औरत फ़रोश का हत्यारा ibne safi

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Re: औरत फ़रोश का हत्यारा ibne safi

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दूसरी उलझन


घर वापसी पर हमीद को फ़रीदी का ख़त मिला। उसने लिखा था।
‘‘डियर हमीद
क्या बताऊँ किस मुसीबत में फँस गया। यहाँ आते ही मलेरिया हो गया। अभी तक बुख़ार है, फ़िलहाल सफ़र के लायक़ नहीं। दूसरा सबसे बड़ा ऩुकसान यह हुआ कि मेरा अफ़्रीकी नस्ल का येलो डिंगू रास्ते में कहीं ट्रेन से लापता हो गया। यहाँ आने का असली मक़सद यही था कि उसे नुमाइश में पेश करूँ। बहुत परेशानी है। उसे तलाश कराने के लिए हर तरीक़ा अपना लिया है, तुम भी खय़ाल रखना। शहनाज़ का सुराग मिला या नहीं? मुझे उसका खय़ाल है, लेकिन क्या करूँ, बहुत मजबूर हूँ। अब मालूम हुआ कि मैंने यहाँ आ कर ग़लती की...
फरीदी।’’


हमीद ने ख़त पढ़ कर एक तरफ़ डाल दिया। येलो डिंगू का मामला अब बिलकुल साफ़ हो चुका था। लेकिन वह सोच रहा था कि आख़िर यह कर्नल प्रकाश है कौन? इतनी मक़्क़ारी और अय्यारी उसने आज तक किसी के चेहरे पर न देखी थी, जितनी कि इस कर्नल प्रकाश के चेहरे पर नज़र आती थी और वह शरारती मुस्कुराहट कितनी ख़तरनाक थी। उसकी मुस्कुराहट और उसकी बिल्ली जैसी आँखों की वहशियाना चमक! वह इन्हीं खय़ालों में डूबा हुआ था। और वह चीज़ ख़ून की प्यास के अलावा और क्या हो सकती है। सोचते-सोचते वह उठ कर फ़रीदी की लाइब्रेरी में आया। चारों तरफ़ अलमारियाँ-ही-अलमारियाँ किताबों से भरी नज़र आ रही थीं। वह एक अलमारी के क़रीब आ कर रुक गया। कुछ देर तक किताबों का जायज़ा लेता रहा फिर एक किताब निकाली जिसका नाम ‘‘साउथ अफ़्रीका के कामयाब हिन्दुस्तानी?’’ था। कई पन्ने उलटने के बाद मतलब की चीज़ मिल गयी वह पढ़ने लगा।

‘‘कर्नल जी प्रकाश, सी.बी.ई.। साउथ अफ़्रीका का करोड़पति...हीरों की कई खानों का हिस्सेदार है। 1960 में कारोबार शुरू किया। निडर और बेबाक आदमी है। कई बार चीतों के शिकार में बुरी तरह ज़ख़्मी हो चुका है। दरिन्दों के शिकार का शौक़ जुनून की हद तक रखता है। बहुत सारे ख़ूँख़ार क़िस्म के कुत्ते पाल रखे हैं। कुत्तों की बहुत अच्छी जानकारी रखता है। गर्मियों का मौसम ज़्यादातर स्विट्ज़रलैण्ड में गुज़ारता है। अंग्रेज़ी सरकार ने ख़ुश हो कर सी.बी.ई. के खिताब से नवाज़ा।’’

इतना पढ़ने के बाद हमीद ने अपना सिर हिला दिया और पन्ना उलट दिया। दूसरे पन्ने पर कर्नल प्रकाश की तस्वीर थी। तस्वीर के चेहरे पर भी मक्कारी नज़र नहीं आ रही थी। बहरहाल हमीद का यह खय़ाल भी ग़लत साबित हुआ कि कर्नल प्रकाश राम सिंह के गिरोह से ताल्लुक़ रखता है। फिर भी फ़रीदी का ख़ौफ़नाक कुत्ता येलो डिंगू उसकी उलझन का सबब बना हुआ था। आख़िर वह उससे इतनी जल्दी सध कैसे गया? अब वह सोच रहा था कि उसे कर्नल प्रकाश से हासिल किस तरह किया जाये, लेकिन जल्द ही उसने इस खय़ाल को अपने ज़ेहन से निकाल फेंका। जब फ़रीदी ने शहनाज़ की ज़्यादा परवाह न की तो फिर वह उस ज़लील कुत्ते की परवाह क्यों करे, उसकी क़ीमत शहनाज़ से ज़्यादा नहीं।

हमीद इस खय़ाल में उलझा ही हुआ था कि नौकर ने सब-इन्स्पेक्टर सिन्हा के आने की ख़बर दी। वह हैरान हो गया। आख़िर इन हज़रत ने आने की ज़हमत क्यों की। वह लाइब्रेरी से ड्रॉइंग-रूम में आया। सब-इन्स्पेक्टर सिन्हा उसके इन्तज़ार में बैठा हुआ था, उसे देख कर खड़ा हो गया।

‘‘तशरीफ़ रखिए...’’ हमीद ने बैठते हुए कहा। ‘‘फ़रमाइए, मेरे लायक़ कोई ख़िदमत...’’

‘‘भई, दरअसल मैं आपकी ग़लतफ़हमी दूर करने आया हूँ, उस वक़्त आप नाराज़ हो कर चले आये थे और मैं भी एक बहुत ज़रूरी काम में फँसा था। इसलिए आपको इत्मीनान न दिला सका।’’

‘‘इत्मीनान तो आप मुझे ज़िन्दगी भर नहीं दिला सकते जबकि मैं शहनाज़ की बेगुनाही अच्छी तरह जानता हूँ।’’ हमीद ने सब-इन्स्पेक्टर सिन्हा की तरफ़ सिगार का डिब्बा बढ़ाते हुए कहा।

‘‘फ़रीदी साहब कहाँ हैं?’’

