Adultery Thriller सुराग

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Masoom
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Re: Adultery Thriller सुराग

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“लेकिन जब तुम कहते हो कि अस्थाना ने उसे और उसके जोड़ीदारों को ये पट्टी पढ़ाकर परसों तुम्हारे पीछे लगाया होगा कि उन्होंने तुम्हारे से कागजात का तकाजा ही करना था, उन्हें वसूल करने की जिद करना तो दूर, उन्होने तुम्हें वहां से भाग निकलने का मौका देना था तो रघुवीर ने कैसे सोच लिया कि वो कागजात तुम्हारे पास हो सकते थे ? अगर अस्थाना को ये ऐतबार होता तो वो उन्हें ये निर्देश न देता कि वो तुम्हारे हाथ पांव तोड़कर भी तुम से ये कुबुलवायें कि वो कागजात तुमने कहां छुपाये थे ? फिर ये अस्थाना का ड्रामा कैसे रह जाता ?”
“मैं बताता हूं कैसे रह जाता ? जरूर अस्थाना ज्यादा इच्छुक ये स्थापित करने का था कि वो कागजात का चोर नहीं था, कि वो शबाना का हत्यारा नहीं था । कागजात आम हो जाना सिर्फ उसके मान सम्मान की हानि कर सकता था, उसके घर संसार में आग लगा सकता था लेकिन उसको कातिल समझ लिया जाना तो उसको दूसरी दुनिया का रास्ता दिखा सकता था ।”
“राज, दम नहीं तेरी दलील में । लेकिन तू आगे बोल, बैक्टर के बारे में क्या कहता है ?”
“फर्ज करो तमाम के तमाम कागजात उसके कब्जे में थे । ऐसी सूरत में उसका पहला काम उन कागजात में से वो कागजात छांटना और उन्हें नष्ट करना ही होता जो कि उससे संबन्धित थे । उसने वो कागजात छांट कर अलग किये लेकिन उन्हें नष्ट करने की जगह अपनी स्टडी में मेरे लिये सजा कर रख लिया जहां से कि मैं बड़ी सहूलियत से उन्हें बरामद कर सकता था । फिर वो वहां मेरी आमद के इन्तजार में बैठ गया । मैं वहां पहुंचा लेकिन उससे बेखबर नहीं, उसकी जानकारी में वहां पहुंचा । मेरे कागजात बरामद कर लेने तक वो मुझे वाच करता रहा और फिर उसने यूं ड्रामा किया जैसे वो इत्तफाकन ही एकाएक ऊपर से आ गया था । फिर उसने उन कागजात को, जिनको उसने वैसे ही नष्ट करना था, बड़े फैनफेयर के साथ ये जाहिर करते हुए मेरे सामने जलाया जैसे ऐसा कर चुकने के बाद ही उसकी जान में जान आयी थी ।”
“है तो ये भी कहानी लचर लेकिन तेरी अस्थाना वाली दलील के मुकाबले में ये कदरन दमदार है ।”
“बहरहाल कहना मैं ये चाहता हूं कि अभी चौकड़ी में से कोई भी पूरी तरह से शक से परे नहीं है ।”
“हूं ।” - यादव कुछ क्षण सोचता रहा और फिर बोला - “तो अब शबाना के कत्ल के दौरान चली दूसरी गोली भी हमारे ए सी पी साहब के कब्जे में है ?”
मैंने इन्कार में सिर हिलाया ।
“क्या मतलब ?” - वो तीखे स्वर में बोला ।
मैंने मतलब समझाया ।
“राज” - वो भौंचक्का सा बोला - “तेरी...”
“खैर नहीं ।” - मैंने उसका वाक्य पूरा किया ।
“ऐसा क्यों किया तूने ?”
“देखो, जो बात मैंने तुम्हारे सामने कबूल की है, वो मैं तलवार के सामने न कबूल कर सकता था और चाहे तबाही आ जाये, न कबूल करूंगा । शबाना के कत्ल के चार दिन बाद ये कबूल करना कि उस रात को मैं शबाना के साथ था और कत्ल मेरी मौजूदगी में हुआ था, अपने गले में फांसी का फन्दा खुद डालने जैसा काम होगा । मैं हाथ के हाथ ये बात बताता तो शायद कोई मान भी लेता लेकिन अब कौन मानेगा कि मैं ही शबाना का कातिल नहीं था । मेरी बदकिस्मती से अमोलकराम तलवार की जानकारी मे आ गया था...”
