गुनाहों का देवता-धर्मवीर भारती

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Jemsbond
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Re: गुनाहों का देवता-धर्मवीर भारती

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चन्दर ने पीछे मुडक़र देखा। सुधा के हाथ में एक लम्बा-सा सरकंडा था और उसे झंडे की तरह फहराती हुई चली आ रही थी। चन्दर हँस पड़ा।
''खिल गये दीदी को देखते ही!'' बिनती बोली और एक गरम पकौड़ी चन्दर के ऊपर फेंक दी।
''अरे, बड़ी शैतान हो गयी हो तुम इधर! पाजी कहीं की!'' चन्दर बोला।
सुधा चप्पल उतारकर अन्दर आयी। झूमती-इठलाती हुई चली आ रही थी।
''कहो, सेठ स्वार्थीमल!'' उसने चन्दर को देखते ही कहा, ''सुबह हुई और पकौड़ी की महक लग गयी तुम्हें!'' पीढ़ा खींचकर उसके बगल में बैठ गयी और सरकंडा चन्दर के हाथ पर रखते हुए बोली, ''लो, यह गन्ना। घर में बो देना। और गँडेरी खाना! अच्छा!'' और हाथ बढ़ाकर वह डिबिया उठा ली और बोली, ''इसमें क्या है? खोलें या न खोलें?''
''अच्छा, खत तक तो हमारे बिना पूछे खोल लेती हो। इसे पूछ के खोलोगी!''
''अरे हमने सोचा शायद इस डिबिया में पम्मी का दिल बन्द हो। तुम्हारी मित्र है, शायद स्मृति-चिह्नï में वही दे दिया हो।'' और सुधा ने डिबिया खोली तो उछल पड़ी, ''यह तो उसी निबन्ध पर मिला है जिसका चार्ट तुम बनाये थे!''
''हाँ!''
''तब तो ये हमारा है।'' डिबिया अपने वक्ष में छिपाकर सुधा बोली।
''तुम्हारा तो है ही। मैं अपना कब कहता हूँ?'' चन्दर ने कहा।
''लगाकर देखें!'' और उठकर सुधा चल दी।
''बिनती, दो पकौड़ी तो दो।'' और दो पकौड़ियाँ लेकर खाते हुए चन्दर सुधा के कमरे में गया। देखा, सुधा शीशे के सामने खड़ी है और मेडल अपनी साड़ी में लगा रही है। वह चुपचाप खड़ा होकर देखने लगा। सुधा ने मेडल लगाया और क्षण-भर तनकर देखती रही फिर उसे एक हाथ से वक्ष पर चिपका लिया और मुँह झुकाकर उसे चूम लिया।
''बस, कर दिया न गन्दा उसे!'' चन्दर मौका नहीं चूका।
और सुधा तो जैसे पानी-पानी। गालों से लाज की रतनारी लपटें फूटीं और एड़ी तक धधक उठीं। फौरन शीशे के पास से हट गयी और बिगड़कर बोली, ''चोर कहीं के! क्या देख रहे थे?''
बिनती इतने में तश्तरी में पकौड़ी रखकर ले आयी। सुधा ने झट से मेडल उतार दिया और बोली, ''लो, रखो सहेजकर।''
''क्यों, पहने रहो न!''
''ना बाबा, परायी चीज, अभी खो जाये तो डाँड़ भरना पड़े।'' और मेडल चन्दर की गोद में रख दिया।
बिनती ने धीमे से कहा, ''या मुरली मुरलीधर की अधरा न धरी अधरा न धरौंगी।''
चन्दर और सुधा दोनों झेंप गये। ''लो, गेसू आ गयी।''
सुधा की जान में जान आ गयी। चन्दर ने बिनती का कान पकडक़र कहा, ''बहुत उलटा-सीधा बोलने लगी है!''
बिनती ने कान छुड़ाते हुए कहा, ''कोई झूठ थोड़े ही कहती हूँ!''
चन्दर चुपचाप सुधा के कमरे में पकौडिय़ाँ खाता रहा। बगल के कमरे में सुधा, गेसू, फूल और हसरत बैठे बातें करते रहे। बिनती उन लोगों को नाश्ता देती रही। उस कमरे में नाश्ता पहुँचाकर बिनती एक गिलास में पानी लेकर चन्दर के पास आयी और पानी रखकर बोली, ''अभी हलुआ ला रही हूँ, जाना मत!'' और पल-भर में तश्तरी में हलुआ रखकर ले आयी।
''अब मैं चल रहा हूँ!'' चन्दर ने कहा।
''बैठो, अभी हम एक चीज दिखाएँगे। जरा गेसू से बात कर आएँ।'' बिनती बड़े भोले स्वर में बोली, ''आइए, हसरत मियाँ।'' और पल-भर में नन्हें-मुन्ने-से छह वर्ष के हसरत मियाँ तनजेब का कुरता और चूड़ीदार पायजामे पर पीले रेशम की जाकेट पहने कमरे में खरगोश की तरह उछल आये।
''आदाबर्ज।'' बड़े तमीज से उन्होंने चन्दर को सलाम किया।
चन्दर ने उसे गोद में उठाकर पास बिठा दिया। ''लो, हलुआ खाओ, हसरत!''
हसरत ने सिर हिला दिया और बोला, ''गेसू ने कहा था, जाकर चन्दर भाई से हमारा आदाब कहना और कुछ खाना मत! हम खाएँगे नहीं।''
चन्दर बोला, ''हमारा भी नमस्ते कह दो उनसे जाकर।''
हसरत उठ खड़ा हुआ-''हम कह आएँ।'' फिर मुडक़र बोला, ''आप तब तक हलुआ खत्म कर देंगे?''
चन्दर हँस पड़ा, ''नहीं, हम तुम्हारा इन्तजार करेंगे, जाओ।''
हसरत सिर हिलाता हुआ चला गया।
इतने में सुधा आयी और बोली, ''गेसू की गजल सुनो यहाँ बैठकर। आवाज आ रही है न! फूल भी आयी है इसलिए गेसू तुम्हारे सामने नहीं आएगी वरना फूल अम्मीजान से शिकायत कर देगी। लेकिन वह तुमसे मिलने को बहुत इच्छुक है, अच्छा यहीं से सुनना बैठे-बैठे...''
सुधा चली गयी। गेसू ने गाना शुरू किया बहुत महीन, पतली लेकिन बेहद मीठी आवाज में जिसमें कसक और नशा दोनों घुले-मिले थे। चन्दर एक तकिया टेककर बैठ गया और उनींदा-सा सुनने लगा। गजल खत्म होते ही सुधा भागकर आयी-''कहो, सुन लिया न!'' और उसके पीछे-पीछे आया हसरत और सुधा के पैरों में लिपटकर बोला, ''सुधा, हम हलुआ नहीं खाएँगे!''
सुधा हँस पड़ी, ''पागल कहीं का। ले खा।'' और उसके मुँह में हलुआ ठूँस दिया। हसरत को गोद में लेकर वह चन्दर के पास बैठ गयी और गेसू के बारे में बताने लगी, ''गेसू गर्मियाँ बिताने नैनीताल जा रही है। वहीं अख्तर की अम्मी भी आएँगी और मँगनी की रस्म वहीं पूरी करेंगी। अब वह पढ़ेगी नहीं। जुलाई तक उसका निकाह हो जाएगा। कल रात की गाड़ी से जा रहे हैं ये लोग। वगैरह-वगैरह।''
बिनती बैठी-बैठी गेसू और फूल से बातें करती रही। थोड़ी देर बाद सुधा उठकर चली गयी। तुम जाना मत, आज खाना यहीं खाना, मैं बिनती को तुम्हारे पास भेज रही हूँ, उससे बातें करते रहना।''
थोड़ी देर बाद बिनती आयी। उसके हाथ में कुछ था जिसे वह अपने आँचल से छिपाये हुई थी। आयी और बोली, ''अब दीदी नहीं हैं, जल्दी से देख लीजिए।''
''क्या है?'' चन्दर ने ताज्जुब से पूछा।
''जीजाजी की फोटो।'' बिनती ने मुसकराकर कहा और एक छोटी-सी बहुत कलात्मक फोटो चन्दर के हाथ में रख दी।
''अरे यह तो मिश्र है। कॉमरेड कैलाश मिश्र।'' और चन्दर के दिमाग में बरेली की बातें, लाठी चार्ज...सभी कुछ घूम गया। चन्दर के मन में इस वक्त जाने कैसा-सा लग रहा था। कभी बड़ा अचरज होता, कभी एक सन्तोष होता कि चलो सुधा के भाग्य की रेखा उसे अच्छी जगह ले गयी, फिर कभी सोचता कि मिश्र इतना विचित्र स्वभाव का है, सुधा की उससे निभेगी या नहीं? फिर सोचता, नहीं सुधा भाग्यवान है। इतना अच्छा लड़का मिलना मुश्किल था।
''आप इन्हें जानते हैं?'' बिनती ने पूछा।
''हाँ, सुधा भी उन्हें नाम से जानती है शक्ल से नहीं। लेकिन अच्छा लड़का है, बहुत अच्छा लड़का।'' चन्दर ने एक गहरी साँस लेकर कहा और फिर चुप हो गया। बिनती बोली, ''क्या सोच रहे हैं आप?''
''कुछ नहीं।'' पलकों में आये हुए आँसू रोककर और होठों पर मुसकान लाने की कोशिश करते हुए बोला, ''मैं सोच रहा हूँ, आज कितना सन्तोष है मुझे, कितनी खुशी है मुझे, कि सुधा एक ऐसे घर जा रही है जो इतना अच्छा है, ऐसे लड़के के साथ जा रही है जो इतना ऊँचा''...कहते-कहते चन्दर की आँखें भर आयीं।
बिनती चन्दर के पास खड़ी होकर बोली, ''छिह, चन्दर बाबू! आपकी आँखों में आँसू! यह तो अच्छा नहीं लगता। जितनी पवित्रता और ऊँचाई से आपने सुधा के साथ निबाह किया है, यह तो शायद देवता भी नहीं कर पाते और दीदी ने आपको जैसा निश्छल प्यार दिया है उसको पाकर तो आदमी स्वर्ग से भी ऊँचा उठ जाता है, फौलाद से भी ज्यादा ताकतवर हो जाता है, फिर आज इतने शुभ अवसर पर आप में कमजोरी कहाँ से? हमें तो बड़ी शरम लग रही है। आज तक दीदी तो दूर, हम तक को आप पर गर्व था। अच्छा, मैं फोटो रख तो आऊँ वरना दीदी आ जाएँगी!'' बिनती ने फोटो ली और चली गयी।
बिनती जब लौटी तो चन्दर स्वस्थ था। बिनती की ओर क्षण भर चन्दर ने देखा और कहा, ''मैं इसलिए नहीं रोया था बिनती, मुझे यह लगा कि यहाँ कैसा लगेगा। खैर जाने दो।''
''एक दिन तो ऐसा होता ही है न, सहना पड़ेगा!'' बिनती बोली।
''हाँ, सो तो है; अच्छा बिनती, सुधा ने यह फोटो देखी है?'' चन्दर ने पूछा।
''अभी नहीं, असल में मामाजी ने मुझसे कहा था कि यह फोटो दिखा दे सुधा को; लेकिन मेरी हिम्मत नहीं पड़ी। मैंने उनसे कह दिया कि चन्दर आएँगे तो दिखा देंगे। आप जब ठीक समझें तो दिखा दें। जेठ दशहरा अगले ही मंगल को है।'' बिनती ने कहा।
''अच्छा।'' एक गहरी साँस लेकर चन्दर बोला।
बिनती थोड़ी देर तक चन्दर की ओर एकटक देखती रही। चन्दर ने उसकी निगाह चुरा ली और बोला, ''क्या देख रही हो, बिनती?''
''देख रही हूँ कि आपकी पलकें झपकती हैं या नहीं?'' बिनती बहुत गम्भीरता से बोली।
''क्यों?''
''इसलिए कि मैंने सुना था, देवताओं की पलकें कभी नहीं गिरतीं।''
चन्दर एक फीकी हँसी हँसकर रह गया।
''नहीं, आप मजाक न समझें। मैंने अपनी जिंदगी में जितने लोग देखे, उनमें आप-जैसा कोई भी नहीं मिला। कितने ऊँचे हैं आप, कितना विशाल हृदय है आपका! दीदी कितनी भाग्यशाली हैं।''
चन्दर ने कुछ जवाब नहीं दिया। ''जाओ, फोटो ले आओ।'' उसने कहा, ''आज ही दिखा दूँ। जाओ, खाना भी ले आओ। अब घर जाकर क्या करना है।''
पापा को खाना खिलाने के बाद चन्दर और सुधा खाने बैठे। महराजिन चली गयी थी। इसलिए बिनती सेंक-सेंककर रोटी दे रही थी। सुधा एक रेशमी सनिया पहने चौके के अन्दर खा रही थी। और चन्दर चौके के बाहर। सुबह के कच्चे खाने में डॉक्टर शुक्ला बहुत छूत-छात का विचार रखते थे।
''देखो, आज बिनती ने रोटी बनायी है तो कितनी मीठी लग रही है, एक तुम बनाती हो कि मालूम ही नहीं पड़ता रोटी है कि सोख्ता!'' चन्दर ने सुधा को चिढ़ाते हुए कहा।
सुधा ने हँसकर कहा, ''हमें बिनती से लड़ाने की कोशिश कर रहे हो! बिनती की हमसे जिंदगी-भर लड़ाई नहीं हो सकती!''
''अरे हम सब समझते हैं इनकी बात!'' बिनती ने रोटी पटकते हुए कहा और जब सुधा सिर झुकाकर खाने लगी तो बिनती ने आँख के इशारे से पूछा, ''कब दिखाओगे?''
चन्दर ने सिर हिलाया और फिर सुधा से बोला, ''तुम उन्हें चिट्ठी लिखोगी?''
''किन्हें?''