‘‘एक माह की छुट्टी पर हैं।’’ हमीद ने जवाब दिया।

‘‘क्या कहीं बाहर गये हुए हैं?’’

‘‘जी हाँ... कुत्तों की नुमाइश देखने गये हैं, वहाँ बीमार हो गये हैं।’’

‘‘इसके बावजूद भी आप शहनाज़ की बेगुनाही साबित करने पर तुले हुए हैं?’’ सब-इन्स्पेक्टर सिन्हा ने कहा।

‘‘क्यों... उससे क्या।’’

‘‘ताज्जुब है कि आप इतना भी नहीं समझते।’’ सिन्हा ने हँस कर कहा। ‘‘अगर फ़रीदी साहब शहनाज़ को बेगुनाह समझते होते तो इस तरह मामले को खटाई में डाल कर तफ़रीह करने न चले जाते।’’

‘‘यह तो अपनी-अपनी तबीयत की बात है... अब इसे क्या कहा जाये कि उन्हें आदमियों से ज़्यादा कुत्ते पसन्द हैं।’’ हमीद ने बुरा-सा मुँह बना कर कहा।
‘‘यह बात नहीं हमीद साहब, मैं फ़रीदी साहब को अच्छी तरह जानता हूँ। अगर उन्हें शहनाज़ की बेगुनाही का यक़ीन आ जाता तो वे जान की बाज़ी लगा देते।’’

‘‘मुझसे ज़्यादा आप उन्हें नहीं जानते।’’ हमीद ने कहा।

‘‘अब हठधर्मी को क्या कहा जाय।’’ सब-इन्स्पेक्टर सिन्हा ने सिगार का कश ले कर कहा, ‘‘बहरहाल मुझे इससे बहस नहीं, मैं उसे मुजरिम समझता हूँ, इसलिए मैं उसी हिसाब से काम कर रहा हूँ और जो कुछ आप समझते हैं उसके लिए आप कोशिश करते रहिए। फ़ैसला वक़्त करेगा।’’

‘‘आख़िर उसे मुजरिम समझने की कोई वजह भी तो हो।’’ हमीद ने कहा। ‘‘इसके लिए महज़ शहनाज़ का ग़ायब हो जाना ही काफ़ी नहीं। जैसा कि पहले कह चुका हूँ, हो सकता है कि मुजरिमों ने पुलिस को ग़लत रास्ते पर लगाने के लिए उसे ग़ायब कर दिया हो।’’

‘‘मैं इस वक़्त आपको यही बताने के लिए आया हूँ कि मैं इतना बेवकूफ़ नहीं। इसके लिए मेरे पास बहुत ही ठोस क़िस्म के सबूत हैं इतना मैं भी समझता हूँ कि मुजरिम इस क़िस्म की चाल चल सकते हैं।’’

‘‘ख़ैर साहब...वे सुबूत भी देख लेते हैं।’’

‘‘नहीं, आप मज़ाक़ न समझिए... मैं सीरियसली कह रहा हूँ।’’ सब-इन्स्पेक्टर सिन्हा ने जेब से एक कागज़़ का टुकड़ा निकालते हुए कहा। ‘‘इसे देखिए।’’
हमीद ने कागज़़ ले कर पढ़ना शुरू किया।

‘‘तुमने जिस होशियारी से अपना काम अंजाम दिया है उसकी दाद नहीं दी जा सकती। तुम आज से बाक़ायदा गिरोह में शामिल कर ली गयीं। लेकिन अब बहुत ज़्यादा होशियारी की ज़रूरत है। पुलिस को तुम पर शक हो गया है, इसलिए कुछ दिनों के लिए यहाँ से हट जाओ। बी. वन और बी. टू आज एक बजे दिन में कत्थई रंग की कार पर तुम्हारे मकान के सामने से गुज़रेंगे तुम उन्हें सड़क पर मिलना। बाक़ी काम दोनों ख़ुद कर लेंगे, बहुत ज़्यादा सावधानी की ज़रूरत है।’’

कागज़़ पढ़ते ही हमीद के माथे पर पसीना फूट पड़ा। उसका दिल तेज़ी से धड़क रहा था, जिसकी धमक उसे अपने सिर में महसूस हो रही थी। होंट सूख गये थे। उसने होंटों पर ज़बान फेरते हुए कागज़़ सिन्हा को वापस कर दिया।

‘‘भई, यह सुबूत भी बहुत मालूम नहीं होता।’’ हमीद ने ख़ुद पर क़ाबू पाने की कोशिश करते हुए कहा। यह भी हो सकता है कि एक तरफ़ मुजरिमों ने उसे ग़ायब कर दिया हो और दूसरी तरफ़ पुलिस का शक और ज़्यादा मजबूत करने के लिए यह ख़त भी लिख दिया हो। लेकिन आपको यह ख़त मिला कहाँ से?’’

