नक़ली नाक

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नक़ली नाक

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नक़ली नाक


सफ़र

गर्मियों का मौसम था। मैदानों के रहने वाले बड़े लोग गर्मी से तंग आ कर रामगढ़ की हरी-भरी पहाड़ियों में पनाह ढूँढने जा रहे थे उनमें विदेशी सैलानी भी थे, जिन्हें रामगढ़ की पुरानी इमारतें देखने की ख़्वाहिश खींच लायी थी।

इस वक़्त पहाड़ियों के ऊबड़-खाबड़ रास्तों पर टट्टुओं और ख़च्चरों की लाइनें धीरे-धीरे रेंगती हुई दिख रही थीं। हालाँकि यहाँ बस सर्विस भी है, लेकिन बहुत-से मुसाफ़िर सिर्फ़ कुदरती मंज़र का मज़ा लेने के लिए टट्टुओं या ख़च्चरों पर सफ़र करते हैं, लेकिन फ़रीदी के बारे में दावे के साथ नहीं कहा जा सकता कि उसने सैर के लिए यह रास्ता चुना था या फिर वह हमीद को तंग करना चाहता था। वह रास्ते भर उसकी झल्लाहटों से ख़ुश होता चला आ रहा था। इस वक़्त भी वह उसे बात-बात पर छेड़ रहा था। एक जगह चलते-चलते अचानक हमीद के ख़च्चर ने ठोकर खायी और गिरते-गिरते बचा। हमीद घबरा कर कूद पड़ा। फ़रीदी को भी अपना ख़च्चर रोक देना पड़ा।

‘‘अरे, अरे, यह क्या भई?’’ फ़रीदी हँस कर बोला।

‘‘जी कुछ नहीं, बेचारा थक गया है।’’ हमीद मुँह बनाते हुए बोला। ‘‘अब यह मुझ पर सवार हो कर बाक़ी रास्ता तय करेगा। मैं कहता हूँ आख़िर... आपको यह सूझी क्या थी?’’

‘‘भई, मैंने सिर्फ़ तुम्हारी सैर के लिए यह सिरदर्द मोल लिया था, वरना मुझे पागल कुत्ते ने नहीं काटा था।’’

‘‘सैर... जहन्नुम में गयी सैर!’’ हमीद ने ख़च्चर की लगाम पकड़ कर पैदल चलते हुए कहा।

‘‘अरे, यह क्या।’’ फ़रीदी बनावटी हैरानी ज़ाहिर करते हुए बोला। ‘‘तो क्या पैदल ही चलोगे।’’

‘‘जी हाँ...!’’ हमीद झटकेदार आवाज़ में बोला।

‘‘च्च च्च... धत्त तेरे की... अजीब बेवक़ूफ़ हो... देखो वह ऐंग्लो इण्डियन लड़की तुम्हें इस हालत में देख कर शायद अपने साथियों में तुम्हारा मज़ाक़ उड़ा रही है।’’

हमीद ने मुड़ कर देखा तो वाक़ई कुछ ऐंग्लो इण्डियन मुसाफ़िर उसकी तरफ़ देख कर ताना देने के अन्दाज़ में मुस्कुरा रहे थे। उनमें इत्तफ़ाक़ से एक लड़की थी। हमीद पर बौखलाहट का दौरा पड़ा। उसने रस्सी की रक़ाब पर पैर रखा और उछल कर ख़च्चर पर बैठ गया और बैठा भी तो इस शान से जैसे नेपोलियन अपने बड़े-से घोड़े पर सवार आल्प्स के मुश्किलों से भरे रास्ते तय कर रहा हो।

‘‘शाबाश मेरे शेर...!’’ फ़रीदी मुस्कुरा कर बोला। ‘‘तुम्हें राह पर लाने के लिए हमेशा एक औरत की ज़रूरत पड़ती है।’’

‘‘जी हाँ, मेरी पैदाइश के सिलसिले में भी एक औरत की ज़रूरत पड़ी थी।’’ हमीद जल कर बोला।

‘‘अरे, तुम तो फ़िलॉसफ़ी झाड़ने लगे... भई, मैं दरअसल इसीलिए तुम्हारी क़द्र करता हूँ।’’

‘‘क़द्रदानी का शुक्रिया।’’ हमीद ने कहा। ‘‘इस वक़्त आप भी फ़िलॉसफ़र ही मालूम हो रहे हैं।’’

‘‘क्यों...?’’