''कैलाश मिश्रा को, वही बरेली वाले? उन्होंने हमें खत लिखा था उसमें तुम्हें प्रणाम लिखा था।'' चन्दर बोला।
''नहीं, खत-वत नहीं लिखते। उन्हें एक दफे बुलाओ तो यहाँ।''
''हाँ, बुलाएँगे अब महीने-दो महीने बाद, तब तुमसे खूब परिचय करा देंगे और तुम्हें उसकी पार्टी में भी भरती करा देंगे।'' चन्दर ने कहा।
''क्या? हम मजाक नहीं करते? हम सचमुच समाजवादी दल में शामिल होंगे।'' सुधा बोली, ''अब हम सोचते हैं कुछ काम करना चाहिए, बहुत खेल-कूद लिये, बचपन निभा लिया।''
''उन्होंने अपना चित्र भेजा है। देखोगी?'' चन्दर ने जेब में हाथ डालते हुए पूछा।
''कहाँ?'' सुधा ने बहुत उत्सुकता से पूछा, ''निकालो देखें।''
''पहले बताओ, हमें क्या इनाम दोगी? बहुत मुश्किल से भेजा उन्होंने चित्र!'' चन्दर ने कहा।
''इनाम देंगे इन्हें!'' सुधा बोली और झट से झपटकर चित्र छीन लिया।
''अरे, छू लिया चौके में से?'' बिनती ने दबी जबान से कहा।
सुधा ने थाली छोड़ दी। अब छू गयी थी वह; अब खा नहीं सकती थी।
''अच्छी फोटो देखी दीदी। सामने की थाली छूट गयी!'' बिनती ने कहा।
सुधा ने हाथ धोकर आँचल के छोर से पकडक़र फोटो देखी और बोली, ''चन्दर, सचमुच देखो! कितने अच्छे लग रहे हैं। कितना तेज है चेहरे पर, और माथा देखो कितना ऊँचा है।'' सुधा फोटो देखती हुई बोली।
''अच्छी लगी फोटो? पसन्द है?'' चन्दर ने बहुत गम्भीरता से पूछा।
''हाँ, हाँ, और समाजवादियों की तरह नहीं लगते ये।'' सुधा बोली।
''अच्छा सुधा, यहाँ आओ।'' और चन्दर के साथ सुधा अपने कमरे में जाकर पलँग पर बैठ गयी। चन्दर उसके पास बैठ गया और उसका हाथ अपने हाथ में लेकर उसकी अँगूठी घुमाते हुए बोला, ''सुधा, एक बात कहें, मानोगी?''
''क्या?'' सुधा ने बहुत दुलार और भोलेपन से पूछा।
''पहले बता दो कि मानोगी?'' चन्दर ने उसकी अँगूठी की ओर एकटक देखते हुए कहा।
''फिर, हमने कभी कोई बात तुम्हारी टाली है! क्या बात है?''
''तुम मानोगी चाहे कुछ भी हो?'' चन्दर ने पूछा।
''हाँ-हाँ, कह तो दिया। अब कौन-सी तुम्हारी ऐसी बात है जो तुम्हारी सुधा नहीं मान सकती!'' आँखों में, वाणी में, अंग-अंग से सुधा के आत्मसमर्पण छलक रहा था।
''फिर अपनी बात पर कायम रहना, सुधा! देखो!'' उसने सुधा की उँगलियाँ अपनी पलकों से लगाते हुए कहा, ''सुधी मेरी! तुम उस लड़के से ब्याह कर लो!''
''क्या?'' सुधा चोट खायी नागिन की तरह तड़प उठी-''इस लड़के से? यही शकल है इसकी हमसे ब्याह करने की! चन्दर, हम ऐसा मजाक नापसन्द करते हैं, समझे कि नहीं! इसलिए बड़े प्यार से बुला लाये, बड़ा दुलार कर रहे थे!''
''तुम अभी वायदा कर चुकी हो!'' चन्दर ने बहुत आजिजी से कहा।
''वायदा कैसा? तुम कब अपने वायदे निभाते हो? और फिर यह धोखा देकर वायदा कराना क्या? हिम्मत थी तो साफ-साफ कहते हमसे! हमारे मन में आता सो कहते। हमें इस तरह से बाँध कर क्यों बलिदान चढ़ा रहे हो!'' और सुधा मारे गुस्से के रोने लगी।
चन्दर स्तब्ध। उसने इस दृश्य की कल्पना ही नहीं की थी। वह क्षण भर खड़ा रहा। वह क्या कहे सुधा से, कुछ समझ ही में नहीं आता था। वह गया और रोती हुई सुधा के कंधे पर हाथ रख दिया। ''हटो उधर!'' सुधा ने बहुत रुखाई से हाथ हटा दिया और आँचल से सिर ढकती हुई बोली, ''मैं ब्याह नहीं करूँगी, कभी नहीं करूँगी। किसी से नहीं करूँगी। तुम सभी लोगों ने मिलकर मुझे मार डालने की ठानी है। तो मैं अभी सिर पटककर मर जाऊँगी।'' और मारे तैश के सचमुच सुधा ने अपना सिर दीवार पर पटक दिया। ''अरे!'' दौडक़र चन्दर, ने सुधा को पकड़ लिया। मगर सुधा ने गरजकर कहा, ''दूर हटो चन्दर, छूना मत मुझे।'' और जैसे उसमें जाने कहाँ की ताकत आ गयी है, उसने अपने को छुड़ा लिया।
चन्दर ने दबी जबान से कहा, ''छिह सुधा! यह तुमसे उम्मीद नहीं थी मुझे। यह भावुकता तुम्हें शोभा नहीं देती। बातें कैसी कर रही हो तुम! हम वही चन्दर हैं न!''
''हाँ, वही चन्दर हो! और तभी तो! इस सारी दुनिया में तुम्हीं एक रह गये हो मुझे फोटो दिखाकर पसन्द कराने को।'' सुधा सिसक-सिसककर रोने लगी-''पापा ने भी धोखा दे दिया। हमें पापा से यह उम्मीद नहीं थी।''
''पगली! कौन अपनी लड़की को हमेशा अपने पास रख पाया है!'' चन्दर बोला।
प्यास बुझाई नौकर से Running....कीमत वसूल Running....3-महाकाली ....1-- जथूराcomplete ....2-पोतेबाबाcomplete
बन्धन
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दिल से दिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
तुफानो में साहिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
यूँ तो मिल जाता है हर कोई!
मगर आप जैसे दोस्त नसीब वालों को मिलते हैं!
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Jemsbond
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Re: गुनाहों का देवता-धर्मवीर भारती

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''तुम चुप रहो, चन्दर। हमें तुम्हारी बोली जहर लगती है। 'सुधा, यह फोटो तुम्हें पसन्द है?' तुम्हारी जबान हिली कैसे? शरम नहीं आयी तुम्हें। हम कितना मानते थे पापा को, कितना मानते थे तुम्हें? हमें यह नहीं मालूम था कि तुम लोग ऐसा करोगे।'' थोड़ी देर चुपचाप सिसकती रही सुधा और फिर धधककर उठी-''कहाँ है वह फोटो? लाओ, अभी मैं जाऊँगी पापा के पास! मैं कहूँगी उनसे हाँ, मैं इस लड़के को पसन्द करती हूँ। वह बहुत अच्छा है, बहुत सुन्दर है। लेकिन मैं उससे शादी नहीं करूँगी, मैं किसी से शादी नहीं करूँगी! झूठी बात है...'' और उठकर पापा के कमरे की ओर जाने लगी।
''खबरदार, जो कदम बढ़ाया!'' चन्दर ने डाँटकर कहा, ''बैठो इधर।''
''मैं नहीं रुकूँगी!'' सुधा ने अकडक़र कहा।
''नहीं रुकोगी?''
''नहीं रुकूँगी।''
और चन्दर का हाथ तैश में उठा और एक भरपूर तमाचा सुधा के गाल पर पड़ा। सुधा के गाल पर नीली उँगलियाँ उपट आयीं। वह स्तब्ध! जैसे पत्थर बन गयी हो। आँख में आँसू जम गये। पलकों में निगाहें जम गयीं। होठों में आवाजें जम गयीं और सीने में सिसकियाँ जम गयीं।
चन्दर ने एक बार सुधा की ओर देखा और कुर्सी पर जैसे गिर पड़ा और सिर पटककर बैठ गया। सुधा कुर्सी के पास जमीन पर बैठ गयी। चन्दर के घुटनों पर सिर रख दिया। बड़ी भारी आवाज में बोली, ''चन्दर, देखें तुम्हारे हाथ में चोट तो नहीं आयी।''
चन्दर ने सुधा की ओर देखा, एक ऐसी निगाह से जिसमें कब्र मुँह फाड़कर जमुहाई ले रही थी। सुधा एकाएक फिर सिसक पड़ी और चन्दर के पैरों पर सिर रखकर बोली, ''चन्दर, सचमुच मुझे अपने आश्रय से निकालकर ही मानोगे! चन्दर, मजाक की बात दूसरी है, जिंदगी में तो दुश्मनी मत निकाला करो।''
चन्दर एक गहरी साँस लेकर चुप हो गया। और सिर थामकर बैठ गया। पाँच मिनट बीत गये। कमरे में सन्नाटा, गहन खामोशी। सुधा चन्दर के पाँवों को छाती से चिपकाये सूनी-सूनी निगाहों से जाने कुछ देख रही थी दीवारों के पार, दिशाओं के पार, क्षितिजों से परे...दीवार पर घड़ी चल रही थी टिक...टिक...
चन्दर ने सिर उठाया और कहा, ''सुधा, हमारी तरफ देखो-'' सुधा ने सिर ऊपर उठाया। चन्दर बोला, ''सुधा, तुम हमें जाने क्या समझ रही होगी, लेकिन अगर तुम समझ पाती कि मैं क्या सोचता हूँ! क्या समझता हूँ।'' सुधा कुछ नहीं बोली, चन्दर कहता गया, ''मैं तुम्हारे मन को समझता हूँ, सुधा! तुम्हारे मन ने जो तुमसे नहीं कहा, वह मुझसे कह दिया था-लेकिन सुधा, हम दोनों एक-दूसरे की जिंदगी में क्या इसीलिए आये कि एक-दूसरे को कमजोर बना दें या हम लोगों ने स्वर्ग की ऊँचाइयों पर साथ बैठकर आत्मा का संगीत सुना सिर्फ इसीलिए कि उसे अपने ब्याह की शहनाई में बदल दें?''
''गलत मत समझो चन्दर, मैं गेसू नहीं कि अख्तर से ब्याह के सपने देखूँ और न तुम्हीं अख्तर हो, चन्दर! मैं जानती हूँ कि मैं तुम्हारे लिए राखी के सूत से भी ज्यादा पवित्र रही हूँ लेकिन मैं जैसी हूँ, मुझे वैसी ही क्यों नहीं रहने देते! मैं किसी से शादी नहीं करूँगी। मैं पापा के पास रहूँगी। शादी को मेरा मन नहीं कहता, मैं क्यों करूँ? तुम गुस्सा मत हो, दुखी मत हो, तुम आज्ञा दोगे तो मैं कुछ भी कर सकती हूँ, लेकिन हत्या करने से पहले यह तो देख लो कि मेरे हृदय में क्या है?'' सुधा ने चन्दर के पाँवों को अपने हृदय से और भी दबाकर कहा।
''सुधा, तुम एक बात सोचो। अगर तुम सबका प्यार बटोरती चलती हो तो कुछ तुम्हारी जिम्मेदारी है या नहीं? पापा ने आज तक तुम्हें किस तरह पाला। अब क्या तुम्हारा यह फर्ज है कि तुम उनकी बात को ठुकराओ? और एक बात और सोचो-हम पर कुछ विश्वास करके ही उन्होंने कहा है कि मैं तुमसे फोटो पसन्द कराऊँ? अगर अब तुम इनकार कर देती हो तो एक तरफ पापा को तुमसे धक्का पहुँचेगा, दूसरी ओर मेरे प्रति उनके विश्वास को कितनी चोट लगेगी। हम उन्हें क्या मुँह दिखाने लायक रहेंगे भला! तो तुम क्या चाहती हो? महज अपनी थोड़ी-सी भावुकता के पीछे तुम सभी की जिंदगी चौपट करने के लिए तैयार हो? यह तुम्हें शोभा नहीं देता है। क्या कहेंगे पापा, कि चन्दर ने अभी तक तुम्हें यही सिखाया था? हमें लोग क्या कहेंगे? बताओ। आज तुम शादी न करो। उसके बाद पापा हमेशा के लिए दु:खी रहा करें और दुनिया हमें कहा करे, तब तुम्हें अच्छा लगेगा?''
''नहीं।'' सुधा ने भर्राये हुए गले से कहा।
''तब, और फिर एक बात और है न सुधी! सोने की पहचान आग में होती है न! लपटों में अगर उसमें और निखार आये तभी वह सच्चा सोना है। सचमुच मैंने तुम्हारे व्यक्तित्व को बनाया है या तुमने मेरे व्यक्तित्व को बनाया है, यह तो तभी मालूम होगा जबकि हम लोग कठिनाइयों से, वेदनाओं से, संघर्षों से खेलें और बाद में विजयी हों और तभी मालूम होगा कि सचमुच मैंने तुम्हारे जीवन में प्रकाश और बल दिया था। अगर सदा तुम मेरी बाँहों की सीमा में रहीं और मैं तुम्हारी पलकों की छाँव में रहा और बाहर के संघर्षों से हम लोग डरते रहे तो कायरता है। और मुझे अच्छा लगेगा कि दुनिया कहे कि मेरी सुधा, जिस पर मुझे नाज था, वह कायर है? बोलो। तुम कायर कहलाना पसन्द करोगी?''