“सच पूछो तो अब तक का यही एक ब्रिलियन्ट काम है जिसे हमारे ए सी पी साहब ने अंजाम दिया था । मेरी निगाह में तो ये ही एक करिश्मा है कि तलवार को तुम्हारी जानकारी के दायरे में किसी आर्म्स एण्ड एम्यूनीशन के डीलर की तलाश करना सूझा । बहरहाल तुम अपनी बात कहो ।”
“गोली की बाबत मैंने ये कहानी गढ़ी थी कि वो मुझे कोमलने दी थी जिसकी निगाह में वो गिरी पड़ी पता नहीं क्या चीज थी ! मैट्रेस से निकली गोली तलवार को सौंपने की जगह मैंने उसे वो गोली सौंप दी थी जो पिछली रात मैंने अस्थाना की रिवाल्वर से एक पेड़ में चला कर बरामद की थी । ऐसा करने के पीछे मेरी मंशा ये ही थी कि तलवार जब उस गोली का मिलान कोमलकी लाश से निकली गोली से करवाता तो वो दोनों गोलियां मिलती न पायी जातीं । तब मुझे उम्मीद थी कि तलवार मेरा पीछा छोड़ देता और, अनिच्छा से ही सही, ये मान लेता कि वो गोली मुझे कोमलने दी थी । इस बाबत कोमलकब्र से उठकर तो अपना बयान दे नहीं सकती थी..”
“तभी तो तुमने गोली की बात उसके सिर थोपी ।”
“और क्या ?”
“पक्के हरामी हो ।”
“बिल्कुल पक्का । आयरनक्लैड । गिल्टऐज्ड । स्टीलटेप्ड ।”
“गोली की बात करो ।”
“यादव साहब, अभी जब तलवार के आफिस में पुलिस के बैलेस्टिक एक्सपर्ट ने अपनी ये रिपोर्ट भेजी थी कि मेरे द्वारा सौंपी गयी गोली भी उसी रिवाल्वर में से चली थी तो मेरा हार्टफेल होते-होते बचा था ।”
“हार्टफेल तो चलो तुम्हारा नहीं हुआ लेकिन अब इस बात की अहमियत समझते हो ?”
“समझता हूं । इस ख्याल से मेरा दिल बैठा जा रहा है कि मर्डर वैपन मेरे अधिकार में है । अस्थाना वाली रिवाल्वर ने तो मेरी हालत सांप छछूंदर जैसी कर दी है । न निगलते बनता है, न उगलते बनता है ।”
“अपनी खैरियत चाहते हो तो या तो उस रिवाल्वर से जल्दी से जल्दी पल्ला झाड़ लो या रिवाल्वर ले कर तलवार के पास पहुंच जाओ और उसे सब कुछ साफ-साफ बता दो ।”
“मरना है मैंने ?”
“तो पहला काम करो ।”
“वही करूंगा बल्कि कोई ऐसी तरकीब सोचूंगा कि रिवाल्वर से मेरा सम्बन्ध भी न जुड़े और पुलिस के पास वो इस जानकारी के साथ पहुंच जाये कि उसे अस्थाना अपने आफिस में छुपाये बैठा था ।”
“कर सकोगे ऐसा ।”
“करना ही पड़ेगा ।”
“और जो गोली तुमने असल में मैट्रेस में से निकाली थी, उसका क्या करोगे ?”
मुझे जवाब न सूझा ।
“एक बात और सुन लो ।” - यादव चेतावनी भरे स्वर में बोला - “और समझ लो । अभी तलवार ने सिर्फ कम्पैरिजन माइक्रोस्कोप से ये जंचवाया है कि दोनों गोलियां एक रिवाल्वर से चलाई गयी थीं । बाद में तुम्हारे वाली गोली की अधिक शक्तिशाली माइक्रोस्कोप से और बारीक जांच हो सकती है । होगी । फिर उससे से ये बात कुछ छुपी नहीं रहेगी कि वो गोली मैट्रेस में से नहीं निकाली गयी थी । उस गोली पर जरूर जरूर लकड़ी के ऐसे माइक्रोस्कोपिक कण चिपके पाये जायेंगे जो ये सिद्ध कर देंगे कि वो मैट्रेस से निकाली गयी गोली नहीं थी । एक बार ये स्थापित हो जाने पर तुम्हारा इस जिद पर अड़ा रहना मुमकिन नहीं रहेगा कि वो गोली तुम्हें हत्प्राण कोमलने शबाना के बेडरूम के फर्श पर से उठा कर दी थी ।”
मैं और भी घबरा गया ।
“शायद तलवार को” - मैं हकलाता सा बोला - “मेरे वाली गोली की दोबारा जांच कराना न सूझे ?”
“भगवान से ये ही दुआ करो कि उसे ऐसा न सूझे । इसी में तुम्हारी खैरियत है ।”
“मैंने” - मैं सोचता हुआ बोला - “जब तलवार से कहा था कि मेरे वाली गोली की बाबत ये कैसे स्थापित होगा कि वो उस मैट्रेस में दागी गयी थी जिस पर कि शबाना की लाश पड़ी पायी गयी थी तो उसने ये नहीं कहा था ऐसा माइक्रोस्कोपिक एग्जामिनेशन से हो सकता था, उसने मुझे धमकी दी थी कि ये बात वो मेरे से मेरी जुबानी कबूल करवायेगा । क्या पता उसे मालूम ही न हो कि शक्तिशाली माइक्रोस्कोप के जरिये....”
