वापसी : गुलशन नंदा

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rajsharma
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Re: वापसी : गुलशन नंदा

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(^%$^-1rs((7)
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(वापसी : गुलशन नंदा) ......(विधवा माँ के अनौखे लाल) ......(हसीनों का मेला वासना का रेला ) ......(ये प्यास है कि बुझती ही नही ) ...... (Thriller एक ही अंजाम ) ......(फरेब ) ......(लव स्टोरी / राजवंश running) ...... (दस जनवरी की रात ) ...... ( गदरायी लड़कियाँ Running)...... (ओह माय फ़किंग गॉड running) ...... (कुमकुम complete)......


साधू सा आलाप कर लेता हूँ ,
मंदिर जाकर जाप भी कर लेता हूँ ..
मानव से देव ना बन जाऊं कहीं,,,,
बस यही सोचकर थोडा सा पाप भी कर लेता हूँ
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Re: वापसी : गुलशन नंदा

Post by rajsharma »

गुंडे बाहर से किवाड़ पीट रहे थे। उनके शोर से पता चलता था कि उनकी संख्या प्रति क्षण बढ़ती जा रही है। मैं बच्चों को टांगों से लगाए थरथर कांप रही थी और वह इस प्रकार धक्के दिए जा रहे थे कि लगता था कि किवाड़ भी टूट जायेगा और मैं बच्चों समेत उसके नीचे दब जाऊंगी।

सहसा शोरगुल सुनकर मस्जिद के हुजरे से एक मौलाना बाहर निकले। उन्होंने मुझे दो बच्चों के साथ दरवाजे से लगी कांपते देखा, तो सारी बात समझ गए और तेजी से मेरी ओर लपके। उनका तेजस्वी चेहरा देखकर न जाने क्यों मेरे मन को ढांढस सी बंध गई। वह मेरे पास आये, तो मैं उनकी टांगों से लिपट कर रो पड़ी।

“भगवान के लिए मेरे बच्चों को बचा लीजिये मौलवी साहब।”

उन्होंने स्नेह से मेरे सिर पर हाथ फेरा और सांत्वना देते हुए बोले – “घबराओ मत बहन! तुमने खुदा के घर पनाह ली है। तुम्हारा कोई बाल भी बांका नहीं कर सकता।”

फिर वह मस्जिद का दरवाजा खोलकर गुंडों के सामने डट गए और उन्हें लताड़ा – “शर्म नहीं आती तुम्हें। एक बेसहाय औरत और उसके मासूम बच्चों को कत्ल करने चले हो। कैसे मुसलमान हो तुम? हुजूर का फरमान भी भूल गए…तुम्हारे पैगंबर ने बूढ़ों औरतों और बच्चों पर रहम करने की तालीम दी है।”

“हिंदुस्तान में हमारे बच्चों, औरतों और बड़ों पर रहम नहीं किया जा रहा है। हम भी नहीं छोड़ेंगे।” कोई गुंडा जोर से दहाड़ा और फिर सब चीख पड़े – “हाँ हाँ, हम भी वही करेंगे, जो हिंदुस्तान में हो रहा है।“

यह सुनकर मौलाना के चेहरे पर और भी तेज़ छा गया। उन्होंने भारी आवाज में कहना आरंभ किया – “हिंदुस्तान में अगर लोग गंदगी खाने लगेंगे, तो क्या तुम भी वही करोगे….बोलो….जवाब दो। अगर वहाँ बेगुनाहों पर जुल्म हो रहा है, तो उसका बदला खुदा लेगा। तुम अपने पाक जमीन पर बेगुनाहों का खून बहाकर जालिमों की सफ़ में क्यों खड़े होते हो? क्या तुम्हें अल्लाह और रसूल के फ़रमान का कोई पास नहीं रहा? क्या तुम सिर्फ नाम के मुसलमान रह गए हो? इस्लाम का नाम ऊँचा होता, जब हिंदुस्तान में मुसलमानों पर ढाये जाते जुल्मों के बावजूद पाकिस्तान में हिंदू अमन और चैन की ज़िन्दगी बसर करते।’

क्षण भर के लिए रुककर वह फिर बोले – “क्या तुम फतहे मक्का का वह वाक्या भूल गए, जब वहाँ के काफ़िरों की ज़िंदगियाँ रसूल अल्लाह की मुट्ठी में थी। ये वे लोग थे, जिन्होंने बेदर्दी से मुसलमानों को क़त्ल किया था और खुद रसूल पर जुल्म के पहाड़ तोड़े थे, उन्हें बार-बार खत्म करना चाहा था। हुजूर चाहते, तो एक इशारे में सब को मौत के घाट उतार देते। लेकिन जानते हो, हमारे पाक नबी ने क्या किया? उन्होंने ऐलान कर दिया कि इस्लाम के बड़े-बड़े दुश्मनों को माफ कर दिया जाता है और इसका नतीजा सब जानते हैं। मक्के की ज़मीन पर खून का एक कतरा भी नहीं टपका और बिना जबरदस्ती के इस्लाम के सब दुश्मन मुसलमान हो गए। यह थी इस्लाम की तालीम। इस तालीम ने दुनिया का दिल जीता था और आज इसी इस्लाम के नाम पर तुम जुल्म और बेरहमी से अपने अज़ीम मज़हब के नाम को बट्टा लगा रहे हो।“
फिर मौलाना मेरी ओर संकेत करते हुए बोले, “यह मजलूम औरत अपने दो मासूम बच्चों को लेकर खुदा की पनाह में आई है। इसकी हिफाजत की जिम्मेदारी मेरी है। कान खोल कर सुन लो, तुम मुझे मानकर इन्हें मारने के लिए मस्जिद में दाखिल हो सकते हो।“

