Adultery Thriller सुराग

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Masoom
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Re: Adultery Thriller सुराग

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चार बजे पुलिस हैडक्वार्टर के सामने, इन्कम टैक्स ऑफिस के पिछवाड़े में बने एक साउथ इन्डियन रेस्टोरेंट में मेरी इन्स्पेक्टर यादव से फिर मुलाकात हुई ।
“अम्बरीश कौशिक के कत्ल की खबर लग गयी ?” - मैंने पूछा ।
“कत्ल की ?” - उसकी भवें उठी ।
“लग गयी खबर ?”
“खबर तो लग गयी लेकिन वो तो आत्महत्या का ओपन एण्ड शट केस बताया जा रहा है ।”
“आत्महत्या, माई फुट ।”
“क्या माजरा है, राज ?”
“हत्यारे ने अपनी तरफ से बड़ी होशियारी से आत्महत्या की स्टेज सैट की थी और वो अपने मकसद में कामयाब रहा था, इसका यही काफी सबूत है कि तुम्हारा ए सी पी तलवार पूरी तरह से आश्वस्त है कि वो आत्महत्या का केस है ।”
“लेकिन तुम आश्वस्त नहीं हो ?”
“नहीं हूं । सुनो क्यों नहीं हूं: नम्बर एक, गोली माथे में लगी पायी गयी । मैं ये नहीं कहता कि खुद की माथे में गोली मार कर आत्महत्या नहीं की जा सकती लेकिन ये एक स्थापित तथ्य है कि आत्महत्या करने वाले रिवाल्वर की नाल को अपनी कनपटी से लगाकर ही इस काम को अंजाम देते हैं । दूसरे, मौत से पहले की उसकी हालत बहुत खस्ता बताई जाती है । फ्लोर वेटर का कहना है कि सुबह दस बजे जब वो कौशिक के लिये विस्की की नयी बोतल लाया था, तो उस वक्त वो बहुत नर्वस, बहुत परेशान, बहुत डरा-डरा, बहुत हलकान और बीमार सा लग रहा था । यानी कि ऐसा आदमी तो वो सुबह दस बजे ही नहीं था जिसे कि अपने आप पर मुकम्मल कंट्रोल रहा है । ऊपर से उसने और विस्की भी पी ली थी ।”
“कैसे मालूम ?”
“भई, जब उसने नयी बोतल मंगायी थी तो पीने के लिये ही तो मंगायी होगी । कोई मेज पर सजा कर रखने को तो मंगायी नहीं होगी !”
“खैर फिर ?”
“जैसी हालत मैंने अभी कौशिक की बयान की है, यादव, वैसी हालत में आदमी पिस्तौल को उल्टी करके हाथ में पकड़ कर नाल को माथे पर ऐन पलकों के बीच सटा कर आत्महत्या करने की नहीं सोच सकता ।”
“और ?”
“और आत्महत्या करने के लिये उसने जगह देखो कौन सी चुनी ? दरवाजे के सामने की । जैसे वो किसी के लिये दरवाजा खोलने गया हो और फिर सोचा हो दरवाजा क्या खोलना है, आत्महत्या ही कर लेता हूं ।”
“मजाक मत करो ।”
“ये मजाक नहीं है ! उस खस्ताहाल आदमी ने अगर आत्महत्या करनी थी तो पलंग पर पड़े-पड़े कर लेता ! कुर्सी पर बैठे-बैठे कर लेता ! आत्महत्या करने के लिये तो उठकर दरवाजे पर क्यों गया ?”
“क्यों गया ?”
“इसका जवाब कि नहीं गया । आत्महत्या के लिये नहीं गया ।”
“तो और किसलिये गया ?”
“ये भी कोई पूछने की बात है !”
“दरवाजे पर दस्तक पड़ने पर किसी को दरवाजा खोलने ?”
“बिल्कुल । फिर दस्तक देने वाले आगंतुक ने ही दरवाजा खुलने पर उसके माथे के साथ पिस्तौल सटाई और उसे शूट कर दिया । कौशिक वहीं पीठ के बल फर्श पर धराशायी हुआ तो उसने पिस्तौल उसके दायें हाथ में थमायी और वहां से खिसक गया ।”
“हूं ।”
“आत्महत्या की थ्योरी के खिलाफ सबसे बड़ा सबूत ये है कि उसके पास आत्महत्या के लिये पिस्तौल कहां से आयी ?”
“क्या मतलब ?”
“मंगलवार को उसकी गैरहाजिरी में मैंने उसके होटल के कमरे की भरपूर तलाशी ली थी । तब वहां कोई पिस्तौल मौजूद नहीं थी । फ्लोर वेटर का कहना है कि मंगलवार से कौशिक ने होटल से बाहर कदम नहीं रखा था । अब तुम बताओ कि आत्महत्या करने के लिये पिस्तौल कहां से आ गयी उसके पास ?”
“उसने” - यादव सोचता हुआ बोला - “फोन किया होगा किसी को पिस्तौल के लिये । कोई पिस्तौल उसे होटल में आके दे गया होगा ?”
“क्या कहने ! पिस्तौल न हुई, झुनझुना हो गया ।”
यादव खामोश रहा ।
और फिर ये न भूलो कि कौशिक दिल्ली शहर में परदेसी था । बाहर से आये आदमी के लिये कोई हंसी खेल नहीं है दिल्ली में किसी को फोन करके लोली पॉप की तरह पिस्तौल मंगा लेना ! कौन देता है ऐसे किसी को कोई हथियार ! जबकि उसे यूं हथियार हासिल करने वाले की किसी मंशा की भी कोई खबर न हो !”
“राज ! तू ये कहना चाहता है कि आत्महत्या के खिलाफ ये जो बातें तुझे सूझीं, वो हमारे माननीय ए सी पी साहब को नहीं सूझीं ?”
“मुझे नहीं पता सूझी या नहीं सूझी लेकिन अपनी जुबानी उसने ये ही कहा था कि वो आत्महत्या का केस था इसलिये वो मुझे बख्श रहा था, हत्या का केस होता तो वो मुझे आसानी से न छोड़ देता ।”
“हूं । और क्या खबर है ?”
फिर मैंने उसे पचौरी के फ्लैट से बरामद कागजात की बाबत बताया और ये भी बताया कि मैंने उसका क्या हश्र किया था ।
“यानी कि” - यादव बोला - “कागजात वहां भी प्लांट किये गए थे ?”
