वह दरगाह जंगल के न जाने किस हिस्से में था, जिसके आंगन में महताबी रोशनी बिखरी हुई थी। मजार पर चढ़ी चादर के फड़फड़ाने की ध्वनि हवाओं की सरसराहट के साथ मिल कर परिवेश को रहस्यमय बना रही थी। दूर कहीं से भेड़ियों के चीखने की आवाजें आ रही थीं। मजार से थोड़े ही फासले पर एक वृध्द फकीर काबा की दिशा में उन्मुख था, जिसके सिर पर जालीदार टोपी थी और दोनों हाथ दुआ मांगने के अंदाज में ऊपर उठे हुए थे।
‘ला इलाहा इल्लल्लाह मुहम्मद रसूल अल्लाह!’
(अल्लाह के सिवा और कोई परमेश्वर नहीं है और मुहम्मद अल्लाह के रसूल हैं।)
उसने हथेलियों को आँखों से लगाया। ठुड्डी को दोनों कन्धों से स्पर्श कराने के पश्चात उठने ही वाला था कि दरगाह की चारदीवारी में लगे कमजोर दरवाजे पर दस्तक पड़ी। फ़कीर जोरों से खांसा और निकट ही पड़ी लाठी को टटोलकर उठाया। उसके खांसने के अंदाज और जर्जर जिस्म के कम्पन को देखकर लग रहा था कि उसकी अवस्था अस्सी साल से ऊपर थी। कांपते जिस्म का आधे से अधिक बोझ लाठी पर और कुछ कमजोर पैरों डालते हुए वह फ़कीर आगे बढ़ा। उसके दरवाजे तक पहुँचने में अधिक समय लगने के कारण दस्तक की कई बार पुनरावृत्ति हुई। आगंतुक बेहद जल्दी में जान पड़ता था।
“अल्लाह की हुक्म के बगैर एक पत्ता तक नहीं हिल सकता। फिर न जाने क्यों इन इंसानों को इतनी घबराहट रहती है।” दरवाजे पर लगातार पड़ती थाप से भन्नाकर फ़कीर बड़बड़ाया और चाल में थोड़ी तेजी लाकर दरवाजे तक पहुंचा। सांकल गिराने के बाद वापस मुड़ते हुए बोला- “खुल गया। दाखिल हो जाओ।”
दरवाजा एक झटके से खुला और आगंतुक तेजी से चारदीवारी में प्रविष्ट हो गया।
“मुझे...मुझे आपके मदद की जरूरत है बाबा।” आने वाला शख्स इस प्रकार हांफ रहा था, मानो लम्बी दौड़ लगाकर आया हो- “अगर अपने मदद नहीं की तो इंसानों का भगवान पर से भरोसा उठ जाएगा।”
फ़कीर ने आगंतुक की ओर देखने तक का जहमत नहीं उठाया और लाठी टेकते हुए टीन की छत वाली एक छोटी सी कोठरी की ओर बढ़ गया। आगंतुक तड़प कर उसके पीछे भागा।
“दो जिंदगियां एक शैतान के चंगुल में तड़प रही हैं बाबा। आपको हमारी मदद करनी होगी।”
“शैतान के खात्मे में अभी वक्त है। ठहर जा और सांस ले ले।” फ़कीर ने सुराही से पानी का भरा गिलास निकाला और साहिल की ओर बढ़ा दिया। आगंतुक को पानी की जरूरत थी, फ़कीर ये बात ताड़ गया था। साहिल ने उसके हाथ से गिलास झपटा और एक ही सांस में खाली कर दिया।
☐
Horror ख़ौफ़
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Re: Horror ख़ौफ़
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(प्यार का अहसास ) ......(वापसी : गुलशन नंदा) ......(विधवा माँ के अनौखे लाल) ......(हसीनों का मेला वासना का रेला ) ......(ये प्यास है कि बुझती ही नही ) ...... (Thriller एक ही अंजाम ) ......(फरेब ) ......(लव स्टोरी / राजवंश running) ...... (दस जनवरी की रात ) ...... ( गदरायी लड़कियाँ Running)...... (ओह माय फ़किंग गॉड running) ...... (कुमकुम complete)......
साधू सा आलाप कर लेता हूँ ,
मंदिर जाकर जाप भी कर लेता हूँ ..
मानव से देव ना बन जाऊं कहीं,,,,
बस यही सोचकर थोडा सा पाप भी कर लेता हूँ
(¨`·.·´¨) Always
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Re: Horror ख़ौफ़
12
“नीच! पापी!”
पुजारी ने लात का भीषण प्रहार द्विज की छाती पर किया और वह तख़्त से सीधा धरातल पर आ गिरा। अत्यधिक पीड़ा के बावजूद भी उसके होठों से आह तक नहीं निकली। उसका चेहरा आंसुओं से भीगा हुआ था। सिर पर पट्टी बंधी हुई थी। चेहरे पर पश्चाताप के भाव थे। पुजारी से दृष्टि मिलाने तक का साहस नहीं था उसमें। वह जमीन से उठने की कोशिश न करते हुए पुजारी के दूसरे प्रहार की प्रतीक्षा करता रहा। मगर पुजारी ने उस पर दूसरा प्रहार नहीं किया। केवल एक प्रहार को ही पर्याप्त समझकर उन्होंने गीता का अधोलोखित श्लोक कहा-
“त्रिविधं नरकस्येदं द्वारं नाशनमात्मनः।
कामः क्रोधस्तथा लोभस्तरमादेतत्त्रयं त्यजेत्।।
(अर्थ- काम, क्रोध व लोभ। यह तीन प्रकार के नरक के द्वार आत्मा का नाश करने वाले हैं अर्थात् अधोगति में ले जाने वाले हैं, इसलिए इन तीनों को त्याग देना चाहिए।)
श्लोक सुनने के बाद भी द्विज ने दृष्टि ऊपर नहीं उठायी।
“एक ब्राह्मण होकर भी तू गीता के इस श्लोक को कैसे भूल गया?” पुजारी ने इस कदर दांत पीस कर कहा मानो वाक्यों के जरिये अपनी सम्पूर्ण क्रोधाग्नि को द्विज के ऊपर उड़ेल देना चाहते हों- “तू ये कैसे भूल गया कि मोह ही मनुष्य की अधोगति का महत्वपूर्ण कारक होता है। तुझे ये क्यों नहीं स्मरण रहा कि तेरे भाई की काया में आत्माओं का देवता प्रविष्ट हो रहा था? तुझे ये क्यों नहीं स्मरण रहा कि यदि अभयानन्द की काया को समाप्त नहीं किया गया तो श्मशानेश्वर नाम का वह अशरीरी पिशाच उसकी काया में कैद घृणित वासानाओं की शक्ति पाकर नर-भेड़िये के रूप में अवतरित हो उठेगा? तुझे ये क्यों नहीं स्मरण रहा कि तेरा भातृ मोह सम्पूर्ण शंकरगढ़ के हित के लिए घातक हो जाएगा। तू तो गणित जैसे व्यवहारिक विज्ञान का प्रकांड ज्ञाता था द्विज, कहाँ लुप्त हो गयी थी तेरी व्यवहारिकता जो तूने अभयानन्द को बचाने की चेष्टा में समूचे राज्य के प्रारब्ध को दांव पर लगा दिया। बड़े भाई के प्रति जिस मोह को तूने चौबीस वर्षों से जड़ करके रखा हुआ था, वह मोह अचानक चैतन्य कैसे हो उठा?”
