पूनम की रात।
शंकरगढ़ के उस रहस्यमयी जंगल का कोना-कोना उजली चाँदनी से सराबोर था। वातावरण में भेड़ियों का समवेत रुदन व्याप्त था। अभयानन्द, बिरजू को कंधे पर लादे हुए तेजी से पगडण्डी पर आगे बढ़ रहा था। बिरजू होश में था, किन्तु अभयानन्द ने किसी जंगली लता से उसका हाथ-पैर बांध कर और मुंह में कपड़ा ठूंसकर उसे इस लायक नहीं छोड़ा था कि वह कुछ बोल सके या फिर छटपटा कर अपने हाथ-पांव हिला सके।
चाँद की रोशनी में अभयानन्द का चेहरा बेहद भयानक नजर आ रहा था। वह एक ऐसा पिशाच था, जो ईश्वर की किसी गलती से मनुष्य योनि में जन्म ले बैठा था। क्षुधा व्दारा सताए जाने पर वह जन्तुओं का मांस खाता था और तृष्णा मिटाने
के लिए उनका रक्त पीता था।
उसे कुछ दूरी पर पीला प्रकाश फैला हुआ नजर आ रहा था, जहां से कुछ विचित्र मंत्रों की ध्वनि भी सुनाई पड़ रही थी। वह बिरजू को लादे हुए उसी दिशा में बढ़ रहा था। जैसे-जैसे उस पीले प्रकाश और अभयानन्द के बीच का फासला कम होता गया, वैसे-वैसे विचित्र मंत्रों की ध्वनि स्पष्ट होती चली गयी। अंततः अभयानन्द पीले प्रकाश के स्रोत वाले उस स्थान पर पहुंच गया।
दृश्य बहुत ही भयानक था।
वह पेड़ों और झाड़ियों के झुरमुटों को साफ़ करके बनाया गया लगभग चार हाथ की त्रिज्या का एक वृत्ताकार मैदान था, जिसके केंद्र पर एक ऊंचा अलाव जल रहा था। इसी अलाव की ज्वाला दूर से नजर आ रही थी। उस वृत्ताकार मैदान की परिधि पर सात बड़े कद के काले भेड़िये बैठे हुए थे। लम्बी जीभ बाहर लटकाए हुए उन भेड़ियों की मुद्रा ऐसी थी, जैसे वे किसी अनुष्ठान प्रक्रिया का हिस्सा हों। अलाव को घेर कर दर्जन भर से भी अधिक तांत्रिक बैठे हुए थे, प्रत्येक के कमर में काले रंग की कोपीन थी। इस कोपीन के अलावा उनके जिस्म पर वस्त्र के नाम पर कुछ नहीं था। वे सभी तेज स्वर में कोई मंत्रोच्चार कर रहे थे। यही मंत्रोच्चार था, जो दूर तक गूँज रहा था। वे सभी ऐसे झूम रहे थे, जैसे उनकी काया पर किसी और का आधिपत्य हो।
अलाव की धधकती ज्वाला का पीला प्रकाश एक विशालकाय प्रतिमा पर पड़ रहा था, जो इंसान तथा भेड़िये के मिले-जुले रूप वाले किसी प्राणी की थी। उसके दाहिने हाथ में कटार थी और बायें हाथ में एक नरमुंड था। संहार की मुद्रा वाले उस नरभेड़िये की प्रतिमा मानो अलाव की रोशनी में सजीव हो उठी थी। उसके कदमों में अत्यंत जर्जर शरीर वाला एक वृद्ध तांत्रिक निश्चल पड़ा हुआ था। उसके कोटरों में भेड़िये की आँखें थीं, जो आकाश की छाती पर अठखेलियाँ कर रहे पूरे आकर के चाँद पर ठहरी हुई थीं। उसके जिस्म में हल्का सा भी कम्पन नहीं था। ऐसा लगता था जैसे वह प्राण त्याग चुका हो। प्रतिमा के सामने एक बलिवेदी बनी हुई थी। जिस पर ताजा नींबू और एक नया बलिकुठार रखा हुआ था।
अभयानन्द के कदमों की आहट महसूस करते ही काला कोपीन पहने हुए तांत्रिकों ने झूमना बंद कर दिया। उन्होंने आँखें खोल दी। वृत्ताकार मैदान की परिधि पर बैठे भेड़ियों ने चाँद की ओर मुंह उठाकर एक साथ रोना शुरू किया। ये उनका अभयानन्द का स्वागत करने का तरीका था।
अलाव की रोशनी में उस पिशाच का चेहरा भयानक हो उठा, जिसका नाम अभयानन्द था। उसने बिरजू को अलाव के पास निर्दयतापूर्वक पटक दिया। बिरजू केवल कसमसा कर रह गया। बलिवेदी पर ठहरी उसकी निगाहों में खौफ नृत्य कर उठा। सभी तांत्रिक अपने स्थान से उठ खड़े हुए। अभयानन्द बगैर किसी का अभिवादन किये नरभेड़िये की प्रतिमा के सम्मुख खड़ा हो गया।
“जय श्मशानेश्वर! आपका स्वरूप धारण करने का एकमात्र अधिकारी अभयानन्द आज अपने साधना का अंतिम चरण पूर्ण करेगा। इस पूर्णिमा की धवल चाँदनी आज एक मानव-रक्त से रक्तिम हो उठेगी। आज महातांत्रिक अघोरा अपना भार हमें सौंप देंगे। चन्द्रमा पर ठहरे इनके नेत्रों के बंद होते ही हमारे लिए असीमित शक्तियों का द्वार खुल जाएगा।”
अपनी दोनों बाहें फैलाकर अभयानन्द अट्टहास कर उठा। उसका विकृत चेहरा हर गुजरते क्षण के साथ विकृत होता चला गया।
“अनुष्ठान की तैयारी करो।” अचानक अट्टहास रोककर उसने तांत्रिकों को आदेश दिया।
चार तांत्रिक आगे बढ़े। उन्होंने भेड़िये की आँखों वाले तांत्रिक अघोरा को उठाया और बलिवेदी के ठीक समीप लाकर धरातल पर लिटा दिया।
अभयानन्द ने अपनी हथेली फैलाई। एक तांत्रिक ने उसका मंतव्य समझकर
हथेली पर चमचमाते फल वाला चाकू रख दिया। अभयानन्द ने उस चाकू से अंगूठे पर एक चीरा लगाया और लहू की पतली धारा से अघोरा के निश्चल पड़े जिस्म के चारों ओर गोल घेरा खींच दिया।
“बिरजू के बंधन खोल दो। उसे महान अघोरा की काया के समीप लिटा दो। उसका स्वरयंत्र मंत्र-बाधित कर दो। ‘काया-संयुग्मन’ की प्रक्रिया पूर्ण करो।”
आदेशों की श्रृंखला पारित करने के बाद अभयानन्द सातों भेड़ियों की ओर मुड़ा।
“मिलेगा।” उसने मानो भेड़ियों को सांत्वना दी- “आज तुम्हें मानव-रक्त मिलेगा। आज हमने तुम्हारे लिए तुम्हारे पसंदीदा पेय का प्रबन्ध किया है।”
“नहीं!..नहीं!...नहीं!....जाने दो मुझे। जाने दो मुझे। मैंने तुम लोगों का क्या बिगाड़ा है।”
बिरजू का दहशत भरा स्वर सुनते ही अभयानन्द की आँखें जल उठीं।
“उसका स्वरयंत्र मंत्र-बाधित करो मूर्खों!” वह तांत्रिकों क ऊपर चिल्लाया।
अगले ही क्षण बिरजू का गला अवरूद्ध हो गया। अब वह हलक फाड़कर चीखने का उपक्रम करता नजर आ रहा था, किन्तु चीख नहीं पा रहा था।
अभयानन्द भयानक मुस्कान लिए हुए बिरजू के निकट बैठ गया।
“धन्यवाद बिरजू! तुम्हारा जीवन यहीं तक था। तुम्हारी नियति में यही अंकित
था कि तुम्हारा रक्त श्मशानेश्वर के स्वरूप के प्रतीक इन भेड़ियों की तृष्णा बुझाए और तुम्हारे अंग उनकी क्षुधा की संतुष्टि का पर्याय बनें।”
बिरजू ने चीखने का उपक्रम करना बंद दिया। इसी के साथ जिन्दगी का मौत के साथ संघर्ष थम गया। ऐसा लगा जैसे एक असहाय ने इसलिए नियति के आगे घुटने टेक दिए, क्योंकि उसकी प्रार्थना उसके ईष्ट तक नहीं पहुँच पाई थी।
“काया-संयुग्मन की प्रक्रिया पूर्ण की जाए।” अभयानन्द ने आदेश दिया।
एक तांत्रिक आगे बढ़ा। उसने बलिवेदी पर रखा बलिकुठार उठाया और अभयानन्द की ओर देखा। अभयानन्द के नेत्र बंद थे। उसके होठों का कम्पन इंगित कर रहा था कि वह मंत्र बुदबुदा रहा था। ज्यों ही उसके होंठों का कम्पन थमा त्यों ही तांत्रिक का बलिकुठार तेजी से नीचे आया और नींबू दो बराबर भागों में बंटकर छिटक गया। एक हिस्सा अघोरा के पास गिरा और एक हिस्सा बिरजू के पास।
प्रक्रिया पूर्ण होते ही अभयानन्द ने आँखें खोल दी।
“इसे बलि-वेदी पर रखो।” उसने बिरजू की ओर संकेत करते हुए कहा।
दो लोगों ने बिरजू को उठाकर बलि-वेदी पर रख दिया। उसकी गर्दन बलिवेदी के खांचे में बैठ गयी।