‘‘यह ख़त शहनाज़ के घर की तलाशी लेते वक़्त उसके लिखने की मेज़ के नीचे पड़ा मिला था।’’ सिन्हा ने कहा। ‘‘और रह गयी शक की बात तो यह भी हो सकता है कि मैं ही असली मुजरिम हूँ या फ़रीदी साहब सिर्फ़ असली मुजरिम होने की वजह से बाहर चले गये हों या फिर आप... शक के तहत तो सब कुछ हो सकता है।’’
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‘‘ख़ैर... ख़ैर...’’ हमीद ने उकता कर कहा। ‘‘इन सब बातों से क्या हासिल। असली बात तो एक-न-एक दिन सामने आ ही जायेगी। बहरहाल, मैं अपने हिसाब से शहनाज़ को बेगुनाह समझने पर मजबूर हूँ।’’

‘‘आप इसके लिए बिलकुल आज़ाद हैं?’’ सब-इन्स्पेक्टर सिन्हा हँस कर बोला। ‘‘किसी के खय़ाल पर तो पाबन्दी लगायी नहीं जा सकती।’’
थोड़ी देर के बाद सिन्हा उठ कर चला गया। सिन्हा के जाते ही हमीद सिर पकड़ कर बैठ गया। तो क्या वाक़ई शहनाज़ मुजरिम है...? मगर नहीं, वह ऐसा नहीं कर सकती। उसे बहरहाल अपने और अपने ख़ानदान की इज़्ज़त का बहुत खय़ाल था। मुजरिम दूर से पहचाने जा सकते हैं। लेकिन शहनाज़ को क़रीब से देख कर भी कभी उसके दिल में यह खय़ाल पैदा नहीं हुआ था कि शहनाज़ जुर्म भी कर सकती है और फिर ऐसा भयानक और दिल दहला देने वाला जुर्म। फिर आख़िर असली बात क्या है? यह सब आख़िर कैसे हुआ? और फिर वह ख़त...। सोचते-सोचते हमीद का सिर चकराने लगा और वह सो़फे पर सिर टेक कर निढाल-सा हो गया।
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चालाक औरत


हमीद का दिल बुरी तरह उलझन में पड़ा हुआ था। कभी वह सचमुच शहनाज़ पर शक करने लगता और कभी इस शक को मुहब्बत की लहर अपने साथ बहा ले जाती। वह सोच रहा था कि अगर वाक़ई वह ख़त शहनाज़ को मिला होता तो वह उसे मेज़ के नीचे न डाल देती और यह भी अजीब बात है कि पुलिस का शक ख़त्म करने के लिए ग़ायब हो गयी। ऐसी सूरत में तो उसे यहीं मौजूद रहना चाहिए था, ताकि पुलिस का शक ख़त्म हो जाये। मगर ऐसा भी हो सकता है कि इस गिरोह के लोगों ने उसे महज़ इसलिए ग़ायब कर दिया है कि कहीं पुलिस उस पर ज़ुल्म करके सारा राज़ उगलवा न ले, मगर ऐसी सूरत में भी शहनाज़ वह ख़त पढ़ने के बाद ज़रूर जला देती। फिर आख़िर क्या बात है? वह उकता कर फ़रीदी के ख़त का जवाब लिखने बैठ गया। मगर लिखे क्या? फ़रीदी की तरफ़ से एक तरह की नफ़रत उसके दिल में पैदा हो गयी थी। कुछ-कुछ लिखना तो शुरू कर दिया, लेकिन येलो डिंगू का ज़िक्र नहीं किया। उसके बारे में सिर्फ़ इतना लिखा कि उसके खो जाने पर उसे अफ़सोस है। शहनाज़ के बारे में भी यह लिख दिया कि वह अभी तक नहीं मिल सकी। इस बीच में उसने क्या किया, उसके बारे में उसने कुछ भी लिखना बेकार समझा। उसने इरादा कर लिया कि इस मुहिम को वह अकेले ही पूरा करने की कोशिश करेगा और फ़रीदी को यह दिखा देगा कि वह निरा बुद्धू नहीं है। आख़िर उसे भी तो तरक़्क़ी करनी ही है। कब तक फ़रीदी का सहारा लेता रहेगा। इस तरह तो शायद वह ज़िन्दगी भर तरक़्क़ी का मुँह न देख सकेगा। रह गया फ़रीदी तो वह अच्छा-ख़ासा झक्की है। कितनी बार चीफ़ इन्स्पेक्टरी मिली। ठुकरा दी। न जाने किस तरह का आदमी है। उसकी बात ही समझ में नहीं आती। कभी यह हाल होता है कि चाहे कोई वास्ता हो या न हो, ज़बर्दस्ती हर मामले में टाँग अड़ा देता है और जब कोई ख़ास मौक़ा आता है तो इतनी सफ़ाई से अलग हो जाता है जैसे कोई बात ही न हो। हमीद के और उसके सम्बन्ध अच्छे थे, लेकिन फिर भी उसने उसकी परवाह नहीं की और यहाँ से चला गया। अगर शहनाज़ से उसका कोई ताल्लुक़ न होता तो शायद वह अपनी जान तक की बाज़ी लगा देता। हमीद जितना सोचता जा रहा था, उसकी तबीयत की उकताहट उतनी ही बढ़ती जा रहा थी। दीवार पर लगी हुई घड़ी आठ बजा रही थी। उसने सोचा, क्यों न ‘गुलिस्ताँ होटल’ ही में चल कर दिल बहलाया जाय और इस तरह शायद कर्नल प्रकाश के बारे में भी कुछ मालूम हो सके। मगर उसके बारे में मालूम करने की ज़रूरत ही क्या है, क्योंकि वह तो क़तई परदेसी आदमी है। सूरत से ख़तरनाक ज़रूर मालूम होता है, लेकिन इस घटना से उसका क्या सम्बन्ध है। उसके पीछे पड़ना बेकार ही वक़्त बर्बाद करना है।


