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काल -कोठरी का दरवाजा चरमराता हुआ खुला और सेण्ट्रल जेल के जेलर ने अन्दर कदम रखा।
“मुझे हैरानी हो रही है।”
“कैसी हैरानी?”
वह एक खूबसूरत—सी लड़की थी।
बहुत खूबसूरत।
उम्र भी ज्यादा नहीं। मुश्किल से पच्चीस—छब्बीस साल।
वही उस काल—कोठरी के अन्दर कैद थी।
“यही सोचकर हैरानी हो रही है।” जेलर बोला—”कि तुमने अपनी अंतिम इच्छा के तौर पर मांगा भी तो क्या मांगा? सिर्फ कुछ पैन और कागज के कुछ दस्ते। आखिर तुम उनका क्या करोगी?”
लड़की ने गहरी सांस छोड़ी।
उसके चेहरे पर एक साथ कई रंग आकर गुजर गये।
“मैं एक कहानी लिखना चाहती हूं जेलर साहब!”
“कहानी!”
“हां, अपनी कहानी। अपनी जिन्दगी की कहानी।”
“ओह! यानि तुम आत्मकथा लिखना चाहती हो।”
“हां।”
“लेकिन उससे होगा क्या?”
“शायद कुछ हो। शायद मेरे साथ जो कुछ गुजरा है, वो एक दास्तान बनकर सारे जमाने को मालूम हो जाये।”
“मेरे तो तुम्हारी कोई बात समझ नहीं आ रही है।”
लड़की हंसी।
मगर उसकी हंसी में भी दर्द था।
तड़प थी।
“आप एक पुलिस ऑफिसर हैं, आप मेरी बात इतनी आसानी से समझ भी नहीं सकते। मेरी बात समझने के लिये दिमाग नहीं, बल्कि सीने में एक दर्द भरा दिल चाहिये।”
“लेकिन तुम भूल रही हो लड़की!” जेलर बोला—”कि तुम्हें फांसी होने में सिर्फ तीन दिन बाकी है।”
“मैं कुछ भी नहीं भूली।”
“इतने कम समय में तुम अपनी जिन्दगी की कहानी कैसे लिख पाओगी?”
“शायद लिख पाऊं। कोशिश करके तो देखा ही जा सकता है।”
“काफी जिद्दी हो।”
जेलर को उस लड़की से हमदर्दी थी।
कहीं—न—कहीं उसके दिल में उसके प्रति सॉफ्ट कॉर्नर था।
“जिद नहीं- यह मेरी अंतिम इच्छा है जेलर साहब!” लड़की टूटे—टूटे, बिखरे—बिखरे स्वर में बोली—” आपने ही तो मेरी अंतिम इच्छा के बारे में पूछा था। लेकिन मेरी इच्छा को पूरी करने में अगर आपको कोई मुश्किल पेश आ रही है, तो फिर रहने दीजिए।”
“नहीं- कोई मुश्किल नहीं है।” जेलर तुरन्त बोला—” मैं अभी तुम्हारे लिये पेन और कागज के कुछ दस्ते भिजवाता हूं।”
“थैंक्यू जेलर साहब! अपनी जिन्दगी और अपने इरादों से पूरी तरह हिम्मत हार चुकी यह बेबस लड़की आपके इस अहसान को कभी नहीं भुला पायेगी।”
जेलर वहां से चला गया।
थोड़ी ही देर में कुछ पैन और कागज के चार दस्ते जेल की उस काल—कोठरी में पहुंच गये थे।
1
मेरा बचपन
मुझे अपने नाम से ही शुरू करना चाहिए।
मेरा नाम शिनाया है।
शिनाया शर्मा!
काफी खूबसूरत नाम है।
जैसा नाम- वैसी मैं!
बेहद खूबसूरत!
