स्वाहा

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Re: स्वाहा

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काला चिराग, उन दोनों से विदा ले, जैसे ही झोपड़ी से बाहर आया, उसने बकाल को घोड़े पर सवार अपने सामने पाया।

घोड़े पर बैठी वह एक शहजादी-सी लग रही थी।

काले चिराग को देखकर उसने एक कहकहा लगाण। फिर व्यंग्यपूर्ण आवाज में बोली- "आ गया तू मेरी जान के दुश्मन?"

काला चिराग असहाय सा बोला- मैं तेरी जान का दुश्मन नहीं हूँ बकाल । "

"फिर तू अन्दर बैठा क्या मेरी कुशलता की दुआ मांग रहा था?" व्यंग्य भरे स्वर में पूछा बकाल ने।

"हां, यही समझ मैं चाहता हूँ कि तू इस मासूम इन्सान को छोड़ दे और मेरी हो जा...!" "तेरी हो जाऊं।" यह कहकर बकाल बहुत जोर से हंसी- "चमगादड़ की संतान तू है क्या, कभी तूने अपनी औकात पर गौर किया है। "

"मैं जो कुछ भी हूँ बस तेरा हूँ तुमसे प्रेम करता हूँ।"

"मैं तेरी मुहब्बत को अपने घोड़े की 'सूम' तले रखती हूँ।"

"बकाल तू मेरा चाहे जितना अपमान कर ले पर मेरी मुहक्वत को बेइज्जत न कर।" वह तड़प उठा ।

"नहीं तो क्या होगा ?" वह फुंफकारी।

"मैं देवा काली के दरबार में जाऊँगा।" काले चिराग ने सिर उठाया।

"दरबार में?" बकाल जैसे यह बकाल सुनकर पागल हो गई। पागलों की तरह हंसने लगी। फिर हसंते हुए बोली "तू जाएगा देवा काली के दरबार में तू देवा काली के स्नानागार में तो जा सकता है पर तेरा दरबार में जाना आसान नहीं। चमगादड़ के बच्चे, अपनी औकात न भूल... अपनी जात न भूल । "

"प्यार की कोई जात नहीं होती। कोई नस्त नहीं होती। प्रेम तो अंधा होता है।" वह जैसे अपने आप में गुम था ।

"चिन्ता न कर, मैं तुझे तेरी मुहब्बत की तरह अंधा कर दूंगी।" फिर उसने हाथ उठाकर इशारा किया- “बन्दी बना लो इसे ।"

उसके आदेश का तत्सलं पालन हुआ। दो देवकाय खौफनाक सूरत बन्दे आगे बड़े और उन्होंने देखते ही देखते काले

चिराग को जंजीरों में जकड़ लिया और फिर उसे खींचते हुए बकाल के सामने ले जाकर खड़ा कर दिया।

"मैं जानती हूँ तू अन्दर बैठा क्या कर रहा था। तू इन्द्रजीत की बहन को लेकर, देवा काली के दरबार में मेरा मुकद्दमा पेश करने की मंत्रणा कर रहा था। तेरी मंशा मुझे दण्ड दिलवाने की है और तू इन्द्र को उसकी दुनिया में वापस भिजवाना चाहता है कि तेरा रास्ता साफ हो जाए और मैं तुझसे प्रेम करने लगूं। तेरी तरफ झुक जाऊं। ओ काले चिराग, क्या तूने भी अपनी सूरत देखी है? नहीं देखी तो किसी गन्दे जोहड़ किनारे खड़े होकर अपनी शक्ल देख । फिर मुझसे प्रेम करना । जाओ, ले जाओ इसे।"

वे दोनों खौफनाक देवकाय शख्स अपने घोड़ों पर सवार हुए। दोनों के हाथ में जंजीर का सिरा था। दोनों ने एक

अजीब सी आवाज निकालकर एक-साथ अपने घोड़ों को एड़ लगाई। घोड़े सरपट दौड़ने लगे।

काला चिराग जंजीरों में बंधा रेत पर घसीटता चला जा रहा था। बकाल इस नजारे को बड़े गर्वित अंदाज में देखती रही। यहां तक कि काला चिराग उड़ती रेत के बीच गायब हो गया।

तब बकाल अपना घोड़ा बढ़ाकर झोपड़ी के दरवाजे पर पहुंची।

रेखा झोपड़ी के अन्दर बैठी बाहर होने वाली कोई भी कार्रवाई को देख और सुन रही थी। बकाल को निकट आते
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Re: स्वाहा

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देखकर वह फौरन उठकर इन्द्र के पास चली गई। वह समझ नहीं पा रही थी कि वह इस चुड़ैल का सामना किस तरह करे।

इन्द्रजीत ने अपना सूखा हाथ रेखा के कंधे पर रखकर धीरे से दबाया। जिसका मतलब था कि परेशान न हो।

काल अन्दर आई। उसने तीखी निगाहों से रेखा को देखा। रेखा ने भी उसे सिर से पांव तक देखा। फिर दोनों एक-दूसरे की आंखों में आंखें डालकर देखने लगी। कितने ही क्षण दोनों इसी मुद्रा में रहीं।

""बहुत खूबसूरत हो ?" बकाल ने पहल की। पता नहीं यह सवाल था या उद्द्वार !