''हाँ!'' सुधा ने फिर चन्दर के घुटनों में मुँह छिपा लिया।
''क्या? यह मैं सुधा के मुँह से सुन रहा हूँ! छिह पगली! अभी तक तेरी निगाहों ने मेरे प्राणों में अमृत भरा है और मेरी साँसों ने तेरे पंखों में तूफानों की तेजी। और हमें-तुम्हें तो आज खुश होना चाहिए कि अब सामने जो रास्ता है उसमें हम लोगों को यह सिद्ध करने का अवसर मिलेगा कि सचमुच हम लोगों ने एक-दूसरे को ऊँचाई और पवित्रता दी है। मैंने आज तक तुम्हारी सहायता पर विश्वास किया था। आज क्या तुम मेरा विश्वास तोड़ दोगी? सुधा, इतनी क्रूर क्यों हो रही हो आज तुम? तुम साधारण लड़की नहीं हो। तुम ध्रुवतारा से ज्यादा प्रकाशमान हो। तुम यह क्यों चाहती हो कि दुनिया कहे, सुधा भी एक साधारण-सी भावुक लड़की थी और आज मैं अपने कान से सुनूँ! बोलो सुधी?'' चन्दर ने सुधा के सिर पर हाथ रखकर कहा।
सुधा ने आँखें उठायीं, बड़ी कातर निगाहों से चन्दर की ओर देखा और सिर झुका लिया। सुधा के सिर पर हाथ फेरते हुए चन्दर बोला-
''सुधा, मैं जानता हूँ मैं तुम पर शायद बहुत सख्ती कर रहा हूँ, लेकिन तुम्हारे सिवा और कौन है मेरा? बताओ। तुम्हीं पर अपना अधिकार भी आजमा सकता हूँ। विश्वास करो मुझ पर सुधा, जीवन में अलगाव, दूरी, दुख और पीड़ा आदमी को महान बना सकती है। भावुकता और सुख हमें ऊँचे नहीं उठाते। बताओ सुधा, तुम्हें क्या पसन्द है? मैं ऊँचा उठूँ तुम्हारे विश्वास के सहारे, तुम ऊँची उठो मेरे विश्वास के सहारे, इससे अच्छा और क्या है सुधा! चाहो तो मेरे जीवन को एक पवित्र साधन बना दो, चाहो तो एक छिछली अनुभूति।''
सुधा ने एक गहरी साँस ली, क्षण-भर घड़ी की ओर देखा और बोली, ''इतनी जल्दी क्या है अभी, चन्दर? तुम जो कहोगे मैं कर लूँगी!'' और फिर वह सिसकने लगी-''लेकिन इतनी जल्दी क्या हैï? अभी मुझे पढ़ लेने दो!''
''नहीं, इतना अच्छा लड़का फिर मिलेगा नहीं। और इस लड़के के साथ तुम वहाँ पढ़ भी सकती हो। मैं जानता हूँ उसे। वह देवताओं-सा निश्छल है। बोलो, मैं पापा से कह दूँ कि तुम्हें पसन्द है?''
सुधा कुछ नहीं बोली।
''मौन का मतलब हाँ है न?'' चन्दर ने पूछा।
सुधा ने कुछ नहीं कहा। झुककर चन्दर के पैरों को अपने होठों से छू लिया और पलकों से दो आँसू चू पड़े। चन्दर ने सुधा को उठा लिया और उसके माथे पर हाथ रखकर कहा, ''ईश्वर तुम्हारी आत्मा को सदा ऊँचा बनाएगा, सुधा!'' उसने एक गहरी साँस लेकर कहा, ''मुझे तुम पर गर्व है,'' और फोटो उठाकर बाहर चलने लगा।
''कहाँ जा रहे हो! जाओ मत!'' सुधा ने उसका कुरता पकडक़र बड़ी आजिजी से कहा, ''मेरे पास रहो, तबीयत घबराती है?''
चन्दर पलँग पर बैठ गया। सुधा तकिये पर सिर रखकर लेट गयी और फटी-फटी पथराई आँखों से जाने क्या देखने लगी। चन्दर भी चुप था, बिल्कुल खामोश। कमरे में सिर्फ घड़ी चल रही थी, टिक...टिक...
थोड़ी देर बाद सुधा ने चन्दर के पैरों को अपने तकिये के पास खींच लिया और उसके तलवों पर होठ रखकर उसमें मुँह छिपाकर चुपचाप लेटी रही। बिनती आयी। सुधा हिली भी नहीं! चन्दर ने देखा वह सो गयी थी। बिनती ने फोटो उठाकर इशारे से पूछा, ''मंजूर?'' ''हाँ।'' बिनती ने बजाय खुश होने के चन्दर की ओर देखकर सिर झुका लिया और चली गयी।
सुधा सो रही थी और चन्दर के तलवों में उसकी नरम क्वाँरी साँसें गूँज रही थीं। चन्दर बैठा रहा चुपचाप। उसकी हिम्मत न पड़ी कि वह हिले और सुधा की नींद तोड़ दे। थोड़ी देर बाद सुधा ने करवट बदली तो वह उठकर आँगन के सोफे पर जाकर लेट रहा और जाने क्या सोचता रहा।
जब उठा तो देखा धूप ढल गयी है और सुधा उसके सिरहाने बैठी उसे पंखा झल रही है। उसने सुधा की ओर एक अपराधी जैसी कातर निगाहों से देखा और सुधा ने बहुत दर्द से आँखें फेर लीं और ऊँचाइयों पर आखिरी साँसें लेती हुई मरणासन्न धूप की ओर देखने लगी।
चन्दर उठा और सोचने लगा तो सुधा बोली, ''कल आओगे कि नहीं?''
''क्यों नहीं आऊँगा?'' चन्दर बोला।
''मैंने सोचा शायद अभी से दूर होना चाहते हो।'' एक गहरी साँस लेकर सुधा बोली और पंखे की ओट में आँसू पोंछ लिये।
चन्दर दूसरे दिन सुबह नहीं गया। उसकी थीसिस का बहुत-सा भाग टाइप होकर आ गया था और उसे बैठा वह सुधार रहा था। लेकिन साथ ही पता नहीं क्यों उसका साहस नहीं हो रहा था वहाँ जाने का। लेकिन मन में एक चिन्ता थी सुधा की। वह कल से बिल्कुल मुरझा गयी थी। चन्दर को अपने ऊपर कभी-कभी क्रोध आता था। लेकिन वह जानता था कि यह तकलीफ का ही रास्ता ठीक रास्ता है। वह अपनी जिंदगी में सस्तेपन के खिलाफ था। लेकिन उसके लिए सुधा की पलक का एक आँसू भी देवता की तरह था और सुधा के फूलों-जैसे चेहरे पर उदासी की एक रेखा भी उसे पागल बना देती थी। सुबह पहले तो वह नहीं गया, बाद में स्वयं उसे पछतावा होने लगा और वह अधीरता से पाँच बजने का इन्तजार करने लगा।
पाँच बजे, और वह साइकिल लेकर पहुँचा। देखा, सुधा और बिनती दोनों नहीं हैं। अकेले डॉक्टर शुक्ला अपने कमरे में बैठे हैं। चन्दर गया। ''आओ, सुधा ने तुमसे कह दिया, उसे पसन्द है?'' डॉक्टर शुक्ला ने पूछा।
''हाँ, उसे कोई एतराज नहीं।'' चन्दर ने कहा।
''मैं पहले से जानता था। सुधा मेरी इतनी अच्छी है, इतनी सुशील है कि वह मेरी इच्छा का उल्लंघन तो कर ही नहीं सकती। लेकिन चन्दर, कल से उसने खाना-पीना छोड़ दिया है। बताओ, इससे क्या फायदा? मेरे बस में क्या है? मैं उसे हमेशा तो रख नहीं सकता। लेकिन, लेकिन आज सुबह खाते वक्त वह बैठी भी नहीं मेरे पास बताओ...'' उनका गला भर आया-''बताओ, मेरा क्या कसूर है?''
चन्दर चुप था।
''कहाँ है सुधा?'' चन्दर ने पूछा।
''गैरेज में मोटर ठीक कर रही है। मैं इतना मना किया कि धूप में तप जाओगी, लू लग जाएगी-लेकिन मानी ही नहीं! बताओ, इस झल्लाहट से मुझे कैसा लगता है?'' वृद्ध पिता के कातर स्वर में डॉक्टर ने कहा, ''जाओ चन्दर, तुम्हीं समझाओ! मैं क्या कहूँ?''
चन्दर उठकर गया। मोटर गैरेज में काफी गरमी थी, लेकिन बिनती वहीं एक चटाई बिछाये पड़ी सो रही थी और सुधा इंजन का कवर उठाये मोटर साफ करने में लगी हुई थी। बिनती बेहोश सो रही थी। तकिया चटाई से हटकर जमीन पर चला गया था और चोटी फर्श पर सोयी हुई नागिन की तरह पड़ी थी। बिनती का एक हाथ छाती पर था और एक हाथ जमीन पर। आँचल, आँचल न रहकर चादर बन गया था। चन्दर के जाते ही सुधा ने मुँह फेरकर देखा-''चन्दर, आओ।'' क्षीण मुसकराहट उसके होठों पर दौड़ गयी। लेकिन इस मुसकराहट में उल्लास लुट चुका था, रेखाएँ बाकी थीं। सहसा उसने मुडक़र देखा-''बिनती! अरे, कैसे घोड़ा बेचकर सो रही है! उठ! चन्दर आये हैं!'' बिनती ने आँखें खोलीं, चन्दर की ओर देखा, लेटे-ही-लेटे नमस्ते किया और आँचल सँभालकर फिर करवट बदलकर सो गयी।
''बहुत सोती है कम्बख्त!'' सुधा बोली, ''इतना कहा इससे कमरे में जाकर पंखे में सो! लेकिन नहीं, जहाँ दीदी रहेगी, वहीं यह भी रहेगी। मैं गैरेज में हूँ तो यह कैसे कमरे में रहे। वहीं मरेगी जहाँ मैं मरूँगी।''
''तो तुम्हीं क्यों गैरेज में थीं! ऐसी क्या जरूरत थी अभी ठीक करने की!'' चन्दर ने कहा, लेकिन कोशिश करने पर भी सुधा को आज डाँट नहीं पा रहा था। पता नहीं कहाँ पर क्या टूट गया था।
''नहीं चन्दर, तबीयत ही नहीं लग रही थी। क्या करती! क्रोसिया उठायी, वह भी रख दिया। कविता उठायी, वह भी रख दी। कविता वगैरह में तबीयत नहीं लगी। मन में आया, कोई कठोर काम हो, कोई नीरस काम हो लोहे-लक्कड़, पीतल-फौलाद का, तो मन लग जाए। तो चली आयी मोटर ठीक करने।''
''क्यों, कविता में भी तबीयत नहीं लगी? ताज्जुब है, गेसू के साथ बैठकर तुम तो कविता में घंटों गुजार देती थीं!'' चन्दर बोला।
''उन दिनों शायद किसी को प्यार करती रही होऊँ तभी कविता में मन लगता था!'' सुधा उस दिन की पुरानी बात याद करके बहुत उदास हँसी हँसी-''अब प्यार नहीं करती होऊँगी, अब तबीयत नहीं लगती। बड़ी फीकी, बड़ी बेजार, बड़ी बनावटी लगती हैं ये कविताएँ, मन के दर्द के आगे सभी फीकी हैं।'' और फिर वह उन्हीं पुरजों में डूब गयी। चन्दर भी चुपचाप मोटर की खिडक़ी से टिककर खड़ा हो गया। और चुपचाप कुछ सोचने लगा।
सुधा ने बिना सिर उठाये, झुके-ही-झुके, एक हाथ से एक तार लपेटते हुए कहा-
''चन्दर, तुम्हारे मित्र का परिवार आ रहा है, इसी मंगल को। तैयारी करो जल्दी।''
''कौन परिवार, सुधा?''
''हमारे जेठ और सास आ रही हैं, इसी बैसाखी को हमें देखने। उन्होंने तिथि बदल दी है। तो अब छह ही दिन रह गये हैं।''
चन्दर कुछ नहीं बोला। थोड़ी देर बाद सुधा फिर बोली-
''अगर उचित समझो तो कुछ पाउडर-क्रीम ले आना, लगाकर जरा गोरे हो जाएँ तो शायद पसन्द आ जाएँ! क्यों, ठीक है न!'' सुधा ने बड़ी विचित्र-सी हँसी हँस दी और सिर उठाकर चन्दर की ओर देखा। चन्दर चुप था लेकिन उसकी आँखों में अजीब-सी पीड़ा थी और उसके माथे पर बहुत ही करुण छाँह।
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Re: गुनाहों का देवता-धर्मवीर भारती

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सुधा ने कवर गिरा दिया और चन्दर के पास जाकर बोली, ''क्यों चन्दर, बुरा मान गये हमारी बात का? क्या करें चन्दर, कल से हम मजाक करना भी भूल गये। मजाक करते हैं तो व्यंग्य बन जाता है। लेकिन हम तुमको कुछ कह नहीं रहे थे, चन्दर। उदास न होओ।'' बड़े ही दुलार से सुधा बोली, ''अच्छा, हम कुछ नहीं कहेंगे।'' और उसने अपना आँचल सँभालने के लिए हाथ उठाया। हाथ में कालौंच लग गयी थी। चन्दर समझा मेरे कन्धे पर हाथ रख रही है सुधा। वह अलग हटा तो सुधा अपने हाथ देखकर बोली, ''घबराओ न देवता, तुम्हारी उज्ज्वल साधना में कालिख नहीं लगाऊँगी। अपने आँचल में पोंछ लूँगी।'' और सचमुच आँचल में हाथ पोंछकर बोली, ''चलो, अन्दर चलें, उठ बिनती! बिलैया कहीं की!''
चन्दर को सोफे पर बिठाकर उसी की बगल में सुधा बैठ गयी और अँगुलियाँ तोड़ते हुए कहा, ''चन्दर, सिर में बहुत दर्द हो रहा है मेरे।''
''सिर में दर्द नहीं होगा तो क्या? इतनी तपिश में मोटर बना रही थीं! पापा कितने दुखी हो रहे थे आज? तुम्हें इस तरह करना चाहिए? फिर फायदा क्या हुआ? न ऐसे दु:खी किया, वैसे दु:खी कर लिया। बात तो वही रही न? तारीफ तो तब थी कि तुम अपनी दुनिया में अपने हाथ से आग लगा देती और चेहरे पर शिकन न आती। अभी तक दुनिया की सभी ऊँचाई समेटकर भी बाहर से वही बचपन कायम रखा था तुमने, अब दुनिया का सारा सुख अपने हाथ से लुटाने पर भी वही बचपन, वही उल्लास क्यों नहीं कायम रखती!''
''बचपन!'' सुधा हँसी-''बचपन अब खत्म हो गया, चन्दर! अब मैं बड़ी हो गयी।''
''बड़ी हो गयी! कब से?''
''कल दोपहर से, चन्दर!''
चन्दर चुप। थोड़ी देर बाद फिर स्वयं सुधा ही बोली, ''नहीं चन्दर, दो-तीन दिन में ठीक हो जाऊँगी! तुम घबराओ मत। मैं मृत्यु-शैय्या पर भी होऊँगी तो तुम्हारे आदेश पर हँस सकती हूँ।'' और फिर सुधा गुमसुम बैठ गयी। चन्दर चुपचाप सोचता रहा और बोला, ''सुधी! मेरा तुम्हें कुछ भी ध्यान नहीं है?''
''और किसका है, चन्दर! तुम्हारा ध्यान न होता तो देखती मुझे कौन झुका सकता था। आज से सालों पहले जब मैं पापा के पास आयी थी तो मैंने कभी न सोचा था कि कोई भी होगा जिसके सामने मैं इतना झुक जाऊँगी।...अच्छा चन्दर, मन बहुत उचट रहा है! चलो, कहीं घूम आएँ! चलोगे?''
