इस वाक्य पर कमरे में कई मिले-जुले ठहाके गूंजे। जय ठिठककर रुक गया। फिर कुछ सोचकर वह हॉल की ओर पलट गया। हॉल में सारे अतिथि इकट्ठे हो चुके थे। सामने ही उसे संध्या दिखाई दी जो अपने सबसे सुन्दर वस्त्रों में सुसज्जित थी। उसके होंठों पर एक जगमगाती हुई सी मुस्कान नाच रही थी। वह नौकर से पूछ रही थी, “राज बाबू कहां हैं....शामू?”
“भीतर हैं....अपने मित्रों के संग...” शामू उत्तर देकर जय के पास से गुजरा। जय ने उसे रोककर कहा, “शामू....राज से कहना....पार्टी आरम्भ होने वाली है...सारे अतिथि आ गए हैं।”
शामू सिर हिलाकर भीतर चला गया। जय ने जेब से सिगार निकालकर दियासलाई जलाई। इसी समय उसकी दृष्टि संध्या से मिली। संध्या हड़बड़ाकर इधर-उधर देखने लगी....फिर एक लड़की की ओर बढ़ गई। जय ने माचिस से तीली निकालकर दांतों में दबा ली और सिगार को माचिस पर रगड़ने लगा। फिर चौंककर उसने सिगार को देखा और तीली की दांतों में से हटाकर सिगार को होंठों में दबा लिया और दूसरी तीली निकालकर सिगार सुलगा लिया। उसने पहला ही कश खींचा था कि राज के मित्र ठहाके लगाकर हॉल की ओर आने लगे। जय चुपचाप वहीं खड़ा सिगार के कश लेता रहा। वे लोग जय की ओर देखे बिना लड़खड़ाते हुए हॉल में पहुंच गए। राज सबसे पीछे रह गया। उसने जय की ओर देखा और मुस्कराकर बोला, “अरे भैया! आप अभी तक यहीं खड़े हैं.....”
“तुम्हारी ही प्रतीक्षा कर रहा था....” जय मुस्कराया।
फिर राज के साथ चलता हुआ वह हॉल में आ गया। संध्या राज को देखकर तेजी से उसकी ओर बढ़ती हुई बोली, “हैलो राज.....कहां थे तुम? मैं कितनी देर से यहां बोर हो रही हूं....”
“अब बोर नहीं होगी....” राज ने मुस्कराकर संध्या का हाथ अपने हाथ में थाम लिया।
सब लोग एक बड़ी-सी मेज के गिर्द खड़े थे जिस पर खाने-पीने का सामान रखा था। राज ने आपस में बातें करते हुए अतिथियों को सम्बोधित करने के लिए जोर से मेज को थपथपाया और फिर लड़खड़ा कर संभलते हुए बोला, “लेडीज एन्ड जैंटलमैन....आप लोग शायद जानते न हों, यह पार्टी दोहरी खुशी में दी जा रही है....पहली खुशी तो है मेरी परीक्षा में सफलता की और दूसरी खुशी....मेरे जीवन के नये मोड़ की....जीवन में एक नवीनता की.....और यह नवीनता क्या है....यह आपको मेरे भैया बताएंगे.....क्योंकि उनके सामने बोलते हुए मुझे शर्म आती है....”
राज ने ठहाका लगाया और अतिथियों में से कुछ ने अनमने मन से उसका साथ दिया। कुछ लोग आश्चर्य से राज और उसके साथियों को देखने लगे। अनिल के पास खड़े हुए एक अतिथि ने मदिरा की दुर्गंध से बचने के लिए नाक पर रूमाल रख लिया था। राज जय की ओर मुड़ा और जेब से एक डिबिया निकालकर उसमें से अंगूठी निकाली, फिर डिबिया को एक ओर फेंकते हुए जय की ओर झुक कर उसके कान में धीरे से बोला, “यह अंगूठी है भैया....”
“मैं नशे में नहीं हूं...” जय मुस्कराया, “मुझे दिखाई दे रही है....”
“जानते हैं किसलिए लाया हूं यह अंगूठी....”
“जानता हूं....” जय की मुस्कराहट और गहरी हो गई, “संध्या के लिए....”
“आप तो बहुत समझदार हैं भैया! आप स्वयं मेरी और संध्या की सगाई की घोषणा कर दें....”
जय ने मुस्कराकर संध्या की ओर देखा.....संध्या ने टाई-पिन निकाल लिया था। उसके होंठों पर एक विजयी मुस्कराहट थी। जय ने अंगूठी राज के हाथ से ले ली और मुस्कराता हुआ अतिथियों की ओर देखकर बोला, “मान्यवर अतिथियों! आज की पार्टी किस उपलक्ष्य में दी जा रही है, यह आप सब राज ने सुन चुके हैं....राज ने इसी अवसर पर अपनी खुशियों को दोहरा करने की घोषणा की है....एक बड़े भाई के नाते उसने यह काम मुझे सौंपा है....यह मेरा कर्तव्य है कि राज की दूसरी खुशी की घोषणा मैं करूं.....क्योंकि राज मेरा छोटा भाई है....और मैं यह घोषणा करते हुए बड़ी प्रसनन्ता अनुभव करता हूं कि राज की सगाई....सेठ घनश्यामदास की इकलौती बेटी संध्या से.....नहीं हो रही....”
“भैया....!” अचानक राज इतनी जोर से बोला कि पीछे खड़े कई अतिथि घबराकर उछल पड़े।
संध्या का चेहरा क्रोध और अपमान से लाल हो गया था....किन्तु जय....! उसके चेहरे पर कोई घबराहट अथवा चिन्ता के चिन्ह नहीं थे.....उसने बड़ी शान्ति से राज की ओर देखा और गम्भीरता से बोला, “चिल्लाओ मत....यह भले मानसों का घर है.....यहां बहुत सारे शिष्ट अतिथि भी उपस्थित हैं।”
राज का मस्तिष्क अत्यधिक क्रोध से भिन्ना गया था। वह बड़ी कड़ी और कठोर दृष्टि से जय को घूर रहा था....उसके होंठ बड़ी सख्ती से भिंचे हुए, नथुने घृणा और क्रोध की अधिकता से फूले हुए थे....उसे ऐसे अनुभव हो रहा था जैसे उसका प्यार करने वाला भाई किसी राक्षस के रूप में उसके सामने आ गया हो। उसने होंठ भींचकर कहा, “आखिर क्यों नहीं हो रही मेरी सगाई संध्या के साथ?”
