औरत जो एक नदी है

Jemsbond
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Re: औरत जो एक नदी है

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दामिनी ने अनायास मेरी तरफ करवट बदली थी - तुमने कभी ये अनुभव किया है अशेष, जब कोई अनचाहा व्यक्ति हमारे करीब आता है, हमें छूता है, तब ऐसा प्रतीत होता है कि जैसे शरीर से कोई छिपकली चिपक गई है! कैसा वितृष्ण कर देनेवाला अनुभव होता है... उसने उबकाई लेने के-से अंदाज में कहा था - उसके इस आकस्मिक प्रसंग परिवर्तन ने मुझे चौंकाया था। न जाने एक क्षण में कहाँ से कहाँ पहुँच जाती थी - एकदम खानाबदोश थी खयालों से... वह कह रही थी बेखबर -

एक दौर था जब मुझे सेक्स से घिन आती थी। कोई छू भी लेता था तो बर्दाश्त नहीं होता था। बात के अंत में आते-आते उसने एक झुरझुरी-सी ली थी।

- कहती हो तुम्हें सेक्स से घृणा हुआ करती थी! उसकी खुली पीठ पर कोई अदृश्य कविता लिखते हुए मेरे स्वर में आश्चर्य का संसार था। इसी स्त्री ने अपनी आंतरिक इच्छाओं की ऊर्जा से मेरे पोर-पोर में एक उम्र के बाद भीषण अलाव सुलगा दिए हैं! कैसे यकीन कर लूँ मैं... वह मेरी तरफ किंचित मुड़ी थी, बस इतना कि मैं शाम की बची हुई आखिरी उजाले में उसकी हल्के-हल्के चमकती हुई कनपटी देख सकूँ - पूरी नहीं, उसका छोटा-सा हिस्सा... गहरे प्रेम में थी वह - वितृष्णा के उस बोझिल क्षण में भी - ये उसकी आँखें कह रही थी। मैं जानता था, शरीर के तंद्रिल सुख और आलस्य से वह अभी तक उबर नहीं पाई थी पूरी तरह।

- तुम्हें आश्चर्य होता है? उसके प्रश्न में कोई जिज्ञासा नहीं थी, वह अब इतना तो जानती थी मुझे।

- सेक्स से घृणा थी क्योंकि किसी से सही अर्थों में प्रेम नहीं था। प्रेम के अभाव में सेक्स पशु के स्तर पर उतर जाता है। उस हद तक जाने की संवेदनहीनता कभी जुटा नहीं पाई। पशु होकर जन्म जरूर लिया है, मगर उसी स्तर तक रह जाना नहीं चाहती थी। मनुष्य के पास विकल्प है, बस इच्छा शक्ति का समन होना चाहिए...

- दैहिकता बहुत आवश्यक है रूह की पराकाष्ठा तक पहुँचने के लिए, मैंने उसके गाल थपथपाए थे - ये हमारी देह ही है जो हमें रूह तक पहुँचाती है... मांसल से सूक्ष्म तक... इसका एकमात्र रास्ता है ये... हवा में तैरती अशरीरी सुगंध का पता जमीन पर खिला हुआ फूल ही देता है। अपने शरीर और उसकी कैफियतों को मिट्टी-पत्थर नहीं, मंदिर की तरह पवित्र मानो - इसमें ही हमारी आत्मा - परमात्मा का अंश - निवास करती है।

मेरी बात सुनते हुए वह मेरे सीने में निविड़ होकर सिमट आई थी -

ठीक! आज समझ सकती हूँ, प्रेम में न होना ही मेरी हर समस्या के उत्स में था। अब प्रेम में हूँ तो सब सही हो गया है... अनायास कितनी उजली हो आई थीं उसके चेहरे की रेखाएँ, जैसे ढेर-से हरसिंगार फूल आए हों... चहक भरी आवाज में कहती रही थी -

सेक्स में हम अपने को बाँटते हैं, शेयर करते हैं स्वयं को पूरी तरह, ईमानदारी से उसके साथ जिसे हम प्रेम करते हैं... उसके साथ एक हो जाना चाहते हैं - हर स्तर पर! यह एक शारीरिक ही नहीं, आत्मिक प्रकिया भी है - योग में लिप्त होने और अर्द्ध नारीश्वर की स्थिति में पहुँचने की...।

एक छोटी-सी चुप्पी के बाद उसने अपना चेहरा उठाकर मुझे देखा था - मैं हमेशा जानती थी, सेक्स एक खूबसूरत अनुभव है - जब यह घटता है, खासकर दो ऐसे व्यक्तियों के बीच जिनमें प्रेम हो तो देह में स्वर्ग रच देता है, समाधि और मोक्ष जैसी किसी विलक्षण स्थिति में मनुष्य को पहुँचा देता है। जानते हो, प्रेम और सेक्स के दुर्लभ जोड़ से जुड़ा हुआ दो शरीर वास्तव में धरती और स्वर्ग के बीच का एकमात्र सेतु है। इसके जरिए हम हमारे अंतिम लक्ष्य - मुक्ति - अपने निर्वाण को प्राप्त हो सकते हैं...

मैं तो मुक्त हो चुका, तुम अपनी कहो... उसके बालों में चेहरा छिपाकर मैं गहरी साँसें ले रहा था - तुम्हारी देह से ये कैसी गंध आती है मृगया... मुझे गश आने लगता है, बैठे-बैठे सो जाता हूँ... वह हँसकर उठ गई थी - कबतक भटकोगे इस मृग-मरीचिका के पीछे प्राणी...

- क्यों, मृग मरीचिका क्यों, अभी तो तुम कह रही थी, देह मुक्ति का पहला सोपान है... मैं तो अपनी मोक्ष की तलाश में निकलता हूँ तुम्हारे इस देह के वन-उपवन में। 'तुम्हारी देहलता के ये बड़े-बड़े गुलाब...' मैंने उसकी बाँहें सहलाई थीं - पसीने से भीगी हुई, मांसल और सुडौल...

- बहुत हुआ... सिहरकर अपनी खुली पीठ पर उसने ताँत की साड़ी का पीला आँचल खींच लिया था।

- ये अच्छा है...

- क्या?

- बिना ब्लाउज की साड़ी... पता है, मैंने देखा है, बंगाल के कई गाँवों में स्त्रियाँ साड़ी के साथ ब्लाउज नहीं पहनतीं, एकदम युवा स्त्री भी! बहुत आकर्षक लगता है - उनका हिलते-डुलते हुए चलना... कई बार खेतों से धान का गट्ठर सर पर उठाकर चलते हुए औरतों के पीछे-पीछे मैं मीलों चलता जाता था उनकी दुलकी चाल के साथ कदम मिलाने की कोशिश करते हुए...

- बचपन से बुरे हो...

- कौन कहता है बचपन से, मैं तो पैदायशी बुरा हूँ...

- जानती हूँ, और अपनी तारीफ करने की जरूरत नहीं। उसने मेरी पीठ पर धौल जमाई थी -

याद रखो, हम अपनी सकारात्मक ऊर्जा को जितना प्रेम में परिवर्तित कर पाएँगे उतना ही सेक्स की आवश्यकता कम होती जाएगी।

किसी साध्वी की तरह अब वह बोल रही थी, मगर मैं अपनी स्मृति में मगन था - क्या कुछ नहीं करता था मैं उनका ध्यान अपनी ओर आकर्षित करने के लिए।

- क्यों, तुम क्यों? तुम तो पुरुष हो... वह बाहर जाते-जाते थम गई थी।

- इसलिए तो, पुरुष को ही अपनी स्त्री का प्रेम प्राप्त करने के लिए तरह-तरह के स्वाँग भरने पड़ते हैं। अपने चारों तरफ देख लो - वसंत ऋतु में कोयल की कूक अपनी मादा को प्रणय का निंमत्रण देने के लिए ही होती है, मोर भी सावन में अपने पंख फैलाकर मोरनी को रिझाने के लिए ही नाचता है। अपनी मादा को लुभाने के लिए नर को सुंदर भी होना पड़ता है, पशुओं में देख लो, मादा की अपेक्षा नर ही ज्यादा सुंदर होते हैं...

- अच्छा, और स्त्री को क्या करना पड़ता है?

- कुछ नहीं, उनका स्त्री होना ही काफी होता है।

- अच्छा...!

- और एक बात...

- क्या?

- हीरा भी अपनी चमक के लिए रोशनी का मोहताज होता है।

- अर्थात...?

- अर्थात तुम्हें - एक स्त्री को - खूबसूरत और मुकम्मल होने के लिए हमारे प्रेम और परस की दरकार है।

- देह की सुंदरता का क्या है - आज मोतिया आब तो कल झड़ता हुआ अबरक... ये अंदर की खूबसूरती होती है जो बाहर तक झलकती है।

दामिनी का चेहरा अपनी सादगी में किसी जोगन का-सा दिखने लगा था।

- हाँ, मगर ये दिखता देह पर ही, किसी शून्य पर नहीं... देह की जमीन पर ही प्यार का ताजमहल खड़ा होता है...

- तुम फिर कविता करने लगे, तुम्हारी बातें किसी कविता का भावानुवाद लगती हैं... दामिनी की आँखों की शरारत उसके होंठों पर मचल आई थी।

- 'जो अनुवाद में खो गया वह कविता ही तो थी...'

- आज आपसे बहुत कुछ सीख रही हूँ मास्टरजी!

- हाँ? कुछ और सीखना चाहोगी?

- क्या? उसने मुझे भौंहें टेढी करके देखा था।

- शक मत करो, जबतक विश्वास नहीं करोगी, ज्ञान अर्जित नहीं कर पाओगी...

- मालूम है... वह कमरे से बाहर निकल गई थी।

मैं हँसते हुए अपनी शर्ट पहनने लगा था। दामिनी को गुस्सा दिलाने में मुझे मजा आता था। गुस्सा होने से उसकी छोटी-सी नाक कैसे लाल पड़ जाती थी!

इस घटना के दूसरे ही दिन मुझे अपने घर जाना पड़ा था। बड़ी बेटी विनीता बीमार पड़ गई थी। डॉक्टर ने टायफायड बतलाया था। जाना पड़ेगा सुनकर दामिनी उदास तो हुई थी, मगर रोका नहीं था। कहा था, एकदम उदास होकर, पहुँचते ही उसे खबर करूँ।

अपने घर पहुँचकर महसूस हुआ था, कहीं और चला आया हूँ, एक अतिथि की तरह। बिल्कुल मन नहीं लग रहा था शुरू-शुरू में। सबसे उखड़ा-उखड़ा फिर रहा था। हालाँकि मैं पूरी कोशिश कर रहा था। दमिनी के फोन बार-बार आ जाते थे। उससे बातें करने के लिए मुझे उठकर बाहर जाना पड़ता। ये सब उमा ने नोटिस किया होगा - मेरा धीमे स्वर में बोलना आदि। कई बार उसने सहज होकर पूछा भी था, किसके फोन बार-बार आते हैं। मैंने टाल दिया था, मगर जानता था, उसे संदेह हो गया है।

सप्ताह भर बाद बेटी की तबीयत सँभल गई तो मैं गोवा लौट आया। उमा ने रोकना चाहा, मगर मैं रुक नहीं सकता था। इधर दामिनी भी परेशान हो रही थी। रोज पूछती थी, मैं कब लौट रहा हूँ। लौटकर स्टेशन से सीधे उसके कॉटेज पहुँचा था। उस समय वह कॉटेज के पीछे नारियल के पत्तों से बने मड़ैया की छाँव में एक ईजी चेयर पर अधलेटी-सी सोई पड़ी थी। सीने पर एक किताब खुली रखी थी। शायद पढ़ते हुए ही आँख लग गई होगी। मैंने उसे जगाया नहीं था। वही बगल में बैठा उसे निहारता रहा था। न जाने कबतक। मड़ैया से छनकर आती हुई धूप की नन्हीं, चंचल तितलियाँ उसके माथे, कंधे पर चमक रही थी। नाक की हल्की लाल नोंक पर पसीने की बूँदें जम आईं थीं।

आँख खुलने पर उसकी नजर मुझपर पड़ी तो वह एकदम से चौंक गई। एक बच्ची की तरह खुश हो गई थी वह। हँसी होंठों, आँखों से बह रही थी जैसे। अपनी कुर्सी से उठकर मेरी गोद में बैठ गई थी, गले में बाँहें लिपटाते हुए - तुम आ गए... अभी तुम्हारा ही सपना देख रही थी।

अच्छा, क्या देख रही थी? मैंने उसे सीने में समेट लिया था, खूब भींचकर... कितनी नर्म थी वो, कपास के फूल की तरह!