यौवन और सुन्दरता के प्याले में उफनती शराब की तरह, जो हर बांध को जबरन तोड़ डालना चाहे। जिसकी सांसों की गर्मी जब अपने पूरे उफान पर हो, तो लोहा पानी बनकर बहने लगे।
यूं तो औरत का जिस्म ही उसकी सबसे बड़ी ताकत होता है।
जिसकी बिना पर वो हर खेल, खेल सकती है।
मगर यकीन मानिये- औरत का वही जिस्म उसकी सबसे बड़ी कमजोरी भी है। इस कमजोरी का अहसास आपको कहानी में आगे चलकर होगा।
मेरा जन्म मुम्बई शहर के एक ऐसे बदनाम इलाके में हुआ—जिसे फारस रोड के नाम से जाना जाता है।
मेरी मां वेश्या थी।
अपना जिस्म बेच—बेचकर वो अपनी गुजर करती थी और मैं उसके ऐसे ही कुकर्मों का प्रतिफल थी।
मेरा बाप कौन है- यह उसे भी मालूम न था।
जरा सोचिये- जिस औरत ने अपने जिस्म को कारपोरेशन की सड़क की तरह इस्तेमाल किया हो, जिसके ऊपर से सैकड़ों मर्द गुजर गये, वह कैसे बता सकती है- उसकी कोख में पनप रहा बीज किसका है।
फिर भी मुझे अपनी मां से पूरी हमदर्दी है।
खासतौर पर जैसी मौत उसे नसीब हुई- ईश्वर ऐसी मौत तो किसी दुश्मन को भी न दे।
सैकड़ों की संख्या में पुरुषों के साथ सहवास करने के कारण उसे एड्स हो गया था।
वो मर गयी।
अब आप खुद अन्दाज लगा सकते हैं कि उसका जो जिस्म कभी उसकी सबसे बड़ी ताकत था, वही उसकी सबसे बड़ी कमजोरी बन गया।
मां तो चल बसी- लेकिन मेरी देखभाल करने वाली औरतों की उस कोठे पर कोई कभी न थी।
चाची, ताई, बुआ, अम्मा- ढेरों औरतें।
सबसे मुझे मां जैसा ही प्यार मिला।
फिर मेरी सबसे बड़ी खूबी ये थी- मैं एक लड़की थी। ऊपर से बला की खूबसूरत। जब मैं पांच साल की थी- तभी से कोठे पर आने वाले छिछोरे और बद्जात मर्द मुझे इस तरह घूर—घूरकर देखने लगे, मानो किसी नंगी—बुच्ची औरत को देख रहे हों।
और कहर ऊपर वाले का, ग्यारह साल की उम्र तक पहुंचते—पहुंचते तो मैं ऐसी कड़क जवान हो गयी कि मेरे फनफनाते यौवन के सामने मेरी चाची, ताई और बुआ तक शर्मसार होने लगीं।
“हाय दइया!” मेरी एक चाची तो अपने मुंह पर हाथ रखकर बड़ी हैरत के साथ कहती—”यह लड़की है या बबालेजान है। कमबख्तमारी को देखो तो अभी से कैसी बिजलियां गिराने लगी है।”
चाची की बात सुनकर सब औरतें हंस पड़तीं।
कभी—कभी मैं भी मुस्कुरा देती।
कोठे की औरतें अक्सर मर्दों की बेहयाई की भी खूब हंस—हंसकर चर्चाएं करतीं। उनके बीच यह बातें भी खूब होतीं कि मर्दों को कैसे रिझाया जाता है, कैसे उन्हें काबू किया जाता है और किस प्रकार मर्दों के ऊपर शेर की तरह सवार रहना चाहिए। मेरा दावा है, कोठे की उन बड़ी—बूढ़ियों की बातों को अगर कोई लकड़ी अपनी गिरह में बांध ले- तो फिर वह सात जन्म तक भी किसी मर्द से मात न खाए।
उन बातों के सामने ‘कामसूत्र’ की क्लासें तो कुछ भी नहीं।
•••
अब मुझे वो दहशतनाक घटना याद आ रही है, जब मैं किसी मर्द के साथ पहली बार हमबिस्तर हुई।
मैं उस घटना को दहशतनाक इसलिए कह रही हूं, क्योंकि तब मैं बहुत डरी हुई थी।
आखिर मेरी उम्र ही क्या थी- तेरह वर्ष।
और वह पैंतीस—चालीस साल का पूरा मुस्टण्डा जवान था। ऊपर से काला भुजंग! बड़ी—बड़ी मूंछें। हंसता तो उसके मूछों के बल इस तरह फड़फड़ाते, जैसे बारीक—बारीक सुइयें खड़ी हो गयी हों।
कमरे में आकर उसने दरवाजा अंदर से बंद कर लिया।
“खबरदार!” मैं उसे चेतावनी देते हुए गुर्रायी— “खबरदार- मुझे हाथ भी मत लगाना।”
मेरी चेतावनी सुनकर वो हंसा।
उसकी हंसी बहुत घटिया थी।
उसने पान का बीड़ा निकालकर अपने गाल में ठूंसा और उसकी बड़े वाहियात अंदाज में जुगाली करता हुआ धीरे—धीरे मेरी तरफ बढ़ने लगा।
“सुना नहीं।” मैं दहाड़ी—”आगे मत बढ़ो- आगे मत बढ़ो।”
“क्यों?” वो पुनः अश्लील भाव से हंसा—”डर लगता है।”
मैंने फौरन वहीं रखा निकिल उतरा हुआ तांबे का फूलदान उठाकर बड़ी जोर से उसकी तरफ खींचकर मारा।
वह नीचे झुका।
उसकी खोपड़ी तरबूज की तरह फटने से बस बाल—बाल बची।
उसी क्षण वो मेरे ऊपर झपट पड़ा।
मैं भागी।
लेकिन भागकर भी कहां जाती!