“ख्वाब देखने बन्द कर, राज ।” - यादव मेरी बात काटता हुआ बोला - “वो असिस्टैण्ट कमिश्नर आफ पुलिस है, कोई कांस्टेबल या हवलदार नहीं ।”
मैंने बड़े चिन्तित भाव से सहमति में सिर हिलाया ।
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Masoom
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(^%$^-1rs((7)
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Fuck_re
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Update?????
Masoom
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“अब” - फिर मैं बोला - “ये तो बताओ कि मेरी गति कैसे हो ?”
“तुम्हारी गति तो भैया इसी बात में है कि कातिल जल्दी से जल्दी पकड़ा जाये ।”
“कैसे ? जादू के जोर से !”
“जादू के जोर से क्यों ? कोशिश करो । मेहनत करो । काया को कष्ट दो ।”
“पुलिस का काम मैं करूं ?”
“अब या अंटी की सोच लो या अंजाम की सोच लो ।”
“और काया को और क्या कष्ट दूं ? जब से शबाना का कत्ल हुआ है, मारा मारा तो फिर रहा हूं सारे शहर में ।”
“और, फिर लो । वो कहते हैं न कि हर कातिल कत्ल का कोई न कोई सुराग अपने पीछे जरूर छोड़ता है । इस कातिल ने भी जरूर छोड़ा होगा । इसलिये...”
“वो सब किताबी बातें हैं ।”
“एक काम तो फिर भी करो ।”
“क्या ?”
“जैसे तुमने अस्थाना, कौशिक और बैक्टर को टटोला है, वैसे उस चौथे पंछी को भी तो टटोलो...क्या नाम बताया था तुमने उसका ?”
“पचौरी । प्रभात पचौरी ।”
“ताले वाले खोलने में तो तू उस्ताद हो ही गया मालूम होता है । एक ताला पचौरी का भी खोल के देख ले ।”
“हूं । अब तुम्हारे खुद के केस की क्या पोजीशन है ?”
“भई, निपट तो नहीं गया केस । अलबत्ता अब सस्पैंड शायद न किया जाऊं ?”
“वो कैसे ?”
“एक तो इसीलिये कि ऐसे मामलों में सस्पेंशन फौरन होती है जो कि नहीं हुई । दूसरे अब मुझे काम भी दिया गया है ।”
“क्या ?”
“गड़े मुर्दे उखाड़ने का । साल-साल डेढ़-ड़ेढ साल से बन्द पड़े कत्ल के केसों की तफ्तीश का । तलवार कहता है कि जब मैं इतना ही सूरमा हूं कि कत्ल का हर केस हल कर सकता हूं तो उन केसों को क्यों नहीं हल कर सकता ! अब तो मैं ये भी नहीं कह सकता कि मैं फील्ड का आदमी हूं, फील्ड वर्क करूंगा । क्योंकि फील्ड में जाने की मुझे कोई मनाही नहीं । जबकि हालात मनाही जैसे ही हैं ।”
“वो कैसे ?”
“अरे फाइलों से माथा फोडूंगा तो फील्ड वर्क के काबिल कोई नुक्ता निकलेगा न !”
“ओह !”
“इसी बखेड़े की वजह से तो मैं फॉर्टी फाइव कोल्ट रिवाल्वर होल्डरों की वो लिस्ट न मुहैया कर सका जो तूने...”
“अब उसका ख्याल छोड़ दो । अब उससे कुछ हासिल नहीं होने वाला । अब जब मर्डर वैपन बरामद हो गया है और ये मालूम हो गया कि उस पर सीरियल नम्बर है ही नहीं तो उस लिस्ट से क्या हाथ आयेगा ! बिना सीरियल नम्बर का हथियार तो रजिस्टर हो नहीं सकता । या हो सकता है ?”
“नहीं हो सकता ।”
“सो देयर यू आर !”
“मैं अब चलता हूं ।” - यादव कार का अपनी ओर का दरवाजा खोलता हुआ बोला ।
“एक बात और बताते जाओ ।” - मैं जल्दी से बोला ।
“पूछो ।”
“हैदराबाद से शबाना का कोई होता सोता यहां पहुंचा ?”
“नहीं पहुंचा । पुलिस ने किसी के पहुंचने की उम्मीद भी छोड़ दी है । आज शाम तक कोई न आया तो शाम को ही बतौर लावारिस लाश इलैक्ट्रिक क्रिमेटोरियम में उसका अंतिम संस्कार पुलिस ही करवा देगी ।”
“तौबा ! अपनी जिन्दगी में हुस्न की मलिका । बेशुमार दिलों की धड़कन ! और मौत के बाद लावारिस लाश !”
