आ गई कि वह फौरन झोंपड़ी में दाखिल हो गया। अगर उसने फुर्ती न दिखाई होती तो उसका धायल हो जाना यकीनी था।
अपने शिकार को झोंपड़ी में घुसते देखकर, उल्लू ऊपर की तरफ उठा और झोपड़ी के ऊपर से उड़ता हुआ दूर
निकल गया। फिर एक चक्कर लगाकर वापस उस झोंपड़ी की छत पर आ बैठा।
इन्द्रजीत को उल्लू के इस हमले से यह अंदाजा लगाने में देर न लगी कि इस झांपड़ी का दरवाजा बन्द न होने और
. किसी निगरान की अनुपस्थिति के वावजूद वह झोंपड़ी से बाहर नहीं निकल सकता। यहां कुछ अदृश्य-मायावी रक्षक
मौजूद हैं।
दो-तीन दिन बीत गए।
इन दिनों में झोंपड़ी में कोई नहीं आया था। लेकिन खाने-पीने की कोई परेशानी नहीं हुई थी। खाना खत्म होने पर कपड़े के नीचे ट्रे में दूसरा ताजा खाना आ जाता -पानी के कम होने पर खुद-ब-खुद ही पानी से भर जाती। ट्रे में खाना व सुराही में पानी डालकर जाने वाला, इन्द्रजीत को प्रयत्नोपरान्त भी नजर नहीं आया था। इन तीन दिनों में वह किसी से बात करने किसी की शक्ल देखने को तरस गया था।
विकाल- विस्तृत रेगिस्तान, इकलौती झोंपड़ी और इस झोंपड़ी में एक अकेला आदमी। शायद यही कैदे तन्हाई (एकान्त कैद ) थी।
फिर सात दिन बीत गए।
इन सात दिनों में पौष्टिक खुराक और आराम का ही जादू था कि इन्द्रजीत की कमजोरी जाती रही थी। वह भला चंगा है। गया था। शारीरिक शक्तियां लौट आई थीं। हाथ-पैरों की रंगत में सुखी आ गई थी।
तब 'वह' फिर आई।
वह सातवीं रात थी। चांदनी छिटकी हुई थी। ठण्डी हवा चल रही थी। झोपड़ी के भीतर मलगजा उजाला फैला हुआ था।
इन्द्रजीत दरवाजे की तरफ मुंह किये लेटा हुआ था, बाहर चांदनी बरस रही थी। चौदहवीं का चाद रेत के चमकते कणों को और भी चमका रहा था। बाहर हर तरफ उजाला फैला हुआ था। अत्यन्त ही मंत्र-मुग्ध कर देने वाला स्वप्निल सा वातावरण था।
ऐसे में ही इन्द्रजीत को, खुले दरवाजे से, वह मायावी स्वप्न सुन्दरी आती नजर आई थी, जिसने उक्की हंसती-मुस्कराती जिन्दगी उजाड़ दी थी। उससे उसकी प्रेयसी छीन ली थी। उसे इन वीरानों का कैदी बना दिया था । इस पर उसका वह अमल-जिसके पाश में वह अपनी सुध खो बैठता था और इस वेसुधी से वह जिस तरह इन्द्र का खून निचोड़ लेती थी उसमें सुख-आनन्द कम और शोषण अधिक था। 'वह' अपनी सन्तुष्टि कर लेती थी और इन्द्र का सारा खून जैसे अपने आप में जज्ब कर लेती थी।
और यूं इन्द्रजीत अधमरा केंचुआ-सा बनकर रह जाता था। रक्तविहीन, शक्तिहीन चुसा निचुड़ा सा केंचुआ ।
इन्द्रजीत उसे आते देखकर उठकर बैठ गया।
पूरे सात दिन बाद उसे किसी की दिखाई दी थी। चाहे वह उसकी खून की प्यासी बकाल कैंस? थी। बकाल श्वेत परिधान में थी और आते हुए वह किसी भटकती हुई आत्मा की तरह लग रही थी।
स्वाहा
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Re: स्वाहा
बकाल शायद आत्मा तो न थी, लेकिन भटकती हुई जरूर गई।
इन्द्रजीत की मोहिनी सूरत और चढ़ती जवानी ने उसे भटका दिया था। वह किसी 'देवा काली' के आदेश पर इन्द्रजीत को सजा देने आई थी। उसने योगी तांत्रिक को सजा दे भी दी थी।
इन्द्रजीत को भी सजा देने की तैयारी वह पूरी कर चुकी थी लेकिन जब उसने इन्द्रजीत को देखा तो अपना दिल हार बैठी। यह भी भूल गई थी कि वह इन्द्रजीत के पीछे को आई थी।
इन्द्रजीत, साक्षात कामदेव ही तो था कटारी और राजकुमारी नयना उसके सजीलेपन और चुम्बकीय व्यक्तित्व का शिकार हुई थीं और अब बकाल भी उसे देखते ही अपना दिल हार बैठी थी।