“इसलिए कि यह सम्बन्ध मुझे पसन्द नहीं....” जय ने उसी शान्त मुद्रा में सिगार का एक कश लेकर उत्तर दिया।
“संध्या से ब्याह मैं करूंगा या आप?”
“ब्याह मेरे छोर्ट भाई का है....”
“मैं पूछता हूं संध्या में क्या बुराई है? वह ऊंचे परिवार की नहीं है? शिक्षित नहीं है? सुन्दर नहीं है.....शिष्ट नहीं है?”
“यह सब है....किन्तु, केवल शिक्षा सुन्दरता और उच्च परिवार.....एक कुलीन बहू और मान-मर्यादा रखने वाली बहू की आवश्यकताओं को पूरा नहीं करते...”
“बहुत हो गया राज बाबू....!” संध्या ने बीच में तड़पकर कहा, “क्या आपने मुझे अतिथियों के सामने अपमानित करने के लिए बुलाया था...? मैं जा रही हूं।”
“ठहरो.....संध्या!” राज ने संध्या की बांह थाम ली....फिर जय की ओर मुड़कर उनकी आंखों में झांककर बोला‒
“क्या आप बता सकते हैं कि मेरे विवाह से आप इतना घबरा क्यों रहे हैं?”
“बहुत अच्छे....” जय उसी मुद्रा में बोला, “वास्तव में शराब मनुष्य को बहादुर बना देती है....खैर... मैं तुम्हें इंजीनियरिंग की शिक्षा के लिए विलायत भेजना चाहता हूं ताकि वापस लौटकर तुम मेरी ही मिल में दो-तीन हजार रुपये पा सकोगे.....और मुझे बाहर से किसी इंजीनियर को नियुक्त न करना पड़े।”
“या इसलिए कि मेरी विलायत में शिक्षा और निवास के बीच आप ही सारी संपत्ति के मालिक बने रहें....आप जानते हैं कि ब्याह के बाद मैं आपके बहुत से बंधनों से स्वतंत्र हो जाऊंगा....”
“इससे मुझ पर क्या प्रभाव पड़ सकता है?”
“आप पर इसका प्रभाव अवश्य ही पड़ेगा....आपके हाथ से आधा कारोबार निकल जाएगा....आधी सम्पत्ति निकल जाएगी....फिर आप सुगमता से डैडी की छोड़ी हुई पूरी धन-संपत्ति को हजम न कर सकोगे....पर मैं ऐसा न होने दूंगा....आपकी चाल अब धीरे-धीरे मेरी समझ में आ रही है....आपके लाड़-प्यार का कारण भी खुलकर सामने आता जा रहा है....साथ ही आपको यह भी अनुभव होने लगा है कि मैं पहले के समान अबोध नहीं रहा....अपना अधिकार पहचानने लगा हूं....इसीलिए आपका व्यवहार बदलना चाहता हूं....”
“मैंने अनुभव कर लिया था....” जय ने उसी मुस्कराहट से सिगार का कश लेकर कहा, “कि अब तुम आवश्यकता से बढ़कर समझदार होते जा रहे हो...”
“और अब मैं आंखें बन्द करके कुएं में छलांग लगाने के लिए तैयार नहीं हूं....”
“कोई समझदार व्यक्ति आंखें बन्द करके कुएं में छलांग नहीं लगाता....समझदार तो आंखें खोलकर ही कुएं में छलांग लगाते हैं....”
“मैं वयस्क हो चुका हूं और स्वयं अपनी इच्छाओं का स्वामी हूं....आज मैं अपने भाग के कारोबार और धन-सम्पत्ति का बंटवारा चाहता हूं....”
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Re: लव स्टोरी
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(वापसी : गुलशन नंदा) ......(विधवा माँ के अनौखे लाल) ......(हसीनों का मेला वासना का रेला ) ......(ये प्यास है कि बुझती ही नही ) ...... (Thriller एक ही अंजाम ) ......(फरेब ) ......(लव स्टोरी / राजवंश running) ...... (दस जनवरी की रात ) ...... ( गदरायी लड़कियाँ Running)...... (ओह माय फ़किंग गॉड running) ...... (कुमकुम complete)......
साधू सा आलाप कर लेता हूँ ,
मंदिर जाकर जाप भी कर लेता हूँ ..
मानव से देव ना बन जाऊं कहीं,,,,
बस यही सोचकर थोडा सा पाप भी कर लेता हूँ
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Re: लव स्टोरी
हॉल में धीमे स्वरों में खुसर-फुसर होने लगी....राधा आश्चर्य से आंखें फाड़े द्वार से टेक लगाकर खड़ी हो गई....शामू की आंखें भी फैली रह गईं। संध्या ने विजयी मुस्कराहट के साथ जय को देखा और अनिल, धर्मचन्द, फकीरचन्द तथा कुमुद का नशा और गहरा हो गया....किन्तु जय के चेहरे पर तनिक भी परिवर्तन नहीं था, कोई घबराहट और चिन्ता नहीं थी....उसने बड़े सन्तरे की एक फांक मुंह में डाली और फिर चुपचाप सिगार पीने लगा। राज ने घूर कर कहा, “सुन रहे हैं आप! मैं क्या कह रहा हूं...”
“सुन रहा हूं....” जय सिगार का धुआं छोड़ते हुए स्थिर भाव से बोला, “कुछ समय पहले ही इस तूफान की तीव्रता को अनुभव कर रहा था और दो-तीन दिन से मुझे विश्वास हो गया था कि यह प्रचंड तूफान अवश्य ही आएगा, आएगा और तुम्हारे शरीर से वस्त्र उतार कर तुम्हें नग्न छोड़ जाएगा....और तुम पलक झपकते ही कौड़ी-कौड़ी के अधीन हो जाओगे।”
“तुम्हें....यह साहस....!”