उन्होंने उनकी बातें सुनकर गुंडे सन्नाटे में आ गये। कुछ देर तक उन्होंने आपस में खुसर फुसर की…फिर यह देखकर मैंने संतोष की सांस ली कि वे वहाँ से लौट गये।

मौलाना ने पलटकर दरवाजे की कुंडी लगा दी और हमें साथ लेकर अपने हुजरे में चले आए। शाम तक बच्चों समेत मैं हुजरे में बंद रही और रात के अंधेरे में वह मुझे मस्जिद के पिछवाड़े से अपने घर ले गए, जहाँ उनकी पत्नी ने मुझे सांत्वना दी…मेरे बच्चों को प्यार से खाना खिलाया। वह रात मैंने उन्हीं के घर में गुजारी। दूसरे दिन सुबह मौलाना ने मुझे अमृतसर भेजने का प्रबंध करा दिया। लेकिन मुझे अभी तक गुंडों का डर लगा हुआ था। कहीं वे रास्ते में मुझे और मेरे दोनों बच्चों को मार ना डाले। मैं तो खैर एक प्रकार से मर ही चुकी थी। इसलिए मुझे अपने मरने का डर नहीं था। लेकिन मैं कम से कम अपने पति की एक निशानी बाकी रखना चाहती थी। इसलिए मैंने अपना एक बच्चा मौलाना की पत्नी के हवाले कर दिया। उनकी कोई संतान न थी और उन्होंने बच्चे को स्वीकार कर लिया। मौलाना ने परिस्थितियाँ ठीक हो जाने पर मेरे बच्चे को लौटा देने का वचन दिया।”

मान क्षण भर के लिए सांस लेने के रुकी और फिर बोली, “मैं हिंदुस्तान चली आई और परिस्थितियों के ठीक होने की प्रतीक्षा करने लगी। लेकिन दोनों देशों की हालत दिन-ब-दिन बिगड़ते ही चले गए। दंगे फसाद, आरोप और प्रत्यारोप से घृणा की दीवारें और ऊँची होती चली गई और मौलवी साहब अपना वचन न निभा सके। गुंडे मेरे बच्चे के कारण उनकी जान के दुश्मन हो गए थे और मेरे बच्चे के प्राण बचाने के लिए उन्होंने उसे मुस्लमान बनाकर उसका नाम रशीद रख दिया।”

“क्या?” रशीद एक झटके से यों पीछे हटा, जैसे किसी ने उसके सीने पर छुरा मार दिया हो। उसका सिर दीवार से टकरा गया और वह फटी-फटी आँखों से माँ को देखने लगा।

“हाँ बेटे!” माँ ने अपनी हिचकियों पर काबू पाने का प्रयत्न करते हुए कहा, “मौलाना उसका नाम रशीद रखकर उसे अपने बच्चे के समान पालने लगे। अब कोई उसे खून का प्यासा ना रहा…यद्यपि उसकी धमनियों में दौड़ने वाला लहू वही था।”

“बरसों ठोकरे खाने के बाद जब मेरे जीवन में थोड़ी स्थिरता आ गई और कड़ा परिश्रम करके मैंने अपने हालात सुधारे, तो इतनी देर हो चुकी थी कि मैं चाहती भी तो शायद मौलाना उसे मुझे लौटा न सकते। परमात्मा ने उन्हें संतान नहीं दी थी और उन्होंने उसे अपना सगा बेटा मान कर तन मन से प्यार किया था और वही उनका बेटा था। मैं इसे हरि इच्छा समझ कर चुप रह गई।“

माँ चुप हो गई। उसकी आँखों से टप-टप आँसू बहे जा रहे थे।

रशीद भावुकता में डूबा जैसे कोई फिल्म देख रहा था। उसके मस्तिष्क में आंधियाँ चल रही थीं…जैसे सृष्टि लड़खड़ा गई हो। माँ को चुप होते देखकर उसने कंपकपाती और कराहती हुई आवाज़ में पूछा, “लेकिन माँ…पाकिस्तान से आने के बाद तुम्हें अपने बच्चे के हालात कैसे मालूम होते रहे।”

“जानना चाहते हो!” माँ ने आंसू पोंछते हुए कहा, “मुझे एक साल पहले तक के अपने बच्चे के सारे हालत मालूम है।”

फिर माँ ने उठकर अलमारी में से एक एल्बम निकाला और उसे रशीद को दिखाती हुई बोली, “इसमें मेरे जीवन का वह भेद बंद है, जिसे मेरे जीते जी शायद कोई नहीं जान पाता, अगर आज मेरे मुसलमान बच्चे की याद ने मेरी ममता को पागल न कर दिया होता। बेटा रणजीत! मेरे दिल के दो टुकड़े हैं – एक से ‘अल्लाह अल्लाह’ की आवाज आती है, तो दूसरे से ‘राम-राम’ की। इन दोनों आवाज में मुझे कोई अंतर अनुभव नहीं होता, जैसे मेरे दोनों बच्चों की शक्ल सूरत में रत्ती भर भी अंतर नहीं है।”

