती जा रही थीं और वह फिर से पाताल से उभरकर आकाश को छूने लगी।

खुशियाँ झूम उठीं । अधूरे स्वप्न साकार हो गये और वह स्वतन्त्र पंछी की भाँति अनन्त आकाश में विचरने लगी। उसी क्षण एक आवाज । ने, जो उसके जीवन के पुराने वातावरण के लिये नई और अनोखी थी, । उसे सजग कर दिया जैसे किसी ने झंझोड़कर उसे सचेत कर दिया । हो । वह स्वप्नों के संसार से निकल वास्तविकता को देखने लगी। .

राजेन्द्र का बेटा, उसका अपना पुत्र रो रहा था। उसकी रोने की आवाज और चीखें उसके कानों में ये उतरी जैसे जीवन की सुरीली और मधुर तान । उसने उसे अपने दक्ष में और भी कसकर समेट लिया जैसे उसने अपनी खोई जीवन-निधि को फिर पा लिया हो और वह किसी नई मंजिल की ओर अपने पग बढ़ा रही हो।

the end
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