“क्षमा कर दीजिये गुरुदेव।” द्विज पुजारी के चरणों में सिर रखकर फफक-फफक रो पड़ा- “मैं धर्मसंकट में था। बाल्यावस्था में जो अग्रज मेरी लेशमात्र पीड़ा पर भी द्रवित हो उठता था, उसी अग्रज का जीवित दाह-संस्कार देख सकने का साहस नहीं था मुझमें। इसीलिए मैंने शंकरगढ़ और अभयानन्द के जीवन में से
अभयानन्द के जीवन को प्राथमिकता देनी चाही थी।”
“तू धर्मसंकट में नहीं था द्विज। तू तो मोह जनित स्वार्थ के वशीभूत था।”
“आप मेरी दशा को चाहे जो संज्ञा दें गुरुदेव किन्तु सत्य यही है कि मैं विवश था।”
“विवश तो तू था ही। तू मोह की विवशता में जकड़ा हुआ था। किन्तु तेरी उस विवशता की आड़ में तेरा अपराध नहीं छिप सकता। तूने तो ऐसा अपराध किया है कि उस अपराध का दुष्प्रभाव समूचे राज्य पर पड़ेगा।”
“मुझे क्षमा कर दो गुरुदेव। क्षमा कर दो मुझे।”
“तेरा अपराध अक्षम्य है द्विज। तू स्वयं से ये प्रश्न पूछ कि यदि तेरी वर्षों पुरानी निष्ठा को देख मैं तुझे क्षमा कर भी दूं, तो क्या तेरे अपराध का दुष्प्रभाव शंकरगढ़ पर नहीं पड़ेगा? क्या शंकरगढ़ की निरीह प्रजा को पिशाच के क्रोध का भाजन नहीं बनना पड़ेगा?” पुजारी के चेहरे पर विवशता भरी झुंझलाहट काबिज हो गयी- “तूने क्या कर दिया द्विज? भातृ मोह में पड़कर तूने शंकरगढ़ को विनाश के किस गर्त में धकेल दिया? काश...काश उसी क्षण मैं तेरा गला दबाकर वध कर दिया होता, जिस क्षण तू एक धुल-धूसरित बालक के रूप में अपने भाई को ढूँढते हुए शंकरगढ़ आया था और मैंने तुझे त्रासदी का मारा हुआ अनाथ समझकर देवी-मंदिर में आश्रय दिया था।”
द्विज व्यथित होता रहा। कुछ सीमा तक पुजारी के वाक्-बाणों से तो कुछ सीमा तक अपने कृत्य की विभीषिका की कल्पना से।
“चला जा नराधम। मेरे दृष्टि-विस्तार से ओझल हो जा। आज से तू मेरे लिए परित्यक्त है।” घृणा के आवेश में आकर पुजारी ने द्विज के चेहरे पर थूक दिया।
“मैं ऐसा नहीं होने दूंगा गुरुदेव!” थूक को पोंछते हुए द्विज ने बिलख कर कहा- “मैं अपने अपराध की काली छाया शंकरगढ़ पर नहीं पड़ने दूंगा।”
“तू कुछ नहीं कर सकता द्विज। तू अब चाह कर भी कुछ नहीं कर सकता।”
“नहीं गुरुदेव! आपने मेरे नेत्र खोल दिए। मैं अब स्वयं जाकर भइया का दाह-संस्कार करूंगा।”
पुजारी एक गहरी सांस लेकर खामोश रह गये।
“मैं जा रहा हूँ गुरुदेव। मैं भइया की झोपड़ी में जा रहा हूँ।”
द्विज उठने को उद्यत हुआ किन्तु पुजारी की वाणी ने उसे जड़वत कर दिया-
“कोई लाभ नहीं है। अभयानन्द के अर्द्धमृत शरीर को कापालिक उठा ले गये। तुम्हें अब वहां कुछ नहीं प्राप्त होगा।”
द्विज के हाथ-पाँव थरथरा उठे। भावी रक्तपात और महाविनाश की असली अनुभूति तो उसे अब जाकर हुई।
“कापालिक..कापालिक कैसे पहुंचे भइया तक?”
“मुझे नहीं ज्ञात।” पुजारी का लहजा अब थोड़ा नर्म पड़ गया था। क्रोधाग्नि के मंथर पड़ जाने के बाद उन्हें द्विज द्वारा उठाये गये कदम के पीछे छिपी स्वाभाविक भावुकता का आभास होने लगा था- “पीपल के तने में आग लगाने के बाद भीषण बारिश के आने के आसार देखते हुए महाराज समेत समस्त जन लौट आये थे। वापसी के उपरान्त तुम्हें यहाँ न पाकर मुझे आभास हो गया था कि रक्त-संबंध के कारण पनपी भावुकता तुम पर हावी हो चुकी है और तुम अभयानन्द को बचाने के असंभव कृत्य को संभव बनाने हेतु निकल पड़े हो। मैं एक क्षण का भी विलम्ब किये बिना अभयानन्द की झोपड़ी की ओर दौड़ पड़ा था, किन्तु विधाता ने नियति में जिस घटना को लिख रखा था, वह घटना घट चुकी थी। मुझे विलम्ब हो चुका था। अभयानन्द की झोपड़ी में तुम अचेतावस्था में पड़े थे। तुम्हारे सिर से रक्तस्राव हो रहा था। स्पष्ट था कि तुम्हारे सिर पर प्रहार करके तुम्हें अचेत किया गया था। झोपड़ी में तुम्हारे अतिरिक्त अन्य कोई नहीं था।”
द्विज की आँखों के सामने वह दृश्य घूम गया, जब वह अभयानन्द के बदन पर औषधि का लेप लगा रहा था और उसी क्षण उसे अपने सिर पर भीषण प्रहार का अनुभव हुआ था। द्विज सहज ही इस निष्कर्ष पर पहुँच गया कि प्रहार करने वाले अभयानन्द के तंत्र-समुदाय के कापालिक ही थे, जो उसे तलाशते हुए आये थे।
“म..मैं ये क्या कर बैठा? क्या कर बैठा मैं?” पश्चाताप के आंसुओं से द्विज के गाल भीगने लगे- “नियति के कालचक्र ने छला है मुझे। न तो मैं बड़े भाई के प्रति अपने कर्तव्य का निर्वहन कर सका और न ही समाज के प्रति अपने दायित्वों का। मैं तो दोनों ही परीक्षाओं में अनुत्तीर्ण हो गया गुरुदेव। माँ मुझे इसलिये पापी कहेगी क्योंकि मैंने समाज के भय से अपने भाई को अपनाकर उसे समय रहते सद्मार्ग पर लाने का प्रयत्न नहीं किया और शंकरगढ़ की प्रजा मुझे इसलिए पापी कहेगी क्योंकि उसी भाई के प्रति मेरा मोह एक पिशाच के अवतरण का निमित्त बनेगा। ये विधाता का कैसा गणित था गुरुदेव, जो मुझ जैसा सांसारिक गणित का प्रकांड ज्ञाता भी नहीं समझा सका?”
“तुम राज्य से चले जाओ। मैं महाराज से कह दूंगा कि तुमने अपराध बोध से ग्रस्त होकर आत्महत्या कर लिया।” पुजारी भी द्विज की मनोव्यथा पर द्रवित होने लगे थे।
“नहीं गुरुदेव!” द्विज ने चेहरा ऊपर उठाया- “जो पाप मैंने किया है, उसके प्रायश्चित के लिए मेरे अश्रू पर्याप्त नहीं है। यदि श्मशानेश्वर भइया के शरीर को माध्यम बनाकर अवतरित हुआ तो मैं उसका सर्वनाश करके, अपने पाप का प्रायश्चित करूंगा।”
“ये असंभव...।”
“मैं इसे संभव बनाऊंगा गुरुदेव!” पुजारी का कथन पूर्ण होने से पूर्व ही द्विज का लहजा दृढ़ हो उठा- “मैं इसे संभव बनाऊंगा।”
वह धरातल से उठ खड़ा हुआ। उसके मुखमंडल पर किसी अलौकिक आत्मविश्वास का प्रखर तेज विद्यमान हो उठा था।
“मैं वापस आऊँगा गुरुदेव! मैं अपनी भूल को सुधारने वापस आऊँगा।”
द्विज के प्रस्थान के पश्चात भावी अनिष्ट की कल्पना में खोये पुजारी गर्भगृह की ओर मुड़े।
गर्भगृह में सन्नाटा फैला हुआ था। हालांकि प्रात: कालीन वंदना हो चुकी थी किन्तु देवी के निवास की भव्यता मानो कहीं लुप्त हो गयी थी। प्रतीत हो रहा था कि मंदिर के परिवेश का हर एक कोना श्मशानेश्वर के अवतरण का मातम मना रहा था।
“माँ भगवती तुम्हें तुम्हारे उद्देश्य में पूर्ण करें द्विज! तुम पापी नहीं हो। नियति के कालचक्र ने सचमुच छला है तुम्हें।”
पुजारी ने हाथ जोड़कर और आँखें बंद करके प्रार्थना की।
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“नीच! पापी!”