और उसने एल्बम का पहला पन्ना खोलकर रशीद को दिखाते हुए कहा, “देख यह मेरे लाल का उस समय का फोटो है, जब उसका खतना करने के लिए से दूल्हा बनाया गया था।”

रशीद ने बेचैनी से झुक कर देखा – फोटो में नन्हा रशीद दूल्हा बना खड़ा था। माँ ने दूसरा पन्ना पलटते हुए कहा, “यह उस समय का फोटो है, जब उसने कुरान पढ़ना आरंभ किया था।”

रशीद ने ध्यान से देखा…फोटो में नन्हा रशीद मौलाना के सामने कुरान खोले बैठा था। माँ ने तीसरा पन्ना पलटा।

“यह तब का फोटो है, जब उसने बीए की डिग्री ली थी।”

रशीद ने बेचैन इस इस फोटो को भी देखा, जिसमें वह गाउन पर हाथ में डिग्री लिए खड़ा था।

“अब मेरे लाल का खास फोटो देखो।” माँ ने चौथा पन्ना पलटते हुए कहा, “यह उस समय का फोटो है, जब वह दूल्हा बना था।”

और रशीद अपनी शादी पर लिए गए फोटो को देखने लगा। माँ ने उसे धीरे से परे हटाते हुए कहा, “अरे…इसे क्या देखता है। अब जो तस्वीर मैं तुम्हे दिखाऊंगी, उसे देखकर तू खुशी से नाच उठेगा।” यह कहते हुए माँ ने पांचवां पन्ना पलट कर उसके सामने करते हुए बड़े स्नेह से कहा, “यह है मेरी बहू का फोटो।”

फोटो में सलमा जरी के काम वाले लाल जोड़े में दुल्हन बनी शर्माई बैठी थी। माँ ने उसे देखकर निहाल होते हुए कहा, “देख…देख कितनी सुंदर है तेरी भाभी! बिल्कुल चांद का टुकड़ा। इनका नाम है – सलमा!”
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Re: वापसी : गुलशन नंदा

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रशीद के मन मस्तिष्क को निरंतर इतनी तीव्र झटके लग रहे थे कि उसकी सुध बुध उड़ी जा रही थी। उसका सारा शरीर जैसे भूकंप की चपेट में आ गया हो। वह कांप रहा था…उसके सारे विचार, भावनाएं बिखर गई थी…मानो कोई ग्रह अपनी धुरी से अलग हो जाये…उसकी परिक्रमा की कोई दिशा न रहे। कुछ देर वह मूर्तिमान, स्थिर खड़ा रहा। फिर बड़ी मुश्किल से संभालते का प्रयत्न करते हुए उसने कहा, “ये तस्वीरें तुम्हारे पास कहाँ से आ गई…ये तो…!”

घबराहट में वह यह कहने जा रहा था कि यही तस्वीर उसके एल्बम में भी थी…लेकिन अचानक वह रुक गया। माँ अपनी बहू की तस्वीर देखने में मगन थी। उसे रशीद की इस घबराहट का ज़रा भी आभास ना हो पाया। माँ ने एल्बम से फोटो निकालकर रशीद को देते हुए कहा,

“ये हैं वह मौलाना जी, मेरी व्याकुल आत्मा की शांति के लिए ये तस्वीरें भेजते रहे हैं। ये मनुष्य नहीं देवता हैं। इन्हें नमस्कार करो बेटे। ऐसी महान आत्मा कभी-कभी जन्म लेती है।”

रशीद के हाथ में मौलाना नुरुद्दीन की तस्वीर थी, जिन्हें कुछ देर पहले तक वह अपने बाप समझता रहा था। अभी पिछले साल इनका देहांत हुआ था।

आज इस भेद से पर्दा उठ गया था कि वह उसके वास्तविक पिता नहीं थे। रशीद सोच रहा था क्या कोई दूसरे के बच्चे को इतना नि:स्वार्थ, ममतापूर्ण प्यार दे सकता है, जितना मौलाना ने उसे दिया था। उसे उनकी बेगम की शक्ल याद नहीं थी, क्योंकि वह उसके बचपन में ही स्वर्गवासी हो गई थी। मौलाना ने अपनी असीम स्नेह और प्यार से इस अभाव को रशीद को कभी अनुभव नहीं होने दिया। वह उसके लिए माँ-बाप दोनों बन गए थे। माँ ठीक ही कहती है…सचमुच वह इंसान नहीं देवता थे। इस देवता की महानता पर उनका सिर झुक गया और उसने दोनों हाथ जोड़कर नमस्कार किया। फिर भीगी आँखों से माँ की ओर देखता हुए सोचने लगा…माँ भी तो किसी देवी से कम नहीं है, जिनके दिल में दो टुकड़े हैं… एक टुकड़े से ‘अल्लाह अल्लाह’ की आवाज आती है और दूसरे से ‘राम-राम’ की। उसे इन दोनों आवाज में कोई अंतर नहीं अनुभव होता। फिर उसकी कल्पना धारा रणजीत की ओर मुड़ गई…उसका हमशक्ल सगा भाई उसी के कारण पाकिस्तान की किसी जेल की तंग और अंधेरी कोठारी में पड़ा सिसक रहा होगा…तड़प रहा होगा। इस विचार से वह कांप उठा। उसने घबराकर माँ की ओर देखा। वह अभी तक प्यार से सलमा की तस्वीरें देखें जा रही थी।