“एक निगाह में तो ऐसा ही मालूम होता है, अलबत्ता असल में इसका भी कोई सारगर्भित मतलब हो सकता है ।”
“यानी कि तुम्हारी निगाह में हत्यारा अभी भी शबाना की चौकड़ी में से बाकी बचे तीन जनों में से कोई हो सकता है ।”
“हत्यारा कोई भी हो अब मैं उसकी अगली मूव की बुनियाद बनाने के लिये अपने फ्लैट का रुख करने जा रहा हूं ।”
“क्या मतलब ?”
“मतलब मैं तुम्हें पहले भी समझा चुका हूं । जब तक मैं अपने फ्लैट पर नहीं लौटूंगा हत्यारे को ये आश्वासन नहीं होगा कि उसके द्वारा जगह-जगह प्लांट किये गये कागजात मेरे फ्लैट पर पहुंच गए हैं ।”
“यानी कि उसे खबर नहीं लगी होगी कि कुछ कागजात बैक्टर ने भस्म कर दिये थे और कुछ की खुद तुमने धज्जियां उड़ा दी थी ।”
“उम्मीद तो यही है कि खबर नहीं लगी होगी । बैक्टर ने कागजात अपनी बन्द स्टडी में जलाये थे जहां किसी का झांका पाना नामुमकिन था मैंने राजपथ पर जहां कागजात नष्ट किये थे, वहां मेरे इर्द-गिर्द दूर-दूर तक कोई नहीं था ।”
“यानी कि तुम अपने फ्लैट पर जाओगे, अपनी वहां मौजूदगी स्थापित करने के लिये थोड़ी देर टिकोगे जिसकी कि हत्यारे को या तुम्हारे फ्लैट की हत्यारे के लिये निगरानी करते किसी शख्स को खबर लग जायेगी और फिर अपने पीछे हत्यारे के लिए मैदान खाली छोड़ कर वहां से कूच कर जाओगे ?”
“हां ।”
“हत्यारा सीधे ही तुम्हारी बाबत पुलिस को खबर कर देगा या पहले तुम्हारे पलैट में घुसकर इस बात की तसदीक करेगा कि तुम्हें फंसाने में काम आने वाले कागजात वगैरह तुम्हारे यहां मौजूद थे ।”
मैं कुछ क्षण सोचता रहा ।
“वो तसदीक वाला कदम भी उठा सकता है ।” - फिर मैं बोला - “आखिर शबाना के काफी सारे कागजात अभी भी उसके अधिकार में हैं । बैक्टर और पचौरी वाले कागज मेरे फ्लैट में न पहुंचे पाकर, अस्थाना के ऑफिस में प्लांट किया गया मर्डर वैपन वहां न पाकर वो बाकी बचे कागजात को प्लांट करके मेरी दुक्की पीटने का सामान कर सकता है ।”
“राज !” - यादव चेतावनीभरे स्वर में बोला - “वो ये कदम उठा चुकने के बाद एक कदम और भी उठा सकता है ।”
“कौन सा ?”
“वो तेरा कत्ल कर सकता है । ताकि अपने फ्लैट में से बरामद होने वाले कागजात वगैरह की कोई सफाई देने के लिये तू बाकी न बचे । अगर वो कौशिक की आत्महत्या की स्टेज सैट कर सकता है तो तेरा भी यूं कत्ल कर सकता है जैसे कि तू किसी एक्सीडेंट की चपेट में आ गया हो !”
“यार, तुम तो मुझे डरा रहे हो !”
“डरा नहीं रहा, इस बात पर जोर दे रहा हूं कि अब अपने ऐसे किसी अंजाम से भी तुझे खबरदार रहना चाहिये ।”
मैंने बड़ी संजीदगी से सहमति में सिर हिलाया ।
***
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“अब” - फिर मैं बोला - “ये तो बताओ कि मेरी गति कैसे हो ?”
“तुम्हारी गति तो भैया इसी बात में है कि कातिल जल्दी से जल्दी पकड़ा जाये ।”
“कैसे ? जादू के जोर से !”
“जादू के जोर से क्यों ? कोशिश करो । मेहनत करो । काया को कष्ट दो ।”
“पुलिस का काम मैं करूं ?”
“अब या अंटी की सोच लो या अंजाम की सोच लो ।”
“और काया को और क्या कष्ट दूं ? जब से शबाना का कत्ल हुआ है, मारा मारा तो फिर रहा हूं सारे शहर में ।”
“और, फिर लो । वो कहते हैं न कि हर कातिल कत्ल का कोई न कोई सुराग अपने पीछे जरूर छोड़ता है । इस कातिल ने भी जरूर छोड़ा होगा । इसलिये...”
“वो सब किताबी बातें हैं ।”
“एक काम तो फिर भी करो ।”
“क्या ?”
“जैसे तुमने अस्थाना, कौशिक और बैक्टर को टटोला है, वैसे उस चौथे पंछी को भी तो टटोलो...क्या नाम बताया था तुमने उसका ?”
“पचौरी । प्रभात पचौरी ।”
“ताले वाले खोलने में तो तू उस्ताद हो ही गया मालूम होता है । एक ताला पचौरी का भी खोल के देख ले ।”
“हूं । अब तुम्हारे खुद के केस की क्या पोजीशन है ?”
“भई, निपट तो नहीं गया केस । अलबत्ता अब सस्पैंड शायद न किया जाऊं ?”
“वो कैसे ?”
“एक तो इसीलिये कि ऐसे मामलों में सस्पेंशन फौरन होती है जो कि नहीं हुई । दूसरे अब मुझे काम भी दिया गया है ।”
“क्या ?”
“गड़े मुर्दे उखाड़ने का । साल-साल डेढ़-ड़ेढ साल से बन्द पड़े कत्ल के केसों की तफ्तीश का । तलवार कहता है कि जब मैं इतना ही सूरमा हूं कि कत्ल का हर केस हल कर सकता हूं तो उन केसों को क्यों नहीं हल कर सकता ! अब तो मैं ये भी नहीं कह सकता कि मैं फील्ड का आदमी हूं, फील्ड वर्क करूंगा । क्योंकि फील्ड में जाने की मुझे कोई मनाही नहीं । जबकि हालात मनाही जैसे ही हैं ।”
“वो कैसे ?”