देख रही थी कि तुम नहीं आ रहे हो, बहुत रोना आ रहा था मुझे... कहते हुए वास्तव में उसकी आवाज छलछला आई थी। मैंने उसे उठाकर खड़ी कर दिया था - चलो, अंदर चलते हैं...

उसदिन उसका कमरा बुरी तरह बिखरा हुआ था। कई बक्से इधर-उधर खुले पड़े थे, उनके अंदर का सामान फर्श पर... न जाने क्या-क्या - रंगीन फीते, टूटी हुई चूड़ियों के टुकड़े, हाथ-पैर मुड़े हुए गुड्डे-गुड़िए, पुराने, बदरंग कार्ड्स... मुझे बहुत आश्चर्य हो रहा था यह सब देखकर। वह सफाई देती हुई-सी बोली थी - तुम नहीं थे, जी बहुत घबरा रहा था अकेले में, इसलिए... अब मैंने गौर किया था, उसकी आँखों में टँकी गीली उदासी और खोयापन, जैसे रोती रही हो दिनों तक, सोई न हो ठीक से... मेरे पीछे क्या हुआ, क्या कुछ करती रही वह! मैंने हालात के सूत्र पकड़ने चाहे थे, इसी कोशिश में टटोला था उसे -

क्यों, क्या तुम झोंपड़पट्टी के बच्चों को भी पढ़ाने नहीं गई इन दिनों? तुम्हारा समय वहाँ अच्छा बीत जाता है, तुम्हीं कहती हो... नारी निकेतन के काम का भी क्या हुआ? और ये सब हैं क्या! एक फटी हुई चुनरी उठाकर मैंने दोनों हाथों से पकड़कर खींचा था, जीर्ण कपड़े का टुकड़ा झट् से फट गया था।

ये क्या कर दिया तुमने... ये मेरी मीता की एकमात्र निशानी थी। अब वह इस दुनिया में नहीं... दामिनी अचानक फूट-फूटकर रो पड़ी थी - तुमने मुझसे मेरा बचपन ही छीन लिया अशेष...

आई एम एक्सट्रीमली सॉरी दामिनी... मैं उसके इस अप्रत्याशित व्यवहार से सकपका उठा था। समझ नहीं पा रहा था क्या करूँ या कहूँ। वह अपना मुँह ढाँपे रोती रही थी, देरतक। मुझे पहली बार उसकी यह बचकानी हरकत नागवार लगी थी। आखिर हर बात की एक सीमा होती है! थोड़ी देर बाद मैंने हाथ बढ़ाकर उसे छूना चाहा तो वह एकदम से बिदक गई - आज तुम चले जाओ अशेष, मुझे अकेली छोड़ दो... मैं वहाँ से चला आया था, बहुत खिन्न होकर। कितनी उम्मीद थी उससे मिलने की। रास्ते भर उसी के विषय में सोचते हुए आया था। मेरा मूड सच में बहुत बिगड़ गया था।

कमरे में पहुँचा तो मिसेज लोबो अपने यहाँ बुलाकर ले गई। उसकी बहन की बेटी मुंबई से आई हुई थी। उसी से मिलाने। रेचल नाम था उसका। हॉट पैंट में बैठी बीयर की चुस्कियाँ ले रही थी। मुझसे परिचय हुआ तो उठकर बड़ी गर्मजोशी के साथ हाथ मिलाया। देखने में आकर्षक, सुंदर नहीं। तीस-पैतीस की उम्र - लंबी, छरहरी, साँवली, गठी हुई टाँगें - आकर्षक पिंडलियाँ... उसने मुझे उसकी खुली हुई टाँगों की तरफ घूरते हुए देख लिया था। हल्के से मुस्कराई थी, प्रश्रय के अंदाज में - चलो अच्छा हुआ, कंपनी मिल गई। अकेली बैठी-बैठी बोर हो रही थी। बीयर...? मेरे हाँ या न कहने से पहले ही उसने गिलास भर दिया था। थोड़ा झिझकते हुए मैंने गिलास पकड़ लिया था - दरअसल इस समय मुझे चाय पीने की आदत है...

कोई बात नहीं, आज बीयर ही सही - फॉर ए चेंज... वह अंग्रेजी में ही बातें कर रही थी, अपने विशिष्ठ गोवानीज अंदाज में - कितनी गर्मी पड़ रही है... थोड़ी ही देर में वह ऐेसे घुलमिल गई थी जैसे हमारा वर्षों का परिचय हो। बाद में पता चला था, वह मुंबई के किसी कॉल सेंटर में काम करती है। एक दस साल की बेटी थी जो पंचगनी में होस्टल में रहकर पढ़ रही थी। उसका डिर्वोस हो चुका था। हर साल गर्मी के मौसम में वह गोवा अपने रिश्तेदारों के यहाँ घूमने जरूर आती थी। उसदिन हम देर रात गए तक बॉल्कनी में बैठे बातें करते रहे थे। फिर साथ मिलकर रात का खाना खाया था। मिसेज लोबो ने चिकन कार्नीयल बनाया था - साथ में पाव और साना-चावल की मीठी, नमकीन रोटियाँ, सिरके से फुगाई हुईं।
प्यास बुझाई नौकर से Running....कीमत वसूल Running....3-महाकाली ....1-- जथूराcomplete ....2-पोतेबाबाcomplete
बन्धन
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दिल से दिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
तुफानो में साहिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
यूँ तो मिल जाता है हर कोई!
मगर आप जैसे दोस्त नसीब वालों को मिलते हैं!
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Jemsbond
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Re: औरत जो एक नदी है

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अपने कमरे में लौटकर देखा था, मोबाइल में दामिनी के तीस मिस्ड कॉल थे। न जाने मैंने कैसे सुना नहीं था। कमरे में सीडी प्लेयर लगा हुआ था, शायद इसीलिए सुन नहीं पाया था। रेचल के साथ समय का पता ही नहीं चला था। वह बेहद प्रांजल और खुले हुए स्वभाव की स्त्री थी... उस रात बिस्तर में लेटकर सोने का प्रयास करते हुए मुझे उसकी लंबी, खूबसूरत टाँगों का खयाल अनायास आ गया था। उसके बाद मैं देरतक सो नहीं पाया था। दामिनी के खूबसूरत चेहरे के साथ वे लंबी टाँगें रातभर मेरे आसपास चहलकदमी करती रही थीं।

सुबह उठा तो चेहरे पर तेज धूप चमक रही थी। रेचल खिड़की के पर्दे सरकाते हुए मुस्करा रही थी - वेकी-वेकी... सुबह हो गई है मिस्टर अशेष... मैं खुले बदन सो रहा था, उसे इस बेतकल्लुफी से अपने कमरे में खड़ी देखकर संकोच में पड़ गया था। मेरी हालत समझकर उसने शरारत से मुस्कराते हुए मेरी चादर खींच ली थी - अब लड़की लोग का माफिक शरमाने का नहीं मैन, बाथरूम जाकर फ्रेश हो जाओ, हमको ओल्ड गोवा जाने का है...

लेकिन... मैं कहते-कहते रुक गया था। आज शनिवार है, मुझे दामिनी के वहाँ जाना है। ऐसा ही नियम हो चला है। दामिनी लंच आज अपने हाथों से बनाएगी।

लेकिन-वेकिन कुछ नहीं, तुमको चलनाइच माँगता है, बस... मेरे हाथ में तौलिया पकड़ाकर वह बल खाती हुई कमरे से निकल गई थी - ओनली टेन मिनट्स... एक ही दिन के परिचय में कितनी खुल गई थी वह! न चाहते हुए भी मुझे उसके साथ जाना पड़ा था।

उसदिन दक्षिण गोवा में कई चर्च देखे थे। शायद रेचल ने कोई मन्नत माँग रखी थी। आज उसे पूरा करने का दिन था। लाल ईंटों और सफेद रंग में लिपे-पुते चर्चों की विशाल इमारतें - अंदर के हॉल, मुख्य प्रार्थना गृह में कतारबद्ध बेंचें, सलीब में बिंधे हुए यीसू की प्रतिमा, नन्हे यीसू को गोद में लिए मरियम... पूरे वातावरण में एक अजीब किस्म की शांति और निःस्तब्धता थी।

रेचल के साथ बाहर बिकती लंबी मोमबत्तियाँ खरीदकर हमने अंदर जलाई थीं। एक बड़े-से काले स्टैंड पर जली हुई मोमबत्तियों की ढेर लगी थी। यहाँ आनेवाले अधिकतर सैलानी मोम बत्ती जलाते हैं। इसे शुभ माना जाता है। बेंच पर बैठकर मैं रेचल को देखता रहा था। आँखें मूँदें प्रार्थना करते हुए वह कोई और ही प्रतीत हो रही थी। सफेद कपड़ों में किसी ईसाई नन की तरह। चेहरे पर पवित्रता व्याप्त रही थी। न जाने कितनी देरतक वह एक मन से प्रार्थना करती रही थी। कुछ देर बाद मैंने भी अपनी आँखें बंद कर ली थीं। वहाँ के पूरे वातावरण में छाई शांति जैसे मेरे अंदर भी घनीभूत होकर छाने लगी थी। जब हम वहाँ से बाहर निकले तो मैं स्वयं को बहुत शांत महसूस कर रहा था।

बाहर आते ही रेचल अपने पुराने स्वरूप में लौट आई थी - शोख और चंचल। एक पुर्तगाली ढंग से सजे रेस्तराँ में हम दोपहर के खाने के लिए बैठे थे। आज गर्मी कुछ ज्यादा ही थी। रेस्तराँ के वातानुकूलित कमरे में बैठकर राहत मिली थी। डायनिंग रूम में अपेक्षाकृत अँधेरा था। रेचल ने चुनकर एक कोने की मेज ली थी। उसके सामीप्य को महसूस करते हुए मैं रेस्तराँ की सजावट को देखता रहा रहा था। किसी जहाज का-सा माहौल वहाँ रचा गया था। रिशेप्शन के चारों ओर टायर लटके हुए थे। वेटर भी किसी जहाज के कर्मचारी की तरह वर्दी पहने हुए थे। एक ने तो समुद्री डाकू की तरह बाकायदा अपनी एक आँख में पट्टी भी बाँध रखी थी मुझे यह सब बहुत रोचक लग रहा था।

मगर रेचल का ध्यान मुझपर ही लगा हुआ था। मुझसे बहुत सटकर बैठी थी वह। उसकी देह से किसी सेंट की बहुत तीखी गंध उठ रही थी। कई बार बस में सफर करते हुए मुझे ऐसे ही सेंट की गंध मिला करती थी। मुझे लगा था दुबई से लौटनेवाले बहुत से लोग इसी ब्रांड का सेंट इस्तेमाल किया करते हैं। पसीने के साथ मिलकर इसकी गंध अजीब हो उठती है। कई बार मुझे मतली-सी आने लगती थी।

क्या सोच रहे हो मैन? वेटर ने हमारे सामने दो गिलासों में बीयर उँड़ेली तो उसने उसे भुना हुआ काजू लाने के लिए कहा। बीयर का गिलास बाहर से पानी की नन्हीं बूँदों से भरा हुआ था। अंदर हल्के पीले द्रव्य में लगातार बुलबुले उठ रहे थे। दरवाजे से दिखती उस पार की रोशनी गिलास के पेय में से गुजरकर सुनहरी किरणों की तरह विच्छरित हो रही थी।

मुझे यह सबकुछ बहुत भला लग रहा था - पूरा वातावरण - खुला हुआ, सहज, इतनी आजादी... कोई कुंठा नहीं, किसी के देखने का डर नहीं! जीवन में पहली बार मैं स्वयं को इतना उन्मुक्त महसूस कर रहा था। मैंने एक गहरी साँस ली थी। अपना शहर, उसका संकुचित माहौल बरबस याद आया था। कैसा जीवन था वहाँ - हमेशा डरे हुए, सहमे हुए। अपनी पत्नी को साथ लेकर निकलते हुए भी संकोच होता था। हर तरफ घूरती निगाहें, फब्तियाँ और फुसफुसाहट... कितने सारे बंधन, वर्जनाएँ... अपना ही जीवन हमेशा दूसरों की मर्जी से जीने की विवशता! अब यहाँ बैठकर सोच रहा हूँ तो बहुत कोफ्त हो रही है। क्यों इनसान अपनी जिंदगी इतना कठिन, इतना दुरूह बना लेता है! स्वयं को हर तरह से मार देना ही मानो जीवन का एकमात्र लक्ष्य हो। क्या मिल जाता है ऐसे घुट-घुटकर जीने में...