मायावी बकाल उसे अपने साथ उठा लाई थी और उसे ऐसी जगह बन्दी बना दिया था जहां से किसी का गुजर नहीं था। राजू मदारी ने ऊपर जाते हुए इन्द्रजीत का हाथ बकाल के हाथ में पकड़ा दिया था...उसे अपन अपराधी की पहचान करवा दी थी। उसे यकीन था कि उसके सिद्ध आराध्य देव 'देवा काली' ने जिस किसी को भी भेजा है वह इन्द्रजीत से उसका प्रतिशोध अवश्य लेगा। अब वह क्या जानता था कि शिकारी ही शिकार हो जाएगा। राजू मदारी अगर यह जानता होता तो उसने इन्द्रजीत का हाथ बकाल के हाथ में कदापि नहीं थमाना था।
वैसे मायावी बकाल का प्यार भी किसी सजा और प्रतिशोध से कम न था। अपने आत्म के लिए वह इन्द्रजीत की जान ही तो निकाल लेती थी। इन्द्रजीत के लिए बड़ा कष्टदायक साबित होता था उसका प्यार उसे यही महसूस होता था जैसे बकाल उसके सारे बदन का खून अपने आप में जज्ब कर लेती हो। वैसे बाद में इन्द्रजीत को जो सहना पड़ता था, वह अपनी जगह पर बकाल का यह खेल उसे जिस नशे, आनन्द और तुप्तियों का अहसास कराता था उसका कोई जवाब न था ।
कमजोरी मिटते हीं इन्द्रजीत चाहे अनचाहे बकाल के सामीप्य के उन्हीं क्षणों की कामना करने लगता था।
शायद यही वजह थी कि अब जब बकाल, अपने उसी प्रलयंकारी यौवन के साथ नजर आई तो इन्द्रजीत उसे देखते ही दोहरी मानसिकता का शिकार हो गया। उसे बकाल को देखकर खुशी भी हुई और रंज भी हुआ।
और फिर अब जब बकाल बड़ी कामुक अदा के साथ चलती हुई झोपड़ी के दरवाजे पर रुकी और फिर झुककर झोपड़ी के दरवाजे, में दाखिल र्झ तो इन्द्रजीत की नजर के सामने बिजलियां सी कौंध गयीं।
बकाल मुस्कराकर सीधी खड़ी हुई।
उसने इन्द्रजीत को किसी ताजा फूल की मानिन्द खिले व पूर्णतः स्वस्थ और चाक-चौबन्द बैठे देखा तो उसकी आंखों की चमक बढ़ गई । और यह चमक अपनी कामनाएं खुद ही ब्यान कर रही थीं। यही लगता था कि वह इन्द्रजीत को स्वस्थ देखकर अन्दर ही अन्दर बहुत खुश हुई थी। और यह थी वैसी ही थी जैसी मलाई का भरा कटोरा देखकर किसी बिल्ली की होती है।
बकाल उसके सामने अपने घुटनों के बल बैठ गई-जैसे किसी देवता के चरणों में कोई दासी आ बैठे। इन्द्रजीत उसे खामोश बैठा निहारता रहा। क्या बोले ? यही नहीं सूझ रहा था । '
"कैसे हो मेरे जादूगर ?" बकाल ने मुस्कराते हुए पूछा। और बेहद मीठी थी उसकी आवाज ।
''मैं... मैं बहुत बुरा हूँ बकाल ।" इन्द्रजीत ने अजीब से लहजे में कहा- "दीन-हीन और असहाय...।" बकाल खिलखिलाकर हंस दी, बोली- "दिख तो नहीं रहे ऐसे और फिर जो बकाल की चाहत हो वो दीन-हीन या
असहाय कैसे हो सकता है।"
"तुम मुझे कहां ले आई हो, बकाल?" इन्द्रजीत ने खुद को सम्भालते पूछा था वह बकाल की बहका देने वाली बातों बचना चाहता था। लेकिन बकाल ने बदस्तूर जज्वाती स्वर में जवाब दिया, "अपनी दुनिया में, अपने करीब और तुम्हारे अपने लोगों से दूर। वहां, जहा तुम्हारी मदद को तुम्हारा अपना कोई नहीं आ सकता। कोई आना भी चाह तब भी नहीं आ सकता । तुम मेरे हो मेरे लिए हो। किसी की मदद की उम्मीद न रखना, मेरे प्रियतम । "
इन्द्रजीत की मोहिनी सूरत और चढ़ती जवानी ने उसे भटका दिया था। वह किसी 'देवा काली' के आदेश पर इन्द्रजीत को सजा देने आई थी। उसने योगी तांत्रिक को सजा दे भी दी थी।
इन्द्रजीत को भी सजा देने की तैयारी वह पूरी कर चुकी थी लेकिन जब उसने इन्द्रजीत को देखा तो अपना दिल हार बैठी। यह भी भूल गई थी कि वह इन्द्रजीत के पीछे को आई थी।