“जिस पर कि कोई निगाह डाल के राजी नहीं ।”
“उनमें से भी कोई नहीं जो कभी जिन्दगी में उसके तलुवे चाटते थे, जिनमें उसको हासिल करने की होड़ लगी रहती थी ।”
“राज ! ऐसा ही एक शख्स तू भी तो है ।”
मैं हकबकाया और फिर बोला - “वो-वो क्या है कि....”
“मुझे पता है वो क्या है । वो यही है कि पर उपदेश कुशल बहुतेरे ।”
“यार तू तो...”
“मैं चला । शाम को फोन करना ।”
मैंने सहमति में सिर हिलाया ।
सड़क पर पहुंचते ही मैंने सबसे पहले अखबार खरीदा ।
उस रोज का अखबार देखने का मौका मुझे सच में ही नहीं मिला था ।
मैंने जल्दी-जल्दी अखबार पर निगाह फिराई ।
उसमें पुलिस के एक प्रवक्ता के बयान के जरिये इस बात का जिक्र वाकेई था कि शबाना का कत्ल जिस गोली से हुआ था, वो पैंतालीस कैलीबर की कोल्ट रिवाल्वर से चलायी गयी थी ।
उसमें पिछली रात राकेश अस्थाना के नेहरू प्लेस स्थित ऑफिस में घुसे चोर का भी जिक्र था जो कि चौकीदार पर आक्रमण करके वहां से भाग खड़ा हुआ था । चौकीदार को कोई गम्भीर चोट नहीं आयी थी, वो थोड़ी ही देर में होश में आ गया था और तत्काल उसने पुलिस को - और अस्थाना को भी - फोन किया था । अस्थाना पुलिस की मौजूदगी में अपने ऑफिस में पहुंचा था और पूरी पड़ताल के बाद उसने ये बयान दिया था कि वहां से कुछ चोरी नहीं गया था ।
लेकिन अखबार की शबाना के कत्ल से सम्बन्धित सब से दिलचस्प खबर ये थी पुलिस को शबाना के पार्लियामैंट स्ट्रीट में स्थित एक बैंक में लाकर का पता चला था जिसे जब उचित कार्यवाही के बाद बैंक और पुलिस के वरिष्ठ अधिकारियों के सामने खोला गया था तो उसमें सौ-सौ के नोटों की सूरत में कोई सोलह लाख रुपये की धनराशि मौजूद पायी गयी थी । उस दौलत की बरामदी ने पुलिस को ये सोचने पर मजबूर किया था कि वो महज एक कालगर्ल ही नहीं थी बल्कि कुछ और भी थी ।
‘कुछ और’ के सन्दर्भ में उसके किसी बड़े स्मगलर की सहचरी होने की सम्भावना भी व्यक्त की गयी थी ।
इतनी बड़ी रकम की बरामदी ने तो मुझे भी सोचने पर मजबूर कर दिया कि मैं शबाना की जिन्दगी के तमाम पहलुओं से वाकिफ नहीं था । अगर वो तमाम दौलत उसने चन्द महीनों में सिर्फ ब्लैकमैलिंग से ही कमायी थी तो बकरे मूंडने में उसने कमाल कर दिखाया था ।
***
अपने निगाहबानों से खबरदार मैं हेली रोड पहुंचा ।
यूअर्स ट्रूली का ये जाति तजुर्बा है कि जो शख्स अपने निगाहबानों से खबरदार हो, उसको निगाह में रखना नामुमकिन नहीं तो बेहद कठिन काम जरूर होता है । यूं खबरदार शख्स - जैसे कि मैं खुद था - के सामने अपने पीछे लगे लोगों को पहचाने बिना भी उन्हें अपने पीछे से झटक देने के कई तरीके होते थे ।
हेली रोड की एक बहुखण्डीय इमारत की छठी मंजिल पर प्रभात पचौरी का फ्लैट था ।
लिफ्ट द्वारा मैं छठी मंजिल पर पहुंचा । वहां मैंने पचौरी के फ्लैट की कालबैल बजायी और फिर दौड़ कर ऊपर को जाती सीढ़ियां चढ़ गया । सीढ़ियों के मोड़ पर मैं ठिठका । वहां से मुझे पचौरी के दरवाजे का निचला भाग दिखाई दे रहा था । मैंने दरवाजे पर निगाह टिका ली और कान खड़े कर लिये ।
मुझे न दरवाजा खुलता दिखाई दिया, न कोई ऐसी आहट मिली कि दरवाजा खुलने वाला था ।
यानी कि भीतर कोई नहीं था ।
अब मैं बड़े इत्मीनान से फ्लैट का ताला खोल कर भीतर दाखिल हो सकता था ।
मेरे पास पचौरी के फ्लैट की चाबी थी जो कि सोमवार रात को उसने मुझे खुद दी थी । वो चाहता था कि उस रात शबाना से मुलाकात के बाद मैं उससे मिलूं और अगर वो फ्लैट पर न हो तो ताला खोल कर भीतर जा बैठूं । उससे मिलने का कोई प्रयोजन तो शबाना के कत्ल की वजह से खत्म हो गया था और उसे चाबी लौटाने मैं इसलिये नहीं गया था कि वो खुद आकर चाबी मेरे से ले सकता था ।
