जब तक वह बोलता रहा, उसकी आंखों से ज्वालासी निकल रही थी। ऐसा जान पड़ता था कि उसके मुख से आग के अंगारे बरस रहे हैं। जो लोग वहां खड़े थे, इच्छा न रहने पर भी मन्त्र मुग्ध से खड़े उसकी बातें सुन रहे थे।
किन्तु वह वृद्ध व्यापारी ऊधम मचाने में अत्यन्त परवीण था। वह अब भी शांत न हुआ। उसने जमीन से पत्थर के टुकड़े और घोंघे चुन लिये और अपने कुरते के दामन में छिपा लिये, किन्तु स्वयं उन्हें फेंकने का साहस न करके उसने वह सब चीजें भिक्षुकों के हाथों में दे दीं। फिर क्या था ? पत्थरों की वर्षा होने लगी और एक घोंघा पापनाशी के चेहरे पर ऐसा आकर बैठा कि घाव हो गया। रक्त की धारा पापनाशी के चेहरे पर बहबहकर त्यागिनी थायस के सिर पर टपकने लगी, मानो उसे रक्त के बपतिस्मा से पुनः संस्कृत किया जा रहा था। थायस को योगी ने इतनी जोर से भींच लिया था कि उसका दम घुट रहा था और योगी के खुरखुरे वस्त्र से उसका कोमल शरीर छिला जाता था। इस असमंजस में पड़े हुए, घृणा और त्र्कोध से उसका मुख लाल हो रहा था।
इतने में एक मनुष्य भड़कीले वस्त्र पहने, जंगली फूलों की एक माला सिर पर लपेटे भीड़ को हटाता हुआ आया और चिल्लाकर बोला-’ठहरो, ठहरो, यह उत्पात क्यों मचा रहे हो ? यह योगी मेरा भाई है।’
यह निसियास था, जो वृद्ध यूत्र्कसइटीज कसे कबर में सुलाकर इस मैदान में होता हुआ घर लौटा जा रहा था। देखा तो अलाव जल रहा है, उसमें भांतिभांति की बहुमूल्य वस्तुएं पड़ी सुलग रही हैं, थायस एक मोटी चादर ओ़े खड़ी है और पापनाशी पर चारों ओर से पत्थरों की बौछार हो रही है। वह यह दृश्य देखकर विस्मित तो नहीं हुआ, वह आवेशों से वशीभूत न होता था। हां, ठिठक गया और पापनाशी को इस आत्र्कमण से बचाने की चेष्टा करने लगा।
उसने फिर कहा-’मैं मना कर रहा हूं, ठहरो, पत्थर न फेंको। यह योगी मेरा पिरय सहपाठी है। मेरे पिरय मित्र पापनाशी पर अत्याचार मत करो।’
किन्तु उसकी ललकार का कुछ असर न हुआ। जो पुरुष नैयायिकों के साथ बैठा हुआ बाल की खाल निकालने ही में कुशल हो, उसमें वह नेतृत्वशक्ति कहां जिसके सामने जनता के सिर झुक जाते हैं। पत्थरों और घोघों की दूसरी बौछार पड़ी, किन्तु पापनाशी थायस को अपनी देह से रक्षित किये हुए पत्थरों की चोटें खाता था और ईश्वर को धन्यवाद देता था जिसकी दयादृष्टि उनके घावों पर मरहम रखती हुई जान पड़ती थी। निसियास ने जब देखा कि यहां मेरी कोई नहीं सुनता और मन में यह समझकर कि मैं अपने मित्र की रक्षा न तो बल से कर सकता हूं न वाक्चातुरी से, उसने सब कुछ ईश्वर पर छोड़ दिया। (यद्यपि ईश्वर पर उसे अणुमात्र भी विश्वास न था।) सहसा उसे एक उपाय सूझा। इन पराणियों को वह इतना नीच समझता था कि उसे अपने उपाय की सफलता पर जरा भी सन्देह न रहा। उसने तुरन्त अपनी थैली निकाल ली, जिसमें रुपये और अशर्फियां भरी हुई थीं। वह बड़ा उदार, विलासपरेमी पुरुष था, और उन मनुष्यों के समीप जाकर जो पत्थर फेंक रहे थे, उनके कानों के पास मुद्राओं को उसने खनखनाया। पहले तो वे उससे इतने झल्लाये हुए थे, लेकिन शीघर ही सोने की झंकार ने उन्हें लुब्ध कर दिया, उनके हाथ नीचे को लटक गये। निसियास ने जब देखा कि उपद्रवकारी उसकी ओर आकर्षित हो गए तो उसने कुछ रुपये और मोहरें उनकी ओर फेंक दीं। उनमें से जो ज्यादा लोभी परकृति के थे, वह झुकझुककर उन्हें चुनने लगे। निसियास अपनी सफलता पर परसन्न होकर मुट्ठियां भरभर रुपये आदि इधरउधर फेंकने लगा। पक्की जमीन पर अशर्फियों के खनकने की आवाज सुनकर पापनाशी के शत्रुओं का दल भूमि पर सिजदे करने लगा। भिक्षु गुलाम छोटेमोटे दुकानदार, सबके-सब रुपये लूटने के लिए आपस में धींगामुश्ती करने लगे और सिरोन तथा अन्य भद्रसमाज के पराणी देर से यह तमाशा देखते थे और हंसतेहंसते लोट जाते थे। स्वयं सिरोन का त्र्कोध शान्त हो गया। उसके मित्रों ने लूटने वाले परतिद्वन्द्वियां को भड़काना शुरू किया मानो पशुओं को लड़ा रहे हों। कोई कहता था, अब की यह बाजी मारेगा, इस पर शर्त बदता हूं, कोई किसी दूसरे योद्घा का पक्ष लेता था, और दोनों परतिपक्षियों में सैकड़ों की हारजीत हो जाती थी। एक बिना टांगों वाले पंगुल ने जब एक मोहर पायी तो उसके साहस पर तालियां बजने लगीं। यहां तक कि सबने उस पर फूल बरसाये। रुपये लुटाने का तमाशा देखतेदेखते यह युवक वृन्द इतने खुश हुए कि स्वयं लुटाने लगे और एक क्षण में समस्त मैदान में सिवाय पीठों के उठने और गिरने के और कुछ दिखाई ही न देता था, मानो समुद्र की तरंगें चांदीसोने के सिक्कों के तूफान से आन्दोलित हो रही हों। पापनाशी को किसी की सुध ही न रही।
तब निसियास उसके पास लपककर गया, उसने अपने लबादे में छिपा लिया और थायस को उसके साथ एक पास की गली में खींच ले गया जहां विद्रोहियों से उनका गला छूटा। कुछ देर तक तो वह चुपचाप दौड़े, लेकिन जब उन्हें मालूम हो गया कि हम काफी दूर निकल आये और इधर कोई हमारा पीछा करने न आयेगा तो उन्होंने दौड़ना छोड़ दिया। निसियास ने परिहासपूर्ण स्वर में कहा-’लीला समाप्त हो गयी। अभिनय का अंत हो गया। थायस अब नहीं रुक सकती। वह अपने उद्घारकर्ता के साथ अवश्य जायेगी, चाहे वह उसे जहां ले जाये।’
थायस ने उत्तर दिया-’हां, निसियास, तुम्हारा कथन सर्वथा निमूर्ल नहीं है। मैं तुम जैसे मनुष्यों के साथ रहतेरहते तंग आ गयी हूं, जो सुगन्ध से बसे, विलास में डूबे हुए, सहृदय आत्मसेवी पराणी हैं। जो कुछ मैंने अनुभव किया है, उससे मुझे इतनी घृणा हो गई है कि अब मैं अज्ञात आनन्द की खोज में जा रही हूं। मैंने उस सुख को देखा है जो वास्तव में सुख नहीं था, और मुझे एक गुरु मिला है जो बतलाता है कि दुःख और शोक ही में सच्चा आनन्द है। मेरा उस पर विश्वास है क्योंकि उसे सत्य का ज्ञान है।’
निसियास ने मुस्कराते हुए कहा-’और पिरये, मुझे तो सम्पूर्ण सत्यों का ज्ञान पराप्त है। वह केवल एक ही सत्य का ज्ञाता है, मैं सभी सत्यों का ज्ञाता हूं। इस दृष्टि से तो मेरा पद उसके पद से कहीं ऊंचा है, लेकिन सच पूछो तो इससे न कुछ गौरव पराप्त होता है, न कुछ आनन्द।’
तब यह देखकर कि पापनाशी मेरी ओर तापमय नेत्रों से ताक रहा है, उसने सम्बोधित करके कहा-’पिरय मित्र पापनाशी, यह मत सोचो कि मैं तुम्हें निरा बुद्घू, पाखण्डी या अन्धविश्वासी समझता हूं। यदि मैं अपने जीवन की तुम्हारे जीवन से तुलना करुं, तो मैं स्वयं निश्चय न कर सकूंगा कि कौन श्रेष्ठ है। मैं अभी यहां से जाकर स्नान करुंगा, दासों ने पानी तैयार कर रखा होगा, तब उत्तम वस्त्र पहनकर एक तीतर के डैनों का नाश्ता करुंगा, और आनन्द से पलंग पर लेटकर कोई कहानी पू़ंगा या किसी दार्शनिक के विचारों का आस्वादन करुंगा। यद्यपि ऐसी कहानियां बहुत पॄ चुका हूं और दार्शनिकों के विचारों में भी कोई मौलिकता या नवीनता नहीं रही। तुम अपनी कुटी में लौटकर जाओगे और वहां किसी सिधाये हुए ऊंट की भांति झुंककर कुछ जुगालीसी करोगे, कदाचित कोई एक हजार बार के चबाये हुए शब्दाडम्बर को फिर से चबाओगे, और सन्ध्या समय बिना बघारी हुई भाजी खाकर जमीन पर लेटे रहोगे। किन्तु बन्धुवर, यद्यपि हमारे और तुम्हारे मार्ग पृथक है, यद्यपि हमारे ओर तुम्हारे कार्यत्र्कम में बड़ा अन्तर दिखाई पड़ता है, लेकिन वास्तव में हम दोनों एक ही मनोभाव के अधीर कार्य कर रहे हैं-वही जो समस्त मानव कृत्यों का एकमात्र कारण है। हम सभी सुख के इच्छुक हैं, सभी एक ही लक्ष्य पर पहुंचना चाहते हैं। सभी का अभीष्ट एक ही है-आनन्द, अपराप्त आनन्द, असम्भव आनन्द। यही मेरी मूर्खता होगी अगर में कहूं कि तुम गलती पर हो यद्यपि मेरा विचार है कि मैं सत्य पर हूं।
‘और पिरये थायस, तुमसे भी मैं यही कहूंगा कि जाओ और अपनी जिन्दगी के मजे उठाओ, और यदि यह बात असम्भव न हो, तो त्याग और तपस्या में उससे अधिक आनन्दलाभ करो जितना तुमने भोग और विलास में किया है। सभी बातों का विचार करके मैं कह सकता हूं कि तुम्हारे ऊपर लोगों को हसद होता था क्योंकि यदि पापनाशी ने और मैंने अपने समस्त जीवन में एक ही एक परकार के आनन्दों का आस्वादन किया है जो बिरले ही किसी मनुष्य को पराप्त हो सकते हैं। मेरी हार्दिक अभिलाषा है कि एक घण्टे के लिए मैं बन्धु पापनाशी की तरह सन्त हो जाता। लेकिन यह सम्भव नहीं। इसलिए तुमको भी विदा करता हूं, जाओ जहां परकृति की गुप्त शक्तियां और तुम्हारा भाग्य तुम्हें ले जाय ! जाओ जहां तुम्हारी इच्छा हो, निसियास की शुभेच्छाएं तुम्हारे साथ रहेंगी। मैं जानता हूं कि इस समय अनर्गल बातें कर रहा हूं, इस पर असार शुभकामनाओं और निर्मूल पछतावे के सिवाय, मैं उस सुखमय भरांति का क्या मूल्य दे सकता हूं जो तुम्हारे परेम के दिनों में मुझ पर छायी रहती थीं और जिसकी स्मृति छाया की भांति मेरे मन में रह गयी है ? जाओ मेरी देवी, जाओ, तुम परोपकार की मूर्ति हो जिसे अपने अस्तित्व का ज्ञान नहीं, तुम लीलामयी सुषमा हो। नमस्कार है उस सर्वश्रेष्ठ, सवोर्त्कृष्ट मायामूर्ति को जो परकृति ने किसी अज्ञात कारण से इस असार, मायावी संसार को परदान की है।’
अलंकार
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Re: अलंकार
प्यास बुझाई नौकर से Running....कीमत वसूल Running....3-महाकाली ....1-- जथूराcomplete ....2-पोतेबाबाcomplete
बन्धन
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दिल से दिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
तुफानो में साहिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
यूँ तो मिल जाता है हर कोई!
मगर आप जैसे दोस्त नसीब वालों को मिलते हैं!