“शिष्टता से बात करो....” जय आंखें निकालकर बोला, “अब तुम ठाकुर जयकुमार के छोटे भाई नहीं हो....तुम एक कंगाल हो और सेठ ठाकुर जयकुमार के सामने खड़े होकर बातचीत कर रहे हो। हमने तुम्हें डैडी के स्वर्गवास होने के बाद अपने भाई के समान ही नहीं बल्कि बेटे की भांति तुम्हारा पालन-पोषण किया है....तुम्हारी शिक्षा की ओर विशेष ध्यान दिया है....किसी बात पर तुम्हारा मन मैला नहीं होने दिया....तुम्हारी हर इच्छा, प्रत्येक हठ को पूरा किया है....आधी-आधी रात तुमने हजारों रुपयों की मांग की और हमने कभी यह भी नहीं पूछा कि तुम्हें इतने रुपये किसलिए चाहिए....तुमने क्लबों, जुए और शराब में हमारा धन पानी के समान बहाया....हमने कभी तुम्हारा हाथ रोकने का प्रयत्न नहीं किया ताकि तुम्हारे मन को कष्ट न पहुंचे....हमने चाहा कि तुम्हें विदेश भेजकर इंजीनियरिंग की उच्च शिक्षा दिलाएं ताकि द्वार-द्वार भटकने के स्थान पर तुम हमारी ही फैक्टरी में अच्छे वेतन पर नियुक्त हो सको और हमारे संरक्षण में रहो....और तुम हमारे उपकार का बदला यह चुका रहे हो कि आज हमीं से आंखें मिलाकर इस उद्दण्डता से बात कर रहे हो....”
“निःसन्देह....आंखें मिलाकर मैं समान रूप से आप से बात कर रहा हूं” राज विषैली मुद्रा में बोला, “क्योंकि जब तक मैं आपको अपना बड़ा भाई....अपने पिताजी के स्थान पर समझता था, मेरे मन में आपके लिए सम्मान था, स्नेह था, क्योंकि उस समय मैं आपके मन के कूटभावों को नहीं समझता था.....मुझे यह ज्ञान नहीं था कि आप मुझे एक मधुर विष पिलाकर सदा के लिए अपने अधीन रखना चाहते हैं....किन्तु; जब धीरे-धीरे मेरी आंखें खुलने लगीं....आपके मधुर विष का प्रभाव स्वयं ही घटने लगा....आपका व्यक्तित्व, आपकी भावनाएं सब मेरी समझ में आती गईं....आज आप खुलकर स्पष्ट रूप से मेरी आंखों के सामने आ गए हैं....आप मुझे विदेश भेजकर इंजीनियर बनाना चाहते हैं कि मैं वापस आकर इसी प्रकार आपके अधीन रहूं...दो ढाई हजार रुपये मासिक की नौकरी देकर आप मुझे अपना दास बनाएं रखें। मैं कोई आपके टुकड़ों पर पड़ा हुआ भिखमंगा नहीं हूं....मैं अपने स्वर्गीय पिता की सम्पत्ति में आधे का अधिकारी हूं....अब मैं अबोध और अल्प आयु बालक नहीं हूं....अपने ढंग से, अपनी इच्छा-अनुसार जीवन व्यतीत करने का साहस रखता हूं....और आज मैं अपना अधिकार प्राप्त करके ही यहां से टलूंगा....”
“अवश्य मिलेगा....” जय विषैली मुस्कराहट के साथ बोला, “तुम्हें, तुम्हारा अधिकार अवश्य मिलेगा....”
फिर जय ने अतिथियों में बैठे एक बूढ़े सज्जन की ओर देखा और उधर संकेत करके बोला, “यह है डैडी के समय से हमारे पुराने सालिसिटर.....हमें न्याय परामर्श देने वाले, खन्ना साहब....तुम इनसे अपना अधिकार मांग सकते हो, क्योंकि डैडी ने मरने से कुछ ही समय पूर्व अपना वसीयतनामा तैयार किया था और खन्ना साहब की उपस्थिति में उस पर हस्ताक्षर किए थे....स्वयं खन्ना साहब के हस्ताक्षर साक्षी के रूप में उस वसीयतनामे पर हैं....”
खन्ना साहब अतिथियों की भीड़ में से निकलकर आगे आ गए और राज की ओर देखकर बोले, “मुझे खेद है राज! आज मुझे यह समय देखना पड़ रहा है;...मैं तुम्हारे डैडी के समय से ही तुम लोगों का सालिसिटर हूं....तुम्हारे स्वर्गवासी डैडी ने मेरे सामने ही वसीयत की थी....वसीयत के अनुसार तुम्हारे डैडी ने तुम्हारे बड़े भाई जय को ही एकमात्र अपनी पूरी सम्पत्ति का मालिक निश्चित किया था।”
“है....” राज के मन को धक्का-सा लगा।
संध्या आंखें फाड़-फाड़ कर खन्ना साहब की ओर देखती रह गई। अतिथियों में बातें होने लगीं। जय के होंठों पर एक सन्तोषजनक मुस्कराहट फैल गई। खन्ना साहब ने बात चालू रखी, “तुम्हारे डैडी की वसीयत के अनुसार तुम्हारे पिता की हर चीज का अधिकारी न्याय द्वारा जय ही होता है....इसी वसीयत के अनुसार तुम्हारे पालन-पोषण और देख-रेख का उत्तरदायित्व जय पर है....जब तक तुम उससे मिलकर रहते हो तब तक वह तुम्हारे निजी व्यय के लिए तुम्हें एक हजार से तीन हजार रुपये मासिक तक देने का पाबन्द था.....किन्तु उसी समय तक जब तक तुम उसके संरक्षण में इसी कोठी में उसके साथ रहो और तुम दोनों में किसी प्रकार की अनबन न हो.....जय ने झगड़े को टालने का बहुत प्रयत्न किया था....वह एक समय से तुम्हारे तेवर देख रहा था। उसे भय था कि तुम आज के समारोह में अवश्य ही कोई झगड़ा खड़ा कर दोगे....इसलिए उसने मुझसे कह दिया था कि मैं वसीयतनामा साथ लेता आऊं....वसीयतनामा मेरे पास ही है। तुम चाहो तो यहां किसी भी व्यक्ति को दिखा कर अपना सन्तोष कर सकते हो....चाहो तो किसी समय कल किसी वकील को लाकर जांच करा सकते हो।”
“मैं नहीं जानता कि वह ऐसा क्यों कर गए....” खन्ना साहब ने ठंडी सांस लेकर कहा, “किन्तु यह एक स्पष्ट बात है कि तुम्हारा उनकी सम्पत्ति पर कोई अधिकार नहीं....जुबान झूठी हो सकती है किन्तु, यह उनका अपना लिखित वसीयतनामा झूठा नहीं हो सकता....हो सकता है इस वसीयत में उनका कोई काम्लेक्स काम कर रहा हो, किसी विशेष घटना या ऐसी परिस्थिति का परिणाम हो जो हम लोगों के ज्ञान से बाहर हो....”