“क्या देख रही हो माँ?” रशीद ने जैसे डरते-डरते पूछा।

“अपनी बहू को देख रही हूँ। इसे देखा मेरा जी नहीं भरता। तू पूनम को दुल्हन बना कर लायेगा, तो मैं उसे भी ऐसे ही कपड़े पहनाऊंगी और मेरा प्यारा बेटा रशीद…काश वह जानता उसकी अभागन माँ उसके लिए कितने वर्षों से तड़प रही है। उसकी ज़िन्दगी के लिए भगवान से कैसी-कैसी प्रार्थना की है। मैं जब तेरी सुरक्षा के लिए प्रार्थना करने मंदिर में जाती हूँ, तो उसकी रक्षा के लिए भी प्रार्थना करना कभी नहीं भूलती। वह भी फौज में नौकर है ना।”

माँ की आवाज भर्रा गई और उनकी आँखों से ममता के आँसू टपक पड़े । क्षण भर रुककर उन्होंने अपने आँसू पोंछे और बोली, “मुझे पता होता, तो पहले ही तुझे अपने जीवन का यह भेद बता देती। तू पाकिस्तान में तो पहुँच गया था। वहाँ अपने भाभी और भाई से किसी प्रकार मिल आता। खैर अब तो लड़ाई बंद हो ही गई है…भगवान ने चाहा तो दोनों देशों में आना-जाना भी शुरू हो जायेगा। ईश्वर करे मेरा बेटा वहाँ सकुशल हो…तू अपनी शादी में अपने भाई को ज़रूर बुलाना।

माँ का एक-एक शब्द रशीद के दिल को चीरता जा रहा था। वह अब तक उसे रणजीत समझे हुए थी। उसका जी चाह रहा था कि बच्चों के समान उसकी गोद में सिर रखकर फूट-फूट कर रोने लगे और उसे बता दे कि वही उसका बिछड़ा हुआ लाल है, जिसके लिए वह तड़प रही है। वही रणजीत का भाई है, जिसे वह उसकी शादी में बुलाना चाहती है। लेकिन वह कुछ भी न कह सका, यह कैसे जाने मजबूरी और बेबसी थी। वह निराशा भरी दृष्टि से माँ के भोले-भाले चेहरे को देखता रहा।
(17)
रणजीत की माँ ने संदूक खोला और शादी ब्याह के कपड़े देखने लगी। इस समय उन्हें एक अनोखा आत्मिक सुख अनुभव हो रहा था। उन्होंने एक कीमती साड़ी खोली और मन ही मन कल्पना करने लगी कि पूनम इसे पहनकर कैसी लगेगी। उनकी आँखों के सामने दुल्हन बनी पूनम का मुखड़ा उभर आया और वह मुस्कुरा पड़ी। फिर उन्होंने फ्रॉक और दुपट्टे का जोड़ा उठाकर देखा और अनायास याद उन्हें तड़पा गई…उनकी दूसरी बहू जिसे उन्होंने साक्षात नहीं देखा था। माँ की आँखें भीग गई। अभी वह दुपट्टे से अपने आँसू पूछ ही रही थी कि बाहर गौरी की आवाज सुनकर चौंक पड़ी। गौरी भागते हुए अंदर आई और बोली, “पूनम भाभी आई है।”

यह सुनते ही माँ जैसे खुशी से पागल हो गई। वह तेजी से कमरे के बाहर में आई, जहाँ पूनम हाथ में अटैची लिए खड़ी थी। माँ को देखते ही पूनम ने आगे बढ़कर उनके चरण छू लिये। माँ ने उसे आशीर्वाद देते हुए उठाया और प्यार से गले लगाते हुए बोली, “अरे तुमने आने की खबर तक नहीं दी।”

“अचानक प्रोग्राम बन गया माँ जी।”

“तुम्हारे पिताजी अब कैसे हैं?”

“उसी तरह…पल में ठीक…पल में बीमार…अब आंटी को छोड़ कर आई हूँ उनके पास।” पूनम ने घर में इधर-उधर झांकते हुए कहा। गौरी उसकी व्याकुलता को भांप गई और झट उसके हाथ से अटैची लेती हुए बोली, “भैया तो बाग में गए हैं भाभी…मालूम होता तुम आ रही हो, तो कभी ना जाते।”

“हाँ पूनम! आज रणजीत ने मुझे काम पर नहीं जाने दिया। इस बार जो घर लौटा है, तो बिल्कुल ही बदला हुआ है। पहले मेरा इतना ध्यान नहीं रखता था, जितना अब रखने लगा है।” माँ ने स्नेह से कहा।

“हाँ भाभी!” गौरी माँ की बात का समर्थन करती हुई बोली, “रात को अपने हाथ से भैया ने माँ जी के सिर में तेल डाला और बहुत देर तक उनका सिर दबाते रहे।”

“और बहू…इस बार बिना शादी किए मैं उसे वापस न जाने दूंगी। पहले तो वह हमेशा की तरह अब भी टालमटोल कर रहा था, लेकिन रात मैंने उसे सहमत कर ही लिया है। अगले महीने की 12 तारीख पक्की की है पुरोहित जी ने। उस दिन तेरी मांग में सिंदूर भर दिया जायेगा और मेरी एक बहुत बड़ी मनोकामना पूरी हो जायेगी।”

