स्वाहा

Post Reply
User avatar
SATISH
Super member
Posts: 9811
Joined: 17 Jun 2018 16:09

स्वाहा

Post by SATISH »

स्वाहा..
लेखक:- राज भारती

हवाएं चींख रही थीं। मूसलाधार बारिश जारी थी। आकाश से धरती तक मानो पानी की चादर-सी तन गई थी। रात के दो बजे थे। भयानक अन्धेरी रात.... गरजते बादल....कड़कती बिजली.... बारिश के शोर और दरवाजे-खिड़कियां बजाती हवा ने वातावरण को जैसे प्रेत ग्रस्त बना रखा था।

ऐसे में उसने वह खताब फिर देख लिया था।

बड़ा ही अजीव ख्वाब था । भयावह, खौफजदा और सहमा को वाला और इस खाव को वह अब निरन्तर देखने लगी थी। हर दूसरी-तीसरी रात वही ख्वाब देखती थी वह आज भी जव उसकी आंख खुली तो उसके शरीर में कम्पन था । वह हौले-हौले कांप रही थी।

दिल बैठा जा रहा था। कंठ में कांटे से पड़ रहे थे। दिमाग जैसे शल होकर रह गया था।

पहले तो उसकी समझ में ही नहीं आया कि उसकी आंख खुल गई हैं या यह अभी तक ख्वाब देख रही हैं।

वह अभी एक घण्टा पहले ही तो सोई थी। आज शाम से उसकी तवियत ठीक न थी। दिल पर कुछ वोझ सा था। आज उससे ठीक तरह से खाना भी नहीं खाया गया था। खाना खाने के बाद वह चहलकदमी के लिए जरूर निकलती थी। आज वह टहलने भी नहीं निकली थी। बस आधा-अधूरा खाना खाकर ही अपने कमरे में आ गई थी।

फिर कुछ देर वह टी० वी के विभिन्न चैनल घुमाती रही। एक चैनल पर इंगलिश फिल्म आ रही था। वह देखने बैठ गई। फिल्म लगभग बारह बजे खत्म हुई। उसने टी० वी० ऑफ कर दिया। फिल्म सस्पेन्स वाली थी उसने कई सीन बार-बार उसकी निगाहों में घूम रहे थे। वह यूं ही कमरे से निकलकर गैलरी में आ गई और बाहर का नजारा करने लगी।

तभी निकट के एक पेड़ से एक परिन्दा उड़ा व तेजी से उसके सिर के पास से गुजर गया।

वह एकदम सहम गई।

वह काफी बड़ा पक्षी था चील जितना बड़ा होगा।

उसकी समझ में न आया कि रात के बारह बजे आखिर परिन्दे को उड़ने की जरूरत क्यों पेश आई। यही लगा था उसे जैसे वह परिन्दा उसे ही गैलरी में देखकर उसकी तरफ लपका था।

इस ख्याल ने उसे सहमा दिया।

वह फौरन कमरे में आ गई। दरवाजा अच्छी तरह बन्द किया और बिस्तर पर लेट गई।

नींद आंखों से कोसों दूर थी।

एक तो रहस्यपूर्ण, सस्पेस, फिल्म का असर, फिर उस पक्षी का बहुत ही पास से... उसके चेहरे को हवा देते हुए गुजर जाना। उसने सोचा कि वह नीचे जाकर सो जाए या फिर नीचे से किसी को अपने पास बुला ले। लेकिन ये दोनों ही ख्याल खुद उसे उचित न लगे।
User avatar
SATISH
Super member
Posts: 9811
Joined: 17 Jun 2018 16:09

Re: स्वाहा

Post by SATISH »

कैसेटों के रैक से उसने एक कैसेट चुना और म्यूजिक सुनने लगी।

ध्यान बंटाने को उसे यही सूझा था।

धीमे संगीत के उसके इस अपनी पसन्द के कैसेट ने धीरे-धीरे उस पर असर करना शुरू किया....उसे नींद आने लगी। उसने लेटे-लेटे ही रिमोट कन्ट्रोल से कैसट प्लेयर ऑफ किया और करवट लेकर आंखें बन्द कर लीं।