तीन गज का कमरा था। उसने फौरन ही मुझे दबोच लिया।
मैं चीखने लगी। छटपटाने लगी। हाथ—पैर पटकने लगी।
उसने कसकर मुझे अपने आगोश में भर लिया।
फिर उसके भद्दे होठ मेरे होंठों पर आ टिके।
उसने मेरा प्रगाढ़ चुम्बन लिया।
और!
मेरे तन—बदन में सनसनाहट दौड़ गयी।
“पीछे हटो।” मैं पुनः दहाड़ी।
मैंने अपने नाखूनों से उसका चेहरा खरोंच डाला।
मगर वह एक इंच भी न हिला।
वह पागल हो रहा था।
उसने मेरे कपड़े फाड़कर उतार डाले।
मैं नग्न हो गयी।
निर्वस्त्र!
“भगवान के लिये!” मैं उसके सामने हाथ जोड़कर गिड़गिड़ाई—”मुझे छोड़ दो।”
मेरा पूरा जिस्म हल्दी की तरह पीला जर्द पड़ चुका था।
मैं डर के मारे थर—थर कांप रही थी।
परन्तु मेरी किसी चीख, किसी फरियाद ने उसके दिल को न पिघलाया।
“वाकई लाजवाब हैं।” मुझे उस रूप में देखकर वह और दीवाना हो उठा।
उसने मुझे और कसकर पकड़ लिया।
उसके बाद मैं बेबस हो गयी थी।
पूरी तरह बेबस।
जल्द ही मेरी चीख़ से तीन गज का वह पूरा कमरा दहल उठा।
•••
मैं सारा दिन और सारी रात सदमे की हालत में रही।
मेरी दोनों जांघें पके फोड़े की तरह दुःख रही थीं और नितम्बों में भी हल्का—हल्का दर्द था।
जो कुछ मुझे झेलना पड़ा था- अगर इतनी कम आयु में किसी दूसरी लड़की को झेलना पड़ता, तो मेरी गारण्टी हैं कि वो निश्चित रूप से मर जाती।
लेकिन मैं जिन्दा थी।
न सिर्फ जिन्दा थी, बल्कि एकदम सही—सलामत थी।
और यही बात अपने आपमें एक पर्याप्त सबूत है कि तेरह वर्ष की आयु में ही मेरा शरीर कितना परिपक्व हो गया था।
कुछ दिन तक दहशत मेरे ऊपर बुरी तरह हावी रही।
परन्तु फिर एकाएक मेरे अंदर बड़ा भूकंपकारी परिवर्तन हुआ। प्रथम सहवास का जो खौफ मेरे दिल में बैठा था,वो निकल गया। मुझे धीरे—धीरे उसका कल्पना मात्र से ही अनोखा सुकून मिलने लगा- जो मेरे साथ हुआ था।
कैसी सैक्सुअल फेंसी थी?
कैसा पागलपन भरा अहसास था?
कोठे पर ही तमाम औरतों के साथ एक तबलची भी रहता था, जो नाच—गाने के प्रोग्राम में कभी—कभार ढोलक बजा लिया करता।
एक रात मैं चुपके से उस तबलची के कमरे में जा घुसी।
कमरे में घुसते ही मैंने अपने शरीर के तमाम कपड़े उतार फेंके।
“यह सब क्या है?” तबलची बौखलाया।
“क्यों?” मैं अपने होठ चुभलाते हुए बड़े कुत्सित भाव से मुस्कुराई—”मुझे देखकर तुम्हारे अंदर कुछ-कुछ होता नहीं?”