यह कहकर माँ पूनम को खींचती हुई अंदर वाले कमरे में ले गई, जहाँ शादी के कपड़े और गहने खुले रखे थे। उन्होंने एक-एक गहना और एक-एक जोड़ा उठाकर पूनम को दिखाया। माँ पूनम रणजीत की शादी का वर्णन कुछ इस भावुकता भरे ढंग से कर रही थी कि कई बार अनायास पूनम की आँखें भी छलछला उठी। उसने सोचा अगर माँ को यह मालूम हो गया कि जिसकी शादी का प्रबंध वह इतने चाव से कर रही है, वह उनका बेटा रणजीत नहीं बल्कि पाकिस्तानी जासूस है, तो उस पर दुखों का पहाड़ टूट पड़ेगा। उनके सारे सपने टूट कर बिखर जायेंगे और क्या जाने वह उस आघात को सहन भी ना कर सके। यह सोचकर पूनम ने फैसला कर लिया कि वह माँ की खुशियों पर अचानक बिजली नहीं गिरायेगी। माँ की प्रसन्नता के लिए वह उन कपड़ों और गहनों की प्रशंसा करती रही।

माँ रणजीत को बुलाने के लिए जब गौरी को बाग में भेजने लगी, तो पूनम ने उसे रोकते हुए माँ से कहा, “उन्हें बुलाने की क्या ज़रूरत है? काम समाप्त होने पर आप ही आ जायेंगे।”

“भैया को आते-आते तो शाम हो जायेगी…तुम स्वयं ही बाग क्यों नहीं चल जाती भाभी?” गौरी ने मुस्कुराते हुए पूनम से कहा।

“हाँ पूनम! गौरी ठीक कहती है।” माँ ने गौरी की बात का समर्थन किया, “तुम चली जाओगी, तो दोपहर के खाने के लिए वह समय पर घर आ जायेगा।”

बाद में एक शेक सरीखे गोदाम में रशीद सेवों की पेटियाँ पैक करवा रहा था। कई मजदूर काम में जुटे हुए थे और इस बात पर हैरान थे कि आज से पहले रणजीत ने बाग में इतनी लगन से कभी काम नहीं किया था।

मीठे, रसीले और लाल सेवों का ढेर देखकर अचानक रशीद का भी जी ललचाया। उसने एक सेव उठाकर खाना शुरु कर दिया। ऐसे मीठे और स्वादिष्ट सेव उसने कश्मीर में भी नहीं खाये थे। तभी उसे माँ के कहे गए शब्द याद आ गए, “इन सेवों में मिठास मेरे पसीने से और रंगत मेरे खून से आती है।”

बाहर अचानक कुछ आहट हुई और रशीद सेव खाते-खाते रुक गया। उसने पलट कर देखा, तो शेक के बाहर खड़ी पूनम गुस्से में उसे घूर रही थी। रशीद के हाथ से सेव छूट कर नीचे गिर गया। पूनम की आँखों में छुपे तूफान का उसे कुछ आभास हो गया था। वह झट उठकर बाहर आते हुए बोला, “पूनम…तुम…” पूनम को छूने के लिए उसका बढ़ा हुआ हाथ वहीं रुक गया।

“रुक क्यों गये?” वह गुस्से में दांत पीसते हुई बोली।

“यूं ही…तुम्हें अचानक देख कर सकता सा हो गया हूँ।” रशीद ने मुस्कुराने का प्रयत्न करते हुए कहा।

“अचानक देखकर या डर के मारे?”

“डर….किस बात का डर?” उसने झिझकते हुए पूछा।

“अपने पापों का डर…अपने अपराधों का डर।”

“यह तुम क्या कर रही हो? कैसा पाप? कैसा अपराध?”

“किसी की भावनाओं से खेलना, किसी से विश्वासघात करना, प्रेमी का रूप धारण करके दूसरे की मंगेतर को अपने अपवित्र गंदे हाथों से छूना, बेटा बनकर किसी माँ की ममता को ठगना…यह सब पाप नहीं तो क्या है? बोलो जवाब दो!” वह गुस्से में जमीन पर पैर पटकती हुए बोली।

रशीद पूनम के मुँह से ये बातें सुनकर सचमुच घबरा गया था। अंतर की ग्लानि से वह पूनम से आँखें नहीं मिला पा रहा था। समझने में उसे देर नहीं लगी कि उसका सारा भेद पूनम पर खुल चुका है और इसकी जिम्मेदार रुखसाना है, जो उस रात अपना अपमान सहन न कर सकी थी…उसे पहले ही आशंका थी कि ऐसी स्थिति में वह औरत कुछ भी कर गुजरेगी। रशीद को चुप देकर पूनम ने तिलमिलाते हुए पूछा, “चुप क्यों हो गये?”

“तुमने मेरा भेद खोल कर मुझे मौन कर दिया है।”

“लेकिन तुमने ऐसा क्यों किया? किसी की भावनाओं से खेल कर तुम्हें क्या मिला?”

“अपने देश और कर्तव्य के लिए कभी-कभी इंसान को बहुत परीक्षाओं से गुजरना पड़ता है। ऐसी ही एक परीक्षा मेरे लिए तुम भी बन गई थी।”

“लेकिन तुम इस परीक्षा में सफल नहीं हो सके मेजर रशीद! तुम अपने ही बुने जाल में स्वयं फंस गये। जानते हो, अब मैं तुम्हारी पोल सबके सामने खोल कर रख दूंगी।”

“तुम ऐसा नहीं कर सकती पूनम।” वह उसकी आँखों में देखता हुआ बोला।

“क्यों? मुझे कौन रोकेगा?”