तुम फिर सोचने लगे ऐश! यह मेरा नया नाम रेचल ने रखा था।

इतना मत सोचो, सोचने से आदमी फिलासफर बन सकता है, मगर हैप्पी नहीं... वह धीरे-धीरे मेरी बाईं जाँघ को सहला रही थी। उसकी छुअन में न जाने क्या था, मेरा पूरा शरीर झनझनाने लगा था।

अपने डिवोर्स के बाद हमने रियलाइज किया ऐश, लाइफ बहुत शार्ट है - आइसक्रीम का माफिक, एनजॉय इट, बिफोर इट मेल्ट्स... अपना गहरा जीवन दर्शन मुझे बताकर अब वह काफी अच्छे मूड में प्रतीत हो रही थी। बीयर के दो बड़े गिलास खत्म करके उसकी आँखों में लाल डोरे उग आए थे। फ्राइड राइस के साथ चिकन चिली का दूसरा प्लेट समाप्त करते हुए तल्लीनता सेबोले जा रही थी -

दुखी होकर अकेले-अकेले जीने में कोई फन नहीं है मैन! यू शुड लिव लाइफ - ईच मोमेंट ऑफ इट... फिर अचानक खाना रोककर मेरी तरफ गंभीर होकर देखा था - आज आंटी अपने गाँव के फिस्ट में जा रही हैं, रात को घर पर नहीं होंगी... उसने अपनी बात बीच में ही अधूरी छोड़ दी थी। सुनकर बीयर की घूँट लेते हुए मुझे जोर की खाँसी आ गई थी। उसदिन वापस लौटते हुए टैक्सी में रेचल ने एकपल के लिए भी मेरा हाथ नहीं छोड़ा था। उन्हें अपने दोनों हाथों में लेकर धीरे-धीरे सहलाती रही थी। इस बीच कई बार दामिनी का फोन आया था, मगर मैं उठा नहीं पाया था। रेचल छेड़ती रही थी - गर्लफ्रेंड? वाइफ तो इतना फोन नहीं करती... अपने कमरे में पहुँचा तो दरवाजे के पास एक लिफाफा पड़ा था। अंदर एक छोटी-सी पंक्ति - 'आज एकबार जरूर आकर जाना... दामिनी।' बिना कपड़े बदले मैं बिस्तर पर ढह गया था। अजीब-सी मनःस्थिति हो रही थी मेरी। मैं यहाँ रुकना नहीं चाह रहा था, मगर दामिनी के पास जाना भी नहीं चाहता था। न जाने कितनी देर तक उसी हालत में पड़ा रह गया था मैं। देर शाम जब तैयार होकर दामिनी के कॉटेज की तरफ चला था, मेरे सर में दर्द हो रहा था। दिनभर की दौड़-धूप, गर्मी और अंदर का ऊहापोह...

जब मैं दामिनी के यहाँ पहुँचा था, दामिनी अपनी बॉल्कनी के पौधों को पानी दे रही थी। मुझे देखकर पानी का झाँझर नीचे रखकर मेरे पास कुर्सी पर आ बैठी थी, किसी अपरिचित की तरह। वैसा ही औपचारिक लहजा - कैसे हो? एक संक्षिप्त-से सवाल के बाद देरतक चुप रह गई थी, जैसे किसी अनिश्चय की स्थिति में हो, भाषा तलाश रही हो या विषय - वार्तालाप शुरू करने के लिए। मैंने उसे नजर बचाकर देखा था - मुसी हुई हल्की नीली ताँत की साड़ी, जूड़े में लापरवाही से लपेटे हुए रूखे बाल... कुल मिलाकर न नहाया, सँवरा चेहरा! ये वही दामिनी थी क्या - हमेशा सजी-सँवरी, सलीकेदार... अंदर तकलीफ-सी हुई थी। उसे यूँ उदास और मलिन देखना... बात मैंने ही शुरू की थी - अब गर्मी बहुत बढ़ती जा रही है। कितनी उमस होती है, पसीने में नहा जाता हूँ...

मेरी बातें वह अनमनी-सी सुनती रही थी, जैसे समझने का प्रयत्न कर रही हो, मैं क्या, किस संदर्भ में बात कर रहा हूँ, और फिर अचानक मुझे बीच में काटकर बोलने लगी थी, बिना किसी भूमिका के - अशेष, तुम्हें मेरा उस दिन का व्यवहार बुरा लगा, जानती हूँ, मगर यदि तुम मुझे, मेरी परिस्थितियों को समझते तो मुझे भी बेहतर समझ सकते... एक पल के लिए वह रुकी थी, जैसे अंदर ही अंदर बोलने के लिए शब्द ढूँढ़ रही हो, फिर बोली थी, कुछ संकोच से ही -

'मेरा अतीत, बचपन... कुछ सही नहीं था वहाँ... मेरी माँ, उनका जीवन - एकाकी, परित्यक्त... पिता का व्यवहार...' उसके अंतस की उथल-पुथल उसके चेहरे पर थी, असंबद्ध-से शब्द - पतंग की तरह उड़ते हुए... उन्हें पकड़ने, सहेजने और एक क्रम देने का उसका प्रयत्न... बिल्कुल खोई हुई, गुम गई-सी प्रतीत हो रही थी वह।

मैं चुप ही रहा था। विघ्न डालकर उसके विचारों के तारतम्य को तोड़ना नहीं चाहता था। पहले से ही वह परेशान थी, अपनी सोच को शब्द देने के प्रयत्न में।

'अशेष, जानते हो, शादी के दूसरे दिन से ही पापा का माँ के प्रति व्यवहार बदल गया था। वे एकदम से अजनबी बन गए थे। जैसे माँ को वे पहचानते तक न हो। इतनी - इतनी दूर चले गए थे वे माँ से - हर स्तर पर...

माँ बिल्कुल अवाक रह गई थी। पापा का व्यवहार उनकी समझ से परे था। कोई क्यों किसी का विश्वास इतनी मेहनत से जीतकर उसे इस तरह से तोड़ देता है! शायद उन्हें जीतना पापा के लिए कोई चुनौती रही होगी। मोतिया आब-से टलमल रंग और गहरी कत्थई आँखों वाली माँ अपनी खूबसूरती और खानदान - दोनों के लिए मशहूर थीं। कहकर वह एक पल के लिए रुकी थी, मैं चुपचाप सुनता रहा था। इस बीच उषा मेज पर चाय के दो कप रख गई थी। चाय की एक छोटी-सी चुस्की लेकर उसने आगे कहा था, जैसे स्वयं से संबोधित हो -

उन्हें जीतकर पापा कुछ दिनों तक उन्हें किसी ट्रॉफी या मेडल की तरह सबको दिखाते फिरे थे और फिर अपने घर में सजाकर भूल गए थे। उनकी दिलचस्पी माँ में बस इतनी ही रही होगी।

उनके लिए ये सब महज एक खेल था, मगर माँ की तो जिंदगी ठहरी। जिंदगी - एक लम्हा, एक क्षण नहीं - पूरी जिंदगी... जानते हो, कितनी लंबी होती हैं ये? उसपर माँ की जैसी जिंदगी... छोडो, हम भी क्या हिसाब ले बैठे, इससे आसान तो चाँद-तारे गिन लेना होता है... वह यकायक बहुत थक आई थी, मुझे लगा था अब सामने बिछी आराम कुर्सी पर ढह जाएगी, मगर उसके अंदर का सफर अभी खत्म नहीं हुआ था शायद, वह अनमन बोलती रही थी, जैसे चल रही हो धीरे-धीरे - अपने अतीत की ओर -

आश्चर्य, आघात और अंततः स्वप्न भंग का एक लंबा दौर... जिसके एक बहुत बड़े हिस्से की गवाह मैं भी रही हूँ। एकबार माँ से पूछा था, इतना क्यों सह गई, चली जाती... कितनी पढ़ी-लिखी थी वो, विशेष योग्यता प्रमाण पत्रों और किताबों से भरी हुई थीं उनकी अलमारियाँ। जवाब में उन्होंने बस इतना ही कहा था - तुझे खोना नहीं चाहती थी... सुनकर मुझे बहुत रोना आया था। उसदिन पहली बार खयाल आया था कि काश मैं पैदा ही नहीं हुई होती, माँ के पैरों की जंजीर हो गई... उनके अंतिम क्षणों में मैंने पूछा था- तुम्हारे साथ ऐसा क्यों हुआ माँ? उनका जबाव था - मैंने यकीन किया था, मेरा यही होना था...

बातें करते हुए वह यकायक चुप हो गई थी, अपनी थकावट में डूबी-सी खड़ी रही थी, कई पल बीते थे - रुकी हुई साँस की तरह असहज और घुटन भरा। मेरी तरफ पीठ फेरकर खिड़की के बाहर देखती रही थी, न जाने क्या सोचती हुई। पिछवाड़े का गुड़हल लाल, चटक फूलों से लद गया था। उसकी सघन डालियों से किसी चिड़िया की चिक्-चिक् अनवरत सुनाई पड़ रही थी। सहजन के नर्म पत्तों पर साँझ की अलस पड़ती धूप थी। हवा में उड़ते उसके बालों को देखते हुए मैं जानता था, वह फिर कहीं भटक गई है।

उसके साथ रहते हुए मुझे ये अकेलापन ज्यादा सालता था। मैं उसके साथ होता था, मगर वह नहीं। न जाने उसकी वह कौन-सी दुनिया थी जिसमें मेरा प्रवेश निषिद्ध था। मैं चाहता था, वह मुझे अपने साथ ले, अपना हिस्सा बनाए, फिर वह हिस्सा कैसा भी हो। उसके साथ मैंने उसकी देह के सुख बाँटे थे, मन के दुख सिर्फ उसके अपने थे। इस मामले में मैंने उसका कार्पण्य देखा था, कि ये मेरी अपनी निस्पृहता थी? कौन जाने...