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Re: अलंकार
पापनाशी के हृदय पर इस कथन का एकएक शब्द वजर के समान पड़ रहा था। अन्त में वह इन अपशब्दों से परतिध्वनित हुआ-हा ! दुर्जन, दुष्ट, पापी ! मैं तुझसे घृणा करता हूं और तुझे तुच्छ समझता हूं ! दूर हो यहां से, नरक के दूत, उन दुर्बल, दुःखी म्लेच्छों से भी हजार गुना निकृष्ट, जो अभी मुझे पत्थरों और दुर्वचनों का निशाना बना रहे थे ! वह अज्ञानी थे, मूर्ख थे; उन्हें कुछ ज्ञान न था कि हम क्या कर रहे हैं और सम्भव है कि कभी उन पर ईश्वर की दयादृष्टि फिरे और मेरी परार्थनाओं के अनुसार उनके अन्तःकरण शुद्ध हो जायें लेकिन निसियास, अस्पृश्य पतित निसियास, तेरे लिए कोई आशा नहीं है, तू घातक विष है। तेरे मुख से नैराश्य और नाश के शब्द ही निकलते हैं। तेरे एक हास्य से उससे कहीं अधिक नास्तिकता परवाहित होती है जितनी शैतान के मुख से सौ वर्षों में भी न निकलती होगी।
निसियास ने उसकी ओर विनोदपूर्ण नेत्रों से देखकर कहा-’बन्धुवर, परणाम ! मेरी यही इच्छा है कि अन्त तक तुम विश्वास, घृणा और परेम के पथ पर आऱु रहो। इसी भांति तुम नित्य अपने शत्रुओं को कोसते और अपने अनुयायियों से परेम करते रहो। थायस, चिरंजीवी रहो। तुम मुझे भूल जाओगी, किन्तु मैं तुम्हें न भूलूंगा। तुम यावज्जीवन मेरे हृदय में मूर्तिमान रहोगी।’
उनसे बिदा होकर निसियास इस्कन्द्रिया की कबिरस्तान के निकट पेचदार गलियों में विचारपूर्ण गति से चला। इस मार्ग में अधिकतर कुम्हार रहते थे, जो मुर्दों के साथ दफन करने के लिए खिलौने, बर्तन आदि बनाते थे। उनकी दुकानें मिट्टी की सुन्दर रंगों से चमकती हुई देवियों, स्त्रियों उड़ने वाले दूतों और ऐसी ही अन्य वस्तुओं की मूर्तियों से भरी हुई थीं। उसे विचार हुआ, कदाचित इन मूर्तियों में कुछ ऐसी भी हों जो महानिद्रा में मेरा साथ दें और उसे ऐसा परतीत हुआ मानो एक छोटी परेम की मूर्ति मेरा उपहास कर रही है। मृत्यु की कल्पना ही से उसे दुःख हुआ। इस विवाद को दूर करने के लिए उसने मन में तर्क किया-इसमें तो कोई सन्देह ही नहीं कि काल या समय कोई चीज नहीं। वह हमारी बुद्धि की भरांतिमात्र है, धोखा है। तो जब इसकी सत्ता ही नहीं तो वह मेरी मृत्यु को कैसे ला सकता है। क्या इसका यह आशय है कि अनन्तकाल तक मैं जीवित रहूंगा ? क्या मैं भी देवताओं की भांति अमर हूं ? नहीं, कदापि नहीं। लेकिन इससे यह अवश्य सिद्धि होता है कि वह इस समय है, सदैव से है, और सदैव रहेगा। यद्यपि मैं अभी इसका अनुभव नहीं कर रहा हूं, पर यह मुझमें विद्यमान है और मुझे उससे शंका न करनी चाहिए, क्योंकि उस वस्तु के आने से डरना, जो पहले ही आ चुकी है हिमाकत है। यह किसी पुस्तक के अन्तिम ष्पृठ के समान उपस्थित है, जिसे मैंने पॄा है, पर अभी समाप्त नहीं कर चुका हूं।
उसका शेष रास्ता इस वाद में कट गया, लेकिन इससे उसके चित्त को शान्ति न मिली, और जब यह घर पहुंचा तो उसका मन विवादपूर्ण विचारों से भरा हुआ था। उसकी दोनों युवती दासियां परसन्न, हंसहंसकर टेनिस खेल रही थीं। उनकी हास्यध्वनि ने अन्त में उसके दिल का बोझ हल्का किया।
पापनाशी और थामस भी शहर से निकलकर समुद्र के किनारेकिनारे चले। रास्ते में पापनाशी बोला-’थायस, इस विस्तृत सागर का जल भी तेरी कालिमाओं को नहीं धो सकता।’ यह कहतेकहते उसे अनायास क्रोध आ गया। थायस को धिक्कारने लगा-’तू कुतियों और शूकरियों से भी भरष्ट है, क्योंकि तूने उस देह को जो ईश्वर ने तुझे इस हेतु दिया था कि तू उसकी मूर्ति स्थापित करे, विधर्मियों और म्लेच्छों द्वारा दलित कराया है और तेरा दुराचरण इतना अधिक है कि तू बिना अन्तःकरण में अपने परति घृणा का भाव उत्पन्न किये न ईश्वर की परार्थना कर सकती है न वन्दना।’
धूप के मारे जमीन से आंच निकल रही थी और थायस आपने नये गुरु के पीछे सिर झुकाये पथरीली सड़कों पर चली जा रही थी। थकान के मारे उसके घुटनों में पीड़ा होने लगी और कंठ सूख गया। लेकिन पापनाशी के मन में दयाभाव का जागना तो दूर रहा, (जो दुरात्माओं को भी नर्म कर देता है) वह उलटे उस पराणी के परायश्चित पर परसन्न हो रहा था जिस के पापों का वारापार न था। वह धमोर्त्साह से इतना उत्तेजित हो रहा था कि उसे देह को लोहे के सांगों से छेदने में भी उसे संकोच न होता जिसका सौन्दर्य उसकी कलुषता का मानो उज्ज्वल परमाण था। ज्योंज्यों वह विचार में मग्न होता था, उसका परकोप औरभी परचण्ड होता जाता था। जब उसे याद आता था कि निसियास उसके साथ सहयोग करचुका है तो उसका रक्त खौलने लगता था और ऐसा जान पड़ता था कि उसकी छाती फट जायेगी। अपशब्द उसके होंठों पर आआकर रुक जाते थे और वह केवल दांत पीसपीसकररह जाता था। सहसा वह उछलकर, विकराल रूप धारण किये हुए उसके सम्मुख खड़ा हो गया और उसके मुंह पर थूक दिया। उसकी तीवर दृष्टि थायस के हृदय में चुभी जाती थी!
थायस ने शान्तिपूर्वक अपना मुंह पोंछ लिया और पापनाशी के पीछे चलती रही। पापनाशी उसकी ओर ऐसी कठोर दृष्टि से ताकता था मानो वह सन्देह नरक है। उसे यह चिन्ता हो रही थी कि मैं इससे परभु मसीह का बदला क्योंकर लूं, क्योंकि थायस ने मसीह को अपने कुकृत्यों से इतना उत्पीड़ित किया था कि उन्हें स्वयं उसे दण्ड देने का कष्ट न उठाना पड़े। अक्समात उसे रुधिर की एक बूंद दिखाई दी जो थायस के पैरों से बहकर मार्ग पर गिरी थी। उसे देखते ही पापनाशी का हृदय दया से प्लावित हो गया, उसकी कठोर आकृति शान्त हो गयी। उसके हृदय में एक ऐसा भाव परविष्ट हुआ जिससे वह अभी अनभिज्ञ था। वह रोने लगा, सिसकियों का तार बंध गया, तब वह दौड़कर उसके सामने माथा ठोंककर बैठ गया और उसके चरणों पर गिरकर कहने लगा-’बहन, मेरी माता, मेरी देवी’-और उसके रक्त प्लावित चरणों को चूमने लगा।
तब उसने शुद्ध हृदय से यह परार्थना की-ऐ स्वर्ग के दूतो ! इस रक्त की बूंद को सावधानी से उठाओ और इसे परम पिता के सिंहासन के सम्मुख ले जाओ। ईश्वर की इस पवित्र भूमि पर, जहां यह रक्त बहा है, एक अलौकिक पुष्पवृक्ष उत्पन्न हो। उसमें स्वगीर्य सुगन्धयुक्त फूल लिखें और जिन पराणियों की दृष्टि उस पर पड़े और जिनकी नाक में उसकी सुगन्ध पहुंचे, उनके हृदय शुद्ध और उनके विचार पवित्र हो जायें। थायस परमपूज्य थायस ! तुझे धन्य है; आज तूने वह पद पराप्त कर लिया जिसके लिए बड़ेबड़े सिद्ध योगी भी लालायित रहते हैं।
जिस समय वह यह परार्थना और शुभाकांक्षा करने में मग्न था। लड़का गधे पर सवार जाता हुआ मिला। पापनाशी ने उसे उतरने की आज्ञा दी; थायस को गधे पर बिठा दिया और तब उसकी बागडोर पकड़कर ले चला। सूयार्स्त के समय वे एक नहर पर पहुंचे जिस पर सघन वृक्षों का साया था। पापनाशी ने गधे को एक छुहारे के वृक्ष से बांध दिया और काई से की हुई चट्टान पर बैठकर उसने एक रोटी निकाली और उसे नमक और तेल के साथ दोनों ने खाया, चिल्लू से ताजा पानी पिया और ईश्वरीय विषय पर सम्भाषण करने लगे।
थायस बोली-’पूज्य पिता, मैंने आज तक कभी ऐसा निर्मल जल नहीं पिया, और न ऐसी पराणपरद स्वच्छ वायु में सांस लिया। मुझे ऐसा अनुभव हो रहा है कि इस समीकरण में ईश्वर की ज्योति परवाहित हो रही है।’
पापनाशी बोला-’पिरय बहन, देखो संध्या हो रही है। निशा की सूचना देने वाली श्यामला पहाड़ियों पर छाई हुई है। लेकिन शीघर ही मुझे ईश्वरीय ज्योति, ईश्वरीय उषा के सुनहरे परकाश में चमकती हुई दिखाई देगी, शीघर ही तुझे अनन्त परभाव के गुलाबपुष्पों की मनोहर लालिमा आलोकित होती हुई दृष्टिगोचर होगी।
दोनों रात भर चलते रहे। अर्द्धचन्द्र की ज्योति लहरों के उज्ज्वल मुकुट पर जगमगा रही थी; नौकाओं के सफेद पाल उस शान्तिमय ज्योत्स्ना में ऐसे जान पड़ते थे मानो पुनीत आत्माएं स्वर्ग को परयाण कर रही हैं। दोनों पराणी स्तुति और भजन गाते हुए चले जाते थे। थायस के कण्ठ का माधुर्य, पापनाशी की पंचम ध्वनि के साथ मिश्रित होकर ऐसा जान पड़ता कि सुन्दर वस्त्र पर टाट का बखिया कर दिया गया है ! जब दिनकर ने अपना परकाश फैलाया, तो उनके सामने लाइबिया की मरुभूमि एक विस्तृत सिंह चर्म की भांति फैली हुई दिखाई दी। मरुभूमि के उस सिरे पर कई छुहारे के वृक्षों के मध्य में कई सफेद झोंपड़ियां परभात के मन्द परकाश में झलक रही थीं।
थायस ने पूछा-’पूज्य पिता, क्या वह ईश्वरीय ज्योति का मन्दिर है ?’
‘हां पिरय बहन, मेरी पिरय पुत्री, वही मुक्तिगृह है, जहां मैं तुझे अपने ही हाथों से बन्द करुंगा।’
निसियास ने उसकी ओर विनोदपूर्ण नेत्रों से देखकर कहा-’बन्धुवर, परणाम ! मेरी यही इच्छा है कि अन्त तक तुम विश्वास, घृणा और परेम के पथ पर आऱु रहो। इसी भांति तुम नित्य अपने शत्रुओं को कोसते और अपने अनुयायियों से परेम करते रहो। थायस, चिरंजीवी रहो। तुम मुझे भूल जाओगी, किन्तु मैं तुम्हें न भूलूंगा। तुम यावज्जीवन मेरे हृदय में मूर्तिमान रहोगी।’
उनसे बिदा होकर निसियास इस्कन्द्रिया की कबिरस्तान के निकट पेचदार गलियों में विचारपूर्ण गति से चला। इस मार्ग में अधिकतर कुम्हार रहते थे, जो मुर्दों के साथ दफन करने के लिए खिलौने, बर्तन आदि बनाते थे। उनकी दुकानें मिट्टी की सुन्दर रंगों से चमकती हुई देवियों, स्त्रियों उड़ने वाले दूतों और ऐसी ही अन्य वस्तुओं की मूर्तियों से भरी हुई थीं। उसे विचार हुआ, कदाचित इन मूर्तियों में कुछ ऐसी भी हों जो महानिद्रा में मेरा साथ दें और उसे ऐसा परतीत हुआ मानो एक छोटी परेम की मूर्ति मेरा उपहास कर रही है। मृत्यु की कल्पना ही से उसे दुःख हुआ। इस विवाद को दूर करने के लिए उसने मन में तर्क किया-इसमें तो कोई सन्देह ही नहीं कि काल या समय कोई चीज नहीं। वह हमारी बुद्धि की भरांतिमात्र है, धोखा है। तो जब इसकी सत्ता ही नहीं तो वह मेरी मृत्यु को कैसे ला सकता है। क्या इसका यह आशय है कि अनन्तकाल तक मैं जीवित रहूंगा ? क्या मैं भी देवताओं की भांति अमर हूं ? नहीं, कदापि नहीं। लेकिन इससे यह अवश्य सिद्धि होता है कि वह इस समय है, सदैव से है, और सदैव रहेगा। यद्यपि मैं अभी इसका अनुभव नहीं कर रहा हूं, पर यह मुझमें विद्यमान है और मुझे उससे शंका न करनी चाहिए, क्योंकि उस वस्तु के आने से डरना, जो पहले ही आ चुकी है हिमाकत है। यह किसी पुस्तक के अन्तिम ष्पृठ के समान उपस्थित है, जिसे मैंने पॄा है, पर अभी समाप्त नहीं कर चुका हूं।
उसका शेष रास्ता इस वाद में कट गया, लेकिन इससे उसके चित्त को शान्ति न मिली, और जब यह घर पहुंचा तो उसका मन विवादपूर्ण विचारों से भरा हुआ था। उसकी दोनों युवती दासियां परसन्न, हंसहंसकर टेनिस खेल रही थीं। उनकी हास्यध्वनि ने अन्त में उसके दिल का बोझ हल्का किया।
पापनाशी और थामस भी शहर से निकलकर समुद्र के किनारेकिनारे चले। रास्ते में पापनाशी बोला-’थायस, इस विस्तृत सागर का जल भी तेरी कालिमाओं को नहीं धो सकता।’ यह कहतेकहते उसे अनायास क्रोध आ गया। थायस को धिक्कारने लगा-’तू कुतियों और शूकरियों से भी भरष्ट है, क्योंकि तूने उस देह को जो ईश्वर ने तुझे इस हेतु दिया था कि तू उसकी मूर्ति स्थापित करे, विधर्मियों और म्लेच्छों द्वारा दलित कराया है और तेरा दुराचरण इतना अधिक है कि तू बिना अन्तःकरण में अपने परति घृणा का भाव उत्पन्न किये न ईश्वर की परार्थना कर सकती है न वन्दना।’
धूप के मारे जमीन से आंच निकल रही थी और थायस आपने नये गुरु के पीछे सिर झुकाये पथरीली सड़कों पर चली जा रही थी। थकान के मारे उसके घुटनों में पीड़ा होने लगी और कंठ सूख गया। लेकिन पापनाशी के मन में दयाभाव का जागना तो दूर रहा, (जो दुरात्माओं को भी नर्म कर देता है) वह उलटे उस पराणी के परायश्चित पर परसन्न हो रहा था जिस के पापों का वारापार न था। वह धमोर्त्साह से इतना उत्तेजित हो रहा था कि उसे देह को लोहे के सांगों से छेदने में भी उसे संकोच न होता जिसका सौन्दर्य उसकी कलुषता का मानो उज्ज्वल परमाण था। ज्योंज्यों वह विचार में मग्न होता था, उसका परकोप औरभी परचण्ड होता जाता था। जब उसे याद आता था कि निसियास उसके साथ सहयोग करचुका है तो उसका रक्त खौलने लगता था और ऐसा जान पड़ता था कि उसकी छाती फट जायेगी। अपशब्द उसके होंठों पर आआकर रुक जाते थे और वह केवल दांत पीसपीसकररह जाता था। सहसा वह उछलकर, विकराल रूप धारण किये हुए उसके सम्मुख खड़ा हो गया और उसके मुंह पर थूक दिया। उसकी तीवर दृष्टि थायस के हृदय में चुभी जाती थी!