इन्द्रजीत, साक्षात कामदेव ही तो था कटारी और राजकुमारी नयना उसके सजीलेपन और चुम्बकीय व्यक्तित्व का शिकार हुई थीं और अब बकाल भी उसे देखते ही अपना दिल हार बैठी थी।
मायावी बकाल उसे अपने साथ उठा लाई थी और उसे ऐसी जगह बन्दी बना दिया था जहां से किसी का गुजर नहीं था। राजू मदारी ने ऊपर जाते हुए इन्द्रजीत का हाथ बकाल के हाथ में पकड़ा दिया था...उसे अपन अपराधी की पहचान करवा दी थी। उसे यकीन था कि उसके सिद्ध आराध्य देव 'देवा काली' ने जिस किसी को भी भेजा है वह इन्द्रजीत से उसका प्रतिशोध अवश्य लेगा। अब वह क्या जानता था कि शिकारी ही शिकार हो जाएगा। राजू मदारी अगर यह जानता होता तो उसने इन्द्रजीत का हाथ बकाल के हाथ में कदापि नहीं थमाना था।
वैसे मायावी बकाल का प्यार भी किसी सजा और प्रतिशोध से कम न था। अपने आत्म के लिए वह इन्द्रजीत की जान ही तो निकाल लेती थी। इन्द्रजीत के लिए बड़ा कष्टदायक साबित होता था उसका प्यार उसे यही महसूस होता था जैसे बकाल उसके सारे बदन का खून अपने आप में जज्ब कर लेती हो। वैसे बाद में इन्द्रजीत को जो सहना पड़ता था, वह अपनी जगह पर बकाल का यह खेल उसे जिस नशे, आनन्द और तुप्तियों का अहसास कराता था उसका कोई जवाब न था ।
कमजोरी मिटते हीं इन्द्रजीत चाहे अनचाहे बकाल के सामीप्य के उन्हीं क्षणों की कामना करने लगता था।
शायद यही वजह थी कि अब जब बकाल, अपने उसी प्रलयंकारी यौवन के साथ नजर आई तो इन्द्रजीत उसे देखते ही दोहरी मानसिकता का शिकार हो गया। उसे बकाल को देखकर खुशी भी हुई और रंज भी हुआ।
और फिर अब जब बकाल बड़ी कामुक अदा के साथ चलती हुई झोपड़ी के दरवाजे पर रुकी और फिर झुककर झोपड़ी के दरवाजे, में दाखिल र्झ तो इन्द्रजीत की नजर के सामने बिजलियां सी कौंध गयीं।
बकाल मुस्कराकर सीधी खड़ी हुई।
उसने इन्द्रजीत को किसी ताजा फूल की मानिन्द खिले व पूर्णतः स्वस्थ और चाक-चौबन्द बैठे देखा तो उसकी आंखों की चमक बढ़ गई । और यह चमक अपनी कामनाएं खुद ही ब्यान कर रही थीं। यही लगता था कि वह इन्द्रजीत को स्वस्थ देखकर अन्दर ही अन्दर बहुत खुश हुई थी। और यह थी वैसी ही थी जैसी मलाई का भरा कटोरा देखकर किसी बिल्ली की होती है।
बकाल उसके सामने अपने घुटनों के बल बैठ गई-जैसे किसी देवता के चरणों में कोई दासी आ बैठे। इन्द्रजीत उसे खामोश बैठा निहारता रहा। क्या बोले ? यही नहीं सूझ रहा था । '
"कैसे हो मेरे जादूगर ?" बकाल ने मुस्कराते हुए पूछा। और बेहद मीठी थी उसकी आवाज ।
''मैं... मैं बहुत बुरा हूँ बकाल ।" इन्द्रजीत ने अजीब से लहजे में कहा- "दीन-हीन और असहाय...।" बकाल खिलखिलाकर हंस दी, बोली- "दिख तो नहीं रहे ऐसे और फिर जो बकाल की चाहत हो वो दीन-हीन या
असहाय कैसे हो सकता है।"
"तुम मुझे कहां ले आई हो, बकाल?" इन्द्रजीत ने खुद को सम्भालते पूछा था वह बकाल की बहका देने वाली बातों बचना चाहता था। लेकिन बकाल ने बदस्तूर जज्वाती स्वर में जवाब दिया, "अपनी दुनिया में, अपने करीब और तुम्हारे अपने लोगों से दूर। वहां, जहा तुम्हारी मदद को तुम्हारा अपना कोई नहीं आ सकता। कोई आना भी चाह तब भी नहीं आ सकता । तुम मेरे हो मेरे लिए हो। किसी की मदद की उम्मीद न रखना, मेरे प्रियतम । "
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Re: स्वाहा
"यह जोर-जबरदस्ती अच्छी नहीं है, बकाल। अगर मैं खुद यहां से फरार हो जाऊं तो...?"
