Thriller वारिस (थ्रिलर)

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Masoom
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Re: Thriller वारिस (थ्रिलर)

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“बुड्ढे तुम्हारी खास पसन्द जान पड़ते हैं ।” - मुकेश ने उसके कान के पास मुंह ले जाकर कहा ।

“क्या !” - रिंकी सकपकाई सी बोली ।

“मैं सिन्धी भाई की बात कर रहा था ।”

“अरे, वो सिर्फ चालीस साल का है ।”

“मुझे तो पचास से कम नहीं जान पड़ता ।”

“होगा । मेरे को कौन सा उससे शादी बनाना है ।”

“खीर खाने न देनी होतो चम्मच भी नहीं देना चाहिए ।”

“क्या ?”

“कुछ नहीं । बाई दि वे तुम कितनी उम्र की हो ?”

“लड़कियों से उनकी उम्र नहीं पूछते, बुद्धू ।”

“ठीक है, नहीं पूछता । चलो, यही बताओ कि असल में तुम कहां की रहने वाली हो ? क्योंकि इधर की तो तुम नहीं जान पड़ती हो; न नाम से, न सूरत से ।”

मैं पंजाब से हूं । अमृतसर की । और मालूम ?”

“क्या ?”

“मैं वहां की बड़ी हस्ती हूं ।”

“अच्छा !”

“हां । मेरे जन्म दिन पर पंजाब सरकार छुट्टी करती है । भले ही मालूम कर लेना कि तेरह अप्रैल को सारे पंजाब में छुट्टी होती है या नहीं ।”

“तेरह अप्रैल को पंजाब में तुम्हारे जन्म दिन की वजह से छुट्टी होती है ?”

“हां ।”

“बैसाखी की वजह से नहीं ?”

“नहीं ।”

“अभी तक कितनी बैसाखियां देख चुकी हो ?”

“तेईस ।”

“फिर तो तुम्हारी उम्र सवा तेईस साल हुई ।”

“अरे ! मेरा इतना पोशीदा राज खुल गया !”

मुकेश हंसा ।

“तुम वकील हो या जासूस ?”

“वसूस ।”

“वसूस ! वो क्या होता है ?”

“आधा वकील आधा जासूस ।”

तभी बैंड बजाना बन्द हो गया ।

तत्काल नृत्य बन्द हुआ, नर्तक जोड़ों ने तालियां बजाई और अपनी अपनी टेबलों की ओर लौट चले ।

वादे के मुताबिक मुकेश ने रिंकी को वापिस करनानी की टेबल पर जमा कराया । वो अपने केबिन में लौटा तो उसने पाया कि वहां केवल मीनू सावन्त मौजूद थी ।

“मिस्टर देवसरे कैसीनो में हैं ।” - उसके पूछे बिना ही उसने बताया ।

“ओह !”

उसके सामने एक अनछुआ ड्रिंक पड़ा था जो उसने मुकेश की तरफ सरका दिया ।

“आन दि हाऊस ।” - वो बोली - “कर्टसी अनन्त महाडिक ।”

“थैंक्यू ।” - मुकेश बोला - “आई नीडिड इट ।”

दो मिनट में उसने अपना गिलास खाली कर दिया और सोफे पर पसर गया ।

“मैं और मंगाती हूं ।” - मीनू बोली ।

“अभी नहीं ।”

“काफी थके हुए जान पड़ते हो ?”

“हां ।”

“खूबसूरत, नौजवान लड़की के साथ डांस करके कोई थका हो, ऐसा कभी सुना तो नहीं मैंने ।”

जवाब में मुकेश केवल मुस्कराया, उसने एक जमहाई ली और बोला - “सॉरी ।”

“नैवर माइन्ड ।”

मुकेश खामोश हो गया, उसने एक और जमहाई ली और फिर सॉरी बोला ।

मीनू अपलक उसके हर हाव भाव का मुआयना कर रही थी ।

तभी महाडिक वहां पहुंचा ।

“इट्स टाइम फार युअर नम्बर, हनी ।” - वो मीनू से बोला ।

मीनू सहमति में सिर हिलाती उठ खड़ी हुई ।

“स्टेज पर जा रही हूं ।” - वो बोली - “सुनना मेरा गाना ।”

मुकेश ने सहमति में सिर हिलाया ।

मीनू स्टेज पर पहुंची ।

बैंड बजने लगा ।

मीनू कोई विलायती गीत गाने लगी ।

मुकेश और ऊंघने लगा, सोफे पर और परसने लगा । गीत संगीत की आवाज उसके कानों में यूं पड़ने लगी जैसे फासले से आ रहा हो और जैसे वो फासला बढता चला जा रहा हो ।

आखिरकार फासला इतना बढ गया कि उसे गीत संगीत सुनायी देना बन्द हो गया ।
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मुकेश ने आंख खोली तो उसे क्लब के माहौल में सब कुछ बदला लगा ।

क्यों ? - तत्काल उसके जेहन में घंटी बजी - क्यों था ऐसा ?

