Thriller Kaun Jeeta Kaun Hara

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Re: Thriller Kaun Jeeta Kaun Hara

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उन्हीं सारे हंगामों के बीच कमाण्डर मुंबई पहुंचा ।
वो सीधा लोखंडवाला गया ।
लोखंडवाला में उसे सरदार मनजीत सिंह की ‘वाहेगुरु एडवरटाइजमेंट एजेंसी’ तलाश करने में कुछ मुश्किल न हुई । वो सुमन टावर के 13 नंबर फ्लैट में ही थी ।
वह फ्लैट थ्री रूम सेट था और काफी लग्जरी किस्म का फ्लैट था । सरदार मनजीत सिंह ने उस फ्लैट का सिर्फ एक बाहरी साइड वाला कमरा ही किराए पर लिया हुआ था । कमाण्डर करण सक्सेना ने एक आश्चर्यजनक बात और देखी । उस रूम के बाहर ‘वाहेगुरु एडवरटाइजमेंट एजेंसी’ का बोर्ड इतना बड़ा नहीं लगा हुआ था, जितना एक कोरियर सर्विस का बोर्ड लगा था । इसके अलावा वह एक एडवरटाइजमेंट एजेंसी का दफ्तर कम और एक कोरियर सर्विस का दफ्तर ज्यादा नजर आता था ।
सामने ही बाइस-तेईस साल की उम्र का एकदम सींक-सलाई सा लड़का बैठा था ।
उसकी आंखों पर नजर का चश्मा चढ़ा था ।
चश्मे को वह बिल्कुल अपनी नाक की फुनगी पर टिकाए बड़े मनोयोग से एक रजिस्टर में कोरियर से संबंधित कुछ हिसाब-किताब लिख रहा था । उसके बराबर में लकड़ी का छोटे-छोटे खानों वाला एक काफी बड़ा रैक लगा था, जिसमें डाक भरी हुई थी ।
“हैलो यंग मैन !” कमाण्डर उस लड़के से संबोधित हुआ ।
“हैलो !”
लड़का रजिस्टर में निरंतर लिखाई करता रहा ।
उसने कमाण्डर की तरफ निगाह उठाकर भी नहीं देखा ।
“क्या सरदार मनजीत सिंह का दफ्तर यही है ?”
“हां, यही है ।”
“वो कहाँ है ?”
“यहाँ नहीं है ।”
लड़के ने इस बीच एक मर्तबा भी गर्दन ऊपर उठाकर देखना गंवारा नहीं किया था ।
अजीब मामला था, लड़का उसके साथ बड़ी बेरुखी से पेश आ रहा था । वह उसके एम्प्लायर के बारे में उससे सवाल कर रहा था और उसे जैसे कुछ परवाह ही न थी ।
“यहाँ नहीं है ?”
“नहीं ।”
“कहाँ गये ?”
“गये होंगे कहीं ।” इस बार वो थोड़ा झल्लाकर बोला- “अब मुझे क्या पता, वो यहाँ रहते ही कब हैं ?”
कमाण्डर को थोड़ा गुस्सा आ गया ।
उस लड़के का व्यवहार उसकी बर्दाश्त से बाहर होता जा रहा था ।
“बड़े विचित्र प्राणी हो ।” कमाण्डर उसे फटकारता हुआ बोला- “तुम्हें यहाँ सरदार मनजीत सिंह ने इसलिए नौकरी पर रखा है, ताकि तुम उसके पीछे आने-जाने वाले हर आदमी को उसके बारे में उचित जानकारी दे सको । जबकि तुम इस तरह पेश आ रहे हो, जैसे मैं तुम्हारे एम्प्लायर के बारे में नहीं बल्कि तुम्हारे जूनियर के बारे में कोई सवाल कर रहा हूँ ।”
लड़के का हाथ अब रजिस्टर पर लिखाई करते-करते रुक गया और उसने पहली बार झटके से गर्दन उठाकर कमाण्डर की तरफ देखा ।
“एम्प्लायर ?” लड़के ने अब कमाण्डर को घूरा- “किसे एम्प्लायर बोला आपने ?”
“सरदार मनजीत सिंह को, तुम्हारे बॉस को ।”
“मेरा सिर ! मेरे पांव की जूती ! अगर उस जैसे लुच्चे-लफंगे आदमी की मैं नौकरी करने लगा, तो मेरा तो हो गया बंटाधार ! वह हरामजादा, अपने बीवी-बच्चों का पेट तो तरीके से पाल नहीं सकता, नौकर रखेगा ?”
कमाण्डर अब कुछ सकपकाया ।
उसे लगा, उससे जरूर कहीं कुछ गलती हो रही थी ।
“यानि मनजीत सिंह तुम्हारा एम्प्लायर नहीं है ?”
“हरगिज़ नहीं ।”
“और यह कोरियर सर्विस, जिसका तुम काम कर रहे हो, यह किसकी है ?”