“अरे फाइलों से माथा फोडूंगा तो फील्ड वर्क के काबिल कोई नुक्ता निकलेगा न !”
“ओह !”
“इसी बखेड़े की वजह से तो मैं फॉर्टी फाइव कोल्ट रिवाल्वर होल्डरों की वो लिस्ट न मुहैया कर सका जो तूने...”
“अब उसका ख्याल छोड़ दो । अब उससे कुछ हासिल नहीं होने वाला । अब जब मर्डर वैपन बरामद हो गया है और ये मालूम हो गया कि उस पर सीरियल नम्बर है ही नहीं तो उस लिस्ट से क्या हाथ आयेगा ! बिना सीरियल नम्बर का हथियार तो रजिस्टर हो नहीं सकता । या हो सकता है ?”
“नहीं हो सकता ।”
“सो देयर यू आर !”
“मैं अब चलता हूं ।” - यादव कार का अपनी ओर का दरवाजा खोलता हुआ बोला ।
“एक बात और बताते जाओ ।” - मैं जल्दी से बोला ।
“पूछो ।”
“हैदराबाद से शबाना का कोई होता सोता यहां पहुंचा ?”
“नहीं पहुंचा । पुलिस ने किसी के पहुंचने की उम्मीद भी छोड़ दी है । आज शाम तक कोई न आया तो शाम को ही बतौर लावारिस लाश इलैक्ट्रिक क्रिमेटोरियम में उसका अंतिम संस्कार पुलिस ही करवा देगी ।”
“तौबा ! अपनी जिन्दगी में हुस्न की मलिका । बेशुमार दिलों की धड़कन ! और मौत के बाद लावारिस लाश !”
“जिस पर कि कोई निगाह डाल के राजी नहीं ।”
“उनमें से भी कोई नहीं जो कभी जिन्दगी में उसके तलुवे चाटते थे, जिनमें उसको हासिल करने की होड़ लगी रहती थी ।”
“राज ! ऐसा ही एक शख्स तू भी तो है ।”
मैं हकबकाया और फिर बोला - “वो-वो क्या है कि....”
“मुझे पता है वो क्या है । वो यही है कि पर उपदेश कुशल बहुतेरे ।”
“यार तू तो...”
“मैं चला । शाम को फोन करना ।”
मैंने सहमति में सिर हिलाया ।
सड़क पर पहुंचते ही मैंने सबसे पहले अखबार खरीदा ।
उस रोज का अखबार देखने का मौका मुझे सच में ही नहीं मिला था ।
मैंने जल्दी-जल्दी अखबार पर निगाह फिराई ।
उसमें पुलिस के एक प्रवक्ता के बयान के जरिये इस बात का जिक्र वाकेई था कि शबाना का कत्ल जिस गोली से हुआ था, वो पैंतालीस कैलीबर की कोल्ट रिवाल्वर से चलायी गयी थी ।
उसमें पिछली रात राकेश अस्थाना के नेहरू प्लेस स्थित ऑफिस में घुसे चोर का भी जिक्र था जो कि चौकीदार पर आक्रमण करके वहां से भाग खड़ा हुआ था । चौकीदार को कोई गम्भीर चोट नहीं आयी थी, वो थोड़ी ही देर में होश में आ गया था और तत्काल उसने पुलिस को - और अस्थाना को भी - फोन किया था । अस्थाना पुलिस की मौजूदगी में अपने ऑफिस में पहुंचा था और पूरी पड़ताल के बाद उसने ये बयान दिया था कि वहां से कुछ चोरी नहीं गया था ।
लेकिन अखबार की शबाना के कत्ल से सम्बन्धित सब से दिलचस्प खबर ये थी पुलिस को शबाना के पार्लियामैंट स्ट्रीट में स्थित एक बैंक में लाकर का पता चला था जिसे जब उचित कार्यवाही के बाद बैंक और पुलिस के वरिष्ठ अधिकारियों के सामने खोला गया था तो उसमें सौ-सौ के नोटों की सूरत में कोई सोलह लाख रुपये की धनराशि मौजूद पायी गयी थी । उस दौलत की बरामदी ने पुलिस को ये सोचने पर मजबूर किया था कि वो महज एक कालगर्ल ही नहीं थी बल्कि कुछ और भी थी ।
‘कुछ और’ के सन्दर्भ में उसके किसी बड़े स्मगलर की सहचरी होने की सम्भावना भी व्यक्त की गयी थी ।
इतनी बड़ी रकम की बरामदी ने तो मुझे भी सोचने पर मजबूर कर दिया कि मैं शबाना की जिन्दगी के तमाम पहलुओं से वाकिफ नहीं था । अगर वो तमाम दौलत उसने चन्द महीनों में सिर्फ ब्लैकमैलिंग से ही कमायी थी तो बकरे मूंडने में उसने कमाल कर दिखाया था ।
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अपने निगाहबानों से खबरदार मैं हेली रोड पहुंचा ।
यूअर्स ट्रूली का ये जाति तजुर्बा है कि जो शख्स अपने निगाहबानों से खबरदार हो, उसको निगाह में रखना नामुमकिन नहीं तो बेहद कठिन काम जरूर होता है । यूं खबरदार शख्स - जैसे कि मैं खुद था - के सामने अपने पीछे लगे लोगों को पहचाने बिना भी उन्हें अपने पीछे से झटक देने के कई तरीके होते थे ।
हेली रोड की एक बहुखण्डीय इमारत की छठी मंजिल पर प्रभात पचौरी का फ्लैट था ।
लिफ्ट द्वारा मैं छठी मंजिल पर पहुंचा । वहां मैंने पचौरी के फ्लैट की कालबैल बजायी और फिर दौड़ कर ऊपर को जाती सीढ़ियां चढ़ गया । सीढ़ियों के मोड़ पर मैं ठिठका । वहां से मुझे पचौरी के दरवाजे का निचला भाग दिखाई दे रहा था । मैंने दरवाजे पर निगाह टिका ली और कान खड़े कर लिये ।
मुझे न दरवाजा खुलता दिखाई दिया, न कोई ऐसी आहट मिली कि दरवाजा खुलने वाला था ।
यानी कि भीतर कोई नहीं था ।
अब मैं बड़े इत्मीनान से फ्लैट का ताला खोल कर भीतर दाखिल हो सकता था ।
मेरे पास पचौरी के फ्लैट की चाबी थी जो कि सोमवार रात को उसने मुझे खुद दी थी । वो चाहता था कि उस रात शबाना से मुलाकात के बाद मैं उससे मिलूं और अगर वो फ्लैट पर न हो तो ताला खोल कर भीतर जा बैठूं । उससे मिलने का कोई प्रयोजन तो शबाना के कत्ल की वजह से खत्म हो गया था और उसे चाबी लौटाने मैं इसलिये नहीं गया था कि वो खुद आकर चाबी मेरे से ले सकता था ।