उसे कुरेदने को ही पूछ डाला था इन्द्रजीत ने । काल बदस्तूर मुस्कराते हुये और बेहद मीठे-मीठे बोली- "ऐसा सोचना भी मत। तुम किसी और के नहीं बकाल के
कैदी हो!"
"तो क्या...? क्या होगा... जब तक तुम मेरे पास लौटकर आओगी... मैं जाने कहां से कहां जा चुका होऊंगा...।"
"एक दिन तुमने निकलकर देखा तो था फिर दोबारा निकलकर देख लेना।" व्यंग्यपूर्ण मुस्कान तैर आई थी बकाल के रसीले अधरों पर, "तुम्हें सब मालूम हो जाएगा। जब इस झोपड़ी की छत पर बैठा मेरा निगरान अपने खुंखार पंजों से तुम पर हमला करेगा तो तुम्हें इस झोपड़ी के अन्दर आकर ही पनाह मिलेगी। वैसे आज जाते हुये मैं एक और निगरान को भी तैनात कर जाऊंगी।
"मैं... मैं यहां कब तक कैद रहूँगा?" इन्द्रजीत ने खुद को शांत रखने की कोशिश करते पूछा।
वह खनकती हंसी हंसी, फिर बोली- "कब तक का क्या मतलब? यह तुम्हारी उम्र कैद है। तुम्हें क्या यहां कोई परेशानी है, मेरे जादूगर... ?"
"नहीं, मझे क्या परेशानी ने सकती है यहां में यहां बड़े आराम से हूँ।" इन्द्रजीत ने व्यंग्यपूर्ण लहजे में कहा। "अच्छा, ऐसा करो मुझसे एक जादू सीख लो। इसके सदके तुम अपनी पसन्द और मर्जी से खाने-पीने की चीजें मंगवा सकोगे। छोटी-मोटी जरूरतें भी पूरी हो सकती हैं।"
इन्द्रजीत ने फौरन सहमति दर्शायी क्योंकि खाने-पीने को जो कुछ मिल रहा था, वह उसकी रूचि का नहीं था। फिर
एक निश्चित वक्त पर ही मिलता था। यह जादू साखने के बाद उसे दम मे कम से कम खाने-पीने की आजादी तो मिल
जानी थी।
बकाल ने उसे तीन शब्द बताए। इन शब्दों को कितनी बार और किस कम से दोहराना है और दोहराकर फिर क्या
करना है यह सब इन्द्रजीत ने बकाल से सीख लिया और उसके सामने आजमा भी लिया। वह अब इस जादू के जरिये अपनी पसन्द का खाना मंगवा सकता था। वह खुश था। इन्द्र अब बकाल के सामने खुद
को सन्तुष्ट और खुश जाहिर कर रहा था। वह बोला-
"बकाल, एक बात पूछूं बताओगी।"
"हां, बताऊंगी। पूछा।"
"कुछ नयना के बारे में बता सकती हो?"
"तुम्हारी नयना तुम्हारी कमीज आपने हाथों में लिये बैठी है। कभी उसे आंखों से लगाती हैं... कभी उसे घूमती है। वह कई बार जंगल के चक्कर भी लगा चुकी है कि शायद तुम कहीं मिल जाओ...।" काल ने बताया।
"और बकाल कटारी का क्या हुआ... ?"