पुजारी ने लात का भीषण प्रहार द्विज की छाती पर किया और वह तख़्त से सीधा धरातल पर आ गिरा। अत्यधिक पीड़ा के बावजूद भी उसके होठों से आह तक नहीं निकली। उसका चेहरा आंसुओं से भीगा हुआ था। सिर पर पट्टी बंधी हुई थी। चेहरे पर पश्चाताप के भाव थे। पुजारी से दृष्टि मिलाने तक का साहस नहीं था उसमें। वह जमीन से उठने की कोशिश न करते हुए पुजारी के दूसरे प्रहार की प्रतीक्षा करता रहा। मगर पुजारी ने उस पर दूसरा प्रहार नहीं किया। केवल एक प्रहार को ही पर्याप्त समझकर उन्होंने गीता का अधोलोखित श्लोक कहा-
“त्रिविधं नरकस्येदं द्वारं नाशनमात्मनः।
कामः क्रोधस्तथा लोभस्तरमादेतत्त्रयं त्यजेत्।।
(अर्थ- काम, क्रोध व लोभ। यह तीन प्रकार के नरक के द्वार आत्मा का नाश करने वाले हैं अर्थात् अधोगति में ले जाने वाले हैं, इसलिए इन तीनों को त्याग देना चाहिए।)
श्लोक सुनने के बाद भी द्विज ने दृष्टि ऊपर नहीं उठायी।
“एक ब्राह्मण होकर भी तू गीता के इस श्लोक को कैसे भूल गया?” पुजारी ने इस कदर दांत पीस कर कहा मानो वाक्यों के जरिये अपनी सम्पूर्ण क्रोधाग्नि को द्विज के ऊपर उड़ेल देना चाहते हों- “तू ये कैसे भूल गया कि मोह ही मनुष्य की अधोगति का महत्वपूर्ण कारक होता है। तुझे ये क्यों नहीं स्मरण रहा कि तेरे भाई की काया में आत्माओं का देवता प्रविष्ट हो रहा था? तुझे ये क्यों नहीं स्मरण रहा कि यदि अभयानन्द की काया को समाप्त नहीं किया गया तो श्मशानेश्वर नाम का वह अशरीरी पिशाच उसकी काया में कैद घृणित वासानाओं की शक्ति पाकर नर-भेड़िये के रूप में अवतरित हो उठेगा? तुझे ये क्यों नहीं स्मरण रहा कि तेरा भातृ मोह सम्पूर्ण शंकरगढ़ के हित के लिए घातक हो जाएगा। तू तो गणित जैसे व्यवहारिक विज्ञान का प्रकांड ज्ञाता था द्विज, कहाँ लुप्त हो गयी थी तेरी व्यवहारिकता जो तूने अभयानन्द को बचाने की चेष्टा में समूचे राज्य के प्रारब्ध को दांव पर लगा दिया। बड़े भाई के प्रति जिस मोह को तूने चौबीस वर्षों से जड़ करके रखा हुआ था, वह मोह अचानक चैतन्य कैसे हो उठा?”
“क्षमा कर दीजिये गुरुदेव।” द्विज पुजारी के चरणों में सिर रखकर फफक-फफक रो पड़ा- “मैं धर्मसंकट में था। बाल्यावस्था में जो अग्रज मेरी लेशमात्र पीड़ा पर भी द्रवित हो उठता था, उसी अग्रज का जीवित दाह-संस्कार देख सकने का साहस नहीं था मुझमें। इसीलिए मैंने शंकरगढ़ और अभयानन्द के जीवन में से
अभयानन्द के जीवन को प्राथमिकता देनी चाही थी।”
“तू धर्मसंकट में नहीं था द्विज। तू तो मोह जनित स्वार्थ के वशीभूत था।”
“आप मेरी दशा को चाहे जो संज्ञा दें गुरुदेव किन्तु सत्य यही है कि मैं विवश था।”
“विवश तो तू था ही। तू मोह की विवशता में जकड़ा हुआ था। किन्तु तेरी उस विवशता की आड़ में तेरा अपराध नहीं छिप सकता। तूने तो ऐसा अपराध किया है कि उस अपराध का दुष्प्रभाव समूचे राज्य पर पड़ेगा।”
“मुझे क्षमा कर दो गुरुदेव। क्षमा कर दो मुझे।”
“तेरा अपराध अक्षम्य है द्विज। तू स्वयं से ये प्रश्न पूछ कि यदि तेरी वर्षों पुरानी निष्ठा को देख मैं तुझे क्षमा कर भी दूं, तो क्या तेरे अपराध का दुष्प्रभाव शंकरगढ़ पर नहीं पड़ेगा? क्या शंकरगढ़ की निरीह प्रजा को पिशाच के क्रोध का भाजन नहीं बनना पड़ेगा?” पुजारी के चेहरे पर विवशता भरी झुंझलाहट काबिज हो गयी- “तूने क्या कर दिया द्विज? भातृ मोह में पड़कर तूने शंकरगढ़ को विनाश के किस गर्त में धकेल दिया? काश...काश उसी क्षण मैं तेरा गला दबाकर वध कर दिया होता, जिस क्षण तू एक धुल-धूसरित बालक के रूप में अपने भाई को ढूँढते हुए शंकरगढ़ आया था और मैंने तुझे त्रासदी का मारा हुआ अनाथ समझकर देवी-मंदिर में आश्रय दिया था।”
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द्विज की आँखों के सामने वह दृश्य घूम गया, जब वह अभयानन्द के बदन पर औषधि का लेप लगा रहा था और उसी क्षण उसे अपने सिर पर भीषण प्रहार का अनुभव हुआ था। द्विज सहज ही इस निष्कर्ष पर पहुँच गया कि प्रहार करने वाले अभयानन्द के तंत्र-समुदाय के कापालिक ही थे, जो उसे तलाशते हुए आये थे।
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“ये असंभव...।”
“मैं इसे संभव बनाऊंगा गुरुदेव!” पुजारी का कथन पूर्ण होने से पूर्व ही द्विज का लहजा दृढ़ हो उठा- “मैं इसे संभव बनाऊंगा।”
वह धरातल से उठ खड़ा हुआ। उसके मुखमंडल पर किसी अलौकिक आत्मविश्वास का प्रखर तेज विद्यमान हो उठा था।
“मैं वापस आऊँगा गुरुदेव! मैं अपनी भूल को सुधारने वापस आऊँगा।”
द्विज के प्रस्थान के पश्चात भावी अनिष्ट की कल्पना में खोये पुजारी गर्भगृह की ओर मुड़े।
गर्भगृह में सन्नाटा फैला हुआ था। हालांकि प्रात: कालीन वंदना हो चुकी थी किन्तु देवी के निवास की भव्यता मानो कहीं लुप्त हो गयी थी। प्रतीत हो रहा था कि मंदिर के परिवेश का हर एक कोना श्मशानेश्वर के अवतरण का मातम मना रहा था।
“माँ भगवती तुम्हें तुम्हारे उद्देश्य में पूर्ण करें द्विज! तुम पापी नहीं हो। नियति के कालचक्र ने सचमुच छला है तुम्हें।”
पुजारी ने हाथ जोड़कर और आँखें बंद करके प्रार्थना की।
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(प्यार का अहसास ) ......(वापसी : गुलशन नंदा) ......(विधवा माँ के अनौखे लाल) ......(हसीनों का मेला वासना का रेला ) ......(ये प्यास है कि बुझती ही नही ) ...... (Thriller एक ही अंजाम ) ......(फरेब ) ......(लव स्टोरी / राजवंश running) ...... (दस जनवरी की रात ) ...... ( गदरायी लड़कियाँ Running)...... (ओह माय फ़किंग गॉड running) ...... (कुमकुम complete)......