‘‘ईं सआदत बज़ोर ख़च्चर नीस्त...!’’

‘‘शाबाश... मैंने सुना है कि हज़रत ईसा का गधा लातीनी बोलता था, मगर तुम ख़च्चर पर बैठ कर अच्छी-ख़ासी फ़ारसी बोल रहे हो।’’

हमीद के ख़च्चर ने फिर ठोकर खायी और हमीद गिरते-गिरते बचा।

पीछे से फिर ज़ोरदार हँसी की आवाज़ आयी और हमीद दाँत पीसता रहा। उसे सचमुच फ़रीदी पर ग़ुस्सा आ रहा था। अगर बस ही से सफ़र किया जाता तो कौन-सी मुसीबत आ जाती। कोई तुक है कि सामान और कर्मचारी बस पर जायें और ख़ुद ख़च्चरों पर। फ़रीदी की ऐसी ही अजीबो-ग़रीब हरकतों पर हमीद कभी-कभी इतना नाराज़ हो जाता था कि उसे फ़रीदी की सूरत से नफ़रत होने लगती थी। ऐसे मौक़े पर वह बिना यह सोचे-समझे कि फ़रीदी उसका अफ़सर है, जो कुछ मुँह में आता, कह डालता और फ़रीदी... वह उसकी चिड़चिड़ाहट से ख़ुश हुआ करता था। वह उस वक़्त भी हमीद की झल्लायी हुई हरकतों से ख़ुश हो रहा था।

‘‘मेरा ख़याल है कि अब तुम इस ख़च्चर को कन्धे पर उठा लो।’’ फ़रीदी फिर बोला।

हमीद ने कोई जवाब न दिया। उसके चेहरे से ऐसा लग रहा था जैसे फ़रीदी के इस जुमले पर उसके ज़ेहन में कोई ऐसा जुमला गूँजा हो जिसे न कहना ही बेहतर था।

‘‘अमाँ, तो इस तरह ख़राब मुँह क्यों बना रहे हो?’’ फ़रीदी ने कहा।

‘‘तो मेरा मुँह अच्छा ही कब था।’’ हमीद जल कर बोला।

‘‘मेरे ख़याल से तो अच्छा-ख़ासा था।’’

हमीद फिर चुप हो गया। थोड़ी देर के बाद फ़रीदी फिर बोला।

‘‘हमीद...!’’

‘‘जी...!’’

‘‘ज़रा इन हरी-भरी पहाड़ियों की तरफ़ देखो...!’’

‘‘देख रहा हूँ।’’

‘‘कैसा लग रहा है?’’

‘‘ऐसा लग रहा है जैसे मैं एक नम्बर का गधा हूँ।’’

‘‘और ख़च्चर पर सवार हो।’’

हमीद ने फिर कोई जवाब न दिया।

‘‘हमीद...!’’

‘‘फ़रमाइए...!’’

‘‘इधर उस चट्टान के पास देख रहे हो... वह पहाड़ी लड़की।’’ फ़रीदी बोला।

‘‘मुझे फ़िलहाल उसमें कोई दिलचस्पी नहीं... क्योंकि यह पहाड़ी ख़च्चर...!’’