“मेरी है ।”
कमाण्डर के मामला कुछ समझ नहीं आया ।
वह दफ्तर मनजीत सिंह का था । ‘वाहेगुरु एडवरटाइजमेंट एजेंसी’ मनजीत सिंह की थी । लेकिन उस एक कमरे के ऑफिस में कोरियर सर्विस का जो काम चल रहा था, वह मनजीत सिंह का नहीं था ।
“मैं कुछ समझा नहीं ।”
“महोदय, सारा किस्सा एक लाइन में है । यह ऑफिस तो सरदार मनजीत सिंह का ही है, लेकिन उनसे इस ऑफिस का किराया नहीं भरा जाता, जोकि छः हजार रुपये महीना है । इसीलिए उन्होंने आधा ऑफिस मुझे किराए पर दिया हुआ है । अब किराए के तीन हजार वो देते हैं, तीन हजार मैं देता हूँ ।”
“ओह ! यानि ऑफिस आधा-आधा है ।”
“हां ।”
कमाण्डर ने एक बार फिर पूरे ऑफिस में दृष्टि घुमाई ।
वह दो खूंट का ऑफिस था और उस दो खूंट के ऑफिस का भी बंटवारा हुआ पड़ा था ।
कम-से-कम एक एडवरटाइजमेंट एजेंसी के दफ्तर में जैसी शो-शा होनी चाहिये थी, ऐसी शो-शा तो उसमें बिल्कुल भी नजर नहीं आ रही थी ।
“सरदार मनजीत सिंह अब कहाँ है ?”
“मैंने बताया न, उनका कभी कुछ पता नहीं रहता कि वो कहाँ होंगे ।”
“उनका यहाँ मिलने का कोई एक निश्चित टाइम भी तो होगा ?”
“नहीं, कोई निश्चित टाइम नहीं है । उन्हें तो यहाँ ऑफिस में कदम रखे हुए भी सात-आठ रोज हो गये ।”
“सात-आठ रोज ?”
“हां ।”
सचमुच हैरानी की बात थी ।
सरदार मनजीत सिंह वाकई अपने काम के प्रति बड़ा लापरवाह इंसान था ।
“फिर उनके पीछे यहाँ काम-काज कौन देखता है ?”
“कैसा काम-काज ?”
“एडवरटाइजमेंट एजेंसी से संबंधित कामकाज ।”
लड़के के चेहरे पर अब बड़ी उपहासपूर्ण मुस्कान पैदा हुई ।
“महोदय, यहाँ काम-काज है ही कहाँ ? उनकी एडवरटाइजमेंट एजेंसी में तो सुबह से शाम तक उल्लू बोलते हैं । उन्हें यारबाशी और लड़कियों से ही कुछ फुर्सत मिले, तभी तो काम भी चले न ।”
“यानि उनकी एडवरटाइजमेंट एजेंसी में बिल्कुल काम नहीं है ?”
“न । यहाँ बैठते हैं, तो बस सुबह से शाम तक मक्खियां ही मारते हैं और सच बताऊं ?”
“हां ।”
“काम तो उनके पास तब हो, जब उन्हें कोई तरीके का काम करना भी आता हो । उन्होंने आज तक जितने काम किए, सब फ़ालतू हैं ।”
“सरदार साहब के घर से तो पता चल ही जायेगा कि उनसे कहाँ मेल-मुलाकात हो सकती है ।”
“शायद पता चल जाये ।”
“घर कहाँ है ?”
“जोगेश्वरी में है ।”
“उनके घर का पता दे सकते हो ?”
“क्यों नहीं ?”
लड़के ने एक कागज पर सरदार मनजीत सिंह के घर का एड्रेस लिखकर कमाण्डर को दे दिया ।
तब तक वो इस बात से बिल्कुल अनभिज्ञ था कि जासूसी जगत की एक कितनी बड़ी हस्ती से उसका वार्तालाप चल रहा है ।
कमाण्डर करण सक्सेना दफ्तर से बाहर निकल आया ।
उस लड़के से कमाण्डर को जो जानकारी प्राप्त हुई थी, उसने कमाण्डर को चौंकाकर रख दिया था ।
उसके दिमाग में अब एक नया ही विचार जन्म ले रहा था । सरदार मनजीत सिंह एक नाकामयाब आदमी था । उसकी एडवरटाइजमेंट एजेंसी भी थर्ड ग्रेड की थी, जिसने कभी कोई तरीके का काम नहीं किया था ।
तो फिर ‘कोका कोला’ जैसी विश्व प्रसिद्ध कंपनी ने उसे अपनी टी.वी. एड फिल्म बनाने के लिए कैसे दे दी ?
जरूर कुछ चक्कर था ।
जरूर कुछ और मामला था ।
कमाण्डर अब उस संबंध में जितना सोच रहा था, उतना उसका सस्पेंस बढ़ रहा था ।
☐☐☐
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कमाण्डर करण सक्सेना जोगेश्वरी पहुंचा ।
वह महाड़ा में एक ‘बैठी चाल’ का मकान था, जिसमें सरदार मनजीत सिंह रहता था । मकान भी काफी जर्जर सी हालत में था । पुताई हुए बरसों गुजर गये थे और दरवाजे की चौखट में बुरी तरह दीमक लगी हुई थी । कुल मिलाकर ‘बैठी चाल’ का वह मकान भी सरदार मनजीत सिंह की दयनीय हालत को चीख-चीखकर बयां कर रहा था । ऐसा आदमी तो वह किसी भी एंगल से नजर ही नहीं आता था, जो ‘कोका-कोला’ जैसी विश्वप्रसिद्ध कंपनी उसे अपने किसी असाइनमेंट के लिए बुक करे ।
कमाण्डर ने ‘बैठी चाल’ के नजदीक पहुंचकर कुंडी खड़खड़ाई ।
“कौन ए ?” तुरंत अंदर से एक स्त्री स्वर उभरा ।
लहजा पंजाबी था ।
“दरवाजा खोलिए ।”
“किदे नाल मिलना है ?”