"कम कुछ तुम भी नहीं हो।" रेखा तीखे स्वर में बोली।

"तुम मेरे बारे में अभी कुछ नहीं जानती।" यह हंसी ।

"मैं अपने भाई की हालत देख रही हूँ। इससे अधिक जानने की कामना भी नहीं है।"

"तुम्हारा भाई मुझे बहुत अच्छा लगता है।" वह हंसकर बोली।

"जो अच्छा लगता हो उसकी ऐसी दुर्गत बना देना शायद तुम्हारी दुनिया की रीत है।"

"बस, अब कुछ ही दिनों की बात है। उसके बाद तुम्हारा भाई हर दुःख, ही पीड़ा से मुक्त हो जाएगा। इसके चेहरे पर ग्रहण लगा हुआ है, बस...।" "हां! चांद को ग्रहण लग चुका है और यह शुभ और अच्छी बात नहीं।" रेखा ने उसकी बात काटी।

"तुम्हारी दुनिया में इसे बुरा समझा जाता होगा। मेरे लिए तो यह अपार प्रसन्नता की बात है। मैंने बड़ी मेहनत की है।

बड़े यत्न किए हैं। अब मुझे इसका फल मिलने वाला है।" वह चहकती-सी बोली थी।

"भूल जाओ...।" रेखा ने बड़ी रूखाई से कहा ।

"किस बात को ?" बकाल हैरान हुई।

"मेहनत के फल को । अब तुम्हें कुछ नहीं मिलेगा । " रेखा ने दृढ़ लहजे में कहा।

"वह क्यों...?" बकाल ने पूछा।

"मैं जो आ गई।"

"तुम आई नहीं हीं लाई गई हो...।"

"जानती हूँ । काला चिराग मुझे लेकर आएं हैं।" रेखा बोली- "बहुत ही अच्छा और नेकदिल इंसान है वह । " "उस चमगादड़ के बच्चे का नाम इतने सम्मान के साथ न लो। वह तुम्हें तुम्हारी दुनिया से नहीं लाया है।" बकाल गुस्से से बोली।

"अच्छा, फिर कौन लाया है?" रेखा उसे घूरने लगी।

"मेरा भाई लाया है।" बकाल ने बताया।

"कौन भाई?" रेखा की समझ में नहीं आया।

"वह भाई जिसने तुम्हें डायरी भेंट की थी...।"

"तुम्हारे भाई का नाम राकल तो नहीं..?"
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Re: स्वाहा

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"हा, मेरे भाई का नाम राकल है और यह नाम तुम्हें इस चमगादड़ के बच्चे ने बताया होगा।"

"उन्होंने नाम ही नहीं, तुम्हारे भाई की खूबियां भी बनाई थी।"

"वह क्या?"

"यही कि राकल, एक शक्तिशाली, अभ्यास-विलासी, रंगबाज शख्त का नाम है।" "ज्यादा बकवास मत करो।" बकाल विफर उठी।

"यह मैंने नहीं कहा। मैं तो उनकी अहसानमंद हूँ। उनकी दी हुई डायरी से मुझे अपने अज्ञात अतीत का पता मिला...।'' रेखा ने होशियारी से बात का रुख बदलते हुए कहा ।

"कहां है वह डायरी?" बकाल का लहजा नर्म हुआ।

"यहां है... मेरे पास... मेरे बैग में...।" रेखा ने बताया। "निकालो...।" बकाल ने आदेश दिया।

इन्द्रजीत खामोश निगाहों से उसे देख रहा था। बकाल अभी तक उससे सम्बोधित नहीं हुई थी। रेखा डायरी निकालने के लिए उठी तो उसका ध्यान इन्द्र की तरफ गया। इन्द्रजीत को अपनी तरफ देखते पाकर वह बड़े ही मोहक अंदाज में मुस्कराई और बड़े प्यार भर लहजे में बोली-

"कैसे हो प्रियतम...?"