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Re: Horror ख़ौफ़
रात खामोश थी।
वातावरण में केवल अभयानन्द की कराह व्याप्त थी। उसके अधजले शरीर को कई भेड़िए वृत्ताकार दायरे में घेर कर बैठे थे। नीचे की ओर झुके हुए उनके थुथुन उनके शोकग्रस्त होने का संकेत दे रहे थे। यह दायरा श्मशानेश्वर की पाषाण-प्रतिमा के ठीक सामने बना हुआ था। एक कापालिक अभयानन्द को औषधि लगा रहा था। दायरे से थोड़ी ही दूर पर वह स्थान था, जहां अघोरा को दफनाया गया था। कब्र के उभरे हुए भाग पर दीप जल रहे थे। वातावरण में इन दीपों की रोशनी के अतिरिक्त अन्य कोई रोशनी नहीं थी। तारे भी मानो कापालिकों के इस महाशोक पर मुस्कुराने का साहस नहीं कर पा रहे थे। अंधेरे के कारण स्याह रूप ले चुकी श्मशानेश्वर की मूर्ति और भी भयावह हो उठी थी।
कमर में काली कोपीन लपेटे हुए कई कापालिक इधर-उधर यूं टहल रहे थे, मानो वे समय के गुजरने की धीमी गति पर क्रोधित हों। कुल मिलाकर वह शोकग्रस्त वातावरण सामान्य मनुष्यों के लिए मरघट से भी अधिक भयावह था।
औषधि लगा चुकने के बाद कापालिक उठा और भेडियों के दायरे को लांघ कर समीप ही टहल रहे एक कापालिक के पास पहुंचा।
“गुरु अभयानन्द की काया में महाप्रभु श्मशानेश्वर का आगमन एक दिवस पूर्व ही प्रारम्भ हो चुका है।” उसने कहा- “प्रभु को उनकी काया में पूर्णतया आविष्ट होने के लिए तीन दिवस निर्धारित हैं। आज की मध्य-रात्रि के गुजर जाने के पश्चात दूसरा दिवस भी पूर्ण हो जाएगा। कल मध्यरात्रि तक काया-प्रवेश की प्रक्रिया पूर्ण हो जायेगी। गुरुदेव के शरीर को नष्ट करने के प्रयास में उसे तीन चौथाई तक जला दिया गया है, इसलिए गुरुदेव कल मध्यरात्रि तक दाह की पीड़ा को भोगते ही रहेंगे। हम औषधि इत्यादि के प्रयोग से केवल उनकी पीड़ा को कम कर सकते हैं। उन्हें पीड़ा से मुक्ति तो तभी मिलेगी, जब प्रभु, गुरुदेव की काया में पूर्णतया प्रविष्ट होकर अवतरित हो उठेंगे और गुरुदेव की आत्मा अपनी काया छोड़क़र प्रभु श्मशानेश्वर के साम्राज्य में विलीन हो जाएगी।”
उपरोक्त सूचना को सुनने के बाद कापालिक के जबड़े भींच गये। उसने दर्द से तड़प रहे अभयानन्द को देखा और खूंखार लहजे में कह उठा- “गुरुदेव के अतिशय कष्ट का मूल्य चुकाना होगा शंकरगढ़ को। उनके कष्ट का कारक बनकर उदयभान ने साक्षात काल को अपने राज्य में आमंत्रित किया है। अकल्पनीय रक्तपात को देखकर उनके नेत्र भी रक्त-वर्षा करने लगेंगे। हम गौण वंश के कापालिक हैं, हमारा बलिदान व्यर्थ नहीं जाएगा। प्रभु श्मशानेश्वर का अवतरण होगा। निश्चित ही होगा।”
“राज्य के सैनिक गुरुदेव के शरीर को ढूंढने के लिए जंगल के कोने-कोने में बिखरे हुए हैं। किन्तु हमें इसका भय नहीं है क्योंकि हमने इस स्थान को भ्रम के आवरण में ढक रखा है। यदि कोई सैनिक इस ओर आया तो दृष्टि-भ्रम में उलझ जाने के कारण उसे कुछ नहीं नजर आ सकेगा।”
“अत्युत्तम!” कापालिक, जो अभयानन्द के बाद मठ का प्रमुख था, प्रशंसात्मक लहजे में बोला- “अब तुम विश्राम करो। गुरुदेव की सेवा में दूसरे सदस्य को लगा दो।”
निर्देश देने के बाद मठ-प्रमुख ने आकाश की ओर देखकर अनुमान लगाया कि रात्रि का तीसरा पहर आरम्भ ही होने वाला था।
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कालचक्र पहले ही रचा जा चुका था।
द्विज के मोह ने जिस महाविनाश की पृष्ठभूमि तैयार की थी, उसे ईश्वर ने नियति का रूप दे दिया था। ऐसे में भला कौन था, जो उस महाविनाश को असंभाव्य घोषित कर पाता?
समय अपने स्वाभाविक गति से व्यतीत हुआ और देखते ही देखते श्मशानेश्वर की काया-ग्रहण प्रक्रिया का तीसरा दिन भी पूरा हो गया।
और फिर!
पहली तीन रातों तक श्मशानेश्वर का कहर मूक चौपायों पर टूटा और फिर
चौथी रात अपनी स्याह कालिमा से शंकरगढ़ के प्रारब्ध पर कालिख पोतने आयी।
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वातावरण में केवल अभयानन्द की कराह व्याप्त थी। उसके अधजले शरीर को कई भेड़िए वृत्ताकार दायरे में घेर कर बैठे थे। नीचे की ओर झुके हुए उनके थुथुन उनके शोकग्रस्त होने का संकेत दे रहे थे। यह दायरा श्मशानेश्वर की पाषाण-प्रतिमा के ठीक सामने बना हुआ था। एक कापालिक अभयानन्द को औषधि लगा रहा था। दायरे से थोड़ी ही दूर पर वह स्थान था, जहां अघोरा को दफनाया गया था। कब्र के उभरे हुए भाग पर दीप जल रहे थे। वातावरण में इन दीपों की रोशनी के अतिरिक्त अन्य कोई रोशनी नहीं थी। तारे भी मानो कापालिकों के इस महाशोक पर मुस्कुराने का साहस नहीं कर पा रहे थे। अंधेरे के कारण स्याह रूप ले चुकी श्मशानेश्वर की मूर्ति और भी भयावह हो उठी थी।
कमर में काली कोपीन लपेटे हुए कई कापालिक इधर-उधर यूं टहल रहे थे, मानो वे समय के गुजरने की धीमी गति पर क्रोधित हों। कुल मिलाकर वह शोकग्रस्त वातावरण सामान्य मनुष्यों के लिए मरघट से भी अधिक भयावह था।
औषधि लगा चुकने के बाद कापालिक उठा और भेडियों के दायरे को लांघ कर समीप ही टहल रहे एक कापालिक के पास पहुंचा।
“गुरु अभयानन्द की काया में महाप्रभु श्मशानेश्वर का आगमन एक दिवस पूर्व ही प्रारम्भ हो चुका है।” उसने कहा- “प्रभु को उनकी काया में पूर्णतया आविष्ट होने के लिए तीन दिवस निर्धारित हैं। आज की मध्य-रात्रि के गुजर जाने के पश्चात दूसरा दिवस भी पूर्ण हो जाएगा। कल मध्यरात्रि तक काया-प्रवेश की प्रक्रिया पूर्ण हो जायेगी। गुरुदेव के शरीर को नष्ट करने के प्रयास में उसे तीन चौथाई तक जला दिया गया है, इसलिए गुरुदेव कल मध्यरात्रि तक दाह की पीड़ा को भोगते ही रहेंगे। हम औषधि इत्यादि के प्रयोग से केवल उनकी पीड़ा को कम कर सकते हैं। उन्हें पीड़ा से मुक्ति तो तभी मिलेगी, जब प्रभु, गुरुदेव की काया में पूर्णतया प्रविष्ट होकर अवतरित हो उठेंगे और गुरुदेव की आत्मा अपनी काया छोड़क़र प्रभु श्मशानेश्वर के साम्राज्य में विलीन हो जाएगी।”
उपरोक्त सूचना को सुनने के बाद कापालिक के जबड़े भींच गये। उसने दर्द से तड़प रहे अभयानन्द को देखा और खूंखार लहजे में कह उठा- “गुरुदेव के अतिशय कष्ट का मूल्य चुकाना होगा शंकरगढ़ को। उनके कष्ट का कारक बनकर उदयभान ने साक्षात काल को अपने राज्य में आमंत्रित किया है। अकल्पनीय रक्तपात को देखकर उनके नेत्र भी रक्त-वर्षा करने लगेंगे। हम गौण वंश के कापालिक हैं, हमारा बलिदान व्यर्थ नहीं जाएगा। प्रभु श्मशानेश्वर का अवतरण होगा। निश्चित ही होगा।”
“राज्य के सैनिक गुरुदेव के शरीर को ढूंढने के लिए जंगल के कोने-कोने में बिखरे हुए हैं। किन्तु हमें इसका भय नहीं है क्योंकि हमने इस स्थान को भ्रम के आवरण में ढक रखा है। यदि कोई सैनिक इस ओर आया तो दृष्टि-भ्रम में उलझ जाने के कारण उसे कुछ नहीं नजर आ सकेगा।”
“अत्युत्तम!” कापालिक, जो अभयानन्द के बाद मठ का प्रमुख था, प्रशंसात्मक लहजे में बोला- “अब तुम विश्राम करो। गुरुदेव की सेवा में दूसरे सदस्य को लगा दो।”
निर्देश देने के बाद मठ-प्रमुख ने आकाश की ओर देखकर अनुमान लगाया कि रात्रि का तीसरा पहर आरम्भ ही होने वाला था।
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कालचक्र पहले ही रचा जा चुका था।
द्विज के मोह ने जिस महाविनाश की पृष्ठभूमि तैयार की थी, उसे ईश्वर ने नियति का रूप दे दिया था। ऐसे में भला कौन था, जो उस महाविनाश को असंभाव्य घोषित कर पाता?