‘‘अमाँ, ख़त्म भी करो।’’

‘‘अभी यह कमबख़्त मुझे ही ख़त्म कर देता।’’ हमीद ने झल्ला कर ख़च्चर को एक डण्डी मारते हुए कहा।

ख़च्चर एक ढलवाँ चट्टान की तरफ़ जा रहा था। डण्डी पड़ते ही उछल पड़ा। अगर हमीद फ़ौरन ही उसकी गर्दन से न लिपट जाता तो वह उसकी पीठ पर से ज़मीन पर आ जाता।

हमीद ने नीचे उतर कर उसे दो-चार डण्डियाँ मार कर लगाम छोड़ दी... ख़च्चर ढलान में दूर तक चला गया।
‘‘ऐ साहब, ऐ साहब।’’ ख़च्चर वाला पीछे से चिल्लाया और वह ऐंग्लो इण्डियन लड़की अपने साथियों समेत हँसे जा रही थी। हमीद को उसकी सुरीली आवाज़ ज़हर मालूम होने लगी। उसने पलट कर उसकी तरफ़ देखा। फ़रीदी भी अपने ख़च्चर पर से उतर पड़ा था।

ख़च्चर वाला हमीद के ख़च्चर को पकड़ने के लिए दौड़ा जा रहा था।

‘‘क्यों भई, यह क्या किया तुमने।’’ फ़रीदी ने हमीद से कहा।

‘‘अब बेहतर यही है कि आप मुझे किसी ऊँची चट्टान से नीचे धकेल दें।’’ हमीद हाँफता हुआ बोला।

‘‘नहीं, मैं इसे ठीक नहीं समझता।’’ फ़रीदी ने शरारती मुस्कुराहट के साथ कहा।
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‘‘मैंने बहुत बुरा किया कि आपके साथ चला आया।’’ हमीद बोला।

‘‘लेकिन इसके अलावा कोई चारा भी न था।’’

‘‘मैं अपनी मर्ज़ी का मालिक हूँ।’’

‘‘ग़लत... मैं बाँध कर ले आता।’’ फ़रीदी ने कहा। ‘‘भला तुम्हारे बग़ैर क्या ख़ाक मज़ा आता।’’


‘‘आख़िर आप मेरे पीछे क्यों पड़ गये हैं?’’

‘‘बहुत पुराने बदले चुका रहा हूँ।’’

‘‘तो इसके लिए इतना लम्बा सफ़र करने की क्या ज़रूरत थी?’’

‘‘एडवेंचर...!’’

इतनी देर में ख़च्चर वाला, ख़च्चर को वापस ले कर वहीं आ गया।

‘‘चलो, बैठो...!’’ फ़रीदी बोला।

‘‘हरगिज़ नहीं...!’’

‘‘अजीब बेवक़ूफ़ आदमी हो।’’

‘‘कुछ भी सही।’’

‘‘बैठो, बैठो...!’’ फ़रीदी ने दोबारा कहा।

‘‘मैं इससे ज़्यादा एडवेंचर चाहता हूँ।’’ हमीद ने कहा।

‘‘यानी...!’’

‘‘पैदल चलूँगा...’’ हमीद ने कहा। ‘‘और आपको भी इसकी नसीहत करता हूँ। पैदल चलना सेहत के लिए अच्छा है।’’

‘‘पागल हो गये हो... अभी छै मील चलना है।’’

‘‘तो क्या हुआ...!’’

‘‘अरे भई, यह पहाड़ी रास्ता है। एक ही मील चलने में काम तमाम हो जायेगा।’’

‘‘यही तो मैं चाहता हूँ।’’ हमीद लापरवाही से बोला।

‘‘अजीब बेवक़ूफ़ से पाला पड़ा है।’’

‘‘ख़ुदा का शुक्र है कि बेवक़ूफ़ के ख़च्चर से सामना नहीं पड़ा।’’ हमीद ने कहा।

‘‘अरे भई, बैठो भी।’’

‘‘बिलकुल नहीं... मैं अपने एडवेंचर का ख़ून नहीं कर सकता।’’ हमीद बोला।

‘‘जहन्नुम में जाओ...!’’ फ़रीदी ने कहा और अपने ख़च्चर पर सवार हो कर आगे बढ़ गया।

ख़च्चर वाला ख़च्चर की लगाम पकड़े हुए हमीद के साथ-साथ पैदल चल रहा था। थोड़ी दूर जा कर फ़रीदी भी लौट आया।