“तुम्हारा रणजीत!” रशीद मुस्कुरा उठा।

“क्या?” वह कुछ न समझते हुए बोली।

“हाँ पूनम! तुमने अगर मेरा भेद खोल कर मुझे गिरफ्तार करा दिया, तो तुम्हारा रणजीत ज़िन्दा नहीं लौट सकेगा।”

“क्या वह ज़िन्दा है?” अविश्वास से उसे देखते हुए पूनम ने पूछा। उसका दिल अनायास धड़क उठा था।

रशीद ने जेब से सिगरेट निकाल कर सुलगाया। उसके मन की शांति लौट आई थी। कुछ दिन मौन रखकर सिगरेट का एक कश लेकर वह बोला, “हाँ पूनम! मुझ पर विश्वास करो और निश्चिंत रहो। तुम्हारा रणजीत ज़िन्दा है।”

“लेकिन पुलिस वालों ने यह भेद रुखसाना से उगलवा लिया तो?” पूनम ने डरते डरते पूछा।

“पुलिस अब उसे कुछ नहीं उगलवा सकती।” रशीद ने सिगरेट का एक और कश लेकर गंभीरता से कहा।

“क्यों?”

“उसके कुछ बोलने से पहले हमारे रिंग वालों ने पुलिस के लॉक अप में उसे गोली का निशाना बना दिया है।”

उसके रूखे कठोर स्वर पर पूनम कांप उठी। वास्तव में वह खतरनाक पाकिस्तानी जासूस है, तो फिर उसे रणजीत से क्यों सहानुभूति होने लगी है…वह रणजीत को कभी आजाद नहीं करायेगा, बल्कि उल्टा उसके विरूद्ध कोई और जाल बुन रहा होगा। इस धमकी की आड़ में वह अपना जासूसी का काम पूरा करना चाहता है। इसी असमंजस में वह काफी देर तक खड़ी इस रहस्यमयी पाकिस्तानी जासूस को देखते रही। फिर अचानक दोनों हाथ से अपना चेहरा छुपा कर रोने लगी। रशीद ने आगे बढ़कर उससे कुछ कहना चाहा, लेकिन वह एक झटके से पलट कर भाग खड़ी हुई और बाग के बाहर जाने लगी।

रशीद ने लपक कर उसे रोकना चाहा, किंतु फिर कुछ सोच कर रुक गया। कुछ देर सिगरेट के लंबे-लंबे कश लेता वह से भागते देखता रहा और फिर सिगरेट बुझाकर शैक में घुस गया। उसे विश्वास था कि पूनम अब उसका भेद किसी से भी ना कह सकेगी, माँ से भी नहीं।

रात माँ पूनम रशीद को सामने बिठा कर अपने हाथ का बना खाना खिला रही थी। पूनम खिंची सी चुपचाप बैठी थी। रशीद ने माँ को आज दिन भर के कार्यवाही का ब्यौरा दिया और विश्वास दिलाया कि कल दोपहर तक वह सारा माल पैक करवा कर ट्रक पर लदवा देगा। माँ ने उसके काम की सराहना करते हैं प्यार से कहा, “चलो, अच्छा हुआ शादी से पहले तुमने अपनी जिम्मेदारियों को तो संभाल लिया।”

‘शादी’ का शब्द सुनकर पूनम अचानक यूं चमक उठी, जैसे किसी जहरीले कीड़े ने काट लिया हो। रशीद ने उसकी बेचैनी को झट भांप लिया और बाद बदलते माँ से बोला, “यह क्या माँ…तुम मुझे ही खिलाये जा रही हो, पूनम की थाली तो कब से खाली है।”

“अगला पराठा उसी का है।” माँ ने तवे पर पकते पराठे में घी छोड़ते हुए कहा और फिर पूनम से संबोधित होकर बोली, “क्या बात है पूनम यूं गुमसुम क्यों बैठी हो?”

“नहीं तो माँ जी!” पूनम जल्दी से बोली।

“शादी से पहले ही शरमाने लगी है माँ।” रशीद ने मुस्कुरा कर कहा।

“तुम चुप बैठो।” मैंने प्यार से डांटा और फिर पूछा, “और हाँ कितनी छुट्टी बाकी है तुम्हारी।”

“एक हफ्ता और..!’

“तो अगले महीने तो कैसे रहोगे?” माने गरमा गरम पराठा पूनम की प्लेट में डालते हुए पूछा।

“छुट्टी बढ़वानी होगी जाकर..!”

“तो एक काम करो…माल लद जाये, तो स्वयं उसे दिल्ली ले जाओ…छुट्टी बढ़वा लाओ और व्यापारी से माल के पैसे भी वसूल कर लाओ। अगर डाक चिट्ठी पर रहे, तो पैसे मिलते दो चार महीने यूं ही लग जायेंगे। मुझे शादी के लिए पैसे की अभी ज़रूरत है। भगवान ने चाहा तो बड़ी धूम से करूंगी मैं यह शादी।”

रशीद ने कनखियों से पूनम की ओर देखा। वह एक-एक और बड़ी मुश्किल से गले से उतार रही थी। वह भी उसके साथ इस नाटक-पात्री बनी हुई थी, जिसे सब कुछ जानते हुए भी गूंगी का अभिनय करना पड़ रहा था।
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(वापसी : गुलशन नंदा) ......(विधवा माँ के अनौखे लाल) ......(हसीनों का मेला वासना का रेला ) ......(ये प्यास है कि बुझती ही नही ) ...... (Thriller एक ही अंजाम ) ......(फरेब ) ......(लव स्टोरी / राजवंश running) ...... (दस जनवरी की रात ) ...... ( गदरायी लड़कियाँ Running)...... (ओह माय फ़किंग गॉड running) ...... (कुमकुम complete)......