समय अपने स्वाभाविक गति से व्यतीत हुआ और देखते ही देखते श्मशानेश्वर की काया-ग्रहण प्रक्रिया का तीसरा दिन भी पूरा हो गया।
और फिर!
पहली तीन रातों तक श्मशानेश्वर का कहर मूक चौपायों पर टूटा और फिर
चौथी रात अपनी स्याह कालिमा से शंकरगढ़ के प्रारब्ध पर कालिख पोतने आयी।
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(प्यार का अहसास ) ......(वापसी : गुलशन नंदा) ......(विधवा माँ के अनौखे लाल) ......(हसीनों का मेला वासना का रेला ) ......(ये प्यास है कि बुझती ही नही ) ...... (Thriller एक ही अंजाम ) ......(फरेब ) ......(लव स्टोरी / राजवंश running) ...... (दस जनवरी की रात ) ...... ( गदरायी लड़कियाँ Running)...... (ओह माय फ़किंग गॉड running) ...... (कुमकुम complete)......
साधू सा आलाप कर लेता हूँ ,
मंदिर जाकर जाप भी कर लेता हूँ ..
मानव से देव ना बन जाऊं कहीं,,,,
बस यही सोचकर थोडा सा पाप भी कर लेता हूँ
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`·.¸.·´ -- raj sharma
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Re: Horror ख़ौफ़
श्मशान भूमि के उस हिस्से में अग्न्याधान को प्राप्त हो चुकी एक चिता के लपटों की रोशनी व्याप्त थी। दाह के पश्चात की क्रिया संपन्न कराने के लिए लगभग बीस लोगों का हुजूम श्मशान भूमि में उपस्थित था। मरघट का स्वाभाविक मातमी वातावरण आज कुछ इसलिए भी भयावह हो रहा था क्योंकि दक्षिण में फैले घने जंगल से लगातार भेड़ियों के चीखने की आवाजें आ रही थीं। वायु के तीव्र वेग के कारण चिता की लपटें विचित्र ध्वनि उत्पन्न करते हुए इधर-उधर लहरा रही थीं।
शव को मुखाग्नि देने वाला चारों ओर फैले निविड़ अंधकार को देख रहा था। उसका मस्तिष्क जीवन और मृत्यु के दर्शन पर चिंतन करने में व्यस्त था, इसलिए उसका ध्यान उस चर्चा की ओर नहीं था, जो शव-यात्रा में साथ आये लोगों के बीच चल रहा था।
“राज्य में अफवाह फैली हुई है कि पिछले तीन दिनों से चोरी किये गये जिन चौपायों की लाशें यहाँ मरघट में बरामद हो रही हैं, उन्हें मारने वाला कोई जंगली पशु नहीं है।”
“तो फिर कौन हो सकता है?”
“शायद कोई ऐसा पशु, जिसमें शेर या चीते से भी अधिक दरिन्दगी भरी हुई है।”
लोगों के बीच खामोशी छा गयी। उनकी कल्पना में उस भयानक पशु का अक्स उभरने लगा।
“सुनने में ये भी आता है कि जहाँ पर अभयानन्द को जलाया गया था, अगली सुबह वहां से उसकी राख भी नहीं मिली थी।”
“राख कहाँ से मिलेगी, जब वह कापालिक पूरी तरह जला ही नहीं था।”
“लेकिन वह पूरी तरह जला क्यों नहीं होगा?”
“क्या उस रात की तेज मूसलाधार बारीश को भूल गये तुम लोग? जिसके उफान को देखकर ऐसा लगा रहा था, जैसे शैतान भी ये नहीं चाहता था कि उसका भक्त जल कर मरे।”
“अगर उस बारीश के कारण अभयानन्द बच भी गया होगा तो फिर उसे पीपल से उतारा किसने होगा? और फिर वह गया कहाँ होगा?”
“वह जंगल में रहने वाले दुष्ट कापालिकों के मठ का स्वामी था। क्या कापालिक उसे बचाने के लिए आये नहीं होंगे?”
“किन्तु मैंने उसे अपनी आँखों से देखा था। उसे पूरी तरह आग के हवाले कर दिया गया था। कापालिक आखिर उसे ले जाकर किये क्या होंगे? उसकी तो मृत्यु सुनिश्चित थी।”
उपरोक्त तर्क देने वाला कई निगाहों का केंद्रबिंदु बन गया।
“क्या तुम्हें नहीं मालूम कि अभयानन्द श्मशानेश्वर सिद्धी का अनुष्ठान पूर्ण कर चुका था? उस अनुष्ठान को पूर्ण करने वाले मनुष्य के शरीर में श्मशानेश्वर निवास करने लगता है। यदि उस मनुष्य के शरीर को तीन दिनों के अन्दर नष्ट नहीं किया जाता है तो श्मशानेश्वर उसी शरीर को धारण करके जी उठता है।”
“हे देवी माँ!” कमजोर दिल वालों ने मुंह पर हाथ रख लिया- “शुभ-शुभ बोलो! ईश्वर न करें ऐसा हो।”
“अगर ऐसा हो गया...।” किसी एक ने डरावनी शक्ल बनाते हुए कहा- “तो अनर्थ हो जाएगा। खून की नदियाँ बह जाएंगी। पूरा शंकरगढ़ वीरान हो जाएगा। पिशाच को किसी भी उपाय से रोका नहीं जा सकेगा। ईश्वरीय शक्तियां भी उसके आगे कमजोर पड़ जायेंगी। श्मशानेश्वर के बारे में पुराने ग्रंथों में लिखा है कि वह यमराज का दूसरा रूप है। वह भड़मानस के रूप में आता है। उसके हाथ और पैरों के नुकीले नाखूनों से लहू टपकता है। आँखें धधकते लावे की भांति सूर्ख होती हैं। वह दाहिने हाथ में कटार लेकर शिकार पर निकलता है। बाएं हाथ की मुट्ठी में शिकार के बाल जकड़ता है और कटार से उनकी गर्दन धड़ से अलग कर देता है।”
ठीक इसी क्षण!
जंगल से एक भयानक गर्जना उठी। लोगों ने काँप कर उसकी दिशा में देखा।
“इतनी रात गये जंगल में कौन गरज रहा है? ये तो किसी शेर या चीते की गर्जना नहीं है।”
दहशत के कारण लोगों के पसीने छूट गये। उन्होंने जलती चिता की ओर देखा। शव के पूरा जलने में अभी समय था।
“कहीं कोई अनिष्ट तो नहीं होने वाला?”