‘‘ले भाई, सँभाल इसे।’’ फ़रीदी अपने ख़च्चर की लगाम भी ख़च्चर वाले को थमाते हुए बोला और हमीद के साथ पैदल चलने लगा।

‘‘ज़रा इन हरी-भरी पहाड़ियों की तरफ़ देखिए... कैसा लगता है?’’ हमीद मुस्कुरा कर बोला।

‘‘ऐसा लगता है जैसे अभी तुम्हारी मुसीबत आने वाली है।’’ फ़रीदी ने कहा।

‘‘आये शौक़ से आये... आख़िर मुसीबत भी ज़नाना ही तो है।’’

‘‘यूँ तो मौत भी ज़नाना है, मियाँ साहबज़ादे।’’

‘‘लेकिन बहुत बूढ़ी हो चुकी है, इसलिए मुझे उससे कोई दिलचस्पी नहीं।’’ हमीद मुस्कुरा कर बोला।

‘‘ख़ैर... शुक्र है कि तुम मुस्कुराये तो।’’

‘‘तो मैं रो कब रहा था।’’

दोनों ख़ामोशी से चलते रहे।

‘‘आख़िर आपको अचानक रामगढ़ की क्यों याद आ गयी?’’ हमीद बोला।

‘‘जाबिर...!’’

‘‘ओह... तो आप उसका पीछा नहीं छोड़ेंगे?’’

‘‘मैं क़सम खा चुका हूँ।’’

‘‘क्या आपको उसकी मौजूदगी की कोई पक्की ख़बर है?’’

‘‘नहीं...!’’

‘‘यानी...!’’

‘‘यहाँ कुछ क़िस्से ऐसे हुए हैं जिनकी बिना पर मैं सोचने पर मजबूर हुआ हूँ।’’'

‘‘मेरे ख़याल से यह ज़रूरी नहीं कि उनका ताल्लुक़ जाबिर ही से हो।’’ हमीद बोला।

‘‘यह तुम सिर्फ़ इसलिए कह रहे हो क्योंकि तुम उसके तरीक़ों को जानते नहीं हो।’’ फ़रीदी ने कहा। ‘‘क्या तुमने आज तक किसी कबूतर के पंजों के ज़हरीले होने के बारे में भी सुना है?’’

‘‘नहीं...!’’

‘‘अगर किसी शख़्स की मौत कबूतर के नाख़ून लगने से हो जाये तो तुम उसे क्या कहोगे?’’

‘‘एक हैरत-अंगेज़ क़िस्सा जिस पर य़कीन न किया जा सके।’’

‘‘इतना ही य़कीन नहीं जितना ज़हर खाने वाले के केस का मिर्गी की बीमारी में बदल जाना।’’

‘‘ओह...!’’

‘‘रामगढ़ के नौजवान कबूतरबाज़ रईस की मौत इसी तरह हुई। वह कबूतर पकड़ने की कोशिश कर रहा था। इत्तफ़ाक़ से कबूतर का पंजा लग गया और एक घण्टे के अन्दर उसकी मौत हो गयी। बाद में कबूतर के पंजों का मुआयना करने पर पता चला कि उसके एक नाख़ून पर किसी धातु का एक हल्का-सा ख़ोल चढ़ा हुआ था। बहरहाल, देखने से वह नाख़ून ही मालूम होता था और वह ख़ोल ज़हरीला था। क्या तुम समझते हो कि यह किसी मामूली आदमी का काम है? जाबिर को ज़हरों के बारे में बहुत जानकारी है।’’
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Re: नक़ली नाक

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‘‘ख़ैर, यह भी सही।’’ हमीद बोला। ‘‘लेकिन आप उसे कहाँ-कहाँ ढूँढते फिरेंगे? हो सकता है कि वह आपके आने की ख़बर सुन कर कहीं और चला जाये।’’

‘‘देखा जायेगा।’’

‘‘हम ठहरेंगे कहाँ?’’