बहरहाल फ्लैट की चाबी मेरे पास थी जिससे फ्लैट का प्रवेश द्वार खोलकर मैं बड़े इत्मीनान से भीतर दाखिल हुआ ।
वो तीन बैडरूम का फ्लैट था जिसके एक बेडरूम को पचौरी ने अपना ऑफिस बनाया हुआ था ।
मैंने अपनी खोज की शुरूआत उसके ऑफिस से ही की ।
बहुत जल्द मेरी खोज कामयाब हो गयी ।
उसकी फाइलों के शैल्फ में से एक फाइल बरामद हुई जिस में कानूनी कागजात लगे होने की जगह वैसे ही कागजात लगे हुए थे जैसे मैंने बैक्टर की स्टडी में शैल्फ में लगी किताबों के पीछे से बरामद किये थे । उन कागजात को फाइल से निकाल कर मैंने अपने कोट की भीतरी जेब के हवाले किया । उनके अध्ययन में वहां वक्त बर्बाद करना मूर्खता थी । पचौरी किसी भी क्षण वहां पहुंच सकता था ।
सड़क पर पहुंचकर मैं अपनी कार में सवार हुआ और वहां से चल पड़ा । इण्डिया गेट पहुंच कर मैंने कार को राजपथ पर एक पेड़ की छांव में रोका । मैंने कोट की भीतरी जेब से वहां मौजूद कागजात निकाले और उनकी पड़ताल आरम्भ की ।
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उनमें भी शबाना की डायरी के कई पन्ने थे जिन पर अंकित क्रम संख्या से मुझे मालूम हुआ कि बीच-बीच में से कुछ पन्ने गायब थे और कुछ पन्ने ऐसे थे जिनकी इबारत में से एक नाम गाढ़ी काली स्याही की सहायता से मिटा दिया गया हुआ था । मिटाया हुआ शब्द नाम था, ये उसके आगे पीछे के अक्षर पढ़ने से स्पष्ट स्थापित होता था लेकिन वो नाम किसका था इसका कोई इशारा मुझे पूरे पन्ने पढ़ने के बाद भी न मिल पाया । अलबत्ता उन कागजात में, जो कि गिनती में अस्सी थे, मेरा, कौशिक का, बैक्टर का और अस्थाना का स्पष्ट उल्लेख था । उसमें प्रभात पचौरी का कहीं उल्लेख न होने का ये मतलब हो तो सकता था कि मिटाया गया नाम पचौरी का था लेकिन ऐसा दावे के साथ कहना मुहाल था क्योंकि शबाना के लाकर से बरामद सोलह लाख रुपये की रकम इस बात की साफ चुगली कर रही थी कि शबाना के कद्रदानों की संख्या मेरी जानकारी से, बल्कि मेरे अनुमान से भी, कहीं ज्यादा थी । पचौरी जैसे और भी कई नाम - एक तो नरेन्द्र कुमार का ही था - भी मुमकिन थे जो कि उन कागजात में दर्ज नहीं थे ।
और इस बारे में भी कोई दो राय नहीं हो सकती थीं कि उन कागजात की पचौरी के यहां मौजूदगी हत्यारे के ही हस्तकौशल की मिसाल थी । इस बार उसने ये नयी चालाकी की थी कि उनमें से एक नाम मिटा दिया था ताकि जब कागजात पचौरी के यहां से बरामद हों तो ऐसा लगे कि उसी ने अपने नाम को कागजात में से सैन्सर किया था ।
आखिरकार मैंने उन कागजात के बहुत छोटे-छोटे टुकड़े किये और उन्हें हवा में उड़ा दिया ।
आखिर उनमें मेरा भी तो जिक्र था ।
***
मैं विक्रम होटल पहुंचा ।
मैंने कार को होटल से बाहर ही पार्क किया, पैदल चलकर होटल में पहुंचा और फिर लिफ्ट पर सवार होकर चौथी मंजिल पर पहुंचा ।
लिफ्ट से निकलते ही मैं ठिठककर खड़ा हो गया ।
कौशिक के सूइट के खुले दरवाजे के सामने कई लोग जमा थे जिनमें एक वर्दीधारी पुलिसिया भी था ।
मैं लपक कर करीब पहुंचा । वहां एक काला सूट और बो टाई लगाये व्यक्ति को - जो कि निश्चय ही होटल का कोई कर्मचारी था - मैंने बांह से थामा और व्यग्र भाव से पूछा - “क्या हुआ ?”
“वो-वो कौशिक साहब” - वो बोला - “जो इस कमरे में ठहरे हुए थे....”
“हां, हां । क्या हुआ उन्हें ?”