“सरदार साहब से मिलना है ।”
“ओ ते घर पर नहीं है ।” अंदर से एक बड़ा रुखा सा जवाब सुनाई पड़ा ।
“दरवाजा तो खोलिए ।”
“मैंने कहा न ।” स्त्री गुर्राई- “ओ घर पे नहीं है । मेनु तंग न कित्ता करो । तुमने लेन-देन की जो भी बात करनी हो, सीधे उसी से करना । मेरा उस बंदे नाल अब कोई रिश्ता नहीं है । मेरे वास्ते ओ मर ही चुकया, मैं ते रांड हो गई ।”
कमाण्डर की हैरानी और बढ़ी ।
सरदार मनजीत सिंह के मामले में उसे बड़े नए-नए अनुभव हो रहे थे ।
एकाएक वह समझ न सका कि सरदार मनजीत सिंह का पता कैसे लगाये ।
“देखिए, आप शायद मुझे कोई गलत आदमी समझ रही हैं ।” कमाण्डर थोड़ा धैर्यपूर्वक बोला- “मुझे सरदार साहब से वाकई बहुत जरूरी काम है । आप दरवाजा खोलकर कृपया दो मिनट मेरी बात तो सुनें ।”
वह कमाण्डर के आग्रह का असर था या फिर उसकी सुसंस्कृत भाषा-शैली का, उस औरत ने दरवाजा खोल दिया ।
☐☐☐
उस औरत का नाम सुरिन्दर कौर था और वह सरदार मनजीत सिंह की बीवी थी ।
सुरिंदर कौर छत्तीस-सैंतीस साल की बड़ी कड़क जवान औरत थी । वह लंबी-तगड़ी थी और उसके यौवन-कलश बहुत भारी थे । रंग भी उसका खूब गोरा-चिट्टा था । माथा चौड़ा था, जिस पर वो हरे रंग की कटिंग वाली बड़ी खूबसूरत बिंदी लगाए हुए थी । कुल मिलाकर वह शक्ल से ही सरदारनी नजर आती थी ।
कमाण्डर करण सक्सेना के प्रभावशाली व्यक्तित्व का उस औरत पर अच्छा-खासा रौब पड़ा ।
वह कुछ सकपकाई ।
वो समझ गई, वह गलत आदमी को गलत तरीके से डील कर रही थी ।
“कौन हो तुसी ?”
“मेरा नाम करण है ।” कमाण्डर अत्यंत विनम्रतापूर्वक बोला और उसने अपना अधूरा नाम बताया- “मैं दवाइयों की एक कंपनी का रिप्रेजेंटेटिव हूँ । हमारी कंपनी ने दो महीने पहले सरदार साहब को एक विज्ञापन फिल्म बनाने का ऑर्डर दिया था । लेकिन ऑर्डर देने के बाद से न तो सरदार साहब का ही कुछ पता है और न इस बात का ही पता है कि उन्होंने विज्ञापन फिल्म बनाई है या नहीं ।”
“ओह ! आइए, आप अंदर आइए ।”
कमाण्डर अंदर ‘बैठी चाल’ में दाखिल हुआ ।
जैसी जर्जर हालत में वो चाल थी, उसके मुकाबले सुरिंदर कौर ने उसे काफी सजा संवारकर रख छोड़ा था ।
“मैं दरअसल सबसे पहले दफ्तर गया था ।” कमाण्डर करण सक्सेना पुनः बोला- “वहाँ मुझे सरदार साहब नहीं मिले । वहाँ मुझे पता चला कि वह तो पिछले सात रोज से दफ्तर ही नहीं आए थे । तब मैंने उनकी तलाश में मजबूरन घर का रुख किया । हालांकि मैं जानता हूँ कि इस तरह किसी के घर आना मुनासिब नहीं है ।”
“नहीं, ऐसी कोई गल नहीं है ।”
“लेकिन... ।”
“तुसी बैठो तो सही ।”
कमाण्डर थोड़ी उलझनपूर्ण मुद्रा में एक बांस की कुर्सी पर बैठ गया ।
सुरिंदर कौर का करैक्टर उसे अभी भी बहुत सस्पैंस में डाल रहा था ।
“तुसी ठण्डा लेना ए, या गर्म ?”