थायस ने शान्तिपूर्वक अपना मुंह पोंछ लिया और पापनाशी के पीछे चलती रही। पापनाशी उसकी ओर ऐसी कठोर दृष्टि से ताकता था मानो वह सन्देह नरक है। उसे यह चिन्ता हो रही थी कि मैं इससे परभु मसीह का बदला क्योंकर लूं, क्योंकि थायस ने मसीह को अपने कुकृत्यों से इतना उत्पीड़ित किया था कि उन्हें स्वयं उसे दण्ड देने का कष्ट न उठाना पड़े। अक्समात उसे रुधिर की एक बूंद दिखाई दी जो थायस के पैरों से बहकर मार्ग पर गिरी थी। उसे देखते ही पापनाशी का हृदय दया से प्लावित हो गया, उसकी कठोर आकृति शान्त हो गयी। उसके हृदय में एक ऐसा भाव परविष्ट हुआ जिससे वह अभी अनभिज्ञ था। वह रोने लगा, सिसकियों का तार बंध गया, तब वह दौड़कर उसके सामने माथा ठोंककर बैठ गया और उसके चरणों पर गिरकर कहने लगा-’बहन, मेरी माता, मेरी देवी’-और उसके रक्त प्लावित चरणों को चूमने लगा।
तब उसने शुद्ध हृदय से यह परार्थना की-ऐ स्वर्ग के दूतो ! इस रक्त की बूंद को सावधानी से उठाओ और इसे परम पिता के सिंहासन के सम्मुख ले जाओ। ईश्वर की इस पवित्र भूमि पर, जहां यह रक्त बहा है, एक अलौकिक पुष्पवृक्ष उत्पन्न हो। उसमें स्वगीर्य सुगन्धयुक्त फूल लिखें और जिन पराणियों की दृष्टि उस पर पड़े और जिनकी नाक में उसकी सुगन्ध पहुंचे, उनके हृदय शुद्ध और उनके विचार पवित्र हो जायें। थायस परमपूज्य थायस ! तुझे धन्य है; आज तूने वह पद पराप्त कर लिया जिसके लिए बड़ेबड़े सिद्ध योगी भी लालायित रहते हैं।
जिस समय वह यह परार्थना और शुभाकांक्षा करने में मग्न था। लड़का गधे पर सवार जाता हुआ मिला। पापनाशी ने उसे उतरने की आज्ञा दी; थायस को गधे पर बिठा दिया और तब उसकी बागडोर पकड़कर ले चला। सूयार्स्त के समय वे एक नहर पर पहुंचे जिस पर सघन वृक्षों का साया था। पापनाशी ने गधे को एक छुहारे के वृक्ष से बांध दिया और काई से की हुई चट्टान पर बैठकर उसने एक रोटी निकाली और उसे नमक और तेल के साथ दोनों ने खाया, चिल्लू से ताजा पानी पिया और ईश्वरीय विषय पर सम्भाषण करने लगे।
थायस बोली-’पूज्य पिता, मैंने आज तक कभी ऐसा निर्मल जल नहीं पिया, और न ऐसी पराणपरद स्वच्छ वायु में सांस लिया। मुझे ऐसा अनुभव हो रहा है कि इस समीकरण में ईश्वर की ज्योति परवाहित हो रही है।’
पापनाशी बोला-’पिरय बहन, देखो संध्या हो रही है। निशा की सूचना देने वाली श्यामला पहाड़ियों पर छाई हुई है। लेकिन शीघर ही मुझे ईश्वरीय ज्योति, ईश्वरीय उषा के सुनहरे परकाश में चमकती हुई दिखाई देगी, शीघर ही तुझे अनन्त परभाव के गुलाबपुष्पों की मनोहर लालिमा आलोकित होती हुई दृष्टिगोचर होगी।
दोनों रात भर चलते रहे। अर्द्धचन्द्र की ज्योति लहरों के उज्ज्वल मुकुट पर जगमगा रही थी; नौकाओं के सफेद पाल उस शान्तिमय ज्योत्स्ना में ऐसे जान पड़ते थे मानो पुनीत आत्माएं स्वर्ग को परयाण कर रही हैं। दोनों पराणी स्तुति और भजन गाते हुए चले जाते थे। थायस के कण्ठ का माधुर्य, पापनाशी की पंचम ध्वनि के साथ मिश्रित होकर ऐसा जान पड़ता कि सुन्दर वस्त्र पर टाट का बखिया कर दिया गया है ! जब दिनकर ने अपना परकाश फैलाया, तो उनके सामने लाइबिया की मरुभूमि एक विस्तृत सिंह चर्म की भांति फैली हुई दिखाई दी। मरुभूमि के उस सिरे पर कई छुहारे के वृक्षों के मध्य में कई सफेद झोंपड़ियां परभात के मन्द परकाश में झलक रही थीं।
थायस ने पूछा-’पूज्य पिता, क्या वह ईश्वरीय ज्योति का मन्दिर है ?’
‘हां पिरय बहन, मेरी पिरय पुत्री, वही मुक्तिगृह है, जहां मैं तुझे अपने ही हाथों से बन्द करुंगा।’
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दिल से दिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
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Re: अलंकार
एक क्षण में उन्हें कई स्त्रियां झोंपड़ियों के आसपास कुछ काम करती हुई दिखाई दीं, मानो मधुमक्खियां अपने छत्तों के पास भिनभिना रही हों। कई स्त्रियां रोटियां पकाती थीं, कई शाकभाजी बना रही थीं, बहुतसी स्त्रियां ऊन कात रही थीं और आकाश की ज्योति उन पर इस भांति पड़ रही थी मानो परम पिता की मधुर मुस्कान है, और कितनी ही तपस्विनियां झाऊ के वृक्षों के नीचे बैठी ईश्वरवन्दना कर रही थीं, उनके गोरेगोरे हाथ दोनों किनारे लटके हुए थे क्योंकि ईश्वर के परेम से परिपूर्ण हो जाने के कारण वह हाथों से कोई काम न करती थीं; केवल ध्यान, आराधना और स्वगीर्य आनन्द में निमग्न रहती थीं। इसलिए उन्हें ‘माता मरियम की पुत्रियां’ कहते थे, और वह उज्ज्वल वस्त्र ही घारण करती थीं। जो स्त्रियां हाथों से कामधन्धा करती थीं, वह ‘माथी की पुत्रियां’ कहलाती थीं और नीचे वस्त्र पहनती थीं। सभी स्त्रियां कनटोप लगाती थीं, केवल युवतियां बालों के दोचार गुच्छे माथे पर निकाले रहती थीं-सम्भवतः वह आपही-आप बाहर निकल आते थे, क्योंकि बालों को संवारना या दिखाना नियमों के विरुद्ध था। एक बहुत लम्बी, गोरी, वृद्ध महिला, एक कुटी से निकलकर दूसरी कुटी में जाती थी। उसके हाथ में लकड़ी की एक जरीब थी। पापनाशी बड़े अदब के साथ उसके समीप गया, उसकी नकाब के किनारों का चुम्बन किया और बोला-’पूज्या अलबीना, परम पिता तेरी आत्मा को शान्ति दें ! मैं उस छत्ते के लिए जिसकी तू रानी है, एक मक्खी लाया हूं जो पुष्पहीन मैदानों में इधरउधर भटकती फिरती थी। मैंने इसे अपनी हथेली में उठा लिया और अपने श्वासोच्छ्वास से पुनजीर्वित किया। मैं इसे तेरी शरण में लाया हूं।’
यह कहकर उसने थायस की ओर इशारा किया। थायस तुरन्त कैसर की पुत्री के सम्मुख घुटनों के बल बैठ गयी।
अलबीना ने थायस पर एक मर्मभेदी दृष्टि डाली, उसे उठने को कहा, उसके मस्तक का चुम्बन किया और तब योगी से बोली-’हम इसे ‘माता मरियम की पुत्रियों’ के साथ रखेंगे।’
पापनाशी ने तब थायस के मुक्तिगृह में आने का पूरा वृत्तान्त कह सुनाया। ईश्वर ने कैसे उसे पररेणा की, कैसे वह इस्कन्द्रिया पहुंचा और किनकिन उपायों से उसके मन में उसने परभु मसीह का अनुराग उत्पन्न किया। इसके बाद उसने परस्ताव किया कि थायस को किसी कुटी में बन्द कर दिया जाय जिससे वह एकान्त में अपने पूर्वजीवन पर विचार करे, आत्मशुद्धि के मार्ग का अवलम्बन करे।
मठ की अध्यक्षिणी इस परस्ताव से सहमत हो गयी। वह थायस को एक कुटी में ले गयी जिसे कुमारी लीटा ने अपने चरणों से पवित्र किया था और जो उसी समय से खाली पड़ी हुई थी। इस तंग कोठरी में केवल एक चारपाई, एक मेज और एक घड़ा था, और जब थायस ने उसके अन्दर कदम रखा, तो चौखट को पार करते ही उसे कथनीय आनन्द का अनुभव हुआ।
पापनाशी ने कहा-’मैं स्वयं द्वार को बन्द करके उस पर एक मुहर लगा देना चाहता हूं, जिसे परभु मसीह स्वयं आकर अपने हाथों से तोड़ेंगे।’
वह उसी क्षण पास की जलधारा के किनारे गया, उसमें से मुट्ठी भर मिट्टी ली, उसमें अपने मुंह का थूक मिलाया और उसे द्वार के दरवाजों पर म़ दिया। तब खिड़की के पास आकर जहां थायस शान्तचित्त और परसन्नमुख बैठी हुई थी उसने भूमि पर सिर झुकाकर तीन बार ईश्वर की वन्दना की।
‘ओ हो ! उस स्त्री के चरण कितने सुन्दर हैं जो सन्मार्ग पर चलती है ! हां, उसके चरण कितने सुन्दर, कितने कामल और कितने गौरवशील हैं, उसका मुख कितना कान्तिमय!’
यह कहकर वह उठा, कनटोप अपनी आंखों पर खींच लिया और मन्दगति से अपने आश्रम की ओर चला।
अलबीना ने अपनी एककुमारी को बुलाकर कहा-’पिरय पुत्री, तुम थायस के पास आवश्यक वस्तु पहुंचा दो, रोटियां, पानी और एक तीन छिद्रों वाली बांसुरी।
यह कहकर उसने थायस की ओर इशारा किया। थायस तुरन्त कैसर की पुत्री के सम्मुख घुटनों के बल बैठ गयी।
अलबीना ने थायस पर एक मर्मभेदी दृष्टि डाली, उसे उठने को कहा, उसके मस्तक का चुम्बन किया और तब योगी से बोली-’हम इसे ‘माता मरियम की पुत्रियों’ के साथ रखेंगे।’
पापनाशी ने तब थायस के मुक्तिगृह में आने का पूरा वृत्तान्त कह सुनाया। ईश्वर ने कैसे उसे पररेणा की, कैसे वह इस्कन्द्रिया पहुंचा और किनकिन उपायों से उसके मन में उसने परभु मसीह का अनुराग उत्पन्न किया। इसके बाद उसने परस्ताव किया कि थायस को किसी कुटी में बन्द कर दिया जाय जिससे वह एकान्त में अपने पूर्वजीवन पर विचार करे, आत्मशुद्धि के मार्ग का अवलम्बन करे।
मठ की अध्यक्षिणी इस परस्ताव से सहमत हो गयी। वह थायस को एक कुटी में ले गयी जिसे कुमारी लीटा ने अपने चरणों से पवित्र किया था और जो उसी समय से खाली पड़ी हुई थी। इस तंग कोठरी में केवल एक चारपाई, एक मेज और एक घड़ा था, और जब थायस ने उसके अन्दर कदम रखा, तो चौखट को पार करते ही उसे कथनीय आनन्द का अनुभव हुआ।
पापनाशी ने कहा-’मैं स्वयं द्वार को बन्द करके उस पर एक मुहर लगा देना चाहता हूं, जिसे परभु मसीह स्वयं आकर अपने हाथों से तोड़ेंगे।’
वह उसी क्षण पास की जलधारा के किनारे गया, उसमें से मुट्ठी भर मिट्टी ली, उसमें अपने मुंह का थूक मिलाया और उसे द्वार के दरवाजों पर म़ दिया। तब खिड़की के पास आकर जहां थायस शान्तचित्त और परसन्नमुख बैठी हुई थी उसने भूमि पर सिर झुकाकर तीन बार ईश्वर की वन्दना की।
‘ओ हो ! उस स्त्री के चरण कितने सुन्दर हैं जो सन्मार्ग पर चलती है ! हां, उसके चरण कितने सुन्दर, कितने कामल और कितने गौरवशील हैं, उसका मुख कितना कान्तिमय!’