कई लोगों की आशंकित निगाहें आकाश की ओर उठ गयीं। काले घने बादल
उनके सामने रहस्यमयी दृश्य प्रस्तुत कर रहे थे। निर्जन मरघट में झूमते वृक्षों की स्याह आकृतियाँ भयावह लगने लगी थीं। चिता की लपटें भी अब पहले से उग्र हो उठी थीं। विगत तीन दिनों से मरघट में पाये जा रहे पशुओं के शव को लेकर फ़ैली अफवाहें सच का रूप लेती नजर आने लगीं।
“हमें वापस लौटना होगा।” किसी ने प्रस्ताव रखा- “कोई हमारा काल बनकर मरघट की ओर आ रहा है। ये सब उसी के आने संकेत हैं।”
“ऐसे कैसे जा सकते हैं?” उस शख्स ने, जिसने शव को मुखाग्नि दी थी, उपरोक्त प्रस्ताव रखने वाले को घूरा- “अभी अंतिम संस्कार.....।”
कथन पूर्ण होने से पूर्व ही उसी दुर्दांत गर्जना ने एक बार फिर मरघट को कंपा डाला। इस बार गर्जना निकट से आयी थी। लौटने की राय देने वाले को हावी होने का अवसर मिल गया।
“मर चुके इन्सान के लिए जान गंवाना मूर्खता भरी भावुकता मात्र है। महापंडित से विमर्श करके अधूरे अंतिम संस्कार को पूर्ण करने का कोई विकल्प ढूंढा जा सकता है, किन्तु यदि हम यहाँ उपस्थित रहे तो जो रहस्यमयी मौत हमारी ओर बढ़ रही है, उससे बचने का हमारे पास कोई विकल्प नहीं होगा।”
मृतक के संबंधियों को भी ये कथन तार्किक लगा। पल-प्रतिपल भयावह होता जा रहा मरघट का वातावरण, चिता पर रखे अधजले शव के प्रति लोगों की संवेदनाओं पर भारी पड़ने लगा।
“हम वापस लौट रहे हैं।” एक व्यक्ति ने घोषणा के स्वर में कहा।
“सजीवन अभी लौटा नहीं।”
प्रकरण से इतर वाक्य के मुखरित होते ही लोगों को झटका लगा।
“सजीवन कहाँ गया है?” दल के नेतृत्वकर्ता की भूमिका में आ चुके आदमी ने पूछा।
“हमने उसे दक्षिण की ओर अँधेरे में जाते देखा था। हमें लगा प्राकृतिक कर्म से निवृत्त होने के लिए जा रहा होगा, इसलिए टोकना उचित नहीं समझा।”
सभी की भयाक्रांत दृष्टि दक्षिण की ओर उठ गयी। दूर तक काजल से भी काला अन्धेरा व्याप्त था। ये रूह तक को कंपा देने वाली भीषण गर्जनाओं का ही खौफ था, जो प्रत्येक के मन में यह विश्वास पनपने लगा था कि सजीवन अब उस अँधेरे से कभी बाहर नहीं आयेगा। जंगल से आती वृक्षों की मद्धिम सरसराहट से बोध होता था कि भयानक अन्धेरा सजीव होकर सांसें ले रहा है।
“वापस चलो! सजीवन..सजीवन अब कभी नहीं लौटेगा।”
‘जब मनुष्य के प्राणों पर संकट आता है तो वह सभी नैतिक मूल्यों को विस्मृत कर देता है।’ वे वापस मुड़ने को उद्यत हुए ही थे कि-
“आ....ह!”
अँधेरे के गर्भ से एक क्षीण आह निकली।
लोग ठिठक कर रुक गये। दम साधे हुए अँधेरे को ही घूर रहे थे कि अचानक उनकी धड़कनें थम गयीं। खून से लथपथ सजीवन अँधेरे में से लड़खड़ाता हुआ बाहर निकला। साथियों पर दृष्टि पड़ते ही उसका वह हौसला जवाब दे गया, जिसके दम पर उसने किसी अज्ञात मुसीबत से बच कर यहाँ तक का फासला तय किया था। धरातल पर गिरने के पश्चात उसने हाथ आगे बढाकर मदद की गुहार लगाई। उसका गला आवाज निकालने में असमर्थ हो चुका था। लोग उसकी ओर लपके।
सजीवन के कपड़े फट गये थे, जहाँ से झाँक रहे जिस्म के हिस्से रक्तरंजित थे। उसके दोनों गालों और हाथ पर भेड़िये के पंजों के निशान थे। उसकी एक पिंडली खून से लथपथ थी, ऐसा लग रहा था, जैसे वहां से मांस का एक बड़ा हिस्सा काट खाया गया हो।
“क्या हुआ तुम्हें?”
“कहाँ थे तुम?”
“किसने तुम पर हमला किया?’
उपरोक्त अनगिनत सवालों के जवाब में सजीवन केवल निगाहों के जरिये अपने जख्मों की ओर इशारा करता रहा। उस पर निश्चेतना हावी हो रही थी। गला सूख रहा था और पलकें बंद होती जा रही थीं। बोलने के प्रयास में उसका मुंह खुल अवश्य रहा था किन्तु जुबान कोई हरकत नहीं कर पा रही थी। चाहकर भी कुछ न बोल पाने की तड़प उसके चेहरे पर स्पष्ट नजर आ रही थी।
“इस पर जरूर पिशाच ने ही हमला किया है।”
पहले से ही खौफजदा लोग सहज ही उपरोक्त निष्कर्ष पर पहुँच गये। रही सही कसर बेहद नजदीक से आयी तीसरी गर्जना ने पूरी कर दी।
“वह आस-पास ही है।”
लोगों ने चलने में असमर्थ हो चुके सजीवन की ओर देखा। उसने दोनों हाथ जोड़ लिए। याचना और पीड़ा के भाव से युक्त उसका चेहरा दयनीय हो उठा था। वह बार-बार अँधेरे की ओर देख रहा था।
“ये अब चल नहीं सकता।”
“अब क्या होगा? इसे कैसे चलेंगे हम?”
समूह का नेतृत्व करने वाले ने एक नजर अँधेरे पर डाली। एक-एक करके सभी लोगों के चेहरे का मुआयाना किया और फिर एक झटके से निर्णायक लहजे में कह उठा- “अगर हम यहाँ से सही-सलामत निकलना चाहते हैं तो हमें सजीवन को यहीं छोड़ना होगा।”
‘ये क्या ..ये क्या कह रहे हो तुम?”
“पागल मत बनो। पिशाच के मुंह इसका खून लग चुका है। वह इसे किसी भी दशा में जीवित नहीं छोड़ेगा। अगर हम इसे साथ लेकर भागेंगे तो इसके साथ हम भी पिशाच का शिकार बनेंगे।”
उसने झुंझलाते हुए कहा। उसका बदन पसीने से भीगा हुआ था। सांसें तेज हो
गयी थीं। हालांकि वह भी बुरी तरह बदहवास था, किन्तु अन्यों की अपेक्षा इतना संयत जरूर था कि कोई निर्णय ले सकने में सक्षम था। बाकियों की दशा ऐसी थी जैसे कलेजे का साथ-साथ उनका जेहन भी हलक में अटक गया था। सजीवन थोड़ी देर पहले जिन साथियों के साथ मौजूद था, उन्हीं की अब स्वार्थपरक बातें सुनकर उसका कलेजा असहनीय कष्ट से फट पड़ा। हृदय की उस टीस के आगे जिस्म की पीड़ा भी हार गयी।
“पिशाच के भोजन को हाथ मत लगाओ तो पिशाच तुम्हें भी हाथ नहीं लगाएगा। कम से कम इस मरघट से तो हम सही-सलामत निकल ही जायेंगे।”
इस आख़िरी निर्णय का सभी ने भरे दिल से स्वागत किया। सजीवन ने मदद को आगे बढ़ाये हुए अपने हाथ को पीछे खींच लिया। उसने आँखें बंद करके आख़िरी बार इष्ट को याद किया और स्वयं को प्रारब्ध के बंधन में ढीला छोड़ दिया।
“चलो यहाँ से। जल्दी चलो। पिशाच यहीं आस-पास ही है।”
और फिर!