"बेचारी हटारी उसका अब कोई सहारा नहीं रहा। उसका बाप चल बसा और जिसे उसने अपने मन-मन्दिर में बैठाया था, उसकी कोई खबर नहीं। उसके कबीले के कुछ लोग शहर जा रहे हैं। वह भा अपने रीछ और बन्दर के साथ शहर जाने की तैयारी कर रही है। दिन में कई बार वो नहर के पुल पर चक्कर मार जाती है और तुम्हारे न मिलने पर अपनी भीगी आंखों के साथ अपनी बस्ती में लौट जाती है।" बकाल ने बताया, फिर हंसकर बोली- "तुम कितने निर्दयी हो, मेरे जादूगर दो लड़कियों को अपनी चाहत मे फंसाकर यहां रेगिस्तान में आ बैठे हो। "
"हां तुम सही कहती हो...।" इन्द्रजीत संजीदगी ओढ़ते बोला- "अब एक तीसरी लड़की मेरे फरेब में आ फंसी है। में जल्दी ही उसे भी छोड़ जाऊंगा।"
उसे कुरेदने को ही पूछ डाला था इन्द्रजीत ने । काल बदस्तूर मुस्कराते हुये और बेहद मीठे-मीठे बोली- "ऐसा सोचना भी मत। तुम किसी और के नहीं बकाल के
कैदी हो!"
"तो क्या...? क्या होगा... जब तक तुम मेरे पास लौटकर आओगी... मैं जाने कहां से कहां जा चुका होऊंगा...।"
"एक दिन तुमने निकलकर देखा तो था फिर दोबारा निकलकर देख लेना।" व्यंग्यपूर्ण मुस्कान तैर आई थी बकाल के रसीले अधरों पर, "तुम्हें सब मालूम हो जाएगा। जब इस झोपड़ी की छत पर बैठा मेरा निगरान अपने खुंखार पंजों से तुम पर हमला करेगा तो तुम्हें इस झोपड़ी के अन्दर आकर ही पनाह मिलेगी। वैसे आज जाते हुये मैं एक और निगरान को भी तैनात कर जाऊंगी।
"मैं... मैं यहां कब तक कैद रहूँगा?" इन्द्रजीत ने खुद को शांत रखने की कोशिश करते पूछा।
वह खनकती हंसी हंसी, फिर बोली- "कब तक का क्या मतलब? यह तुम्हारी उम्र कैद है। तुम्हें क्या यहां कोई परेशानी है, मेरे जादूगर... ?"
"नहीं, मझे क्या परेशानी ने सकती है यहां में यहां बड़े आराम से हूँ।" इन्द्रजीत ने व्यंग्यपूर्ण लहजे में कहा। "अच्छा, ऐसा करो मुझसे एक जादू सीख लो। इसके सदके तुम अपनी पसन्द और मर्जी से खाने-पीने की चीजें मंगवा सकोगे। छोटी-मोटी जरूरतें भी पूरी हो सकती हैं।"
इन्द्रजीत ने फौरन सहमति दर्शायी क्योंकि खाने-पीने को जो कुछ मिल रहा था, वह उसकी रूचि का नहीं था। फिर
एक निश्चित वक्त पर ही मिलता था। यह जादू साखने के बाद उसे दम मे कम से कम खाने-पीने की आजादी तो मिल
जानी थी।
बकाल ने उसे तीन शब्द बताए। इन शब्दों को कितनी बार और किस कम से दोहराना है और दोहराकर फिर क्या
करना है यह सब इन्द्रजीत ने बकाल से सीख लिया और उसके सामने आजमा भी लिया। वह अब इस जादू के जरिये अपनी पसन्द का खाना मंगवा सकता था। वह खुश था। इन्द्र अब बकाल के सामने खुद
को सन्तुष्ट और खुश जाहिर कर रहा था। वह बोला-
"बकाल, एक बात पूछूं बताओगी।"
"हां, बताऊंगी। पूछा।"
"कुछ नयना के बारे में बता सकती हो?"
"तुम्हारी नयना तुम्हारी कमीज आपने हाथों में लिये बैठी है। कभी उसे आंखों से लगाती हैं... कभी उसे घूमती है। वह कई बार जंगल के चक्कर भी लगा चुकी है कि शायद तुम कहीं मिल जाओ...।" काल ने बताया।
"और बकाल कटारी का क्या हुआ... ?"