बहरहाल फ्लैट की चाबी मेरे पास थी जिससे फ्लैट का प्रवेश द्वार खोलकर मैं बड़े इत्मीनान से भीतर दाखिल हुआ ।
वो तीन बैडरूम का फ्लैट था जिसके एक बेडरूम को पचौरी ने अपना ऑफिस बनाया हुआ था ।
मैंने अपनी खोज की शुरूआत उसके ऑफिस से ही की ।
बहुत जल्द मेरी खोज कामयाब हो गयी ।
उसकी फाइलों के शैल्फ में से एक फाइल बरामद हुई जिस में कानूनी कागजात लगे होने की जगह वैसे ही कागजात लगे हुए थे जैसे मैंने बैक्टर की स्टडी में शैल्फ में लगी किताबों के पीछे से बरामद किये थे । उन कागजात को फाइल से निकाल कर मैंने अपने कोट की भीतरी जेब के हवाले किया । उनके अध्ययन में वहां वक्त बर्बाद करना मूर्खता थी । पचौरी किसी भी क्षण वहां पहुंच सकता था ।
सड़क पर पहुंचकर मैं अपनी कार में सवार हुआ और वहां से चल पड़ा । इण्डिया गेट पहुंच कर मैंने कार को राजपथ पर एक पेड़ की छांव में रोका । मैंने कोट की भीतरी जेब से वहां मौजूद कागजात निकाले और उनकी पड़ताल आरम्भ की ।
उनमें भी शबाना की डायरी के कई पन्ने थे जिन पर अंकित क्रम संख्या से मुझे मालूम हुआ कि बीच-बीच में से कुछ पन्ने गायब थे और कुछ पन्ने ऐसे थे जिनकी इबारत में से एक नाम गाढ़ी काली स्याही की सहायता से मिटा दिया गया हुआ था । मिटाया हुआ शब्द नाम था, ये उसके आगे पीछे के अक्षर पढ़ने से स्पष्ट स्थापित होता था लेकिन वो नाम किसका था इसका कोई इशारा मुझे पूरे पन्ने पढ़ने के बाद भी न मिल पाया । अलबत्ता उन कागजात में, जो कि गिनती में अस्सी थे, मेरा, कौशिक का, बैक्टर का और अस्थाना का स्पष्ट उल्लेख था । उसमें प्रभात पचौरी का कहीं उल्लेख न होने का ये मतलब हो तो सकता था कि मिटाया गया नाम पचौरी का था लेकिन ऐसा दावे के साथ कहना मुहाल था क्योंकि शबाना के लाकर से बरामद सोलह लाख रुपये की रकम इस बात की साफ चुगली कर रही थी कि शबाना के कद्रदानों की संख्या मेरी जानकारी से, बल्कि मेरे अनुमान से भी, कहीं ज्यादा थी । पचौरी जैसे और भी कई नाम - एक तो नरेन्द्र कुमार का ही था - भी मुमकिन थे जो कि उन कागजात में दर्ज नहीं थे ।
और इस बारे में भी कोई दो राय नहीं हो सकती थीं कि उन कागजात की पचौरी के यहां मौजूदगी हत्यारे के ही हस्तकौशल की मिसाल थी । इस बार उसने ये नयी चालाकी की थी कि उनमें से एक नाम मिटा दिया था ताकि जब कागजात पचौरी के यहां से बरामद हों तो ऐसा लगे कि उसी ने अपने नाम को कागजात में से सैन्सर किया था ।
आखिरकार मैंने उन कागजात के बहुत छोटे-छोटे टुकड़े किये और उन्हें हवा में उड़ा दिया ।
आखिर उनमें मेरा भी तो जिक्र था ।
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मैं विक्रम होटल पहुंचा ।
मैंने कार को होटल से बाहर ही पार्क किया, पैदल चलकर होटल में पहुंचा और फिर लिफ्ट पर सवार होकर चौथी मंजिल पर पहुंचा ।
लिफ्ट से निकलते ही मैं ठिठककर खड़ा हो गया ।
कौशिक के सूइट के खुले दरवाजे के सामने कई लोग जमा थे जिनमें एक वर्दीधारी पुलिसिया भी था ।
मैं लपक कर करीब पहुंचा । वहां एक काला सूट और बो टाई लगाये व्यक्ति को - जो कि निश्चय ही होटल का कोई कर्मचारी था - मैंने बांह से थामा और व्यग्र भाव से पूछा - “क्या हुआ ?”
“वो-वो कौशिक साहब” - वो बोला - “जो इस कमरे में ठहरे हुए थे....”
“हां, हां । क्या हुआ उन्हें ?”
“उन्होंने आत्महत्या कर ली ।”
मैंने झिझकते हुए कमरे के भीतर झांका ।
प्रवेशद्वार के सामने ही कौशिक की लाश यूं पीठ के बल पड़ी थी कि उसके पांव दरवाजे की तरफ थे और सिर कमरे के भीतर की तरफ था । उसके माथे में दोनों पलकों के ऐन बीच में गोली का सुराख दिखाई दे रहा था ।
एक फोटोग्राफर उस घड़ी विभिन्न कोणों से लाश की तस्वीरें खींच रहा था ।
वो निपटा तो लाश को चादर से ढंक दिया गया ।
तभी भीतर मौजूद ए सी पी तलवार से मेरी निगाह मिली । मुझे देख कर उसके चेहरे पर अप्रसन्नता के भाव आये, फिर उसने करीब खड़े ए एस आई रावत को कुछ कहा ।
रावत तत्काल दरवाजे के करीब पहुंचा । उसने मुझे इशारा किया तो मैंने कमरे के भीतर कदम रखा ।
“यहीं रहना ।” - वो सख्ती से बोला - “जाना नहीं । बड़े साहब का हुक्म हुक्म है ।”
मैंने सहमति में सिर हिलाया ।
तलवार उस घड़ी वेटर की वर्दी पहने एक युवक से पूछताछ कर रहा था लेकिन दोनों की ही आवाज मेरे तक नहीं पहुंच रही थी ।
“क्या हुआ ?” - मैं दबे स्वर में बोला ।
“वही जो दिखाई दे रहा है ।” - रावत भी वैसे ही स्वर में बोला - “कोई अम्बरीश कौशिक है मरने वाला । लखनऊ से आया हुआ । गोली मार ली अपने आपको । खुदकुशी कर ली ।”
“लेकिन....”