तबलची की खोपड़ी उलट गयी।
शायद उसने ख्वाब में भी नहीं सोचा था, कभी मैं भी उससे इस तरह की बात करूंगी।
आखिर मैं तो बच्ची थी।
तबलची की हालत कुछ सोचने-समझने लायक होती, उससे पहले ही मैं आगे बढ़कर उससे लिपट गयी।
फिर मैंने उसका एक चुम्बन भी ले डाला।
चुम्बन विस्फोटक था।
मैंने देखा- उस एक चुम्बन ने ही उसे उन्माद से भर दिया।
और!
खलबली मेरे अंदर भी मच गयी।
मेरा जिस्म रोमांस से भरता चला गया।
“सचमुच!” तबलची अब बड़े दीवानावार आलम में मुझे निहारने लगा—”तुम इतनी खूबसूरत होओगी- मैंने सोचा भी न था।”
तबलची ने अब कसकर मुझे अपनी बांहों के दायरे में समेट लिया।
उसका स्पर्श पाकर मैं रोमांचित हो उठी।
“आई लव यू बेबी- आई लव यू!” तबलची भी पागल हो उठा।
“मुझे बेबी मत बोलो।” मैंने थोड़ा नाराजगी के साथ कहा।
“इसमें कोई शक नहीं।” तबलची मुझे देखता हुआ मुस्कुराया—”अब तुम बेबी नहीं हो।”
उसके बाद उसने मुझे उठाकर वहीँ एक बिस्तर पर पटक दिया।
यह मेरी जिन्दगी का पहला रोमांस था- जिसका मैंने भरपूर मजा लूटा था।
उसके बाद तो वह तबलची भी मेरा खूब दीवाना हो गया।
वह हमेशा मक्खी की तरह मेरे आगे-पीछे मंडराता रहता।
मेरे लिए बाजार से खुश्बूदार तेल लाता। गजरा लाता। मुझे घुमाने ले जाता। मैं जो कहती, मेरा हर वो काम खुशी से दौड़-दौड़कर पूरा करता। मेरी जिन्दगी का वो पहला सबक था, जब मुझे इस बात का पूरी संजीदगी के साथ अहसास हुआ कि इंसानी रिश्तों में औरत की हैसियत किसी मदारी जैसी होती है- जिसकी डुगडुगी पर मर्द बिल्कुल बंदर की तरह नाच सकता है।
शर्त सिर्फ एक है!
औरत अपने फन की पूरी उस्ताद होनी चाहिए।
वरना वही मर्द उसका बेड़ागर्क कर सकता है। उसके ऊपर हावी हो सकता है।
•••
यह सारी प्रारम्भिक शिक्षाएं थीं- जो मुझे ‘फारस रोड’ के उस कोठे पर रहकर मिलीं।
बीस वर्ष की उम्र तक पहुंचते-पहुंचते इस प्रकार की ढेरों बातें मुझे सीखने को मिल चुकी थी।
इस बीच मैं वेश्याओं की दुर्दशा से भी अच्छी तरह वाकिफ हुई।
एक बार वो उम्र के ढलान पर पहुंची नहीं, फिर उन्हें कोई नहीं पूछता था। न मर्द! न चकले चलाने वाली बड़ी—बूढ़ियां! फिर तो उनकी हालत गली के उस कुत्ते से भी बद्तर होती थी, जो दुर-दुर करता हुआ सारा दिन इधर-से-उधर मारा-मारा फिरता है।
तब दौलत की अहमियत मेरी समझ में आयी।
दौलत ही वो वस्तु है- जिसकी बिना पर कोई वेश्या उम्र के ढलान पर पहुंचने के बाद भी खुद को सम्भालकर रख सकती है। इसलिए समझदार वेश्या वही है, जो अपनी जवानी के दिनों में खुद को खूब जमकर कैश करे और बुढ़ापे के लिए ढेर सारी दौलत का इंतजाम एडवांस में करके रखे।
यह बात समझ आते ही मैंने सबसे महत्त्वपूर्ण कदम ये उठाया कि मैंने फारस रोड का वो कोठा छोड़ दिया और एक ‘नाइट क्लब’ में बहुत हाई प्राइज्ड कॉलगर्ल बन गयी।
क्योंकि ढेर सारी दौलत कमाने की गुंजाइश ‘नाइट क्लब’में ही ज्यादा थी।
हाई प्राइज्ड कॉलगर्ल बनने के बाद मानो मेरी दुनिया ही बदल गयी।
अब मेरा वास्ता ऐसे बिगडै़ल रईसजादों से पड़ता, जो दोनों हाथों से खुलकर पैसा लुटाते थे। जिनके लिए पैसे की कोई अहमियत ही न थी।
मैं उनके साथ कारों में घूमती।
आलीशान फ्लैट्स और फाइव स्टार होटलों के अंदर जाती।
वह मेरे लिए नई दुनिया थी।
नई और रंगीन दुनिया। जिसमें इन्द्रधनुषी रंग भरे हुए थे।