"बेचारी हटारी उसका अब कोई सहारा नहीं रहा। उसका बाप चल बसा और जिसे उसने अपने मन-मन्दिर में बैठाया था, उसकी कोई खबर नहीं। उसके कबीले के कुछ लोग शहर जा रहे हैं। वह भा अपने रीछ और बन्दर के साथ शहर जाने की तैयारी कर रही है। दिन में कई बार वो नहर के पुल पर चक्कर मार जाती है और तुम्हारे न मिलने पर अपनी भीगी आंखों के साथ अपनी बस्ती में लौट जाती है।" बकाल ने बताया, फिर हंसकर बोली- "तुम कितने निर्दयी हो, मेरे जादूगर दो लड़कियों को अपनी चाहत मे फंसाकर यहां रेगिस्तान में आ बैठे हो। "
"हां तुम सही कहती हो...।" इन्द्रजीत संजीदगी ओढ़ते बोला- "अब एक तीसरी लड़की मेरे फरेब में आ फंसी है। में जल्दी ही उसे भी छोड़ जाऊंगा।"
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Re: स्वाहा
"किसी भूल में न रहना मेरे जादूगर ! मैं कटारी या नयना नहीं हूँ... बकाल हू-बकाल । रेगिस्तान की शहजादी । इस रोयेस्तान का एक-एक कण मुझे सलाम करता है। यह तुम्हारी दुनिया नहीं है। यह मेरा जहान है। मुझे छोड़कर जाने से पहले तुम्हें अपनी जान छोड़नी होगी क्या समझे?" और इन्द्रजीत ने बड़े छुन और इत्मीनान से जवाब दिया- "कभी ऐसा वक्त आया यह भी कर गुजरुगा....। देख
लेना...।"
." बहुत जिद्दी हो...?" बकाल ने होंठ पिचकाते कहा और अपनी प्यासी चमकती आंखें इन्द्रजीत के चेहरे पर गाड़ दीं। वह अब सीधे इन्द्र की आंखों में झांक रही थी ।
इन्द्रजीत को ऐसा महसूस हुआ जैसे रेगिस्तान में अचानक तूफान आ गया हो। वह घबराकर बोला- "तुम...तुम क्या
करने जा रही हो?"
"कुछ भी तो नहीं...! बकाल ने सहज भाव से कहा, लेकिन अपनी चमकती आंखें बदस्तुर उसके चेहरे पर गाढ़े रही।
उसकी आंखों में जरूर कुछ था । इन्द्रजीत के दिमाग में आधी चलने लगी। हवा का शोर और उड़ते हुए रेत के बगोले । वह घबरा कर लेट गया।
और फिर वही हुआ जो होता था।
काल इसी क्षण की प्रतीक्षक थी। उसने इन्द्रजीत के पैरों के दोनों अंगूठे पकड़ लिये। बस फिर क्या था, इन्द्रजीत पर नींदगी और बेखुदी छाने लगी। बकाल किसी रंगिस्तानी बगीले की तरह उस पर छानी चली गई। उन महकते क्षणों में इन्द्र को अपना होश कहां था वह बेसुध होता गया।
आह! कैसी तृप्तता थी यह । इन्द्रजीत अपना आपा अपने होश खो बैठा। आनन्दात्तिरेक के इन क्षणों में वह हमेशा ही
अपने होश खो बैठता था। आज भी ऐसा ही हुआ।
और फिर जब उसे होश आया तो वह होशरुबा वह मायावी रूपसी जा चुकी था ।
लुटे-पिटे इन्द्रजीत की अब वही अवस्था थी जैसे बरसों का मरीज हाथों-पैरों में जान नहीं। दिमाग की सो खिंची हुई। सिर उठाओ तो चक्कर आ जाये.... अन्धेरा छा जाये। अभिसार के इस खेल की मदहोशियों, आनन्दप्रद क्षणों के बाद निर्बलता के ये जान लेवा क्षण असहनीय ही थे।
दिन चढ़ आया था। झोंपड़ी के दरवाजे से रोशनी अन्दर आ रही थी। लेकिन इन्द्रजीत की रगों में अन्धेरा फैला हुआ था। वह रेगिस्तानी जौंक उसके बदन का सारा खून पी गई थी।
देह-सुख, काम तृप्ति और फिर उसके बाद यह रक्त पिपासा... इन्द्रजीत को दीन-हीन और असहाय बना छोड़ जाती
थी मायावी बकाल ।
वही हुआ जो होता था। दो-चार दिन इन्द्रजीत अत्यधिक कमजोरी का रहा। फिर धीरे-धीरे उसकी शारीरिक शक्तियां लौटने लगी । इन्द्र ने अच्छा खा-पीकर खुद को तन्दरुस्त कर लिया। इस बीच बकाल की सूरत दिखाई नहीं दी वह शायद इन्द्रजीत के स्वस्थ हो जाने का इन्तजार कर रही थी।
बली के बकरे की तरह इन्द्रजीत इन दिनों में फिर पूर्णतः स्वस्थ और भला चंगा हो गया। ऐसा सेहतमंद कि अपने अवचेतन में वह बकाल के साथ इन्हीं क्षणों की ख्वाहिश करने लगा। पर फिर उस पर खौफ छा जाता था। बकाल का खौफ उसके साथ बीते क्षणों के बाद अपनी मरणासन्न अवस्था का खौफ।
और इसी खौफ के साये में उसके दिल में ख्याल आता कि वह यहां से फरार होने की कोशिश करे। पर वह इस ख्याल को अपने जहन से निकाल देता। शायद इसलिए कि एक तो उसे रास्ते का पता नहीं था कि किधर जाए। और अगर वह यूं ही किसी दिशा में निकल भी लेता तो बकाल के तैनात निगरानों का आतंक जहन में ऊपर आता था।
अपनी निगरानी पर तैनात उल्लू को वह देख ही चुका था। और बकाल ने जाते वक्त जिस दूसरे गार्ड को तैनाती कर. जाने का जिक्र किया था वह भी कम खतरनाक न था। बड़ा ही मायावी जाल था। बकाल जाने से पहले जिस दूसरे
लेना...।"
." बहुत जिद्दी हो...?" बकाल ने होंठ पिचकाते कहा और अपनी प्यासी चमकती आंखें इन्द्रजीत के चेहरे पर गाड़ दीं। वह अब सीधे इन्द्र की आंखों में झांक रही थी ।
इन्द्रजीत को ऐसा महसूस हुआ जैसे रेगिस्तान में अचानक तूफान आ गया हो। वह घबराकर बोला- "तुम...तुम क्या
करने जा रही हो?"