“मुझे थोड़ा जल्दी है ।”
“तुसी बैठो ते सही ।”
कमाण्डर के मना करने के बावजूद वह उसके लिए शर्बत घोलकर ले आई ।
कमाण्डर शर्बत का गिलास हाथ में पकड़कर सस्पेंसफुल मुद्रा में बैठा रहा ।
वहीं नजदीक में एक चारपाई पर दस-बारह साल की एक बच्ची सो रही थी, जो जरूर सुरिंदर कौर की बेटी थी ।
“अब तुसी मेरी गल सुनो ।” फिर सुरिंदर कौर धम्म से कमाण्डर के सामने वाली कुर्सी पर बैठते हुए बोली ।
उसके हाव-भाव बता रहे थे कि वह काफी दबंग औरत है ।
कमाण्डर ने शर्बत का एक घूंट भरा ।
“सबसे पहले तो तुसी ए समझ लो कि जिस मनजीत सिंह को तुसी सरदार साहब कहंदे हो, वह बंदा सरदार साहब कहलाए जाने के योग्य ही नहीं है । वह तो सिख कौम दे नाम पे कलंक है, धब्बा है । ओदे जितना घटिया बंदा मैं ते अपने जीवन विच कभी नहीं देखा ।”
“य...यह बात आप अपने पति के बारे में कह रही हैं ?” कमाण्डर ठिठका ।
“ओ मेरा पति नहीं ए ।” सुरिन्दर कौर गुर्राई- “मेरा मनजीत सिंह दे नाल कोई रिश्ता नहीं ए । मैंने ते अपने आ नू रांड मान लित्ता है । ओ कंजर दा पुत्तर मेरे वास्ते मर गया । जो अपनी जनानी नू जनानी नहीं समझदा, जो अपनी बच्ची नू बच्ची नहीं समझता, ऐसा बंदा किस काम का । ऐसे बंदे नाल रहने से ते जनानी रांड चंगी ।”
वह बड़ी फाश-फाश जबान में बात कर रही थी ।
“और एक सलाह मैं त्वाणु भी दूंगी ।”
“क्या ?”
“तुसी मनजीत सिंह को भूल जाओ । ओ बन्दा बिल्कुल नकारा हो गया ए । ओ किसी दा वी कोई काम नहीं कर सकता । तुसी अगर अपना काम कराना हो तो किसी चंगे बंदे से कराओ । मुम्बई शहर विच एक से एक चंगी एडवरटाइजमेंट एजेंसी मौजूद ने । ओ बंदा सिवाय त्वाणे काम दा बेड़ागर्क करने के कुछ वी नी करेगा ।”
कमाण्डर करण सक्सेना के दिमाग में धमाके-पर-धमाके होने लगे ।
सचमुच सरदार मनजीत सिंह का मामला बड़े सनसनीखेज अंदाज में सामने आ रहा था ।
“दरअसल जब तक वह भूखा नंगा था, बस तभी तक ठीक था ।” सुरिंदर कौर बोली- “ऑफिस दा भाड़ा उससे नहीं दित्ता जांदा था, चाल दा भाड़ा दित्ते तो उसे महीनों गुजर जांदे हैं । मैं ही आस-पड़ोस दे कपड़े सी सी के और मेहनत-मजदूरी करके कैसे-कैसे अपना घर चलांदी थी । मैंने लाख दुश्वारियों विच भी उसे कभी परेशान नहीं होने दिया । मैं हमेशा उससे यही कहंदी सी कि एक दिन साड्डे हालात सुधरेंगे । एक दिन साड्डे कोल सब कुछ होएगा । फिर वो दिन भी आया कि साड्डे हालात सुधर गये । उसे दस लाख रुपए देके ‘कोका-कोला’ कंपनी वालों ने अपनी एड फिल्म वास्ते साइन कित्ता । बस ओ दस लाख रुपए उस मरदूद के हाथ विच आने थे और उसकी बुद्धि खराब हो गई । वह तो लुच्चा आदमी था, उसने एक लाख रुपया अपनी जिंदगी विच नहीं कमाए सी । दस लाख की रकम जब उसने अपनी आंखों के सामने एक साथ देखी, तो ओंदा भेजा फिर गया । फिर तो वह अपने आप नूं स्टार समझने लागया । फिर तो अक्खी मुम्बई विच उससे वड्डा एडवरटाइजमेंट मेकर कोई था ही नहीं । अगर उससे बड़ा एड फिल्म मेकर होता, तो फिर भला ‘कोका कोला’ कंपनी उसे ही क्यों साइन कर दी । फिर तो उसे इस टूटी-फूटी चाल विच रहणा गुनाह दिखण लाग गया । मैं पहणी (बुरी) लगने लगी । जिस जनानी ने हमेशा उसके हर ऐब नूं छुपाया, हर सुख-दुःख विच उसका साथ दित्ता, उसी जनानी विच उसे कीड़े दिखाई पड़ने लग गये । वही जनानी उसे सैकिंड हैण्ड लगणे लगी ।” बोलते-बोलते सुरिंदर कौर बेहद जज्बाती हो उठी- “साहब, अभी दो दिन पहले वह हरामजादा इत्थे आया सी । उसके अगल-बगल विच दो कुड़ियां सी और नशे विच उसके कदम बहक रहे थे । मैंने फौरन उसे दुत्कार कर भगा दित्ता । जरा सोचिए, दस लाख जेब विच आते ही वह बंदा ऐशपरस्ती विच इतना डूब गया कि ओनू इतना तक ख्याल नहीं रहा कि अगर वो ऐसी हालत में घर जायेगा, तो उसकी जवान होदी कुड़ी ते कि असर पड़ेगा । लानत है ऐसी दौलत ते । लानत ए ऐसे बंदे ते ।”