उसने कपड़े पहने, पहले सोचा कि फ़रीदी की कार निकाल ले, लेकिन फिर कुछ सोच कर पैदल ही चल पड़ा। आगे चल कर एक टैक्सी की और ‘गुलिस्ताँ होटल’ की तरफ़ रवाना हो गया।
नाच घर में काफ़ी रौनक थी। अभी नाच शुरू नहीं हुआ था। लोग इधर-उधर बैठे कुछ खा-पी रहे थे। शराब के काउण्टर पर अच्छी-ख़ासी भीड़ थी। हमीद ने छिछलती-सी नज़र सब पर डाली। एक मेज़ पर कर्नल प्रकाश बैठा कुछ पी रहा था और साथ ही कोई अख़बार भी देखता जा रहा था। वह उस मेज़ पर अकेला ही था। बाक़ी तीन कुर्सियाँ ख़ाली थीं। उसी के क़रीब एक और मेज़ ख़ाली थी। हमीद ने न जाने क्यों अपने लिए वही जगह चुनी।


कर्नल प्रकाश अपने आस-पास से बेख़बर पढ़ने में लगा था। उस वक़्त हमीद को उसे बहुत ही क़रीब से देखने का मौका मिला। वह उसे पहले से ज़्यादा ख़तरनाक मालूम हो रहा था।

हमीद इधर-उधर बैठी हुई औरतों को इस तरह घूरने लगा जैसे वह एक बहुत अय्याश क़िस्म का आदमी हो। अचानक उसने यूँ ही पीछे मुड़ कर देखा, लेडी सीताराम हॉल में दाख़िल हो रही थी।

वह चुपके से कर्नल प्रकाश के पीछे खड़ी हो गयी। कर्नल प्रकाश पढ़ने में मशग़ूल रहा। लेडी सीताराम सत्ताईस-अट्ठाईस साल की औरत थी। उसके होंट बहुत ज़्यादा पतले थे जिन पर बहुत गहरे रंग की लिपस्टिक लगायी गयी थी, ऐसा मालूम होता था जैसे उसने अपने होंट भींच रखे हों। माथे पर पड़ी हुई लकीरें ख़राब नहीं मालूम होती थीं। वह कुछ पल उसी तरह कर्नल प्रकाश के पीछे खड़ी रही, फिर उसने धीरे से कुछ कहा और वापस जाने के लिए मुड़ गयी। कर्नल प्रकाश चौंक कर पीछे देखने लगा। उसके चेहरे पर शरारती मुस्कुराहट नाच रही थी। लेडी सीताराम ऊपर गैलरी में जाने के लिए ज़ीने पर चढ़ रही थी। उसके जाने के तीन-चार मिनट बाद कर्नल प्रकाश भी उठा। अब वह भी उसी ज़ीने पर चढ़ रहा था। हमीद हैरत से पलकें झपकाने लगा। यह बात उसकी समझ में बिलकुल न आयी कि लेडी सीताराम कर्नल प्रकाश से इस क़िस्म के ताल्लुक़ात कैसे रखती है, जबकि ख़ुद सीताराम कर्नल प्रकाश के लिए बिलकुल अजनबी थे और उन दोनों की पहली मुलाक़ात लॉरेंस बाग़ में ख़ुद उसी के सामने हुई थी।

आख़िर यह मामला क्या है? हमीद थोड़ी देर तक सोचता रहा कि उसे क्या करना चाहिए। वह उठा और लापरवाही से टहलता हुआ ख़ुद भी उसी ज़ीने पर चढ़ने लगा। गैलरी ख़ाली पड़ी थी। उसने बालकनी में झाँक कर देखा। वे दोनों जँगले पर झुके, खड़े हुए बातें कर रहे थे, उन्हीं के क़रीब से दो खम्भों के नीचे से आती हुई लिण्टर फैली हुई थी। ऊपर आ कर लिण्टर इतना फैल गया था कि बालकनी का वह हिस्सा बिलकुल बेकार हो गया था। सार्जेंट हमीद दूसरे दरवाज़े से निकल कर लिण्टर की आड़ में छिप गया। इस तरफ़ अँधेरा होने के कारण उधर वालों की नज़रें हमीद तक नहीं पहूँच सकती थीं। इस तरह वह ऐसी जगह पहूँच चुका था जहाँ से उनकी बातचीत का एक-एक शब्द साफ़ सुन सकता था।

लेडी सीताराम कह रही थी–
‘‘कर्नल... तुम शायद कोई जादूगर हो।’’


‘‘क्यों... क्यों, ख़ैरियत तो है?’’ कर्नल प्रकाश क़हक़हा लगा कर बोला।
‘‘मुझे बताओ कि मैं अपना ज़्यादा-से-ज़्यादा वक़्त तुम्हारे साथ क्यों गुज़ारना चाहती हूँ?’’

‘‘यह अपने दिल से पूछो।’’ कर्नल प्रकाश बहुत ही रूमानी अन्दाज़ में बोला।

‘‘काश! मैं अफ़्रीका में पैदा हुई होती।’’

‘‘तब तुम इतनी हसीन न होतीं।’’

‘‘तो क्या मैं वाक़ई हसीन हूँ?’’

‘‘काश! मैं तुम्हारे हुस्न की तस्वीर शब्दों में खींच सकता।’’

‘‘हटो भी।’’ लेडी सीताराम ने शर्मीले अन्दाज़ में कहा।

‘‘लेडी सीताराम, मैं सच कहता हूँ कि...’’