यह कहकर वह उठा, कनटोप अपनी आंखों पर खींच लिया और मन्दगति से अपने आश्रम की ओर चला।
अलबीना ने अपनी एककुमारी को बुलाकर कहा-’पिरय पुत्री, तुम थायस के पास आवश्यक वस्तु पहुंचा दो, रोटियां, पानी और एक तीन छिद्रों वाली बांसुरी।
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Re: अलंकार
पापनाशी ने एक नौका पर बैठकर, जो सिरापियन के धमार्श्रम के लिए खाद्यपदार्थ लिये जा रही थी, अपनी यात्रा समाप्त की और निज स्थान को लौट आया। जब वह किश्ती पर से उतरा तो उसके शिष्य उसका स्वागत करने के लिए नदी तट पर आ पहुंचे और खुशियां मनाने लगे। किसी ने आकाश की ओर हाथ उठाये, किसी ने धरती पर सिर झुकाकर गुरु के चरणों को स्पर्श किया। उन्हें पहले ही से अपनी गुरु के कृतकार्य होने का आत्मज्ञान हो गया था। योगियों को किसी गुप्त और अज्ञात रीति से अपने धर्म की विजय और गौरव के समाचार मिल जाते थे, और इतनी जल्द कि लोगों को आश्चर्य होता था। यह समाचार भी समस्त धमार्श्रमों में, जो उस परान्त में स्थित थे, आंधी के वेग के साथ फैल गया।
जब पापनाशी बलुवे मार्ग पर चला तो उसके शिष्य उसके पीछेपीछे ईश्वरकीर्तन करते हुए चले। लेवियन उस संस्था का सबसे वृद्ध सदस्य था। वह धमोर्न्मत्त होकर उच्चस्वर से यह स्वरचित गीत गाने लगा-
आज का शुभ दिन है,
कि हमारे पूज्य पिता ने फिर हमें गोद में लिया।
वह धर्म का सेहरा सिर बांधे हुए आये हैं,
जिसने हमारा गौरव ब़ा दिया है।
क्योंकि पिता का धर्म ही,
सन्तान का यथार्थ धन है।
हमारे पिता की सुकीर्ति की ज्योति से,
हमारी कुटियों में परकाश फैल गया है।
हमारे पिता पापनाशी,
परभु मसीह के लिए नयी एक दुल्हन लाये हैं।
अपने अलौकिक तेज और सिद्धि से,
उन्होंने एक काली भेड़ को।
जो अंधेरी घाटियों से मारीमारी फिरती थी,
उजली भेड़ बना दिया है।
इस भांति ईसाई धर्म की ध्वजा फहराते हुए,
वह फिर हमारे ऊपर हाथ रखने के लिए लौट आये हैं।
उन मधुमक्खियों की भांति,
जो अपने छत्तों से उड़ जाती है।
और फिर जंगलों से फूलों की,
मधुसुधा लिये हुए लौटती हैं।
न्युबिया के मेष की भांति,
जो अपने ही ऊन का बोझ नहीं उठा सकता।
हम आज के दिन आनन्दोत्सव मनायें,
अपने भोजन में तेल को चुपड़कर।।
जब वह लोग पापनाशी की कुटी के द्वार पर आये तो सबके-सब घुटने टेककर बैठ गये और बोले-’पूज्य पिता ! हमें आशीवार्द दीजिए और हमें अपनी रोटियों को चुपड़ने के लिए थोड़ासा तेल परदान कीजिए कि हम आपके कुशलपूर्वक लौट आने पर आनन्द मनायें।’
मूर्ख पॉल अकेला चुपचाप खड़ा रहा। उसने न घाट ही पर आनन्द परकट किया था, और न इस समय जमीन पर गिरा। वह पापनाशी को पहचानता ही न था और सबसे पूछता था, ‘यह कौन आदमी है ?’ लेकिन कोई उसकी ओर ध्यान नहीं देता था, क्योंकि सभी जानते थे कि यद्यपि यह सिद्धि पराप्त है, पर है ज्ञानशून्य।
पापनाशी जब अपनी कुटी में सावधान होकर बैठा तो विचार करने लगा-अन्त में मैं अपने आनन्द और शान्ति के उद्दिष्ट स्थान पर पहुंच गया। मैं अपने सन्टोष से सुरक्षित ग़ में परविष्ट हो गया, लेकिन यह क्या बात है कि यह तिनकों का झोंपड़ा जो मुझे इतना पिरय है, मुझे मित्रभाव से नहीं देखता और दीवारें मुझसे हर्षित होकर नहीं कहतीं-’तेरा आना मुबारक हो !’ मेरी अनुपस्थिति में यहां किसी परकार का अन्तर होता हुआ नहीं दीख पड़ता। झोंपड़ा ज्योंका-त्यों है, यही पुरानी मेज और मेरी पुरानी खाट है। वह मसालों से भरा सिर है, जिसने कितनी ही बार मेरे मन में पवित्र विचारों की पररेणा की है। वह पुस्तक रखी हुई है जिसके द्वारा मैंने सैकड़ों बार ईश्वर का स्वरूप देखा है। तिस पर भी यह सभी चीजें न जाने क्यों मुझे अपरिचितसी जान पड़ती हैं, इनका वह स्वरूप नहीं रहा। ऐसा परतीत होता है कि उनकी स्वाभाविकता शोभा का अपहरण हो गया है, मानो मुझ पर उनका स्नेह ही नहीं रहा। और मैं पहली ही बार उन्हें देख रहा हूं। जब मैं इस मेज और इस पलंग पर, जो मैंने किसी समय अपने हाथों से बनाये थे, इन मसालों से सुखाई खोपड़ी पर, इस भोजपत्र के पुलिन्दों पर जिन पर ईश्वर के पवित्र वाक्य अंकित हैं, निगाह डालता हूं तो मुझे ऐसा ज्ञात होता है कि यह सब किसी मृत पराणी की वस्तुएं हैं। इनसे इतना घनिष्ठ सम्बन्ध होने पर भी, इनसे रातदिन का संग रहने पर भी मैं अब इन्हें पहचान नहीं सकता। आह ! यह सब चीजें ज्योंकी-त्यों हैं इनमें जरा भी परिवर्तन नहीं हुआ। अतएव मुझमें ही परिवर्तन हो गया है, मैं जो पहले था वह अब नहीं रहा। मैं कोई और ही पराणी हूं। मैं ही मृत आत्मा हूं ! हे भगवान ! यह क्या रहस्य है ? मुझमें से कौनसी वस्तु लुप्त हो गयी है, मुझमें अब क्या शेष रह गया है ? मैं कौन हूं ?
और सबसे बड़ी आशंका की बात यह थी कि मन को बारबार इस शंका की निमूर्लता का विश्वास दिलाने पर भी उसे ऐसा भाषित होता था कि उसकी कुटी बहुत तंग हो गयी यद्यपि धार्मिक भाव से उसे इस स्थान को अनंत समझना चाहिए था, क्योंकि अनन्त का भाग भी अनन्त ही होता है, क्योंकि यहीं बैठकर वह ईश्वर की अनन्तता में विलीन हो जाता था।
उसने इस शंका के दमनार्थ धरती पर सिर रखकर ईश्वर की परार्थना की और इससे उसका चित्त शान्त हुआ। उसे परार्थना करते हुए एक घण्टा भी न हुआ होगा कि थायस की छाया उसकी आंखों के सामने से निकल गयी। उसने ईश्वर को धन्यवाद देकर कहा-परभू मसीह, तेरी ही कृपा से मुझे उसके दर्शन हुए। यह तेरी असीम दया और अनुगरह है, इसे मैं स्वीकार करता हूं। तू उस पराणी को मेरे सम्मुख भेजकर, जिसे मैंने तेरी भेंट किया है, मुझे सन्तुष्ट, परसन्न और आश्वस्त करना चाहता है। तू उसे मेरी आंखों के सामने परस्तुत करता है, क्योंकि अब उसकी मुस्कान नि:शास्त्र, उसका सौन्दर्य निष्कलंक और उसके हावभाव उद्देश्यहीन हो गये हैं। मेरे दयालु पतितपावन परभु, तू मुझे परसन्न करने के निमित्त उसे मेरे सम्मुख उसी शुद्ध और परिमार्जित स्वरूप में लाता है जो मैंने तेरी इच्छाओं के अनुकूल उसे दिया है, जैसे एक मित्र परसन्न होकर दूसरे मित्र को उसके दिये हुए उपहार की याद दिलाता है। इस कारण मैं इस स्त्री को देखकर आनन्दित होता हूं, क्योंकि तू ही इसका परेक्षक है। तू इस बात को नहीं भूलता कि मैंने उसे तेरे चरणों पर सर्मिपत किया है। उससे तुझे आनन्द पराप्त होता है, इसलिए उसे अपनी सेवा में रख और अपने सिवाय किसी अन्य पराणी को उसके सौन्दर्य से मुग्ध न होने दे।
उसे रात भर नींद नहीं आयी और थायस को उसने उससे भी स्पष्ट रूप में देखा जैसे परियों के कुंज में देखा था। उसने इन शब्दों में अपनी आत्मस्तुति की-मैंने जो कुछ किया है, ईश्वर ही के निमित्त किया है।
लेकिन इस आश्वासन और परार्थना पर भी उसका हृदय विकल था। उसने आह भरकर कहा-’मेरी आत्मा, तू क्यों इतनी शोकासक्त है, और क्यों मुझे यह यातना दे रही है ?’
अब भी उसके चित्त की उद्विग्नता शान्त न हुई। तीन दिन तक वह ऐसे महान शोक और दुःख की अवस्था में पड़ा रहा जो एकान्तवासी योगियों की दुस्सह परीक्षाओं का पूर्वलक्षण है। थायस की सूरत आठों पहर उसकी आंखों के आगे फिरा करती। वह इसे अपनी आंखों के सामने से हटाना भी न चाहता था, क्योंकि अब तक वह समझता था कि यह मेरे ऊपर ईश्वर की विशेष कृपा है और वास्तव में यह एक योगिनी की मूर्ति है। लेकिन एक दिन परभात की सुषुप्तावस्था में उसने थायस को स्वप्न में देखा। उसके केशों पर पुष्पों का मुकुट विराज रहा था और उसका माधुर्य ही भयावह ज्ञात होता था कि वह भयभीत होकर चीख उठा और जागा तो ठण्डे पसीने से तर था, मानो बर्फ के कुंड में से निकला हो। उसकी आंखें भय की निद्रा से भारी हो रही थीं कि उसे अपने मुख पर गर्मगर्म सांसों के चलने का अनुभव हुआ। एक छोटासा गीदड़ उसकी चारपाई की पट्टी पर दोनों अगले पैर रखे हांफहांफकर अपनी दुर्गन्धयुक्त सांसें उसके मुख पर छोड़ रहा था, और उसे दांत निकालनिकालकर दिखा रहा था।
पापनाशी को अत्यन्त विस्मय हुआ। उसे ऐसा जान पड़ा, मेरे पैरों के नीचे की जमीन धंस गयी। और वास्तव में वह पतित हो गया था। कुछ देर तक तो उसमें विचार करने की शक्ति ही न रही और जब वह फिर सचेत भी हुआ तो ध्यान और विचार से उसकी अशान्ति और भी ब़ गई।
उसने सोचा-इन दो बातों में से एक बात है या तो वह स्वप्न की भांति ईश्वर का परेरित किया हुआ था और शुभस्वप्न था, और यह मेरी स्वाभाविक दुबुर्द्धि है जिसने उसे यह भयंकर रूप दे दिया है, जैसे गन्दे प्याले में अंगूर का रस खट्टा हो जाता है, मैंने अपने अज्ञानवश ईश्वरीय आदेश को ईश्वरीय तिरस्कार का रूप दे दिया और इस गीदड़ रूपी शैतान ने मेरी शंकान्वित दशा से लाभ उठाया, अथवा इस स्वप्न का परेरक ईश्वर नहीं, पिशाच था। ऐसी दशा में यह शंका होती है कि पहले के स्वप्नों को देवकृत समझने में मेरी भरांति थी। सारांश यह कि इस समय मुझमें वह धमार्धर्म का ज्ञान नहीं रहा जो तपस्वी के लिए परमावश्यक है और जिसके बिना उसके पगपग पर ठोकर खाने की आशंका रहती है कि ईश्वर मेरे साथ नहीं रहा-जिसके कुफल मैं भोग रहा हूं, यद्यपि उसके कारण नहीं निश्चित कर सकता।
इस भांति तर्क करके उसने बड़ी ग्लानि के साथ जिज्ञासा की-दयालु पिता! तू अपने भक्त से क्या परायश्चित कराना चाहता है, यदि उसकी भावनाएं ही उसकी आंखों पर परदा डाल दें, दुर्भावनाएं ही उसे व्यथित करने लगें ? मैं क्यों ऐसे लक्षणों का स्पष्टीकरण नहीं कर देता जिसके द्वारा मुझे मालूम हो जाया करे कि तेरी इच्छा क्या है, और क्यों तेरे परतिपक्षी की ?