"ठीक हूँ। तुम्हारी कृपा दृष्टि है।"

तभी रेखा ने डायरी बेग से निकालकर उसकी तरफ बढ़ाई "यह लो...। तुम इसे वापस लेना चाहती हो तो ले लो।"

बकाल ने कोई जवाब नहीं दिया। वह खामोशी से डायरी के पेज पलटती रही। पृष्ठ पलटते हुए उसके चेहरे पर मुस्कराहट फैलती जा रही थी। फिर अचानक उसने डायरी बंद की और रेखा से सम्बोधित होते हुए बोली- "यह डायरी अब तुम्हें वापस नहीं मिल सकती।"

"तोहफा देकर वापस लेना....क्या यह भी तुम्हारी दुनिया की रीत है?" रेखा ने व्यंग्य से कहा ।

" अब यह डायरी तुम्हारे लिए बेकार है। तुम इससे जो लाभ उठा सकती थी वह उठा चुकी। अब इस डायरी को तुम्हारे पास नहीं रहना चाहिये। तुम्हें इससे नुकसान पहुंच सकता।"

"यह डायरी भला क्या नुकसान पहुचा सकती है?" इस बार इन्द्र ने मुंह खोला। उसी ने पूछा था।

"अरे, कुछ नहीं भैया, यह इस डायरी को वापस लेना चाहती थी...सो ले ली...1" रेखा बोली।

"जाहिर है यह नहीं चाहती कि इस डायरी से हमें आईदा कोई लाभ मिले।"

"बकाल ने रेखा को घूरकर देखा लेकिन बोली कुछ नहीं। फिर उसने वह डायरी झोपड़ी की छत की तरफ उछाली और वह डायरी देखते ही देखते तोता बन गई। और तोता बनकर झोंपड़ी का एक चक्कर लगाकर दरवाजे से बाहर निकल गया।

"चलो, उठो...।" तोते के निकल जाने के बाद बकाल बोली।

"" कहां चलूं..?" रेखा ने पूछा।

"तुम्हें मेरे साथ चलना होगा।" बकाल का लहजा आदेशपूर्ण था।

"तुम मेरी बहन को कहां ले जान चाहती हो? इन्द्र ने परेशान होकर पूछा।
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Re: स्वाहा

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"यह मेरे भाई राकल की अमानत है। इसे राकल के पास होगा।" बकाल ने बड़े रहस्यमय अंदाज में कहा-"आओ, उठो । रेखा या शीना ... जो भी तुम्हारा नाम है। "

"मेरा नाम रेखा है। लेकिन मुझे शीना बनते ज्यादा देर नहीं लगती...!"

"मुझे इससे कोई फर्क नहीं पड़ा।" बकाल उपहासपूर्ण मुस्कान साथ बोली- "यहां किसी को भी कोई फक नहीं पड़ेगा। आओ, चलो। बाहर सवारी तुम्हारी प्रतीक्षक है।" यह कहकर उसने रेखा का हाथ पकड़ लिया।

'उसके हाथ पकड़ते ही रेखा जैसे सम्मोहित-सी उठी, बकाल के हाथ पकड़ने के अंदाज में ही कुछ ऐसी बात थी कि रेखा विरोध की इच्छा करते हुए भी विरोध नहीं कर पाई। दरवाजे की तरफ बढ़ने से पहले बकाल की नजर उसके बैग पर पड़ी तो उसने पूछा- "यह तुम्हारा बैग है?"

" और किसका होगा?"

"क्या है इसमें...?"

"मेरी जरूरत की चीजें।"

"फिर बैग भी साथ ले लो...।"

"बकाल, तुम मेरी बहन को नहीं ले जा सकती।" इन्द्रजीत को अचानक जोश आ गया।

"कौन रोकेगा मुझे...?" बकाल ने एक जोरदार कहकहा लगाया- "क्या तुम? जिससे हिला भी नहीं जाता।" "बकाल, तुमने मुझे तो बर्बाद कर दिया है, लेकिन मेरी बहन पर दया करो। " इन्द्रजीत ने अनुरोध किया।

"न मैंने तुम्हें बर्बाद किया है, न तुम्हारी बहन बर्बाद होगी, समझे...।" बकाल ने शुष्क स्वर में जवाब दिया- फिर रेखा से मुखातिब हो बोली - "आओ, चलो।"

और वह रेखा का हाथ पकड़कर तेजी से बाहर निकल गई। इन्द्रजीत कुछ बोलना चाहता था, लेकिन बोल न सका। वह अपने दोनों हाथ मलता रह गया।
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Re: स्वाहा

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रेखा बाहर निकली तो उसने झोपड़ी के सामने एक सजी-सजाई ऊंटनी को पाया, जो बैठी हुई थी।