“उन्होंने आत्महत्या कर ली ।”
मैंने झिझकते हुए कमरे के भीतर झांका ।
प्रवेशद्वार के सामने ही कौशिक की लाश यूं पीठ के बल पड़ी थी कि उसके पांव दरवाजे की तरफ थे और सिर कमरे के भीतर की तरफ था । उसके माथे में दोनों पलकों के ऐन बीच में गोली का सुराख दिखाई दे रहा था ।
एक फोटोग्राफर उस घड़ी विभिन्न कोणों से लाश की तस्वीरें खींच रहा था ।
वो निपटा तो लाश को चादर से ढंक दिया गया ।
तभी भीतर मौजूद ए सी पी तलवार से मेरी निगाह मिली । मुझे देख कर उसके चेहरे पर अप्रसन्नता के भाव आये, फिर उसने करीब खड़े ए एस आई रावत को कुछ कहा ।
रावत तत्काल दरवाजे के करीब पहुंचा । उसने मुझे इशारा किया तो मैंने कमरे के भीतर कदम रखा ।
“यहीं रहना ।” - वो सख्ती से बोला - “जाना नहीं । बड़े साहब का हुक्म हुक्म है ।”
मैंने सहमति में सिर हिलाया ।
तलवार उस घड़ी वेटर की वर्दी पहने एक युवक से पूछताछ कर रहा था लेकिन दोनों की ही आवाज मेरे तक नहीं पहुंच रही थी ।
“क्या हुआ ?” - मैं दबे स्वर में बोला ।
“वही जो दिखाई दे रहा है ।” - रावत भी वैसे ही स्वर में बोला - “कोई अम्बरीश कौशिक है मरने वाला । लखनऊ से आया हुआ । गोली मार ली अपने आपको । खुदकुशी कर ली ।”
“लेकिन....”
“चुप करो ।”
मैं खामोशी से खड़ा रहा ।
फिर मेरे देखते-देखते लाश वहां से उठवा दी गयी ।
तब तलवार ने युवा वेटर को डिसमिस कर दिया और मुझे इशारा किया ।
मैं तलवार के करीब पहुंचा ।
“इतनी जल्दी” - वो मुझे घूरता हुआ - बोला - “वारदात की खबर कैसे लग गयी तुम्हें ? अभी तो यहां कोई प्रैस वाला भी नहीं पहुंचा जो कि...”
“मुझे वारदात की खबर नहीं थी ।” - मैं जल्दी से बोला - “वारदात की खबर मुझे अभी, यहां आके ही लगी है । मैं तो वैसे ही कौशिक से मिलने आया था ।”
“उसे खबर करके ?”
“नहीं ।”
“क्यों ?”
“क्यों क्या ? मुझे उम्मीद थी उसके यहीं होने की । न होता तो मैं फिर आ जाता ।”
“क्यों मिलना चाहते थे ?”
“शबाना के कत्ल की बाबत ही कोई छोटी-मोटी पूछताछ करना चाहता था ।”
“ऐसी पूछताछ करना तुम्हें कत्ल के चार दिन बाद सूझा ?”
“पहले भी सूझा था । फौरन सूझा था । मंगलवार आया भी था मैं यहां कौशिक से मिलने ।”
“तो ? मुलाकात नहीं हुई थी ?”
“मुलाकात तो हुई थी लेकिन मुफीद साबित नहीं हुई थी । तब वो इतना ज्यादा नशे में था कि कोई ढंग की बात करने की हालत में नहीं था ।”
“क्यों था वो ऐसी हालत में ?”
“मेरे ख्याल से तो फिक्रमंद था किसी बात से ।”
“किस बात से ? कुछ बताया नहीं उसने ?”
“न ।”
“ऐसा कैसे हो सकता है ?”
मैं खामोश रहा ।
“राज, ये आत्महत्या का केस है इसलिये मैं बात को यहीं खत्म कर रहा हूं । हत्या का केस होता तो तुम यूं खामोश न रह पाए होते ।”
“मैं इसलिये खामोश हूं क्योंकि मेरे पास कहने को कुछ नहीं है । इसलिये नहीं क्योंकि...”