“चुप करो ।”
मैं खामोशी से खड़ा रहा ।
फिर मेरे देखते-देखते लाश वहां से उठवा दी गयी ।
तब तलवार ने युवा वेटर को डिसमिस कर दिया और मुझे इशारा किया ।
मैं तलवार के करीब पहुंचा ।
“इतनी जल्दी” - वो मुझे घूरता हुआ - बोला - “वारदात की खबर कैसे लग गयी तुम्हें ? अभी तो यहां कोई प्रैस वाला भी नहीं पहुंचा जो कि...”
“मुझे वारदात की खबर नहीं थी ।” - मैं जल्दी से बोला - “वारदात की खबर मुझे अभी, यहां आके ही लगी है । मैं तो वैसे ही कौशिक से मिलने आया था ।”
“उसे खबर करके ?”
“नहीं ।”
“क्यों ?”
“क्यों क्या ? मुझे उम्मीद थी उसके यहीं होने की । न होता तो मैं फिर आ जाता ।”
“क्यों मिलना चाहते थे ?”
“शबाना के कत्ल की बाबत ही कोई छोटी-मोटी पूछताछ करना चाहता था ।”
“ऐसी पूछताछ करना तुम्हें कत्ल के चार दिन बाद सूझा ?”
“पहले भी सूझा था । फौरन सूझा था । मंगलवार आया भी था मैं यहां कौशिक से मिलने ।”
“तो ? मुलाकात नहीं हुई थी ?”
“मुलाकात तो हुई थी लेकिन मुफीद साबित नहीं हुई थी । तब वो इतना ज्यादा नशे में था कि कोई ढंग की बात करने की हालत में नहीं था ।”
“क्यों था वो ऐसी हालत में ?”
“मेरे ख्याल से तो फिक्रमंद था किसी बात से ।”
“किस बात से ? कुछ बताया नहीं उसने ?”
“न ।”
“ऐसा कैसे हो सकता है ?”
मैं खामोश रहा ।
“राज, ये आत्महत्या का केस है इसलिये मैं बात को यहीं खत्म कर रहा हूं । हत्या का केस होता तो तुम यूं खामोश न रह पाए होते ।”
“मैं इसलिये खामोश हूं क्योंकि मेरे पास कहने को कुछ नहीं है । इसलिये नहीं क्योंकि...”
“ओके । ओके । नाओ गैट अलोंग ।”
मैं वहां से बाहर निकला और नीचे बार में पहुंचा । वहां मैं एक ऐसी टेबल पर बैठा जहां से मुझे लिफ्ट और होटल का मुख्य द्वार दोनों दिखाई दे रहे थे ।
इच्छा न होते हुए भी अपनी वहां मौजूदगी को सार्थक करने के लिये मैंने एक बीयर का आर्डर दिया ।
दस मिनट बाद मैंने तलवार को अपने दल-बल के साथ वहां से रुख्सत होते देखा ।
मैं पांच मिनट और वहां बैठा रहा, फिर वहां से फारिग होकर बाहर निकल गया ।
मैंने उस युवा वेटर को तलाश किया जिसे मैंने ऊपर कौशिक के सुइट में ए सी पी के रूबरू देखा था ।
मालूम हुआ कि उसका नाम किशन पाल था और वो कौशिक के सुइट वाली मंजिल का फ्लोर वेटर था । पहले तो किशन पाल ने कौशिक के सन्दर्भ में मेरे से कोई बात करने से साफ इंकार कर दिया लेकिन जब मैंने एक सौ का पत्ता उसकी नजर किया तो वो पिघला ।
“यहां नहीं” - वो बोला - “आप होटल से बाहर स्टैण्ड पर पहुंचिये । मैं वहां आता हूं ।”
मैं सहमति में सिर हिलाता वहां से रुखसत हो गया और बाहर जाकर खाली पड़े बस स्टैण्ड पर खड़ा हो गया ।
दस मिनट में किशन पाल वहां पहुंचा ।
“पुलिस वालों ने” - आते ही वो बोला - “वारदात की बाबत किसी से कोई बात करने से मना किया था ।”
“अरे, मैं क्यों उन्हें बताने जाऊंगा कि तुमने मेरे से कोई बात की थी ।”
“यही मतलब था मेरा । उनको खबर न लगे ।”
“नहीं लगेगी । वादा ।”
“अब पूछिए, क्या पूछना चाहते हैं ?”
“वैसे तुम ए सी पी तलवार के सामने खास हाजिरी भर रहे थे, उससे लगता है कि वारदात की सबसे पहले खबर तुम्हें ही लगी थी !”
“हां । अपने फ्लोर के एक और मेहमान को सर्व करके मैं सर्विस लिफ्ट में सवार होने ही लगा था कि मुझे गोली चलने की आवाज सुनायी दी थी ।”
“तुम्हें झट सूझ गया था कि वो गोली चलने की आवाज थी ?”
“मुझे तो सूझा था लेकिन लिफ्टमैन मेरी खिल्ली उड़ाने लगा कि होटल में गोली चलने का क्या काम ! जरूर किसी मेहमान ने शैम्पेन की बोतल खोली थी ।
“फिर ?”
“तब तो मैं खामोश हो गया था लेकिन ये बात मेरे दिल से निकली नहीं थी । मुझे हर घड़ी ये ही लगता रहा था कि वो गोली चलने की आवाज थी जो कि कौशिक साहब के कमरे से आयी थी ।”
“ये कैसे सूझा कि वो कौशिक साहब के कमरे से आयी थी ?”
“क्योंकि आज उस फ्लोर के सिर्फ दो ही कमरे लगे हुए थे । उनमें से एक के मेहमान को सर्व करके और उसे भला चंगा छोड़ कर तो मैं वहां से निकला था । अब दूसरा लगा हुआ...”