मेरी सोच में दरार डालते हुए वह यकायक मुड़ी थी - अपनी आँखों का वही जाना-पहचाना सूनापन लिए - माँ के जीवन के अनजाने पहलुओं से मैं उनकी डायरी के जरिए ही परिचित हुई थी। तुम्हें कहा भी था शायद कभी... इसके बाद मैं एक लंबे अर्से तक माँ की डायरी पढ़ने की हिम्मत जुटा नहीं पाई थी। और फिर एक लंबा दौर चला था कशमकश और उलझन का। जब कभी हिम्मत जुटा पाई, माँ की डायरी लेकर बैठ जाती थी। यातना और आत्मीयता का वह एक अजीब सिलसिला था। उन पन्नों में माँ का सान्निध्य था तो उनकी अंतहीन पीड़ा भी। माँ की एक लंबी मौत का सिलसिलेवार ब्यौरा दर्ज था जैसे उन पन्नों में। वे कविता करतीं थीं। एक जगह लिखा था -

सपनों के झूले से उतरकर,

एक उजली खुशी,

उदासियों की साँवली भीड़ में

चुपचाप खो गई,

उसने यकीन किया था,

उसका यही होना था...

कई बार पढ़ते हुए अपने ही अनजाने मैंने अपने आँसुओं से उस डायरी के पन्ने भिगो दिए थे। वैसे वास्तव में देखा जाय तो वे आखिर थे भी क्या, उनकी यातना और उच्छ्वासों का शब्दों में अनुवाद ही... न जाने उनकी आँखों और सोचों की कितनी नमी समेटे वे पन्ने सालों पसीजते रहे थे उस एकाकी भरी दुनिया में।
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Re: औरत जो एक नदी है

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दामिनी की आँखों में अब मेघिल आकाश था, मार्च की चंचल धूप न जाने कब उतर गई थी। फीके चेहरे में गुजरे हुए पतझड़ की अनगिन यादें समेटे वह रुक-रुककर कहती रही थी - उस डायरी को खोलते ही जैसे मैं माँ की आहों और आँसुओं की एक सिसकती हुई दुनिया में खो जाती थी। एक जिंदा कब्र थी वह डायरी। उसमें जैसे उसाँसें लेती हुई माँ कैद थीं। कहते हुए वह पलभर के लिए सिहरती हुई-सी ठिठक गई थी। उसके चेहरे पर एक सर्द आतंक था, जैसे वह अपने कहे शब्दों के यथार्थ को उसकी पूरी भयावहता के साथ जी रही हो। मैंने उसकी हथेलियों में अपने हाथों का आश्वासन रोपना चाहा था, ऊष्मा पिरोनी चाही थी - सहलाते हुए, मगर वह अन्यमनस्क-सी दूर छिटक गई थी - माँ जिस तकलीफ में मर गई थी, उसी तकलीफ में जीने के लिए मैं अभिशप्त थी... उत्तराधिकार में मुझे यही मिला था - एक लंबी, बीमार उम्र की एक-एक यातना और अवसाद का एकमुश्त पावना...

ऊसर जमीन पर बिना खाद, पानी का अखुँआया बीज थी - बहुत सख्त जान - जी गई... धूप और धूल से ऊर्जा समेटने की आदत जो पड़ गई थी। जिन पौधों को मालूम होता है, मौसम उनपर कभी मेहरबान नहीं होगा, वे भूखे-प्यासे बड़े हो जाते है। जिंदगी जीना सिखा ही देती है।

मैंने आगे बढ़कर उसे अपनी गोद में समेट लिया था। बिना कुछ कहे वह एक बीमार दरख्त की तरह ढह गई थी। मैं जानता था, इस समय उसे शब्दों की नहीं, संवेदना की आवश्यकता है। बिना कुछ कहे अपनी मूक उँगलियों से मैंने उसे छुआ था। एक पल के लिए वह सिहर गई थी, और फिर सघन होकर मुझसे लिपट गई थी।

न जाने कितनी देर बाद मैं वहाँ से चला था... उस समय वह सो रही थी शायद, बीच-बीच में सिसकी लेती हुई... कितना असहाय और मासूम लग रहा था उसका चेहरा उस समय! जैसे कोई अनाथ बच्ची - अकेली और डरी हुई... चलने से पहले उसे चादर ओढ़ाते हुए मैंने उसके लिए नींद, सुकून और सपनों की प्रार्थना की थी। उसे इन्हीं चीजों की जरूरत सबसे ज्यादा थी। एकबार उसने कहा भी था, अशेष, मुझे लगता है कि जैसे मैं नींद में भी जगी हुई हूँ। टूटते हुए तारे को देखकर कितनी बार विश की है कि मुझे एक पूरी रात की नींद मिल जाय... उसकी थकी हुई आँखों में मैंने अक्सर वर्षों की जगार देखी थी।

न जाने उसकी जिंदगी में ठहरी हुई यह दुःस्वप्न जैसी रात कब गुजरेगी। उसे उसके हिस्से की धूप और उजाला कब मिलेगा... वहाँ से चलते हुए मेरे अंदर कुछ अवसन्न-सा घिर आया था। अपनी दौड़-धूप भरी जिंदगी के तनावों से दो पल छूटने की उम्मीद में उसके पास आता हूँ, मगर कई बार और अधिक तनाव और बोझिलता लिए यहाँ से लौटता हूँ। कभी-कभी खीज होती है। उसका अतीत हमारे वर्तमान को छाए रहता है। कई बार इन सबसे छूट जाने की छटपटाहट अंदर पैदा होती है, जी चाहता है, सब काटकर अपने से अलग कर दूँ और चल पड़ूँ, मगर हो नहीं पाता। एक दुर्वार आकर्षण मुझे बाँधे रखता है, निशि की तरह हाथ के इशारे से पास बुलाता है। मैं उससे दूर जाने की कोशिश में उसके और-और पास चला आता हूँ। दामिनी की देह का चुंबक मुझे उससे अलग होने नहीं देता।

अपनी इच्छाओं के क्षणों में वह खालिस जादू होती है, सर से पाँव तक। मैं उसमें डूबता-उतराता अपने सारे मलाल भूल जाता हूँ। उन विलक्षण क्षणों का इकलौता सच दामिनी और सिर्फ दामिनी ही होती है। छोटी-मोटी हताशाओं और शिकायतों का सारा खामियाजा वह उन थोड़े-से पलों में ही शानदार तरीके से भर देती है। उसकी बिल्लौरी देह और मेरी हवस के सिवा उन पलों में मुझे और कुछ याद नहीं रह जाता है।

आज दामिनी बेहद थकी हुई है, मुझे अपने कमरे में लौट जाना होगा। सोचते हुए मैं उसके कॉटेज से बाहर निकला था। उस समय तक रात काफी गहरी होने लगी थी। रास्ता लगभग सुनसान पड़ा था। मैंने ऊपर आसमान की तरफ देखा था। न जाने किस उम्मीद में - गहरे स्लेटी आसमान पर हल्के-फुल्के बादलों के फाहे, आवारा डोलते हुए... शायद बारिश हो जाय...

काश आज दामिनी मुझे अपने पास रोक लेती... मेरी आँखों के कोने जल उठे थे। आगे के मोड़ से कोई ऑटो पकड़ लूँगा... सोचते हुए मेरा ध्यान मोबाइल के वीप पर गया था। रेचल का संदेश था - कितनी देर कर रहे हो, आई एम वेटिंग फॉर यू... पढ़ते हुए मेरी नसों में कुछ सुलग-सा उठा था। अपने अनजाने ही मैंने जल्दी से आगे बढ़कर एक पास से गुजरते हुए ऑटों को हाथ दिखाकर रोक लिया था। दामिनी के साथ ही मेरी सारी वर्जनाएँ टूट गई थीं। अब इस दिशाहीन, बंधनहीन नदी को बस बहना ही है, अपने आकूल वन्या में कूल-किनारा डूबोते हुए, सबकुछ निःशेष करते हुए... इसकी तेज धारा में किसका क्या बह गया, डूब गया इसकी परवाह किए बगैर... उस क्षण मैं स्वयं को बहुत बेबस महसूस कर रहा था - अपने ही हाथों, शायद यही सबसे बड़ी विडंबना थी!

दूसरे दिन सुबह उठा तो सर बहुत भारी लग रहा था। कमरे की सारी खिड़कियों पर पर्दे ओर-छोर खींचे हुए थे, इसलिए अंदर हल्का अँधेरा-सा छाया हुआ था। बगल की मेज पर रखी घड़ी में दस बज रहे थे। एकबारगी मैं हड़बड़ा गया था, फिर खयाल आया था, आज संडे है।

अपने बाथरूम स्लीपर्स में पैर डालते हुए मेरी नजर सिरहाने की तरफ गई थी। वहाँ रेचल का क्रास लगा चेन और हेअर क्लिप्स पड़े थे। एक क्षण के लिए मेरे अंदर कुछ अजीब-सा घटा था, एक सनाका-सा और फिर दूसरे ही क्षण मैं उठकर बाथरूम में चला गया था। पानी के हल्के गर्म फुहार के नीचे खड़े होकर देरतक नहाते हुए मुझे अपनी देह से वही गंध आती महसूस हुई थी जिससे मुझे मतली-सी आने लगती थी। मगर आज ऐसा नहीं हुआ था। उस गंध में आज रेचल की मांसल देह का नमकीन स्वाद भी आ मिला था। अपने नासपुट और होंठों पर उसे महसूसते हुए मैं न जाने कबतक नहाता रहा था। बाहर निकला तो रेचल को अपने बिस्तर में प्रतीक्षित पाया - नहाई और लगभग भीगी हुई - बालों से रिसता पानी तकिए पर एक बड़ा धब्बा बना रहा था, ओढ़ी हुई चादर के नीचे का गीला उतार-चढ़ाव देखा जा सकता था।

तुमने मेरा बिस्तर भिगो दिया... मैं नाराज दिखना चाह रहा था।

कोई बात नहीं, जल्दी सूख जायगा। तसल्ली देती हुई-सी वह मुस्कराई थी- आज संडे है...

तो...? मैं कपड़ों की अलमारी की तरफ बढ़ गया था।

तो... आज तुम्हें दफ्तर नहीं जाना है...

तो...?

तो आओ... उसने चादर से हाथ निकालकर मेरा एक हाथ पकड़ लिया था - आज दिनभर सोते हैं...

बिस्तर पर आते हुए मैंने अपना मोबाइल उठाना चाहा था, मगर रेचल ने उसे बंद करके सिरहाने के नीचे डाल दिया था - आज छुट्टी का दिन है, मोबाइल की भी छुट्टी... मैं कुछ कह नहीं पाया था।

उस दिन शाम के समय मुझसे मिलने दामिनी स्वयं चली आई थी। उस समय रेचल किचन में मछली के कटलेट्स तल रही थी और मैं बॉल्कनी में बैठा बीयर की चुस्कियाँ ले रहा था। दामिनी ने आते ही पूछा था, तुम्हारा फोन कहाँ है? उसे वहाँ यकायक देखकर मैं घबरा गया था। जबतक मैं उसकी बात का कोई जवाब देता, वह स्वयं अंदर कमरे से मेरा फोन उठा लाई थी - तुम्हारा फोन बंद पड़ा है! उसके स्वर में गहरा आश्चर्य था। मैं सकपकाया-सा उसे देख ही रहा था जब किचन से गर्म कटलेट्स का प्लेट उठाए रेचल बॉल्कनी में निकल आई थी। उसे देखते ही मेरी घबराहट कुछ और बढ़ गई थी। दामिनी और रेचल - दोनों एक-दूसरे को कुछ देर के लिए घूरकर देखते रहे थे। फिर दामिनी ने मुझसे शांत स्वर में पूछा था - ये कौन है?

ये मेरी कजिन... नहीं मिसेज लोबो की... मैं न जाने अपनी घबराहट में क्या कुछ कहे जा रहा था। मेरी बातें सुनकर जहाँ दामिनी के माथे पर बल पड़ गए थे, वहीं रेचल मुस्करा पड़ी थी - आई एम रेचल, मिसेज लोबो मेरी आंटी लगती हैं। आप...!