अभयानन्द ने बलि-कुठार उठाया और काल का अवतार बना हुआ बिरजू की ओर बढ़ा। बिरजू की आँखों से आंसू निकलकर गालों पर लुढ़क आये। अभयानन्द का बलिकुठार वाला हाथ हवा में उठा और तेजी से नीचे आया। बिरजू का सर धड़ से अलग होकर दूर जा गिरा। धड़ तेजी से फड़फड़ाया। ठीक इसी क्षण अघोरा का जिस्म भी फड़फड़ाया। ऐसा लगा जैसे बिरजू के साथ-साथ उसका भी सर धड़ से अलग हो गया हो। जैसे ही बिरजू का धड़ फड़फड़ा कर शांत हुआ, अघोरा का शरीर भी शांत पड़ गया। बिरजू के प्राणोत्सर्ग के साथ ही अघोरा का शरीर भी प्राणविहीन हो गया था।
जंगल के बीच मौजूद उस वृत्ताकार मैदान में मानो वक्त थम गया। बिरजू के खून से लाल धरती और उसका मुण्डविहीन धड़ देखकर आदमखोर भेड़ियों की लार टपक पड़ी, किन्तु आश्चर्यजनक संयम का प्रदर्शन करते हुए वे अपनी जगह से हिले तक नहीं। केवल अभयानन्द की ओर से अगला संकेत प्राप्त होने की प्रतीक्षा करते रहे।
सभी तांत्रिक सिर झुकाकर अघोरा के शव के चारों ओर वृत्ताकार घेरे खड़े हो गये। मानो उसे श्रद्धांजलि दे रहे हों। अभयानन्द घेरे के अन्दर पहुंचा। शव के समीप पंजों के बल बैठा और शव की खुली पलकों को सम्मानपूर्वक अपनी हथेली से बन्द करते हुए कहा- “धन्यवाद महातांत्रिक अघोरा। आपने अपनी काया का मोह त्याग कर हमें महान शक्तियों के व्दार पर लाकर खड़ा कर दिया है। आपकी उदारता के कारण ही हमने आज श्मशानेश्वर का मानवावतार बनने की पहली योग्यता अर्जित कर ली। आपके समर्पण से अभयानन्द अभिभूत हुआ। धन्य हो गये हम। शीघ्र ही हम तंत्र-साधना की एक महत्वपूर्ण उपलब्धि के धारक होंगे।”
अभयानन्द ने शव के पैरों पर अपना सिर रखकर उसे अंतिम प्रणाम किया और फिर शव को घेरे हुए तांत्रिकों की ओर पलटा- “महान अघोरा के शव को उचित क्रिया-कर्म के साथ भूमि में गाड़ दो। सुरक्षा का विशेष ध्यान देना है। जंगली पशुओं तक को भनक न लगने पाए कि महान अघोरा का पार्थिव कहां पर गड़ा है।”
अभयानन्द भेड़ियों की ओर पलटा।
“तुम्हारा भोजन तैयार है।”
अभयानन्द का आदेश मिलते ही भेड़ियों का संयम धराशायी हो गया। वे बिरजू के शव पर टूट पड़े।
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Horror ख़ौफ़
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Re: Horror ख़ौफ़
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(प्यार का अहसास ) ......(वापसी : गुलशन नंदा) ......(विधवा माँ के अनौखे लाल) ......(हसीनों का मेला वासना का रेला ) ......(ये प्यास है कि बुझती ही नही ) ...... (Thriller एक ही अंजाम ) ......(फरेब ) ......(लव स्टोरी / राजवंश running) ...... (दस जनवरी की रात ) ...... ( गदरायी लड़कियाँ Running)...... (ओह माय फ़किंग गॉड running) ...... (कुमकुम complete)......
साधू सा आलाप कर लेता हूँ ,
मंदिर जाकर जाप भी कर लेता हूँ ..
मानव से देव ना बन जाऊं कहीं,,,,
बस यही सोचकर थोडा सा पाप भी कर लेता हूँ
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Re: Horror ख़ौफ़
द्विज उस झोपड़ी के दरवाजे पर पहुंचकर ठहर गया, जिसके अन्दर घना
अंधकार छाया हुआ था। झोपड़ी मानव-बस्ती के बाहर बनी हुई थी। उस तरफ लोगों का आना-जाना बेहद कम या न के बराबर होता था।
द्विज ने झोपड़ी का कपाट भीतर की ओर धकेला और अन्दर प्रविष्ट हो गया।
“हमारी झोपड़ी में आपका स्वागत है द्विज।” झोपड़ी में व्याप्त गहन अंधकार के मध्य अभयानन्द का स्वर गूंजा- “आप अंधकार के अभ्यस्त नहीं होंगे। ठहरिये हम प्रकाश का प्रबंध करते हैं।”
द्विज बगैर कोई प्रतिक्रिया व्यक्त किये अंधकार में खड़ा रहा। थोड़ी देर तक अँधेरे में आहटें सुनाई देती रहीं, तत्पश्चात झोपड़ी में प्रकाश फ़ैल गया। अभयानन्द ने एक दिया जला दिया था।
“हमें पूर्व में ही अंदेशा हो गया कि आने वाले आप ही हैं, क्योंकि शंकरगढ़ के साधारण प्राणियों में इतना साहस नहीं है कि वे हमारी कुटिया में हमारी आज्ञा के बिना प्रविष्ट हो सकें। वे तो हमारे सम्मुख पड़ने तक का साहस नहीं कर सकते।”
झोपड़ी का वातावरण नर्क से भी बदतर था। जगह-जगह पशुओं की हड्डियां, खून, चमड़े और मांस के लोथड़े बिखरे हुए थे। अभयानन्द के हाथ में एक मोटा चूहा था, जिसकी गरदन उसने काट खाई थी। मांस का लोथड़ा उसकी दांतों में फंसा हुआ था। वातावरण में असहनीय दुर्गन्ध व्याप्त थी। अभयानन्द का खून पुता चेहरा देख साधारण प्राणी उसे पिशाच समझकर भाग खड़ा होता, किन्तु द्विज पर इन चीजों का कोई प्रभाव नहीं पड़ा। उसके मुखमंडल पर वैसे ही गंभीर और सौम्य भाव थे, जो विद्वानों और वीरों के चेहरे पर विकट से विकट परिस्थितियों में भी नजर आते हैं।
“क्या देख रहे हैं द्विज? यदि आपको हमारे आहार से घृणा न होती तो हम आपको अपने आहार में सहभागी अवश्य बनाते। हम क्षमाप्रार्थी हैं द्विज कि आपके आतिथ्य-सत्कार हेतु इस गरीब अभयानन्द की झोपड़ी में ऐसा कुछ भी नहीं है, जिसे आप सहर्ष स्वीकार कर सकें।”
कहने के बाद अभयानन्द दांतों में फंसा चूहे की मांस का लोथड़ा चबाने लगा। द्विज शांत और निश्चल खड़ा रहा। ऐसा लग रहा था जैसे वह अभयानन्द की जीवन-शैली देख किसी गहरे चिंतन में डूब गया हो। अभयानन्द ने मांस का लोथड़ा ख़त्म करके दोबारा मुंह खोला- “यदि आप हमारी कुटिया के वातावरण में स्वयं को असहज पा रहे हैं, तो यहाँ पधारने का अपना प्रयोजन अतिशीघ्र कहें और प्रस्थान कर जाएँ।”
“तुम अंधकार में रहने के आदी हो अभयानन्द। अंधकार रूपी अज्ञान के प्रति तुम्हारा मोह देख कर मुझे ऐसा प्रतीत हो रहा है कि जिस प्रयोजन के साथ मैं तुम्हारे पास आया हूँ वह नहीं पूर्ण हो पायेगा।” द्विज के व्यक्तित्व की गंभीरता मानो उसके स्वर में घुल गयी।
अभयानन्द के चेहरे पर सख्त भाव उभरे, किन्तु उसने बगैर द्विज की ओर देखे कहा- “आप विद्वान हैं द्विज। तर्कशास्त्र के महारथी हैं आप। आपके सम्मुख हम कुछ भी नहीं हैं, किन्तु स्मरण रहे कि हमारा और आपका ज्ञानमार्ग पृथक है। आप तर्कशास्त्र के प्रकांड पंडित हैं तो हम भी तंत्रशास्त्र....।”
“शांत!” द्विज इतने उच्च स्वर में चीखा कि अभयानन्द भी सहम कर चुप हो गया- “तंत्रशास्त्र का नाम कलंकित मत करो अभयानन्द। अपने अमानवीय कृत्यों को तंत्रशास्त्र से जोड़ कर उस दुर्लभ भारतीय ज्ञान को अपमानित मत करो, जिसे स्वयं भगवान शिव ने माँ पार्वती को दिया था, ताकि वे सृष्टि के कल्याणार्थ उस ज्ञान का उपयोग करके ब्रह्माण्ड में संरक्षित रहस्यमयी ऊर्जाओं का आह्वान कर सकें। तुम जैसे महत्वाकांक्षी तथा भोग-विलास के लोभी तांत्रिकों के कुकृत्यों का ही दुष्परिणाम है, जो आज तंत्र के दुरुपयोग को रोकने के लिये प्रत्येक राज्य में उसके अभ्यास को या तो निषिद्ध घोषित किया जा चुका है या फिर किया जा रहा
है।”
“आप यहाँ आने का अपना प्रयोजन स्पष्ट कीजिये द्विज।” अभयानन्द का लहजा क्रोध से परिपूर्ण हो उठा। द्विज के ऊंचे स्वर ने उसे भी कुपित कर दिया था।
“कई प्रयोजन हैं अभयानन्द। किन्तु उन प्रयोजनों को स्पष्ट करने से पूर्व मेरा तुमसे एक प्रश्न है। तुमने माया का मार्ग रोकने का दुस्साहस क्यों किया?”