‘‘दिलकुशा में...!’’

‘‘यह क्या है।’’


‘‘एक इमारत का नाम... बड़ी अच्छी जगह पर आबाद है।’’

‘‘अच्छा, उस कबूतर वाले मामले को कितने दिन हुए?’’

‘‘लगभग एक हफ़्ता।’’

‘‘ऐसे अजीबो-ग़रीब हादसे के बारे में तो अख़बारों में भी आना चाहिए था।’’

‘‘हाँ, इस बात को आउट नहीं किया गया। वाक़या दरअसल यह है कि मरने वाले में वह सारी निशानी मौजूद थी जो ज़हर खा लेने पर ज़ाहिर होती है, इसलिए लोगों ने यही समझा कि उसे किसी ने ज़हर खिलाया है। रामगढ़ के एस.पी. ने तहक़ीक़ात के दौरान पता लगाया कि उसने मरने से एक घण्टा पहले कोई कबूतर पकड़ा था। उसने यूँ ही बिना मतलब कबूतर को देखने की ख़्वाहिश ज़ाहिर की। जिस वक़्त वह उसे हाथ में उठाये देख रहा था, उसने पंजे चलाने शुरू कर दिये। इत्तफ़ाक़ से उसका एक नाख़ून एस.पी. के कोट के बटन में फँस गया। उसने झटके के साथ उसे निकालने की कोशिश की... नाख़ून तो निकल आया, लेकिन उस पर चढ़ा हुआ ख़ोल कोट ही में अटका रह गया। उसने ख़ोल निकाल कर एहतियात से रख लिया और कबूतर को भी अपने साथ लेता आया। उसने पता लगाने के लिए उस नुकीले ख़ोल को एक बिल्ली के चुभो कर देखा। लगभग एक घण्टे के बाद वह बिल्ली तड़प-तड़प कर मर गयी। मामला हद से ज़्यादा पेचीदा हो गया था। इसलिए उसने इसका बयान अपनी रिपोर्ट में नहीं लिखा। पहले तो वह ख़ुद ही छिपे तौर पर कबूतर के बारे में छान-बीन करता रहा। लेकिन जब उसे कोई कामयाबी नहीं मिली तो उसने मुझे लिखा। वह मेरा क्लासफ़ेलो रह चुका है। इसीलिए मैं उसकी दरख़्वास्त को रद्द न कर सका।’’

‘‘तो आपने मुझे इस बारे में क्यों नहीं बताया?’’ हमीद बोला।

‘‘अगर मैं पहले बता देता तो तुम यहाँ आने के लिए कभी छुट्टी न लेते।’’

‘‘तो इसका मतलब है कि आप मुझे धोखा दे कर यहाँ लाये हैं।’’

‘‘यही समझ लो...!’’'

‘‘अब मैं बहुत जल्द यह नौकरी छोड़ दूँगा।’’ हमीद ने कहा।

‘‘लेकिन क्या तुम मुझे छोड़ सकोगे?’’ फ़रीदी ने पूछा।

‘‘यही तो सबसे बड़ी मुसीबत है।’’

हमीद ख़ामोश हो गया। वह चलते-चलते थक गया था।

‘‘क्यों भई क्या वाक़ई पैदल ही चलोगे?’’ फ़रीदी बोला।

‘‘इरादा तो यही था... मगर ख़ैर...!’’ हमीद ने कहा और ख़च्चर वाले के हाथ से लगाम ले कर ख़च्चर पर बैठ गया।

फ़रीदी भी ख़च्चर पर सवार हो गया।

‘‘फ़िलहाल हम लोग माथुर के यहाँ चलेंगे।’’

‘‘माथुर कौन...!’’