मैं... रेचल के सवाल पर अचानक दामिनी का चेहरा रंगहीन-सा हो आया था - मैं दामिनी - एक परिचित, इनकी...

ओह, आई सी... मुझे लगा, इनकी वाइफ आ गई हैं, जिस तरह से आप सवाल पूछ रही थी... मुस्कराते हुए रेचल टेबल सजाने लगी थी - आप बैठिए न मिस दामिनी...

नहीं, मुझे चलना होगा... कहते हुए ही दामिनी लगभग आधी सीढ़ियाँ उतर गई थी और फिर अचानक मुड़कर नीचे से मेरी ओर देखा था। मेरा दिल धक् से रह गया था। न जाने क्या था उन आँखों की दृष्टि में - नाराजगी, शिकायत... नहीं, ऐसा कुछ भी नहीं, बस, अंदर की एक गहरी टूटन और बिखराव... जैसे कहीं कुछ एकदम से तहस-नहस हो गया हो।

उसका अबोला उपालंभ मुझे दूर तक दाग गया था। न जाने कैसी अजनबी आवाज में मैंने पीछे से पुकारकर कहा था - मैं आज आऊँगा... वह बिना कोई जवाब दिए चुपचाप सीढ़ियाँ उतर गई थी।

उसके जाने के बाद वहाँ एक अजीब आश्वस्ति भरी खामोशी पसर गई थी। रेचल चुपचाप कटलेट्स कुतरती रही थी, फिर प्लेट उठाकर अंदर चली गई थी - अब तो शायद तुमसे खाया नहीं जाएगा, ठंडे भी हो गए... कहते हुए उसके स्वर में गहरा कटाक्ष था या अफसोस, मैं तय नहीं कर पाया था।

इसके थोड़ी देर बाद जब उमा का फोन आया था, मैं दामिनी के यहाँ जाने के लिए कमरे से निकल रहा था। रात को फोन करने की बात कहकर मैंने फोन काट दिया था। उस तरफ से उमा कुछ कहती रह गई थी। वह बहुत गुस्से में लग रही थी, न जाने क्यों। सीढ़ियों के नीचे जब मैं उतरा रेचल ने पीछे से पुकारकर कहा था - ऐश, आज रात की बस से मैं मुंबई लौट रही हूँ...

उसकी बात सुनकर मैं ठिठक गया था - अचानक से...?

अचानक नहीं, तुम भूल गए, मैंने तुमसे कहा था...

हाँ, शायद... न जाने क्यों उसकी बात सुनकर मैं एकदम से निसंग हो आया था - जैसे किसी चौराहे पर खड़ा हूँ और पता नहीं जाना कहाँ है। यकायक सारी तस्वीरें एकसाथ गडमड हो गई थीं। अब कुछ था तो आँखों के सामने मिटते-बिखरते हुए रंगों के ढेर सारे धब्बे और अंदर एक अछोर शून्य... मैं डूब रहा था - किसी गहरे कुएँ में! अचानक मैं बेतरह डर गया था। कहाँ हूँ मैं, कहाँ जा रहा हूँ...

उमा का फोन आ रहा था - मोबाइल लगातार बजे जा रहा था - किसी एंबुलेंस के सायरन की तरह, जिसे सुनकर अंदर दहशत का एक गहरा, नीला बवंडर-सा हमेशा उठता था... आँखों के सामने दामिनी का उदास चेहरा तैर रहा था और ऊपर बॉल्कनी में खड़ी रेचल विदा में हाथ हिला रही थी...!

दामिनी के यहाँ जब पहुँचा था, शाम प्रायः शेष हो आई थी, आकाश के गहरे कत्थई विस्तार में गेरुए रंग के छींटे धीरे-धीरे घुल रहे थे। नए चाँद के नीचे तिल की तरह जड़ा तारा बहुत उजला दिख रहा था, मुस्कराता हुआ-सा। हवा में ताजी छँटी मेहँदी की झाड़ियों की गंध थी। दामिनी पिछवाड़े के बगीचे में मिली - कोई नन्हा-सा पौधा रोपते हुए - एकदम पसीना-पसीना, माथे पर उलझी लटों के बीच पिघलती हुई छोटी बिंदी और दाएँ गाल पर मिट्टी का धब्बा... मुझे देखकर हाथ के दस्ताने उतारते हुए पास बिछी कुर्सी पर आ बैठी थी - देखो न, तब से लगी हूँ, मगर काम खत्म ही न हो पाया, कुछ पौधे रह गए, कलतक बर्बाद न हो जाएँ... वामन आया ही नहीं। अब देखो कल भी आता है या नहीं...

कैसे पौधे हैं? मैंने बाल्टी में रखे पौधों को देखा था - चीरे-चीरे पत्तों वाले - हल्के कच्चे हरे... कितना ताजा रंग था!

सावनी के हैं - अभी लगाया तो शायद बारिश तक फूलने लगे। ये बैंजनी रंग के हैं, मगर मुझे गुलाबी भी पसंद है... दमिनी कितने लगाव के साथ चारों तरफ झूमते हुए पौधों को देख रही थी।

तुम्हें फूल बहुत पसंद हैं न...? मेरे प्रश्न पर वह अनमन-सी मुसकराई थी - कांट हेल्प इट - वृषभ राशि की हूँ - अर्थ साइन - प्रकृति से प्रेम होना ही है... मैं अपने सबसे करीब प्रकृति को ही पाती हूँ - ये जमीन, आकाश, पेड़-पौधे - सभी मुझसे बोलते हैं... कभी मैंने लिखा था - मेरी गत-आगत पीड़ा के साक्षी चाँद...

अचानक वह उठ खड़ी हुई थी - चलो, समंदर के किनारे चलते हैं। उसे भी कई दिन हुए, नहीं देखा, लहरें कब से पास बुला रही हैं - इतना शोर मचाकर...

दामिनी के कॉटेज से समंदर मुश्किल से आधा किलोमीटर की दूरी पर था। 'जानते हो अशेष, मैंने अपने पापा की संपत्ति को हाथ भी नहीं लगाया था। हालाँकि उन्होंने अपनी सारी प्रापर्टी मेरे ही नाम लिख छोड़ा था - मैं उनकी इकलौती संतान थी -वैध संतान, आई मीन... मैंने उनके बाद सबकुछ एक अनाथ आश्रम को दान कर दिया था, कुछ भी नहीं लिया था, मुझे उनमें माँ के आँसू और मौत नजर आती थी। बाद में मुझे नानाजी ने बहुत कुछ दिया - माँ का हिस्सा... वे अपनी बेटी से बहुत प्यार करते थे!' कभी दामिनी ने ही मुझे बताया था। अपना पुराना घर छोड़कर उन्हीं पैसों से दामिनी ने यह कॉटेज बनवाया था - अपने मन मुताबिक।

साँझ के बाद की किशोरी रात - हल्के-हल्के गहराती हुई, साँवली पड़ती हुई... सफेद रेत में दूर-दूरतक अबरक का रुपहला झिलमिल था, पानी में आकाश का गहरा नील - इस्पात में तब्दील होता हुआ, लहर दर लहर... दामिनी का मिजाज बदल रहा था, मैं महसूस रहा था। उसकी आँखों में सुदूर निहारिका-जैसा कुछ था - पाँत के पाँत जलते हुए नन्हें दिए... उदास और बोझिल! उसने अबतक रेचल का प्रसंग नहीं उठाया था। मैं राहत महसूस करते हुए भी कहीं से डरा हुआ था।

रेत पर न जाने क्या कुछ लिखते हुए उसने मुझे देखा था - जानते हो अशेष, इस समंदर से मेरी पहचान बड़ी पुरानी है। मैं इसी की लहरों में एक तरह से पल-पुसकर बड़ी हुई हूँ... मेरा बचपन, मेरी माँ की निसंग जवानी, उनकी कही-अनकही... सबकुछ इसमें समाया हुआ है। दरअसल समंदर के पास होना मेरे लिए अपनी माँ, अपने बचपन के साथ होना है। जब भी सागर के विस्तार, इसके गहरे हाहाकार को देखती हूँ, अपना बचपन, अपना दुखता हुआ अतीत याद आने लगता है... ये एक ही साथ सुख और दुख की प्रतीति कराता है!

मैं जानता था, मेरे साथ सागर तट पर चलते हुए वह फिर अपने अतीत की ओर मुड़ गई है, मुझे अकेला छोड़कर। शायद मेरी नियति ही यही है - सबके बीच - एक भरी-पूरी दुनिया के बीच - अकेले-अकेले, एकदम निसंग होकर जीना... दामिनी बोल रही थी - लहरों के शोर में डूबी हुई-सी आवाज में, जिसे सुनने के लिए मुझे काफी ध्यान देना पड़ रहा था -

कैसे उदासी भरे दिन थे वे, क्या कहूँ... जैसे हर पल आँसुओं की बूँद-से टलमल-टलमल, एक ही टकोर पर बरस जाने के लिए अधीर... बहुत मुश्किल होता था उन गीले दिनों में आँखों को शुष्क बनाए रखना। माँ की आँखों का खयाल रखते-रखते मैं अपनी आँखें बिसरा बैठी थी, जिनके दुखों की एक अलग दुनिया थी। माँ मुझसे कभी कुछ भी नहीं कहती थी और यही बात मेरे लिए सबसे ज्यादा त्रासद हो जाया करती थी। उनकी चुप्पी ही उनकी पीड़ा को मुखर बना देती थी, काश वे इस बात को समझ पातीं।

बारिश के मटमैले आकाश-सा कुछ होता था उनकी तरल आँखों में, पलकों का कच्चा किनारा तोड़कर बह निकलने को आतुर। अपनी दुर्बल बाँहों में एक चढ़ते हुए समंदर को बाँधे कभी-कभी शायद वे बहुत थक जाती थीं। फुर्सत के क्षणों को खींचती हुई वह बहुत बार अकेली दिख जाती थी, खासकर छत के उस पूरबवाले कोने में जहाँ बहकर आनेवाली हवा का स्वाद बिल्कुल अलग होता था, नीम के फूलों की कड़वी-मीठी गंध की तरह।
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Re: औरत जो एक नदी है

Post by Jemsbond »

कभी-कभी उन्हें छेड़े बगैर मैं चुपचाप उनकी दुनिया का हिस्सा बन जाती थी - उनके आकाश और समंदर को ओर-छोर बिछाकर उनसे एक होती हुई-सी... मैं जानना चाहती थी, क्या है उस आकाश के एक टुकड़ा शून्य में या सागर के हरहराते हुए विस्तार में, जहाँ वे इस तरह से रातदिन डूब जाया करती थीं। बाद में, बहुत बाद में समझ पाई थी, निसंग मन कहाँ-कहाँ आसरा ढूँढ़ लेता है, कैसे-कैसे साथ चुन लेता है। दामिनी मुट्ठी में रेत भर-भरकर हवा में उड़ाती रही थी। ऐसा करते हुए उसकी आँखों में वही अतीत था जिसमें वह अपना वर्तमान जीती आ रही थी। मेरी तरफ न देखती-सी नजर से देखते हुए उसने कहा था, समंदर मुझे मेरा बहुत अपना-सा कोई लगता है अशेष। जानते हो, बचपन में मैं जिस कमरे में सोती थी, समंदर उसके शायद सौ कदमों के फासले पर ही था। वही हमारा सबसे करीबी पड़ोसी हुआ करता था।

पूरी रात ही जैसे किनारे पर पछाड़ खाती लहरों पर डोलती रहती थी। बरसात की रातों में उद्दाम हवा छत पर किसी क्रुद्ध नागिन की तरह अपना फन पटकती हुई गुजरती थी तो मुझे बहुत डर लगता था। खासकर बरसात की तूफानी रातों में, जब लगता था उमड़ता हुआ समंदर हमारे छोटे-से काँटेज को अपनी ऑक्टोपस जैसी लहरों में दबोचकर पूरा का पूरा निगल जायगा। हवा, समंदर और बारिश से जैसे रचा हुआ था हमारा घर। उसकी बूढ़ी, नमक खाई पुरानी दीवारें समुद्र के गर्जन से रातदिन थरथराती रहती थीं।

अपनी बात को बढ़ाते हुए वह मेरे करीब सरक आई थी, किसी डरी हुई छोटी बच्ची की तरह - जानते हो अशेष, कभी-कभी मुझे लगता था कि जैसे समंदर का ये अनंत शोर मेरे अंदर समा गया है। नसों में बहता रहता है आठों प्रहर - ठीक जैसे शंख के अंदर से आती है समंदर की आवाज... मत्स्यगंधा बनी हवा से भीगी रहती थीं खिड़कियाँ, दरवाजे, उमस से हम चिपचिपाए रहते थे। कभी-कभी लगता था, हम नमक से बने हैं।

पहली बार अपनी ही बात पर वह हँसी थी। शाम की धूसर रोशनी में सितारे घुल आए थे। उसकी हँसी की हल्की ठुनक में डूबता-उतराता मैं उसे देखता रहा था। कुछ कहकर मैं उसके प्रवाह में गतिरोध उत्पन्न नहीं करना चाहता था। वह अबाध बह रही थी, अपनी रौ में, नदी की तरह...