साधू सा आलाप कर लेता हूँ ,
मंदिर जाकर जाप भी कर लेता हूँ ..
मानव से देव ना बन जाऊं कहीं,,,,
बस यही सोचकर थोडा सा पाप भी कर लेता हूँ
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Re: वापसी : गुलशन नंदा

Post by rajsharma »

रात धीरे-धीरे रेंग रही थी।

रशीद बिस्तर पर लेटा अपने इस अनोखे जीवन के बारे में सोच रहा था। परिस्थितियाँ क्या खेल खेल रही थी। नींद उसकी आँखों से कोसों दूर थी। बिस्तर पर बेचैनी से करवटें बदलता हुआ वह सोच रहा था कि अब उसे नाटक शीघ्र समाप्त कर देना चाहिए।

उधर पूनम माँ के कमरे में पलंग पर लेटी विचारों के जाल में उलझी हुई थी। उसे बिल्कुल नींद नहीं आ रही थी। कभी वह रणजीत के बारे में सोचने लगती, तो कभी रशीद के बारे में। रशीद के साथ कश्मीर में बिताए चंद दिनों को याद कर के वह कांप उठी। कितना धोखा हुआ था उससे…बेचैनी से करवट लेकर उसने माँ की ओर देखा, जो गहरी नींद में खर्राटे भर रही थी। अपने बेटे को सुरक्षित जानकर कितने सुख की नींद सो रही थी वह। पूनम के मस्तिष्क पर तो हथौड़े से चल रहे थे। ऐसा लग रहा था कि नींद सदा के लिए रूठ गई है, आखिर उसने बिस्तर छोड़ दिया और बाहर वाले बरामदे में चली आई।

बाहर आते ही उसे एक झटका सा लगा। उसने देखा अंधेरे में बरामदे के दूसरे सिरे पर रशीद खड़ा सिगरेट फूंक रहा था। पूनम को देखकर उसने सिगरेट फर्श पर फेंककर पैर से मसल दिया और उसकी ओर बढ़ते हुए बोला, “क्यों नींद नहीं आ रही क्या?”

“जो चिंगारियाँ तुमने मेरे मस्तिष्क में भर दी हैं, उनकी तपन से भला नींद कैसे आ सकती है मुझे? लेकिन तुम…”

“मुझे भी नींद नहीं आ रही, सोचता हूँ कल चला जाऊंगा, तो माँ क्या सोचेगी?”

“यही कि उनका बेटा व्यापारियों से पैसा वसूल करने और छुट्टी बढ़वाने गया है।”

“वह तो जाने का एक बहाना है। रणजीत के आने में दो-चार दिन अधिक भी लग सकते हैं।”

“तो क्या है? तब तक माँ की सेवा करूंगी।” पूनम ने कहा और फिर शंका भरी दृष्टि से देख ती हुई बोली, “तुम्हें विश्वास है रणजीत सकुशल लौट सकेंगे?”

“सेंट परसेंट विश्वास है, क्योंकि वह ना आया, तो माँ के सारे सपने टूट कर बिखर जायेंगे।”

“लेकिन तुम्हें यह अचानक उनसे हमदर्दी क्यों हो गई?”

“उनसे नहीं, अपने आपसे। चेहरे जो एक जैसे हैं हमारे।”

“चेहरे में तो नहीं, लेकिन आत्माओं में तो जमीन आसमान का अंतर है।”

“चेहरों को पढ़ना और आत्मा में झांककर देखना बहुत मुश्किल है पूनम…तुम्हें तो केवल उसी दिन विश्वास होगा, जब तुम्हारा रणजीत तुमसे आन मिलेगा।” रशीद ने गुस्से में कहा।

पूनम ने झट बात बदलकर पूछा, “लेकिन तुम पाकिस्तान कैसे लौटोगे? सीमा पर तो बड़ी कड़ी निगरानी होती है।”

“मेरे आदमी ने सब प्रबंध कर लिया है। परसों रात की गाड़ी से अमृतसर से सिखों का एक टोला पंजा साहब की यात्रा के लिए जा रहा है। उसी टोली में एक नकली दाढ़ी वाला सिख भी होगा।”

“ओह तो तुम तो सिख बनोगे!”

“तो क्या हुआ? इस काम में हमें कई भेष धारण करने पड़ते हैं।” रशीद ने मुस्कुराते हुए कहा।

पूनम ने एक गहरी दृष्टि उसके चेहरे पर डाली। अंधेरे में वह कुछ और भी रहस्य मयी लग रहा था। कुछ देर वह उसे यूं ही चुपचाप देखती रही और फिर एक जम्हाई लेकर अपने कमरे में लौट आई। रशीद ने एक सिगरेट और सुलगा लिया और खड़े-खड़े न जाने कितनी रात गए तक विचारों के ताने-बाने बुनता रहा।