‘‘यहाँ का एस.पी. है जिसने हमें बुलाया है।’’
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दूसरा कबूतर

फ़रीदी और हमीद रामगढ़ के एस.पी. के बँगले में बैठे चाय पी रहे थे। एस.पी. उन्हें पूरा केस बता रहा था।
‘‘बस, यह समझ लो कि बिल्ली की मौत के बाद से मेरी तहक़ीक़ात की गाड़ी ठप हो जाती है।’’ एस.पी. बोला।

‘‘मरने वाले की सोशल पोज़ीशन क्या थी?’’ फ़रीदी ने पूछा।

‘‘नवाबज़ादा शाकिर एक बहुत ही अच्छा आदमी था और सोसायटी में इज़्ज़त की नज़रों से देखा जाता था। वह था तो नौजवान ही, लेकिन बूढ़ों से ज़्यादा अक़्लमन्द था। उसकी शादी नहीं हुई थी। वह अपना ज़्यादातर वक़्त कबूतरों या किताबों में गुज़ारता था। अजीब बात थी कि वह एक कोने में बैठे हुए भी बहुत ही सोशल आदमी लगता था। उससे मिलने वाले उसे अकेला पसन्द नहीं करते थे, हालाँकि वह सौ फ़ीसदी अकेला रहना पसन्द करता था। यह उसके किरदार का एक अजीबो-ग़रीब पहलू था। किसी ने आज तक उसे किसी से लड़ते-झगड़ते नहीं देखा था। मेरा ख़याल है कि उसका कोई दुश्मन ही नहीं था।’’

‘‘थोड़ा बहुत अय्याश तो ज़रूर रहा होगा?’’ फ़रीदी ने पूछा।

‘‘मैंने उसके बारे में कभी कोई ऐसी बात नहीं सुनी जिससे उसका अय्याश होना साबित होता और यहाँ कोई ऐसा रईस नहीं जो उसके बारे में न जानते हों।’’

‘‘यहाँ उसके साथ कौन-कौन रहता था?’’

‘‘सिर्फ़ कुछ नौकर... उसका कोई रिश्तेदार उसके साथ नहीं रहता था?’’

‘‘कोई ऐसा रिश्तेदार जो उसकी मौत के बाद उसकी जायदाद का मालिक हो सके।?’’

एस.पी. कुछ सोचने लगा।

‘‘हाँ... एक साहिबा हैं... नवाब अख़्तरुज़्ज़माँ की बेवा।’’ ‘‘मरने वाले से उसका रिश्ता...?’’

‘‘चचेरी बहन...!’’

‘‘उम्र...?’’

‘‘यही कोई चौबीस-पच्चीस साल... एक सात-आठ साल की बच्ची भी है।’’

‘‘मरने वाले से उसके ताल्लुक़ात कैसे थे?’’

‘‘अच्छे ही थे... वैसे कोई ऐसी बात ही नहीं थी कि कुछ कहा जा सके।’’

‘‘तुमने उससे इस केस के बारे बातचीत ज़रूर की होगी?’’

‘‘हाँ, वह बहुत ग़म में थी।’’

‘‘मेरा मतलब यह नहीं... तुमने उससे बातचीत करने के बाद क्या नतीजा निकाला?’’

‘‘यही कि उस पर किसी तरह का शक नहीं किया जा सकता।’’

‘‘शक न करने की वजह?’’

‘‘वह एक बहुत ही शरीफ़ औरत है।’’

‘‘यह तो कोई वजह न हुई। आख़िर तुम उसे शरीफ़ किस वजह से समझते हो?’’

‘‘इसका अन्दाज़ा तो तुम उसे देख कर ही लगा सकोगे।’’

‘‘यानी इसका यह मतलब है कि वह सूरत से शरीफ़ मालूम होती है।’’


‘‘नहीं भई, यह बात नहीं।’’ एस.पी. उकता कर बोला।

‘‘ख़ैर, इसे हटाओ।’’ फ़रीदी ने कुछ सोचते हुए कहा। ‘‘उसके ख़ास-ख़ास दोस्तों में कोई ऐसा आदमी है जिस पर शक किया जा सके?’’