सुरिंदर कौर ने जोर से सिसकारी भरी ।
उसकी आंखों में आंसू छलछला आए थे । ऐसी दबंग औरत रो भी सकती है, यह कमाण्डर के लिए एक और नया अनुभव था ।
कमाण्डर करण सक्सेना ने शर्बत का एक घूंट और भरा ।
“साहब, मैं ते पहले सुखी थी ।” सुरिंदर कौर भावुक होकर बोली- “वड्डी-वड्डी सुखी थी । कम-से-कम उस तंगहाली विच मेरा पति ते मेरा था । मैं सकून विच दाल-रोटी ते खान्दी थी, लेकिन उन दस लाख ने तो मेरा सब कुछ मुझसे छीन लित्ता ।”
“मैं तुम्हारा दुःख समझ रहा हूँ ।” कमाण्डर बोला- “सचमुच उसने तुम्हारे साथ कुछ अच्छा नहीं किया ।”
“उसने मेरे नाल जो कुछ कित्ता, कित्ता । मैं अब उसे भूल चुकी हूँ ।” सुरिंदर कौर ने अपने आंसू साफ किए- “लेकिन अब ओ बंदा अपने नाल जो कुछ कर रहा है साहब, वह उससे भी बुरा कर रहा है । वो अय्याशी के गर्त विच इतना घुटनों-घुटनों तक धंस चुका है कि ओनू तबाही लाजिमी है । उसे अब सवेरे से सांझ तक शराब और नई-नई औरतों विच ही फुर्सत नहीं मिलती । इसीलिए मैं तुसी भी कह रही हूँ, कम-से-कम काम-धंधे नाल उस बंदे नूं भूल जाओ । यह राय भी मेनु तुसी इसलिए दित्ती है, क्योंकि तुसी मुझे भले आदमी दिखाई पड़े । वरना मनजीत को ढूंढते-ढूंढते यहाँ सवेरे से सांझ तक छत्तीस बंदे आते सी, मेनु क्या, मेनु जूती से ! सबके सब जहन्नुम में जाएं ।”
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कमाण्डर ने शर्बत का गिलास खाली करके टेबल पर रखा ।
वो समझ गया, सुरिंदर कौर एक बहुत दुःखी और ईमानदार औरत थी, जो अपनी लड़ाई खुद लड़ रही थी ।
इसीलिए उसके अंदर वो आग थी ।
ऐसा इंकलाबी जज्बा था ।
“देखिए, आपकी सारी बातें अपनी जगह ठीक हैं ।” कमाण्डर बोला- “परंतु आप मेरी मजबूरी नहीं समझ रही हैं ।”
“कैसी मजबूरी ?”
सुरिंदर कौर ने नई नजरों से कमाण्डर की तरफ देखा ।
“दरअसल हमारी दवाइयों की कंपनी का जो डी.जी. (डायरेक्टर जनरल) है, वह कुछ खब्ती किस्म का आदमी है ।” कमाण्डर उसके सामने कहानी गढ़ता हुआ बोला- “उसके दिमाग में मनजीत सिंह खूब अच्छी तरह ठुक गया है । उसे लगता है, अगर उसकी एड फिल्म कोई अच्छी तरह बना सकता है, तो मनजीत सिंह बना सकता है । उसने मनजीत सिंह को ढूंढने की जिम्मेदारी मुझे सौंपी है । और चौबीस घंटे का समय दिया है । अगर मैंने चौबीस घंटे के अंदर-अंदर मनजीत सिंह को अपने डी.जी. के सामने ले जाकर न खड़ा किया, तो मेरी नौकरी गई समझो ।”
“यानि तुसी मनजीत नाल मिलना बहोत जरूरी ए ?”
“बहुत-बहुत जरूरी है । यह मेरी नौकरी का सवाल है और इस मामले में सिर्फ आप ही मेरी हेल्प कर सकती हैं ।”
सुरिंदर कौर के चेहरे पर अब कुछ विचलित भाव पैदा हुए ।
“मैं हेल्प कर सकदी हूँ ?”
“हां ।”
“कैसे ?”
“आप मुझे बता सकती हैं कि मनजीत सिंह इस वक्त कहाँ होगा ।”
सुरिंदर कौर स्तब्ध सी मुद्रा में बैठी रही ।
“क्या आपको मालूम नहीं ?” कमाण्डर ने तुरंत गरम लोहे पर चोट की- “कि मनजीत सिंह इस वक्त कहाँ होगा ?”
सुरिंदर कौर कुछ न बोली
कमाण्डर भांप गया, उसे पता था ।
“देखिए, यह मेरी नौकरी का सवाल है ।”
“ठीक ए । मैंनु तुसी उसका पता बताती हूँ, लेकिन मैं ते एक शर्त ए ।”
“क्या ?”