''चलो!'' चन्दर ने कहा।
''जाएँ बिनती को जगा लाएँ। वह कमबख्त अभी पड़ी सो रही है।'' सुधा उठकर चली गयी। थोड़ी देर में बिनती आँख मलते बगल में चटाई दाबे आयी और फिर बरामदे में बैठकर ऊँघने लगी। पीछे-पीछे सुधा आयी और चोटी खींचकर बोली, ''चल तैयार हो! चलेंगे घूमने।''
थोड़ी देर में तैयार हो गये। सुधा ने जाकर मोटर निकाली और बोली चन्दर से-''तुम चलाओगे या हम? आज हमीं चलाएँ। चलो, किसी पेड़ से लड़ा दें मोटर आज!''
''अरे बाप रे।'' पीछे बिनती चिल्लायी, ''तब हम नहीं जाएँगे।''
सुधा और चन्दर दोनों ने मुडक़र उसे देखा और उसकी घबराहट देखकर दंग रह गये।
''नहीं। मरेगी नहीं तू!'' सुधा ने कहा। और आगे बैठ गयी।
''बिनती, तू पीछे बैठेगी?'' सुधा ने पूछा।
''न भइया, मोटर चलेगी तो मैं गिर जाऊँगी।''
''अरे कोई मोटर के पीछे बैठने के लिए थोड़ी कह रही हूँ। पीछे की सीट पर बैठेगी?'' सुधा ने पूछा।
''ओ! मैं समझी तुम कह रही हो पीछे बैठने के लिए जैसी बग्घी में साईस बैठते हैं! हम तुम्हारे पास बैठेंगे।'' बिनती ने मचलकर कहा।
''अब तेरा बचपन इठला रहा है, बिल्ली कहीं की, चल आ मेरे पास!'' बिनती मुसकराती हुई जाकर सुधा के बगल में बैठ गयी। सुधा ने उसे दुलार से पास खींच लिया। चन्दर पीछे बैठा तो सुधा बोली, ''अगर कुछ हर्ज न समझो तो तुम भी आगे आ जाओ या दूरी रखनी हो तो पीछे ही बैठो।''
चन्दर आगे बैठ गया। बीच में बिनती, इधर चन्दर उधर सुधा।
मोटर चली तो बिनती चीखी, ''अरे मेरे मास्टर साहब!''
चन्दर ने देखा, बिसरिया चला जा रहा था, ''आज नहीं पढ़ेंगे...'' चन्दर ने चिल्लाकर कहा। सुधा ने मोटर रोकी नहीं।
चन्दर को बेहद अचरज हुआ जब उसने देखा कि मोटर पम्मी के बँगले पर रुकी। ''अरे यहाँ क्यों?'' चन्दर ने पूछा।
''यों ही।'' सुधा ने कहा। ''आज मन हुआ कि मिस पम्मी से अँगरेजी कविता सुनें।''
''क्यों, अभी तो तुम कह रही थीं कि कविता पढऩे में आज तुम्हारा मन ही नहीं लग रहा है!''
''कुछ कहो मत चन्दर, आज मुझे जो मन में आये, कर लेने दो। मेरा सिर बेहद दर्द कर रहा है। और मैं कुछ समझ नहीं पाती क्या करूँ। चन्दर तुमने अच्छा नहीं किया?''
चन्दर कुछ नहीं बोला। चुपचाप आगे चल दिया। सुधा के पीछे-पीछे कुछ संकोच करती हुई-सी बिनती आ रही थी।
पम्मी बैठी कुछ लिख रही थी। उसने उठकर सबों का स्वागत किया। वह कोच पर बैठ गयी। दूसरी पर सुधा, चन्दर और बिनती। सुधा ने बिनती का परिचय पम्मी से कराया और पम्मी ने बिनती से हाथ मिलाया तो बिनती जाने क्यों चन्दर की ओर देखकर हँस पड़ी। शायद उस दिन की घटना की याद में।
सहसा सुधा को जाने क्या खयाल आ गया, बिनती की शरारत-भरी हँसी देखकर कि उसने फौरन कहा चन्दर से-''चन्दर, तुम पम्मी के पास बैठो, दो मित्रों को साथ बैठना चाहिए।''
''हाँ, और खास तौर से जब वह कभी-कभी मिलते हों।''-बिनती ने मुसकराते हुए जोड़ दिया। पम्मी ने मजाक समझ लिया और बिना शरमाये बोली-
''हम लोगों को मध्यस्थ की जरूरत नहीं, धन्यवाद! आओ चन्दर, यहाँ आओ।'' पम्मी ने चन्दर को बुलाया। चन्दर उठकर पम्मी के पास बैठ गया। थोड़ी देर तक बातें होती रहीं। मालूम हुआ, बर्टी अपने एक दोस्त के साथ तराई के पास शिकार खेलने गया है। आजकल वह दिल की शक्ल का एक पाननुमा दफ्ती का टुकड़ा काटकर उसमें गोली मारा करता है और जब किसी चिड़िया वगैरह को मारता है तो शिकार को उठाकर देखता है कि गोली हृदय में लगी है या नहीं। स्वास्थ्य उसका सुधर रहा है। सुधा कोच पर सिर टेके उदास बैठी थी। सहसा पम्मी ने बिनती से कहा, ''आपको पहली दफे देखा मैंने। आप बातें क्यों नहीं करतीं?''
बिनती ने झेंपकर मुँह झुका लिया। बड़ी विचित्र लड़की थी। हमेशा चुप रहती थी और कभी-कभी बोलने की लहर आती तो गुटरगूँ करके घर गुँजा देती थी और जिन दिनों चुप रहती थी उन दिनों ज्यादातर आँख की निगाह, कपोलों की आशनाई या अधरों की मुसकान के द्वारा बातें करती थी। पम्मी बोली, ''आपको फूलों से शौक है?''
''हाँ, हाँ'' बिनती सिर हिलाकर बोली।
''चन्दर, इन्हें जाकर गुलाब दिखा लाओ। इधर फिर खूब खिले हैं!''
बिनती ने सुधा से कहा, ''चलो दीदी।'' और चन्दर के साथ बढ़ गयी।
फूलों के बीच में पहुँचकर, बिनती ने चन्दर से कहा, ''सुनिए, दीदी को तो जाने क्या होता जा रहा है। बताइए, ऐसे क्या होगा?''
''मैं खुद परेशान हूँ, बिनती! लेकिन पता नहीं कहाँ मन में कौन-सा विश्वास है जो कहता है कि नहीं, सुधा अपने को सँभालना जानती है, अपने मन को सन्तुलित करना जानती है और सुधा सचमुच ही त्याग में ज्यादा गौरवमयी हो सकती है।'' इसके बाद चन्दर ने बात टाल दी। वह बिनती से ज्यादा बात करना नहीं चाहता था, सुधा के बारे में।
बिनती ने चन्दर को मौन देखा तो बोली, ''एक बात कहें आपसे? मानिएगा!''
''क्या?''
''अगर हमसे कभी कोई अनधिकार चेष्टा हो जाए तो क्षमा कर दीजिएगा, लेकिन आप और दीदी दोनों मुझे इतना चाहते हैं कि हम समझ नहीं पाते कि व्यवहारों को कहाँ सीमित रखूँ!'' बिनती ने सिर झुकाये एक फूल को नोचते हुए कहा।
चन्दर ने उसकी ओर देखा, क्षण-भर चुप रहा, फिर बोला, ''नहीं बिनती, जब सुधा तुम्हें इतना चाहती है तो तुम हमेशा मुझ पर उतना ही अधिकार समझना जितना सुधा पर।''
उधर पम्मी ने चन्दर के जाते ही सुधा से कहा, ''क्या आपकी तबीयत खराब है?''
''नहीं तो।''
''आज आप बहुत पीली नजर आती हैं!'' पम्मी ने पूछा।
''हाँ, कुछ मन नहीं लग रहा था तो मैं आपके पास चली आयी कि आपसे कुछ कविताएँ सुनूँ, अँगरेजी की। दोपहर को मैंने कविता पढऩे की कोशिश की तो तबीयत नहीं लगी और शाम को लगा कि अगर कविता नहीं सुनूँगी तो सिर फट जाएगा।'' सुधा बोली।
''आपके मन में कुछ संघर्ष मालूम पड़ता है, या शायद...एक बात पूछूँ आपसे?''
''क्या, पूछिए?''
''आप बुरा तो नहीं मानेंगी?''
''नहीं, बुरा क्यों मानूँगी?''
''आप कपूर को प्यार तो नहीं करतीं? उससे विवाह तो नहीं करना चाहतीं?''
''छिह, मिस पम्मी, आप कैसी बातें कर रही हैं। उसका मेरे जीवन में कोई ऐसा स्थान नहीं। छिह, आपकी बात सुनकर शरीर में काँटे उठ आते हैं। मैं और चन्दर से विवाह करूँगी! इतनी घिनौनी बात तो मैंने कभी नहीं सुनी!''
''माफ कीजिएगा, मैंने यों ही पूछा था। क्या चन्दर किसी को प्यार करता है?''
''नहीं, बिल्कुल नहीं!'' सुधा ने उतने ही विश्वास से कहा जितने विश्वास से उसने अपने बारे में कहा था।
इतने में चन्दर और बिनती आ गये। सुधा बोली अधीरता से, ''मेरा एक-एक क्षण कटना मुश्किल हो रहा है, आप शुरू कीजिए कुछ गाना!''
''कपूर, क्या सुनोगे?'' पम्मी ने कहा।
''अपने मन से सुनाओ! चलो, सुधा ने कहा तो कविता सुनने को मिली!''
पम्मी ने आलमारी से एक किताब उठायी और एक कविता गाना शुरू की-अपनी हेयर पिन निकालकर मेज पर रख दी और उसके बाल मचलने लगे। चन्दर के कन्धे से वह टिककर बैठ गयी और किताब चन्दर की गोद में रख दी। बिनती मुसकरायी तो सुधा ने आँख के इशारे से मना कर दिया। पम्मी ने गाना शुरू किया, लेडी नार्टन का एक गीत-
मैं तुम्हें प्यार नहीं करती हूँ न! मैं तुम्हें प्यार नहीं करती हूँ।
फिर भी मैं उदास रहती हूँ जब तुम पास नहीं होते हो!
और मैं उस चमकदार नीले आकाश से भी ईष्र्या करती हूँ
जिसके नीचे तुम खड़े होगे और जिसके सितारे तुम्हें देख सकते हैं...''
चन्दर ने पम्मी की ओर देखा। सुधा ने अपने ही वक्ष में अपना सिर छुपा लिया। पम्मी ने एक पद समाप्त कर एक गहरी साँस ली और फिर शुरू किया-
''मैं तुम्हें प्यार नहीं करती हूँ-फिर भी तुम्हारी बोलती हुई आँखें;
जिनकी नीलिमा में गहराई, चमक और अभिव्यक्ति है-
मेरी निर्निमेष पलकों और जागते अर्धरात्रि के आकाश में नाच जाती हैं!
और किसी की आँखों के बारे में ऐसा नहीं होता...''
सुधा ने बिनती को अपने पास खींच लिया और उसके कन्धे पर सिर टेककर बैठ गयी। पम्मी गाती गयी-
''न मुझे मालूम है कि मैं तुम्हें प्यार नहीं करती हूँ, लेकिन फिर भी,
कोई शायद मेरे साफ दिल पर विश्वास नहीं करेगा।
और अकसर मैंने देखा है, कि लोग मुझे देखकर मुसकरा देते हैं
क्योंकि मैं उधर एकटक देखती हूँ, जिधर से तुम आया करते हो!''
गीत का स्वर बड़े स्वाभाविक ढंग से उठा, लहराने लगा, काँप उठा और फिर धीरे-धीरे एक करुण सिसकती हुई लय में डूब गया। गीत खत्म हुआ तो सुधा का सिर बिनती के कंधे पर था और चन्दर का हाथ पम्मी के कन्धे पर। चन्दर थोड़ी देर सुधा की ओर देखता रहा फिर पम्मी की एक हल्की सुनहरी लट से खेलते हुए बोला, ''पम्मी, तुम बहुत अच्छा गाती हो!''
''अच्छा? आश्चर्यजनक! कहो चन्दर, पम्मी इतनी अच्छी है यह तुमने कभी नहीं बताया था, हमें फिर कभी सुनाइएगा?''
''हाँ, हाँ मिस शुक्ला! काश कि बजाय लेडी नार्टन के यह गीत आपने लिखा होता!''
सुधा घबरा गयी, ''चलो। चन्दर, चलें अब! चलो।'' उसने चन्दर का हाथ पकडक़र खींच लिया-''मिस पम्मी, अब फिर कभी आएँगे। आज मेरा मन ठीक नहीं है।''
चन्दर ड्राइव करने लगा। बिनती बोली, ''हमें आगे हवा लगती है, हम पीछे बैठेंगे।''
कार चली तो सुधा बोली, ''अब मन कुछ शान्त है, चन्दर। इसके पहले तो मन में कैसे तूफान आपस में लड़ रहे थे, कुछ समझ में नहीं आता। अब तूफान बीत गये। तूफान के बाद की खामोश उदासी है।'' सुधा ने गहरी साँस ली, ''आज जाने क्यों बदन टूट रहा है।'' बैठे ही बैठे बदन उमेठते हुए कहा।
दूसरे दिन चन्दर गया तो सुधा को बुखार आ गया था। अंग-अंग जैसे टूट रहा हो और आँखों में ऐसी तीखी जलन कि मानो किसी ने अंगारे भर दिये हों। रात-भर वह बेचैन रही, आधी पागल-सी रही। उसने तकिया, चादर, पानी का गिलास सभी उठाकर फेंक दिया, बिनती को कभी बुलाकर पास बिठा लेती, कभी उसे दूर ढकेल देती। डॉक्टर साहब परेशान, रात-भर सुधा के पास बैठे, कभी उसका माथा, कभी उसके तलवों में बर्फ मलते रहे। डॉक्टर घोष ने बताया यह कल की गरमी का असर है। बिनती ने एक बार पूछा, ''चन्दर को बुलवा दें?'' तो सुधा ने कहा, ''नहीं, मैं मर जाऊँ तो! मेरे जीते जी नहीं!'' बिनती ने ड्राइवर से कहा, ''चन्दर को बुला लाओ।'' तो सुधा ने बिगडक़र कहा, ''क्यों तुम सब लोग मेरी जान लेने पर तुले हो?'' और उसके बाद कमजोरी से हाँफने लगी। ड्राइवर चन्दर को बुलाने नहीं गया।
जब चन्दर पहुँचा तो डॉक्टर साहब रात-भर के जागरण के बाद उठकर नहाने-धोने जा रहे थे। ''पता नहीं सुधा को क्या हो गया कल से! इस वक्त तो कुछ शान्त है पर रात-भर बुखार और बेहद बेचैनी रही है। और एक ही दिन में इतनी चिड़चिड़ी हो गयी है कि बस...'' डॉक्टर साहब ने चन्दर को देखते ही कहा।
चन्दर जब कमरे में पहुँचा तो देखा कि सुधा आँख बन्द किये हुए लेटी है और बिनती उसके सिर पर आइस-बैग रखे हुए है। सुधा का चेहरा पीला पड़ गया है और मुँह पर जाने कितनी ही रेखाओं की उलझन है, आँखें बन्द हैं और पलकों के नीचे से अँगारों की आँच छनकर आ रही है। चन्दर की आहट पाते ही सुधा ने आँखें खोलीं। अजब-सी आग्नेय निगाहों से चन्दर की ओर देखा और बिनती से बोली, ''बिनती, इनसे कह दो जाएँ यहाँ से।''
बिनती स्तब्ध, चन्दर नहीं समझा, पास आकर बैठ गया, बोला, ''सुधा, क्यों, पड़ गयी न, मैंने कहा था कि गैरेज में मोटर साफ मत करो। परसों इतना रोयी, सिर पटका, कल धूप खायी। आज पड़ रही! कैसी तबीयत है?''