“आप कौन होते हैं हमारे इस कृत्य को सत्साहस अथवा दुस्साहस की श्रेणी में रखने वाले? हमने माया का मार्ग रोका। उसकी कोमल कलाइयों को अपने शिकंजे में कसा। उसके सुन्दर बदन का नयनसुख....।”
“अभयानन्द!” द्विज इस बार पूर्व की अपेक्षा दो गुने तेजी से दहाड़ा- “मर्यादा की सीमा का उल्लंघन मत करो।”
“ओह!” अभयानन्द के होठों पर अर्थपूर्ण मुस्कान थिरक उठी- “तो आज एक तर्कशास्त्री अभयानन्द के मर्यादा की सीमा निर्धारित करने आया है। हमने माया के सम्मान का हनन किया। हमारे इस कृत्य से आपके किस अधिकार का हनन हुआ, जो आप इतना कुपित हो उठे हैं?”
“माया मेरी शिष्या है।” क्रोध की अधिकता के कारण द्विज के होठों से शब्द बड़ी मुश्किल से निकले- “और यदि तुम्हारे जैसे पशु ने मेरी शिष्या के संग कोई अभद्रता की तो मेरा संयम अपनी सीमाएं लांघ जाएगा।”
“हम आपका आदर करते हैं द्विज, किन्तु यदि आपने अपने संयम की बात उठा ही दी है तो हमारी ये चेतावनी कंठस्थ कर लीजिये कि हमारे सामर्थ्य को
आपके या किसी अन्य के संयम की सीमा का अब कोई भय नहीं है।”
“भयभीत होना सीख लो अभयानन्द। सृष्टि का इतिहास साक्षी है कि तुम जैसे पशुओं का अंत भी तुम्हारी जीवन-शैली की भाँति वीभत्स ही होता है।”
अभयानन्द बुरी तरह चिढ़ गया। उसने इस बार सुस्पष्ट चेतावनी दी- “हम माया को अपनी भैरवी बनाने का निर्णय ले चुके हैं। सृष्टि में कोई ऐसी शक्ति नहीं है, जो हमें हमारे निर्णय से डिगा सके।”
“एक शत्रु को तो मैं अभी इसी क्षण तुम्हारे मस्तक पर मंडराते हुए देख रहा हूँ अभयानन्द। वह शत्रु कोई और नहीं स्वयं तुम्हारा अहंकार है।”
“यदि आप का प्रयोजन पूर्ण हो चुका हो तो आप यहाँ से प्रस्थान कर जाएँ। अन्यथा हमें भय है कि हम आपके प्रति हमारे सम्मान की भावना को विस्मृत न कर दें।”
“मैं कई प्रयोजनों के साथ यहाँ आया हूँ अभयानन्द। अभी तो मेरा पहला प्रयोजन ही पूर्ण नहीं हुआ है। तुम माया का विचार त्याग दो। ये कोई निवेदन नहीं अपितु एक चेतावनी है।”
“और हम पूर्व में ही कह चुके हैं कि ऐसी कोई भी चेतावनी हमारे निर्णय को बदल नहीं सकती है।”
द्विज खामोश होकर अभयानन्द को एकटक देखता रह गया। जबकि अभयानन्द भयानक अंदाज में अट्टहास करते हुए कहता चला गया- “हमें ज्ञात है द्विज कि आप माया के लिए इतने व्यग्र क्यों हैं? आपके हृदय में उसके लिए प्रेम का बीज अंकुरित हो चुका है। अपनी विद्वता के बल पर आप उस अनिंद्य सुन्दरी को अपनी शय्या की शोभा बनाना चाहते हैं।”
“जिह्वा को नियंत्रण में रखो द्विज।”
“अन्यथा क्या कर सकते हैं आप? ये हमारी अंतिम चेतावनी है द्विज कि यदि आपने हमसे शत्रुता मोल ली तो आपकी विद्वता भी आपकी रक्षा नहीं कर पायेगी। हम मनुष्यों की श्रेणी से ऊपर उठ चुके हैं।” अभयानन्द की आँखें बड़ी और डरावनी हो उठीं- “हम उस भयावह प्राणी में परिवर्तित हो चुके हैं, जो यमराज का दूसरा रूप माना जाता है।”
“हाँ! ज्ञात है मुझे। ये ज्ञात है मुझे कि तुम किस सामर्थ्य के बल पर मुझे चेतावनी दे रहे हो। तुमने श्मशानेश्वर नाम के उस भेड़िया-मानव की उपासना स्वीकार कर ली है, जो स्वयं को मरघट में विचरने वाली अतृप्त आत्माओं का स्वामी कहता है। कितने मूर्ख हो तुम अभयानन्द। तुम्हें ये तक नहीं ज्ञात कि प्रेतयोनि में भटकने वाला वह नीच पिशाच, तुम्हें भी अपनी तरह प्रेतयोनि में भटकता छोड़ देगा, जहाँ तुम अनन्तकाल तक मुक्ति के लिए तड़पते रहोगे।”
“हमारे आराध्य का संबोधन सम्मानपूर्वक कीजिये द्विज।”
“मैं पूर्णब्रह्म परमेश्वर के अतिरिक्त किसी अन्य पारलौकिक सत्ता का सम्मान नहीं करता। जो तुम्हारा आराध्य है, वह मेरे लिए नर्क में विचरता एक कीड़ा मात्र है।”
“आपके सिर पर मंडराते काल को हम स्पष्ट देख रहे हैं द्विज। आपकी मृत्यु निकट है।”
“मृत्यु तो तुम्हारी निकट है अभयानन्द।” द्विज रहस्यमय ढंग से मुस्कुराया- “कुटिया से बाहर निकलो। उस जन-समूह को देखो, जो तुम्हारे पांवों में बेड़ियाँ पड़ते हुए देखने को लालायित है।”
“तात्पर्य क्या है आपका?” अभयानन्द आशंकित हो उठा। सम्पूर्ण वार्तालाप के दौरान वह पहली दफा भयभीत नजर आया।
“यही कि आज संध्याकाल को बिरजू की बकरियां बिना अपने स्वामी के घर
लौटी थीं। कहने की आवश्यकता नहीं कि उस दशा में उसकी पत्नी ने क्या किया।”
“क..क्या किया?”