"फिर अचानक ही उसे "परों" की फड़फड़ाहट सुनाई दी। उसे ऐसा महसूस हुआ जैसे कोई पैरिन्दा उसके सिर पर से गुजर गया हो।

वह तत्काल उठकर बैठ गई।

कमरे की लाईट जल रही थी।

जब से रहस्यपूर्ण भयावह ख्वावों का यह सिलसिला शुरू हुआ था वह कमरे मे लाईट जलाकर सोती थी । दरवाजा भी बन्द था। किसी परिन्दे का उसके सिर पर से गुजर जाने का सवाल ही नहीं पैदा होता था। यह महज इसका भ्रम था।

अपने इस ख्याल पर उसे शर्मिन्दगी महसूस हुई कि वह दिन-प्रतिदिन ऐसी डरपोक क्यों होती जा रही थी।

रिमोट कन्ट्रोल उठाकर उसने कैसेट प्लेयर फिर ऑन का दिया । लौरी देता हुआ संगीत फिर से कमरे में सुनाई देने लगा। संगीत सुनते-सुनते अन्ततः वह नींद की आगोश में चली गई।

और फिर.... 1

वह अभी लगभग एक घंटा ही सोई होगी, उस डरावने ख्वाब ने उसकी नींद उड़ा दी।

जब वह सोई थी तो दूर तक बारिश के आसार न थे। आंख खुली तो वातावरण का रंग ही कुछ और था। कुछ देर तक तो वह समझ ही नहीं पाई कि वह अभी ख्वाब ही देख रही हैं या जाग गई है।

कहीं दूर बादलों की गर्जना सुनाई दी..... अचानक ही विजली बड़े वेग से चमकी और बाहर धमाक से होने लगे।

वह धवराकर उठ बैठी।

कैसेट-लेयर अभी तक चालू था। उसके हाथ-पांव कांप रहे थे। दिल किसी पत्ते की तरह लर्ज रहा था। उसमें इतनी हिम्मत भी न थी कि वह रिमोट उठाकर कैसेट प्लेयर ऑफ कर दे।

फिर कुछ देर बाद उसके हवास सयंत हुए.... उसने सम्भाला लिया.... विवेक काम करने लगा तो उसने साइड टेबिल पर रखे जग से पानी निकाला और गटागट करके पी गई। कुछ इस तरह जैसे सदियों से यासी हो। सूखा गला तर हुआ। संज्ञा शून्य जहन खुला तो उसे वह ख्वाब याद आया जिसकी वजह से उसकी आंख खुली थी।

यह विचित्र अनूठा सपना वह कई माह से देख रही थी। शुरू में यह ख्वाब महीने दो महीने के वाद नजर आता था । फिर धीरे-धीरे यह अन्तराल कम होने लगा। सप्ताह... दस दिन के बाद.... अब तो यह ख्वाब लगभग हर रोज ही नजर आने लगा था।

हां, पिछले पांच दिनों से वह इस ख्वाब को निरन्तर देख रही थी।

वह देखती कि अन्धेरी रात है, कहीं दूर से भेड़ियों की गुर्राहट की आवाजें आ रही है। फिर सहसा ही भयावह अन्धेरी रात... एक प्रकाशमान दुबल दिन में बदल जाती। अब उसे दूर क्षितिज तक फैला एक रेगिस्तान दिखाई देता । दूर-दूर तक रेत ही रेत उड़ती दिखाई देती। इस रेगिस्तान में वह स्वयं को भटकता महसूस करती नंगे पांव और गर्म रेत पर चलते-चलते... अचानक ही एक झोपड़ी उसके सामने आ जाती। इस झोपड़ी की छत पर उसे एक उल्लू बैठा दिखाई देता और झोपड़ी के दरवाजे पर कुण्डली मारे एक सांप काले रंग का फन उठाए-अपनी जिव्हा लपलपाता नजर आता।
User avatar
SATISH
Super member
Posts: 9811
Joined: 17 Jun 2018 16:09

Re: स्वाहा

Post by SATISH »

इस भयावह दृश्य को देखकर वह भागने लगती तो पीछे से आवाज आती-

"डरा मत वहन... आओ, झोंपड़ी के भीतर आ जाओ...।"