किन्तु ईश्वर ने, जिसकी माया अभेद्य है, अपने इस भक्त की इच्छा पूरी न की ओर उसे आत्मज्ञान न परदान किया तो उसने शंका और भरांति वशीभूत होकर निश्चय किया अब मैं थायस की ओर मन को जाने ही न दूंगा। लेकिन उसका यह परयत्न निष्फल हुआ। उससे दूर रहकर भी थायस नितय उसके साथ रहती थी। जब वह कुछ पॄता था, ईश्वर का ध्यान करता था तो वह सामने बैठी उसकी ओर ताकती रहती, वह जिधर निगाह डालता, उसे उसी की मूर्ति दिखाई देती, यहां तक कि उपासना के समय भी वह उससे जुदा न होती। ज्योंही वह पापनाशी के कल्पना क्षेत्र में पदार्पण करती, वह योगी के कानों में कुछ धीमी आवाज सुनाई देती, जैसी स्त्रियों के चलने के समय उनके वस्त्रों से निकलती है, और इन छायाओं में यथार्थ से भी अधिक स्थिरता होती थी। स्मृतिचित्र अस्थिर, आज्ञिक और अस्पष्ट होता है। इसके परतिकूल एकान्त में जो छाया उपस्थित होती है, वह स्थिर और सुदीर्घ होती है। इसके परतिकूल एकान्त में जो छाया उपस्थित होती है, वह स्थिर और सुदीर्घ होती है। वह नाना परकार के रूप बदलकर उसके सामने आती-कभी मलिनवदन केशों में अपनी अन्तिम पुष्पमाला गूंथे, वही सुनहरे काम के वस्त्र धारण किये जो उसने इस्कन्द्रिया में कोटा के परीतिभोज के अवसर पर पहने थे, कभी महीन वस्त्र पहने परियों के कुंज में बैठी हुई, कभी मोटा कुरता पहने, विरक्त और आध्यात्मिक आनन्द से विकसित, कभी शोक में डूबी आंखें मृत्यु की भयंकर आशंकाओं से डबडबाई हुई, अपना आवरणहीन हृदयस्थल खोले, जिस पर आहतहृदय से रक्तधारा परवाहित होकर जम गयी थी। इन छायामूर्तियों में उसे जिस बात का सबसे अधिक खेद और विस्मय होता था वह यह थी कि वह पुष्पमालाएं, वह सुन्दर वस्त्र, वह महीन चादरें, वह जरी के काम की कुर्तियां जो उसने जला डाली थीं, फिर जैसे लौट आयीं। उसे अब यह विदित होता था कि इन वस्तुओं में भी कोई अविनाशी आत्मा है और उसने अन्तवेर्दना से विकल होकर कहा-
‘कैसी विपत्ति है कि थायस के असंख्य पापों की आत्माएं यों मुझ पर आत्र्कमण कर रही हैं।’
जब पापनाशी बलुवे मार्ग पर चला तो उसके शिष्य उसके पीछेपीछे ईश्वरकीर्तन करते हुए चले। लेवियन उस संस्था का सबसे वृद्ध सदस्य था। वह धमोर्न्मत्त होकर उच्चस्वर से यह स्वरचित गीत गाने लगा-
आज का शुभ दिन है,
कि हमारे पूज्य पिता ने फिर हमें गोद में लिया।
वह धर्म का सेहरा सिर बांधे हुए आये हैं,
जिसने हमारा गौरव ब़ा दिया है।
क्योंकि पिता का धर्म ही,
सन्तान का यथार्थ धन है।
हमारे पिता की सुकीर्ति की ज्योति से,
हमारी कुटियों में परकाश फैल गया है।
हमारे पिता पापनाशी,
परभु मसीह के लिए नयी एक दुल्हन लाये हैं।
अपने अलौकिक तेज और सिद्धि से,
उन्होंने एक काली भेड़ को।
जो अंधेरी घाटियों से मारीमारी फिरती थी,
उजली भेड़ बना दिया है।
इस भांति ईसाई धर्म की ध्वजा फहराते हुए,
वह फिर हमारे ऊपर हाथ रखने के लिए लौट आये हैं।
उन मधुमक्खियों की भांति,
जो अपने छत्तों से उड़ जाती है।
और फिर जंगलों से फूलों की,
मधुसुधा लिये हुए लौटती हैं।
न्युबिया के मेष की भांति,
जो अपने ही ऊन का बोझ नहीं उठा सकता।
हम आज के दिन आनन्दोत्सव मनायें,
अपने भोजन में तेल को चुपड़कर।।
जब वह लोग पापनाशी की कुटी के द्वार पर आये तो सबके-सब घुटने टेककर बैठ गये और बोले-’पूज्य पिता ! हमें आशीवार्द दीजिए और हमें अपनी रोटियों को चुपड़ने के लिए थोड़ासा तेल परदान कीजिए कि हम आपके कुशलपूर्वक लौट आने पर आनन्द मनायें।’
मूर्ख पॉल अकेला चुपचाप खड़ा रहा। उसने न घाट ही पर आनन्द परकट किया था, और न इस समय जमीन पर गिरा। वह पापनाशी को पहचानता ही न था और सबसे पूछता था, ‘यह कौन आदमी है ?’ लेकिन कोई उसकी ओर ध्यान नहीं देता था, क्योंकि सभी जानते थे कि यद्यपि यह सिद्धि पराप्त है, पर है ज्ञानशून्य।
पापनाशी जब अपनी कुटी में सावधान होकर बैठा तो विचार करने लगा-अन्त में मैं अपने आनन्द और शान्ति के उद्दिष्ट स्थान पर पहुंच गया। मैं अपने सन्टोष से सुरक्षित ग़ में परविष्ट हो गया, लेकिन यह क्या बात है कि यह तिनकों का झोंपड़ा जो मुझे इतना पिरय है, मुझे मित्रभाव से नहीं देखता और दीवारें मुझसे हर्षित होकर नहीं कहतीं-’तेरा आना मुबारक हो !’ मेरी अनुपस्थिति में यहां किसी परकार का अन्तर होता हुआ नहीं दीख पड़ता। झोंपड़ा ज्योंका-त्यों है, यही पुरानी मेज और मेरी पुरानी खाट है। वह मसालों से भरा सिर है, जिसने कितनी ही बार मेरे मन में पवित्र विचारों की पररेणा की है। वह पुस्तक रखी हुई है जिसके द्वारा मैंने सैकड़ों बार ईश्वर का स्वरूप देखा है। तिस पर भी यह सभी चीजें न जाने क्यों मुझे अपरिचितसी जान पड़ती हैं, इनका वह स्वरूप नहीं रहा। ऐसा परतीत होता है कि उनकी स्वाभाविकता शोभा का अपहरण हो गया है, मानो मुझ पर उनका स्नेह ही नहीं रहा। और मैं पहली ही बार उन्हें देख रहा हूं। जब मैं इस मेज और इस पलंग पर, जो मैंने किसी समय अपने हाथों से बनाये थे, इन मसालों से सुखाई खोपड़ी पर, इस भोजपत्र के पुलिन्दों पर जिन पर ईश्वर के पवित्र वाक्य अंकित हैं, निगाह डालता हूं तो मुझे ऐसा ज्ञात होता है कि यह सब किसी मृत पराणी की वस्तुएं हैं। इनसे इतना घनिष्ठ सम्बन्ध होने पर भी, इनसे रातदिन का संग रहने पर भी मैं अब इन्हें पहचान नहीं सकता। आह ! यह सब चीजें ज्योंकी-त्यों हैं इनमें जरा भी परिवर्तन नहीं हुआ। अतएव मुझमें ही परिवर्तन हो गया है, मैं जो पहले था वह अब नहीं रहा। मैं कोई और ही पराणी हूं। मैं ही मृत आत्मा हूं ! हे भगवान ! यह क्या रहस्य है ? मुझमें से कौनसी वस्तु लुप्त हो गयी है, मुझमें अब क्या शेष रह गया है ? मैं कौन हूं ?
और सबसे बड़ी आशंका की बात यह थी कि मन को बारबार इस शंका की निमूर्लता का विश्वास दिलाने पर भी उसे ऐसा भाषित होता था कि उसकी कुटी बहुत तंग हो गयी यद्यपि धार्मिक भाव से उसे इस स्थान को अनंत समझना चाहिए था, क्योंकि अनन्त का भाग भी अनन्त ही होता है, क्योंकि यहीं बैठकर वह ईश्वर की अनन्तता में विलीन हो जाता था।
उसने इस शंका के दमनार्थ धरती पर सिर रखकर ईश्वर की परार्थना की और इससे उसका चित्त शान्त हुआ। उसे परार्थना करते हुए एक घण्टा भी न हुआ होगा कि थायस की छाया उसकी आंखों के सामने से निकल गयी। उसने ईश्वर को धन्यवाद देकर कहा-परभू मसीह, तेरी ही कृपा से मुझे उसके दर्शन हुए। यह तेरी असीम दया और अनुगरह है, इसे मैं स्वीकार करता हूं। तू उस पराणी को मेरे सम्मुख भेजकर, जिसे मैंने तेरी भेंट किया है, मुझे सन्तुष्ट, परसन्न और आश्वस्त करना चाहता है। तू उसे मेरी आंखों के सामने परस्तुत करता है, क्योंकि अब उसकी मुस्कान नि:शास्त्र, उसका सौन्दर्य निष्कलंक और उसके हावभाव उद्देश्यहीन हो गये हैं। मेरे दयालु पतितपावन परभु, तू मुझे परसन्न करने के निमित्त उसे मेरे सम्मुख उसी शुद्ध और परिमार्जित स्वरूप में लाता है जो मैंने तेरी इच्छाओं के अनुकूल उसे दिया है, जैसे एक मित्र परसन्न होकर दूसरे मित्र को उसके दिये हुए उपहार की याद दिलाता है। इस कारण मैं इस स्त्री को देखकर आनन्दित होता हूं, क्योंकि तू ही इसका परेक्षक है। तू इस बात को नहीं भूलता कि मैंने उसे तेरे चरणों पर सर्मिपत किया है। उससे तुझे आनन्द पराप्त होता है, इसलिए उसे अपनी सेवा में रख और अपने सिवाय किसी अन्य पराणी को उसके सौन्दर्य से मुग्ध न होने दे।
उसे रात भर नींद नहीं आयी और थायस को उसने उससे भी स्पष्ट रूप में देखा जैसे परियों के कुंज में देखा था। उसने इन शब्दों में अपनी आत्मस्तुति की-मैंने जो कुछ किया है, ईश्वर ही के निमित्त किया है।
लेकिन इस आश्वासन और परार्थना पर भी उसका हृदय विकल था। उसने आह भरकर कहा-’मेरी आत्मा, तू क्यों इतनी शोकासक्त है, और क्यों मुझे यह यातना दे रही है ?’
अब भी उसके चित्त की उद्विग्नता शान्त न हुई। तीन दिन तक वह ऐसे महान शोक और दुःख की अवस्था में पड़ा रहा जो एकान्तवासी योगियों की दुस्सह परीक्षाओं का पूर्वलक्षण है। थायस की सूरत आठों पहर उसकी आंखों के आगे फिरा करती। वह इसे अपनी आंखों के सामने से हटाना भी न चाहता था, क्योंकि अब तक वह समझता था कि यह मेरे ऊपर ईश्वर की विशेष कृपा है और वास्तव में यह एक योगिनी की मूर्ति है। लेकिन एक दिन परभात की सुषुप्तावस्था में उसने थायस को स्वप्न में देखा। उसके केशों पर पुष्पों का मुकुट विराज रहा था और उसका माधुर्य ही भयावह ज्ञात होता था कि वह भयभीत होकर चीख उठा और जागा तो ठण्डे पसीने से तर था, मानो बर्फ के कुंड में से निकला हो। उसकी आंखें भय की निद्रा से भारी हो रही थीं कि उसे अपने मुख पर गर्मगर्म सांसों के चलने का अनुभव हुआ। एक छोटासा गीदड़ उसकी चारपाई की पट्टी पर दोनों अगले पैर रखे हांफहांफकर अपनी दुर्गन्धयुक्त सांसें उसके मुख पर छोड़ रहा था, और उसे दांत निकालनिकालकर दिखा रहा था।
पापनाशी को अत्यन्त विस्मय हुआ। उसे ऐसा जान पड़ा, मेरे पैरों के नीचे की जमीन धंस गयी। और वास्तव में वह पतित हो गया था। कुछ देर तक तो उसमें विचार करने की शक्ति ही न रही और जब वह फिर सचेत भी हुआ तो ध्यान और विचार से उसकी अशान्ति और भी ब़ गई।
उसने सोचा-इन दो बातों में से एक बात है या तो वह स्वप्न की भांति ईश्वर का परेरित किया हुआ था और शुभस्वप्न था, और यह मेरी स्वाभाविक दुबुर्द्धि है जिसने उसे यह भयंकर रूप दे दिया है, जैसे गन्दे प्याले में अंगूर का रस खट्टा हो जाता है, मैंने अपने अज्ञानवश ईश्वरीय आदेश को ईश्वरीय तिरस्कार का रूप दे दिया और इस गीदड़ रूपी शैतान ने मेरी शंकान्वित दशा से लाभ उठाया, अथवा इस स्वप्न का परेरक ईश्वर नहीं, पिशाच था। ऐसी दशा में यह शंका होती है कि पहले के स्वप्नों को देवकृत समझने में मेरी भरांति थी। सारांश यह कि इस समय मुझमें वह धमार्धर्म का ज्ञान नहीं रहा जो तपस्वी के लिए परमावश्यक है और जिसके बिना उसके पगपग पर ठोकर खाने की आशंका रहती है कि ईश्वर मेरे साथ नहीं रहा-जिसके कुफल मैं भोग रहा हूं, यद्यपि उसके कारण नहीं निश्चित कर सकता।
इस भांति तर्क करके उसने बड़ी ग्लानि के साथ जिज्ञासा की-दयालु पिता! तू अपने भक्त से क्या परायश्चित कराना चाहता है, यदि उसकी भावनाएं ही उसकी आंखों पर परदा डाल दें, दुर्भावनाएं ही उसे व्यथित करने लगें ? मैं क्यों ऐसे लक्षणों का स्पष्टीकरण नहीं कर देता जिसके द्वारा मुझे मालूम हो जाया करे कि तेरी इच्छा क्या है, और क्यों तेरे परतिपक्षी की ?