उसे उसके निहायत अंतरंग क्षणों में देखना-महसूसना भी अपने आप में एक घटना होती है। किसी पारे की उजली नदी की तरह वह अलस, मंथर गति से बहती है, अपने आसपास सपनों और इच्छाओं के हल्के गुलाबी फूल खिलाते हुए, सुगंध की तरल वेणियाँ लहराकर हवा में गश घोलते हुए... मेरी सोच से बेखबर वह अब भी अपनी रौ में बहे जा रही थी -

इन तमाम शोरगुल के बीच माँ के व्यक्तित्व में खिंचा गहरा सन्नाटा मुझे दो चरम के बीच जीने पर विवश कर देता था। यह स्थिति निहायत तकलीफदेह थी। समंदर और माँ दो बिल्कुल विपरित धुरियों पर थे, मगर फिर भी कहीं किसी बिंदु पर एक थे, यह बात समझते हुए मुझे एक उम्र लग गई थी।

कभी जब मैं उनसे पूछती थी, उन्हें क्या मिल जाता है इस अनवरत हाहाकार और अछोर चुप्पी से, वे हँसकर कहती थी, तू अभी इस बात को नहीं समझेगी! जब तू नहीं थी, ये थे और... आगे भी रहेंगे...

कई वर्ष बाद जब मैं पापा के साथ बोर्डिंग स्कूल के लिए घर से निकल रही थी, माँ को समंदर के गहरे नीले कैनवास पर हवा और शोर के बीच किसी गीली पेटिंग की तरह एकदम निसंग और उदास खड़ी देखकर उसदिन उनकी कही हुई उस बात का सही अर्थ समझ पाई थी।

मैंने मुड़कर उसदिन समंदर को एक दूसरी ही - नई नजर से देखा था। अब मुझे भी माँ के यकीन पर यकीन हो चला था। कितनी अजीब बात है, उसदिन अपने घर को उन उच्छृंखल लहरों के हवाले करके मैं एक तरह से निश्चिंत हो गई थी।

उसे सुनते हुए उसकी बातों से मैंने समंदर के चेहरे का मिलान किया था। वह बिल्कुल वैसा ही था जैसा दामिनी की स्मृतियों में बसा हुआ था। कितना पुराना है ये समंदर... सबके हिस्से की कहानियों में बँटा हुआ, मगर एकदम पूरा-पूरा... मैं उठ खड़ा हुआ था। साथ में दामिनी भी। अपने कपड़ों से रेत झाड़ते हुए उसने किनारे पर चढ़ती हुई लहरों से खुद को बचाया था, ज्वार का समय था, पानी ऊपर चढ़ रहा था, लहरों में खासी बेचैनी थी। बेचैन दामिनी भी थी। किसी खोई हुई टिटहरी की-सी आवाज में कह रही थी - एकदम निसंग, उदास, गहरे कहीं छूते हुए -

इसके बाद जब भी माँ से फोन पर बात होती थी, मैं उनसे मजाक में पूछ लेती थी, क्यों माँ, तुम्हारा समंदर कैसा है? हालाँकि मुझे फोन पर भी समंदर की आवाज सुनाई पड़ती रहती थी। कभी-कभी तो मुझे ऐसा लगता था कि मैं माँ को फोन करती ही हूँ समंदर की आवाज सुनने के लिए... वह समंदर जो दूर होकर भी हर पल मेरे आसपास बना रहता था - अपने तमाम हलचल और बेचैनी के साथ... मेरी नसों में एक दरिया है और उसका सारा नमक भी। खूब समझ पाती हूँ, जब निःशब्द रातों में मेरे अंदर बसी लहरें छटपटाती हैं, तटों पर पछाड़ खा-खाकर सर धुनती है...

उसकी बातें सुनकर मुझे न जाने किस शे'र की दो पक्तियाँ याद हो आईं थीं - मैंने बहते हुए साहिल से ठिकाना माँगा था, मुझे बिखर जाने का कैसा जुनून था... मैं भी बसने के भ्रम में दामिनी के साथ बहे जा रहा था शायद। पता नहीं, वह मेरा किनारा थी या मँझधार...

मेरी अस्त-व्यस्त सोचों से परे वह अपनी छोटी-सी दुनिया में हमेशा की तरह गुम थी। आगे चलते हुए कहती जा रही थी - जानते हो अशेष, एक अर्सा हुआ मैं कभी एक पूरी, मुकम्मल नींद सो नहीं पाई। रातों को जागना या जागते रहने के अहसास में तंद्रिल-सी किसी अवस्था में पड़े रहना, फिर सारा-सारा दिन ऊँघ और आलस्य से घिरे रहना... यही मेरे लिए एक रुटीन होकर रह गया है।

वह मुझे मुड़कर अचानक देखती है और मैं उसकी उनींदी आँखों से घिर आता हूँ - एक सपना जो अपनी नींद की तलाश में जाग रहा है, न जाने कब से, न जाने कबतक के लिए! मैं झुककर एक कंकड़ उठाता हूँ और मन-ही-मन उसके लिए एक लंबी, सुखद नींद की विश करते हुए उसमें फूँककर उस कंकड़ को समंदर की लहरों की तरफ उछाल देता हूँ। वह एक क्षण के लिए मुझे कौतुक से देखती है फिर चल पड़ती है -

और जब कभी नींद आती है तो तंद्रा के झीने पर्दे के पीछे ऐसी प्रतीति होती है कि जैसे मेरे सिरहाने बैठकर कोई रातभर रो रहा हो - एक दबी-दबी, हिचकियों में टूटती आवाज... इतने धीमे कि कानों का भ्रम लगे! मगर आती है - सारी रात! मैं करवट दर करवट अपने दोनों कान तकिए से दबाकर पड़ी रहती हूँ। उस आवाज से छूटने के लिए मैं क्या नहीं करती। मगर उफ्! वह बंद नहीं होती, किसी तरह बंद नहीं होती...!

मैंने आगे बढ़कर बिना किसी भूमिका के अचानक पूछा था - मे आई होल्ड योर हैंड? मेरे इस आकस्मिक प्रश्न पर ठिठककर रुक गई थी और फिर चकराई-सी पूछी थी - कौन वाला हाथ? उसके इस भोले सवाल पर मुझे अनायास हँसी आ गई थी, हँसते हुए ही कहा था - बोथ हैंड्स... आँखों में न समझने के-से भाव लिए उसने अपने दोनों हाथ आगे बढ़ा दिए थे, चेहरे पर अभी भी गंभीरता ओढ़े। मेरा मन करुणा से भर उठा था। अपनी उलझन की दुनिया में एक टिटहरी की तरह हमेशा खोई रहती है, उसे आसपास की सुध तक नहीं रहती। एक उस जैसी खूबसूरत औरत का यूँ उदासी की मटमैली धुंध में रातदिन खोए रहना, धीरे-धीरे हर खुशी, हर उमंग से विरत होना, होते चले जाना... मुझे उसके लिए तकलीफ होती थी। जिंदगी - ऐसी जिंदगी - इस तरह जाया नहीं होनी चाहिए!

वह मेरी आँखों में न जाने क्या देखती है कि अचानक से चेहरा दूसरी तरफ मोड़ लेती है। एक क्षण के लिए हम दोनों के बीच एक गहरा मौन पसर गया था - बहुत भरा-भरा और बोलता हुआ-सा... एक साँस की नाजुक टकोर से भी चटकता हुआ-सा... मैं उसे देखता हूँ, वह न जाने किसे - एक दृष्टिहीन नजर से, अन्यमनस्क - अपने में संपृक्त! उसका मेरे साथ होना और न होना - इसी तरह - मुझे साथ में भी अक्सर निसंग कर जाता है। मुझे ये खलता है, मगर उसे दोष नहीं दे पाता। ये सब उसके जानने में नहीं होता, अब अच्छी तरह समझने लगा हूँ। उसका मन का एक कोना - बहुत छोटा-सा - मेरी पकड़ में आया है, वह भी पूरी तरह नहीं। एकदिन उसे पा लूँगा, मैंने आकाश पर चमकते हुए मौसम के एक टुकड़े - नए चाँद की तरफ देखते हुए सोचा था। मुझे लगा था, चाँद की हँसी बाँध टूटकर एकदम से बह आई है। क्या मेरी ये इच्छा इतनी पागल थी!

दामिनी मेरी तरफ देखती हुई अबतक चुपचाप खड़ी थी। स्वयं को समेटते हुए मैंने उसका दायाँ हाथ पकड़ लिया था और फिर चलते हुए पूछा था - कोई सारी रात तुम्हारे सिरहाने बैठकर रोता है... तुम्हें ऐसा लगता है? स्ट्रेंज!

'हाँ, सच, ऐसा ही लगता है, एकबार नहीं, अक्सर...' वह फिर अपने में हो ली थी - मुझे याद है, प्रायः रोज रात को मुझे सुलाने के बाद जब माँ को पूरा यकीन हो जाता था, मैं सो चुकी हूँ, वे धीरे-धीरे रोने लगती थीं। मैं माँ का ये राज जानती थी, इसलिए जब वे चाहती थीं, मैं उनके लिए सो जाने का बहाना करती थी - इतना तो मैं उनके लिए कर ही सकती थी! मेरे नन्हें शरीर को अपनी बाँहों में समेटे वे निःशब्द रोती रहती थीं, शायद सारी रात ही... लाख जागना चाहकर भी मेरी कच्ची आँखें आखिर मुँद ही जाती थीं। सोने से पहले मैं महसूस करती थी, मेरा माथा उनके बहते हुए आँसुओं से भीग गया है। उनके वे विवश आँसू मेरी रूह में जज्ब होकर रह गए हैं अशेष! अब तो वर्षों से जो भी सपने आते हैं, उनमें भीगकर आते हैं। उनसे मेरी मुक्ति नहीं - इस जन्म में तो नहीं!

उसकी बातें सुनते हुए मैं समझ गया था, कौन उसके सिरहाने आज भी सारी-सारी रात रोता है। कुछ तस्वीरें धुँधली पड़ जाती हैं, मगर मिटती नहीं - शायद कभी भी। कच्ची दीवारों पर लिखे गए हर्फ रह जाते हैं उनके साथ - उनकी उम्र का हिस्सा बनकर... इस गीली मिट्टी पर न जाने कितने दाग हैं, किस-किस के दिए हुए... हरी, मखमली कालीन के नीचे जर्द, स्याह मौसम की एक लंबी, बदसूरत फेहरिस्त है - ओर-छोरतक पसरा हुआ। इन्हें अनहुआ नहीं किया जा सकेगा कभी... इस इंद्रधनुष पर उदासी के साँवले फफूँद पड़े रहेंगे - इसी तरह, हमेशा...