"कुछ भी तो नहीं...! बकाल ने सहज भाव से कहा, लेकिन अपनी चमकती आंखें बदस्तुर उसके चेहरे पर गाढ़े रही।
उसकी आंखों में जरूर कुछ था । इन्द्रजीत के दिमाग में आधी चलने लगी। हवा का शोर और उड़ते हुए रेत के बगोले । वह घबरा कर लेट गया।
और फिर वही हुआ जो होता था।
काल इसी क्षण की प्रतीक्षक थी। उसने इन्द्रजीत के पैरों के दोनों अंगूठे पकड़ लिये। बस फिर क्या था, इन्द्रजीत पर नींदगी और बेखुदी छाने लगी। बकाल किसी रंगिस्तानी बगीले की तरह उस पर छानी चली गई। उन महकते क्षणों में इन्द्र को अपना होश कहां था वह बेसुध होता गया।
आह! कैसी तृप्तता थी यह । इन्द्रजीत अपना आपा अपने होश खो बैठा। आनन्दात्तिरेक के इन क्षणों में वह हमेशा ही
अपने होश खो बैठता था। आज भी ऐसा ही हुआ।
और फिर जब उसे होश आया तो वह होशरुबा वह मायावी रूपसी जा चुकी था ।
लुटे-पिटे इन्द्रजीत की अब वही अवस्था थी जैसे बरसों का मरीज हाथों-पैरों में जान नहीं। दिमाग की सो खिंची हुई। सिर उठाओ तो चक्कर आ जाये.... अन्धेरा छा जाये। अभिसार के इस खेल की मदहोशियों, आनन्दप्रद क्षणों के बाद निर्बलता के ये जान लेवा क्षण असहनीय ही थे।
दिन चढ़ आया था। झोंपड़ी के दरवाजे से रोशनी अन्दर आ रही थी। लेकिन इन्द्रजीत की रगों में अन्धेरा फैला हुआ था। वह रेगिस्तानी जौंक उसके बदन का सारा खून पी गई थी।
देह-सुख, काम तृप्ति और फिर उसके बाद यह रक्त पिपासा... इन्द्रजीत को दीन-हीन और असहाय बना छोड़ जाती
थी मायावी बकाल ।
वही हुआ जो होता था। दो-चार दिन इन्द्रजीत अत्यधिक कमजोरी का रहा। फिर धीरे-धीरे उसकी शारीरिक शक्तियां लौटने लगी । इन्द्र ने अच्छा खा-पीकर खुद को तन्दरुस्त कर लिया। इस बीच बकाल की सूरत दिखाई नहीं दी वह शायद इन्द्रजीत के स्वस्थ हो जाने का इन्तजार कर रही थी।
बली के बकरे की तरह इन्द्रजीत इन दिनों में फिर पूर्णतः स्वस्थ और भला चंगा हो गया। ऐसा सेहतमंद कि अपने अवचेतन में वह बकाल के साथ इन्हीं क्षणों की ख्वाहिश करने लगा। पर फिर उस पर खौफ छा जाता था। बकाल का खौफ उसके साथ बीते क्षणों के बाद अपनी मरणासन्न अवस्था का खौफ।
और इसी खौफ के साये में उसके दिल में ख्याल आता कि वह यहां से फरार होने की कोशिश करे। पर वह इस ख्याल को अपने जहन से निकाल देता। शायद इसलिए कि एक तो उसे रास्ते का पता नहीं था कि किधर जाए। और अगर वह यूं ही किसी दिशा में निकल भी लेता तो बकाल के तैनात निगरानों का आतंक जहन में ऊपर आता था।
अपनी निगरानी पर तैनात उल्लू को वह देख ही चुका था। और बकाल ने जाते वक्त जिस दूसरे गार्ड को तैनाती कर. जाने का जिक्र किया था वह भी कम खतरनाक न था। बड़ा ही मायावी जाल था। बकाल जाने से पहले जिस दूसरे
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Re: स्वाहा
निगरान को तैनात कर गई थी वह एक भयानक फनियर नाग था । इन्द्रजीत इस दूसरे निगरान के भी दर्शन कर चुका था।