“ओके । ओके । नाओ गैट अलोंग ।”
मैं वहां से बाहर निकला और नीचे बार में पहुंचा । वहां मैं एक ऐसी टेबल पर बैठा जहां से मुझे लिफ्ट और होटल का मुख्य द्वार दोनों दिखाई दे रहे थे ।
इच्छा न होते हुए भी अपनी वहां मौजूदगी को सार्थक करने के लिये मैंने एक बीयर का आर्डर दिया ।
दस मिनट बाद मैंने तलवार को अपने दल-बल के साथ वहां से रुख्सत होते देखा ।
मैं पांच मिनट और वहां बैठा रहा, फिर वहां से फारिग होकर बाहर निकल गया ।
मैंने उस युवा वेटर को तलाश किया जिसे मैंने ऊपर कौशिक के सुइट में ए सी पी के रूबरू देखा था ।
मालूम हुआ कि उसका नाम किशन पाल था और वो कौशिक के सुइट वाली मंजिल का फ्लोर वेटर था । पहले तो किशन पाल ने कौशिक के सन्दर्भ में मेरे से कोई बात करने से साफ इंकार कर दिया लेकिन जब मैंने एक सौ का पत्ता उसकी नजर किया तो वो पिघला ।
“यहां नहीं” - वो बोला - “आप होटल से बाहर स्टैण्ड पर पहुंचिये । मैं वहां आता हूं ।”
मैं सहमति में सिर हिलाता वहां से रुखसत हो गया और बाहर जाकर खाली पड़े बस स्टैण्ड पर खड़ा हो गया ।
दस मिनट में किशन पाल वहां पहुंचा ।
“पुलिस वालों ने” - आते ही वो बोला - “वारदात की बाबत किसी से कोई बात करने से मना किया था ।”
“अरे, मैं क्यों उन्हें बताने जाऊंगा कि तुमने मेरे से कोई बात की थी ।”
“यही मतलब था मेरा । उनको खबर न लगे ।”
“नहीं लगेगी । वादा ।”
“अब पूछिए, क्या पूछना चाहते हैं ?”
“वैसे तुम ए सी पी तलवार के सामने खास हाजिरी भर रहे थे, उससे लगता है कि वारदात की सबसे पहले खबर तुम्हें ही लगी थी !”
“हां । अपने फ्लोर के एक और मेहमान को सर्व करके मैं सर्विस लिफ्ट में सवार होने ही लगा था कि मुझे गोली चलने की आवाज सुनायी दी थी ।”
“तुम्हें झट सूझ गया था कि वो गोली चलने की आवाज थी ?”
“मुझे तो सूझा था लेकिन लिफ्टमैन मेरी खिल्ली उड़ाने लगा कि होटल में गोली चलने का क्या काम ! जरूर किसी मेहमान ने शैम्पेन की बोतल खोली थी ।
“फिर ?”
“तब तो मैं खामोश हो गया था लेकिन ये बात मेरे दिल से निकली नहीं थी । मुझे हर घड़ी ये ही लगता रहा था कि वो गोली चलने की आवाज थी जो कि कौशिक साहब के कमरे से आयी थी ।”
“ये कैसे सूझा कि वो कौशिक साहब के कमरे से आयी थी ?”
“क्योंकि आज उस फ्लोर के सिर्फ दो ही कमरे लगे हुए थे । उनमें से एक के मेहमान को सर्व करके और उसे भला चंगा छोड़ कर तो मैं वहां से निकला था । अब दूसरा लगा हुआ...”
“आकूपाइड !”
“हां । वो कमरा तो कौशिक साहब का ही था । बाकी सब तो खाली थे ।”
“फिर ?”
“फिर मैंने अपने दिमाग में मची खलबली का जिक्र मैनेजर से किया । पहले तो मैनेजर ने भी मुझे डांट कर भगा दिया लेकिन फिर खुद ही मेरे पीछे-पीछे आया और हम दोनों चौथी मंजिल पर पहुंचे । हमने कौशिक साहब को नाम लेकर पुकारा तो भीतर से कोई आवाज न आयी, दरवाजा खटखटाया तो भी कोई जवाब न मिला, फिर दरवाजा खोला तो पाया कि फर्श पर कौशिक साहब की लाश पड़ी थी ।”
“वैसे ही जैसे अभी थोड़ी देर पहले तक पड़ी थी ?”
“हां ।”
“पीठ के बल ? पांव दरवाजे की ओर ? सिर कमरे से भीतर की ओर ?”
“और दायें हाथ में पिस्तौल ।”
“पिस्तौल ? मुझे तो पिस्तौल नहीं दिखाई दी थी ।”
“वो पुलिस वालों ने अपने काबू में कर ली थी ।”
“कैसी थी पिस्तौल ?”
“मैं क्या बताऊं कैसी थी ? मैं तो हथियारों के बारे में कुछ जानता नहीं ।”
“हूं । किशन पाल, लाश की पोजीशन से ऐसा नहीं लगता था जैसे कौशिक साहब ने किसी आगन्तुक के लिये दरवाजा खोला हो जिसने दरवाजा खुलते ही उन्हें शूट कर दिया हो और वो वहीं दरवाजे के सामने फर्श पर ढ़ेर हो गये हों ।”
“यानी कि” - वो नेत्र फैला कर बोला - “हत्या ?”
“हां ।”
“लेकिन पुलिस वाले तो कहते थे कौशिक साहब ने आत्महत्या की थी !”
“जरूर की होगी । मैं तो ये कह रहा था कि लाश की पोजीशन से ऐसा लगता था - लगता था - कि वो दरवाजे के पास दरवाजे की तरफ मुंह किये खड़े थे जबकि गोली खाकर पीठ के बल फर्श पर गिरे थे ।”
“लगता तो ऐसा ही था ।”
“तुमने उनके हाथ में पिस्तौल देखी थी ?”