अब मैंने अपने लिए मुम्बई के चार बंगला इलाके में एक आलीशान फ्लैट भी किराये पर ले लिया था।
मैं कीमती-से-कीमती सौंदर्य प्रसाधन इस्तेमाल करती।
शानदार कपड़े पहनती।
परन्तु शीघ्र ही मुझे एक नई मुश्किल का सामना करना पड़ा।
जहां मेरी आमदनी बढ़ी थी- वहीं मेरे खर्चे भी अब बहुत बढ़ चुके थे। फिर एक मुश्किल और थी, मैं उस ऐशो-आराम की इस कदर आदी हो गयी थी कि उसके बिना जिन्दगी गुजारने की कल्पना मात्र से ही मुझे दहशत होती।
मैं यह भी जानती थी कि उस ऐशो-आराम को तमाम उम्र बरकरार रखना भी मेरे लिए कठिन है।
क्योंकि हाई प्राइज्ड कॉलगर्ल के उस धंधे में चाहे जितना पैसा था- लेकिन उतना पैसा फिर भी नहीं था, जो तीस के बाद की तमाम उम्र उसी ऐशो-आराम के साथ गुजारी जा सकती।
फिर एड्स होने का भी मुझे भय था।
मैं अपनी मां की तरह खौफनाक मौत नहीं मरना चाहती थी।
जिन्दगी की दुश्वारियों का अहसास मुझे अब हो रहा था।
सच बात तो ये है- मैं कभी अपनी मां की मौत के बारे में सोच भी लेती, तो मेरे शरीर में दहशत की लहर दौड़ जाती और मुझे कॉलगर्ल के उस धंधे से नफरत होने लगती।
उन्हीं दिनों मेरे दिमाग में एक बड़ा नायाब विचार आया।
हां!
वह विचार नायाब ही था।
क्योंकि उस एक विचार की बदौलत ही मेरी जिन्दगी में वो जबरदस्त भूकंप आया, जिसकी बदौलत मैं अपने मौजूदा अंजाम तक पहुंची।
जिसके कारण मुझे सजा भुगतनी पड़ी।
मैंने सोचा- क्यों न मैं किसी खूबसूरत रईसजादे को अपने प्रेम-जाल में फांसकर उससे शादी कर लूं?
जरा सोचो- इस तरह तो मेरी तमाम दुश्वारियों का ही हल निकल आता।
फिर मुझे न भविष्य की चिंता थी- न वर्तमान की। वैसे भी मैं ‘नाइट क्लब’ की उस हंगामाखेज गहमा-गहमी से ऊब चुकी थी और फिलहाल हर वक्त मुझे अपने आने वाले कल की फिक्र लगी रहती थी।
जल्द ही मैंने अपने उस नायाब विचार पर काम शुरू कर दिया।
मैंने कई रईसजादों को अपने प्रेम-जाल में फांसने का प्रयास किया।
लेकिन बात नहीं बनी।
शीघ्र ही मुझे इस बात का अहसास हो गया कि वो काम इतना आसान नहीं था- जितना मैं समझ रही थी।
रईसजादे मेरे आगे-पीछे हर वक्त जो मक्खियों की तरह भिनभिनाते हुए घूमते थे, वह अलग बात थी। और उनसे शादी करना सर्वथा अलग बात थी। अपने जिन चुने हुए ग्राहकों के ऊपर मैंने डोरे डाले- उनमें से जहां कुछेक बाद में शादी-शुदा निकल आये, वहीं कुछ घबराहट के कारण मुझे बीच में ही छोड़कर भाग खड़े हुए। दो-एक रईसजादों के साथ बात शादी तक पहुंची भी, तो उनके परिवारजनों की तरफ से इतना सख्त विरोध हुआ कि वह उस विरोध के सामने ज्यादा देर तक टिके न रह सके।
•••
मुझे आज भी याद है- वह 22 दिसम्बर की रात थी।
उस रात एक हेण्डसम नौजवान ने मुझे अपने लिए बुक किया और रात रंगीन बनाने के लिए अपने शानदार फ्लैट पर ले गया। उसकी उम्र अड़तीस-चालीस साल के आसपास थी। बाल घुंघराले थे और रंग गोरा-चिट्टा था। वह शादीशुदा नजर आ रहा था और किसी खाते-पीते परिवार का दिखाई पड़ता था।
“लगता है- तुम्हारी बीवी शायद घर पर नहीं है।” मैं उसके फ्लैट में दाखिल होते हुए बोली।
नौजवान हंसने लगा।
“अगर बीवी घर पर होती।” वह बोला—“तो मैंने तुम्हें अपने साथ यहां लाकर क्या करना था! फिर तो इतनी देर में तलाक की नौबत आ जाती।”
“कहां गयी वो?”