“उसने आपातकालीन न्यायसभा में न्याय की मांग की। ये तुम्हारे लिए एक दुर्योग ही सिद्ध हुआ अभयानन्द कि आज तुमने एक साथ दो-दो अक्षम्य अपराध किये हैं। पहला माया का मान-भंग करने का और दूसरा बिरजू की बलि चढ़ाने का। तुम पर पूर्व में भी लोगों के पालतू पशु चुराने का अभियोग लग चुका है किन्तु पूर्व में तुम संदेह-लाभ के कारण बच जाते थे। इस बार तुम्हारी कुण्डली में ऐसा दुर्योग निर्मित हुआ है कि तुम्हें किसी भी किस्म का संदेह-लाभ नहीं मिल सकता। स्वयं राज्य की राजकुमारी ने तुम पर अभियोग लगाया है।” द्विज रुका। उसने अभयानन्द की मानसिक दशा का आंकलन किया, तत्पश्चात आगे कहा- “क्या तुम ये जानने को उत्सुक हो अभयानन्द कि कई प्रयोजनों के साथ तुम्हारी कुटिया में आने के पीछे मेरा कौन सा मुख्य प्रयोजन निहित था?”
अभयानन्द चेहरे पर नासमझी का भाव लिए हुए द्विज को देखता रहा।
“मेरा मुख्य प्रयोजन तुम्हें तुम्हारी कुटिया में तब तक के लिए रोके रखना था, जब तक कि साक्ष्यों की तलाश में निकला सैनिकों का दल साक्ष्य लेकर नहीं आ जाता। और अब कुटिया के बाहर हो रहा कोलाहल इंगित कर रहा है कि मेरा प्रयोजन पूर्ण हो चुका है। सैनिकों का दल साक्ष्य लेकर आ चुका है। अर्थात उन्हें वन में भेड़ियों द्वारा आधा खाया हुआ बिरजू का शव प्राप्त हो चुका है।”
अभयानन्द को काटो तो खून नहीं।
“तुम्हें अर्द्धविक्षिप्त मानकर कारावास में डाल दिया जाएगा। आज के पश्चात
तुम कभी भी निरीह पशुओं के रक्त से अपनी तृष्णा नहीं बुझा पाओगे। और न ही निर्दोष मनुष्यों के रक्त से पिशाच की बलिवेदी को रंग पाओगे।”
बाहर कोलाहल बढ़ने लगा। इसी के साथ क्रोध और भय के सम्मिलित प्रभाव से अभयानन्द के बदन की थरथराहट भी बढ़ने लगी।
“बाहर चलो अभयानन्द!” द्विज के होंठों पर विषाक्त मुस्कान थिरक उठी- “श्मशानेश्वर की दी हुई शक्तियों का उपयोग करके स्वयं की रक्षा कर सकते हो तो कर लो।”
“द्विज...!” अभयानन्द ने दांत पीसे- “हमारी आपसे कोई शत्रुता नहीं थी, किन्तु आज आपने हमारे जैसे एक नरपिशाच से अनायास ही शत्रुता मोल ले ली। आपकी मृत्यु बहुत दारुण होगी द्विज। हमें दिखाई दे रहा है कि श्मशानेश्वर स्वयं अपनी कटार से आपको मुंडविहीन करेंगे। वे अपने भयानक दांत से तुम्हारी गर्दन का मांस काट खायेंगे।”
अभयानन्द आगे भी कुछ कहता, किन्तु तब तक कई सैनिक कुटिया के भीतर प्रवेश कर आये। उन्होंने अभयानन्द को घेर लिया।
“समर्पण कर दे। अन्यथा हमारे भाले तेरे शरीर को भेद कर रख देंगे।” एक सैनिक ने चेतावानी दी।
अभयानन्द ने रहस्यमय अंदाज में हाथ खड़े कर दिए। जनमानस में उसका खौफ इस सीमा तक व्याप्त था कि उसके निर्विरोध समर्पण ने भी सैनिकों को एकबारगी भयभीत किया।
उसके हाथ खड़े करने के कुछ क्षणोंपरांत सैनिक आगे बढ़े। उन्होंने अभयानन्द के गले में लोहे की जंजीर और पैरों में बेड़ियां डाल दी। उसने लेशमात्र भी प्रतिकार नहीं किया। मानो उसने ये सब नियति समझकर स्वीकार कर लिया था। हाँ, उसके आग उगलते नेत्र द्विज पर अवश्य ठहरे हुए थे।
सैनिक उसे किसी पशु की तरह घसीटते हुए बाहर लाये। बाहर बिरजू का शव सफ़ेद कपड़े से ढका हुआ था, जिसके इर्द-गिर्द उसकी पत्नी समेत शंकरगढ़ के लोग जमा थे।
अभयानन्द को बाहर आता देख लोगों का कोलाहल बढ़ गया। बिरजू की पत्नी तो मूर्छित थी, किन्तु उसके आस-पास जमा अन्य लोग क्रोधातिरेक में अभयानन्द की ओर दौड़ पड़े। सैनिकों द्वारा सख्ती से रोक दिए जाने के कारण वे अभयानन्द तक तो नहीं पहुँच सके तथापि अपने भयानक क्रोध का प्रदर्शन करते हुए वे अभयानन्द पर पत्थर बरसाने लगे। सैनिकों ने अभयानन्द को घोड़े के पीछे बाँध दिया, क्योंकि राजा उदयभान का आदेश था कि उसे घसीटते हुए कारावास तक लाया जाए।
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अंधकार छाया हुआ था। झोपड़ी मानव-बस्ती के बाहर बनी हुई थी। उस तरफ लोगों का आना-जाना बेहद कम या न के बराबर होता था।
द्विज ने झोपड़ी का कपाट भीतर की ओर धकेला और अन्दर प्रविष्ट हो गया।
“हमारी झोपड़ी में आपका स्वागत है द्विज।” झोपड़ी में व्याप्त गहन अंधकार के मध्य अभयानन्द का स्वर गूंजा- “आप अंधकार के अभ्यस्त नहीं होंगे। ठहरिये हम प्रकाश का प्रबंध करते हैं।”
द्विज बगैर कोई प्रतिक्रिया व्यक्त किये अंधकार में खड़ा रहा। थोड़ी देर तक अँधेरे में आहटें सुनाई देती रहीं, तत्पश्चात झोपड़ी में प्रकाश फ़ैल गया। अभयानन्द ने एक दिया जला दिया था।
“हमें पूर्व में ही अंदेशा हो गया कि आने वाले आप ही हैं, क्योंकि शंकरगढ़ के साधारण प्राणियों में इतना साहस नहीं है कि वे हमारी कुटिया में हमारी आज्ञा के बिना प्रविष्ट हो सकें। वे तो हमारे सम्मुख पड़ने तक का साहस नहीं कर सकते।”
झोपड़ी का वातावरण नर्क से भी बदतर था। जगह-जगह पशुओं की हड्डियां, खून, चमड़े और मांस के लोथड़े बिखरे हुए थे। अभयानन्द के हाथ में एक मोटा चूहा था, जिसकी गरदन उसने काट खाई थी। मांस का लोथड़ा उसकी दांतों में फंसा हुआ था। वातावरण में असहनीय दुर्गन्ध व्याप्त थी। अभयानन्द का खून पुता चेहरा देख साधारण प्राणी उसे पिशाच समझकर भाग खड़ा होता, किन्तु द्विज पर इन चीजों का कोई प्रभाव नहीं पड़ा। उसके मुखमंडल पर वैसे ही गंभीर और सौम्य भाव थे, जो विद्वानों और वीरों के चेहरे पर विकट से विकट परिस्थितियों में भी नजर आते हैं।
“क्या देख रहे हैं द्विज? यदि आपको हमारे आहार से घृणा न होती तो हम आपको अपने आहार में सहभागी अवश्य बनाते। हम क्षमाप्रार्थी हैं द्विज कि आपके आतिथ्य-सत्कार हेतु इस गरीब अभयानन्द की झोपड़ी में ऐसा कुछ भी नहीं है, जिसे आप सहर्ष स्वीकार कर सकें।”
कहने के बाद अभयानन्द दांतों में फंसा चूहे की मांस का लोथड़ा चबाने लगा। द्विज शांत और निश्चल खड़ा रहा। ऐसा लग रहा था जैसे वह अभयानन्द की जीवन-शैली देख किसी गहरे चिंतन में डूब गया हो। अभयानन्द ने मांस का लोथड़ा ख़त्म करके दोबारा मुंह खोला- “यदि आप हमारी कुटिया के वातावरण में स्वयं को असहज पा रहे हैं, तो यहाँ पधारने का अपना प्रयोजन अतिशीघ्र कहें और प्रस्थान कर जाएँ।”
“तुम अंधकार में रहने के आदी हो अभयानन्द। अंधकार रूपी अज्ञान के प्रति तुम्हारा मोह देख कर मुझे ऐसा प्रतीत हो रहा है कि जिस प्रयोजन के साथ मैं तुम्हारे पास आया हूँ वह नहीं पूर्ण हो पायेगा।” द्विज के व्यक्तित्व की गंभीरता मानो उसके स्वर में घुल गयी।
अभयानन्द के चेहरे पर सख्त भाव उभरे, किन्तु उसने बगैर द्विज की ओर देखे कहा- “आप विद्वान हैं द्विज। तर्कशास्त्र के महारथी हैं आप। आपके सम्मुख हम कुछ भी नहीं हैं, किन्तु स्मरण रहे कि हमारा और आपका ज्ञानमार्ग पृथक है। आप तर्कशास्त्र के प्रकांड पंडित हैं तो हम भी तंत्रशास्त्र....।”
“शांत!” द्विज इतने उच्च स्वर में चीखा कि अभयानन्द भी सहम कर चुप हो गया- “तंत्रशास्त्र का नाम कलंकित मत करो अभयानन्द। अपने अमानवीय कृत्यों को तंत्रशास्त्र से जोड़ कर उस दुर्लभ भारतीय ज्ञान को अपमानित मत करो, जिसे स्वयं भगवान शिव ने माँ पार्वती को दिया था, ताकि वे सृष्टि के कल्याणार्थ उस ज्ञान का उपयोग करके ब्रह्माण्ड में संरक्षित रहस्यमयी ऊर्जाओं का आह्वान कर सकें। तुम जैसे महत्वाकांक्षी तथा भोग-विलास के लोभी तांत्रिकों के कुकृत्यों का ही दुष्परिणाम है, जो आज तंत्र के दुरुपयोग को रोकने के लिये प्रत्येक राज्य में उसके अभ्यास को या तो निषिद्ध घोषित किया जा चुका है या फिर किया जा रहा
है।”
“आप यहाँ आने का अपना प्रयोजन स्पष्ट कीजिये द्विज।” अभयानन्द का लहजा क्रोध से परिपूर्ण हो उठा। द्विज के ऊंचे स्वर ने उसे भी कुपित कर दिया था।
“कई प्रयोजन हैं अभयानन्द। किन्तु उन प्रयोजनों को स्पष्ट करने से पूर्व मेरा तुमसे एक प्रश्न है। तुमने माया का मार्ग रोकने का दुस्साहस क्यों किया?”