सुधा उधर खिसक गयी और अपने कपड़े समेट लिये, जैसे चन्दर की छाँह से भी बचना चाहती है और तेज, कड़वी और हाँफती हुई आवाज में बोली, ''बिनती, इनसे कह दो जाएँ यहाँ से।''
चन्दर चुप हो गया और एकटक सुधा की ओर देखने लगा और सुधा की बात ने जैसे चन्दर का मन मरोड़ दिया। कितनी गैरियत से बात कर रही है सुधा! सुधा, जो उसके अपने व्यक्तित्व से ज्यादा अपनी थी, आज किस स्वर में बोल रही है! ''सुधी, क्या हुआ तुम्हें?'' चन्दर ने बहुत आहत हो बहुत दुलार-भरी आवाज में पूछा।
''मैं कहती हूँ जाओगे नहीं तुम?'' फुफकारकर सुधा बोली, ''कौन हो तुम मेरी बीमारी पर सहानुभूति प्रकट करने वाले? मेरी कुशल पूछने वाले? मैं बीमार हूँ, मैं मर रही हूँ, तुमसे मतलब? तुम कौन हो? मेरे भाई हो? मेरे पिता हो? कल अपने मित्र के यहाँ मेरा अपमान कराने ले गये थे!'' सुधा हाँफने लगी।
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Re: गुनाहों का देवता-धर्मवीर भारती

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''अपमान! किसने तुम्हारा अपमान किया, सुधा? पम्मी ने तो कुछ भी नहीं कहा? तुम पागल तो नहीं हो गयीं?'' चन्दर ने सुधा के पैरों पर हाथ रखते हुए कहा।
''पागल हो नहीं गयी तो हो जाऊँगी!'' उसने पैर हटा लिये, ''तुम, पम्मी, गेसू, पापा डॉक्टर सब लोग मिलकर मुझे पागल कर दोगे। पापा कहते है ब्याह करो, पम्मी कहती है मत करो, गेसू कहती है तुम प्यार करती हो और तुम...तुम कुछ भी नहीं कहते। तुम मुझे इस नरक में बरसों से सुलगते देख रहे हो और बजाय इसके कि तुम कुछ कहो, तुमने मुझे खुद इस भट्टी में ढकेल दिया!...चन्दर, मैं पागल हूँ, मैं क्या करूँ?'' सुधा बड़े कातर स्वर में बोली। चन्दर चुप था। सिर्फ सिर झुकाये, हाथों पर माथा रखे बैठा था। सुधा थोड़ी देर हाँफती रही। फिर बोली-
''तुम्हें क्या हक था कल पम्मी के यहाँ ले जाने का? उसने क्यों कल गीत में कहा कि मैं तुम्हें प्यार करती हूँ?'' सुधा बोली। चन्दर ने बिनती की ओर देखा-''क्यों बिनती? बिनती से मैं कुछ नहीं छिपाता!'' ''क्यों पम्मी ने कल कहा, मैं तुम्हें प्यार नहीं करती! मेरा मन मुझे धोखा नहीं दे सकता। मैं तुमसे सिर्फ जाने क्या करती हूँ...फिर पम्मी ने कल ऐसी बात क्यों कही? मेरे रोम-रोम में जाने कौन-सा ज्वालामुखी धधक उठता है ऐसी बातें सुनकर? तुम क्यों पम्मी के यहाँ ले गये?''
''तुम खुद गयी थीं, सुधा!'' चन्दर बोला।
''तो तुम रोक नहीं सकते थे! तुम कह देते मत जाओ तो मैं कभी जा सकती थी? तुमने क्यों नहीं रोका? तुम हाथ पकड़ लेते। तुम डाँट देते। तुमने क्यों नहीं डाँटा? एक ही दिन में मैं तुम्हारी गैर हो गयी? गैर हूँ तो फिर क्यों आये हो? जाओ यहाँ से। मैं कहती हूँ; जाओ यहाँ से?'' दाँत पीसकर सुधा बोली।
''सुधा...''
''मैं तुम्हारी बोली नहीं सुनना चाहती। जाते हो कि नहीं...'' और सुधा ने अपने माथे पर से उठाकर आइस-बैग फेंक दिया। बिनती चौंक उठी। चन्दर चौंक उठा। उसने मुडक़र सुधा की ओर देखा। सुधा का चेहरा डरावना लग रहा था। उसका मन रो आया। वह उठा, क्षण-भर सुधा की ओर देखता रहा और धीरे-धीरे कमरे से बाहर चला गया।
बरामदे के सोफे पर आकर सिर झुकाकर बैठ गया और सोचने लगा, यह सुधा को क्या हो गया? परसों शाम को वह इसी सोफे पर सोया था, सुधा बैठी पंखा झल रही थी। कल शाम को वह हँस रही थी, लगता था तूफान शान्त हो गया पर यह क्या? अन्तर्द्वंद्व ने यह रूप कैसे ले लिया?
और क्यों ले लिया? जब वह अपने मन को शान्त रख सकता है, जब वह सभी कुछ हँसते-हँसते बरदाश्त कर सकता है तो सुधा क्यों नहीं कर सकती? उसने आज तक अपनी साँसों से सुधा का निर्माण किया है। सुधा को तिल-तिल बनाया, सजाया, सँवारा है फिर सुधा में यह कमजोरी क्यों?
क्या उसने यह रास्ता अख्तियार करके भूल की? क्या सुधा भी एक साधारण-सी लड़की है जिसके प्रेम और घृणा का स्तर उतना ही साधारण है? माना उसने अपने दोनों के लिए एक ऐसा रास्ता अपनाया है जो विलक्षण है लेकिन इससे क्या! सुधा और वह दोनों ही क्या विलक्षण नहीं हैं? फिर सुधा क्यों बिखर रही है? लड़कियाँ भावना की ही बनी होती हैं? साधना उन्हें आती ही नहीं क्या? उसने सुधा का गलत मूल्यांकन किया था? क्या सुधा इस 'तलवार की धार' पर चलने में असमर्थ साबित होगी? यह तो चन्दर की हार थी।
और फिर सुधा ऐसी ही रही तो चन्दर? सुधा चन्दर की आत्मा है; इसे अब चन्दर खूब अच्छी तरह पहचान गया। तो क्या अपनी ही आत्मा को घोंट डालने की हत्या का पाप चन्दर के सिर पर है?
तो क्या त्याग मात्र नाम ही है? क्या पुरुष और नारी के सम्बन्ध का एक ही रास्ता है-प्रणय, विवाह और तृप्ति! पवित्रता, त्याग और दूरी क्या सम्बन्धों को, विश्वासों को जिन्दा नहीं रहने दे सकते? तो फिर सुधा और पम्मी में क्या अन्तर है? क्या सुधा के हृदय के इतने समीप रहकर, सुधा के व्यक्तित्व में घुल-मिलकर और आज सुधा को इतने अन्तर पर डालकर चन्दर पाप कर रहा है? तो क्या फूल को तोड़कर अपने ही बटन होल में लगा लेना ही पुण्य है और दूसरा रास्ता गर्हित है? विनाशकारी है? क्यों उसने सुधा का व्यक्तित्व तोड़ दिया है?
किसी ने उसके कन्धे पर हाथ रखा। विचार-शृंखला टूट गयी...बिनती थी। ''क्या सोच रहे हैं आप?'' बिनती ने पूछा, बहुत स्नेह से।
''कुछ नहीं!''
''नहीं बताइएगा? हम नहीं जान सकते?'' बिनती के स्वर में ऐसा आग्रह, ऐसा अपनापन, ऐसी निश्छलता रहती थी कि चन्दर अपने को कभी नहीं रोक पाता था। छिपा नहीं पाता था।
''कुछ नहीं बिनती! तुम कहती हो, सुधा को इतने अन्तर पर मैंने रखा तो मैं देवता हूँ! सुधा कहती है, मैंने अन्तर पर रखा, मैंने पाप किया! जाने क्या किया है मैंने? क्या मुझे कम तकलीफ है? मेरा जीवन आजकल किस तरह घायल हो गया है, मैं जानता हूँ। एक पल मुझे आराम नहीं मिलता। क्या उतनी सजा काफी नहीं थी जो सुधा को भी किस्मत यह दण्ड दे रही है? मुझी को सभी बचैनी और दु:ख मिल जाता। सुधा को मेरे पाप का दण्ड क्यों मिल रहा है? बिनती, तुमसे अब कुछ नहीं छिपा। जिसको मैं अपनी साँसों में दुबकाकर इन्द्रधनुष के लोक तक ले गया, आज हवा के झोंके उसे बादलों की ऊँचाई से क्यों ढकेल देना चाहते हैं? और मैं कुछ भी नहीं कर सकता?'' इतनी देर बाद बिनती के ममता-भरे स्पर्श में चन्दर की आँखें छलछला आयीं।
''छिह, आप समझदार हैं! दीदी ठीक हो जाएँगी! घबराने से काम नहीं चलेगा न! आपको हमारी कसम है। उदास मत होइए। कुछ सोचिए मत। दीदी बीमार हैं, आप इस तरह से करेंगे तो कैसे काम चलेगा! उठिए, दीदी बुला रही हैं।''
चन्दर गया। सुधा ने इशारे से पास बुलाकर बिठा लिया। ''चन्दर, हमारा दिमाग ठीक नहीं है। बैठ जाओ लेकिन कुछ बोलना मत, बैठे रहो।''
उसके बाद दिन भर अजब-सा गुजरा। जब-जब चन्दर ने उठने की कोशिश की, सुधा ने उसे खींचकर बिठा लिया। घर तो उसे जाने ही नहीं दिया। बिनती वहीं खाना ले आयी। सुधा कभी चन्दर की ओर देख लेती। फिर तकिये में मुँह गड़ा लेती। बोली एक शब्द भी नहीं, लेकिन उसकी आँखों में अजब-सी कातरता थी। पापा आये, घंटों बैठे रहे; पापा चले गये तो उसने चन्दर का हाथ अपने हाथ में ले लिया, करवट बदली और तकिये पर अपने कपोलों से चन्दर की हथेली दबाकर लेटी रही। पलकों से कितने ही गरम-गरम आँसू छलककर गालों पर फिसलकर चन्दर की हथेली भिगोते रहे।
चन्दर चुप रहा। लेकिन सुधा के आँसू जैसे नसों के सहारे उसके हृदय में उतर गये और जब हृदय डूबने लगा तो उसकी पलकों पर उतर आये। सुधा ने देखा लेकिन कुछ भी नहीं बोली। घंटा-भर बहुत गहरी साँस ली; बेहद उदासी से मुसकराकर कहा, ''हम दोनों पागल हो गये हैं, क्यों चन्दर? अच्छा, अब शाम हो गयी। जरा लॉन पर चलें।''
सुधा चन्दर के कन्धे पर हाथ रखकर खड़ी हो गयी। बिनती ने दवा दी, थर्मामीटर से बुखार देखा। बुखार नहीं था। चन्दर ने सुधा के लिए कुरसी उठायी। सुधा ने हँसकर कहा, ''चन्दर, आज बीमार हूँ तो कुरसी उठा रहे हो, मर जाऊँगी तो अरथी उठाने भी आना, वरना नरक मिलेगा! समझे न!''
''छिह, ऐसा कुबोल न बोला करो, दीदी?''
सुधा लॉन में कुरसी पर बैठ गयी। बगल में नीचे चन्दर बैठ गया। सुधा ने चन्दर का सिर अपनी कुरसी में टिका लिया और अपनी उँगलियों से चन्दर के सूखे होठों को छूते हुए कहा, ''चन्दर, आज मैंने तुम्हें बहुत दु:खी किया, क्यों? लेकिन जाने क्यों, दु:खी न करती तो आज मुझे वह ताकत न मिलती जो मिल गयी।'' और सहसा चन्दर के सिर को अपनी गोद में खींचती हुई-सी सुधा ने कहा, ''आराध्य मेरे! आज तुम्हें बहुत-सी बातें बताऊँगी। बहुत-सी।''
बिनती उठकर जाने लगी तो सुधा ने कहा, ''कहाँ चली? बैठ तू यहाँ। तू गवाह रहेगी ताकि बाद में चन्दर यह न कहे कि सुधा कमजोर निकल गयी।'' बिनती बैठ गयी। सुधा ने क्षण-भर आँखें बन्द कर लीं और अपनी वेणी पीठ पर से खींचकर गोद में ढाल ली और बोली, ''चन्दर, आज कितने ही साल हुए, जबसे मैंने तुम्हें जाना है, तब से अच्छे-बुरे सभी कामों का फैसला तुम्ही करते रहे हो। आज भी तुम्हीं बताओ चन्दर कि अगर मैं अपने को बहुत सँभालने की कोशिश करती हूँ और नहीं सँभाल पाती हूँ, तो यह कोई पाप तो नहीं? तुम जानते हो चन्दर, तुम जितने मजबूत हो उस पर मुझे घमंड है कि तुम कितनी ऊँचाई पर हो, मैं भी उतना ही मजबूत बनने की कोशिश करती हूँ, उतने ही ऊँचे उठने की कोशिश करती हूँ, अगर कभी-कभी फिसल जाती हूँ तो यह अपराध तो नहीं?''