“उसकी सहेली के भाई की शादी है।” नौजवान ने बताया—“आज सारी रात वो वहीं रहेगी।”
“और बच्चे?”
“बच्चे भी उसी के साथ है।”
“बढ़िया! यानि आज सारी रात खूब गुलछर्रे उड़ाने प्लान है।”
“इसमें तो कोई शक ही नहीं।” नौजवान चंचल भाव से बोला—“रोजाना एक ही तरह का व्यंजन खाते-खाते बोर हो गया हूं, इसलिए आज सोचा कि क्यों न कोई नया डिश चखकर देखा जाए।”
“नया डिश?”
“हां- जो कि मेरे सामने बैठा है और जिसे मैंने सारे का सारा हज्म कर जाना है तथा डकार भी नहीं लेनी।”
मैं मुस्कुराई।
“विचार काफी अच्छे हैं।”
वो भी हंसा।
मैं जानती थी- आधे से ज्यादा शादी-शुदा मर्दों की यही प्रॉब्लम्स होती है। उनकी बीवी चाहे कितना ही स्मार्ट क्यों न हो, वह उससे बोर हो जाते हैं। उसके बाद उनका इधर-उधर मुंह मारने का सिलसिला शुरू होता है।
भटकने का सिलसिला शुरू होता है।
उस नौजवान ने मुस्कुराते हुए वार्डरोब में से अपने लिए एक नाइट गाउन निकाला और एक तौलिया निकाला।
नाइट गाउन, अंगरखे जैसा था- जिसमें साइड की तरफ डोरी बंधती थी।
“कहां जा रहे हो?”
“तुम थोड़ी देर आराम करो।” नौजवान बोला—“तब तक मैं बाथरूम से फ्रेश होकर आता हूं।”
“क्या बिना नहाये कुछ नहीं होगा?”
“नहीं। वैसे भी जल्दी क्या है- सारी रात अपनी है।”
नौजवान नहाने के लिये बाथरूम में घुस गया।
मैं बिस्तर पर लेट गयी।
वहीं एक अखबार पड़ा था। मैंने अखबार उठा लिया और उसके पन्ने पलटने लगी।
वह नौजवान कम-से-कम एक मायनें से दूसरे ग्राहकों से जुदा था। दूसरे ग्राहक एक क्षण के लिये भी कॉलगर्ल को अपने फ्लैट में अकेला नहीं छोड़ते थे। उन्हें हमेशा यह डर रहता था- अगर उन्होंने कॉलगर्ल को जरा भी अपने फ्लैट में अकेला छोड़ा, तो वह तुरन्त सामान चुराकर वहां से चम्पत हो जायेगी। लेकिन उसने विश्वास किया था, जो कि बड़ी बात थी।
उसी क्षण अखबार के पन्ने पलटते हुए मेरी निगाह अनायास एक बहुत सनसीखेज विज्ञापन पर पड़ी।
विज्ञापन ने मुझे चैंकाया।
आवश्यकता है- एक कुशल लेडी केअरटेकर की।
जो सत्ताइस-अट्ठाइस वर्षीय बेहद बीमार औरत की देखभाल कर सके तथा घर की साज-सफाई का काम भी सम्भाल सके। तुरन्त मिलें।
तिलक राजकोटिया।
प्रोपराइटर: राजकोटिया ग्रुप ऑफ होटल्स।
“ग्रुप ऑफ़ होटल्स!” मेरे होठों से सीटी बज उठी।
सचमुच वह कोई बड़ा आदमी था।
जो किसी फाइव स्टार होटल जैसी जगह में रहता होगा।
मेरी आंखें चमकने लगीं।
तभी वह नौजवान तौलिये से अपने सिर के बाल साफ करता हुआ बाहर निकल आया। उसने नाइट गाउन पहना हुआ था।
“क्या पढ़ रही हो डार्लिंग?”