दूसरे दिन दोपहर को ट्रक पर माल लदवा कर जब रशीद जाने लगा, तो माँ, पूनम और गौरी सड़क तक उसे छोड़ने आई। रशीद ने माँ के चरण छूकर असास ली, भगवान का प्रसाद चखा और पूनम को अपने लौटने तक वहीं रुकने का निर्देश देकर गौरी की ओर बढ़ा। उसने गौरी के सिर पर हाथ फेरा, तो वह कह उठी, “भैया! दिल्ली से मेरे लिए रंगीन चूड़ियाँ लेते आना।”

“आरी कांच के टुकड़े का क्या करेगी। अब तो सोने की चूड़ियाँ लेना इससे ब्याह पर।” माँ ने मुस्कुराते हुए कहा।

माल से लदा हुआ ट्रक पुलिया के पास खड़ा हुआ रशीद की प्रतीक्षा कर रहा था। माँ और गौरी पुलिया पर बैठ गई। लेकिन पूनम रशीद के साथ ट्रक तक चली आई। ट्रक में बैठने से पहले पूनम ने चुपके से अल्लाह खुदा हुआ उसका लॉकेट उसके हाथ में दे दिया।

“यह क्या?” रशीद ने आश्चर्य से पूछा।

“तुम्हारे दोस्त के निशानी।”

“लेकिन तुम्हारे ओम का क्या होगा? “

“वह मेरी ओर से रणजीत को दे देना। वापसी में उनकी रक्षा करेगा।” कहते-कहते पूनम की आवाज भर्रा गई और उसकी पलकों पर आँसू झिलमिलाने लगे।

रशीद उचक कर ड्राइवर के साथ वाली सीट पर बैठ गया और ट्रक मनाली गाँव से रवाना हो गया। माँ से विदा होते हुए रशीद का दिल बोझिल थाम वह सोच रहा था माँ का प्यार जो जीवन में पहली बार उसे मिला है इतना संक्षिप्त होने पर भी कितना भरपूर था…अब यह प्यार उसे कभी नहीं मिल सकेगा। भाग्य सचमुच बड़ा बलवान है। खिड़की से गर्दन निकाले हर मोड़ पर वह माँ को देखता रहा। उसका जी चाह रहा था कि यह क्षण स्थिर हो जाये, सर्वकालिक हो जाये और वह माँ को इसी प्रकार देखते रहे। लेकिन ऐसा ना हुआ। जैसे ही ट्रक ढलान में उतरा, माँ उसकी आँखों से ओझल हो गई। उसके मस्तिष्क में बस एक अमिट छाप रह गई… ममता भरे माँके चेहरे की एक छवि रह गई, उसके कल्पना पट पर…दिल बहुत पत्थर रखने पर भी उसकी आँखों में आँसूछलक आए और वह उन बर्फीली घाटियों को देखता हुआ ठंडी आहें भरने लगा।

सड़क के साथ साथ तेज़ पानी की नदी बह रही थी। रशीद सोचने लगा कि वह भी इस नदी के जल के समान् है, जो इन घाटियों से एक बार गुजर कर फिर वापस नहीं आता।
(18)

आधी रात का समय होगा, जब ब्रिगेडियर उस्मान की टेलीफोन की घंटी एकाएक बज उठी। दिन भर के काम से थककर वह गहरी नींद सो रहे थे। निरंतर टन टन की आवाज से झुंझलाकर उन्होंने रिसीवर उठाया और कुछ झल्लाकर बोले, “हेलो! कौन? ओह कर्नल…क्या बात है?”

“मुआफ कीजिए सर…इतनी रात गए आप को जगाना पड़ा।” कर्नल रजा अली ने उधर से क्षमा याचना करते हुए कहा।

“कोई खास बात?”

“जी हाँ! अभी-अभी इत्तला मिली है कि मेजर रशीद खुफिया कैद खाने से हिंदुस्तानी कैदी कैप्टन रणजीत को निकाल ले गया है।”

“क्या? मेजर रशीद? लेकिन वह हिंदुस्तान से कब लौटा।” उस्मान ने आश्चर्य से पूछा।

“यही जानने के लिए तो मैंने आपको फोन किया है कि वह कब आया और किसकी इज़ाजत से इस कैदी को बाहर ले गया है।”

“मुआमला तश्वीशनाक मालूम होता है कर्नल…शायद उसने मेरी रियायतों का ग़लत इस्तेमाल करने की कोशिश की है। कहीं वह दुश्मनों से मिलकर वतन के साथ कोई गद्दारी तो नहीं कर रहा?”

“अगर आपका हुक्म हो तो वायरलेस पर…!”

“अभी नहीं…पहले हमें उसका मकसद मालूम करना होगा और तब तक हर कदम निहायत होशियारी से उठाना होगा। अगर बात बाहर निकल गई, तो हो सकता है कि यूएनओ के सामने हमारी पोजीशन गिर जाये।”

“तो क्या किया जाये सर?”

“तुम फौरन यहाँ चले आओ।”

कर्नल रजा अली को अपने घर आने का आदेश देकर ब्रिगेडियर उस्मान ने रिसीवर नीचे रखा और फिर उठाकर रशीद के घर का नंबर मिलाना चाहा, लेकिन झट कुछ सोचकर विचार बदल दिया। रिसीवर को क्रैडल पर रखकर मानसिक उलझन दूर करने के लिए वह अपने हाथों की उंगलियाँ मरोड़ने लगे। उन्हें अभी तक इस बात का विश्वास नहीं हो रहा था कि रशीद हिंदुस्तान से लौट आया है और ऐसा दायित्वहीन काम भी कर सकता है।
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Re: वापसी : गुलशन नंदा

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