“तुसी मनजीत सिंह को यह गल नहीं बताओगे कि मेनु तुसी उसका पता दित्ता सी ।”
“मंजूर ।”
“ते फिर तुसी मड-आइलैंड चले जाओ, वहाँ समुद्र तट के किनारे गार्डन रोड पर छोटे-छोटे बहोत सोढ़े कॉटेज बने हुए हैं । उत्थे तेइस नंबर कॉटेज विच मनजीत सिंह रहंदा ए ।”
“क्या वो कॉटेज मनजीत सिंह का अपना है ?”
“हां, अभी कुछ दिनों पेयले ही उसने वो कॉटेज किराए पर लित्ता और आजकल वो कॉटेज उसकी ऐशगाह बनाया हुआ ए ।”
“थैंक यू ! थैंक यू वेरी मच !”
कमाण्डर बांस की कुर्सी छोड़कर खड़ा हो गया ।
सुरिंदर कौर भी उसके साथ-साथ उठी ।
फिर दरवाजे की तरफ बढ़ते-बढ़ते एकाएक कमाण्डर को कुछ याद आया । वह ठिकका और उसने पूछा- “आप मेरे एक सवाल का जवाब और देंगी ?”
“पूछिए ।”
“जब मैं बाहर से कुंडी खड़खड़ा रहा था, तो आपने चीखकर यह क्यों कहा कि आपने लेन-देन की जो भी बात करनी हो, उन्हीं से करना । वास्तव में आपने मुझे क्या समझा था ?”
“दरअसल मनजीत सिंह पर लोगां दा कर्जा बहोत है ।” सुरिंदर कौर ने एक और रहस्योद्घाटन किया- “सवेरे के सांझ तक वही लोगां आकर मेनू तंग कर दे । जब तुसी कुंडी खड़खड़ाई, तो मैं यही समझी कि फेर कोई कर्जा लेन वाला आ गया ।”
कमाण्डर चौंका ।
“दस लाख रुपए मिलने के बाद भी उसने लोगों का कर्जा अदा नहीं किया था ?”
“नहीं ।”
“क्यों ?”
“मेनु बताया न, उस बंदे दी दस लाख रूपया ने मत मार दित्ती है । ओ बंदा पागल हो चुकया ए । उसे अब नई-नई जनानी के अलावा और कुछ नहीं दिखाई देन्दा ! ओ अपनी सारी कमाई ओना ते (उन्हीं पर) लुटा रहा है ।”
“ओह !”
तब तो सरदार मनजीत सिंह वाकई पागल हो गया था ।
सचमुच उसकी बुद्धि भ्रष्ट हो गई थी ।
कमाण्डर को अब ‘कोका कोला’ की एड फिल्म में भी गड़बड़ नजर आ रही थी ।
☐☐☐
कैसे कैसे परिवार Running......बदनसीब रण्डी Running......बड़े घरों की बहू बेटियों की करतूत Running...... मेरी भाभी माँ Running......घरेलू चुते और मोटे लंड Running......बारूद का ढेर ......Najayaz complete......Shikari Ki Bimari complete......दो कतरे आंसू complete......अभिशाप (लांछन )......क्रेजी ज़िंदगी(थ्रिलर)......गंदी गंदी कहानियाँ......हादसे की एक रात(थ्रिलर)......कौन जीता कौन हारा(थ्रिलर)......सीक्रेट एजेंट (थ्रिलर).....वारिस (थ्रिलर).....कत्ल की पहेली (थ्रिलर).....अलफांसे की शादी (थ्रिलर)........विश्‍वासघात (थ्रिलर)...... मेरे हाथ मेरे हथियार (थ्रिलर)......नाइट क्लब (थ्रिलर)......एक खून और (थ्रिलर)......नज़मा का कामुक सफर......यादगार यात्रा बहन के साथ......नक़ली नाक (थ्रिलर) ......जहन्नुम की अप्सरा (थ्रिलर) ......फरीदी और लियोनार्ड (थ्रिलर) ......औरत फ़रोश का हत्यारा (थ्रिलर) ......दिलेर मुजरिम (थ्रिलर) ......विक्षिप्त हत्यारा (थ्रिलर) ......माँ का मायका ......नसीब मेरा दुश्मन (थ्रिलर)......विधवा का पति (थ्रिलर) ..........नीला स्कार्फ़ (रोमांस)
Masoom
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Re: Thriller Kaun Jeeta Kaun Hara

Post by Masoom »

कमाण्डर मड आइलैंड पहुंचा ।
वहाँ गार्डन रोड पर तेइस नंबर कॉटेज में वो आसानी से पहुंच गया ।
कॉटेज वाकई खूबसूरत था । उसके छोटे से बगीचे में ‘अशोक’ के दो काफी बड़े-बड़े वृक्ष लगे हुए थे । इसके अलावा वहाँ काफी सारी फुलवारी भी थी । उस कॉटेज की सबसे बड़ी खूबसूरती ये थी कि उसके सामने सड़क पार करते ही रेतीला समुद्र तट था और उससे आगे दूर-दूर तक फैला अरब महासागर था ।
सरदार मनजीत वाकई अपनी जिंदगी की पूरी ऐश लेने पर तुला हुआ था ।
कॉटेज में गहन शांति थी ।
कमाण्डर करण सक्सेना धीरे-धीरे कदमों से चलता हुआ अंदर पहुंचा । अंदर उसने खुद को एक बहुत भव्य ड्राइंग हॉल में खड़े पाया, लेकिन वहाँ कोई न था ।
ड्राइंग हॉल से ही अटैच्ड एक बेडरूम था, जिसका दरवाजा उस समय सिर्फ भिड़का हुआ था और अंदर से आहट की आवाजें आ रही थीं ।
कमाण्डर ने झिरी में से बेडरूम का नजारा किया ।
तुरंत उसे सरदार मनजीत सिंह नजर आया ।
वह बेड पर सिर्फ हाफ पैंट पहने लेटा था और उसके अगल-बगल दो लड़कियां थीं, जिनके शरीर पर भी कपड़े सिर्फ नाम मात्र के ही थे ।
वह उनके साथ बड़ी अश्लील किस्म की हरकतें कर रहा था ।
लड़कियां भी फुल चालू थीं ।
वो उसकी प्रत्येक हरकत पर खिलखिलाकर हंस पड़तीं ।
“सरदार जी, तुसी एक बात बताओगे ?”