उल्लू झोपड़ी की छत पर रहता था तो यूह नाग झोपड़ी के दरवाजे के निकट फन उठाये खड़ा रहता था कि इन्द्रजीत रेगिस्तान की तरफ कदम उठाये और वह लगे पीछे।
ऐसे हालात में एक बार इन्द्रजीत को यह ख्याल भी आया कि क्यों न दिन की रोशनी के बजाय रात के अन्धेरे में . झोपड़ी से निकलकर रेगिस्तान में गुम हो जाए। पर इस मन्सूबे पर अमल करना भी आसान न था क्योंकि उल्लू और नाग दोनों ही रात के अन्धेरे में दूर तक देख सकते थे।
जाहिर था मायावी बकाल बेवकूफ नहीं थी। उसने इन्द्रजीत को सलाखों के पीछे ताले में बंद नहीं किया था तो कुछ सोचकर ही किया होगा।
यही अन्देशे ही थे जो इन्द्रजीत को हतोत्साहित कर जाते थे और वह खुद को बेबस मान खामोश बैठ जाता था।
पर आखिर कम तक... ।
लगभग छः माह बाद तंग आकर इन्द्रजीत ने बकाल की इस कैद से निकलने और उसके यातनापूर्ण सामीप्य से मुक्ति पाने के लिए, फरार होने की कोशिश की। वह झोपड़ी से निकला था और निकलते ही तेजी से एक तरफ भागना शुरु कर दिया था।
लेकिन रेत पर भागना आसान काम तो न था। उमके पैर रेत में फंस रहे थे भागना दूभर हो रहा था।
और फिर जब उल्लू ने अपने शिकार को फरार होते देखा तो...एक चीख मारकर फड़फड़ाकर उड़ा और कुछेक क्षणों में ही उसे जा लिया। उसने इन्द्रजीत के चेहरे पर ऐसा पंजा मारा कि इन्द्र की आंखें जख्मी होते-होते बची। बहरहाल, इन्द्र के गाल को उसने जख्मी कर दिया था।
उल्लू झोपड़ी की छत पर रहता था तो यूह नाग झोपड़ी के दरवाजे के निकट फन उठाये खड़ा रहता था कि इन्द्रजीत रेगिस्तान की तरफ कदम उठाये और वह लगे पीछे।
ऐसे हालात में एक बार इन्द्रजीत को यह ख्याल भी आया कि क्यों न दिन की रोशनी के बजाय रात के अन्धेरे में . झोपड़ी से निकलकर रेगिस्तान में गुम हो जाए। पर इस मन्सूबे पर अमल करना भी आसान न था क्योंकि उल्लू और नाग दोनों ही रात के अन्धेरे में दूर तक देख सकते थे।
जाहिर था मायावी बकाल बेवकूफ नहीं थी। उसने इन्द्रजीत को सलाखों के पीछे ताले में बंद नहीं किया था तो कुछ सोचकर ही किया होगा।
यही अन्देशे ही थे जो इन्द्रजीत को हतोत्साहित कर जाते थे और वह खुद को बेबस मान खामोश बैठ जाता था।
पर आखिर कम तक... ।
लगभग छः माह बाद तंग आकर इन्द्रजीत ने बकाल की इस कैद से निकलने और उसके यातनापूर्ण सामीप्य से मुक्ति पाने के लिए, फरार होने की कोशिश की। वह झोपड़ी से निकला था और निकलते ही तेजी से एक तरफ भागना शुरु कर दिया था।
लेकिन रेत पर भागना आसान काम तो न था। उमके पैर रेत में फंस रहे थे भागना दूभर हो रहा था।
और फिर जब उल्लू ने अपने शिकार को फरार होते देखा तो...एक चीख मारकर फड़फड़ाकर उड़ा और कुछेक क्षणों में ही उसे जा लिया। उसने इन्द्रजीत के चेहरे पर ऐसा पंजा मारा कि इन्द्र की आंखें जख्मी होते-होते बची। बहरहाल, इन्द्र के गाल को उसने जख्मी कर दिया था।
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