उसने सबसे पहले सामने अपनी टेबल पर निगाह डाली तो टेबल को खाली पाया । वहां एक ऐश ट्रे के अलावा कुछ भी मौजूद नहीं था ।

उसकी निगाह हॉल की तरफ उठी तो उसने मेहर करनानी और रिंकी शर्मा की टेबल को खाली पाया ।

बैंड उस घड़ी खामोश था, डांस फ्लोर खाली था और मीनू सावन्त भी कहीं दिखाई नहीं दे रही थी ।

तभी उसकी निगाह उस वेटर पर पड़ी जो कि उन्हें सर्व करता रहा था । उसने हाथ के इशारे से उसे करीब बुलाया ।

“मिस्टर देवसरे कहां गये ?” - उसने पूछा ।

“वो तो चले गये ।” - वेटर बोला ।

“चले गये ! कब चले गये ?”

“बहुत टेम हो गया, साहब ।”

“कमाल है ! मेरे बिना चले गये ।”

“आप सोये पड़े थे, साहब ।”

“सोया पड़ा था ?”

“हां ।”

“यहां सोया पड़ा था ?”

“हां ।”

“जगाया क्यों नहीं मुझे ?”

“साहब ने मना किया था ।”

“साहब ने मना किया था !” - मुकेश ने यूं दोहराया जैसे अपने कानों पर यकीन न कर पा रहा हो ।

“हां । उन्होंने कैसीनो से यहां आकर आपको सोया पड़ा देखा तो बिल भरा और मेरे को खास करके बोला कि आपको जगाने का नहीं था ।”

“ओह !”

“मैं आपके लिये कुछ लाये, साहब ?”

“क्या ? नहीं । नहीं । कुछ नहीं मांगता । थैंक्यू ।”

वेटर वहां से चला गया ।

पीछे मुकेश महसूस कर रहा था कि उससे भारी कोताही हुई थी । उसके बॉस को पता चलता कि उसने अपने क्लायन्ट की निगाहबीनी में ऐसी लापरवाही और अलगर्जी दिखाई थी तो उसकी खैर नहीं थी । मन ही मन ये दुआयें करते कि नकुल बिहारी आनन्द को उस बात की खबर न लगे, वो अपने स्थान से उठा और हॉल पार करके उस गलियारे में पहुंचा जिसके सिरे पर मिनी कैसीनो था ।

कैसीनो में जुए के रसिया काफी लोग मौजूद थे लेकिन देवसरे उनमें नहीं था ।

फिर उसे आरलोटो दिखाई दिया ।

आरलोटो महाडिक का खास आदमी था और कैसीनो का मैनेजर था ।

वो उसके करीब पहुंचा ।

“मैं मिस्टर देवसरे को ढूंढता था ।” - वो बोला ।

“इधर आया था ।” - आरलोटो बोला - “चला गया ।”

“कब गये ?”

“कैसे बोलेंगा ! इधर इतना बिजी । टेम को वाच करके नहीं रखा ।”

वो वापिस घूमा और पूर्ववत् लम्बे डग भरता इमारत से बाहर निकला ।

पार्किंग में देवसरे की सफेद मारुति एस्टीम मौजूद नहीं थी ।

देवसरे की कार को वो खुद चला कर वहां लाया था और उसने उसे प्रवेश द्वार के करीब महाडिक की जेन की बगल में खड़ा किया था ।
अब कार वहां नहीं थी ।