‘‘मैंने हर एक को अच्छी तरह टटोल कर देख लिया है। उनमें से भी कोई ऐसा नहीं जिस पर शक किया जा सके।’’ एस.पी. ने जवाब दिया।

‘‘उसके दोस्तों में कोई कबूतरबाज़ है?’’

‘‘हाँ... एक साहब हैं तो।’’ एस.पी. कुछ सोचता हुआ बोला। ‘‘सिद्दीक़ अहमद साहब, रिटायर्ड जज।’’

‘‘कैसे आदमी हैं?’’


‘‘अच्छे आदमी हैं।’’
‘‘मैं ज़रा उस कबूतर और उसके नाख़ून पर चढ़े हुए खोल को देखना चाहता हूँ।’’

एस.पी. ने कबूतर मँगवाया जो एक पिंजरे में बन्द था।

‘‘कबूतर तो अच्छी नस्ल का मालूम होता है... शीराज़ी है।’’

‘‘मैं कबूतरों के बारे में कुछ नहीं जानता।’’ एस.पी. बोला।

हमीद उसके नाख़ून पर चढ़े हुए ख़ोल को देर तक देखता रहा।

‘‘वाक़ई मुज़रिम बहुत ही दिमाग़ी मालूम होता है।’’ फ़रीदी बोला।
‘‘इसमें शक नहीं।’’

‘‘अच्छा थोड़ा-सा काग़ज़ तो दो।’’

एस.पी. ने मेज़ पर से पैड उठा दिया। फ़रीदी लिखने लगा।
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दस हज़ार रुपये इनाम

‘‘उस शख़्स को दिया जायेगा, जो हिन्दुस्तान के मशहूर डाकू राहुल को मुर्दा या ज़िन्दा लायेगा। हम यहाँ उसकी तस्वीर छाप रहे हैं ताकि पब्लिक उससे होशियार रहे। राहुल उन लोगों में से है जो ज़रा-ज़रा-सी बात पर क़त्ल कर देते हैं। आजकल उसने रामगढ़ में अड्डा बना रखा है। पब्लिक को होशियार रहना चाहिए।’’

फ़रीदी ने जेब से एक तस्वीर निकाल कर उस लिखी हुई तहरीर के साथ एस.पी. को दे दी।

‘‘यह इश्तहार जितनी जल्दी हो सके छपवा कर बँटवा दो।’’ फ़रीदी ने कहा।

एस.पी. ने उसे पढ़ा और हैरत से फ़रीदी को देखने लगा।

‘‘मैं इसका मतलब नहीं समझा।’’

‘‘मेरे काम करने के दो तरीक़े होते हैं।’’ फ़रीदी ने कहा।

‘‘मगर मैं बड़े अफ़सरों को इसका क्या जवाब दूँगा?’’ एस.पी. बोला।

‘‘कह देना कि इसमें एक राज़ छिपा हुआ है।’’


‘‘मगर यह राहुल है क्या मुसीबत और इस केस से उसका क्या ताल्लुक़?’’

‘‘अभी मैं इसका जवाब नहीं दे सकता।’’ फ़रीदी ने कहा। ‘‘और हाँ, देखो! इसके अलावा मुँह से अफ़वाहें उड़ाने की कोशिश करो कि नवाबज़ादा शाकिर की मौत में भी इसी राहुल का हाथ है।’’

‘‘भई, मेरी तो कुछ समझ ही में नहीं आता।’’ एस.पी. बेबसी से बोला।

‘‘फ़िलहाल कुछ ज़्यादा समझने की कोशिश मत करो।’’ फ़रीदी ने कहा। ‘‘यह इस केस की तफ़तीश के सिलसिले में मेरा पहला क़दम है।’’

एस.पी. ख़ामोशी से उसे देख रहा था।

‘‘अच्छा, तो अब हम चलें।’’ फ़रीदी ने उठते हुए कहा। ‘‘हाँ, मुझे अख़्तरुज़्ज़माँ की बेवा और सिद्दीक़ अहमद के पते भी दो।’’

एस.पी. ने एक काग़ज़ पर दोनों के पते लिख कर फ़रीदी को दे दिये।

दिलकुशा की तरफ़ वापस जाते वक़्त हमीद ने फ़रीदी से कहा, ‘‘आख़िर यह राहुल वाली बात क्या थी?’’