‘‘देखो कर्नल, तुम मेरा नाम जानते हो।’’ वह प्रकाश की बात काट कर बोली। ‘‘मुझे इस मनहूस नाम से मत पुकारा करो। मुझे तकलीफ़ होती है।’’
‘‘अच्छा, चलो यही सही... हाँ, तो हसीन रेखा... मैं एक सिपाही क़िस्म का अक्खड़ आदमी हूँ। लेकिन तुम्हारी प्यारी-प्यारी-सी शख्सियत ने मुझे बिलकुल मोम बना दिया है।’’

‘‘तुम मुझे बेवकूफ़ बना रहे हो।’’ लेडी सीताराम नाज़ से बोली।

‘‘नहीं रेखा, तुम पहली औरत हो जिससे मुझे इतना लगाव है। मैं अभी तक कुँवारा हूँ। कभी-कभी सोचता हूँ कि काश! तुम मेरे हिस्से में आयी होतीं।’’

‘‘मेरी ऐसी क़िस्मत कहाँ थी।’’ लेडी सीताराम ठण्डी आह भर कर बोली।

‘‘हाँ, और सुनो...’’ कर्नल प्रकाश बोला। ‘‘आज शाम इत्तफ़ाक़ से तुम्हारे खूसट से मुलाक़ात हो गयी। मुझसे मिल कर बहुत ख़ुश हुआ है और कल शाम को चाय की दावत दी है। कितना मज़ा आयेगा जब वह मेरा परिचय तुमसे अजनबी की हैसियत से करायेगा। मुझे तो सोच-सोच कर हँसी आ रही है।’’
‘‘बहुत अच्छा हुआ डियर कर्नल... अब मैं तुमसे बाक़ायदा मिल सकूँगी। मैं ख़ुशक़िस्मत हूँ।’’

‘‘तुम नहीं, बल्कि मैं ख़ुशक़िस्मत हूँ कि मुझे यहाँ एक अनमोल हीरा नसीब हुआ है जिसका जवाब दुनिया में नहीं।’’

‘‘और तुम ठहरे हीरों के व्यापारी...’’ लेडी सीताराम क़हक़हा लगा कर बोली।

कर्नल प्रकाश हँसने लगा।

‘‘अरे, यह कौन आ रहा है?’’ लेडी सीताराम चौंक कर बोली। ‘‘मेरा भतीजा सुरेन्द्र कुमार... अच्छा कर्नल साहब... अब तुम नीचे जाओ... मैं भी अभी आयी। सुरेन्द्र के सामने हम एक-दूसरे के लिए अजनबी ही रहेंगे।’’

‘‘अच्छा, मैं चला... लेकिन यह तो बताओ कि अब कब मिलेंगे?’’

‘‘बहुत जल्द...’’ लेडी सीताराम ने कहा और टहलती हुई बालकनी के दूसरे किनारे तक चली गयी।

तक़रीबन दस-पन्द्रह मिनट तक वह वहाँ टहलती रही, फिर वह भी नीचे चली गयी। हमीद लिण्टर की आड़ से निकला और पूरी बालकनी का चक्कर लेता हुआ दूसरे ज़ीने से नीचे उतर आया। नाच शुरू हो चुका था। कर्नल प्रकाश एक नयी लड़की के साथ नाच रहा था। लेडी सीताराम और सुरेन्द्र एक किनारे बैठे हुए कुछ पी रहे थे। हमीद दोनों को देखता हुआ बार की तरफ़ चला गया। उसकी निगाहें उन्हीं दोनों पर टिकी हुई थीं। सुरेन्द्र एक मामूली तबीयत का, मगर ख़ूबसूरत नौजवान था। उसने काला सूट पहन रखा था जो उस पर बहुत ज़्यादा खिल रहा था। दूसरा राउण्ड शुरू होने पर लेडी सीताराम और सुरेन्द्र उठ कर टहलते हुए गैलरी के ज़ीनों की तरफ़ गये। दूसरे पल दोनों ग़ायब थे। कर्नल प्रकाश अब एक दूसरी औरत के साथ नाच रहा था। न जाने क्यों हमीद का दिल चाहा कि उन दोनों के पीछे जाये, वह टहलता हुआ ज़ीने के क़रीब आया, लेकिन ठिठक गया और वह अपने मक़सद में कामयाब न हो सका। कर्नल प्रकाश के क़दम कुछ डगमगा रहे थे। वह इस तरह लड़खड़ा रहा था जैसे वह बहुत ज़्यादा पी गया हो। उसके साथ नाचने वाली औरत ने शायद इसे महसूस कर लिया था, इसलिए वह उसकी पकड़ से निकल जाने की कोशिश कर रही थी। थोड़ी देर बाद कर्नल प्रकाश ने ख़ुद उसे छोड़ दिया और लड़खड़ाता हुआ ज़ीने की तरफ़ बढ़ा।

हमीद हैरान था कि आख़िर यह बात क्या है। यह ऊपर क्यों जा रहा है, क्योंकि अभी-अभी लेडी सीताराम ने उससे कहा था कि वह सुरेन्द्र की मौजूदगी में एक-दूसरे के लिए बिलकुल अजनबी होंगे। हमीद अभी सोच ही रहा था कि वह क्या करे कि कर्नल प्रकाश लड़खड़ाता हुआ नीचे उतर आया। ग़ुस्से से उसके नथुने फूल रहे थे, निचला होंट उसने अपने दाँतों में दबा रखा था। वह लड़खड़ाता हुआ बार की तरफ़ चला गया। हमीद ने इधर-उधर देखा और दबे पाँव ज़ीने पर चढ़ता चला गया।
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अब फिर वह उसी लिण्टर की आड़ में छिप गया था। लेडी सीताराम और सुरेन्द्र एक-दूसरे के हाथ-में-हाथ डाले जँगले पर झुके हुए थे।

‘‘सुरेंद्र डार्लिंग! मैं अब इस तरह ज़िन्दा रहना नहीं चाहती।’’ लेडी सीताराम बोली।

‘‘तो आख़िर इसमें परेशानी की कौन-सी बात है। दुनिया की नज़रों में अगर हम चाची और भतीजे रह कर ही ज़िन्दगी का लुत्फ़ उठायें तो क्या बुराई है!’’ सुरेन्द्र बोला।