महाडिक की जेन भी वहां नहीं थी ।

उन दोनों की जगह वहां कोई और ही दो गाड़ियां खड़ी थीं ।

उसने पार्किंग में तैनात वाचमैन को करीब बुलाया ।

“मिस्टर देवसरे को जानता है ?” - उसने पूछा ।

“हां, साहब । पण वो तो चले गये ।”
“कब गये ?”
“बहुत टेम हो गया, साहब ।” - वेटर वाला हा जवाब चौकीदार ने भी दिया - “एक घंटे से भी ऊपर हो गया ।”
“हूं ।”
तत्काल मुकेश ने कोकोनट ग्रोव के रास्ते पर कदम बढाया ।
वहां किसी वाहन का इन्तजाम करने में जो वक्त जाया होता उतने से कम में तो वो रिजॉर्ट और क्लब के बीच का आधा मील का फासला पैदल चल कर तय कर लेता ।
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जैसा देवसरे का उन दिनों का मूड था उसके मद्देनजर मुकेश कभी नहीं मान सकता था कि वो फिर आत्महत्या की कोशिश कर सकता था लेकिन अब उसे ये चिन्ता सता रही थी कि उसका वो मूड भी तो कहीं कोई धोखा या फरेब नहीं था ! कहीं वो उसे यूं उसकी ड्यूटी से, जिम्मेदारी से गाफिल तो नहीं करना चाहता था ! वहां मुकेश ने हर मुमकिन इन्तजाम किया हुआ था कि आत्महत्या का कोई जरिया उसे हासिल न हो पाये । वो कहीं से कूद नहीं सकता था, तैरना जानते होने की वजह से डूब नहीं सकता था । उसकी नींद की दवा के कैप्सूल मुकेश अपने कब्जे में रखता था और बवक्तेजरूरत उसे एक ही सौंपता था । यहां तक कि वो ये भी सुनिश्चित करके रखता था कि वो शेव इलैक्ट्रिक शेविंग मशीन से करे और ब्लेड या उस जैसा कोई तीखा औजार उसके हाथ में न पड़ने पाये । इस लिहाज से देवसरे की वो हरकत एक मसखरी, एक प्रैक्टीकल जोक, ही हो सकती थी लेकिन फिर भी उसका चित्त चलायमान था और कलेजा किसी अज्ञात आशंका से लरजता था ।
आखिरकार वो रिजॉर्ट के परिसर में दाखिल हुआ ।
तभी रेस्टोरेंट की तरफ से एक कार की हैडलाइट्स ऑन हुईं और तीखी रोशनी से उसकी आंखें चौंधिया गयीं । कार आगे बढी, उसके करीब से गुजरने तक उसने काफी रफ्तार पकड़ ली थी, फिर भी उसने नोट किया कि वो सलेटी रंग की फोर्ड आइकान थी । फिर कार परिसर से बाहर निकल गयी और मेन रोड पर दौड़ती उसकी निगाहों से ओझल हो गयी ।
क्षण भर को ठिठका वो आगे बढा ।
उस घड़ी तकरीबन कॉटेज अन्धेरे में डूबे हुए थे, केवल माधव घिमिरे के कॉटेज में रोशनी थी या फिर खुद उसके डबल कॉटेज के देवसरे की ओर वाले हिस्से की एक खिड़की रोशन थी ।
वो डबल कॉटेज पर पहुंचा ।
उसकी पार्किंग में देवसरे की सफेद एस्टीम मौजूद नहीं थी ।
तो फिर खिड़की क्यों रोशन थी ? भीतर कौन था ?
वो दायें प्रवेशद्वार पर पहुंचा ।
रोशन खिड़की उसके पहलू में थी । एकाएक उस पर यूं एक काली परछाई पड़ी जैसे भीतर खिड़की के सामने से कोई गुजरा हो ।
फिर उसे अहसास हुआ कि भीतर से टी.वी. चलने की आवाज भी आ रही थी ।
लेकिन वो तो म्यूजिक की आवाज थी !
देवसरे को तो म्यूजिक सुनने का कोई शौक नहीं था ! खबरें सुनने की मंशा के बिना तो वो कभी टी.वी. ऑन करता ही नहीं था !
जरूर भीतर देवसरे के अलावा कोई था ।