''नहीं।'' चन्दर बोला।
''और अगर अपने उस अन्तर्द्वंद्व के क्षणों में तुम पर कठोर हो जाती हूँ, तो तुम सह लेते हो। मैं जानती हूँ, तुम मुझे जितना स्नेह करते हो, उसमें मेरी सभी दुर्बलताएँ धुल जाती हैं। लेकिन आज मैं तुम्हें विश्वास दिलाती हूँ चन्दर कि मुझे खुद अपनी दुर्बलताओं पर शरम आती है और आगे से मैं वैसी ही बनूँगी जैसा तुमने सोचा है, चन्दर।''
चन्दर कुछ नहीं बोला सिर्फ घास पर रखे हुए सुधा के पाँवों पर अपनी काँपती उँगलियाँ रख दीं। सुधा कहती गयी, ''चन्दर, आज से कुछ ही महीने पहले जब गेसू ने मुझसे पूछा था कि तुम्हारा दिल कहीं झुका था तो मैंने इनकार कर दिया था, कल पम्मी ने पूछा, तुम चन्दर को प्यार करती हो तो मैंने इनकार कर दिया था, मैं आज भी इनकार करती हूँ कि मैंने तुम्हें प्यार किया है, या तुमने मुझे प्यार किया है। मैं भी समझती हूँ और तुम भी समझते हो लेकिन यह न तुमसे छिपा है न मुझसे कि तुमने जो कुछ दिया है वह प्यार से कहीं ज्यादा ऊँचा और प्यार से कहीं ज्यादा महान है।...मैं ब्याह नहीं करना चाहती थी, मैंने परसों इनकार कर दिया था, इतनी रोयी थी, खीझी थी, बाद में मैंने सोचा कि यह गलत है, यह स्वार्थ है। जब पापा मुझे इतना प्यार करते हैं तो मुझे उनका दिल नहीं दुखाना चाहिए। पर मन के अन्दर की जो खीझ थी, जो कुढऩ थी, वह कहीं तो उतरती ही। वह मैं अपने पर उतार देना चाहती थी, मन में आता था अपने को कितना कष्ट दे डालूँ इसीलिए अपने गैरेज में जाकर मोटर सँभाल रही थी, लेकिन वहाँ भी असफल रही और अन्त में वह खीझ अपने मन पर भी न उतारकर उस पर उतारी जिसको मैंने अपने से भी बढ़कर माना है। वह खीझ उतरी तुम पर!''
चन्दर ने सुधा की ओर देखा। सुधा मुसकराकर बोली, ''न, ऐसे मत देखो। यह मत समझो कि अपने आज के व्यवहार के लिए मैं तुमसे क्षमा मागूँगी। मैं जानती हूँ, माँगने से तुम दु:खी भी होगे और डाँटने भी लगोगे। खैर, आज से मैं अपना रास्ता पहचान गयी हूँ। मैं जानती हूँ कि मुझे कितना सँभलकर चलना है। तुम्हारे सपने को पूरा करने के लिए मुझे अपने को क्या बनाना होगा, यह भी मैं समझ गयी हूँ। मैं खुश रहूँगी, सबल रहूँगी और सशक्त रहूँगी और जो रास्ता तुम दिखलाओगे उधर ही चलूँगी। लेकिन एक बात बताओ चन्दर, मैंने ब्याह कर लिया और वहाँ सुखी न रह पायी, फिर और उन्हें वह भावना, उपासना न दे पायी और फिर तुम्हें दु:ख हुआ, तब?''
चन्दर ने घास का एक तिनका तोडक़र कहा, ''देखो सुधा, एक बात बताओ। अगर मैं तुम्हें कुछ कह देता हूँ और उसे तुम मुझी को वापस दे देती हो तो कोई बहुत ऊँची बात नहीं हुई। अगर मैंने तुम्हें सचमुच ही स्नेह या पवित्रता जो कुछ भी दिया है, उसे तुम उन सभी के जीवन में ही क्यों नहीं प्रतिफलित कर सकती जो तुम्हारे जीवन में आते हैं, चाहे वह पति ही क्यों न हों। तुम्हारे मन के अक्षय स्नेह-भंडार के उपयोग में इतनी कृपणता क्यों? मेरा सपना कुछ और ही है, सुधा। आज तक तुम्हारी साँसों के अमृत ने ही मुझे यह सामग्री दी कि मैं अपने जीवन में कुछ कर सकूँ और मैं भी यही चाहता हूँ कि मैं तुम्हें वह स्नेह दूँ जो कभी घटे ही न। जितना बाँटो उतना बढ़े और इतना मुझे विश्वास है कि तुम यदि स्नेह की एक बूँद दो तो मनुष्य क्या से क्या हो सकता है। अगर वही स्नेह रहेगा तो तुम्हारे पति को कभी कोई असन्तोष क्या हो सकता है और फिर कैलाश तो इतना अच्छा लड़का है, और उसका जीवन इतना ऊँचा कि तुम उसकी जिंदगी में ऐसी लगोगी, जैसे अँगूठी में हीरा। और जहाँ तक तुम्हारा अपना सवाल है, मैं तुमसे भीख माँगता हूँ कि अपना सब कुछ खोकर भी अगर मुझे कोई सन्तोष रहेगा तो यह देखकर कि मेरी सुधा अपने जीवन में कितनी ऊँची है। मैं तुमसे इस विश्वास की भीख माँगता हूँ।''
''छिह, मुझसे बड़े हो ,चन्दर! ऐसी बात नहीं कहते! लेकिन एक बात है। मैं जानती हूँ कि मैं चन्द्रमा हूँ, सूर्य की किरणों से ही जिसमें चमक आती है। तुमने जैसे आज तक मुझे सँवारा है, आगे भी तुम अपनी रोशनी अगर मेरी आत्मा में भरते गये तो मैं अपना भविष्य भी नहीं पहचान सकूँगी। समझे!''
''समझा, पगली कहीं की!'' थोड़ी देर चन्दर चुप बैठा रहा फिर सुधा के पाँवों से सिर टिकाकर बोला-''परेशान कर डाला, तीन रोज से। सूरत तो देखो कैसी निकल आयी है और बैसाखी को कुल चार रोज रह गये। अब मत दिमाग बिगाड़ना! वे लोग आते ही होंगे!''
''बिनती! दवा ले आ...'' बिनती उठकर गयी तो सुधा बोली, ''हटो, अब हम घास पर बैठेंगे!'' और घास पर बैठकर वह बोली, ''लेकिन एक बात है, आज से लेकर ब्याह तक तुम हर अवसर पर हमारे सामने रहना, जो कहोगे वह हम करते जाएँगे।''
''हाँ, यह हम जानते हैं।'' चन्दर ने कहा और कुछ दूर हटकर घास पर लेट गया और आकाश की ओर देखने लगा। शाम हो गयी थी और दिन-भर की उड़ी हुई धूल अब बहुत कुछ बैठ गयी थी। आकाश के बादल ठहरे हुए थे और उन पर अरुणाई झलक रही थी। एक दुरंगी पतंग बहुत ऊँचे पर उड़ रही थी। चन्दर का मन भारी था। हालाँकि जो तूफान परसों उठा था वह खत्म हो गया था, लेकिन चन्दर का मन अभी मरा-मरा हुआ-सा था। वह चुपचाप लेटा रहा। बिनती दवा और पानी ले आयी। दवा पीकर सुधा बोली, ''क्यों, चुप क्यों हो, चन्दर?''
''कोई बात नहीं।''
''फिर बोलते क्यों नहीं, देखा बिनती, अभी-अभी क्या कह रहे थे और अब देखो इन्हें।'' सुधा बोली।
''हम अभी बताते हैं इन्हें!'' बिनती बोली और गिलास में थोड़ा-सा पानी लेकर चन्दर के ऊपर फेंक दिया। चन्दर चौंककर उठ बैठा और बिगड़क़र बोला, ''यह क्या बदतमीजी है? अपनी दीदी को यह सब दुलार दिखाया करो।''
''तो क्यों पड़े थे ऐसे? बात करेंगे ऋषि-मुनियों जैसे और उदास रहेंगे बच्चों की तरह! वाह रे चन्दर बाबू!'' बिनती ने हँसकर कहा, ''दीदी, ठीक किया न मैंने?''
''बिल्कुल ठीक, ऐसे ही इनका दिमाग ठीक होगा।''
''इतने में डॉक्टर शुक्ला आये और कुरसी पर बैठ गये। सुधा के माथे पर हाथ रखकर देखा, ''अब तो तू ठीक है?''
''हाँ, पापा!''
''बिनती, कल तुम्हारी माताजी आ रही हैं। अब बैसाखी की तैयारी करनी है। सुधा के जेठ आ रहे हैं और सास।''
सुधा चुपचाप उठकर चली गयी। चन्दर, बिनती और डॉक्टर साहब बैठे उस दिन का बहुत-सा कार्यक्रम बनाते रहे।
चन्दर को सबसे बड़ा सन्तोष था कि सुधा ठीक हो गयी थी। बैसाख पूनो के एक दिन पहले ही से बिनती ने घर को इतना साफ कर डाला था कि घर चमक उठा था। यह बात तो दूसरी है कि स्टडी-रूम की सफाई में बिनती ने चन्दर के बहुत-से कागज बुहारकर फेंक दिये थे और आँगन धोते वक्त उसने चन्दर के कपड़ों को छीटों से तर कर दिया था। उसके बदले में चन्दर ने बिनती को डाँटा था और सुधा देख-देखकर हँस रही थी और कह रही थी, ''तुम क्यों चिढ़ रहे हो? तुम्हें देखने थोड़े ही आ रही हैं हमारी सास।''
बैशाखी पूनो की सुबह डॉक्टर साहब और बुआजी गाड़ी लेकर उनको लिवा लाने गये थे। चन्दर बाहर बरामदे में बैठा अखबार पढ़ रहा था और सुधा अन्दर कमरे में बैठी थी। अब दो दिन उसे बहुत दब-ढँककर रहना होगा। वह बाहर नहीं घूम सकती थी; क्योंकि जाने कैसे और कब उसकी सास आ जाएँ और देख लें। बुआ उसे समझा गयी थीं और उसने एक गम्भीर आज्ञाकारी लड़की की तरह मान लिया था और अपने कमरे में चुपचाप बैठी थी। बिनती कढ़ी के लिए बेसन फेंट रही थी और महराजिन ने रसोई में दूध चढ़ा रखा था।
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Jemsbond
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Re: गुनाहों का देवता-धर्मवीर भारती

Post by Jemsbond »

सुधा चुपके से आयी, किवाड़ की आड़ से देखा कि पापा और बुआ की मोटर आ तो नहीं रही है! जब देखा कि कोई नहीं है तो आकर चुप्पे से खड़ी हो गयी और पीछे से चन्दर के हाथ से अखबार ले लिया। चन्दर ने पीछे देखा तो सुधा एक बच्चे की तरह मुसकरा दी और बोली, ''क्यों चन्दर, हम ठीक हैं न? ऐसे ही रहें न? देखा तुम्हारा कहना मानते हैं न हम?''
''हाँ सुधी, तभी तो हम तुमको इतना दुलार करते हैं!''
''लेकिन चन्दर, एक बार आज रो लेने दो। फिर उनके सामने नहीं रो सकेंगे।'' और सुधा का गला रुँध गया और आँख छलछला आयी।
''छिह, सुधा...'' चन्दर ने कहा।
''अच्छा, नहीं-नहीं...'' और झटके से सुधा ने आँसू पोंछ लिये। इतने में गेट पर किसी कार का भोंपू सुनाई पड़ा और सुधा भागी।
''अरे, यह तो पम्मी की कार है।'' चन्दर बोला। सुधा रुक गयी। पम्मी ने पोर्टिको में आकर कार रोकी।
''हैलो, मेरे जुड़वा मित्र, क्या हाल है तुम लोगों का?'' और हाथ मिलाकर बेतकल्लुफी से कुर्सी खींचकर बैठ गयी।
''इन्हें अन्दर ले चलो, चन्दर! वरना अभी वे लोग आते होंगे!'' सुधा बोली।
''नहीं, मुझे बहुत जल्दी है। आज शाम को बाहर जा रही हूँ। बर्टी अब मसूरी चला गया है, वहाँ से उसने मुझे भी बुलाया है। उसके हाथ में कहीं शिकार में चोट लग गयी है। मैं तो आज जा रही हूँ।''
सुधा बोली, ''हमें ले चलिएगा?''
''चलिए। कपूर, तुम भी चलो, जुलाई में लौट आना!'' पम्मी ने कहा।
''जब अगले साल हम लोगों की मित्रता की वर्षगाँठ होगी तो मैं चलूँगा।'' चन्दर ने कहा।
''अच्छा, विदा!'' पम्मी बोली। चन्दर और सुधा ने हाथ जोड़े तो पम्मी ने आगे बढक़र सुधा का मुँह हथेलियों में उठाकर उसकी पलकें चूम लीं और बोली, ''मुझे तुम्हारी पलकें बहुत अच्छी लगती हैं। अरे! इनमें आँसुओं का स्वाद है, अभी रोयी थीं क्या?'' सुधा झेंप गयी।
चन्दर के कन्धे पर हाथ रखकर पम्मी ने कहा, ''कपूर, तुम खत जरूर लिखते रहना। चलते तो बड़ा अच्छा रहता। अच्छा, आप दोनों मित्रों का समय अच्छी तरह बीते।'' और पम्मी चल दी।
थोड़ी देर में डॉक्टर साहब की कार आयी। सुधा ने अपने कमरे के दरवाजे बन्द कर लिये, बिनती ने सिर पर पल्ला ढक लिया और चन्दर दौड़कर बाहर गया। डॉक्टर साहब के साथ जो सज्जन उतरे वे ठिगने-से, गोरे-से, गोल चेहरे के कुलीन सज्जन थे और खद्दर का कुरता और धोती पहने हुए थे। हाथ में एक छोटा-सा सफरी बैग था। चन्दर ने लेने को हाथ बढ़ाया तो हँसकर बोले, ''नहीं जी, क्या इतना-सा बैग ले चलने में मेरा हाथ थक जाएगा। आप लोग तो खातिर करके मुझे महत्वपूर्ण बना देंगे!''