मेरे अंदर अनायास एक अनाम-सी अनुभूति घिर आई थी - गहरे, मटमैले रंग जैसी, बारिश में लगातार भीगती हुई किसी बदरंग दीवार की तरह...। काई की कोई गहरी परत है जो अंदर ही अंदर कहीं चढ़ रही है, बहुत बेआवाज, मगर तेजी से। उतरती रात के मेहँदिया रंग में मैं उसकी झिलमिलाती देह को देखता हूँ - हवा में अबरक-से झर रहे हैं, अँधेरा गोरा पड़ रहा है।

एक तिलिस्म रच रही है वह हर कदम पर - मेरे लिए... किसी मरीचिका की तरह उसका दुर्वार आकर्षण मुझे खींचकर न जाने सन्नाटे के किस देश में लिए जा रहा था! मैं हर कदम पर रुकना चाहता था, मगर नहीं चाहता था। ये मेरी सबसे बड़ी त्रासदी थी। त्रसित तो दामिनी भी थी। जहाँ दुख के सिवा कुछ नहीं मिलता था, उसे फिर-फिर वहीं लौटकर जाना पड़ता था। विवश थी वह - स्वयं से ही। हम दोनों अपने आप से विवश थे। इसलिए - शायद इसीलिए इतने विवश थे।

दामिनी के कॉटेज में पहुँचते हुए उसदिन काफी देर हो गई थी। न जाने क्यों, उषा ने बाहर की बत्तियाँ नहीं जलाई थीं। चारों तरफ अंधकार पसरा पड़ा था। दूर स्ट्रीट लाइट की रोशनी बरामदे में यहाँ-वहाँ फैल रही थी। उसी हल्की रोशनी में चहारदीवारी के साथ -साथ लगे बोगनबेलिया की सघन लतरें हवा में झूमते हुए फर्श पर रंगोली-सी रच रही थी - रोशनी और छाँव की लुकाछिपी - शरीर, चंचल... हम दोनों उसी फीके अंधकार में बरामदे में बिछी कुर्सियों पर बैठ गए थे। आवाज सुनकर उषा बाहर आ गई थी, मगर दामिनी ने उसे बत्ती जलाने से मना कर दिया था - ऐसे ही ठीक लग रहा है। उसने चाय बनाने से भी उसे मना कर दिया था। मैं अंदर जाकर वॉश बेसिन पर मुँह धो आया था। समंदर की नमकीन हवा में त्वचा चिपचिपाने लगी थी। रूमाल से चेहरा पोंछते हुए मैं जब बाहर बरामदे में आकर बैठा, उषा मेज पर बीयर की बोतल और दो काँच के लंबे गिलास लगा रही थी। मैंने हाथ लगाकर देखा था, बोतल बहुत ठंडी थी। इस समय मुझे बिल्कुल यही चाहिए था - चिल्ड बीयर!
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Jemsbond
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Re: औरत जो एक नदी है

Post by Jemsbond »

थोड़ी देर बाद जब दामिनी बाहर निकलकर आई थी, उसके शरीर से किसी सुगंधित साबुन और क्रीम की गंध आ रही थी। शायद वह भी बाथरूम से फ्रेश होकर आई थी। बैठते हुए उसने पूछा था, तुम खाकर जाओगे न? मैंने उषा से पनीर बनाने के लिए कहा है। रोटियाँ भी बना लेगी... मैं चुपचाप बीयर की चुस्कियाँ लेता रहा था। शाम की इस गहरी, खूबसूरत खामोशी में मुझे अनायास अपने घर का खयाल आ गया था - अक्सर इस समय का माहौल... मैं ऑफिस से लौटकर बेतरह थका-हारा, थोड़ा सुकून और आराम की जरूरत में... उधर बच्चों की तकरार, आपस के झगड़े, होम वर्क का टेंशन! उमा रसोई में लगातार बड़बड़ा रही है, बीच-बीच में आकर शिकायत कर रही है, उलाहने दे रही है - तुम्हारा क्या, ऑफिस की नौ से पाँच की बँधी-बँधायी ड्यूटी, फिर घर आकर आराम! और एक मैं हूँ, सुबह से शाम तक कभी कोई छुट्टी नहीं, आराम नहीं... औरत का जन्म...!

अचानक मेरे मुँह में बीयर की घूँट बहुत कड़वी जान पड़ी। शादी... एक अनोखी संस्था है, जहाँ दो इनसान एक-दूसरे से बँधे उम्रभर एक-दूसरे को योजनाबद्ध तरीके से तोड़ते, खत्म करते रहते हैं। किस्तो में - तिल-तिलकर... अद्भुत हिंसा है ये - रिश्ते के नाम पर - एक कैद, कारावास - आजीवन कारावास...

शादी से पहले उमा कितनी खूबसूरत थी - सूरत और सीरत से! हँसती ही रहती थी - बात-बातपर... किसी पहाड़ी जलप्रात की तरह - अविरल, अबाध... घंटों उसके साथ कैसे बीत जाता था, समय का पता ही नहीं चलता था। और अब... मुझे उसका चेहरा याद आता है - कठोर और रुक्ष - लावण्य रहित! हमेशा तनी हुई भौंहें और तमतमाते गाल। क्या मैंने उसे इस हालत में पहुँचा दिया? या हालात ने... अपने अंदर मैं टटोलता रहता हूँ - बहुत सारे अनुत्तरित प्रश्न हैं, इकट्टे हो गए हैं बीतते हुए समय के साथ, पहाड़ बनते जा रहे हैं दिन-प्रतिदिन... और मैं दबा हुआ हूँ उसके नीचे हर समय।

फिर मैं... मेरा क्या हुआ! क्या मैं भी हमेशा से ऐसा था - उदासीन, हर तरफ से असंपृक्त... कितना कुछ चाहता था मैं भी इस जिंदगी से, अपने और उमा के रिश्ते से! उम्मीदें थीं, चाव थे, इच्छाएँ - ढेर-ढेर-सी! और अब?... एक गहरा अवसाद और विरक्ति- हर चीज से, शायद जीवन से ही।

एक भारी अभाव से उपजी है ये भूख, ये लालसा... बहुत कुछ खो जाने के अहसास से घबराकर अब हर क्षति की पूर्ति चाहता हूँ - बीत गए समय की, आधी-अधूरी वासनाओं की... हुआ को अनहुआ करने की कोशिश, और क्या...! छूट जाना चाहता हूँ, हर उस बंधन से जो आलिंगन नहीं बन पाया! मुक्त हो जाना चाहता हूँ। रिश्तों की दुनिया में बँधुआ मजदूर बनकर रहना नहीं चाहता, संबंधों को ढोना नहीं, जीना चाहता हूँ... क्या ये चाहना बहुत ज्यादा, बहुत गलत है? सवालों के नागफनी चारों तरफ उगे रहते हैं और मैं इस बियावान में भटकता रहता हूँ। एक तरफ समाज है, इसके नियम-कानून, मोटी-मोटी पोथी और इसकी बूढ़ी, जर्जर रूढ़ियाँ, दूसरी तरफ एक अकेला मन, जो बस जीना चाहता है, जबतक जीवित है, जीना चाहता है...

मुख्तसर-सी बात है - जीवन को भोगना चाहता हूँ अब - स्वच्छंद होकर। संबंध के नाम पर एक और कारावास नहीं चाहता, रिश्तों की गुलामी नहीं चाहता। हर कोई आलिंगन बनने के बजाय हथकड़ी क्यों बन जाता है! प्यार के नाम पर एक नागपाश - वजूद को जकड़कर, पेंच कसकर साँस-साँस के लिए मोहताज करता हुआ...

अपनी सोच में शायद मैं बहुत दूर निकल आया था। दामिनी ने बाँह पर हल्के से छुआ तो खयाल आया। वह शायद मुस्करा रही थी - मेरी बीमारी तुम्हें भी लग रही है, जागकर सपने देखने लगते हो। अच्छा अशेष, इतना क्या सोचते हो? उसकी हल्के नशे की खुमार में डूबी आवाज जल तरंग की तरह हवा में बिखरकर खो गई थी। मैं देरतक उसकी मृदुल ठुनक अपने भीतर महसूस करता बैठा रह गया था। कभी-कभी किसी बहुत भरे हुए-से क्षण में कुछ कहने की इच्छा नहीं होती। लगता है, जो अनुभव के स्तर पर जी रहे हैं, उसे शब्दों से दरकाकर नष्ट न कर दें। कुछ ऐसी ही मनःस्थिति में था इस समय। हवा में फूलते रात रानी के साथ दामिनी की हल्की, मीठी देह गंध थी - मिली-जुली, मगर मैं उनके पार्थक्य को समझ सकता था, अनुभूति के किसी अनाम स्तर पर। सुगंध का भी एक चेहरा होता है, बहुत पारदर्शी, मगर होता है...

दामिनी ने अचानक पूछा था, तुमने ताजमहल देखा है न अशेष? मेरे हाँ में सर हिलाने पर उसने न जाने कैसी इच्छा भरी आवाज में कहा था - एकबार मैंने भी देखा था, चाँदनी रात में! स्कूल टूर पर गई थी। कैसा लगा था? मेरे प्रश्न पर उसके स्वर में जैसे सपने घिर आए थे - अद्भुत - एक नीली नदी के पहलू में सिमटी हुई प्यार की अनोखी कहानी - प्रतीत होता है, ख्वाब और मुहब्बत को संगमरमर में गूँथकर समय के सीने पर एक तस्वीर की तरह जड़ दिया गया है - हमेशा-हमेशा के लिए, एक पूरे काल खंड और उसकी जीवंत अनुभूति के साथ...

प्यार वहाँ का एक ठहरा हुआ रोज का मौसम है। वहाँ कोई हो और प्रेम में न हो, ये संभव नहीं लगता। कहते हुए दामिनी की आँखों में जैसे सपनों की मृदुल क्यारियाँ खिल आई थीं, नर्म, चटकीले फूलों से भरी हुईं... मधु की बूँद की तरह उसके शब्द मेरी कानों में टपकते रहे थे, वह स्वप्न बुन रही थी - मीठी, रंगीन सलाइयों से -

ताज प्रेम के होने के साक्ष्य में खड़ा है, उसका होना एक तरह से प्रेम के होने -निरंतर बने रहने का एक शाश्वत प्रतिश्रृति-सा है... उसे देखकर आश्वासन मिलता है - दुनिया के खूबसूरत होने का, उसके बने रहने का - बहुत आगे तक... जरा सोचो तो, कहते हुए दामिनी की आँखें विस्फारित हो चली थीं - कभी ये ढह गया तो... उफ्! ताजमहल का खंडहर प्रेम का सबसे बड़ा दुःस्वप्न है...

मैं अब भी आँखें मूँदे उसे चुपचाप सुनता रहा था। उसे सुनना या देखना एक तरह से कविता को जीना था - उसकी पूरी नजाकत और रवानगी के साथ... कुछ क्षणों के लिए उसके चुप हो जाने के बाद भी जैसे हवा में उसकी आवाज के मुलायम रेश बचे रह गए थे - पारदर्शी फूलों की तरह तैरते हुए...

न जाने कितनी देर बाद उसने फिर बोलना शुरू किया था, कहीं बहुत दूर से - शायद वह फिर वहीं लौट गई थी - अपने बचपन में, अपनी माँ के पास! मैं अपनी मुट्ठी में उसका हाथ समेटे उसकी हल्की हरारत को महसूसता रहा था, जैसे किसी डरी हुई चिड़िया की लरज... वह कह रही थी - मैं सुन रहा था, यही उसके साथ होना था - सही अर्थों में! ऐसे क्षणों में वह मुझसे इससे ज्यादा की कोई अपेक्षा भी नहीं रखती है, जानता हूँ। कोई हो जो संवेदना के स्तर पर साथ हो, संग-संग बहे दूरतक, मगर खामोशी से...