उसने दरवाजे का हैंडल ट्राई किया तो उसे मजबूती से बन्द पाया । तत्काल वो वहां से हटा, तीन सीढियां उतरा और बगल की तीन सीढियां चढ कर अपने वाले हिस्से के प्रवेशद्वार पर पहुंचा । उसने वो द्वार खोला, भीतर दाखिल हुआ और फिर दोनों कॉटेजों के बीच का दरवाजा पार करके देवसरे वाले हिस्से में पहुंचा जहां कि रोशनी थी ।
देवसरे टी.वी. के करीब एक कुर्सी पर मौजूद था । उसका सिर कुर्सी की पीठ से टिका हुआ था, आंखें बन्द थीं और दोनों बांहे यूं कुर्सी के हत्थों से नीचे लटक रहीं थीं जैसे निढाल होकर कुर्सी पर ही पड़ा पड़ा सो गया हो ।
उसने आगे कदम बढाया ।
एकाएक वो ठिठका ।
बैडरूम के खुले दरवाजे में से उसे वो पैनल दिखाई दी जिसके पीछे कि वाल सेफ थी । ये देख कर वो हकबकाया कि पैनल अपने स्थान से हटी हुई थी और सेफ खुली हुई थी ।
क्या माजरा था ?
“मिस्टर देवसरे !” - सशंक भाव से उसने आवाज लगायी - “सर !”
कोई जवाब न मिला ।
उसने करीब पहुंच कर हौले से उसका कन्धा झिंझोड़ा तो भी उसके जिस्म में कोई हरकत न हुई लेकिन उसने महसूस किया कि जिस्म गर्म था ।
नींद के कैप्सूल ।
कहीं वो उसने चुरा के खा तो नहीं लिये थे ?
तसदीक के लिये कि नींद की दवा के कैप्सूलों की शीशी वहीं थी जहां उसने रखी थी, वो अपने कॉटेज की ओर लपका जहां कि तब भी अन्धेरा था ।
तभी अप्रत्याशित घटना घटित हुई ।
अन्धेरे में किसी ने उसके पीछे से उसके सिर पर वार किया जिसकी वजह से उसका सन्तुलन बिगड़ गया, उसके घुटने मुड़ने लगे और फिर वो फर्श पर लुढक गया ।
तब उसे अपनी नादानी पर अफसोस होने लगा । उसे बराबर अन्देशा था कि भीतर कोई था फिर भी उसने गफलत से काम लिया था ।
लेकिन ऐसा इसलिये हुआ था क्योंकि उसके जेहन पर अपने क्लायन्ट का वैलफेयर हावी था ।
कांखता कराहता और ये सोचता कि कौन उस पर आक्रमण करके वहां से भागा था, वो उठकर खड़ा हुआ और लड़खड़ाता सा बाहर को लपका । अपने दरवाजे से उसने बाहर कम्पाउन्ड में दायें बायें निगाह दौड़ाई तो उसे कहीं दिखाई न दिया लेकिन कॉटेजों की कतार के एक पहलू से बीच की ओर भागते कदमों की आवाज आ रही थी ।
तत्काल वो भी उधर दौड़ चला ।
अब वो आक्रमण की मार से उबर चुका था और पूरी तरह से चौकस था ।
बीच की रेत पर उसके पांव पड़े ।
सामने सन्नाटा था ।
कहां गया दौड़ते कदमों का मालिक ?
कहीं छुप गया था या ये उसका वहम था कि वो बीच की तरफ भागा था ?
एकाएक अपने दायें बाजू उसे तनिक हलचल का आभास हुआ । अन्धेरे में आंखें फाड़ कर उसने उधर देखा तो दो सायों को अपनी तरफ बढते पाया ।
वो अपलक उधर देखता प्रतीक्षा करने लगा ।
वो करीब पहुंचे तो उसने सूरतें पहचानीं ।
वो रिंकी शर्मा और मेहर करनानी थे । दोनों स्विम सूट पहने थे और उनके नम जिस्म उनके समुद्र स्नान करके आये होने की चुगली कर रहे थे ।
“माथुर !” - करनानी के मुंह से निकला ।
“आप लोगों ने किसी को देखा ?” - मुकेश ने व्यग्र भाव से पूछा ।
“किसको ।”
“किसी को भी ।”
“तुम्हें ही देखा, भई ।”
“मेरे अलावा किसी को ? जिसके कि मैं पीछे था । जो कि भाग कर इधर ही आया था ।”