‘‘लेकिन मुझे यह पसन्द नहीं।’’ लेडी सीताराम ने कहा।


‘‘समझ में नहीं आता कि आख़िर इसमें बुराई क्या है!’’ सुरेन्द्र बोला।

‘‘मैं उस बूढ़े खूसट की शक्ल भी नहीं देखना चाहती।’’ लेडी सीताराम ने कहा।

‘‘यह ज़रा मुश्किल चीज़ है, लेकिन तुम जो कहो, मैं करने के लिए तैयार हूँ।’’ सुरेन्द्र बोला।

‘‘आओ, हम तुम कहीं दूर चले जायें, बहुत दूर... जहाँ हम दोनों के सिवा और कोई न हो।’’

‘‘अरे-रे-रे...नहीं... वहाँ हमारा खाना कौन पकायेगा।’’ सुरेन्द्र हँस कर बोला।

‘‘शरीर कहीं के।’’ लेडी सीताराम ने कहा और सुरेन्द्र ‘‘ओ ओ!’’ करता हुआ एक तरफ़ हट गया।

शायद लेडी सीताराम ने उसके चुटकी काट ली थी। हमीद इनकी बातें सुन कर चुपके से गैलरी में आ गया।

ग्यारह बजे रात को जब वह घर वापस आ रहा था तो उसके ज़ेहन में अजीब खय़ाल आ रहे थे। अजीबो-ग़रीब औरत है, एक तरफ़ तो भतीजे को फाँस रखा है और दूसरी तरफ़ कर्नल प्रकाश को बेवकूफ़ बना रही है। कर्नल ग़ुस्से में नीचे उतरा था, शायद उसने भी उनकी बातचीत सुनी होगी। देखिए, अब क्या होता है। उसका दिमाग़ फिर उलझने लगा। लेकिन इन सब बातों का शहनाज़ से क्या सम्बन्ध? वह आख़िर उनके पीछे क्यों लगा हुआ है? मगर फिर लेडी सीताराम ही ने तो पुलिस को शहनाज़ की तरफ़ से शक में डाला था और यह भी तो राम सिंह के साथ नाची थी। यह एक गन्दी औरत है और राम सिंह ऐसी औरतों का व्यापार करता था। यहाँ तक तो कड़ियाँ मिलती हैं, लेकिन फिर सवाल यह पैदा होता है कि लेडी सीताराम एक दौलतमन्द आदमी की बीवी है। ग़रीब तो है नहीं कि औरत बेचने वाले से उसका सम्बन्ध हो। अजीब गुत्थी है। ऐसी औरत आज तक उसकी नज़रों से नहीं गुज़री थी। कमबख़्त का चेहरा इतना ख़ूबसूरत है कि कोई भी उसे इतना ज़लील नहीं समझ सकता। यह औरत जो सोसाइटी में काफ़ी इज़्ज़त की नज़रों से देखी जाती है, कितनी गिरी हुई है। उसे ऐसा महसूस होने लगा कि शायद शहनाज़ भी ऐसी ही हो। वह काफ़ी आज़ाद खय़ाल है। नाचघरों में मर्दों के साथ नाचती-फिरती है। उसे अपनी मुहब्बत पर नफ़रत की हल्की-सी परत चढ़ती हुई महसूस होने लगी।
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कैसे कैसे परिवार Running......बदनसीब रण्डी Running......बड़े घरों की बहू बेटियों की करतूत Running...... मेरी भाभी माँ Running......घरेलू चुते और मोटे लंड Running......बारूद का ढेर ......Najayaz complete......Shikari Ki Bimari complete......दो कतरे आंसू complete......अभिशाप (लांछन )......क्रेजी ज़िंदगी(थ्रिलर)......गंदी गंदी कहानियाँ......हादसे की एक रात(थ्रिलर)......कौन जीता कौन हारा(थ्रिलर)......सीक्रेट एजेंट (थ्रिलर).....वारिस (थ्रिलर).....कत्ल की पहेली (थ्रिलर).....अलफांसे की शादी (थ्रिलर)........विश्‍वासघात (थ्रिलर)...... मेरे हाथ मेरे हथियार (थ्रिलर)......नाइट क्लब (थ्रिलर)......एक खून और (थ्रिलर)......नज़मा का कामुक सफर......यादगार यात्रा बहन के साथ......नक़ली नाक (थ्रिलर) ......जहन्नुम की अप्सरा (थ्रिलर) ......फरीदी और लियोनार्ड (थ्रिलर) ......औरत फ़रोश का हत्यारा (थ्रिलर) ......दिलेर मुजरिम (थ्रिलर) ......विक्षिप्त हत्यारा (थ्रिलर) ......माँ का मायका ......नसीब मेरा दुश्मन (थ्रिलर)......विधवा का पति (थ्रिलर) ..........नीला स्कार्फ़ (रोमांस)
Masoom
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Re: औरत फ़रोश का हत्यारा ibne safi

Post by Masoom »

सर सीताराम

दूसरे दिन हमीद बहुत उलझन में था कि किस तरह सर सीताराम तक पहूँच जाये, उसे इस दिलचस्प ड्रामे के अंजाम को देखने की तमन्ना थी। वह देखना चाहता था कि लेडी सीताराम और कर्नल प्रकाश, जो पहले से एक-दूसरे के गहरे दोस्त हैं, सर सीताराम के सामने अजनबियों की तरह कैसे मिलते हैं। वह दिन भर यही सोचता रहा कि किस तरह उस वक़्त सर सीताराम के यहाँ पहूँच जाये, जब कर्नल प्रकाश भी वहाँ मौजूद हो। दफ़्तर में भी उसका दिल न लगा और वह दफ़्तर बन्द होने से पहले ही घर लौट आया। जैसे-जैसे शाम क़रीब आती जा रही थी, उसकी उलझन बढ़ती जा रही थी। वह ड्रॉइंग-रूम में एक सो़फे पर लेटा खय़ालों में गुम था कि नौकर ने एक विज़िटिंग कार्ड ला कर उसके सामने रख दिया।