सजीवन ने क्षण-प्रतिक्षण दूर होती गयी कदमों की पदचाप को सुना।
‘यही सांसारिक रिश्तों का घिनौना रूप है।’
इससे पहले कि वह आगे कुछ सोच पाता महापिशाच की रूह थर्रा देने वाली गर्जना को उसने बेहद निकट सुना। इसके पश्चात उसने केवल इतना ही महसूस किया कि कोई उसके दोनों पैरों को पकड़कर दूर तक घसीट कर ले जा रहा है, तत्पश्चात सब-कुछ अन्धेरे में डूब गया।
एक साथी के प्राणों के मूल्य पर अपने प्राण बचाकर भाग रहे स्वार्थी इंसानों ने पर्याप्त दूरी पर पहुंचकर पीछे मुड़ कर देखा। सब-कुछ अँधेरे में गर्त हो चुका था। चिता के लपटों की रोशनी में उन्हें नजर आया कि जहाँ पर थोड़ी देर पहले सहारे की भीख मांग रहा सजीवन पड़ा हुआ था, वहां अब कुछ नहीं था। उनके भय का कुछ अंश जिज्ञासा में परिणित हुआ और वे ठिठक गये।
और फिर अचानक!
अँधेरे को चीरकर महापिशाच बाहर आया।
वह दो पैरों पर खड़ा अतिशय ऊंचाई वाला एक नर-भेड़िया था। उसके दाहिने हाथ में मौजूद कटार से खून टपक रहा था। बायें हाथ की मुट्ठी में उसने सजीवन के कटे शीष के बालों को जकड़ रखा था। उसके जबड़ों से सजीवन के शरीर के किसी हिस्से का मांस लटका हुआ था।
“भ..भ...भ....ग....ग....गो!”
इस बार जब उनके पाँव मुड़े तो फिर उन्होंने दोबारा पलटने की जुर्रत नहीं की।
श्मशानेश्वर ने प्रचंड स्वर में दहाड़ कर अपने पहले मानव-शिकार का जश्न मनाया।
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शव को मुखाग्नि देने वाला चारों ओर फैले निविड़ अंधकार को देख रहा था। उसका मस्तिष्क जीवन और मृत्यु के दर्शन पर चिंतन करने में व्यस्त था, इसलिए उसका ध्यान उस चर्चा की ओर नहीं था, जो शव-यात्रा में साथ आये लोगों के बीच चल रहा था।
“राज्य में अफवाह फैली हुई है कि पिछले तीन दिनों से चोरी किये गये जिन चौपायों की लाशें यहाँ मरघट में बरामद हो रही हैं, उन्हें मारने वाला कोई जंगली पशु नहीं है।”
“तो फिर कौन हो सकता है?”
“शायद कोई ऐसा पशु, जिसमें शेर या चीते से भी अधिक दरिन्दगी भरी हुई है।”
लोगों के बीच खामोशी छा गयी। उनकी कल्पना में उस भयानक पशु का अक्स उभरने लगा।
“सुनने में ये भी आता है कि जहाँ पर अभयानन्द को जलाया गया था, अगली सुबह वहां से उसकी राख भी नहीं मिली थी।”
“राख कहाँ से मिलेगी, जब वह कापालिक पूरी तरह जला ही नहीं था।”
“लेकिन वह पूरी तरह जला क्यों नहीं होगा?”
“क्या उस रात की तेज मूसलाधार बारीश को भूल गये तुम लोग? जिसके उफान को देखकर ऐसा लगा रहा था, जैसे शैतान भी ये नहीं चाहता था कि उसका भक्त जल कर मरे।”
“अगर उस बारीश के कारण अभयानन्द बच भी गया होगा तो फिर उसे पीपल से उतारा किसने होगा? और फिर वह गया कहाँ होगा?”
“वह जंगल में रहने वाले दुष्ट कापालिकों के मठ का स्वामी था। क्या कापालिक उसे बचाने के लिए आये नहीं होंगे?”
“किन्तु मैंने उसे अपनी आँखों से देखा था। उसे पूरी तरह आग के हवाले कर दिया गया था। कापालिक आखिर उसे ले जाकर किये क्या होंगे? उसकी तो मृत्यु सुनिश्चित थी।”
उपरोक्त तर्क देने वाला कई निगाहों का केंद्रबिंदु बन गया।
“क्या तुम्हें नहीं मालूम कि अभयानन्द श्मशानेश्वर सिद्धी का अनुष्ठान पूर्ण कर चुका था? उस अनुष्ठान को पूर्ण करने वाले मनुष्य के शरीर में श्मशानेश्वर निवास करने लगता है। यदि उस मनुष्य के शरीर को तीन दिनों के अन्दर नष्ट नहीं किया जाता है तो श्मशानेश्वर उसी शरीर को धारण करके जी उठता है।”
“हे देवी माँ!” कमजोर दिल वालों ने मुंह पर हाथ रख लिया- “शुभ-शुभ बोलो! ईश्वर न करें ऐसा हो।”
“अगर ऐसा हो गया...।” किसी एक ने डरावनी शक्ल बनाते हुए कहा- “तो अनर्थ हो जाएगा। खून की नदियाँ बह जाएंगी। पूरा शंकरगढ़ वीरान हो जाएगा। पिशाच को किसी भी उपाय से रोका नहीं जा सकेगा। ईश्वरीय शक्तियां भी उसके आगे कमजोर पड़ जायेंगी। श्मशानेश्वर के बारे में पुराने ग्रंथों में लिखा है कि वह यमराज का दूसरा रूप है। वह भड़मानस के रूप में आता है। उसके हाथ और पैरों के नुकीले नाखूनों से लहू टपकता है। आँखें धधकते लावे की भांति सूर्ख होती हैं। वह दाहिने हाथ में कटार लेकर शिकार पर निकलता है। बाएं हाथ की मुट्ठी में शिकार के बाल जकड़ता है और कटार से उनकी गर्दन धड़ से अलग कर देता है।”
ठीक इसी क्षण!
जंगल से एक भयानक गर्जना उठी। लोगों ने काँप कर उसकी दिशा में देखा।
“इतनी रात गये जंगल में कौन गरज रहा है? ये तो किसी शेर या चीते की गर्जना नहीं है।”
दहशत के कारण लोगों के पसीने छूट गये। उन्होंने जलती चिता की ओर देखा। शव के पूरा जलने में अभी समय था।
“कहीं कोई अनिष्ट तो नहीं होने वाला?”
कई लोगों की आशंकित निगाहें आकाश की ओर उठ गयीं। काले घने बादल
उनके सामने रहस्यमयी दृश्य प्रस्तुत कर रहे थे। निर्जन मरघट में झूमते वृक्षों की स्याह आकृतियाँ भयावह लगने लगी थीं। चिता की लपटें भी अब पहले से उग्र हो उठी थीं। विगत तीन दिनों से मरघट में पाये जा रहे पशुओं के शव को लेकर फ़ैली अफवाहें सच का रूप लेती नजर आने लगीं।
“हमें वापस लौटना होगा।” किसी ने प्रस्ताव रखा- “कोई हमारा काल बनकर मरघट की ओर आ रहा है। ये सब उसी के आने संकेत हैं।”
“ऐसे कैसे जा सकते हैं?” उस शख्स ने, जिसने शव को मुखाग्नि दी थी, उपरोक्त प्रस्ताव रखने वाले को घूरा- “अभी अंतिम संस्कार.....।”
कथन पूर्ण होने से पूर्व ही उसी दुर्दांत गर्जना ने एक बार फिर मरघट को कंपा डाला। इस बार गर्जना निकट से आयी थी। लौटने की राय देने वाले को हावी होने का अवसर मिल गया।
“मर चुके इन्सान के लिए जान गंवाना मूर्खता भरी भावुकता मात्र है। महापंडित से विमर्श करके अधूरे अंतिम संस्कार को पूर्ण करने का कोई विकल्प ढूंढा जा सकता है, किन्तु यदि हम यहाँ उपस्थित रहे तो जो रहस्यमयी मौत हमारी ओर बढ़ रही है, उससे बचने का हमारे पास कोई विकल्प नहीं होगा।”
मृतक के संबंधियों को भी ये कथन तार्किक लगा। पल-प्रतिपल भयावह होता जा रहा मरघट का वातावरण, चिता पर रखे अधजले शव के प्रति लोगों की संवेदनाओं पर भारी पड़ने लगा।
“हम वापस लौट रहे हैं।” एक व्यक्ति ने घोषणा के स्वर में कहा।
“सजीवन अभी लौटा नहीं।”
प्रकरण से इतर वाक्य के मुखरित होते ही लोगों को झटका लगा।
“सजीवन कहाँ गया है?” दल के नेतृत्वकर्ता की भूमिका में आ चुके आदमी ने पूछा।
“हमने उसे दक्षिण की ओर अँधेरे में जाते देखा था। हमें लगा प्राकृतिक कर्म से निवृत्त होने के लिए जा रहा होगा, इसलिए टोकना उचित नहीं समझा।”
सभी की भयाक्रांत दृष्टि दक्षिण की ओर उठ गयी। दूर तक काजल से भी काला अन्धेरा व्याप्त था। ये रूह तक को कंपा देने वाली भीषण गर्जनाओं का ही खौफ था, जो प्रत्येक के मन में यह विश्वास पनपने लगा था कि सजीवन अब उस अँधेरे से कभी बाहर नहीं आयेगा। जंगल से आती वृक्षों की मद्धिम सरसराहट से बोध होता था कि भयानक अन्धेरा सजीव होकर सांसें ले रहा है।
“वापस चलो! सजीवन..सजीवन अब कभी नहीं लौटेगा।”
‘जब मनुष्य के प्राणों पर संकट आता है तो वह सभी नैतिक मूल्यों को विस्मृत कर देता है।’ वे वापस मुड़ने को उद्यत हुए ही थे कि-
“आ....ह!”