“आप कौन होते हैं हमारे इस कृत्य को सत्साहस अथवा दुस्साहस की श्रेणी में रखने वाले? हमने माया का मार्ग रोका। उसकी कोमल कलाइयों को अपने शिकंजे में कसा। उसके सुन्दर बदन का नयनसुख....।”
“अभयानन्द!” द्विज इस बार पूर्व की अपेक्षा दो गुने तेजी से दहाड़ा- “मर्यादा की सीमा का उल्लंघन मत करो।”
“ओह!” अभयानन्द के होठों पर अर्थपूर्ण मुस्कान थिरक उठी- “तो आज एक तर्कशास्त्री अभयानन्द के मर्यादा की सीमा निर्धारित करने आया है। हमने माया के सम्मान का हनन किया। हमारे इस कृत्य से आपके किस अधिकार का हनन हुआ, जो आप इतना कुपित हो उठे हैं?”
“माया मेरी शिष्या है।” क्रोध की अधिकता के कारण द्विज के होठों से शब्द बड़ी मुश्किल से निकले- “और यदि तुम्हारे जैसे पशु ने मेरी शिष्या के संग कोई अभद्रता की तो मेरा संयम अपनी सीमाएं लांघ जाएगा।”
“हम आपका आदर करते हैं द्विज, किन्तु यदि आपने अपने संयम की बात उठा ही दी है तो हमारी ये चेतावनी कंठस्थ कर लीजिये कि हमारे सामर्थ्य को
आपके या किसी अन्य के संयम की सीमा का अब कोई भय नहीं है।”
“भयभीत होना सीख लो अभयानन्द। सृष्टि का इतिहास साक्षी है कि तुम जैसे पशुओं का अंत भी तुम्हारी जीवन-शैली की भाँति वीभत्स ही होता है।”
अभयानन्द बुरी तरह चिढ़ गया। उसने इस बार सुस्पष्ट चेतावनी दी- “हम माया को अपनी भैरवी बनाने का निर्णय ले चुके हैं। सृष्टि में कोई ऐसी शक्ति नहीं है, जो हमें हमारे निर्णय से डिगा सके।”
“एक शत्रु को तो मैं अभी इसी क्षण तुम्हारे मस्तक पर मंडराते हुए देख रहा हूँ अभयानन्द। वह शत्रु कोई और नहीं स्वयं तुम्हारा अहंकार है।”
“यदि आप का प्रयोजन पूर्ण हो चुका हो तो आप यहाँ से प्रस्थान कर जाएँ। अन्यथा हमें भय है कि हम आपके प्रति हमारे सम्मान की भावना को विस्मृत न कर दें।”
“मैं कई प्रयोजनों के साथ यहाँ आया हूँ अभयानन्द। अभी तो मेरा पहला प्रयोजन ही पूर्ण नहीं हुआ है। तुम माया का विचार त्याग दो। ये कोई निवेदन नहीं अपितु एक चेतावनी है।”
“और हम पूर्व में ही कह चुके हैं कि ऐसी कोई भी चेतावनी हमारे निर्णय को बदल नहीं सकती है।”
द्विज खामोश होकर अभयानन्द को एकटक देखता रह गया। जबकि अभयानन्द भयानक अंदाज में अट्टहास करते हुए कहता चला गया- “हमें ज्ञात है द्विज कि आप माया के लिए इतने व्यग्र क्यों हैं? आपके हृदय में उसके लिए प्रेम का बीज अंकुरित हो चुका है। अपनी विद्वता के बल पर आप उस अनिंद्य सुन्दरी को अपनी शय्या की शोभा बनाना चाहते हैं।”
“जिह्वा को नियंत्रण में रखो द्विज।”
“अन्यथा क्या कर सकते हैं आप? ये हमारी अंतिम चेतावनी है द्विज कि यदि आपने हमसे शत्रुता मोल ली तो आपकी विद्वता भी आपकी रक्षा नहीं कर पायेगी। हम मनुष्यों की श्रेणी से ऊपर उठ चुके हैं।” अभयानन्द की आँखें बड़ी और डरावनी हो उठीं- “हम उस भयावह प्राणी में परिवर्तित हो चुके हैं, जो यमराज का दूसरा रूप माना जाता है।”
“हाँ! ज्ञात है मुझे। ये ज्ञात है मुझे कि तुम किस सामर्थ्य के बल पर मुझे चेतावनी दे रहे हो। तुमने श्मशानेश्वर नाम के उस भेड़िया-मानव की उपासना स्वीकार कर ली है, जो स्वयं को मरघट में विचरने वाली अतृप्त आत्माओं का स्वामी कहता है। कितने मूर्ख हो तुम अभयानन्द। तुम्हें ये तक नहीं ज्ञात कि प्रेतयोनि में भटकने वाला वह नीच पिशाच, तुम्हें भी अपनी तरह प्रेतयोनि में भटकता छोड़ देगा, जहाँ तुम अनन्तकाल तक मुक्ति के लिए तड़पते रहोगे।”
“हमारे आराध्य का संबोधन सम्मानपूर्वक कीजिये द्विज।”
“मैं पूर्णब्रह्म परमेश्वर के अतिरिक्त किसी अन्य पारलौकिक सत्ता का सम्मान नहीं करता। जो तुम्हारा आराध्य है, वह मेरे लिए नर्क में विचरता एक कीड़ा मात्र है।”
“आपके सिर पर मंडराते काल को हम स्पष्ट देख रहे हैं द्विज। आपकी मृत्यु निकट है।”
“मृत्यु तो तुम्हारी निकट है अभयानन्द।” द्विज रहस्यमय ढंग से मुस्कुराया- “कुटिया से बाहर निकलो। उस जन-समूह को देखो, जो तुम्हारे पांवों में बेड़ियाँ पड़ते हुए देखने को लालायित है।”
“तात्पर्य क्या है आपका?” अभयानन्द आशंकित हो उठा। सम्पूर्ण वार्तालाप के दौरान वह पहली दफा भयभीत नजर आया।
“यही कि आज संध्याकाल को बिरजू की बकरियां बिना अपने स्वामी के घर
लौटी थीं। कहने की आवश्यकता नहीं कि उस दशा में उसकी पत्नी ने क्या किया।”
“क..क्या किया?”