राज ने वसीयतनामा खन्ना साहब के हाथ से लेना चाहा, किन्तु खन्ना साहब ने हाथ खींच लिया और बोले, “नहीं...यह वसीयतनामा एक अमानत है...मैं इसे इस प्रकार तुम्हारे हाथ में नहीं दे सकता...हां, यदि तुम चाहो तो अपने किसी वकील को लेकर कल मेरे पास आ जाना...हां, इन उपस्थित सज्जनों में से यदि कोई इसे देखना चाहते हों तो देख सकते हैं...”
अतिथियों में से कुछ लोग आगे बढ़ आए और खन्ना साहब के हाथ से वसीयतनामा लेकर पढ़ने लगे। शेष लोग सन्नाटे में खड़े थे...संध्या आश्चर्य से आंखें फाड़े राज की ओर देख रही थी...और राज...उसकी तो दशा ऐसी थी मानो उसके तो पांव तले से धरती खिसक गई हो...वह निष्प्राप-सा खड़ा था...उसका चेहरा सफेद हो गया था और आंखों का प्रकाश जैसे लोप हो गया हो...आखिर वसीयतनामा देखने के बाद एक आदमी ने ठंडी सांस लेकर कहा‒
“वसीयत तो वही है जो खन्ना साहब ने बताई है....नीचे आत्माराम जी के हस्ताक्षर भी हैं...”
राज कुछ न बोला। उसकी आंखें अब भी आश्चर्य से फैली हुई थीं। वह धीरे-धीरे होंठों पर जबान फेरकर मुड़ा। दूसरे ही क्षण उसके मस्तिष्क को एक झटका-सा लगा। संध्या अब वहां नहीं थी। न जाने वह किस समय वहां से चली गई थी। अचानक अनिल, धर्मचन्द, फकीरचन्द और कुमुद मेज पर से हट कर राज के पास आए और बोले, “आओ राज! चलें...”
राज ने पांव बढ़ाया ही था कि जय ने हाथ उठाकर कहा, “ठहरो...।”
राज ठिठककर रुक गया। जय मुस्कराता हुआ उसके पास आया और बोला, “अभी ऐसी कुछ चीजें तुम्हारे पास हैं जो मेरी सम्पत्ति हैं आज से मैं एक कठोर, बुरा और स्वार्थी भाई कहलाऊंगा...फिर इस उपाधि की कोई श्रेणी कम क्यों रह जाए?”
“सुन रहा हूं....” जय सिगार का धुआं छोड़ते हुए स्थिर भाव से बोला, “कुछ समय पहले ही इस तूफान की तीव्रता को अनुभव कर रहा था और दो-तीन दिन से मुझे विश्वास हो गया था कि यह प्रचंड तूफान अवश्य ही आएगा, आएगा और तुम्हारे शरीर से वस्त्र उतार कर तुम्हें नग्न छोड़ जाएगा....और तुम पलक झपकते ही कौड़ी-कौड़ी के अधीन हो जाओगे।”
“तुम्हें....यह साहस....!”
“शिष्टता से बात करो....” जय आंखें निकालकर बोला, “अब तुम ठाकुर जयकुमार के छोटे भाई नहीं हो....तुम एक कंगाल हो और सेठ ठाकुर जयकुमार के सामने खड़े होकर बातचीत कर रहे हो। हमने तुम्हें डैडी के स्वर्गवास होने के बाद अपने भाई के समान ही नहीं बल्कि बेटे की भांति तुम्हारा पालन-पोषण किया है....तुम्हारी शिक्षा की ओर विशेष ध्यान दिया है....किसी बात पर तुम्हारा मन मैला नहीं होने दिया....तुम्हारी हर इच्छा, प्रत्येक हठ को पूरा किया है....आधी-आधी रात तुमने हजारों रुपयों की मांग की और हमने कभी यह भी नहीं पूछा कि तुम्हें इतने रुपये किसलिए चाहिए....तुमने क्लबों, जुए और शराब में हमारा धन पानी के समान बहाया....हमने कभी तुम्हारा हाथ रोकने का प्रयत्न नहीं किया ताकि तुम्हारे मन को कष्ट न पहुंचे....हमने चाहा कि तुम्हें विदेश भेजकर इंजीनियरिंग की उच्च शिक्षा दिलाएं ताकि द्वार-द्वार भटकने के स्थान पर तुम हमारी ही फैक्टरी में अच्छे वेतन पर नियुक्त हो सको और हमारे संरक्षण में रहो....और तुम हमारे उपकार का बदला यह चुका रहे हो कि आज हमीं से आंखें मिलाकर इस उद्दण्डता से बात कर रहे हो....”