बकाल ने उसे उस ऊंटनी पस सवार कर दिया और खुद निकट खड़े घोड़े पर बैठ गई। बकाल के पीछे आठ सशस्त्र घुड़सवार मौजूद थे, बकाल के इशारे पर दो घुड़सवार आगे आए ऊंटनी के आगे खड़े हो गए। दो घुड़सवार ऊंटनी के पीछे और उनके पीछे- बकाल और शेष चारों घुड़सवार ।

तब बकाल ने कूच का इशारा किया। दो घुड़सवारों ने अजीब सी आवाज निकाली। वह ऊंटनी उठकर खड़ी हो गई। . और फिर यूं अगले ही क्षण बकाल का यह छोटा-सा काफिला दक्षिण दिशा की तरफ धूल उड़ाता हुआ रवाना हो गया। तीन घन्टे के फासले के बाद, जब सूर्य पश्चिम में झुकने लगा, सामने किसी इमारत के आसार नजर आए। यह किसी

प्राचीन भवन के खण्डहर थे। खण्डहर, सूरज की पीली रोशनी में इन खण्डहरों का रंग और भी चमक उठा था। फिर

वे लोग इन खण्डहरों में प्रवेश कर गये। इन खण्डहरों के बीच एक रास्ता अन्दर को जाता था, रास्ता तंग था, लेकिन

इतना तंग नहीं था कि दो साथ न गुजर सकें।

ये बड़े अजीब से खण्डहर थे। ऊंची-नीची दीवारें थीं। इन दीवारों के बीच अंदर दाखिल होने को बिना 'पट' के दरवाजे थे। ये दीवारें न तो टूटी-फूटी थीं और न ही राह अहसास होता था कि यह कोई विधिवत् भवन है।

यह छोटा-सा काफिला इन खण्डहरों के बीच घूमता-घामता काफी अन्दर तक चला गया।

तब अचानक ही एक बड़ा-सा दरवाजा नजर आया। यह विशाल फाटकनुमा दरवाजा बन्द था, अगले दो घुड़सवारों ने दरवाजे के सामने खड़े होकर चीखकर कहा-

"दरवाजा खोलो बकाल की सवारी आई है।"

यह आवाज सुनते ही छ: आदमी दरवाजे की दाहिनी दिशा में बनी कोठरी से निकले और छ: आदमी बाई तरफ की

कोठरी से बाहर आर और उन सबने मिलकर उस विशाल भारी दरवाजे को खोला।

दरवाजा खुलते ही सारे घुड़सवार घोड़ों से उतर गए। रेखा को ऊंटनी से उतारा गया। बकाल भी अपने घोड़े से कूद आई थी। जैसे ही रेखा ऊंटनी से नीचे उतरी, बकाल ने उसका हाथ थाम लिया और वे दोनों दरवाजे के अन्दर दाखिल हो गई। उनके भीतर जाते ही उन बारह आदमियों ने मिलकर पट बन्द कर दिये और अपनी कोठरियों में वापस चले गए।

फाटक के दूसरी तरफ सामने ही सीढ़ियां थीं।

दरवाजा बन्द होते ही बकाल ने सीढ़ियां चढ़ना शुरू की। सीढ़ियां चढ़ते-बढ़ते रेखा को ऊपर एक दरवाजा नजर आया। इस दरवाजे पर एक हथियारबंद दरबान मौजूद था। वह बकाल को देखकर उसके सम्मान में कमर के बल झुका, फिर सीधा होकर बोला- "क्या आदेश है, बकाल?"

"राकल से मिलना चाहती हूँ। उसकी अमानत उसे सौंपने आई हूँ..।"

"अच्छा, ठहरो।" दरबान ने आगे बढ़कर बंद दरवाजे पर लगी जंजीर को एक विशिष्ट अंदाज में बजाया । कुछ ही क्षणों में दरवाजे में एक छोटी-सी खिड़की खुली और उसमें से एक शख्स ने अपना मुंह चमकाया, बोला-

" हा क्या कहते हो?"

"राकल को एचना दो, बकाल आई है...साथ ही उसकी अमानत भी साथ लाइ हे। " दरबान ने बताया।

"ठीक है। " कहते हुए उस शख्स ने खिड़की बन्द कर ली।

कुछ देर बाद दरवाजा खुला। रेखा को दूसरी तरफ एक बहुत बड़ा उल्लू नजर आया जो सामने के चबूतरे पर अपनी एक टांग पर खड़ा था और उसने अपनी एक आंख बन्द कर रखी थी बराबर में एक बहुत बड़ा स्तून था ।
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