सब लोग स्टडी रूम में गये। वहीं डॉक्टर शुक्ला ने परिचय कराया-''यह हमारे शिष्य और लड़के, प्रान्त के होनहार अर्थशास्त्री चन्द्रकुमार कपूर और आप शाहजहाँपुर के प्रसिद्ध काँग्रेसी कार्यकर्ता और म्युनिसिपल कमिश्नर श्री शंकरलाल मिश्र।''
''अब तू नहाय लेव संकरी, फिर चाय ठंडाय जइहै।'' बुआजी ने आकर कहा। आज बुआजी ने बहुत दिनों पहले की बूटीदार साड़ी पहन रखी थी और शायद वह खुश थीं क्योंकि बिनती को डाँट नहीं रही थीं।
''नहीं, मैं तो वेटिंग-रूम में नहा चुका। चाय मैं पीता नहीं। खाना ही तैयार कराइए।'' और घड़ी देखकर शंकर बाबू बोले, ''मुझे जरा स्वराज्य-भवन जाना है और दो बजे की गाड़ी से वापस चले जाना है और शायद उधर से ही चला जाऊँगा।'' उन्होंने बहुत मीठे स्वर से मुसकराते हुए कहा।
''यह तो अच्छा नहीं लगता कि आप आये भी और कुछ रुके नहीं।'' डॉक्टर शुक्ला बोले।
''हाँ, मैं खुद रुकना चाहता था लेकिन माँजी की तबीयत ठीक नहीं है। कैलाश भी कानपुर गया हुआ है। मुझे जल्दी जाना चाहिए।''
बिनती ने लाकर थाली रखी। चन्दर ने आश्चर्य से डॉक्टर साहब की ओर देखा। वे हँसकर बोले, ''भाई, यह लोग हमारी तरह छूत-पाक नहीं मानते। शंकर तुम्हारे सम्प्रदाय के हैं, यहीं कच्चा खाना खा लेंगे।''
''इन्हें ब्राह्मïण कहत के है, ई तो किरिस्तान है, हमरो धरम बिगाडिऩ हिंयाँ आय कै!'' बुआजी बोलीं। बुआजी ने ही यह शादी तय करायी थी, लड़काबताया था और दूर के रिश्ते से वे कैलाश और शंकर की भाभी लगती थीं।
शंकर बाबू ने हाथ धोये और कुर्सी खींचकर बैठ गये। चन्दर, की ओर देखकर बोले, ''आइए, होनहार डॉक्टर साहब, आप तो मेरे साथ खा सकते हैं?''
''नहीं, आप खाइए।'' चन्दर ने तकल्लुफ करते हुए कहा।
''अजी वाह! मैं ब्राह्मïण हूँ, शुद्ध; मेरे साथ खाकर आपको जल्दी मोक्ष मिल जाएगा। कहीं हाथ में तरकारी लगी रह गयी तो आपके लिए स्वर्ग का फाटक फौरन खुल जाएगा! खाओ।''
दो कौर खाने के बाद शंकर बाबू ने बुआजी से कहा, ''यही बहू है, जो लड़की थाली रख गयी थी?''
''अरे राम कहौ, ऊ तो हमार छोरी है बिनती! पहचनत्यौ नै। पिछले साल तो मुन्ने के विवाह में देखे होबो!'' बुआजी बोलीं।
शंकर बाबू कैलाश से काफी बड़े थे लेकिन देखने में बहुत बड़े नहीं लगते थे। खाते-पीते बोले, ''डॉक्टर साहब! लड़की से कहिए, रोटी दे जाये। मैं इसी तरह देख लूँगा, और ज्यादा तडक़-भड़क की कोई जरूरत नहीं!''
डॉक्टर साहब ने बुआजी को इशारा किया और वे उठकर चली गयीं। थोड़ी देर में सुधा आयी। सादी सफेद धोती पहने, हाथ में रोटी लिये दरवाजे पर आकर हिचकी, फिर आकर चन्दर से बोली, ''रोटी लोगे!'' और बिना चन्दर की आवाज सुने रोटी चन्दर के आगे रखकर बोली, ''और क्या चाहिए?''
''मुझे कढ़ी चाहिए!'' शंकर बाबू ने कहा। सुधा गयी और कढ़ी ले आयी। शंकर बाबू के सामने रख दी। शंकर बाबू ने आँखें उठाकर सुधा की ओर देखा, सुधा ने निगाहें नीची कर लीं और चली गयी।
''बहुत अच्छी है लड़की!'' शंकर बाबू ने कहा। ''इतनी पढ़ी-लिखी लड़की में इतनी शर्म-लिहाज नहीं मिलती। सचमुच जैसे आपकी एक ही लड़की थी, आपने उसे खूब बनाया है। कैलाश के बिल्कुल योग्य लड़की है। यह तो कहिए डॉक्टर साहब कि शिष्टा प्रबल होती है वरना हमारा कहाँ सौभाग्य था! जब से मेरी पत्नी मरी तभी से माताजी कैलाश के विवाह की जिद कर रही हैं। कैलाश अन्तर्जातीय विवाह करना चाहता था, लेकिन हमें तो अपनी जाति में ही इतना अच्छा सम्बन्ध मिल गया।''
''तो तोहरे अबहिन कौन बैस ह्वा गयी। तुहौ काहे नाही बहुरिया लै अउत्यौ। सुधी के अकेल मन न लगी!'' बुआजी बोलीं।
शंकर बाबू कुछ नहीं बोले। खाना खाकर उन्होंने हाथ धोये और घड़ी देखी।
''अब थोड़ा सो लूँ, या जाने दीजिए। आइए, बातें करें हम और आप,'' उन्होंने चन्दर से कहा। एक बजे तक चन्दर शंकर बाबू से बातें करता रहा और डॉक्टर साहब और सुधा वगैरह खाना खाते रहे। शंकर बाबू बहुत हँसमुख थे और बहुत बातूनी भी। चन्दर को तो कैलाश से भी ज्यादा शंकर बाबू पसन्द आये। बातें करने से मालूम हुआ कि शंकर बाबू की आयु अभी तीस वर्ष से अधिक की नहीं है। एक पाँच वर्ष का बच्चा है और उसी के होने में उनकी पत्नी मर गयी। अब वे विवाह नहीं करेंगे, वे गाँधीवादी हैं, काँग्रेस के प्रमुख स्थानीय कार्यकर्ता हैं और म्युनिसिपल कमिश्नर हैं। घर के जमींदार हैं। कैलाश बरेली में पढ़ता था। अब भी कैलाश का कोई इरादा किसी प्रकार की नौकरी या व्यापार करने का नहीं है, वह मजदूरों के लिए साप्ताहिक पत्र निकालने का इरादा कर रहा है। वह सुधा को बजाय घर पर रखने के अपने साथ रखेगा क्योंकि वह सुधा को आगे पढ़ाना चाहता है, सुधा को राजनीति क्षेत्र में ले जाना चाहता है।
बीच में एक बार बिनती आयी और उसने चन्दर को बुलाया। चन्दर बाहर गया तो बिनती ने कहा, ''दीदी पूछ रही हैं, ये कितनी देर में जाएँगे?''
''क्यों?''
''कह रही हैं अब चन्दर को याद थोड़े ही है कि सुधा भी इसी घर में है। उन्हीं से बातें कर रहे हैं।''
चन्दर हँस दिया और कुछ नहीं कहा। बिनती बोली, ''ये लोग तो बहुत अच्छे हैं। मैं तो कहूँगी सुधा दीदी को इससे अच्छा परिवार मिलना मुश्किल है। हमारे ससुर की तरह नहीं हैं ये लोग।''
''हाँ, फिर भी सुधा इतनी सेवा नहीं कर रही है इनकी। बिनती, तुम सुधा को कुछ शिक्षा दे दो इस मामले में।''
''हाँ-हाँ, हम सेवा करने की शिक्षा दे देंगे और ब्याह करने के बाद की शिक्षा अपनी पम्मी से दिलवा देना। खुद तो उनसे ले ही चुके होंगे आप!''
चन्दर झेंप गया। ''पाजी कहीं की, बहुत बेशरम हो गयी है। पहले मुँह से बोल नहीं निकलता था!''
''तुमने और दीदी ने ही तो किया बेशरम! हम क्या करें? पहले हम कितना डरते थे!'' बिनती ने उसी तरह गर्दन टेढ़ी करके कहा और मुसकराकर भाग गयी।
जब डॉक्टर साहब आये तो शंकर बाबू ने कहा, ''अब तो मैं जा रहा हूँ, यह माला मेरी ओर से बहू को दे दीजिए।'' और उन्होंने बड़ी सुन्दर मोतियों की माला बैग से निकाली और बुआजी के हाथ में दे दी।
''हाँ, एक बात है!'' शंकर बाबू बोले, ''ब्याह हम लोग महीने भर के अन्दर ही करेंगे। आपकी सब बात हमने मानी, यह बात आपको हमारी माननी होगी।''
''इतनी जल्दी!'' डॉक्टर शुक्ला चौंक उठे, ''यह असम्भव है, शंकर बाबू ! मैं अकेला हूँ, आप जानते हैं।''
''नहीं, आपको कोई कष्ट न होगा।'' शंकर बाबू बहुत मीठे स्वर में बोले, ''हम लोग रीति-रसम के तो कायल हैं नहीं। आप जितना चाहे रीति-रसम अपने मन से कर लें। हम लोग तो सिर्फ छह-सात आदमियों के साथ आएँगे। सुबह आएँगे, अपने बँगले में एक कमरा खाली करा दीजिएगा। शाम को अगवानी और विवाह कर दें। दूसरे दिन दस बजे हम लोग चले जाएँगे।''
''यह नहीं होगा।'' डॉक्टर साहब बोले, ''हमारी तो अकेली लड़की है और हमारे भी तो कुछ हौसले हैं। और फिर लड़की की बुआ तो यह कभी भी नहीं स्वीकार करेंगी।''
''देखिए, मैं आपको समझा दूँ, कैलाश शादियों में तड़क-भड़क के सख्त खिलाफ है। पहले तो वह इसलिए जाति में विवाह नहीं करना चाहता था, लेकिन जब मैंने उसे भरोसा दिलाया कि बहुत सादा विवाह होगा तभी वह राजी हुआ। इसीलिए इसे आप मान ही लें फिर विवाह के बाद तो जिंदगी पड़ी है। आपकी अकेली लड़की है जितना चाहिए, करिए। रहा कम समय का तो शुभस्य शीघ्रम्! फिर आपको कुछ खास इन्तजाम भी नहीं करना, अगर कुछ हो तो कहिए मैं यहीं रह जाऊँ, आपका काम कर दूँ!'' शंकर बाबू हँसकर बोले।
कुछ देर तक बातें होती रहीं, अन्त में शंकर बाबू ने अपने सौजन्य और मीठे स्वभाव से सभी को राजी कर ही लिया। उसके बाद उन्होंने सबसे विदा माँगी, चलते वक्त बुआजी और डॉक्टर साहब के पैर छुए, चन्दर से हाथ मिलाया और शंकर बाबू सबका मन जीतकर चले गये।
बुआजी ने माला हाथ में ली, उसे उलट-पलटकर देखा और बोलीं, ''एक ऊ आये रहे जूताखोर! एक ठो कागज थमाय के चले गये!'' और एक गहरी साँस लेके चली गयीं।
डॉ. साहब ने सुधा को बुलाया। उसके हाथ में वह माला रखकर उसे चिपटा लिया। सुधा पापा की गोद में मुँह छिपाकर रो पड़ी।
उसके बाद सुधा चली गयी और चन्दर, डॉक्टर साहब और बुआजी बैठे शादी के इन्तजाम की बातें करते रहे। यह तय हुआ कि अभी तो इन्हीं की इच्छानुसार विवाह कर दिया जाए फिर यूनिवर्सिटी खुलने पर सभी को बुलाकर अच्छी दावत वगैरह दे दी जाए। यह भी तय हुआ कि बुआजी गाँव जाकर अनाज, घी, बडिय़ाँ और नौकर वगैरह का इन्तजाम कर लाएँ और पन्द्रह दिन के अन्दर लौट आएँ। अगवानी ठीक छह बजे शाम को हो जाए और सुबह के नाश्ते में क्या दिया जाए, यह सभी डॉक्टर साहब ने तय कर डाला। लेकिन निश्चय यह किया गया कि चूँकि आदमी बहुत कम आ रहे हैं, अत: सुबह-शाम के नाश्ते का काम यूनिवर्सिटी के किसी रेस्तराँ को दे दिया जाए।
इसी बीच में बिनती खरबूजा और शरबत लाकर रख गयी और चन्दर ने बहुत आराम से शरबत पीते हुए पूछा, ''किसने बनाया है?''
''सुधा दीदी ने।''
''आज बड़ी खुश मालूम पड़ती है, चीनी बहुत कम छोड़ी है!'' चन्दर बोला। बुआ और बिनती दोनों हँस पड़ीं।
थोड़ी देर बाद चन्दर उठकर भीतर गया तो देखा कि सुधा अपने पलँग पर बैठी सामने एक किताब रखे जाने क्या देख रही है और सामने वह माला पड़ी है। चन्दर गया और बोला, ''सुधा! आज मैं बहुत खुश हूँ।''
सुधा ने आँखें उठायीं और चन्दर की ओर देखकर मुसकराने की कोशिश की और बोली, ''मैं भी बहुत खुश हूँ।''
''क्यों, तय हो गया इसलिए?'' बिनती ने पूछा।
''नहीं, चन्दर बहुत खुश हैं इसलिए!'' और एक गहरी साँस लेकर किताब बन्द कर दी।
''कौन-सी किताब है, सुधा?'' चन्दर ने पूछा।
''कुछ नहीं, इस पर उर्दू के कुछ अशआर लिखे हैं जो गेसू ने सुनाये थे।'' सुधा बोली।
चन्दर ने बिनती की ओर देखा और कहा, ''बिनती, कैलाश तो जैसा है वैसा ही है, लेकिन शंकरबाबू की तारीफ मैं कर नहीं सकता। क्या राय है तुम्हारी?''