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“कौन ?”
“जो कॉटेज में था ।”
“पुटड़े, क्या पहेलियां बुझा रहा है । ठीक से बोल, क्या माजरा है ?”
मुकेश ने बोला ।
करनानी भौचक्का सा उसका मुंह देखने लगा ।
रिंकी भी ।
तभी कहीं एक कार स्टार्ट हुई और फिर उसके गियर पकड़ने की आवाज हुई ।
“चलो ।” - करनानी सस्पेंसभरे स्वर में बोला ।
तीनों वापिस डबल कॉटेज पर पहुंचे ।
इस बार मुकेश बत्तियां जलाता भीतर दाखिल हुआ ।
तीनों उस कुर्सी के करीब पहुंचे जिस पर देवसरे पूर्ववत पसरा पड़ा था ।
करनानी ने आगे बढ कर उसकी एक कलाई थामी और नब्ज टटोली ।
तभी टी.वी. पर म्यूजिक बन्द हुआ और न्यूज की सिग्नेचर ट्यून बजने लगी ।
फिर न्यूज रीडर स्क्रीन पर प्रकट हुई और बोली - “नमस्कार । मैं हूं कुसुम भटनागर । अब आज के मुख्य समाचार सुनिये...”
“बन्द कर, यार ।” - करनानी झुंझलाया सा बोला ।
मुकेश ने टी.वी. आफ कर दिया ।
करनानी ने कलाई छोड़ी, झुक कर उसके दिल के साथ अपना कान सटाया, शाहरग टटोली और फिर सीधा हुआ ।
“खत्म !” - वो बोला ।
“क्या !” - मुकेश हौलनाक लहजे से बोला ।
“मर गया ।”
“लेकिन क - कैसे ? कैसे ?”
“जरा सहारा दो । दूसरी ओर से बांह थामो ।”
दोनों तरफ से बांहें थामकर उन्होंने उसे कुर्सी से उठाया तो कैसे का जवाब सामने आया ।
कन्धों के बीच उसकी पीठ खून से लथपथ थी ।
“गोली !” - करनानी बोला - “गोली लगी है ।”
“कोई” - मुकेश के मुंह से निकला - “खुद अपनी पीठ में गोली मार के आत्महत्या नहीं कर सकता है ।”
“दुरुस्त । इसे वैसे ही वापिस पड़ा रहने दो । ये कत्ल का मामला है । पुलिस को खबर करना होगा ।”
“ओह !”
“तुम फोन करो, हम कपड़े पहन कर आते हैं ।”
मुकेश का सिर स्वयंमेव सहमति में हिला ।
***
नजदीकी पुलिस स्टेशन से जो इन्स्पेक्टर वहां पहुंचा उसका नाम सदा अठवले था । उसके साथ सोनकर नाम का एक सब-इन्स्पेक्टर था और आदिनाथ और रामखुश नाम के दो हवलदार थे ।
बाद में पुलिस का एक डॉक्टर, कैमरामैन और फिंगरप्रिंट एक्सपर्ट भी वहां पहुंचे ।
कोई पौना घन्टा पुलिस वालों ने मौकायवारदात और लाश के मुआयने में गुजारा । उस दौरान मुकेश माथुर, मेहर करनानी और रिंकी शर्मा कॉटेज के मुकेश वाले हिस्से में बन्द रहे । पौने घन्टे बाद एक हवलदार वहां पहुंचा और उन्हें दूसरी तरफ लिवा ले गया जहां से कि लाश हटाई जा चुकी थी और डॉक्टर, फिंगरप्रिंट और कैमरामैन रुखसत हो चुके थे ।
वहां पुलिस वालों के साथ माधव घिमिरे मौजूद था जो कि उन्हें रिजॉर्ट में ठहरे मेहमानों के रजिस्ट्रेशन कार्ड चैक करवा रहा था ।
“दो रजिस्ट्रेशंस में” - अठवले बोला - “कार का नम्बर नहीं है ।”
“क्योंकि वो दो साहबान कार पर नहीं आये थे ।” - घिमिरे ने संजीदगी से जवाब दिया - “एक - विनोद पाटिल - बस पर यहां पहुंचा था और दूसरे साहबान - मेहता फैमिली - टैक्सी पर आये थे ।”
“हूं ।” - इन्स्पेक्टर ने कार्ड सब-इन्स्पेक्टर को थमा दिये - “सब को चैक करो । शायद किसी ने कुछ देखा हो या कुछ सुना हो । कोई ऐसा कुछ बोले तो उसे मेरे पास लेकर आना, मैं खुद उससे सवाल करूंगा । और इस जगह के दायें बायें जो दो कॉटेज हैं, उनमें ठहरे साहबान से भी मैं खुद पूछताछ करूंगा ।”