“हां । साफ । दायें हाथ में ।”
“उंगलियां पिस्तौल की मूठ पर जकड़ी हुईं ?”
“अब इतना तो मुझे मालूम नहीं । मुझे, तो बस ये मालूम है कि पिस्तौल उनके हाथ में थी ।”
“गोली चलने की आवाज सुनने से लेकर मैनेजर के साथ कौशिक के सुइट में वापिस लौटने तक कितना वक्त गुजर गया होगा ?”
“यही कोई बीस मिनट ।”
“बीस मिनट ?”
“साहब मैंने तो मैनेजर को काफी पहले बोला था लेकिन हम जब ऊपर जाने के लिये लिफ्ट में सवार होने लगे थे तो उसका फोन आ गया था । अपने ऑफिस में जाकर फोन रिसीव करने में मैनेजर ने काफी वक्त जाया कर दिया था ।”
“पुलिस कब पहुंची ?”
“और पन्दरह मिनट बाद ।”
“पिछले तीन चार दिनों से तुम्हीं फ्लोर वेटर हो चौथी मंजिल के ?”
“जी हां । सोमवार से मेरी वहां ड्यूटी है जो कि अभी परसों तक रहेगी ।”
“तब तो तुम्हें सोमवार से अब तक की कौशिक साहब की मूवमेंट्स की काफी खबर होगी ? उनकी कहीं, कभी आवाजाही की ! उनसे मिलने आने वाले लोगों की !”
“साहब, मंगलवार से कौशिक साहब कहीं नहीं गये थे । अपने सुइट से निकलकर वो कहीं गये थे तो या तो नीचे बार में या रेस्टोरेन्ट में । वो भी कोई बहुत ज्यादा बार नहीं । अमूमन तो वो खाना भी रूम सर्विस से मंगाते थे और ड्रिंक्स वगैरह भी ।”
“यानी कि मंगलवार से वो होटल में ही थे ?”
“हां ।”
मुझे याद आया कि मंगलवार को जब मैं कौशिक से मिला था तो वार्तालाप के सिरे पर उसने कहा था कि उसने भी कहीं जाना था ।
क्या मतलब था उस बात का ?
क्या उसने नीचे होटल में ही कहीं जाना था ? या ऐसा उसने महज मुझे टालने के लिये कह दिया था ?
शायद होटल में ही कहीं जाना था ।
काफी हाउस में ?
जहां कि मैंने उसे बैठा देखा था ।
“तुम” - प्रत्यक्षत: मैं बोला - “इस बात को दावे से कैसे कह सकते हो कि कौशिक साहब होटल से बाहर कहीं नहीं गये थे ?”
“साहब, उन्होंने कहीं जाना होता था तो टैक्सी बुलाने के लिये वो मुझे कहते थे । मंगलवार से अब तक एक बार भी उन्होंने मुझे टैक्सी बुलाने को नहीं कहा था ।”
“ओह ! कोई आया गया ?”
“उसकी मुझे कोई गारन्टी नहीं । क्योंकि हर वक्त तो मैं फ्लोर पर नहीं रह सकता न ?”
“मंगलवार को तो एक बार” - मैंने ‘एक बार’ पर विशेष जोर दिया - “मैं भी यहां आया था !”
“मुझे खबर नहीं ।”
“तुम्हारी ड्यूटी कितने बजे से शुरू होती है ?”
“सुबह नौ बजे से ।”
“कौशिक साहब मंगलवार सुबह सवेरे, कह लो कि चार सवा चार बजे कहीं गये हो तो तुम्हें तो फिर खबर नहीं लगी होगी ?”
“मुझे कैसे खबर लगती । मैं तो नौ बजे...”
“हां, हां । आज कौशिक साहब को आखिरी बार जीवित कब देखा था तुमने ?”
“सुबह दस बजे । जब उन्होंने विस्की की नयी बोतल मंगवाई थी ।”
“तब हालत कैसी थी उनकी ?”
“खस्ता ही थी । बड़े नर्वस से, परेशान से, डरे-डरे से लग रहे थे । सुबह सवेरे पैग भी लगा लिया मालूम होता था ।”
“यानी कि ऐसे शख्स जैसे नहीं लग रहे थे जिसे कि अपने आप पर मुकम्मल कन्ट्रोल हो ?”
“नहीं, जी । वो तो बड़े हलकान से, बीमार से...”
“ओके । सहयोग का शुक्रिया, किशन पाल । अब अपनी वो बात याद रखना । पुलिस वालों ने वारदात की बाबत किसी से कोई बात करने के लिये तुम्हें मना किया हुआ है ।”
“बिल्कुल याद है मुझे ये बात ।” - उसने तत्काल इशारा समझा - “मैंने किसी से कोई बात नहीं की ।”
“शाबाश । तरक्की करोगे, बरखुरदार ।”
***
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