किन्तु ईश्वर ने, जिसकी माया अभेद्य है, अपने इस भक्त की इच्छा पूरी न की ओर उसे आत्मज्ञान न परदान किया तो उसने शंका और भरांति वशीभूत होकर निश्चय किया अब मैं थायस की ओर मन को जाने ही न दूंगा। लेकिन उसका यह परयत्न निष्फल हुआ। उससे दूर रहकर भी थायस नितय उसके साथ रहती थी। जब वह कुछ पॄता था, ईश्वर का ध्यान करता था तो वह सामने बैठी उसकी ओर ताकती रहती, वह जिधर निगाह डालता, उसे उसी की मूर्ति दिखाई देती, यहां तक कि उपासना के समय भी वह उससे जुदा न होती। ज्योंही वह पापनाशी के कल्पना क्षेत्र में पदार्पण करती, वह योगी के कानों में कुछ धीमी आवाज सुनाई देती, जैसी स्त्रियों के चलने के समय उनके वस्त्रों से निकलती है, और इन छायाओं में यथार्थ से भी अधिक स्थिरता होती थी। स्मृतिचित्र अस्थिर, आज्ञिक और अस्पष्ट होता है। इसके परतिकूल एकान्त में जो छाया उपस्थित होती है, वह स्थिर और सुदीर्घ होती है। इसके परतिकूल एकान्त में जो छाया उपस्थित होती है, वह स्थिर और सुदीर्घ होती है। वह नाना परकार के रूप बदलकर उसके सामने आती-कभी मलिनवदन केशों में अपनी अन्तिम पुष्पमाला गूंथे, वही सुनहरे काम के वस्त्र धारण किये जो उसने इस्कन्द्रिया में कोटा के परीतिभोज के अवसर पर पहने थे, कभी महीन वस्त्र पहने परियों के कुंज में बैठी हुई, कभी मोटा कुरता पहने, विरक्त और आध्यात्मिक आनन्द से विकसित, कभी शोक में डूबी आंखें मृत्यु की भयंकर आशंकाओं से डबडबाई हुई, अपना आवरणहीन हृदयस्थल खोले, जिस पर आहतहृदय से रक्तधारा परवाहित होकर जम गयी थी। इन छायामूर्तियों में उसे जिस बात का सबसे अधिक खेद और विस्मय होता था वह यह थी कि वह पुष्पमालाएं, वह सुन्दर वस्त्र, वह महीन चादरें, वह जरी के काम की कुर्तियां जो उसने जला डाली थीं, फिर जैसे लौट आयीं। उसे अब यह विदित होता था कि इन वस्तुओं में भी कोई अविनाशी आत्मा है और उसने अन्तवेर्दना से विकल होकर कहा-
‘कैसी विपत्ति है कि थायस के असंख्य पापों की आत्माएं यों मुझ पर आत्र्कमण कर रही हैं।’
प्यास बुझाई नौकर से Running....कीमत वसूल Running....3-महाकाली ....1-- जथूराcomplete ....2-पोतेबाबाcomplete
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Re: अलंकार
जब उसने पीछे की ओर देखा तो उसे ज्ञात हुआ कि थायस खड़ी है, और इससे उसकी अशान्ति और भी ब़ गई। असह्य आत्मवेदना होने लगी लेकिन चूंकि इन सब शंकाओं और दुष्कल्पनाओं में भी उसकी छाया और मन दोनों ही पवित्र थे, इसलिए उसे ईश्वर पर विश्वास था। अतएव वह इन करुण शब्दों में अनुनयविनय करता था-भगवान्, तेरी मुझ पर यह अकृपा क्यों ? यदि मैं उनकी खोज में विधर्मियों के बीच गया, तो तेरे लिए, अपने लिए नहीं। क्या यह अन्याय नहीं है कि मुझे उन कर्मों का दण्ड दिया जाये जो मैंने तेरा माहात्म्य ब़ाने के निमित्त किये हैं ? प्यारे मसीह, आप इस घोर अन्याय से मेरी रक्षा कीजिए। मेरे त्राता, मुझे बचाइए। देह मुझ पर जो विजय पराप्त न कर सकी, वह विजयकीर्ति उसकी छाया को न परदान कीजिए। मैं जानता हूं कि मैं इस समय महासंकटों में पड़ा हुआ हूं। मेरा जीवन इतना शंकामय कभी न था। मैं जानता हूं और अनुभव करता हूं कि स्वप्न में परत्यक्ष से अधिक शक्ति है और यह कोई आश्चर्य की बात नहीं, क्योंकि स्वप्न में स्वयं आत्मिक वस्तु होने के कारण भौतिक वस्तु होने के कारण भौतिक वस्तुओं से उच्चतर है। स्वप्न वास्तव में वस्तुओं की आत्मा है। प्लेटो यद्यपि मूर्तिवादी था, तथापि उसने विचारों के अस्तित्व को स्वीकार किया है। भगवान नरपिशाचों के उस भोज में जहां तू मेरे साथ था, मैंने मनुष्यों को-वह पापमलिन अवश्य थे, किन्तु कोई उन्हें विचार और बुद्धि से रहित नहीं कह सकता-इस बात पर सहमत होते सुना कि योगियों को एकान्त, ध्यान और परम आनन्द की अवस्था में परत्यक्ष वस्तुएं दिखाई देती हैं। परम पिता, आपने पवित्र गरन्थ स्वयं कितनी ही बार स्वप्न के गुणों को और छायामूर्तियों की शक्तियों को, चाहे वह तेरी ओर से हों या तेरे शत्रु की ओर से, स्पष्ट और कई स्थानों पर स्वीकार किया है। फिर यदि मैं भरांति में जा पड़ा तो मुझे क्यों इतना कष्ट दिया जा रहा है ?
पहले पापनाशी ईश्वर से तर्क न करता था। वह निरापद भाव से उसके आदेशों का पालन करता था। पर अब उसमें एक नये भाव का विकास हुआ-उसने ईश्वर से परश्न और शंकाएं करनी शुरू कीं, किन्तु ईश्वर ने उसे वह परकाश न दिखाया जिसका वह इच्छुक था। उसकी रातें एक दीर्घ स्वप्न होती थीं, और उसके दिन भी इस विषय में रातों ही के सदृश होते थे। एक रात वह जागा तो उसके मुख से ऐसी पश्चात्तापपूर्ण आहें निकल रही थीं, जैसी चांदनी रात में पापाहत मनुष्यों की कबरों से निकला करती हैं। थायस आ पहुंची थी, और उसके जख्मी पैरों से खून बह रहा था। किन्तु पापनाशी रोने लगा कि वह धीरे से उसकी चारपाई पर आकर लेट गयी। अब कोई सन्देह न रहा, सारी शंकाएं निवृत्त हो गयीं। थायस की छाया वासनायुक्त थी।
उसके मन में घृणा की एक लहर उठी। वह अपनी अपवित्र शैया से झपटकर नीचे कूद पड़ा और अपना मुंह दोनों हाथों से छिपा लिया कि सूर्य का परकाश न पड़ने पाये। दिन की घड़ियां गुजरती जाती थीं, किन्तु उसकी लज्जा और ग्लानि शान्त न होती थी। कुटी में पूरी शान्ति थी। आज बहुत दिनों के पश्चात परथम बार थायस को एकान्त मिला। आखिर में छाया ने भी उसका साथ छोड़ दिया, और अब उसकी विलीनता भी भयंकर परतीत होती थी। इस स्वप्न को विस्मृत करने के लिए, इस विचार से उसके मन को हटाने के लिए अब कोई अवलम्ब, कोई साधन, कोई सहारा नहीं था। उसने अपने को धिक्कारा-मैंने क्यों उसे भगा न दिया ? मैंने अपने को उसके घृणित आलिंगन और तापमय करों से क्यों न छुड़ा लिया ?
अब वह उस भरष्ट चारपाई के समीप ईश्वर का नाम लेने का भी साहस न कर सकता था, और उसे यह भय होता था कि कुटी के अपवित्र हो जाने के कारण पिशाचगण स्वेच्छानुसार अन्दर परविष्ट हो जायेंगे, उनके रोकने का मेरे पास अब कौनसा मन्त्र रहा ? और उसका भय निमूर्ल न था। वह सातों गीदड़ जो कभी उसकी चौखट के भीतर न आ सके थे, अब कतार बांधकर आये और भीतर आकर उसके पलंग के नीचे छिप गये। संध्या परार्थना के समय एक और आठवां गीदड़ भी आया, जिसकी दुर्गन्ध असह्य थी। दूसरे दिन नवां गीदड़ भी उनमें आ मिला और उनकी संख्या ब़तेबढ़ते तीस से साठ और साठ से अस्सी तक पहुंच गयी। जैसेजैसे उनकी संख्या ब़ती थी, उनका आहार छोटा होता जाता था, यहां तक कि वह चूहों के बराबर हो गये और सारी कुटी में फैल गये-पलंग, मेज, तिपाई, फर्श एक भी उनसे खाली न बचा। उनमें से एक मेज पर कूद गया और उसके तकिये पर चारों पैर रखकर पापनाशी के मुख की ओर जलती हुई आंखों से देखने लगा। नित्य नयेनये गीदड़ आने लगे।
अपने स्वप्न के भीषण पाप का परायश्चित करने और भरष्ट विचारों से बचने के लिए पापनाशी ने निश्चय किया कि अपनी कुटी से निकल जाऊं तो अब पाप का बसेरा बन गयी है और मरुभूमि में दूर जाकर कठिनसे-कठिन तपस्याएं करुं, ऐसीऐसी सिद्धियों में रत हो जाऊं जो किसी ने सुनी भी न हों, परोपकार और उद्घार के पथ पर और भी उत्साह से चलूं। लेकिन इस निश्चय को कार्यरूप में लाने से पहले वह सन्त पालम के पास उससे परामर्श करने गया।
उसने पालम को अपने बगीचे में पौधों को सींचते हुए पाया। संध्या हो गयी थी। नील नदी की नीली धारा ऊंचे पर्वतों के दामन में बह रही थी। वह सात्त्विक हृदय वृद्ध साधु धीरेधीरे चल रहा था कि कहीं वह कबूतर चौंककर उड़ न जाये जो उसके कन्धे पर आ बैठा था।
पापनाशी को देखकर उसने कहा-’भाई पापनाशी को नमस्कार करता हूं। देखो, परम पिता कितना दयालु है; वह मेरे पास अपने रचे हुए पशुओं को भेजता है कि मैं उनके साथ उनका कीर्तिगान करुं और हवा में उड़ने वाले पक्षियों को देखकर उनकी अनन्तलीला का आनन्द उठाऊं। इस कबूतर को देखो, उसकी गर्दन के बदलते हुए रंगों को देखो, क्या वह ईश्वर की सुन्दर रचना नहीं है ? लेकिन तुम तो मेरे पास किसी धार्मिक विषय पर बातें करने आये हो न ? यह लो, मैं अपना डोल रखे देता हूं और तुम्हारी बातें सुनने को तैयार हूं।’
पापनाशी ने वृद्ध साधु से अपनी इस्कन्द्रिया की यात्रा, थायस के उद्घार, वहां से लौटने-दिनों की दूषित कल्पनाओं और रातों के दुःस्वप्नों-का सारा वृत्तान्त कह सुनाया। उस रात के पापस्वप्न और गीदड़ों के झुंड की बात भी न छिपाई और तब उससे पूछा-’पूज्य पिता, क्या ऐसीऐसी असाधारण योगित्र्कयाएं करनी चाहिए कि परेतराज भी चकित हो जायें ?’
पालम सन्त ने उत्तर दिया-’भाई पापनाशी, मैं क्षुद्र पापी पुरुष हूं और अपना सारा जीवन बगीचे में हिरनों, कबूतरों और खरहों के साथ व्यतीत करने के कारण, मुझे मनुष्यों का बहुत कम ज्ञान है। लेकिन मुझे ऐसा परतीत होता है कि तुम्हारी दुश्चिन्ताओं का कारण कुछ और ही है। तुम इतने दिनों तक व्यावहारिक संसार में रहने के बाद यकायक निर्जन शांति में आ गये हों। ऐसे आकस्मिक परिवर्तनों से आत्मा का स्वास्थ्य बिगड़ जाये तो आश्चर्य की बात नहीं। बन्धुवर, तुम्हारी दशा उस पराणी कीसी है जो एक ही क्षण में अत्याधिक ताप से शीत में आ पहुंचे। उसे तुरन्त खांसी और ज्वर घेर लेते हैं। बन्धु, तुम्हारे लिए मेरी यह सलाह है कि किसी निर्जन मरुस्थल में जाने के बदले, मनबहलाव के ऐसे काम करो जो तपस्वियों और साधुओं के सर्वथा योग्य हैं। तुम्हारी जगह मैं होता तो समीपवर्ती धमार्श्रमों की सैर करता। इनमें से कई देखने के योग्य हैं, लोग उनकी बड़ी परशंसा करते हैं। सिरैपियन के ऋषिगृह में एक हजार चार सौ बत्तीस कुटियां बनी हुई हैं, और तपस्वियों को उतने वर्गों में विभक्त किया गया है जितने अक्षर यूनानी लिपि में हैं। मुझसे लोगों ने यह भी कहा है कि इस वगीर्करण में अक्षर, आकार और साधकों की मनोवृत्तियों में एक परकार की अनुरूपता का ध्यान रखा जाता है। उदाहरणतः वह लोग जो र वर्ग के अन्तर्गत रखे जाते हैं चंचल परकृति के होते हैं, और जो लोग शान्तपरकृति के हैं वह प के अन्तर्गत रखे जाते हैं। बन्धुवर, तुम्हारी जगह मैं होता तो अपनी आंखों से इस रहस्य को देखता और जब तक ऐसे अद्भुत स्थान की सैर न कर लेता, चैन न लेता। क्या तुम इसे अद्भुत नहीं समझते ? किसी की मनोवृत्तियों का अनुमान कर लेना कितना कठिन है और जो लोग निम्न श्रेणी में रखा जाना स्वीकार कर लेते हैं, वह वास्तव में साधु हैं, क्योंकि उनकी आत्मशुद्धि का लक्ष्य उनके सामने रहता है। वह जानते हैं कि हम किस भांति जीवन व्यतीत करने से सरल अक्षरों के अन्तर्गत हो सकते हैं। इसके अतिरिक्त वरतधारियों के देखने और मनन करने योग्य और भी कितनी ही बातें हैं। मैं भिन्नभिन्न संगतों को जो नील नदी के तट पर फैली हुई हैं, अवश्य देखता, उनके नियमों और सिद्घान्तों का अवलोकन करता, एक आश्रम की नियमावली की दूसरे से तुलना करता कि उनमें क्या अन्तर है, क्या दोष है, क्या गुण है। तुम जैसी धमार्त्मा पुरुष के लिए यह आलोचना सर्वथा योग्य है। तुमने लोगों से यह अवश्य ही सुना होगा कि ऋषि एन्फरेम ने अपने आश्रम के लिए बड़े उत्कृष्ट धार्मिक नियमों की रचना की है। उनकी आज्ञा लेकर तुम इस नियमावली की नकल कर सकते हो क्योंकि तुम्हारे अक्षर बड़े सुन्दर होते हैं। मैं नहीं लिख सकता क्योंकि मेरे हाथ फावड़ा चलातेचलाते इतने कठोर हो गये हैं कि उनमें पतली कलम को भोजपत्र पर चलाने की क्षमता ही नहीं रही। लिखने के लिए हाथों का कोमल होना जरूरी है। लेकिन बन्धुवर, तुम तो लिखने में चतुर हो, और तुम्हें ईश्वर को धन्यवाद देना चाहिए कि उसने तुम्हें यह विद्या परदान की, क्योंकि सुन्दर लिपियों की जितनी परशंसा की जाये थोड़ी है। गरन्थों की नकल करना और पॄना बुरे विचारों से बचने का बहुत ही उत्तम साधन हैं। बन्धु पापनाशी, तुम हमारे श्रद्धेय ऋषियों, पालम और एन्तोनी के सदुपदेशों को लिपिबद्ध क्यों नहीं कर डालते ? ऐसे धार्मिक कामों में लगे रहने से शनै:शैनः तुम चित्त और आत्मा की शांति को पुनः लाभ कर लोगे, फिर एकांत तुम्हें सुखद जान पड़ेगा और शीघर ही तुम इस योग्य हो जाओगे कि आत्मशुद्धि की उन त्रि्कयाओं में परवृत्त हो जाओगे जिनमें तुम्हारी यात्रा ने विघ्न डाल दिया था। लेकिन कठिन कष्टों और दमनकारी वेदनाओं के सहन से तुम्हें बहुत आशा न रखनी चाहिए। जब पिता एन्तोनी हमारे बीच में थे तो कहा करते थे-’बहुत वरत रखने से दुर्बलता आती है औद दुर्बलता से आलस्य पैदा होता है। कुछ ऐसे तपस्वी हैं जो कई दिनों तक लगातार अनशन वरत रख अपने शरीर को चौपट कर डालते हैं। उनके विषय में यह कहना सर्वथा सत्य है कि वह अपने ही हाथों से अपनी छाती पर कटार मार लेते हैं और अपने को किसी परकार की रुकावट के शैतान के हाथों में सौंप देते हैं।’ यह उस पुनीतात्मा एन्तोनी के विचार थे ! मैं अज्ञानी मूर्ख बुड्ढा हूं; लेकिन गुरु के मुख से जो कुछ सुना था वह अब तक याद है।’
पापनाशी ने पालम सन्त को इस शुभादेश के लिए धन्यवाद दिया और उस पर विचार करने का वादा किया। जब वह उससे विदा होकर नरकटों के बाड़े के बाहर आ गया जो बगीचे के चारों ओर बना हुआ था, तो उसने पीछे फिरकर देखा। सरल, जीवन्मुक्त साधु पालम पौधों को पानी दे रहा था, और उसकी झुकी हुई कमर पर कबूतर बैठा उसके साथसाथ घूमता था। इस दृश्य को देखकर पापनाशी रो पड़ा।
अपनी कुटी में जाकर उसने एक विचित्र दृश्य देखा। ऐसा जान पड़ता था कि अगणित बालुकरण किसी परचण्ड आंधी से उड़कर कुटी में फैल गये हैं। जब उसने जरा ध्यान से देखा तो परत्येक बालुकरण यथार्थ में एक अति सूक्ष्म आकार का गीदड़ था, सारी कुटी शृंगालमय हो गयी थी।
उसी रात को पापनाशी ने स्वप्न देखा कि एक बहुत ऊंचा पत्थर का स्तम्भ है, जिसके शिखर पर एक आदमी का चेहरा दिखाई दे रहा है। उसके कान में कहीं से यह आवाज आयी-इस स्तम्भ पर च़ !