“आकूपाइड !”
“हां । वो कमरा तो कौशिक साहब का ही था । बाकी सब तो खाली थे ।”
“फिर ?”
“फिर मैंने अपने दिमाग में मची खलबली का जिक्र मैनेजर से किया । पहले तो मैनेजर ने भी मुझे डांट कर भगा दिया लेकिन फिर खुद ही मेरे पीछे-पीछे आया और हम दोनों चौथी मंजिल पर पहुंचे । हमने कौशिक साहब को नाम लेकर पुकारा तो भीतर से कोई आवाज न आयी, दरवाजा खटखटाया तो भी कोई जवाब न मिला, फिर दरवाजा खोला तो पाया कि फर्श पर कौशिक साहब की लाश पड़ी थी ।”
“वैसे ही जैसे अभी थोड़ी देर पहले तक पड़ी थी ?”
“हां ।”
“पीठ के बल ? पांव दरवाजे की ओर ? सिर कमरे से भीतर की ओर ?”
“और दायें हाथ में पिस्तौल ।”
“पिस्तौल ? मुझे तो पिस्तौल नहीं दिखाई दी थी ।”
“वो पुलिस वालों ने अपने काबू में कर ली थी ।”
“कैसी थी पिस्तौल ?”
“मैं क्या बताऊं कैसी थी ? मैं तो हथियारों के बारे में कुछ जानता नहीं ।”
“हूं । किशन पाल, लाश की पोजीशन से ऐसा नहीं लगता था जैसे कौशिक साहब ने किसी आगन्तुक के लिये दरवाजा खोला हो जिसने दरवाजा खुलते ही उन्हें शूट कर दिया हो और वो वहीं दरवाजे के सामने फर्श पर ढ़ेर हो गये हों ।”
“यानी कि” - वो नेत्र फैला कर बोला - “हत्या ?”
“हां ।”
“लेकिन पुलिस वाले तो कहते थे कौशिक साहब ने आत्महत्या की थी !”
“जरूर की होगी । मैं तो ये कह रहा था कि लाश की पोजीशन से ऐसा लगता था - लगता था - कि वो दरवाजे के पास दरवाजे की तरफ मुंह किये खड़े थे जबकि गोली खाकर पीठ के बल फर्श पर गिरे थे ।”
“लगता तो ऐसा ही था ।”
“तुमने उनके हाथ में पिस्तौल देखी थी ?”
“हां । साफ । दायें हाथ में ।”
“उंगलियां पिस्तौल की मूठ पर जकड़ी हुईं ?”
“अब इतना तो मुझे मालूम नहीं । मुझे, तो बस ये मालूम है कि पिस्तौल उनके हाथ में थी ।”
“गोली चलने की आवाज सुनने से लेकर मैनेजर के साथ कौशिक के सुइट में वापिस लौटने तक कितना वक्त गुजर गया होगा ?”
“यही कोई बीस मिनट ।”
“बीस मिनट ?”
“साहब मैंने तो मैनेजर को काफी पहले बोला था लेकिन हम जब ऊपर जाने के लिये लिफ्ट में सवार होने लगे थे तो उसका फोन आ गया था । अपने ऑफिस में जाकर फोन रिसीव करने में मैनेजर ने काफी वक्त जाया कर दिया था ।”
“पुलिस कब पहुंची ?”
“और पन्दरह मिनट बाद ।”
“पिछले तीन चार दिनों से तुम्हीं फ्लोर वेटर हो चौथी मंजिल के ?”
“जी हां । सोमवार से मेरी वहां ड्यूटी है जो कि अभी परसों तक रहेगी ।”
“तब तो तुम्हें सोमवार से अब तक की कौशिक साहब की मूवमेंट्स की काफी खबर होगी ? उनकी कहीं, कभी आवाजाही की ! उनसे मिलने आने वाले लोगों की !”
“साहब, मंगलवार से कौशिक साहब कहीं नहीं गये थे । अपने सुइट से निकलकर वो कहीं गये थे तो या तो नीचे बार में या रेस्टोरेन्ट में । वो भी कोई बहुत ज्यादा बार नहीं । अमूमन तो वो खाना भी रूम सर्विस से मंगाते थे और ड्रिंक्स वगैरह भी ।”
“यानी कि मंगलवार से वो होटल में ही थे ?”
“हां ।”
मुझे याद आया कि मंगलवार को जब मैं कौशिक से मिला था तो वार्तालाप के सिरे पर उसने कहा था कि उसने भी कहीं जाना था ।
क्या मतलब था उस बात का ?
क्या उसने नीचे होटल में ही कहीं जाना था ? या ऐसा उसने महज मुझे टालने के लिये कह दिया था ?
शायद होटल में ही कहीं जाना था ।
काफी हाउस में ?
जहां कि मैंने उसे बैठा देखा था ।
“तुम” - प्रत्यक्षत: मैं बोला - “इस बात को दावे से कैसे कह सकते हो कि कौशिक साहब होटल से बाहर कहीं नहीं गये थे ?”
“साहब, उन्होंने कहीं जाना होता था तो टैक्सी बुलाने के लिये वो मुझे कहते थे । मंगलवार से अब तक एक बार भी उन्होंने मुझे टैक्सी बुलाने को नहीं कहा था ।”
“ओह ! कोई आया गया ?”
“उसकी मुझे कोई गारन्टी नहीं । क्योंकि हर वक्त तो मैं फ्लोर पर नहीं रह सकता न ?”
“मंगलवार को तो एक बार” - मैंने ‘एक बार’ पर विशेष जोर दिया - “मैं भी यहां आया था !”
“मुझे खबर नहीं ।”
“तुम्हारी ड्यूटी कितने बजे से शुरू होती है ?”
“सुबह नौ बजे से ।”
“कौशिक साहब मंगलवार सुबह सवेरे, कह लो कि चार सवा चार बजे कहीं गये हो तो तुम्हें तो फिर खबर नहीं लगी होगी ?”
“मुझे कैसे खबर लगती । मैं तो नौ बजे...”
“हां, हां । आज कौशिक साहब को आखिरी बार जीवित कब देखा था तुमने ?”
“सुबह दस बजे । जब उन्होंने विस्की की नयी बोतल मंगवाई थी ।”
“तब हालत कैसी थी उनकी ?”