उनमें से एक लड़की बोली ।
“पूछो ।”
“तुसी आज हम दोनों के साथ यहाँ पड़े हुए चार रोज हो गये, तुसी हमसे बोर नहीं हुए ?”
“ओ मेरी चंदा, कुड़ियों से भी कहीं कोई बोर होन्दा हां । देख, मेनू अभी तुम दोनों के साथ एक रोण्ड और लगांदा ।” यह कहने के साथ मनजीत सिंह थोड़ा उठा और उसने वहीं बेड पर पड़ी शराब की बोतल की तरफ हाथ बढ़ाया ।
“यह क्या कर रहे हो ?”
“ओए टंकी विच पेट्रोल डाल रहा हूँ कुड़िए ! टंकी विच पेट्रोल ही नहीं होवेगा, ते गड्डी स्टार्ट किवे होवेंगी । गड्डी पटरी ते किवे दौड़ेगी ।”
दोनों लड़कियां फिर खिलखिलाकर हंस पड़ीं ।
मनजीत सिंह ने शराब की बोतल का ढक्कन खोलने के लिए हाथ बढ़ाया ।
मगर वो ढक्कन खोल पाता, उससे पहले ही कमाण्डर ने जोर से दरवाजे के ऊपर लात मारी और वह धड़धड़ाता हुआ अंदर घुसा ।
लड़कियों की एकदम चीख निकल गई ।
वह उछलीं ।
उछला सरदार मनजीत सिंह भी था ।
“कौन हो तुसी ?” मनजीत सिंह ने चीखते हुए फौरन अपने शरीर पर चादर खींच ली ।
परंतु लड़कियां इतनी बेहया थीं, वो फिर भी ऐसे ही पड़ी रहीं ।
“तुम्हारे पास तीस सेकंड्स हैं ।” कमाण्डर उन दोनों लड़कियों से बेहद कर्कश लहजे में बोला- “तीस सेकेंड्स के अंदर-अंदर यहाँ से दफा हो जाओ, वरना जैसी हालत में लेटी हो, ठीक वैसी ही हालत में मैं तुम दोनों को उठाकर बाहर बीच पर फेंक दूंगा ।”
कमाण्डर की आवाज में कुछ ऐसा कहर था कि लड़कियों की रुह कांप गई ।
उन्होंने आनन-फानन अपने कपड़े समेटे और बाहर की तरफ भागीं ।
“लेकिन कौन हो तुसी ?” सरदार मनजीत सिंह बनियान पहनकर झटके के साथ बिस्तर छोड़कर उठ खड़ा हुआ- “और इस तरह मेरे कॉटेज में वडन (घुसने) दी तेरी हिम्मत किवे होई ?”
“हिम्मत ?”
“हां, हिम्मत !”
कमाण्डर ने तुरंत एक ऐसा झन्नाटेदार झापड़ उसके मुंह पर खींचकर मारा कि मनजीत सिंह की चीख निकल गई ।
वह उछलकर वापस बिस्तर पर गिरा और उसके मुंह से खून जाने लगा ।
“त्वाडी यह मजाल !” मनजीत सिंह बिफरे शेर की तरह उठा और कमाण्डर को मारने के लिए उसकी तरफ झपटा- “तुसी मेरे ऊपर हाथ उठाया, सरदार मनजीत सिंह ते ऊपर हाथ उठाया ।”
मनजीत सिंह जैसे ही कमाण्डर के नजदीक पहुंचा, तो कमाण्डर ने इस बार उसके गाल पर दो झन्नाटेदार झापड़ और रसीद किये ।
मनजीत सिंह को यूं लगा, जैसे उसके गाल पर लोहे के हाथ पड़े हों । उसका पूरा दिमाग भन्ना उठा ।
वह एकदम थमककर अपनी जगह खड़ा हो गया और बड़ी डरी-डरी निगाहों से कमाण्डर करण सक्सेना को देखने लगा । उसके दिमाग में सीटी की आवाज अभी तक गूंज रही थी ।
“क...कौन हो तुसी ?”