सहमति में सिर हिलाता सब-इन्स्पेक्टर एक हवलदार - रामखुश - के साथ वहां से रुखसत हो गया ।
“तो आप” - इन्स्पेक्टर पीछे मुकेश से सम्बोधित हुआ - “वकील हैं और यहां मकतूल के कांसटेंट कम्पेनियन थे ?”
“जी हां ।” - मुकेश बोला ।
“वजह ?”
मुकेश ने बयान की ।
“काफी अनोखी वजह है ।” - इन्स्पेक्टर बोला ।
मुकेश खामोश रहा ।
“तभी पहले आपने समझा था कि मकतूल खुदकुशी के अपने मिशन में कामयाब हो गया था ?”
“हां ।”
“लेकिन असल में ऐसा नहीं हुआ । कोई खुद को पीठ में गोली मार कर खुदकुशी नहीं करता । किसी ने कत्ल किया ?”
“जाहिर है ।”
“किसने ?”
“मालूम कीजिये । इसीलिये तो आप यहां हैं ।”
“वो तो मैं करूंगा ही लेकिन सोचा शायद किसी को पहले मालूम हो ।”
“खामखाह !”
“मकतूल की इस आत्मघाती प्रवृत्ति की किस किस को खबर थी ?”
“मेरे खयाल से तो सबको खबर थी ।” - मुकेश एक क्षण हिचका और फिर बोला - “सिवाय विनोद पाटिल के ।”
“उसे क्यों नहीं ?”
“क्योंकि वो आज शाम को ही यहां पहुंचा था ।”
“आपकी बातों से लगता है कि ये शख्स कोई तफरीहन यहां पहुंचा शख्स नहीं था, इसका कोई और भी किरदार है ।”
“है ।”
“क्या ?”
“वो मकतूल की जन्नतनशीन बेटी की जिन्दगी में उसका पति था ।”
“यानी कि मकतूल का दामाद था ?”
“हां ।”
“आप ये कहना चाहते हैं कि मकतूल का दामाद होते हुए भी उसे नहीं मालूम था कि बेटी की मौत के बाद बाप के दिल पर क्या गुजरी थी !”
“वो शादी मकतूल की रजामन्दगी से नहीं हुई थी । मिस्टर देवसरे ने विनोद पाटिल को कभी अपना दामाद तसलीम नहीं किया था । वो पाटिल को अपने करीब भी फटकने देने को तैयार नहीं थे । फिर उनकी बेटी की मौत हो गयी थी तो वो सिलसिला कतई खत्म हो गया था ।”
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“फिर भी आज वो यहां आया !”
“वजह मैंने बताई थी ।”
“उस बाबत मैं अभी आप से फिर बात करूंगा, पहले कुछ और बताइये ।”
“पूछिये ।”
“अब मकतूल का वारिस कौन है ?”
“वारिस ?”
“मेरा सवाल मकतूल की वसीयत की बाबत था । आपको उसकी खबर होगी । आखिर वो आपका क्लायन्ट था ।”
“मकतूल मेरा नहीं, आनन्द आनन्द आनन्द एण्ड एसोसियेट्स नाम की मुम्बई की वकीलों की उस फर्म का क्लायन्ट था जिसमें मैं बहुत जूनियर पार्टनर हूं । मुझे बजातेखुद मकतूल की किसी वसीयत की कोई खबर नहीं । ऐसी कोई वसीयत होगी तो उसकी खबर फर्म के सीनियरमोस्ट पार्टनर मिस्टर नकुल बिहरी आनन्द को होगी जिनका मकतूल क्लायन्ट ही नहीं, दोस्त भी था । आप बड़े आनन्द साहब को मुम्बई कॉल लगा सकते हैं ।”
“लगायेंगे । कॉल से काम न बना तो उन्हें यहां तलब करेंगे ।”
“आप इन्स्पेक्टर हैं - गुस्ताखी की माफी के साथ अर्ज है - कमिश्नर भी होते तो ऐसा न कर पाते ।”
“अच्छा !”
“जी हां ।”
“इतने हाई फाई वकील हैं ये बड़े आनन्द साहब ?”
“जी हां ।”
इन्स्पेक्टर कुछ क्षण कसमसाया और फिर बोला - “आनन्द नम्बर दो कैसे हैं ? नम्बर तीन कैसे हैं ।”