“खस्ता ही थी । बड़े नर्वस से, परेशान से, डरे-डरे से लग रहे थे । सुबह सवेरे पैग भी लगा लिया मालूम होता था ।”
“यानी कि ऐसे शख्स जैसे नहीं लग रहे थे जिसे कि अपने आप पर मुकम्मल कन्ट्रोल हो ?”
“नहीं, जी । वो तो बड़े हलकान से, बीमार से...”
“ओके । सहयोग का शुक्रिया, किशन पाल । अब अपनी वो बात याद रखना । पुलिस वालों ने वारदात की बाबत किसी से कोई बात करने के लिये तुम्हें मना किया हुआ है ।”
“बिल्कुल याद है मुझे ये बात ।” - उसने तत्काल इशारा समझा - “मैंने किसी से कोई बात नहीं की ।”
“शाबाश । तरक्की करोगे, बरखुरदार ।”
***
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Masoom
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Re: Adultery Thriller सुराग

Post by Masoom »

चार बजे पुलिस हैडक्वार्टर के सामने, इन्कम टैक्स ऑफिस के पिछवाड़े में बने एक साउथ इन्डियन रेस्टोरेंट में मेरी इन्स्पेक्टर यादव से फिर मुलाकात हुई ।
“अम्बरीश कौशिक के कत्ल की खबर लग गयी ?” - मैंने पूछा ।
“कत्ल की ?” - उसकी भवें उठी ।
“लग गयी खबर ?”
“खबर तो लग गयी लेकिन वो तो आत्महत्या का ओपन एण्ड शट केस बताया जा रहा है ।”
“आत्महत्या, माई फुट ।”
“क्या माजरा है, राज ?”
“हत्यारे ने अपनी तरफ से बड़ी होशियारी से आत्महत्या की स्टेज सैट की थी और वो अपने मकसद में कामयाब रहा था, इसका यही काफी सबूत है कि तुम्हारा ए सी पी तलवार पूरी तरह से आश्वस्त है कि वो आत्महत्या का केस है ।”
“लेकिन तुम आश्वस्त नहीं हो ?”
“नहीं हूं । सुनो क्यों नहीं हूं: नम्बर एक, गोली माथे में लगी पायी गयी । मैं ये नहीं कहता कि खुद की माथे में गोली मार कर आत्महत्या नहीं की जा सकती लेकिन ये एक स्थापित तथ्य है कि आत्महत्या करने वाले रिवाल्वर की नाल को अपनी कनपटी से लगाकर ही इस काम को अंजाम देते हैं । दूसरे, मौत से पहले की उसकी हालत बहुत खस्ता बताई जाती है । फ्लोर वेटर का कहना है कि सुबह दस बजे जब वो कौशिक के लिये विस्की की नयी बोतल लाया था, तो उस वक्त वो बहुत नर्वस, बहुत परेशान, बहुत डरा-डरा, बहुत हलकान और बीमार सा लग रहा था । यानी कि ऐसा आदमी तो वो सुबह दस बजे ही नहीं था जिसे कि अपने आप पर मुकम्मल कंट्रोल रहा है । ऊपर से उसने और विस्की भी पी ली थी ।”
“कैसे मालूम ?”
“भई, जब उसने नयी बोतल मंगायी थी तो पीने के लिये ही तो मंगायी होगी । कोई मेज पर सजा कर रखने को तो मंगायी नहीं होगी !”
“खैर फिर ?”
“जैसी हालत मैंने अभी कौशिक की बयान की है, यादव, वैसी हालत में आदमी पिस्तौल को उल्टी करके हाथ में पकड़ कर नाल को माथे पर ऐन पलकों के बीच सटा कर आत्महत्या करने की नहीं सोच सकता ।”
“और ?”
“और आत्महत्या करने के लिये उसने जगह देखो कौन सी चुनी ? दरवाजे के सामने की । जैसे वो किसी के लिये दरवाजा खोलने गया हो और फिर सोचा हो दरवाजा क्या खोलना है, आत्महत्या ही कर लेता हूं ।”
“मजाक मत करो ।”
“ये मजाक नहीं है ! उस खस्ताहाल आदमी ने अगर आत्महत्या करनी थी तो पलंग पर पड़े-पड़े कर लेता ! कुर्सी पर बैठे-बैठे कर लेता ! आत्महत्या करने के लिये तो उठकर दरवाजे पर क्यों गया ?”
“क्यों गया ?”
“इसका जवाब कि नहीं गया । आत्महत्या के लिये नहीं गया ।”
“तो और किसलिये गया ?”
“ये भी कोई पूछने की बात है !”
“दरवाजे पर दस्तक पड़ने पर किसी को दरवाजा खोलने ?”
“बिल्कुल । फिर दस्तक देने वाले आगंतुक ने ही दरवाजा खुलने पर उसके माथे के साथ पिस्तौल सटाई और उसे शूट कर दिया । कौशिक वहीं पीठ के बल फर्श पर धराशायी हुआ तो उसने पिस्तौल उसके दायें हाथ में थमायी और वहां से खिसक गया ।”
“हूं ।”
“आत्महत्या की थ्योरी के खिलाफ सबसे बड़ा सबूत ये है कि उसके पास आत्महत्या के लिये पिस्तौल कहां से आयी ?”
“क्या मतलब ?”
“मंगलवार को उसकी गैरहाजिरी में मैंने उसके होटल के कमरे की भरपूर तलाशी ली थी । तब वहां कोई पिस्तौल मौजूद नहीं थी । फ्लोर वेटर का कहना है कि मंगलवार से कौशिक ने होटल से बाहर कदम नहीं रखा था । अब तुम बताओ कि आत्महत्या करने के लिये पिस्तौल कहां से आ गयी उसके पास ?”
“उसने” - यादव सोचता हुआ बोला - “फोन किया होगा किसी को पिस्तौल के लिये । कोई पिस्तौल उसे होटल में आके दे गया होगा ?”
“क्या कहने ! पिस्तौल न हुई, झुनझुना हो गया ।”
यादव खामोश रहा ।
और फिर ये न भूलो कि कौशिक दिल्ली शहर में परदेसी था । बाहर से आये आदमी के लिये कोई हंसी खेल नहीं है दिल्ली में किसी को फोन करके लोली पॉप की तरह पिस्तौल मंगा लेना ! कौन देता है ऐसे किसी को कोई हथियार ! जबकि उसे यूं हथियार हासिल करने वाले की किसी मंशा की भी कोई खबर न हो !”