पापनाशी जागा तो उसे निश्चय हुआ कि यह स्वप्न मुझे ईश्वर की ओर से हुआ है। उसने अपने शिष्यों को बुलाया और उनको इन शब्दों में सम्बोधित किया-’पिरय पुत्रो, मुझे आदेश मिला है कि तुमसे फिर विदा मांगू और जहां ईश्वर ले जाये वहां जाऊं। मेरी अनुपस्थिति में लेवियन की आज्ञाओं को मेरी ही आज्ञाओं की भांति मानना और बन्धु पालम की रक्षा करते रहना। ईश्वर तुम्हें शांति दे। नमस्कार !’
जब वह चला तो उसके सभी शिष्य साष्टांग दण्डवत करने लगे और जब उन्होंने सिर उठाया तो उन्हें अपने गुरु की लस्बी, श्याममूर्ति क्षितिज में विलीन होती हुई दिखाई दी।
वह रात और दिन अविश्रान्त चलता रहा। यहां तक कि वह उस मन्दिर में जा पहुंचा, जो पराचीन काल में मूर्तिपूजकों ने बनाया था और जिसमें वह अपनी विचित्र पूर्वयात्रा में एक रात सोया था। अब इस मन्दिर का भग्नावशेष मात्र रह गया था और सर्प, बिच्छू, चमगादड़ आदि जन्तुओं के अतिरिक्त परेत भी इसमें अपना अड्डा बनाये हुए थे। दीवारें जिन पर जादू के चिह्न बने हुए थे, अभी तक खड़ी थीं। तीस वृहदाकार स्तम्भ जिनके शिखरों पर मनुष्य के सिर अथवा कमल के फूल बने हुए थे, अभी तक एक भारी चबूतरे को उठाये हुए थे। लेकिन मन्दिर के एक सिरे पर एक स्तम्भ इस चबूतरे के बीच से सरक गया था और अब अकेला खड़ा था। इसका कलश एक स्त्री को मुस्कराता हुआ मुखमण्डल था। उसकी आंखें लम्बी थीं, कपोल भरे हुए, और मस्तक पर गाय की सींगें थीं।
पापनाशी ने स्तम्भ को देखते ही पहचान गया कि यह वह स्तम्भ है जिसे उसने स्वप्न में देखा था और उसने अनुमान किया कि इसकी ऊंचाई बत्तीस हाथों से कम न होगी। वह निकट गांव में गया और उतनी ही ऊंची एक सी़ी बनाई और जब सी़ी तैयार हो गयी तो वह स्तम्भ से लगाकर खड़ी की गयी। वह उस पर च़ा और शिखर पर जाकर उसने भूमि पर मस्तक नवाकर यों परार्थना की-’भगवान्, यही वह स्थान है जो तूने मेरे लिए बताया है। मेरी परम इच्छा है कि मैं यहीं तेरी दया की छाया में जीवनपर्यन्त रहूं।’
वह अपने साथ भोजन की सामगिरयां न लाया था। उसे भरोसा था कि ईश्वर मेरी सुधि अवश्य लेगा और यह आशा थी कि गांव के भक्तिपरायण जन मेरे खानेपीने का परबन्ध कर देंगे और ऐसा भी। दूसरे दिन तीसरे पहर स्त्रियां अपने बालकों के साथ रोटियां, छुहारे और ताजा पानी लिये हुए आयीं, जिसे बालकों ने स्तम्भ के शिखर पर पहुंचा दिया।
स्तम्भ का कलश इतना चौड़ा न था कि पापनाशी उस पर पैर फैलाकर लेट सकता, इसलिए वह पैरों को नीचेऊपर किये, सिर छाती पर रखकर सोता था और निद्रा जागृत रहने से भी अधिक कष्टदायक थी। परातःकाल उकाब अपने पैरों से उसे स्पर्श करता था और वह निद्रा, भय तथा अंगवेदना से पीड़ित उठ बैठता था।
संयोग से जिस ब़ई ने यह सी़ी बनायी थी, वह ईश्वर का भक्त था। उसे यह देखकर चिन्ता हुई कि योगी को वर्षा और धूप से कष्ट हो रहा है। और इस भय से कि कहीं निद्रा में वह नीचे न गिर पड़े, उस पुण्यात्मा पुरुष ने स्तम्भ के शिखर पर छत और कठघरा बना दिया।
थोड़े ही दिनों में उस असाधारण व्यक्ति की चचार गांवों में फैलने लगी और रविवार के दिन श्रमजीवियों के दलके-दल अपनी स्त्रियों और बच्चों के साथ उसके दर्शनार्थ आने लगे। पापनाशी के शिष्यों ने जब सुना कि गुरुजी ने इस विचित्र स्थान में शरण ली है तो वह चकित हुए, और उसकी सेवा में उपस्थित होकर उससे स्तम्भ के नीचे अपनी कुटिया बनाने की आज्ञा पराप्त की। नित्यपरति परातःकाल वह आकर अपने स्वामी के चारों ओर खड़े हो जाते और उसके सदुपदेश सुनते थे।
वह उन्हें सिखाता था-पिरय पुत्रो, उन्हीं नन्हें बालकों के समान बन रहो जिन्हें परभु मसीह प्यार किया करते थे। वही मुक्ति का मार्ग है। वासना ही सब पापों का मूल है। वह वासना से उसी भांति उत्पन्न होते हैं जैसे सन्तान पिता से। अहंकार, लोभ, आलस्य, त्र्कोध और ईष्यार उनकी पिरय सन्तान हैं। मैंने इस्कन्द्रिया में यही कुटिल व्यापार देखा। मैंने धन सम्पन्न पुरुषों को कुचेष्टाओं में परवाहित होते देखा है जो उस नदी की बा़ की भांति हैं जिसमें मैला जल भरा हो। वह उन्हें दुःख की खाड़ी में बहा ले जाता है।
पहले पापनाशी ईश्वर से तर्क न करता था। वह निरापद भाव से उसके आदेशों का पालन करता था। पर अब उसमें एक नये भाव का विकास हुआ-उसने ईश्वर से परश्न और शंकाएं करनी शुरू कीं, किन्तु ईश्वर ने उसे वह परकाश न दिखाया जिसका वह इच्छुक था। उसकी रातें एक दीर्घ स्वप्न होती थीं, और उसके दिन भी इस विषय में रातों ही के सदृश होते थे। एक रात वह जागा तो उसके मुख से ऐसी पश्चात्तापपूर्ण आहें निकल रही थीं, जैसी चांदनी रात में पापाहत मनुष्यों की कबरों से निकला करती हैं। थायस आ पहुंची थी, और उसके जख्मी पैरों से खून बह रहा था। किन्तु पापनाशी रोने लगा कि वह धीरे से उसकी चारपाई पर आकर लेट गयी। अब कोई सन्देह न रहा, सारी शंकाएं निवृत्त हो गयीं। थायस की छाया वासनायुक्त थी।
उसके मन में घृणा की एक लहर उठी। वह अपनी अपवित्र शैया से झपटकर नीचे कूद पड़ा और अपना मुंह दोनों हाथों से छिपा लिया कि सूर्य का परकाश न पड़ने पाये। दिन की घड़ियां गुजरती जाती थीं, किन्तु उसकी लज्जा और ग्लानि शान्त न होती थी। कुटी में पूरी शान्ति थी। आज बहुत दिनों के पश्चात परथम बार थायस को एकान्त मिला। आखिर में छाया ने भी उसका साथ छोड़ दिया, और अब उसकी विलीनता भी भयंकर परतीत होती थी। इस स्वप्न को विस्मृत करने के लिए, इस विचार से उसके मन को हटाने के लिए अब कोई अवलम्ब, कोई साधन, कोई सहारा नहीं था। उसने अपने को धिक्कारा-मैंने क्यों उसे भगा न दिया ? मैंने अपने को उसके घृणित आलिंगन और तापमय करों से क्यों न छुड़ा लिया ?
अब वह उस भरष्ट चारपाई के समीप ईश्वर का नाम लेने का भी साहस न कर सकता था, और उसे यह भय होता था कि कुटी के अपवित्र हो जाने के कारण पिशाचगण स्वेच्छानुसार अन्दर परविष्ट हो जायेंगे, उनके रोकने का मेरे पास अब कौनसा मन्त्र रहा ? और उसका भय निमूर्ल न था। वह सातों गीदड़ जो कभी उसकी चौखट के भीतर न आ सके थे, अब कतार बांधकर आये और भीतर आकर उसके पलंग के नीचे छिप गये। संध्या परार्थना के समय एक और आठवां गीदड़ भी आया, जिसकी दुर्गन्ध असह्य थी। दूसरे दिन नवां गीदड़ भी उनमें आ मिला और उनकी संख्या ब़तेबढ़ते तीस से साठ और साठ से अस्सी तक पहुंच गयी। जैसेजैसे उनकी संख्या ब़ती थी, उनका आहार छोटा होता जाता था, यहां तक कि वह चूहों के बराबर हो गये और सारी कुटी में फैल गये-पलंग, मेज, तिपाई, फर्श एक भी उनसे खाली न बचा। उनमें से एक मेज पर कूद गया और उसके तकिये पर चारों पैर रखकर पापनाशी के मुख की ओर जलती हुई आंखों से देखने लगा। नित्य नयेनये गीदड़ आने लगे।
अपने स्वप्न के भीषण पाप का परायश्चित करने और भरष्ट विचारों से बचने के लिए पापनाशी ने निश्चय किया कि अपनी कुटी से निकल जाऊं तो अब पाप का बसेरा बन गयी है और मरुभूमि में दूर जाकर कठिनसे-कठिन तपस्याएं करुं, ऐसीऐसी सिद्धियों में रत हो जाऊं जो किसी ने सुनी भी न हों, परोपकार और उद्घार के पथ पर और भी उत्साह से चलूं। लेकिन इस निश्चय को कार्यरूप में लाने से पहले वह सन्त पालम के पास उससे परामर्श करने गया।
उसने पालम को अपने बगीचे में पौधों को सींचते हुए पाया। संध्या हो गयी थी। नील नदी की नीली धारा ऊंचे पर्वतों के दामन में बह रही थी। वह सात्त्विक हृदय वृद्ध साधु धीरेधीरे चल रहा था कि कहीं वह कबूतर चौंककर उड़ न जाये जो उसके कन्धे पर आ बैठा था।
पापनाशी को देखकर उसने कहा-’भाई पापनाशी को नमस्कार करता हूं। देखो, परम पिता कितना दयालु है; वह मेरे पास अपने रचे हुए पशुओं को भेजता है कि मैं उनके साथ उनका कीर्तिगान करुं और हवा में उड़ने वाले पक्षियों को देखकर उनकी अनन्तलीला का आनन्द उठाऊं। इस कबूतर को देखो, उसकी गर्दन के बदलते हुए रंगों को देखो, क्या वह ईश्वर की सुन्दर रचना नहीं है ? लेकिन तुम तो मेरे पास किसी धार्मिक विषय पर बातें करने आये हो न ? यह लो, मैं अपना डोल रखे देता हूं और तुम्हारी बातें सुनने को तैयार हूं।’
पापनाशी ने वृद्ध साधु से अपनी इस्कन्द्रिया की यात्रा, थायस के उद्घार, वहां से लौटने-दिनों की दूषित कल्पनाओं और रातों के दुःस्वप्नों-का सारा वृत्तान्त कह सुनाया। उस रात के पापस्वप्न और गीदड़ों के झुंड की बात भी न छिपाई और तब उससे पूछा-’पूज्य पिता, क्या ऐसीऐसी असाधारण योगित्र्कयाएं करनी चाहिए कि परेतराज भी चकित हो जायें ?’