“मैं समझ रहा हूं कि आप क्यों ये सवाल पूछ रहे हैं ।”
“अच्छा !”
“हां । देखिये, वसीयत कोई बहुत स्पैशलाइज्ड या पेचीदा न हो तो हमारी फर्म में वसीयत ड्राफ्ट का काम एडवोकेट सुबीर पसारी करते हैं जो मेरे से सीनियर हैं लेकिन तीनों आनन्द साहबान से जूनियर हैं । मिस्टर पसारी ने बहुत आला दिमाग और उससे भी ज्यादा आला याददाश्त पायी है । मिस्टर देवसरे की वसीयत अगर एडवोकेट पसारी ने ड्राफ्ट की होगी तो उसके मोटे मोटे प्रावधान यकीनन उन्हें जुबानी याद होंगे । आप मुम्बई में सुबह दस बजे हमारा ऑफिस खुलने तक का इन्तजार नहीं कर सकते तो मैं आपको मिस्टर पसारी के घर का नम्बर बताता हूं, आप अभी ट्रंककॉल पर उनसे बात कर सकते हैं ।”
“नम्बर न बताओ, अर्जेंन्ट ट्रंककॉल बुक कराओ ।”
सहमति में सिर हिलाता मुकेश फोन की ओर बढा ।
उसके टेलीफोन से फारिग होने तक पीछे खामोशी छाई रही ।
“ये वाल सेफ” - फिर इन्स्पेक्टर बोला - “काफी चतुराई से इस लकड़ी की पैनल के पीछे छुपाई गयी थी फिर भी जाहिर है कि छुपी नहीं रही थी । कौन वाकिफ था इससे ?”
“हम सब ।” - मुकेश न सब की तरफ से जवाब दिया ।
“आप साहबान के अलावा ?”
“विनोद पाटिल । क्योंकि मिस्टर देवसरे ने उसके सामने वाल सेफ खोलने की नादानी.. खोली थी ।”
“काफी कलरफुल किरदार जान पड़ता है इस विनोद पाटिल का । वो अभी भी रिजॉर्ट में ही है ।”
“हां ।” - घिमिरे बोला - “सात नम्बर केबिन में ।”
“बुला के लाओ ।” - इन्स्पेक्टर हवलदार आदिनाथ से बोला ।
हवलदार आदिनाथ वहां से रुखसत हो गया ।
“वाल सेफ का बाहरी पल्ला खुला है ।” - पीछे इन्स्पेक्टर बोला - “लेकिन भीतर एक पल्ला और भी है जो बन्द है । बाहरी पल्ला तो उस पर लगे पुश बटन डायल से कन्ट्रोल होता जान पड़ता है, भीतर वाला कैसे खुलता है ?”
“जाहिर है कि चाबी लगा कर ।” - मुकेश बोला - “की होल साफ तो दिखाई दे रहा है ।”
“हां । मुझे भी दिखाई दे रहा है । ये सामान” - उसने साइड टेबल की तरफ इशारा किया - “जो मकतूल की जेबों में से निकला है, इसमें एक चाबियों का गुच्छा भी है । क्या इसकी कोई चाबी सेफ में लगती होगी ?”
“लगा के देखिये ।”
इन्स्पेक्टर ने उस काम को अंजाम दिया । एक चाबी से भीतरी पल्ला खुल गया । वो सेफ के भीतर झांकने लगा ।
“मुझे एक बात याद आयी है ।” - एकाएक मुकेश बोला ।
इन्स्पेक्टर ने घूम कर उसकी तरफ देखा ।
“आपने पूछा था कि इस सेफ से कौन कौन वाकिफ था । मेरे खयाल से सेफ से अनन्त महाडिक भी वाकिफ था ।”
“आपके खयाल से ? आप यकीनी तौर पर ये नहीं कह सकते कि अनन्त महाडिक को इस सेफ के वजूद का इल्म था ।”
“यकीनी तौर से तो नहीं कह सकता लेकिन हालात का इशारा ये ही कहता है कि महाडिक को सेफ की खबर होनी चाहिये ।”
“क्या हैं हालात ? और क्या है उनका इशारा ? बयान कीजिये ।”