‘‘डॉक्टर महमूद...’’ हमीद ने धीरे से कहा। ‘‘उन्हें अन्दर भेज दो।’’ हमीद उठ कर बैठ गया।

‘‘आदाब अ़र्ज है, हमीद साहब।’’ डॉक्टर महमूद ने ड्रॉइंग-रूम में दाख़िल होते हुए कहा। वह अधेड़ उम्र का आदमी था। चेहरा दाढ़ी-मूँछों से साफ़ था। फ़रीदी के साथ उसके ताल्लुक़ात बहुत अच्छे थे जिसकी सबसे बड़ी वजह यह थी कि वह जानवरों के अस्पताल का इंचार्ज था और कुत्तों के म़र्ज का माहिर। इसलिए सोसाइटी में उसकी बहुत इज़्ज़त थी, लेकिन उसमें बुराई यह थी कि वह ऊँची सोसाइटी में बैठ-बैठ कर लम्बी-चौड़ी हाँकने का आदी हो गया था। उसका कार्ड देखते ही हमीद को उलझन होने लगी थी। ऐसे लोगों से बातचीत करना वह सिर्फ़ वक़्त की बर्बादी समझता था, क्योंकि उसे अच्छी तरह मालूम था कि उनकी बातों में नब्बे फ़ीसदी झूठ ही होता है। डॉक्टर महमूद ज़्यादातर हाई सोसाइटी की औरतों की बातें किया करता था, जैसे फ़लाँ जज की बीवी ने उसे यूँ मुस्कुरा कर देखा, फ़लाँ सेठ की बीवी उसके साथ भाग जाने के लिए राज़ी हो गयी थी। फ़लाँ कर्नल की बेवा बहन उस पर बुरी तरह लट्टू हो रही थी। फ़लाँ ऐडवोकेट की लड़की तो उसके लिए ज़हर तक खा लेने के लिए तैयार बैठी है, लेकिन वह उसकी परवाह नहीं करता, क्योंकि ख़ुद उसकी बीवी कई बच्चे जन चुकने के बावजूद सिर्फ़ तेरह बरस की मालूम होती थी और उसके हुस्न का तो यह आलम है कि शायद हूरें भी उसकी क़सम खाती होंगी।

हमीद डॉक्टर महमूद को देख कर ज़बर्दस्ती मुस्कुराता हुआ उठा और उससे हाथ मिलाते वक़्त ज़बर्दस्ती की गर्मजोशी दिखाते हुए बैठ गया।

‘‘क्या फ़रीदी साहब घर पर मौजूद नहीं हैं?’’ डॉक्टर महमूद ने बैठते हुए कहा।

‘‘जी नहीं! वे बाहर गये हैं।’’ हमीद ने कहा।

‘‘भई हमीद साहब, क्या बताऊँ... मालूम नहीं, आप लोगों से इतनी क्यों मुहब्बत हो गयी है, हालत यह है कि अगर ज़्यादा दिनों तक आप लोगों से न मिलूँ तो अजीब तरह की उलझन होने लगती है।’’ डॉक्टर महमूद ने कहा।

‘‘मुहब्बत है आपकी...’’ हमीद मुस्कुरा कर बोला। वह उससे ज़्यादा बातचीत नहीं करना चाहता था ताकि जल्दी ही पीछा छूट जाये।

‘‘इस वक़्त सर सीताराम के यहाँ टी पार्टी में जा रहा था, सोचा, लगे हाथ आप लोगों से भी मिलता चलूँ, वैसे मुझे फ़ुर्सत कहाँ।’’ डॉक्टर महमूद ने कहा। ‘‘भई, क्या बताऊँ मैं तो उस टी पार्टी को महज़ वक़्त की बर्बादी समझता हूँ, मगर क्या करूँ ये लोग किसी तरह मानते ही नहीं। अब आज ही की बात ले लीजिए, सर सीताराम का आदमी दावत का कार्ड ले कर आया। मैंने टालने के लिए जवाब लिख दिया कि मैं माफ़ी चाहता हूँ, क्योंकि मेरे पास एक मेहमान आ गये हैं, लेकिन साहब, भला सर सीताराम कहाँ मानने वाले, फ़ौरन कहला भेजा कि मेहमान समेत आ जाओ। मरता क्या न करता, जाना ही पड़ेगा। जा कर कहूँगा कि मेहमान की तबीयत कुछ ख़राब थी, इसलिए वह न आ सकेगा।’’

हमीद की आँखें चमकने लगीं, उसने सोचा क्यों न इस मौक़े से फ़ायदा उठाये, हालाँकि वह अच्छी तरह समझता था कि यह मेहमान वाली बात सौ फ़ीसदी गप है, लेकिन वह फिर भी कह ही बैठा–
‘‘तो इसमें परेशानी की क्या बात है? मैं आपका मेहमान बन कर चला जाऊँगा।’’

‘‘अरे आप कहाँ... आप मज़ाक़ कर रहे हैं।’’ डॉक्टर महमूद ने झेंपी हुई हँसी हँसते हुए कहा।

‘‘नहीं, मैं सच कह रहा हूँ।’’ हमीद ने कहा।

‘‘और अगर किसी ने पहचान लिया तो...’’ डॉक्टर महमूद ने पीछा छुड़ाने के लिए कहा। ‘‘मुझे बड़ी शर्मिन्दगी उठानी पड़ेगी।’’