यह किसी मर्द की आवाज होती। पुकारने वाले की आवाज से एक पीड़ा, एक व्यथा का सा आभास होता-जैसे बुलाने वाला किसी कप्ट का शिकार हो और अपनी मदद के लिए किसी को अन्दर बुलाना चाहता हो ।

इस आवाज पर वह पलटकर देखती तो पुकारने वाला तो दिखाई न देता अलबत्ता वह खौफनाक काला सांप उसकी "तरफ झपटता और वह चींख मारकर रोने लगतीं।

और तभी घबराकर उसकी आंख खुल जाती।

इस वक्त भी उसने यही ख्याब देखा था।

तपता रेगिस्तान ... गोल झोपड़ी की छत पर बैठा उल्लू...सांप और अन्दर से आती वह दर्दभरी आवाज।

"डरों मत बहन... आओ, झोपड़ी के भीतर आ जाओ।"

उसने अपने दिमाग पर बहुत जोर डाला था कि वह इस आवाज को पहचान जाए, लेकिन वह पहचान न सकी थी, यह आवाज उसके लिए निदांत अजनबी थी। उसके किसी प्रियजन, किसी सगे-सम्बन्धी या जानने वाले की आवाज नहीं थी।

वह एक निडर लड़की थी। लेकिन इस ख्वाब के खौफ ने उसकी निर्भयता व दुस्साहस में दरारें डालना शुरू कर दी थी। अब वह सोचने लगी थी कि कल से वह नीचे सोयेगी या फिर अपने साथ कमरे में किसी को बुलाकर सुलारागी।

लेकिन सुलाएगी किसको ?

ले-देकर माया ही तो थी जो उसके साथ सी सकती थी या फिर गंगा मौसी थी। मगर मौसी ऊपर नहीं आ सकती थी।

वह गठिया की मरीज थी...सीढ़ियां चढ़ना उसके बस की बात न थी। बस यही हो सकता था कि वह खुद ही उनके

कमरे में जा सोया करे।

उसने अभी तक अपना यह ख्वाब किसी को नहीं बताया था....गंगा मौसी की भी नहीं, लेकिन अब उसमें हिम्मत न रही थी । उसने तय कर लिया था वह सुबह होते ही गंगा मौसी को अपने इस सपने के बारे में जरूर बताएगी।

यूं तो अभी उसकी उम्र खैर से ख्वाब ही देखने वाली थी,

सुहाने और मीठे ख्वाब इस उम्र में लड़कियां ऐसे रहस्यमय व भयभीत करने वाले ख्वाब कहा देखती हैं? उन्हें तो हर तरफ घोड़े पर सवार एक सुदर्शन राजकुमार ही नजर आता है। वे अपनी पसन्द के अनुसार अपने-अपने 'आईडियल' के सपने देखती हैं। वह कौन होगा? कहां से आयेगा? कब आएगा?

लड़कियां ही क्या ख्वाब तो ममी देखते हैं। क्या बूढ़े ? क्या बच्चे? क्या जवान? अपनी-अपनी अतृप्त ख्वाहिशों को पूरा होते देखने के लिए, अपनी उम्र का आधा हिस्सा इंसान आंखें बंद करके गुजार देता है। यह वन्द आंखें कितनी पुरसुकून हैं-कार-आमद हैं यह बात कोई उन लोगों से पूछे जो करबटें बदलते, खुली आंखों से गुजार देते है। सच ही में नींद और ख्वाब ऊपर वाले का वरदान है। अगर इन्सान से उसकी नींद, उसके ख्वाब छीन लिए जाएं तो यह जीवन नर्क बन जाए। कैसा यातनामय हो जाये...।

ये ख्वाब, गरीब को अमीर बनाते हैं और कुंवारों को विवाहित। यह तो प्रभु कृपा है कि सपनों कोई अंकुश नहीं हैं इनकी कोई सीमा नहीं है। इंसान कैसे से ख्याब देखता है.... अगर यही ख्वाब यातनामय हो जाए तो कैसे-कैसे मासूम कैसी-कैसी सजा पायें?