“कमाण्डर करण सक्सेना !”
मनजीत सिंह के ऊपर वज्रपात हुआ ।
वह चौंका ।
“क...कमाण्डर करण सक्सेना ?”
“हां !”
“परा जी !” मनजीत सिंह ने एकदम से झपटकर कमाण्डर के पैर पकड़ लिए- “मेनु माफ कर देओ । मेनु त्वाणु पहचानन विच भूल हो गई । मेरे ते गलती हुई ।”
“पैर छोड़ो ।”
मनजीत सिंह फिर भी उसके पैर पकड़े पड़ा रहा ।
“पैर छोड़ो !” कमाण्डर जोर से गुर्राया ।
तब कहीं मनजीत सिंह ने उसके पैर छोड़े ।
☐☐☐
सरदार मनजीत सिंह अब बिस्तर पर भीगी बिल्ली-सी बना बैठा था और टुकुर-टुकुर कमाण्डर को देख रहा था ।
कमाण्डर, जो उसके सामने कुर्सी पर बैठा हुआ था ।
उसके चेहरे पर अभी भी कठोर हाव-भाव थे ।
“परा जी, तुसी मेरे वरगे छोटे बंदे के पास आन दी जेहमत क्यों की ? मेरे से की खता हो गई ?”
“गलती तुमसे हुई है और बहुत बड़ी गलती हुई है ।”
“कैसी गलती ?” मनजीत सिंह के चेहरे पर आतंक के भाव और भी गहरे हो गये ।
“गलती भी बताऊंगा, लेकिन उससे पहले तुम एक बात अच्छी तरह समझ लो ।”
“क्या ?” मनजीत सिंह ने अपने शुष्क होठों पर जबान फेरी ।
“मैं तुमसे जो भी सवाल पूछूं, उसके तुम ठीक-ठीक जवाब दोगे । अगर तुमने ज़रा भी होशियारी दिखाने की कोशिश की, ज़रा भी चालाक बनने की कोशिश की, तो फिर तुम्हारी आगे की तमाम जिन्दगी जेल के सलाखों के पीछे चक्की पीसते हुए गुजरेगी ।”
“नहीं परा जी, नहीं ।” सरदार मनजीत सिंह और ज्यादा डर गया- “मैं त्वाडे आगे कोई झूठ नहीं बोलूंगा ।”
“वेरी गुड ! अगर झूठ नहीं बोलोगे, तो अपने हक़ में ही अच्छा करोगे ।”
मनजीत सिंह भीगी बिल्ली बना बैठा रहा ।
यह बात ही उसे डरा रही थी कि उसके सामने कमाण्डर करण सक्सेना जैसा अंतर्राष्ट्रीय जासूस बैठा है ।
“सबसे पहले मुझे यह बताओ ।” कमाण्डर बोला- “कि तुम काढ़े इनाम को जानते हो ?”
“काढ़ा इनाम ?” मनजीत सिंह चौंका ।
“हाँ !”
“परा जी, कौन काढ़ा इनाम ?”
“वही काढ़ा इनाम, इसका असली नाम मौहम्मद इनाम था, परन्तु उसकी एक आँख पत्थर की लगी हुई थी, इसलिए सब उसे काढ़ा इनाम कहते थे ।”
“अच्छा, वो...वो.. ।”
“हाँ, वही ।”
“परा जी, उस काढ़े इनाम को तो मैं खूब अच्छी तरह जानता हूँ । उसकी मेहरबानी नाल ते मेरा भाग्य उदय हुआ । उसदे कारण ते मेनु दस लाकह रुपये की रकम पीटी ।”
“काढ़े इनाम की वजह से ?”
“बिल्कुल ।”
“वो कैसे ?”
कमाण्डर को लगा, कोई नया रहस्य खुलने वाला है ।
“असल विच काढ़ा इनाम ही ते ‘कोका-कोला’ कंपनी दा एडवरटाइजमेंट डायरेक्टर था । उसकी बदौलत तो मेनु उस एड फिल्म का कॉन्ट्रैक्ट मिला ।”
कमाण्डर के दिमाग में भीषण वज्रपात हुआ ।
धमाका ।
“क…काढ़ा इनाम ! काढ़ा इनाम ‘कोका-कोला’ कंपनी का एडवरटाइजमेंट डायरेक्टर था ?”
“हां, परा जी ।”
“ओह माय गॉड !”
कमाण्डर एक ही झटके में सब कुछ समझ गया ।
यानि जिस ‘कोका कोला’ कम्पनी की एड फिल्म के दौरान क्रिकेट खिलाड़ी विजय पटेल का मर्डर हुआ, वह एड फिल्म वास्तव में बनवाई ही काढ़े इनाम ने थी ।
अविनाश लोहार के साथी ने थी ।
रहस्य की धुंध अब कमाण्डर के दिमाग से धीरे-धीरे साफ होने लगी ।
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