“उसने आपातकालीन न्यायसभा में न्याय की मांग की। ये तुम्हारे लिए एक दुर्योग ही सिद्ध हुआ अभयानन्द कि आज तुमने एक साथ दो-दो अक्षम्य अपराध किये हैं। पहला माया का मान-भंग करने का और दूसरा बिरजू की बलि चढ़ाने का। तुम पर पूर्व में भी लोगों के पालतू पशु चुराने का अभियोग लग चुका है किन्तु पूर्व में तुम संदेह-लाभ के कारण बच जाते थे। इस बार तुम्हारी कुण्डली में ऐसा दुर्योग निर्मित हुआ है कि तुम्हें किसी भी किस्म का संदेह-लाभ नहीं मिल सकता। स्वयं राज्य की राजकुमारी ने तुम पर अभियोग लगाया है।” द्विज रुका। उसने अभयानन्द की मानसिक दशा का आंकलन किया, तत्पश्चात आगे कहा- “क्या तुम ये जानने को उत्सुक हो अभयानन्द कि कई प्रयोजनों के साथ तुम्हारी कुटिया में आने के पीछे मेरा कौन सा मुख्य प्रयोजन निहित था?”
अभयानन्द चेहरे पर नासमझी का भाव लिए हुए द्विज को देखता रहा।
“मेरा मुख्य प्रयोजन तुम्हें तुम्हारी कुटिया में तब तक के लिए रोके रखना था, जब तक कि साक्ष्यों की तलाश में निकला सैनिकों का दल साक्ष्य लेकर नहीं आ जाता। और अब कुटिया के बाहर हो रहा कोलाहल इंगित कर रहा है कि मेरा प्रयोजन पूर्ण हो चुका है। सैनिकों का दल साक्ष्य लेकर आ चुका है। अर्थात उन्हें वन में भेड़ियों द्वारा आधा खाया हुआ बिरजू का शव प्राप्त हो चुका है।”
अभयानन्द को काटो तो खून नहीं।
“तुम्हें अर्द्धविक्षिप्त मानकर कारावास में डाल दिया जाएगा। आज के पश्चात
तुम कभी भी निरीह पशुओं के रक्त से अपनी तृष्णा नहीं बुझा पाओगे। और न ही निर्दोष मनुष्यों के रक्त से पिशाच की बलिवेदी को रंग पाओगे।”
बाहर कोलाहल बढ़ने लगा। इसी के साथ क्रोध और भय के सम्मिलित प्रभाव से अभयानन्द के बदन की थरथराहट भी बढ़ने लगी।
“बाहर चलो अभयानन्द!” द्विज के होंठों पर विषाक्त मुस्कान थिरक उठी- “श्मशानेश्वर की दी हुई शक्तियों का उपयोग करके स्वयं की रक्षा कर सकते हो तो कर लो।”
“द्विज...!” अभयानन्द ने दांत पीसे- “हमारी आपसे कोई शत्रुता नहीं थी, किन्तु आज आपने हमारे जैसे एक नरपिशाच से अनायास ही शत्रुता मोल ले ली। आपकी मृत्यु बहुत दारुण होगी द्विज। हमें दिखाई दे रहा है कि श्मशानेश्वर स्वयं अपनी कटार से आपको मुंडविहीन करेंगे। वे अपने भयानक दांत से तुम्हारी गर्दन का मांस काट खायेंगे।”
अभयानन्द आगे भी कुछ कहता, किन्तु तब तक कई सैनिक कुटिया के भीतर प्रवेश कर आये। उन्होंने अभयानन्द को घेर लिया।
“समर्पण कर दे। अन्यथा हमारे भाले तेरे शरीर को भेद कर रख देंगे।” एक सैनिक ने चेतावानी दी।
अभयानन्द ने रहस्यमय अंदाज में हाथ खड़े कर दिए। जनमानस में उसका खौफ इस सीमा तक व्याप्त था कि उसके निर्विरोध समर्पण ने भी सैनिकों को एकबारगी भयभीत किया।
उसके हाथ खड़े करने के कुछ क्षणोंपरांत सैनिक आगे बढ़े। उन्होंने अभयानन्द के गले में लोहे की जंजीर और पैरों में बेड़ियां डाल दी। उसने लेशमात्र भी प्रतिकार नहीं किया। मानो उसने ये सब नियति समझकर स्वीकार कर लिया था। हाँ, उसके आग उगलते नेत्र द्विज पर अवश्य ठहरे हुए थे।
सैनिक उसे किसी पशु की तरह घसीटते हुए बाहर लाये। बाहर बिरजू का शव सफ़ेद कपड़े से ढका हुआ था, जिसके इर्द-गिर्द उसकी पत्नी समेत शंकरगढ़ के लोग जमा थे।
अभयानन्द को बाहर आता देख लोगों का कोलाहल बढ़ गया। बिरजू की पत्नी तो मूर्छित थी, किन्तु उसके आस-पास जमा अन्य लोग क्रोधातिरेक में अभयानन्द की ओर दौड़ पड़े। सैनिकों द्वारा सख्ती से रोक दिए जाने के कारण वे अभयानन्द तक तो नहीं पहुँच सके तथापि अपने भयानक क्रोध का प्रदर्शन करते हुए वे अभयानन्द पर पत्थर बरसाने लगे। सैनिकों ने अभयानन्द को घोड़े के पीछे बाँध दिया, क्योंकि राजा उदयभान का आदेश था कि उसे घसीटते हुए कारावास तक लाया जाए।
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(प्यार का अहसास ) ......(वापसी : गुलशन नंदा) ......(विधवा माँ के अनौखे लाल) ......(हसीनों का मेला वासना का रेला ) ......(ये प्यास है कि बुझती ही नही ) ...... (Thriller एक ही अंजाम ) ......(फरेब ) ......(लव स्टोरी / राजवंश running) ...... (दस जनवरी की रात ) ...... ( गदरायी लड़कियाँ Running)...... (ओह माय फ़किंग गॉड running) ...... (कुमकुम complete)......
साधू सा आलाप कर लेता हूँ ,
मंदिर जाकर जाप भी कर लेता हूँ ..
मानव से देव ना बन जाऊं कहीं,,,,
बस यही सोचकर थोडा सा पाप भी कर लेता हूँ
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Re: Horror ख़ौफ़
कारागार की दीवार पर गुणन चिह्न के आकार में टंगे दो मशालों का कमजोर प्रकाश व्याप्त था। इसके अतिरिक्त पूर्णिमा के चाँद का प्रकाश भी रोशनदान के जरिए भीतर प्रविष्ट हो रहा था। कारागार का वह खंड अन्य खण्डों से सर्वथा पृथक निर्मित था। यह खंड अभयानन्द जैसे दुर्दान्त अपराधियों के लिए आरक्षित था।
पथरीली भूमि वाली उस कोठरी के एक कोने में मिट्टी का घड़ा रखा हुआ था। दीवार से कई खूंटे उभरे हुए थे, जिनसे बेड़ियों में जकड़े अपराधी को बाँध कर रखा जाता था। उस कोठरी के सामने दूर तक चली गयी लम्बी राहदरी में डरावनी खामोशी व्याप्त थी। मशालों के सीमित संख्या में होने के कारण राहदरी के अधिकांश हिस्से पर अँधेरे का वर्चस्व था।
कुछ समय गुजरने के बाद राहदरी में सैनिकों के भारी कदमों की आहट गूंजी। आहट गूंजने के कुछ क्षणोंपरांत दस सैनिकों का एक समूह अभयानन्द को घसीटते हुए राहदरी में दाखिल हुआ।
अभयानन्द का पूरा शरीर खून से इस कदर लथपथ हो चुका था कि उसके घसीटे जाने से जमीन पर गीले निशान छूट रहे थे। उसका चेहरा यूं रंगा नजर आ रहा था, जैसे उसे ईंट-पत्थरों से कुचला गया हो। भयावह शख्सियत के मालिक अभयानन्द का जिस्म इस अवस्था में और भी भयावह नजर आने लगा था। सैनिक उसे किसी निर्जीव वस्तु की तरह घसीट रहे थे। अभयानन्द की ओर से कोई प्रतिक्रया नहीं होता देख ये स्पष्ट नहीं हो पा रहा था कि वह चेतना की अवस्था में है अथवा अचेत है। सैनिक उसे घसीटते हुए उस विशेष कक्ष तक ले गये।
“चल! अंतत: तू अपनी मंजिल तक पहुँच ही गया दुष्ट जानवर।” सैनिकों ने उस पर लात बरसाते हुए समवेत स्वर में कहा।
सैनिकों ने आगे बढ़कर कोठरी का सलाखों वाला द्वार खोला और बाहर से ही अभयानन्द को भीतर धकेल दिया। उसे दीवार से उभरे खूंटों से बांधने के लिए मात्र दो सैनिक अन्दर गये। उन्होंने अपने पैरों से पेट के बल पड़ा अभयानन्द का जिस्म सीधा किया। उसके खून से लथपथ चेहरे पर दृष्टि पड़ते ही उन सैनिकों की चीख निकल गयी।
“उफ्फ!”