‘‘कमाल कर दिया आपने...’’ हमीद ने हँस कर कहा। ‘‘अरे साहब, मैं भेस बदल कर चलूँगा।’’

‘‘अब तो आप वाक़ई मज़ाक़ कर रहे हैं।’’ डॉक्टर महमूद ने क़हक़हा लगा कर कहा।

‘‘बख़ुदा मैं मज़ाक़ नहीं कर रहा।’’ हमीद ने कहा। ‘‘बात यह है कि मुझे सर सीताराम के कुत्तों को देखने का बेहद शौक़ है। मैंने कई बार कोशिश की कि वहाँ तक पहूँचूँ, मगर कोई अच्छा बहाना हाथ न आ सका।’’

‘‘अगर यह बात है तो मैं किसी मौक़े पर आपको उनसे मिलाऊँगा।’’ डॉक्टर महमूद ने कहा।

‘‘आप जानते हैं कि हम लोगों को इतनी फ़ुर्सत कहाँ... आज ख़ुशक़िस्मती से कोई केस नहीं है। इसलिए फ़ुर्सत-ही-फ़ुर्सत है, वरना पता नहीं कब और किस वक़्त फिर काम पर जाना पड़े।’’

‘‘मगर...’’ डॉक्टर महमूद ने बात काटते हुए कहा।

‘‘अगर-मगर कुछ नहीं... मैं इस वक़्त आपके साथ ज़रूर चलूँगा।’’ हमीद ने कहा। ‘‘आख़िर आपको परेशानी किस बात की है, जबकि सीताराम आपको मेहमान समेत बुला चुके हैं।’’

‘‘परेशानी की कोई बात नहीं। सोचता हूँ कि अगर आप भेस बदलने पर पहचान लिये गये तो बड़ी शर्मिन्दगी होगी।’’ डॉक्टर महमूद ने कहा।

‘‘इसका ज़िम्मा मैं लेता हूँ।’’ हमीद ने सीने पर हाथ मार कर कहा। ‘‘अगर कोई पहचान ले तो मैं एक हज़ार रुपये आपको दूँगा, कहिए, तो लिख कर दे दूँ।’’

डॉक्टर महमूद उलझन में पड़ गया। वह टी पार्टी में बुलाया ज़रूर गया था, लेकिन मेहमान वाली बात उसने महज़ अपनी लापरवाही और अपनी नज़रों में ऊँचे तबक़े की कोई अहमियत न होने के इज़हार के लिए यूँ ही कह दी थी। अब उसे अपनी बेवकूफ़ी पर अफ़सोस हो रहा था, लेकिन अब हो ही क्या सकता था। तीर कमान से निकल चुका था... मजबूरन उसे हमीद की बात माननी ही पड़ी। हमीद उसे ड्रॉइंग-रूम में बिठा कर ख़ुद चलने की तैयारी करने के लिए दूसरे कमरे में चला गया।

डॉक्टर महमूद बैठा दाँत पीस रहा था। ख़ामख़ा की बला गले लग गयी। बिन बुलाये मेहमान को अपने साथ ऐसी जगह ले जाना सरासर तहज़ीब के ख़िलाफ़ समझा जाता है। मिडल-क्लास की ज़िन्दगी में तो ख़ैर, हर चीज़ ठीक है, लेकिन हाई सोसाइटी के लोग इन बातों का ख़ास खय़ाल रखते हैं। महमूद बैठा उलझ रहा था कि पुराने ज़माने के एक मुसलमान रईस ने ड्रॉइंग-रूम में दाख़िल हो कर कहा, ‘‘अस्सलाम अलैकुम।’’

डॉक्टर महमूद चौंक कर खड़ा हो गया।

‘‘क्या फ़रीदी साहब हैं।’’ आने वाले ने बेतकल्लुफ़ी से बैठते हुए कहा।

‘‘जी नहीं... वे तो बाहर गये हैं।’’ डॉक्टर महमूद ने जल्दी से कहा।

‘‘आप कौन हैं?’’ अजनबी ने डॉक्टर महमूद की तरफ़ देखते हुए कहा।

‘‘मुझे डॉक्टर महमूद कहते हैं, जानवरों के हस्पताल का इंचार्ज हूँ।’’

‘‘बहुत ख़ूब... आपसे मिल कर बहुत ख़ुशी हुई।’’ अजनबी ने हाथ मिलाते हुए कहा। उसके बाद ख़ामोशी छा गयी।

‘‘आपने यह नहीं पूछा कि मैं कौन हूँ, बहुत बदतमीज़ मालूम होते हैं आप।’’ अजनबी ने बुरा-सा मुँह बना कर कहा।

डॉक्टर महमूद हड़बड़ा कर हकलाने लगा।

‘‘घबराओ नहीं, प्यारे डॉक्टर...’’ अजनबी ने क़हक़हा लगा कर कहा। ‘‘जब तुम मुझे नहीं पहचान सके तो फिर कौन माई का लाल पहचान सकेगा।’’

‘‘अरे हमीद साहब...’’ डॉक्टर ने उछल कर कहा। ‘‘ख़ुदा की क़सम कमाल कर दिया।’’

‘‘अच्छा, तो अब अच्छी तरह समझ लीजिए मेरी तारीफ़ यह है।’’ हमीद हँस कर बोला। ‘‘ख़ान बहादुर मुजाहिद मि़र्जा... अवध का बहुत बड़ा ताल्लुक़ेदार... क्या समझे और कुत्तों का शौक़ीन।’’

‘‘समझ गया... अच्छी तरह समझ गया। अब मुझे कोई परेशानी नहीं।’’ डॉक्टर महमूद ने कहा। दोनों कार पर बैठ कर सर सीताराम की कोठी की तरफ़ रवाना हो गये।
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