वह कह रही थी, उस दिन चाँदनी रात में ताजमहल को देखते हुए मैं पहली बार समझ पाई थी - हमारा घर भी एक ताजमहल की तरह है, जहाँ मेरी माँ के प्यार को चेहरा नहीं मिला था, वरन् उनका यकीन दफ्न हुआ था - उनके जीते जी ही! न जाने किस देश की थी माँ, कहाँ से आई थी। मैंने बहुत बार पूछा था उनसे, मगर न जाने क्यों वह इस विषय में कुछ भी कहना नहीं चाहती थीं। हर बार चुप रह जाती थी। मगर एकबार एक कहानी सुनाते हुए वे अचानक रो पड़ी थीं। आज समझ पाई हूँ, इतने सालों के बाद कि वह कहानी उनकी ही थी। उस कहानी की राजकुमारी मेरी माँ ही थीं। अपने माँ-बाप की इकलौती संतान जो बहुत प्यार और नाजों से पली-बढ़ी थी, एकदिन अपने माँ-बाप और प्रियजनों को छोड़कर अपने प्रेमी का हाथ पकड़कर उसके साथ सुदूर देश में चली आई थी।

पीछे छूट गए थे उसके सारे सपने और प्यार, दुलार की एक भरी-पुरी दुनिया। अपने महल से चलते समय उसके पास उसके प्रियतम का प्यार, विश्वास और वादों का ही एकमात्र संबल था। उन्हीं पर निर्भर होकर वह उतनी दूर चली आई थी। मगर अपने देश पहुँचते ही उसका प्रेमी उसे एक कारावास में डालकर कहीं चला गया था।

अब राजकुमारी उस कारावास में रातदिन अकेली रहती और अपने दुर्भाग्य पर आँसू बहाती। वह उस देश की बोली नहीं जानती थी, उसे वहाँ का खाना भी नहीं रुचता था। उसका रंग दूध में घुले केसर की तरह था और वह गाती कोयल की तरह थी। मगर उस देश के लोग गहरे श्याम वर्ण के थे तथा हमेशा कौओं की तरह कटु बोलते थे। वे सभी उसके रूप, रंग और गुण को घृणा और संशय की दृष्टि से देखते थे। कोई उससे बोलता भी नहीं था। यह सब तो वह शायद सह भी जाती, मगर उसके दुख का चरम ये था कि उसका वह प्रेमी जिसके लिए उसने अपना लगभग सबकुछ छोड़ दिया था, भी उससे बोलता नहीं था। वह अछोर चुप्पी की एक काली कोठरी में कैद थी और इसी कैद में रातदिन घुट-घुटकर राजकुमारी एकदिन स्नेह और साहचर्य के अभाव में अंततः मर ही गई...

कहते हुए माँ जैसे राजकुमारी की उसी मौत से होकर गुजर रही थी। उसदिन उनके साथ मैं भी खूब रोई थी। शायद मुझे भी उनकी नियति का आभास हो गया था। मैंने माँ की ओर बेआवाज बढ़ती मौत के कदमों की आहट न जाने कैसे सुन ली थी। मैं अब देख सकती थी, गहरे आतंक और भय के साथ - माँ की ओर शनैः-शनैः बढ़ती आसन्न मृत्यु को... कितना सहम गई थी मैं उसदिन... माँ को छोड़ ही नहीं रही थी किसी तरह, कसकर लिपटी हुई थी उनसे। दामिनी की आवाज में अजीब कँपकँपी भरी हुई थी। वह जैसे बिल्कुल अपने कल में हो गई थी - उसकी पूरी भयावहता को शिद्दत से जीती हुई। मैंने उसकी अँगुलियाँ अपने बाएँ हाथ की मुट्ठी में समेट ली थीं। वे पसीने से नम थीं, हल्के-हल्के लरजती हुईं।

मेरी छुअन की आश्वस्ति धीरे-धीरे उसके स्वर में उतर आई थी। थोड़ी देर ठहरकर सहज आवाज में उसने कहा था - शायद उसी दिन माँ ने कहा था, इस तरह से कि मैं न सुन पाऊँ - कभी-कभी मृत्यु जीवन से बेहतर विकल्प होती है... मैं उनकी बात का तात्पर्य समझ नहीं पाई थी, मगर न जाने संवेदना के स्तर पर क्या महसूस किया था कि और-और उदास हो गई थी। हवा और समंदर के निरंतर शोर के बीच सन्नाटे के कफन में लिपटी माँ म़ुझे उस निसंग द्वीप की तरह प्रतीत हुई थीं जिसके चारों तरफ आकाश की अनंत चुप्पी और समंदर के अनवरत हाहाकार के सिवा कुछ भी नहीं होता। यह निर्जन द्वीप जितना बाहर होता है, उससे कहीं ज्यादा अंदर होता है। एक डूब - सतत डूब - बनी रहती है उसके अस्तित्व में, उसका सफर नीचे की ओर अधिक होता है ऊपर के बनिस्बत!

दामिनी की आवाज में दबी हुई सिसकियों का हल्का कंपन था, उसके आगे के शब्द पानी में घुल-से गए थे। वह शायद फिर रोने लगी थी। हमारे सामने बीयर की न जाने कितनी खाली बोतलें इकट्ठी हो गई थीं। उषा कई बार खाने के लिए इस बीच पूछ चुकी थी। जाने रात का क्या बजा था उस समय...

दामिनी ने अचानक अपनी बोझिल पलकें उठाई थीं - अशेष, न जाने शादी के कितने वर्षों बाद पापा ने एकदिन बिल्कुल निर्लिप्त और सहज भाव से माँ से कह दिया था कि वे उनसे प्रेम नहीं करते! ऐसा कहते हुए उनमें जरा भी हिचकिचाहट या ग्लानि नहीं थी। मगर सुनकर माँ शर्मिंदा हो गई थीं - इसी प्यार के लिए कभी अपने रिश्तों, खुशियों और सपनों की एक भरी-पूरी दुनिया छोड़ आई थी...

उसदिन माँ के लिए पापा ही नहीं - उनकी यकीन की पूरी दुनिया, उनके भगवान - सबकुछ झूठा पड़ गया था! कहीं कोई फर्क नहीं पड़ा था - सबकुछ पहले की तरह चलता रहा था, बस एक यकीन - बहुत मासूम यकीन, हमेशा के लिए खत्म हो गया था। पापा ने अपने वर्षों के रूखे व्यवहार, अवज्ञा को उसदिन एक स्पष्ट नाम दे दिया था। मेरे लेखे यह दुनिया का क्रूरतम अपराध था, मगर इसके लिए आजतक कोई सजा नहीं बनी। कितनी अजीब बात है... दामिनी सामने की मेज पर सर रखकर ढह गई थी - अशेष, भगवान होते हैं न...?

उस दिन के बाद मैंने दामिनी में सूक्ष्म बदलाव देखे थे। जाहिर तौर पर वह वही थी - पहले की तरह, मगर कहीं कुछ अलक्ष्य दरक गया था। मैं कह नहीं सकता था क्या और कहाँ, मगर महसूस सकता था। उसकी आँखों की पिघलती हुई पुतलियों में, तरल चावनी में कुछ अनमन, उदास और तटस्थ हो चला था। उसकी मुस्कराहट की उजली मसृन धूप में वह पहलीवाली ऊष्मा नहीं बची थी जो मुझे कभी नर्म हरारत से भर देती थी। मेरी बंद मुट्ठियों से कुछ बहुत खूबसूरत, अनमोल निःशब्द झर रहा था। मैं कुछ भी नहीं कर पा रहा था इसके लिए, मुझे मालूम नहीं था, मैं क्या कर सकता हूँ। यकीन काँच की तरह नाजुक होता है, दरक जाता है हल्के टकोर से। शायद कुछ ऐसा ही हुआ था दामिनी के साथ। कहीं से चोट खा गई थी। एक समय के बाद निराश होने लगा था मैं, अंदर कुछ कसक रहा था रातदिन...

दामिनी के अबाध समर्पण की घड़ियों में न जाने मुझे ऐसा क्यों प्रतीत होता था कि सिर्फ द्वार ही खुले हैं, इन कपाटों के पीछे पूरा घर खाली है। वहाँ कोई नहीं रहता, अशरीरी उच्छ्वासों के सिवा। ठीक जैसे थाईलैंड के मंदिरों में होता है - एकबार देखा था मैंने जब वहाँ घूमने गया था - वहाँ सिर्फ मंदिर होते हैं, अंदर देव मूर्तियाँ नहीं!

सुरों के आरोह-अवरोह-सी नर्म देह की रेखाओं में प्राणों का संकेत नहीं, हृदय का स्पंदन नहीं। मैं उसके महकते बालों में अपना चेहरा छिपाता, वह अधीर आग्रह से मेरा चेहरा उठाती - देखो अशेष, मेरी आँखों में देखो, आज मैं अपनी पलकों के आँचल में तुम्हारे लिए ढेर-सा आकाश चुन लाई हूँ। मुझे उसकी आँखों के गुलाबी कोयों में निमंत्रण के मादक संकेत मिलते, इच्छाओं की रसमसाती झील दिखती। वह अधैर्य अपनी लंबी बरौनियाँ झपकाती - ठीक से देखो, यहाँ मैं हूँ, तुम हो, तुम्हारा सपना है। हमारा वह घर है जिसकी नींव को ईट-पत्थरों की जरूरत नहीं। मैं उसके गुदाज सीने में अपना चेहरा धँसा देता - इन हसीन वादियों में मेरा घर है - नर्म, मुलायम कबूतरों की-सी हरारत भरी... और ये तुम्हारी जाँघें- मेरे एकमात्र गंतव्य की ओर जानेवाली उजली, चिकनी सड़कें... वह गहरी साँस लेकर अपना चेहरा फेर लेती - तुम कब मुझ तक पहुँचोगे अशेष, मुझे तुम्हारा कितना इंतजार है, बहुत अकेली हूँ...

उसकी देह की गर्म झील में डूबता-उतराता मैं सोच नहीं पाता, अब मुझे और कहाँ पहुँचना है! मैं उसके कान की लवें सहलाता, गालों के नर्म गड्ढों में फिसलता... मैं क्या कुछ नहीं पा गया था! वह कहती, हमारे बीच से यह देह की मिट्टी हटा दो। दीवार बनी हमेशा खड़ी रहती है, एक-दूसरे तक पहुँचने नहीं देती।

पागल थी वह। अपने शरीर से परे होकर न जाने अब क्यों सोच और अहसास बनकर जीना चाहती थी। कहती थी, इस हाड़-मांस के मीना बाजार में बहुत अकेलापन है, जैसे राम का वनवास... वैदेही के हिस्से का जंगल उन्होंने अपने राजप्रसाद में जिया था... ये उनका सबसे बड़ा वनवास था। एक राज की बात बताऊँ? औरतें मन की अतल गहराई में किसी ऐसे ही राम को चाहती हैं जो कृष्ण की तरह महारास का साथी न होकर उसके जीवन के निसंग वनवासों का साथी हो, फिर चाहे ये वनवास उसी के हाथों क्यों न मिला हो... देह के स्वाद में डूबकर कोई मन के अंतर में भीगना ही नहीं चाहता...
प्यास बुझाई नौकर से Running....कीमत वसूल Running....3-महाकाली ....1-- जथूराcomplete ....2-पोतेबाबाcomplete
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दिल से दिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
तुफानो में साहिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
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मगर आप जैसे दोस्त नसीब वालों को मिलते हैं!
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