“क्या हुआ?” बाहर खड़े सैनिक घबरा कर अन्दर घुसे।
अभयानन्द की आंखें खुली हुई थीं। चेहरे से बहता खून काफी मात्रा में उन आँखों में जमा हो चुका था। खुले नेत्र की पलकों में ज़रा भी कम्पन नहीं था। इस
वक्त वह बेहद विकृत नजर आ रहा था।
“परलोक सिधार गया क्या?” एक सैनिक आशंकित लहजे में कहा।
“निरिक्षण करो।”
टुकड़ी का नेतृत्व करने वाले सैनिक का संकेत पाकर एक सैनिक अभयानन्द के निकट बैठ गया। उसने उसकी छाती पर कान रख कर धड़कनें सुनने का प्रयत्न किया। तत्पश्चात उसकी नब्ज देखने लगा।
“जीवित है।” सैनिक ने पुष्टि की- “किन्तु शरीर की निश्चलता आश्चर्यचकित कर रही है महोदय। ऐसी निश्चलता तो किसी शव में ही पायी जाती है।”
“ये सब सोचना हमारा काम नहीं है। इसके बन्धनों का सिरा खूंटों से बाँध दो।
हमारी जिम्मेदारी पूर्ण हो चुकी है। कल प्रात:काल लगने वाली न्याय सभा में महाराज की उपस्थिति में न्यायाधीश इसका प्रारब्ध निर्धारित करेंगे।”
टुकड़ी के नायक ने निर्णायक लहजे में कहा।
☐☐☐☐☐☐☐☐☐☐☐☐☐☐☐☐☐☐
उस समय रात का आधा पहर बीतने में थोड़े समय की ही देरी थी, जब राहदरी में दो सैनिक दाखिल हुए। उनमें से एक के हाथ में कैदियों के भोजन की थाली थी, जबकि दूसरे के हाथ खाली थे।
वे आपस में बातें करते हुए अभयानन्द की कोठरी के सामने पहुंचे।
खाली हाथ वाला सैनिक आगे बढ़कर कोठरी का व्दार खोलने ही वाला था कि कुछ देखकर ठिठक गया। न केवल ठिठका अपितु यथास्थान पर जड़ होकर रह गया। पथराई हुई आंखें कोठरी की सलाखों के उस पार नजर आ रहे दृश्य पर ठहर गयीं। ऐसा लगा जैसे उसकी जुबान तालू से जा चिपकी हो।
“क्या हुआ?” सैनिक, जो भोजन की थाली लिये हुए था, कोठरी की मध्यम रोशनी में नजर आ रहे दृश्य को देखने के लिए आगे बढ़ आया।
“हे मां अम्बे! ये कैसा अनर्थ हो रहा है?”
सैनिक के हाथ से भोजन की थाली छूटकर जमीन पर गिर पड़ी।
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पथरीली भूमि वाली उस कोठरी के एक कोने में मिट्टी का घड़ा रखा हुआ था। दीवार से कई खूंटे उभरे हुए थे, जिनसे बेड़ियों में जकड़े अपराधी को बाँध कर रखा जाता था। उस कोठरी के सामने दूर तक चली गयी लम्बी राहदरी में डरावनी खामोशी व्याप्त थी। मशालों के सीमित संख्या में होने के कारण राहदरी के अधिकांश हिस्से पर अँधेरे का वर्चस्व था।
कुछ समय गुजरने के बाद राहदरी में सैनिकों के भारी कदमों की आहट गूंजी। आहट गूंजने के कुछ क्षणोंपरांत दस सैनिकों का एक समूह अभयानन्द को घसीटते हुए राहदरी में दाखिल हुआ।
अभयानन्द का पूरा शरीर खून से इस कदर लथपथ हो चुका था कि उसके घसीटे जाने से जमीन पर गीले निशान छूट रहे थे। उसका चेहरा यूं रंगा नजर आ रहा था, जैसे उसे ईंट-पत्थरों से कुचला गया हो। भयावह शख्सियत के मालिक अभयानन्द का जिस्म इस अवस्था में और भी भयावह नजर आने लगा था। सैनिक उसे किसी निर्जीव वस्तु की तरह घसीट रहे थे। अभयानन्द की ओर से कोई प्रतिक्रया नहीं होता देख ये स्पष्ट नहीं हो पा रहा था कि वह चेतना की अवस्था में है अथवा अचेत है। सैनिक उसे घसीटते हुए उस विशेष कक्ष तक ले गये।
“चल! अंतत: तू अपनी मंजिल तक पहुँच ही गया दुष्ट जानवर।” सैनिकों ने उस पर लात बरसाते हुए समवेत स्वर में कहा।
सैनिकों ने आगे बढ़कर कोठरी का सलाखों वाला द्वार खोला और बाहर से ही अभयानन्द को भीतर धकेल दिया। उसे दीवार से उभरे खूंटों से बांधने के लिए मात्र दो सैनिक अन्दर गये। उन्होंने अपने पैरों से पेट के बल पड़ा अभयानन्द का जिस्म सीधा किया। उसके खून से लथपथ चेहरे पर दृष्टि पड़ते ही उन सैनिकों की चीख निकल गयी।
“उफ्फ!”
“क्या हुआ?” बाहर खड़े सैनिक घबरा कर अन्दर घुसे।
अभयानन्द की आंखें खुली हुई थीं। चेहरे से बहता खून काफी मात्रा में उन आँखों में जमा हो चुका था। खुले नेत्र की पलकों में ज़रा भी कम्पन नहीं था। इस
वक्त वह बेहद विकृत नजर आ रहा था।
“परलोक सिधार गया क्या?” एक सैनिक आशंकित लहजे में कहा।
“निरिक्षण करो।”
टुकड़ी का नेतृत्व करने वाले सैनिक का संकेत पाकर एक सैनिक अभयानन्द के निकट बैठ गया। उसने उसकी छाती पर कान रख कर धड़कनें सुनने का प्रयत्न किया। तत्पश्चात उसकी नब्ज देखने लगा।
“जीवित है।” सैनिक ने पुष्टि की- “किन्तु शरीर की निश्चलता आश्चर्यचकित कर रही है महोदय। ऐसी निश्चलता तो किसी शव में ही पायी जाती है।”
“ये सब सोचना हमारा काम नहीं है। इसके बन्धनों का सिरा खूंटों से बाँध दो।
हमारी जिम्मेदारी पूर्ण हो चुकी है। कल प्रात:काल लगने वाली न्याय सभा में महाराज की उपस्थिति में न्यायाधीश इसका प्रारब्ध निर्धारित करेंगे।”
टुकड़ी के नायक ने निर्णायक लहजे में कहा।
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उस समय रात का आधा पहर बीतने में थोड़े समय की ही देरी थी, जब राहदरी में दो सैनिक दाखिल हुए। उनमें से एक के हाथ में कैदियों के भोजन की थाली थी, जबकि दूसरे के हाथ खाली थे।
वे आपस में बातें करते हुए अभयानन्द की कोठरी के सामने पहुंचे।
खाली हाथ वाला सैनिक आगे बढ़कर कोठरी का व्दार खोलने ही वाला था कि कुछ देखकर ठिठक गया। न केवल ठिठका अपितु यथास्थान पर जड़ होकर रह गया। पथराई हुई आंखें कोठरी की सलाखों के उस पार नजर आ रहे दृश्य पर ठहर गयीं। ऐसा लगा जैसे उसकी जुबान तालू से जा चिपकी हो।
“क्या हुआ?” सैनिक, जो भोजन की थाली लिये हुए था, कोठरी की मध्यम रोशनी में नजर आ रहे दृश्य को देखने के लिए आगे बढ़ आया।
“हे मां अम्बे! ये कैसा अनर्थ हो रहा है?”