उसे दिखाई देने वाला यह ख्ताव उसके लिए किसी सजा से कम नहीं था।

वह सोच-सोच कर हलकान हुई जा रही थी कि आखिर उसे यह सजा क्यों मिल रही है। यह ख्वाब उस पर, उसकी नींद पर, क्या हावी कर दिया गया है। इस दिल दहला देने वाले ख्वाब के बारे में सोचते-सोचते अंतत: उसे नींद आई
User avatar
SATISH
Super member
Posts: 9811
Joined: 17 Jun 2018 16:09

Re: स्वाहा

Post by SATISH »

और फिर...।

प्रातः अगर नौकरानी माया उसे न उठाती तो वह न जाने कब तक सोती रहती।

"बीबी! क्या इरादा है, आज उठना नहीं क्या...?" नौकरानी माया ने उसका बाजू हिलाया ।

"ओह, माया ! क्या बजा है?" उसने आंखें मलते हुए पूछा।

"बहुत कुछ बज गया, बीबी और बहुत कुछ हो गया। अब उठ जाओ...!"

"क्या हो गया है?" वह एकदम चौंक गई। रात का ख्वाब बड़ी तेजी के साथ उसकी आंखों के सामने घूम रहा था। उसका दिल बेअख्तयारही तेजी से धड़कने लगा था। उसने शंकित भाव से पूछा, "खैरियत तो हैं माया...?"

"हां, वीबी... खैर है? परेशानी वाली कोई बात नहीं। वो आपके एक दादा थे ना- अरे वही दादा हरी ओम... वो जी चल

बसे! घर के सब लोग जाने की तैयारी कर रहे हैं...।"

"अरे...। माया उमरे फिर मुझे उठाया क्यों नहीं...।" वह तेजी से उठकर खड़ी हो गई, "तुम भी हद करती हो...।" "ओह बीवी! अभी तो आया है फोन। बड़ी बीबी ने जैसे ही मुझसे कहा- मैं फौरन आपका उठाने आ गई हूँ।" "क्या मौसी भी जा रही है, वहां...?"

"जा रही हैं? वह तो दरवाजे पर खड़ी हैं। तैयार है जाने के लिए...।"

"अच्छा, माया तुम मौसी से जाकर कहो। मैं मुंह-हाथ धोकर अभी नीचे आ रही हूँ।" यह कहते हुए वह बाथरूम की तरफ बड़ी- "मेरा इन्तजार करें, मैं उन्हीं के साथ जाऊंगी...।"

"ठीक है, बीबी। आप जरा जल्दी से नीचे आ जाएं।"

वह जल्दी-जल्दी तैयार होकर नीचे पहुंची। उल्टा सीधा नाश्ता किया और फिर वह गंगा मौसी के साथ गाड़ी में आ बैठी।

अमर जो ड्राईविंग सीट पर बैठा था उसने जरा-सा तिरछा होकर उसे देखा और पूछा "आज आप कुछ ज्यादा दर से नहीं उठीं?"

"हां आज कुछ ज्यादा ही देर हो गई, " बड़े सहज भाव में व सक्षिप्त सा जवाब दिया था उसने।

इसके साथ ही उसे फिर बीती हुई भयानक रात याद आ गई। वह भयावह ख्वाब उसकी नजरों में धूम गया था। उसने बटाने बंटाने के लिए बस यूं ही गंगा मौसी से पूछा-

"मौसी ! दादा की डेथ कब हुई?"

"सुबह, मुंह अन्धेरे।" गंगा मौसी ने बताया- "बड़े ही खुशनसीब थे वो भगवान ऐसी मौत सबको दे।"

"वह कैसे मौसी?" उसने जिज्ञासावश पूछा।

"नहा-धोकर ध्यान लगाते-लगाते ही प्रभु से जा मिले बेटी! घर के लोग जब जागे तो वह समाधि लगाए बैठे थे और प्राण पखेरु उड़ चुके थे। काफी समय से ध्यान लगाए बैठे थे। उन्हें पहले आवाज दी... जवाब न मिलने पर हाथ लगाया गया... हाथ लगाते ही वह एक तरफ को लुढ़क गए...।" गंगा मौसी ने गहरा ठण्डा सांस लिया।

"मौसी...! उम्र क्या होगी दादा की...?"