“कल महाडिक एक और शख्स को साथ लेकर मिस्टर देवसरे से मिलने यहां आया था । उनमें कोई कारोबारी बात होनी थी इसलिये मैं यहां से उठ कर कॉटेज की अपने वाली साइड में चला गया था लेकिन वो लोग कभी कभार ऊंची आवाज में बोलने लगते थे तो कुछ औना पौना मुझे भी सुनायी दे जाता था । यूं जो कुछ मैं सुन पाया था उससे ये पता चलता था कि उनमें होती बातचीत का मुद्दा ब्लैक पर्ल क्लब था और ये मालूम हुआ था कि महाडिक क्लब का सोल प्रोप्राइटर नहीं था, उसमें मिस्टर देवसरे का भी हिस्सा था । बाद में मिस्टर देवसर ने मुझे बुला कर एक सेलडीड तैयार करने के लिये कहा था तो बात बिल्कुल ही कनफर्म हो गयी थी ।”
“कैसा सेलडीड ?”
“अस्सी लाख रुपये में ब्लैक पर्ल क्लब की सेल का डीड ।”
“खरीदार कौन था ?”
“सेलडीड में खरीदार का जिक्र नहीं था । मिस्टर देवसरे ने खरीदार का नाम दर्ज करने के लिये और सेल की तारीख के लिये जगह खाली छुड़वा दी थी । उनका कहना था कि जब उस सेलडीड को एक्जीक्यूट करने का, काम में लाने का, वक्त आयेगा तो खाली छोड़ी गयी उन दो जगहों को वो खुद भर लेंगे ।”
“हूं, फिर ।”
“फिर उन्होंने सेलडीड तो पढकर चौकस किया था और उसे सेफ में रख दिया था ।”
“तब उनके मेहमान कहां थे ?”
“वो तो पहले ही चले गये थे । उनके चले जाने के बाद ही मिस्टर देवसरे ने मुझे तलब किया था ।”
“अगर ऐसा था तो फिर महाडिक को सीफ की खबर क्योंकर हुई होगी ?”
“मेरा अन्दाजा है कि उनके रुख्सत होने से पहले यहां कोई मानीटरी ट्रांजेक्शन हुई थी ।”
“मकतूल और महाडिक के बीच ?”
“मकतूल और महाडिक के साथ आये शख्स के बीच ।”
“जो कि क्लब का खरीदार था ?”
“हो सकता था ।”
“था कौन वो ?”
“मुझे नहीं मालूम । मैंने उस शख्स को पहले कभी नहीं देखा था ।”
“कोई बात नहीं । महाडिक से पूछेंगे । अब आप इस बात पर जरा और रोशनी डालिये कि क्यों आपको लगा था कि यहां कोई रुपये पैसे का लेन देन हुआ था ?”
“सेलडीड का ड्राफ्ट सेफ में रखते वक्त मिस्टर देवसरे ने एकाएक मेरे से सवाल किया कि क्या मैंने कभी हजार के नोटों की गड्डी हाथ में थाम कर देखी थी । मैंने इनकार किया था तो उन्होंने सेफ में से ऐसी एक गड्डी निकाली थी और मेरी हथेली पर रख दी थी । तब मैंने देखा था कि वो इस्तेमालशुदा नोटों की गड्डी थी जिसे कि फिर से स्टिच किया गया था और स्टिचिंग के ऊपर चढे रैपर पर किसी के नाम के प्राथमाक्षर अंकित थे ।”
“क्या थे प्रथमाक्षर ?”
“आर डी एन ।”
“जरूर किसी बैंक के किसी कैशियर के इनीशियल होंगे ।”
“बैंक में रीस्टिच की गयी गड्डी पर बैंक के नाम पते का छपा हुआ रैपर चढा होता है, उस गड्डी पर वैसा रैपर नहीं था । वो कोरे कागज से बना रैपर था ।”
“हूं । फिर क्या हुआ था ?”
“फिर क्या होना था ? वो मजाक की बात थी जो मजाक में खत्म हो गयी थी । मिस्टर देवसरे ने मेरे से गड्डी वापिस ली थी और उसे सेफ में रख दिया था ।”
“सेफ में तो ऐसी कोई गड्डी नहीं है ।”
“जी !”
“सेलडीड भी नहीं है ।”
“कमाल है ! कहां गयीं दोनों चीजें ? क्या कातिल ले गया ?”
“सेफ में सौ सौ के नोटों की चार गड्डियां और पड़ी हैं । कुछ पांच पांच सौ के लूज नोट भी पड़े हैं, उन्हें क्यों न ले गया ?”
मुकेश को जवाब न सूझा ।
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