“निःसन्देह....आंखें मिलाकर मैं समान रूप से आप से बात कर रहा हूं” राज विषैली मुद्रा में बोला, “क्योंकि जब तक मैं आपको अपना बड़ा भाई....अपने पिताजी के स्थान पर समझता था, मेरे मन में आपके लिए सम्मान था, स्नेह था, क्योंकि उस समय मैं आपके मन के कूटभावों को नहीं समझता था.....मुझे यह ज्ञान नहीं था कि आप मुझे एक मधुर विष पिलाकर सदा के लिए अपने अधीन रखना चाहते हैं....किन्तु; जब धीरे-धीरे मेरी आंखें खुलने लगीं....आपके मधुर विष का प्रभाव स्वयं ही घटने लगा....आपका व्यक्तित्व, आपकी भावनाएं सब मेरी समझ में आती गईं....आज आप खुलकर स्पष्ट रूप से मेरी आंखों के सामने आ गए हैं....आप मुझे विदेश भेजकर इंजीनियर बनाना चाहते हैं कि मैं वापस आकर इसी प्रकार आपके अधीन रहूं...दो ढाई हजार रुपये मासिक की नौकरी देकर आप मुझे अपना दास बनाएं रखें। मैं कोई आपके टुकड़ों पर पड़ा हुआ भिखमंगा नहीं हूं....मैं अपने स्वर्गीय पिता की सम्पत्ति में आधे का अधिकारी हूं....अब मैं अबोध और अल्प आयु बालक नहीं हूं....अपने ढंग से, अपनी इच्छा-अनुसार जीवन व्यतीत करने का साहस रखता हूं....और आज मैं अपना अधिकार प्राप्त करके ही यहां से टलूंगा....”
“अवश्य मिलेगा....” जय विषैली मुस्कराहट के साथ बोला, “तुम्हें, तुम्हारा अधिकार अवश्य मिलेगा....”
फिर जय ने अतिथियों में बैठे एक बूढ़े सज्जन की ओर देखा और उधर संकेत करके बोला, “यह है डैडी के समय से हमारे पुराने सालिसिटर.....हमें न्याय परामर्श देने वाले, खन्ना साहब....तुम इनसे अपना अधिकार मांग सकते हो, क्योंकि डैडी ने मरने से कुछ ही समय पूर्व अपना वसीयतनामा तैयार किया था और खन्ना साहब की उपस्थिति में उस पर हस्ताक्षर किए थे....स्वयं खन्ना साहब के हस्ताक्षर साक्षी के रूप में उस वसीयतनामे पर हैं....”
खन्ना साहब अतिथियों की भीड़ में से निकलकर आगे आ गए और राज की ओर देखकर बोले, “मुझे खेद है राज! आज मुझे यह समय देखना पड़ रहा है;...मैं तुम्हारे डैडी के समय से ही तुम लोगों का सालिसिटर हूं....तुम्हारे स्वर्गवासी डैडी ने मेरे सामने ही वसीयत की थी....वसीयत के अनुसार तुम्हारे डैडी ने तुम्हारे बड़े भाई जय को ही एकमात्र अपनी पूरी सम्पत्ति का मालिक निश्चित किया था।”
“है....” राज के मन को धक्का-सा लगा।
संध्या आंखें फाड़-फाड़ कर खन्ना साहब की ओर देखती रह गई। अतिथियों में बातें होने लगीं। जय के होंठों पर एक सन्तोषजनक मुस्कराहट फैल गई। खन्ना साहब ने बात चालू रखी, “तुम्हारे डैडी की वसीयत के अनुसार तुम्हारे पिता की हर चीज का अधिकारी न्याय द्वारा जय ही होता है....इसी वसीयत के अनुसार तुम्हारे पालन-पोषण और देख-रेख का उत्तरदायित्व जय पर है....जब तक तुम उससे मिलकर रहते हो तब तक वह तुम्हारे निजी व्यय के लिए तुम्हें एक हजार से तीन हजार रुपये मासिक तक देने का पाबन्द था.....किन्तु उसी समय तक जब तक तुम उसके संरक्षण में इसी कोठी में उसके साथ रहो और तुम दोनों में किसी प्रकार की अनबन न हो.....जय ने झगड़े को टालने का बहुत प्रयत्न किया था....वह एक समय से तुम्हारे तेवर देख रहा था। उसे भय था कि तुम आज के समारोह में अवश्य ही कोई झगड़ा खड़ा कर दोगे....इसलिए उसने मुझसे कह दिया था कि मैं वसीयतनामा साथ लेता आऊं....वसीयतनामा मेरे पास ही है। तुम चाहो तो यहां किसी भी व्यक्ति को दिखा कर अपना सन्तोष कर सकते हो....चाहो तो किसी समय कल किसी वकील को लाकर जांच करा सकते हो।”
“मैं नहीं जानता कि वह ऐसा क्यों कर गए....” खन्ना साहब ने ठंडी सांस लेकर कहा, “किन्तु यह एक स्पष्ट बात है कि तुम्हारा उनकी सम्पत्ति पर कोई अधिकार नहीं....जुबान झूठी हो सकती है किन्तु, यह उनका अपना लिखित वसीयतनामा झूठा नहीं हो सकता....हो सकता है इस वसीयत में उनका कोई काम्लेक्स काम कर रहा हो, किसी विशेष घटना या ऐसी परिस्थिति का परिणाम हो जो हम लोगों के ज्ञान से बाहर हो....”
राज ने वसीयतनामा खन्ना साहब के हाथ से लेना चाहा, किन्तु खन्ना साहब ने हाथ खींच लिया और बोले, “नहीं...यह वसीयतनामा एक अमानत है...मैं इसे इस प्रकार तुम्हारे हाथ में नहीं दे सकता...हां, यदि तुम चाहो तो अपने किसी वकील को लेकर कल मेरे पास आ जाना...हां, इन उपस्थित सज्जनों में से यदि कोई इसे देखना चाहते हों तो देख सकते हैं...”
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राज ने पांव बढ़ाया ही था कि जय ने हाथ उठाकर कहा, “ठहरो...।”
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साधू सा आलाप कर लेता हूँ ,
मंदिर जाकर जाप भी कर लेता हूँ ..