पालम सन्त ने उत्तर दिया-’भाई पापनाशी, मैं क्षुद्र पापी पुरुष हूं और अपना सारा जीवन बगीचे में हिरनों, कबूतरों और खरहों के साथ व्यतीत करने के कारण, मुझे मनुष्यों का बहुत कम ज्ञान है। लेकिन मुझे ऐसा परतीत होता है कि तुम्हारी दुश्चिन्ताओं का कारण कुछ और ही है। तुम इतने दिनों तक व्यावहारिक संसार में रहने के बाद यकायक निर्जन शांति में आ गये हों। ऐसे आकस्मिक परिवर्तनों से आत्मा का स्वास्थ्य बिगड़ जाये तो आश्चर्य की बात नहीं। बन्धुवर, तुम्हारी दशा उस पराणी कीसी है जो एक ही क्षण में अत्याधिक ताप से शीत में आ पहुंचे। उसे तुरन्त खांसी और ज्वर घेर लेते हैं। बन्धु, तुम्हारे लिए मेरी यह सलाह है कि किसी निर्जन मरुस्थल में जाने के बदले, मनबहलाव के ऐसे काम करो जो तपस्वियों और साधुओं के सर्वथा योग्य हैं। तुम्हारी जगह मैं होता तो समीपवर्ती धमार्श्रमों की सैर करता। इनमें से कई देखने के योग्य हैं, लोग उनकी बड़ी परशंसा करते हैं। सिरैपियन के ऋषिगृह में एक हजार चार सौ बत्तीस कुटियां बनी हुई हैं, और तपस्वियों को उतने वर्गों में विभक्त किया गया है जितने अक्षर यूनानी लिपि में हैं। मुझसे लोगों ने यह भी कहा है कि इस वगीर्करण में अक्षर, आकार और साधकों की मनोवृत्तियों में एक परकार की अनुरूपता का ध्यान रखा जाता है। उदाहरणतः वह लोग जो र वर्ग के अन्तर्गत रखे जाते हैं चंचल परकृति के होते हैं, और जो लोग शान्तपरकृति के हैं वह प के अन्तर्गत रखे जाते हैं। बन्धुवर, तुम्हारी जगह मैं होता तो अपनी आंखों से इस रहस्य को देखता और जब तक ऐसे अद्भुत स्थान की सैर न कर लेता, चैन न लेता। क्या तुम इसे अद्भुत नहीं समझते ? किसी की मनोवृत्तियों का अनुमान कर लेना कितना कठिन है और जो लोग निम्न श्रेणी में रखा जाना स्वीकार कर लेते हैं, वह वास्तव में साधु हैं, क्योंकि उनकी आत्मशुद्धि का लक्ष्य उनके सामने रहता है। वह जानते हैं कि हम किस भांति जीवन व्यतीत करने से सरल अक्षरों के अन्तर्गत हो सकते हैं। इसके अतिरिक्त वरतधारियों के देखने और मनन करने योग्य और भी कितनी ही बातें हैं। मैं भिन्नभिन्न संगतों को जो नील नदी के तट पर फैली हुई हैं, अवश्य देखता, उनके नियमों और सिद्घान्तों का अवलोकन करता, एक आश्रम की नियमावली की दूसरे से तुलना करता कि उनमें क्या अन्तर है, क्या दोष है, क्या गुण है। तुम जैसी धमार्त्मा पुरुष के लिए यह आलोचना सर्वथा योग्य है। तुमने लोगों से यह अवश्य ही सुना होगा कि ऋषि एन्फरेम ने अपने आश्रम के लिए बड़े उत्कृष्ट धार्मिक नियमों की रचना की है। उनकी आज्ञा लेकर तुम इस नियमावली की नकल कर सकते हो क्योंकि तुम्हारे अक्षर बड़े सुन्दर होते हैं। मैं नहीं लिख सकता क्योंकि मेरे हाथ फावड़ा चलातेचलाते इतने कठोर हो गये हैं कि उनमें पतली कलम को भोजपत्र पर चलाने की क्षमता ही नहीं रही। लिखने के लिए हाथों का कोमल होना जरूरी है। लेकिन बन्धुवर, तुम तो लिखने में चतुर हो, और तुम्हें ईश्वर को धन्यवाद देना चाहिए कि उसने तुम्हें यह विद्या परदान की, क्योंकि सुन्दर लिपियों की जितनी परशंसा की जाये थोड़ी है। गरन्थों की नकल करना और पॄना बुरे विचारों से बचने का बहुत ही उत्तम साधन हैं। बन्धु पापनाशी, तुम हमारे श्रद्धेय ऋषियों, पालम और एन्तोनी के सदुपदेशों को लिपिबद्ध क्यों नहीं कर डालते ? ऐसे धार्मिक कामों में लगे रहने से शनै:शैनः तुम चित्त और आत्मा की शांति को पुनः लाभ कर लोगे, फिर एकांत तुम्हें सुखद जान पड़ेगा और शीघर ही तुम इस योग्य हो जाओगे कि आत्मशुद्धि की उन त्रि्कयाओं में परवृत्त हो जाओगे जिनमें तुम्हारी यात्रा ने विघ्न डाल दिया था। लेकिन कठिन कष्टों और दमनकारी वेदनाओं के सहन से तुम्हें बहुत आशा न रखनी चाहिए। जब पिता एन्तोनी हमारे बीच में थे तो कहा करते थे-’बहुत वरत रखने से दुर्बलता आती है औद दुर्बलता से आलस्य पैदा होता है। कुछ ऐसे तपस्वी हैं जो कई दिनों तक लगातार अनशन वरत रख अपने शरीर को चौपट कर डालते हैं। उनके विषय में यह कहना सर्वथा सत्य है कि वह अपने ही हाथों से अपनी छाती पर कटार मार लेते हैं और अपने को किसी परकार की रुकावट के शैतान के हाथों में सौंप देते हैं।’ यह उस पुनीतात्मा एन्तोनी के विचार थे ! मैं अज्ञानी मूर्ख बुड्ढा हूं; लेकिन गुरु के मुख से जो कुछ सुना था वह अब तक याद है।’
पापनाशी ने पालम सन्त को इस शुभादेश के लिए धन्यवाद दिया और उस पर विचार करने का वादा किया। जब वह उससे विदा होकर नरकटों के बाड़े के बाहर आ गया जो बगीचे के चारों ओर बना हुआ था, तो उसने पीछे फिरकर देखा। सरल, जीवन्मुक्त साधु पालम पौधों को पानी दे रहा था, और उसकी झुकी हुई कमर पर कबूतर बैठा उसके साथसाथ घूमता था। इस दृश्य को देखकर पापनाशी रो पड़ा।
अपनी कुटी में जाकर उसने एक विचित्र दृश्य देखा। ऐसा जान पड़ता था कि अगणित बालुकरण किसी परचण्ड आंधी से उड़कर कुटी में फैल गये हैं। जब उसने जरा ध्यान से देखा तो परत्येक बालुकरण यथार्थ में एक अति सूक्ष्म आकार का गीदड़ था, सारी कुटी शृंगालमय हो गयी थी।
उसी रात को पापनाशी ने स्वप्न देखा कि एक बहुत ऊंचा पत्थर का स्तम्भ है, जिसके शिखर पर एक आदमी का चेहरा दिखाई दे रहा है। उसके कान में कहीं से यह आवाज आयी-इस स्तम्भ पर च़ !
पापनाशी जागा तो उसे निश्चय हुआ कि यह स्वप्न मुझे ईश्वर की ओर से हुआ है। उसने अपने शिष्यों को बुलाया और उनको इन शब्दों में सम्बोधित किया-’पिरय पुत्रो, मुझे आदेश मिला है कि तुमसे फिर विदा मांगू और जहां ईश्वर ले जाये वहां जाऊं। मेरी अनुपस्थिति में लेवियन की आज्ञाओं को मेरी ही आज्ञाओं की भांति मानना और बन्धु पालम की रक्षा करते रहना। ईश्वर तुम्हें शांति दे। नमस्कार !’
जब वह चला तो उसके सभी शिष्य साष्टांग दण्डवत करने लगे और जब उन्होंने सिर उठाया तो उन्हें अपने गुरु की लस्बी, श्याममूर्ति क्षितिज में विलीन होती हुई दिखाई दी।
वह रात और दिन अविश्रान्त चलता रहा। यहां तक कि वह उस मन्दिर में जा पहुंचा, जो पराचीन काल में मूर्तिपूजकों ने बनाया था और जिसमें वह अपनी विचित्र पूर्वयात्रा में एक रात सोया था। अब इस मन्दिर का भग्नावशेष मात्र रह गया था और सर्प, बिच्छू, चमगादड़ आदि जन्तुओं के अतिरिक्त परेत भी इसमें अपना अड्डा बनाये हुए थे। दीवारें जिन पर जादू के चिह्न बने हुए थे, अभी तक खड़ी थीं। तीस वृहदाकार स्तम्भ जिनके शिखरों पर मनुष्य के सिर अथवा कमल के फूल बने हुए थे, अभी तक एक भारी चबूतरे को उठाये हुए थे। लेकिन मन्दिर के एक सिरे पर एक स्तम्भ इस चबूतरे के बीच से सरक गया था और अब अकेला खड़ा था। इसका कलश एक स्त्री को मुस्कराता हुआ मुखमण्डल था। उसकी आंखें लम्बी थीं, कपोल भरे हुए, और मस्तक पर गाय की सींगें थीं।
पापनाशी ने स्तम्भ को देखते ही पहचान गया कि यह वह स्तम्भ है जिसे उसने स्वप्न में देखा था और उसने अनुमान किया कि इसकी ऊंचाई बत्तीस हाथों से कम न होगी। वह निकट गांव में गया और उतनी ही ऊंची एक सी़ी बनाई और जब सी़ी तैयार हो गयी तो वह स्तम्भ से लगाकर खड़ी की गयी। वह उस पर च़ा और शिखर पर जाकर उसने भूमि पर मस्तक नवाकर यों परार्थना की-’भगवान्, यही वह स्थान है जो तूने मेरे लिए बताया है। मेरी परम इच्छा है कि मैं यहीं तेरी दया की छाया में जीवनपर्यन्त रहूं।’
वह अपने साथ भोजन की सामगिरयां न लाया था। उसे भरोसा था कि ईश्वर मेरी सुधि अवश्य लेगा और यह आशा थी कि गांव के भक्तिपरायण जन मेरे खानेपीने का परबन्ध कर देंगे और ऐसा भी। दूसरे दिन तीसरे पहर स्त्रियां अपने बालकों के साथ रोटियां, छुहारे और ताजा पानी लिये हुए आयीं, जिसे बालकों ने स्तम्भ के शिखर पर पहुंचा दिया।
स्तम्भ का कलश इतना चौड़ा न था कि पापनाशी उस पर पैर फैलाकर लेट सकता, इसलिए वह पैरों को नीचेऊपर किये, सिर छाती पर रखकर सोता था और निद्रा जागृत रहने से भी अधिक कष्टदायक थी। परातःकाल उकाब अपने पैरों से उसे स्पर्श करता था और वह निद्रा, भय तथा अंगवेदना से पीड़ित उठ बैठता था।
संयोग से जिस ब़ई ने यह सी़ी बनायी थी, वह ईश्वर का भक्त था। उसे यह देखकर चिन्ता हुई कि योगी को वर्षा और धूप से कष्ट हो रहा है। और इस भय से कि कहीं निद्रा में वह नीचे न गिर पड़े, उस पुण्यात्मा पुरुष ने स्तम्भ के शिखर पर छत और कठघरा बना दिया।
थोड़े ही दिनों में उस असाधारण व्यक्ति की चचार गांवों में फैलने लगी और रविवार के दिन श्रमजीवियों के दलके-दल अपनी स्त्रियों और बच्चों के साथ उसके दर्शनार्थ आने लगे। पापनाशी के शिष्यों ने जब सुना कि गुरुजी ने इस विचित्र स्थान में शरण ली है तो वह चकित हुए, और उसकी सेवा में उपस्थित होकर उससे स्तम्भ के नीचे अपनी कुटिया बनाने की आज्ञा पराप्त की। नित्यपरति परातःकाल वह आकर अपने स्वामी के चारों ओर खड़े हो जाते और उसके सदुपदेश सुनते थे।
वह उन्हें सिखाता था-पिरय पुत्रो, उन्हीं नन्हें बालकों के समान बन रहो जिन्हें परभु मसीह प्यार किया करते थे। वही मुक्ति का मार्ग है। वासना ही सब पापों का मूल है। वह वासना से उसी भांति उत्पन्न होते हैं जैसे सन्तान पिता से। अहंकार, लोभ, आलस्य, त्र्कोध और ईष्यार उनकी पिरय सन्तान हैं। मैंने इस्कन्द्रिया में यही कुटिल व्यापार देखा। मैंने धन सम्पन्न पुरुषों को कुचेष्टाओं में परवाहित होते देखा है जो उस नदी की बा़ की भांति हैं जिसमें मैला जल भरा हो। वह उन्हें दुःख की खाड़ी में बहा ले जाता है।
प्यास बुझाई नौकर से Running....कीमत वसूल Running....3-महाकाली ....1-- जथूराcomplete ....2-पोतेबाबाcomplete
बन्धन
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दिल से दिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
तुफानो में साहिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
यूँ तो मिल जाता है हर कोई!
मगर आप जैसे दोस्त नसीब वालों को मिलते हैं!
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बन्धन
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