"बस एक साल की कमी रह गई। अगर एक साल और जी जाते तो पूरे सौ साल के हो जाते।"
User avatar
SATISH
Super member
Posts: 9811
Joined: 17 Jun 2018 16:09

Re: स्वाहा

Post by SATISH »

"वाकई, मौसी ! इतनी उम्र थी उनकी...?"

और मौसी बड़े चाव से बोली- "अब तो वह दोबारा से जवान होने लगे थे। वाल काले हो रहे थे और दांत दोबारा निकल रहे थे।"

"रहने दे मौसी !" इस बार अमर बोला। उसे मौसी की बात पर जैसे यकीन न आया था।

"अच्छा-अच्छा! गाड़ी सामने देखकर चलाओ।" गंगा मौसी बोली व फिर बात का रुख दूसरी तरफ मोड़ते हुए "बोली- "एक बात और मशहूर है उनके बारे में वो सपनों का स्वप्न फल बहुत सटीक व अच्छी तरह बताते थे।"

सपना... ख्वाब...!

"सच मौसी !' वह एकदम चौंक गई और इसके साथ ही यह भी सोचे बिना न रह सकी- "हाय, दादा जी! आपने जाने में इतनी जल्दी क्यों की?"

काश! वह अपना ख्वाब उन्हें सुना सकती और उनसे मार्ग-दर्शन पा सकती। शायद वो ही उसे इस मानसिक यातना से मुक्ति दिला सकते।

"हां, यह सच है।" गंगा मौसी गम्भीरता के साथ बोली ।

"मौसी, एक बात बताए-उल्लू के बारे में आपका क्या ख्याल है?"

"अरे! यह अचानक तुम्हें उल्लू का ख्याल कैसे आ गया?" गंगा मौसी ने गर्दन घुमाकर उसकी तरफ देखा। मौसी हकीकत में बड़ी हैरान थी।

"बड़ा ही रहस्यमय व मिसटीरियस परिन्दा है।" मौसी के जवाब देने से पहले ही अमर बोल उठा- ''वेस्ट' वाले उन्हें दार्शनिक समझते हैं। अक्ल व ज्ञान का लक्षण मानते हैं।" यूरोप के एक बड़े पब्लिशर ने उल्लू की तस्वीर को अपना मोनोग्राम बनाया हुआ है और ईस्ट वाले उव्ह, को वेवकूफ

समझते हैं। हमें किसी को मूर्ख बेवकूफ कहना हो तो उल्लू कह देते है।

"अक्लमंद या बेवकूफ का तो मुझे मालूम नहीं हां, अपने बड़ों से इसकी मनहूसियत के बारे में जरूर सुना है। उल्लू जहा बैठते है वहां वीरानी फैलने लगती है। शायद इसी कारण यह उल्लू बोलने का मुहावरा बना है।" गंगा मौसी का जवाब था।

बस इसी तरह की बातें करते हुए वे दादा हरी ओम के घर पहुंच गए। काफी लोग इकट्ठे हो चुके थे और जैसे-जैसे लोगों को उनकी मौत की खबर मिलती जा रही थी संख्या बढ़ती जा रही थी।

इन्सान की वास्तविक लोकप्रियता का अंदाजा उसकी मौत के बाद होता है। जिन्दगी में तो बहुत-से स्वार्थ आदमी की एक-दूसरे के द्वार पर ले जाते हैं। लेकिन आदमी मरने के बाद तमाम स्वार्थों व जरूरतों से मुक्त हो जाता है कुछ भी तो नहीं रह जाता, न दौलत रहती है, न कुर्सी रहती है और ना ही हैसियत रहती है। बस मिट्टी का पुतला जो राख बनने को रह जाता है। तब मालूम होना है वह किसके कितने काम आया।

औपचारिकताओं के बाद जब दादा जी की अर्थी उठी तो मालूम हुआ कि दादा क्या चीज थे। बहुत से लोग थे उनकी इस शवयात्रा में और हर आंख आसुओं से भरी थी। अपनी जिन्दगी में दादा हरी ओम ने जाने कितने लोगों का दर्द बांटा होगा, कितने लोगों का बोझ उठाया होगा। ओज वही लोग दादा को अपने कन्धों पर उठाए हुए थे।
Post Reply