मानव से देव ना बन जाऊं कहीं,,,,
बस यही सोचकर थोडा सा पाप भी कर लेता हूँ
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Re: लव स्टोरी
राज ने घृणा पूर्ण दृष्टि से जय की ओर देखा...फिर चारों ओर देखकर उसने जेबों में हाथ डाले...एक जेब से कार की चाबी निकाली, दूसरी जेब से नोटों का पर्स और तीसरी जेब से सोने का सिगरेट-केस। उसने घृणा से ये सब चीजें जय की ओर बढ़ा दीं। जय ने उन चीजों पर अपना अधिकार जमाते हुए मुस्करा कर कहा, “और ये कपड़े?...चलो मैं दया करके छोड़ देता हूं, क्यों कि तुम यहां से नंगे नहीं जा सकते....”
राज की आंखों में घृणा ने प्रतिशोध का रूप धारण कर लिया...उसका मन तो चाहा कि वह अपने पहने हुए वस्त्रों को फाड़ फेंके, किन्तु; विवश-सा वह इस अपमान को पी गया।
मित्रों को साथ लेकर वह तेजी से हॉल से बाहर निकल गया। उसके बाहर जाते ही जय ने बड़ी प्रसन्न मुद्रां में अतिथियों को सम्बोधित किया, “सज्जनो! आप किस प्रतीक्षा में हैं...खाना ठंडा हो रहा है। कृपया आरम्भ कीजिए...।”
द्वार से गुजरते हुए राधा ने राज को देखा तो उसकी आंखों में अनायास आंसू उमड़ आए। राजा ने मां की साड़ी छूते हुए पूछा, “मम्मी, अंकल कहां जा रहे हैं?”
राधा ने कोई उत्तर न दिया। वह केवल भीगी आंखों से राज को जाते देखती रही। मां से कोई उत्तर न पाकर राजा भागकर राज के पैरों से लिपट गया और बोला, “अंकल...आप कहां जा रहे हैं अंकल! आप ही के पास होने पर तो यह समारोह हो रहा है...और आप ही जा रहे हैं...”
राज ने झुककर राजा को देखा। उसके भोले-भाले चेहरे पर एक गहरी वेदना थी और आंखों में आंसू झलक रहे थे। राज का मन भी भर आया। उसने राजा के सिर पर स्नेह से हाथ फेरा और धीरे-से दबी आवाज में बोला, “हां बेटे! मैं जा रहा हूं...ऐसी जगह जहां खून के दरिया को सुनहरी दीवारें विभक्त न कर सकें...”
“नहीं अंकल! मैं नहीं जाने दूंगा आपको...आप नहीं जाएंगे...”
राजा रोते हुए राज की टांगों से लिपट गया। राज ने बड़ी कठिनाई से उसे अलग किया। नीचे बैठकर उसे प्यार किया और फिर तेजी से उठकर द्वार की ओर बढ़ गया। राजा हाथ उठा-उठाकर चिल्लाता ही रहा, “अंकल...अंकल...”
राधा के चेहरे पर चिन्ता और बेचैनी की गहरी रेखाएं उभर आईं...उसने घबराकर बाहर द्वार की ओर देखा जहां से राज अभी-अभी बाहर निकला था। जय इस समय मिठाई का एक टुकड़ा उठाकर मुंह में डाल रहा था। राधा ने पति के कंधे पर हाथ रखकर बड़े दुख से कहा, “देखिए तो...राज सचमुच ही जा रहा है...भगवान के लिए उसे रोक लीजिए...”
“चुप...!” जय इतनी जोर से चिल्लाया कि राधा हड़बड़ाकर पीछे हट गई और डरी हुई दृष्टि से जय को देखने लगी।
यों गला फाड़कर चीखने से जय को खांसी आ गई और वह सीने पर हाथ रखकर बुरी तरह खांसने लगा।
राज की आंखों में घृणा ने प्रतिशोध का रूप धारण कर लिया...उसका मन तो चाहा कि वह अपने पहने हुए वस्त्रों को फाड़ फेंके, किन्तु; विवश-सा वह इस अपमान को पी गया।
मित्रों को साथ लेकर वह तेजी से हॉल से बाहर निकल गया। उसके बाहर जाते ही जय ने बड़ी प्रसन्न मुद्रां में अतिथियों को सम्बोधित किया, “सज्जनो! आप किस प्रतीक्षा में हैं...खाना ठंडा हो रहा है। कृपया आरम्भ कीजिए...।”
द्वार से गुजरते हुए राधा ने राज को देखा तो उसकी आंखों में अनायास आंसू उमड़ आए। राजा ने मां की साड़ी छूते हुए पूछा, “मम्मी, अंकल कहां जा रहे हैं?”
राधा ने कोई उत्तर न दिया। वह केवल भीगी आंखों से राज को जाते देखती रही। मां से कोई उत्तर न पाकर राजा भागकर राज के पैरों से लिपट गया और बोला, “अंकल...आप कहां जा रहे हैं अंकल! आप ही के पास होने पर तो यह समारोह हो रहा है...और आप ही जा रहे हैं...”
राज ने झुककर राजा को देखा। उसके भोले-भाले चेहरे पर एक गहरी वेदना थी और आंखों में आंसू झलक रहे थे। राज का मन भी भर आया। उसने राजा के सिर पर स्नेह से हाथ फेरा और धीरे-से दबी आवाज में बोला, “हां बेटे! मैं जा रहा हूं...ऐसी जगह जहां खून के दरिया को सुनहरी दीवारें विभक्त न कर सकें...”
“नहीं अंकल! मैं नहीं जाने दूंगा आपको...आप नहीं जाएंगे...”
राजा रोते हुए राज की टांगों से लिपट गया। राज ने बड़ी कठिनाई से उसे अलग किया। नीचे बैठकर उसे प्यार किया और फिर तेजी से उठकर द्वार की ओर बढ़ गया। राजा हाथ उठा-उठाकर चिल्लाता ही रहा, “अंकल...अंकल...”
राधा के चेहरे पर चिन्ता और बेचैनी की गहरी रेखाएं उभर आईं...उसने घबराकर बाहर द्वार की ओर देखा जहां से राज अभी-अभी बाहर निकला था। जय इस समय मिठाई का एक टुकड़ा उठाकर मुंह में डाल रहा था। राधा ने पति के कंधे पर हाथ रखकर बड़े दुख से कहा, “देखिए तो...राज सचमुच ही जा रहा है...भगवान के लिए उसे रोक लीजिए...”