अँधेरे के गर्भ से एक क्षीण आह निकली।
लोग ठिठक कर रुक गये। दम साधे हुए अँधेरे को ही घूर रहे थे कि अचानक उनकी धड़कनें थम गयीं। खून से लथपथ सजीवन अँधेरे में से लड़खड़ाता हुआ बाहर निकला। साथियों पर दृष्टि पड़ते ही उसका वह हौसला जवाब दे गया, जिसके दम पर उसने किसी अज्ञात मुसीबत से बच कर यहाँ तक का फासला तय किया था। धरातल पर गिरने के पश्चात उसने हाथ आगे बढाकर मदद की गुहार लगाई। उसका गला आवाज निकालने में असमर्थ हो चुका था। लोग उसकी ओर लपके।
सजीवन के कपड़े फट गये थे, जहाँ से झाँक रहे जिस्म के हिस्से रक्तरंजित थे। उसके दोनों गालों और हाथ पर भेड़िये के पंजों के निशान थे। उसकी एक पिंडली खून से लथपथ थी, ऐसा लग रहा था, जैसे वहां से मांस का एक बड़ा हिस्सा काट खाया गया हो।
“क्या हुआ तुम्हें?”
“कहाँ थे तुम?”
“किसने तुम पर हमला किया?’
उपरोक्त अनगिनत सवालों के जवाब में सजीवन केवल निगाहों के जरिये अपने जख्मों की ओर इशारा करता रहा। उस पर निश्चेतना हावी हो रही थी। गला सूख रहा था और पलकें बंद होती जा रही थीं। बोलने के प्रयास में उसका मुंह खुल अवश्य रहा था किन्तु जुबान कोई हरकत नहीं कर पा रही थी। चाहकर भी कुछ न बोल पाने की तड़प उसके चेहरे पर स्पष्ट नजर आ रही थी।
“इस पर जरूर पिशाच ने ही हमला किया है।”
पहले से ही खौफजदा लोग सहज ही उपरोक्त निष्कर्ष पर पहुँच गये। रही सही कसर बेहद नजदीक से आयी तीसरी गर्जना ने पूरी कर दी।
“वह आस-पास ही है।”
लोगों ने चलने में असमर्थ हो चुके सजीवन की ओर देखा। उसने दोनों हाथ जोड़ लिए। याचना और पीड़ा के भाव से युक्त उसका चेहरा दयनीय हो उठा था। वह बार-बार अँधेरे की ओर देख रहा था।
“ये अब चल नहीं सकता।”
“अब क्या होगा? इसे कैसे चलेंगे हम?”
समूह का नेतृत्व करने वाले ने एक नजर अँधेरे पर डाली। एक-एक करके सभी लोगों के चेहरे का मुआयाना किया और फिर एक झटके से निर्णायक लहजे में कह उठा- “अगर हम यहाँ से सही-सलामत निकलना चाहते हैं तो हमें सजीवन को यहीं छोड़ना होगा।”
‘ये क्या ..ये क्या कह रहे हो तुम?”
“पागल मत बनो। पिशाच के मुंह इसका खून लग चुका है। वह इसे किसी भी दशा में जीवित नहीं छोड़ेगा। अगर हम इसे साथ लेकर भागेंगे तो इसके साथ हम भी पिशाच का शिकार बनेंगे।”
उसने झुंझलाते हुए कहा। उसका बदन पसीने से भीगा हुआ था। सांसें तेज हो
गयी थीं। हालांकि वह भी बुरी तरह बदहवास था, किन्तु अन्यों की अपेक्षा इतना संयत जरूर था कि कोई निर्णय ले सकने में सक्षम था। बाकियों की दशा ऐसी थी जैसे कलेजे का साथ-साथ उनका जेहन भी हलक में अटक गया था। सजीवन थोड़ी देर पहले जिन साथियों के साथ मौजूद था, उन्हीं की अब स्वार्थपरक बातें सुनकर उसका कलेजा असहनीय कष्ट से फट पड़ा। हृदय की उस टीस के आगे जिस्म की पीड़ा भी हार गयी।
“पिशाच के भोजन को हाथ मत लगाओ तो पिशाच तुम्हें भी हाथ नहीं लगाएगा। कम से कम इस मरघट से तो हम सही-सलामत निकल ही जायेंगे।”
इस आख़िरी निर्णय का सभी ने भरे दिल से स्वागत किया। सजीवन ने मदद को आगे बढ़ाये हुए अपने हाथ को पीछे खींच लिया। उसने आँखें बंद करके आख़िरी बार इष्ट को याद किया और स्वयं को प्रारब्ध के बंधन में ढीला छोड़ दिया।
“चलो यहाँ से। जल्दी चलो। पिशाच यहीं आस-पास ही है।”
और फिर!
सजीवन ने क्षण-प्रतिक्षण दूर होती गयी कदमों की पदचाप को सुना।
‘यही सांसारिक रिश्तों का घिनौना रूप है।’
इससे पहले कि वह आगे कुछ सोच पाता महापिशाच की रूह थर्रा देने वाली गर्जना को उसने बेहद निकट सुना। इसके पश्चात उसने केवल इतना ही महसूस किया कि कोई उसके दोनों पैरों को पकड़कर दूर तक घसीट कर ले जा रहा है, तत्पश्चात सब-कुछ अन्धेरे में डूब गया।
एक साथी के प्राणों के मूल्य पर अपने प्राण बचाकर भाग रहे स्वार्थी इंसानों ने पर्याप्त दूरी पर पहुंचकर पीछे मुड़ कर देखा। सब-कुछ अँधेरे में गर्त हो चुका था। चिता के लपटों की रोशनी में उन्हें नजर आया कि जहाँ पर थोड़ी देर पहले सहारे की भीख मांग रहा सजीवन पड़ा हुआ था, वहां अब कुछ नहीं था। उनके भय का कुछ अंश जिज्ञासा में परिणित हुआ और वे ठिठक गये।
और फिर अचानक!
अँधेरे को चीरकर महापिशाच बाहर आया।
वह दो पैरों पर खड़ा अतिशय ऊंचाई वाला एक नर-भेड़िया था। उसके दाहिने हाथ में मौजूद कटार से खून टपक रहा था। बायें हाथ की मुट्ठी में उसने सजीवन के कटे शीष के बालों को जकड़ रखा था। उसके जबड़ों से सजीवन के शरीर के किसी हिस्से का मांस लटका हुआ था।
“भ..भ...भ....ग....ग....गो!”
इस बार जब उनके पाँव मुड़े तो फिर उन्होंने दोबारा पलटने की जुर्रत नहीं की।
श्मशानेश्वर ने प्रचंड स्वर में दहाड़ कर अपने पहले मानव-शिकार का जश्न मनाया।
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Re: Horror ख़ौफ़
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