‘‘इतने दिनों से मेरे साथ हो, मगर अभी तक अक़्ल न आयी।’’ फ़रीदी ने कहा। ‘‘अरे मियाँ साहबज़ादे अगर यह न करता तो जाबिर से हाथ धो लेने पड़ते। तुम जानते हो कि मैं हमेशा मुजरिमों को धोखा दे कर काम करता हूँ।’’

‘‘तो क्या आप समझते हैं कि जाबिर इस बार भी धोखा जायेगा।’’ हमीद ने कहा।

‘‘ज़रूरी नहीं।’’

‘‘फिर इससे क्या फ़ायदा?’’

‘‘तो इसका यह मतलब है कि हाथ-पर-हाथ रखे बैठा रहूँ।’’ फ़रीदी ने कहा। ‘‘इसमें कोई शक नहीं कि वह बहुत शातिर है, लेकिन शायद क़ाबू में आ ही जाये।’’

‘‘आपकी आवाज़ में मायूसी है।’’ हमीद बोला।

‘‘हाँ... जाबिर को पकड़ना आसान काम नहीं। य़कीन मानो मैं ख़ुद को उसके सामने स्कूल का बच्चा समझता हूँ। भेस बदलने के मामले में वह तो अपना जवाब नहीं रखता।’’

‘‘तब तो अल्लाह ही मालिक है।’’ हमीद ने कहा। ‘‘हमें अपनी जान का ख़तरा मालूम होता है। मालूम नहीं वह कब वार कर बैठे और हमें ख़बर तक न हो।’’

‘‘ख़ैर, इसकी तो कुछ परवाह नहीं।’’ फ़रीदी ने कहा। ‘‘क्योंकि एक जासूस को हर वक़्त मरने के लिए तैयार रहना चाहिए।’’

‘‘मैं आपसे क़सम खा कर कहता हूँ कि मैंने आज तक ख़ुद को जासूस समझा ही नहीं।’’

‘‘नहीं, तुम बहुत अच्छे जासूस हो।’’

‘‘आपको ग़लतफ़हमी हुई है।’’

‘‘ख़ैर... हाँ... क्यों न लगे हाथ सिद्दीक़ अहमद साहब से भी मिलते चलें।’’ फ़रीदी ने कहा।

दिलकुशा जाने की बजाय दोनों ऐलबर्ट रोड के चौराहे पर पूरब की तरफ़ मुड़ गये। सिद्दीक़ अहमद का बँगला अच्छी जगह पर था। बँगले के सामने एक ख़ूबसूरत बाग़ था जिसमें जगह-जगह कबूतरख़ाने बने हुए थे। अधेड़ उम्र का एक आदमी सफ़ेद कमीज़ पहने, खड़ा एक कबूतर के पंजे देख रहा था।

‘‘क्या जज साहब हैं?’’ फ़रीदी ने उसके क़रीब पहुँच कर कहा।

‘‘ऊँ...!’’ कह कर वह इस तरह चौंका कि कबूतर हाथ से निकल कर उड़ गया।

वह फ़रीदी और हमीद को सवालिया निगाहों से घूर रहा था।

‘‘हम लोग जज साहब से मिलना चाहते हैं।’’

‘‘लेकिन क्यों मिलना चाहते हैं।’’ वह रौब में बोला। फिर फ़ौरन ही सँभल कर कहने लगा। ‘‘कहिए।’’
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