“चुप...!” जय इतनी जोर से चिल्लाया कि राधा हड़बड़ाकर पीछे हट गई और डरी हुई दृष्टि से जय को देखने लगी।
यों गला फाड़कर चीखने से जय को खांसी आ गई और वह सीने पर हाथ रखकर बुरी तरह खांसने लगा।
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Re: लव स्टोरी
राज ने अपने ध्यान में खोए जेब टटोली, फिर चौंक पड़ा और ठंडी सांस लेकर अनिल से बोला, “एक सिगरेट देना...”
अनिल ने जेब में हाथ डाला और कुमुद की ओर देखकर बोला, “पैकेट खुला हुआ नहीं है, तुम जरा एक सिगरेट निकालो...”
कुमुद ने सिगरेट निकालकर राज को दिया। राज ने अनिल और कुमुद को ध्यान से देखा फिर सिगरेट सुलगाकर धुआं ऊपर छोड़ा...
“अब धुआं ही छोड़ते रहोगे या कुछ सोचोगे भी?”
“क्या सोचूं?” राज कुछ खिन्न होकर बोला, “मेरे मस्तिष्क में तो बस एक ही बात बार-बार चक्कर लगा रही है, मेरे पास पिस्तौल होती तो इस स्वार्थी आदमी को गोली मार देता...”
“गोली उसे क्यों मारते...” कुमुद ने बुरा-सा मुंह बनाकर कहा, “गोली मारनी है तो अपने डैडी को मारो...”
“डैडी मर चुके हैं...किन्तु मैं तो अब भी नहीं सोच सकता कि वह मेरे साथ इतना बड़ा अन्याय करेंगे...”
“खूब!” अनिल व्यंग्यात्मक ढंग से बोला, “तुम अभी तक इसे अपने डैडी का अन्याय ही समझ रहे हो...”
“और क्या समझूं...?” राज ने अनिल को घूरकर कहा।
“यार! हमने दुनिया देखी है...यह दुनिया एक बहुत बड़ा रंगमंच है, जहां भांति-भांति के नाटक होते रहते हैं...और जो लोग नाटक की कला में कुशल होते हैं वे किसी भी दृष्टि में अपनी इच्छानुसार जो मोड़ चाहें उत्पन्न कर सकते हैं...”
“क्या मतलब...?”
“अब मतलब भी समझाना पड़ेगा...” अनिल झल्लाकर बोला, “क्या तुमने शिक्षा झक मारने के लिए प्राप्त की है? अरे कभी भी पिता अपनी संतान से ऐसा अन्याय नहीं कर सकता है...जो वसीयत खन्ना साहब ने दिखाई है वह तुम्हारे डैडी की असली वसीयत नहीं हो सकती...वसीयत जाली भी बनाई जा सकती है...”
“क्या कहते हो?” राज धीरे-से बोला, “इस पर डैडी के हस्ताक्षर हैं...”
“हस्ताक्षर क्या नकली नहीं हो सकते? मेरे पास लाओ...मैं उसकी वैसी ही नकल करके दिखा सकता हूं...”
“अरे हां...” फकीरचन्द उछलकर बोला, “यह तो मैंने सोचा ही नहीं था।”
“अब मुझे विश्वास है कि यह वसीयत जाली है...” धर्मचन्द संभलता हुआ आवेश में बोला, “और यदि तुम इसे स्वीकार करने से इन्कार कर दो तो न केवल न्यायालय से तुम्हें अपनी सम्पत्ति का आधा भाग मिल जाएगा बल्कि जाली वसीयत बनाने के अपराध में जय और खन्ना साहब को जेल की हवा खानी पड़ेगी...”
राज की आंखें चमक उठीं...उसके नथुने फूल गए...जय को बन्दीगृह में देखने की कल्पना से उसके प्रतिशोध की भावना को कुछ सन्तोष मिला। वह बड़बड़ाया, “मैं...मैं...उसे न्यायालय में चैलेंज करूंगा...”
“और हम सब लोग तुम्हारे साथ हैं...” अनिल सहानुभूति से राज के कंधे पर हाथ रखते हुए बोला, “कोई चिन्ता न करो...तुम इस संसार में अकेले नहीं हो...मुझे विश्वास है कि तुम सफल होकर रहोगे...तुम्हारी सम्पत्ति, तुम्हारा कारोबार तुम्हें अवश्य मिलेगा...पच्चीस करोड़ थोड़े नहीं होते राज! इससे एक पूरी रियासत खरीदी जा सकती है...अपनी कोठी, अपनी कारें...हम पग-पग पर तुम्हारे साथ होंगे...”
“मुझे अपना मैनेजर बना लेना....” कुमुद ने बड़े मूड़ में कहा, “मेरे बाबा मुझे सदा निखट्टू कहकर पुकारते हैं...मैं उन्हें बता दूंगा कि मैं निखट्टू नहीं हूं...”
अनिल ने जेब में हाथ डाला और कुमुद की ओर देखकर बोला, “पैकेट खुला हुआ नहीं है, तुम जरा एक सिगरेट निकालो...”
कुमुद ने सिगरेट निकालकर राज को दिया। राज ने अनिल और कुमुद को ध्यान से देखा फिर सिगरेट सुलगाकर धुआं ऊपर छोड़ा...
“अब धुआं ही छोड़ते रहोगे या कुछ सोचोगे भी?”
“क्या सोचूं?” राज कुछ खिन्न होकर बोला, “मेरे मस्तिष्क में तो बस एक ही बात बार-बार चक्कर लगा रही है, मेरे पास पिस्तौल होती तो इस स्वार्थी आदमी को गोली मार देता...”
“गोली उसे क्यों मारते...” कुमुद ने बुरा-सा मुंह बनाकर कहा, “गोली मारनी है तो अपने डैडी को मारो...”
“डैडी मर चुके हैं...किन्तु मैं तो अब भी नहीं सोच सकता कि वह मेरे साथ इतना बड़ा अन्याय करेंगे...”