“राज ! तू ये कहना चाहता है कि आत्महत्या के खिलाफ ये जो बातें तुझे सूझीं, वो हमारे माननीय ए सी पी साहब को नहीं सूझीं ?”
“मुझे नहीं पता सूझी या नहीं सूझी लेकिन अपनी जुबानी उसने ये ही कहा था कि वो आत्महत्या का केस था इसलिये वो मुझे बख्श रहा था, हत्या का केस होता तो वो मुझे आसानी से न छोड़ देता ।”
“हूं । और क्या खबर है ?”
फिर मैंने उसे पचौरी के फ्लैट से बरामद कागजात की बाबत बताया और ये भी बताया कि मैंने उसका क्या हश्र किया था ।
“यानी कि” - यादव बोला - “कागजात वहां भी प्लांट किये गए थे ?”
“एक निगाह में तो ऐसा ही मालूम होता है, अलबत्ता असल में इसका भी कोई सारगर्भित मतलब हो सकता है ।”
“यानी कि तुम्हारी निगाह में हत्यारा अभी भी शबाना की चौकड़ी में से बाकी बचे तीन जनों में से कोई हो सकता है ।”
“हत्यारा कोई भी हो अब मैं उसकी अगली मूव की बुनियाद बनाने के लिये अपने फ्लैट का रुख करने जा रहा हूं ।”
“क्या मतलब ?”
“मतलब मैं तुम्हें पहले भी समझा चुका हूं । जब तक मैं अपने फ्लैट पर नहीं लौटूंगा हत्यारे को ये आश्वासन नहीं होगा कि उसके द्वारा जगह-जगह प्लांट किये गये कागजात मेरे फ्लैट पर पहुंच गए हैं ।”
“यानी कि उसे खबर नहीं लगी होगी कि कुछ कागजात बैक्टर ने भस्म कर दिये थे और कुछ की खुद तुमने धज्जियां उड़ा दी थी ।”
“उम्मीद तो यही है कि खबर नहीं लगी होगी । बैक्टर ने कागजात अपनी बन्द स्टडी में जलाये थे जहां किसी का झांका पाना नामुमकिन था मैंने राजपथ पर जहां कागजात नष्ट किये थे, वहां मेरे इर्द-गिर्द दूर-दूर तक कोई नहीं था ।”
“यानी कि तुम अपने फ्लैट पर जाओगे, अपनी वहां मौजूदगी स्थापित करने के लिये थोड़ी देर टिकोगे जिसकी कि हत्यारे को या तुम्हारे फ्लैट की हत्यारे के लिये निगरानी करते किसी शख्स को खबर लग जायेगी और फिर अपने पीछे हत्यारे के लिए मैदान खाली छोड़ कर वहां से कूच कर जाओगे ?”
“हां ।”
“हत्यारा सीधे ही तुम्हारी बाबत पुलिस को खबर कर देगा या पहले तुम्हारे पलैट में घुसकर इस बात की तसदीक करेगा कि तुम्हें फंसाने में काम आने वाले कागजात वगैरह तुम्हारे यहां मौजूद थे ।”
मैं कुछ क्षण सोचता रहा ।
“वो तसदीक वाला कदम भी उठा सकता है ।” - फिर मैं बोला - “आखिर शबाना के काफी सारे कागजात अभी भी उसके अधिकार में हैं । बैक्टर और पचौरी वाले कागज मेरे फ्लैट में न पहुंचे पाकर, अस्थाना के ऑफिस में प्लांट किया गया मर्डर वैपन वहां न पाकर वो बाकी बचे कागजात को प्लांट करके मेरी दुक्की पीटने का सामान कर सकता है ।”
“राज !” - यादव चेतावनीभरे स्वर में बोला - “वो ये कदम उठा चुकने के बाद एक कदम और भी उठा सकता है ।”
“कौन सा ?”
“वो तेरा कत्ल कर सकता है । ताकि अपने फ्लैट में से बरामद होने वाले कागजात वगैरह की कोई सफाई देने के लिये तू बाकी न बचे । अगर वो कौशिक की आत्महत्या की स्टेज सैट कर सकता है तो तेरा भी यूं कत्ल कर सकता है जैसे कि तू किसी एक्सीडेंट की चपेट में आ गया हो !”
“यार, तुम तो मुझे डरा रहे हो !”
“डरा नहीं रहा, इस बात पर जोर दे रहा हूं कि अब अपने ऐसे किसी अंजाम से भी तुझे खबरदार रहना चाहिये ।”
मैंने बड़ी संजीदगी से सहमति में सिर हिलाया ।
***
कैसे कैसे परिवार Running......बदनसीब रण्डी Running......बड़े घरों की बहू बेटियों की करतूत Running...... मेरी भाभी माँ Running......घरेलू चुते और मोटे लंड Running......बारूद का ढेर ......Najayaz complete......Shikari Ki Bimari complete......दो कतरे आंसू complete......अभिशाप (लांछन )......क्रेजी ज़िंदगी(थ्रिलर)......गंदी गंदी कहानियाँ......हादसे की एक रात(थ्रिलर)......कौन जीता कौन हारा(थ्रिलर)......सीक्रेट एजेंट (थ्रिलर).....वारिस (थ्रिलर).....कत्ल की पहेली (थ्रिलर).....अलफांसे की शादी (थ्रिलर)........विश्‍वासघात (थ्रिलर)...... मेरे हाथ मेरे हथियार (थ्रिलर)......नाइट क्लब (थ्रिलर)......एक खून और (थ्रिलर)......नज़मा का कामुक सफर......यादगार यात्रा बहन के साथ......नक़ली नाक (थ्रिलर) ......जहन्नुम की अप्सरा (थ्रिलर) ......फरीदी और लियोनार्ड (थ्रिलर) ......औरत फ़रोश का हत्यारा (थ्रिलर) ......दिलेर मुजरिम (थ्रिलर) ......विक्षिप्त हत्यारा (थ्रिलर) ......माँ का मायका ......नसीब मेरा दुश्मन (थ्रिलर)......विधवा का पति (थ्रिलर) ..........नीला स्कार्फ़ (रोमांस)
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