''हाँ, है तो सही; दीदी इतनी सुखी रहेंगी कि बस! दीदी, हमें भूल मत जाना, समझीं!'' बिनती बोली।
''और हमें भी मत भूलना सुधा!'' चन्दर ने सुधा की उदासी दूर करने के लिए छेड़ते हुए कहा।
''हाँ, तुम्हें भूले बिना कैसे काम चलेगा।'' सुधा ने और भी गहरी साँस लेते हुए कहा और एक आँसू गालों पर फिसल ही आया।
''अरे पगली, तुम सब कुछ अपने चन्दर के लिए कर रही हो, उसकी आज्ञा मानकर कर रही हो। फिर यह आँसू कैसे? छिह! और यह माला सामने रखे क्या कर रही हो?'' चन्दर ने बहलाया।
''माला तो दीदी इसलिए सामने रखे थीं कि बतलाऊँ...बतलाऊँ!'' बिनती बोली, ''असल में रामायण की कहानी तो सुनी है चन्दर, तुमने? रामचन्द्र ने अपने एक भक्त को मोती की माला दी तो वह उसे दाँत से तोडक़र देख रहा था कि उसके अन्दर रामनाम है या नहीं। सो यह माला सामने रखकर देख रही थीं, इसमें कहीं चन्दर की झलक है या नहीं?''
''चुप गिलहरी कहीं की?'' सुधा हँस पड़ी, ''बहुत बोलना आ गया है!'' सुधा ने हँसते हुए बनावटी गुस्से से कहा। फिर सुधा तकिये से टिककर बैठ गयी-''आज गेसू नहीं है। मुझे गेसू की बहुत याद आ रही है।''
''क्यों?''
''इसलिए कि आज उसके कई शेर याद आ रहे हैं। एक दफे उसने सुनाया था-
ये आज फिजा खामोश है क्यों, हर जर्रे को आखिर होश है क्यों?
या तुम ही किसी के हो न सके, या कोई तुम्हारा हो न सका।'
इसी की अन्तिम पंक्ति है-
मौजें भी हमारी हो न सकीं, तूफाँ भी हमारा हो न सका'!''
''वाह! यह पंक्ति बहुत अच्छी है,'' चन्दर ने कहा।
''आज गेसू होती तो बहुत-सी बातें करते!'' सुधा बोली, ''देखो चन्दर, जिंदगी भी क्या होती है! आदमी क्या सोचता है और क्या हो जाता है। आज से तीन-चार महीने पहले मैंने क्या सोचा था! क्लास-रूम से भागकर हम लोग पेड़ के नीचे लेटकर बातें करते थे, तो मैं हमेशा कहती थी-मैं शादी नहीं करूँगी। पापा को समझा लूँगी। उस दिन क्या मालूम था कि इतनी जल्दी जुए के नीचे गरदन डाल देनी होगी और पापा को भी जीतकर किसी दूसरे से हार जाना होगा। अभी उसकी तय भी नहीं हुई और महीने-भर बाद मेरी...'' सुधा थोड़ी देर चुप रही और फिर-''और दूसरी बात उसकी, जो मैंने तुम्हें बतायी थी। उसने कहा था जब किसी के कदम हट जाते हैं सिर के नीचे से, तब मालूम होता है कि हम किसका सपना देख रहे थे। पहले हमें भी नहीं मालूम होता था कि हमारे सिर किसके कदमों पर झुक चुके हैं। याद है? मैंने तुम्हें बताया था, तुमने पूछा था!''
''याद है।'' चन्दर ने कहा। बिनती उठकर चली गयी लेकिन सुधा या चन्दर किसी ने ध्यान भी नहीं दिया। चन्दर बोला, ''लेकिन सुधा, इन सब बातों को सोचने से क्या फायदा, आगे का रास्ता सामने है, बढ़ो।''
''हाँ, सो तो है ही देवता मेरे! कभी-कभी जाने कितनी पुरानी बातें मन में आ ही जाती हैं और मन करता है कि मैं सोचती ही जाऊँ। जाने क्यों मन को बड़ा सन्तोष मिलता है। और चन्दर, जब मैं वहाँ रहूँगी, तुमसे दूर, तो इन्हीं स्मृतियों के अलावा और क्या शेष रहेगा...तुम्हें वह दिन याद है जब मैं गेसू के यहाँ नहीं जा पायी थी और उस स्थान पर हम लोगों में झगड़ा हो गया था...चन्दर, वहाँ सब कुछ है लेकिन मैं लड़ूँगी-झगड़ूँगी किससे वहाँ?''
चन्दर एक फीकी-सी हँसी हँसकर बोला, ''अब क्या जन्म-भर बच्ची ही बनी रहोगी!''
''हाँ चन्दर, चाहती तो यही थी लेकिन जिंदगी तो जबरदस्ती सब सुख छीन लेती है और बदले में कुछ भी नहीं देती। आओ, चलो लॉन पर चलें। शाम को तुमसे बातें ही करेंगे!''
उसके बाद सुधा रात को आठ बजे उठी, जब बुआ तैयार होकर स्टेशन जा रही थीं और ड्राइवर मोटर निकाल रहा था। और उदास टिमटिमाते हुए सितारों ने देखा कि चन्दर और सुधा दोनों की आँखों में आँसुओं की अवशेष नमी झिलमिला रही थी। उठते हुए सुधा ने क्षण-भर चन्दर की ओर देखा, चन्दर ने सिर झुका लिया और बहुत उदास आवाज में कहा, ''चलो सुधा, बहुत देर कर दी हम लोगों ने।''
पन्द्रह दिन बाद बुआ आयीं तो उन्होंने घर की शक्ल ही बदल दी। दरवाजे पर और बरसाती में हल्दी के हाथों की छाप लग गयी, कमरों का सभी सामान हटाकर दरियाँ बिछा दी गयीं और सबसे अन्दर वाले कमरे में सुधा का सब सामान रख दिया गया। स्टडी-रूम की सभी किताबें समेट दी गयीं और वहाँ एक बड़ी-सी मशीन लाकर रख दी गयी जिस पर बैठकर बिनती सिलाई करती थी। उसी को कपड़े और गहनों का भंडार-घर बनाया गया और उसकी चाबी बिनती या बुआ के पास रहती थी। गाँव से एक महराजिन, एक कहारिन और दो मजदूर आये थे, वे सभी गैरेज में सोते थे और दिन-भर काम करते थे और 'पानी पीने' को माँगते रहते थे। सभी कुर्सियाँ और सोफासेट निकलवाकर सायबान में लगवा दिये गये थे। रसोई के पार वाली कोठरी में कुल्हड़, पत्तलें, प्याले वगैरह रखे थे और पूजा वाले कमरे में शक्कर, घी, तरकारी और अनाज था। मिठाई कहाँ रखी जाएगी, इस पर बुआजी, महराजिन और बिनती में घंटे-भर तक बहस हुई लेकिन जब बुआजी ने बिनती से कहा, ''आपन लड़के-बच्चे का बियाह कियो तो कतरनी अस जबान चलाय लिह्यो, अबहिन हर काम में काहे टाँग अड़ावा करत हौ!'' तो बिनती चुप हो गयी और अन्त में बुआजी की राय सर्वोपरि मानी गयी। बुआजी की जबान जितनी तेज थी, हाथ भी उतने ही तेज। चार बोरा गेहूँ उन्होंने साफ करके कोठरियों में भरवा दिये। कम-से-कम पाँच तरह की दालें लायी थीं। बेसन पिसवाया, दाल दरवायी, पापड़ बनवाये, मैदा छनवाया, सूजी दरवायी, बरी-मुँगौरी डलवायीं, चावल की कचौरियाँ बनवायीं और सबको अलग-अलग गठरी में बाँधकर रख दिया। रात को अकसर बुआजी, महराजिन तथा गाँव की महरिन ढोलक लेकर बैठ जातीं और गीत गातीं। बिनती उनमें भी शामिल रहती।
सच पूछो तो सुधा के ब्याह का जितना उछाह बुआ को नहीं था, उतना बिनती को था। वह सुबह से उठकर झाड़ू लेकर सारा घर बुहार डालती थी, इसके बाद नहाकर तरकारी काटती, उसके बाद फिर चाय चढ़ाती। डॉक्टर साहब, चन्दर, सुधा सभी को चाय देती, बैठकर चन्दर अगर कुछ हिसाब लिखाता तो हिसाब लिखती, फिर अपनी मशीन पर बैठ जाती और बारह-एक बजे तक सिलाई करती रहती, फिर दोपहर को चावल और दाल बीनती, शाम को खरबूजे काटती, शरबत बनाती और रात-भर जाग-जागकर गाती या दीदी को हँसाने की कोशिश करती। एक दिन सुधा ने कहा, ''मेरे ब्याह में तो इतनी खुश है, अपने ब्याह में क्या करेगी?'' तो बिनती ने जवाब दिया, ''अपने ब्याह में तो मैं खुद बैंड बजाऊँगी, वर्दी पहनकर!''
घर चमक उठा था जैसे रेशम! लेकिन रेशम के चमकदार, रंगीन उल्लास भरे गोले के अन्दर भी एक प्राणी होता है, उदास स्तब्ध अपनी साँस रोककर अपनी मौत की क्षण-क्षण प्रतीक्षा करने वाला रेशम का कीड़ा। घर के इस सारे उल्लास और चहल-पहल से घिरा हुआ सिर्फ एक प्राणी था जिसकी साँस धीरे-धीरे डूब रही थी, जिसकी आँखों की चमक धीरे-धीरे कुम्हला रही थी, जिसकी चंचलता ने उसकी नजरों से विदा माँग ली थी, वह थी-सुधा। सुधा बदल गयी थी। गोरा चम्पई चेहरा पीला पड़ गया था, और लगता था जैसे वह बीमार हो। खाना उसे जहर लगने लगा था, अपने कमरे को छोड़कर कहीं जाती न थी। एक शीतलपाटी बिछाये उसी पर दिन-रात पड़ी रहती थी। बिनती जब हँसती हुई खाना लाती और सुधा के इनकार पर बिनती के आँसू छलछला आते तब सुधा पानी के घूँट के सहारे कुछ खा लेती और उदास, फिर अपनी शीतलपाटी पर लेट जाती। स्वर्ग को कोई इन्द्रधनुषों से भर दे और शची को जहर पिला दे, कुछ ऐसा ही लग रहा था वह घर।
डॉक्टर शुक्ला का साहस न होता था सुधा से बोलने का। वह रोज बिनती से पूछ लेते-''सुधा खाना खाती है या नहीं?'' बिनती कहती, ''हाँ।'' तो एक गहरी साँस लेकर अपने कमरे में चले जाते।
चन्दर परेशान था। उसने इतना काम शायद कभी भी न किया हो अपनी जिंदगी में। सुनार के यहाँ, कपड़े वाले के यहाँ, फिर राशनिंग अफसर के यहाँ, पुलिस बैंड ठीक कराने पुलिस लाइंस, अर्जी देने मैजिस्ट्रेट के यहाँ, रुपया निकालने बैंक, शामियाने का इन्तजाम, पलँग, कुर्सी वगैरह का इन्तजाम, खाने-परोसने के बरतनों के इन्तजाम और जाने क्या-क्या...और जब बुरी तरह थककर आता, जेठ की तपती हुई दोपहरी में, तब बिनती आकर बताती-सुधा ने आज फिर कुछ नहीं खाया तो उसका मन होता था वह सिर पटक-पटक दे। वह सुधा के पास जाता, सुधा आँसू पोंछकर बैठती, एक टूटी-फूटी मुसकान से चन्दर का स्वागत करती। चन्दर उससे पूछता, ''खाती क्यों नहीं?''
''खाती तो हूँ चन्दर, इससे ज्यादा गरमियों में मैं कभी नहीं खाती थी।'' सुधा कहती और इतने दृढ़ स्वर से कि चन्दर से कुछ प्रतिवाद नहीं करते बनता।
अब बाहरी काम लगभग समाप्त हो गये थे। वैसे तो सभी जगह हल्दी छिडक़कर पत्र रवाना किये जा चुके थे लेकिन निमंत्रण-पत्र भी बहुत सुन्दर छपकर आये थे, हालाँकि कुछ देर हो गयी थी। ब्याह को अब कुल सात दिन बचे थे। चन्दर सुबह दस बजे एक डिब्बे में निमंत्रण-पत्र और लिफाफा-भरे हुए आया और स्टडी-रूम में बैठ गया। बिनती बैठी हुई कुछ सिल रही थी।
''सुधा कहाँ है? उसे बुला लाओ।''
सुधा आयी, सूजी आँखें, सूखे होठ, रूखे बाल, मैली धोती, निष्प्राण चेहरा और बीमार चाल। हाथ में पंखा लिये थी। आयी और चन्दर के पास बैठ गयी-''कहो, क्या कर आये, चन्दर! अब कितना इन्तजाम बाकी है?''
''अब सब हो गया, सुधा रानी! आज तो पैर जवाब दे रहे हैं। साइकिल चलाते-चलाते पैर में जैसे गाँठें पड़ गयी हों।'' चन्दर ने कार्ड फैलाते हुए कहा, ''शादी तुम्हारी होगी और जान मेरी निकली जा रही है मेहनत से।''
''हाँ चन्दर, इतना उत्साह तो और किसी को नहीं है मेरी शादी का!'' सुधा ने कहा और बहुत दुलार से बोली, ''लाओ, पैर दबा दूँ तुम्हारे?''
''अरे पागल हो गयी?'' चन्दर ने अपने पैर उठाकर ऊपर रख लिये।
''हाँ, चन्दर!'' गहरी साँस लेते हुए सुधा बोली, ''अब मेरा अधिकार भी क्या है तुम्हारे पैर छूने का। क्षमा करना, मैं भूल गयी थी कि मैं पुरानी सुधा नहीं हूँ।'' और टप से दो आँसू गिर पड़े। सुधा ने पंखे की ओट कर आँखें पोंछ लीं।
''तुम तो बुरा मान गयीं, सुधा!'' चन्दर ने पैर नीचे रखते हुए कहा।
''नहीं चन्दर, अब बुरा-भला मानने के दिन बीत गये। अब गैरों की बात का भी बुरा-भला नहीं मान पाऊँगी, फिर घर के लोगों की बातों का बुरा-भला क्या...छोड़ो ये सब बातें। ये क्या निमंत्रण-पत्र छपा है, देखें!''
प्यास बुझाई नौकर से Running....कीमत वसूल Running....3-महाकाली ....1-- जथूराcomplete ....2-पोतेबाबाcomplete
बन्धन
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दिल से दिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
तुफानो में साहिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
यूँ तो मिल जाता है हर कोई!
मगर आप जैसे दोस्त नसीब वालों को मिलते हैं!
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