“खूब!” अनिल व्यंग्यात्मक ढंग से बोला, “तुम अभी तक इसे अपने डैडी का अन्याय ही समझ रहे हो...”
“और क्या समझूं...?” राज ने अनिल को घूरकर कहा।
“यार! हमने दुनिया देखी है...यह दुनिया एक बहुत बड़ा रंगमंच है, जहां भांति-भांति के नाटक होते रहते हैं...और जो लोग नाटक की कला में कुशल होते हैं वे किसी भी दृष्टि में अपनी इच्छानुसार जो मोड़ चाहें उत्पन्न कर सकते हैं...”
“क्या मतलब...?”
“अब मतलब भी समझाना पड़ेगा...” अनिल झल्लाकर बोला, “क्या तुमने शिक्षा झक मारने के लिए प्राप्त की है? अरे कभी भी पिता अपनी संतान से ऐसा अन्याय नहीं कर सकता है...जो वसीयत खन्ना साहब ने दिखाई है वह तुम्हारे डैडी की असली वसीयत नहीं हो सकती...वसीयत जाली भी बनाई जा सकती है...”
“क्या कहते हो?” राज धीरे-से बोला, “इस पर डैडी के हस्ताक्षर हैं...”
“हस्ताक्षर क्या नकली नहीं हो सकते? मेरे पास लाओ...मैं उसकी वैसी ही नकल करके दिखा सकता हूं...”
“अरे हां...” फकीरचन्द उछलकर बोला, “यह तो मैंने सोचा ही नहीं था।”
“अब मुझे विश्वास है कि यह वसीयत जाली है...” धर्मचन्द संभलता हुआ आवेश में बोला, “और यदि तुम इसे स्वीकार करने से इन्कार कर दो तो न केवल न्यायालय से तुम्हें अपनी सम्पत्ति का आधा भाग मिल जाएगा बल्कि जाली वसीयत बनाने के अपराध में जय और खन्ना साहब को जेल की हवा खानी पड़ेगी...”
राज की आंखें चमक उठीं...उसके नथुने फूल गए...जय को बन्दीगृह में देखने की कल्पना से उसके प्रतिशोध की भावना को कुछ सन्तोष मिला। वह बड़बड़ाया, “मैं...मैं...उसे न्यायालय में चैलेंज करूंगा...”
“और हम सब लोग तुम्हारे साथ हैं...” अनिल सहानुभूति से राज के कंधे पर हाथ रखते हुए बोला, “कोई चिन्ता न करो...तुम इस संसार में अकेले नहीं हो...मुझे विश्वास है कि तुम सफल होकर रहोगे...तुम्हारी सम्पत्ति, तुम्हारा कारोबार तुम्हें अवश्य मिलेगा...पच्चीस करोड़ थोड़े नहीं होते राज! इससे एक पूरी रियासत खरीदी जा सकती है...अपनी कोठी, अपनी कारें...हम पग-पग पर तुम्हारे साथ होंगे...”
“मुझे अपना मैनेजर बना लेना....” कुमुद ने बड़े मूड़ में कहा, “मेरे बाबा मुझे सदा निखट्टू कहकर पुकारते हैं...मैं उन्हें बता दूंगा कि मैं निखट्टू नहीं हूं...”
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Re: लव स्टोरी
“मुझे तो भाई केवल पच्चीस हजार रुपये उधार दे देना,” फकीरचन्द ठंडी सांस लेकर बोला, “इस साले हर दिन के झगड़े से छुटकारा मिल जाएगा...मैं अपना कारोबार अलग करके बैठ जाऊंगा...”
“मेरा काम केवल दस हजार में चल जाएगा...” धर्मचन्द आगे खिसकता हुआ बोला, “एक वर्ष हो गया जब तुम्हारी भाभी के गहने, काम आरम्भ करने के लिए गिरवी रखे थे...आज तक नहीं छुड़ा सका...अब तुम्हारे द्वारा यह काम हो जाए तो जीवन-भर तुम्हारी भाभी तुम्हें आशीर्वाद देगी...”
“तुम लोग अभी से कल्पना की दुनिया में विचरने लगे हो...” अनिल बुरा-सा मुंह बनाकर बोला, “अरे राज को मुकदमा जीतने तो दो...फिर जो कुछ उसका है वह सब हमारा ही है...हम कोई पराए थोड़े हैं...आओ...उठो...राज! मैं अभी तुम्हें वकील चटर्जी के पास लिए चलता हूं...नगर का माना हुआ वकील है...इसके बाद हम लोग जरा बार में चलेंगे...सब नशा उखड़ गया है, इस बात से...”
सारी मित्र-मंडली उठ खड़ी हुई। राज की आंखों में प्रतिशोध की भावना और घृणा की आग स्पष्ट झलक रही थी...उसके होंठों पर एक घृणामय मुस्कराहट फैल गई।
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“मेरा काम केवल दस हजार में चल जाएगा...” धर्मचन्द आगे खिसकता हुआ बोला, “एक वर्ष हो गया जब तुम्हारी भाभी के गहने, काम आरम्भ करने के लिए गिरवी रखे थे...आज तक नहीं छुड़ा सका...अब तुम्हारे द्वारा यह काम हो जाए तो जीवन-भर तुम्हारी भाभी तुम्हें आशीर्वाद देगी...”
“तुम लोग अभी से कल्पना की दुनिया में विचरने लगे हो...” अनिल बुरा-सा मुंह बनाकर बोला, “अरे राज को मुकदमा जीतने तो दो...फिर जो कुछ उसका है वह सब हमारा ही है...हम कोई पराए थोड़े हैं...आओ...उठो...राज! मैं अभी तुम्हें वकील चटर्जी के पास लिए चलता हूं...नगर का माना हुआ वकील है...इसके बाद हम लोग जरा बार में चलेंगे...सब नशा उखड़ गया है, इस बात से...”
सारी मित्र-मंडली उठ खड़ी हुई। राज की आंखों में प्रतिशोध की भावना और घृणा की आग स्पष्ट झलक रही थी...उसके होंठों पर एक घृणामय मुस्कराहट फैल गई।
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