“कुछ नहीं- एक विज्ञापन देख रही थी।”
“कैसा विज्ञापन?”
“यह तिलक राजकोटिया कौन है?” मैंने अखबार वापस बिस्तर पर रखते हुए पूछा।
नौजवान आहिस्ता से चिहुंका।
“तिलक राजकोटिया!”
“हां।”
“तुम तिलक राजकोटिया को नहीं जानती?”
“नहीं।”
“आश्चर्य है- तिलक राजकोटिया तो मुम्बई शहर का बहुत बड़ा आदमी है। बहुत रुतबे वाला आदमी है।”
“करता क्या है?”
“वह बिल्डर है।” नौजवान ने बताया—”एक बहुत बड़ी कंस्ट्रक्शन कम्पनी का ऑनर है। मुम्बई शहर में कई बड़ी-बड़ी रिहायशी इमारतें और शॉपिंग मॉल उसके द्वारा बनाये गये हैं, लेकिन आजकल बेचारा बहुत परेशान है।”
“क्यों- जब इतना बड़ा आदमी है, तो परेशान क्यों हैं?” मैं तिलक राजकोटिया के बारे में ज्यादा-से-ज्यादा जानकारी पाने को उत्सुक थी।
उस वक्त मेरे दिमाग में एक ही नाम मंडरा रहा था- तिलक राजकोटिया।
तिलक राजकोटिया।
“दरअसल तिलक राजकोटिया की परेशानी का असली सबब उसकी बीवी है।” नौजवान बोला—”वह आजकल सख्त बीमार चल रही है और उसके बचने की फिलहाल कोई गुंजाइश नहीं।”
“यह तो सचमुच दुःखद बात है।” मैंने कहा—”बीमारी क्या है उसकी बीवी को?”
“बीमारी का तो मुझे भी मालूम नहीं, लेकिन कुछ ज्यादा ही सीरियस केस है।”
“ओह!”
वह बात करता-करता मेरे नजदीक आया और उसने तौलिया एक खूंटी पर लटका दिया।
“वैसे उम्र क्या होगी तिलक राजकोटिया की?”
“उम्र भी ज्यादा नहीं है- मुश्किल से चौंतीस-पैंतीस साल होगी।”
मेरी आंखें चमक उठीं।
मुझे लगा- जिस तरह के शिकार की मुझे तलाश थी, वो मुझे मिल गया है।
आखिर कोई ऐसा ही पुरुष तो मुझे चाहिये था- जिसके साथ शादी करके मैं अपना भविष्य खुशहाल बना सकूं।
कोई ऐसा ही करोड़पति!
“अब हमें अपना प्रोग्राम आगे बढ़ाना चाहिये।” नौजवान मुस्कुराते हुए बिस्तर के ऊपर चढ़ आया।
“क्यों नहीं!”
“वैसे तुम तिलक राजकोटिया के बारे में इतने सवाल क्यों कर रही हो?”
“ऐसे ही- क्या तुम्हें बुरा लगा?”
“मुझे भला क्यों बुरा लगेगा।”
उस समय नौजवान का पूरा शरीर महक रहा था।
अगले ही पल हम दोनों रति-क्रीड़ा में मग्न हो गये।
बल्कि अगर मैं ये कहूं, तो कोई अतिश्योवित न होगी कि सिर्फ वही रति-क्रीड़ा में मग्न हुआ था। मेरा दिमाग तो उस क्षण कहीं और था।
मैं तिलक राजकोटिया के बारे में सोच रही थी।
उसकी बीवी बीमार थी और उसे उसकी देखभाल करने के लिये एक लेडी केअरटेकर की आवश्यकता थी। इससे एक बात और साबित होती थी कि उसके ‘पैंथ हाउस’में दूसरी कोई औरत भी नहीं थीं- जो देखभाल कर सकती।
यानि लाइन पूरी तरह क्लियर थी।
मैं खेल, खेल सकती थी।
तभी मेरे मुंह से तेज सिसकारी छूट पड़ी।