सैनिक के हाथ से भोजन की थाली छूटकर जमीन पर गिर पड़ी।
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Re: Horror ख़ौफ़
पुजारी ने चौंक कर आंखें खोल दी।
“कोई अनर्थ हुआ है।” उनके होंठों से भयभीत स्वर में निकला।
आसमान साफ था। बारिश की संभावना शून्य होने के कारण वे व्दिज के साथ मन्दिर के प्रांगण में खुले आसमान के नीचे चारपाई डाल कर सो रहे थे। बगल की चारपाई पर लेटा व्दिज गहरी निद्रा में था।
पुजारी ने आसमान पर चमक रहे चाँद की ओर देखा।
“आज तो पूनम की रात है।” पुजारी व्यग्र स्वर में बड़बड़ाए।
हवाएं सामान्य गति से बह रही थीं, किन्तु वर्तमान मनोदशा में पुजारी को हवाओं का वेग उग्र और चाँद डरावना लगा। अपशकुन की अनुभूति होने में जो कसर रह गयी थी, उसे दक्षिण के जंगल से अचानक गूंजे भेड़ियों के स्वर ने पूर्ण कर दिया।
“भेड़िये रो रहे हैं। हे जगद्जननी! क्या कोई अनिष्ट हुआ है या होने को है?”
पुजारी चारपाई से नीचे उतरे। पाँव में खडाऊं डाली और गर्भगृह की ओर बढ़ चले।
“गर्भगृह में अंधकार क्यों?”
गर्भगृह में व्याप्त अंधकार को देख वे चौंके, लंबे-लंबे डग भरते हुए सीढ़ियों तक पहुंचे। खडाऊं उतारा और कई सीढ़ियों को एक साथ पार करते हुए ऊपर पहुंचे। गर्भगृह का दरवाजा खोला। अँधेरे में टटोलकर उन्होंने दरवाजे के समीप टंगे कपड़े के थैले में से चकमक पत्थर निकाला, उसकी सहायता से दीवार में बने स्थान पर पहले से रखे दीप को जलाया।
भगवती की मूर्ति के सामने रखा दिया तेल से पूरा भरा हुआ था। दिये की बाती भी तेल में पूरी तरह गीली थी।
“दीप में तेल आकंठ भरा हुआ है। हवा गर्भगृह में प्रवेश नहीं करती है। तो फिर दीप बुझा कैसे?”
चिंतित हो उठे पुजारी ने दिये को फिर से जलाया। बाती को सही करके ये सुनिश्चित किया कि दीप दोबारा न बुझने पाए। तत्पश्चात बाहर आकर गर्भगृह के कपाट बंद कर दिये।
“हमारी नींद का अचानक खुलना, भेड़ियों का भयानक रुदन और गर्भगृह में रात भर जलने वाले दीपक का आज बुझ जाना, ये सब शुभ संकेत नहीं हैं। कोई बड़ा संकट राज्य पर मंडरा रहा है।”
“क्या हुआ बाबा? आप यहाँ क्यों?”
पुजारी को अपने पीछे द्विज का स्वर सुनाई दिया। वे पलटे। द्विज सीढ़ियों के नीचे खड़ा था। पुजारी उसके पास पहुंचे।
“कुछ होने वाला है द्विज। गुजरे हुए क्षणों में कई अशुभ संकेत प्राप्त हुए हैं हमें।”
“कैसे अशुभ संकेत?”
पुजारी बगैर जवाब दिए, दोनों हाथ पीछे किये हुए व्यग्र भाव से प्रांगण में टहलने लगे।
“कैसे अशुभ संकेत बाबा?” द्विज ने अपना सवाल दोहराया।
“क्या भेड़ियों का रुदन तुम्हें नहीं सुनाई नहीं दे रहा?”
“ये तो उनका नित्य का कर्म है बाबा।”
“नहीं द्विज! आज रात का उनका ये रुदन साधारण नहीं है। क्या तुम्हें प्रकृति के रूप में कोई परिवर्तन नहीं नजर आ रहा है? क्या वातावरण में घुला अनिष्ट का अशुभ संगीत तुम्हारे कानों में पिघले शीशे नहीं उड़ेल रहा?”
अब द्विज को भी भान हुआ कि पुजारी का संकेत किस ओर था।
“केवल इतना ही नहीं द्विज। आज तो वह अपशकुन भी हो गया, जो आज तक नहीं हुआ था।”
“क्या?” द्विज का लहजा भी रोमांच से काँप गया।
“भगवती के सम्मुख जलने वाला दीप बुझा हुआ था।”
“हे माँ अम्बे!” द्विज थर्रा उठा- “इतना बड़ा अपशकुन?”
“हाँ द्विज! न जाने किस भावी अनिष्ट के द्योतक हैं ये संकेत।”
सहसा द्विज के मस्तिष्क में अभयानन्द का कथन गूंजा-
‘हम मनुष्यों की श्रेणी से ऊपर उठ चुके हैं। हम उस भयावह प्राणी में परिवर्तित हो चुके हैं, जो यमराज का दूसरा अवतार माना जाता है।’
और इसी के साथ उसकी आख़िरी चेतावनी भी-
‘द्विज! हमारी आपसे कोई शत्रुता नहीं थी, किन्तु आज आपने हमारे जैसे एक नरपिशाच से अनायास ही शत्रुता मोल ले ली। आपकी मृत्यु बहुत दारुण होगी द्विज। हमें दिखाई दे रहा है कि श्मशानेश्वर स्वयं अपनी कटार से आपको मुंडविहीन करेंगे। वे अपने भयानक दांत से तुम्हारी गर्दन का मांस काट खायेंगे।’
“आज राज्य के सैनिकों ने अभयानन्द को बंधक बनाया, इस घटना में मेरी भूमिका भी थी। कहीं...कहीं ऐसा तो नहीं कि अभयानन्द किसी भयानक रक्तपात का सूत्रधार बनने वाला है? उसने मुझे चेतावनी दी थी कि वह अब एक सामान्य मनुष्य से ऊपर उठ चुका है। वह ऐसे प्राणी में परिवर्तित हो चुका है, जिसे यमराज का दूसरा रूप माना जाता है। आपको तो ज्ञात है बाबा कि वह श्मशानेश्वर की साधना कर रहा था। अनिष्ट के संकेत इस संभावना को प्रबल बना रहे हैं कि अभयानन्द की साधना सफल हो चुकी है।”
“माँ अम्बे हम पर कृपा करें और तुम्हारी ये संभावना गलत सिद्ध हो जाए। क्योंकि यदि अभयानन्द की साधना पूर्ण हो चुकी होगी तो शंकरगढ़ की भूमि पर भीषण रक्तपात होगा, जिसे कोई नहीं रोक पायेगा। कोई भी नहीं।”
द्विज कुछ नहीं बोल पाया केवल काँप कर रहा गया।
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“कोई अनर्थ हुआ है।” उनके होंठों से भयभीत स्वर में निकला।
आसमान साफ था। बारिश की संभावना शून्य होने के कारण वे व्दिज के साथ मन्दिर के प्रांगण में खुले आसमान के नीचे चारपाई डाल कर सो रहे थे। बगल की चारपाई पर लेटा व्दिज गहरी निद्रा में था।
पुजारी ने आसमान पर चमक रहे चाँद की ओर देखा।
“आज तो पूनम की रात है।” पुजारी व्यग्र स्वर में बड़बड़ाए।
हवाएं सामान्य गति से बह रही थीं, किन्तु वर्तमान मनोदशा में पुजारी को हवाओं का वेग उग्र और चाँद डरावना लगा। अपशकुन की अनुभूति होने में जो कसर रह गयी थी, उसे दक्षिण के जंगल से अचानक गूंजे भेड़ियों के स्वर ने पूर्ण कर दिया।
“भेड़िये रो रहे हैं। हे जगद्जननी! क्या कोई अनिष्ट हुआ है या होने को है?”
पुजारी चारपाई से नीचे उतरे। पाँव में खडाऊं डाली और गर्भगृह की ओर बढ़ चले।
“गर्भगृह में अंधकार क्यों?”
गर्भगृह में व्याप्त अंधकार को देख वे चौंके, लंबे-लंबे डग भरते हुए सीढ़ियों तक पहुंचे। खडाऊं उतारा और कई सीढ़ियों को एक साथ पार करते हुए ऊपर पहुंचे। गर्भगृह का दरवाजा खोला। अँधेरे में टटोलकर उन्होंने दरवाजे के समीप टंगे कपड़े के थैले में से चकमक पत्थर निकाला, उसकी सहायता से दीवार में बने स्थान पर पहले से रखे दीप को जलाया।
भगवती की मूर्ति के सामने रखा दिया तेल से पूरा भरा हुआ था। दिये की बाती भी तेल में पूरी तरह गीली थी।
“दीप में तेल आकंठ भरा हुआ है। हवा गर्भगृह में प्रवेश नहीं करती है। तो फिर दीप बुझा कैसे?”
चिंतित हो उठे पुजारी ने दिये को फिर से जलाया। बाती को सही करके ये सुनिश्चित किया कि दीप दोबारा न बुझने पाए। तत्पश्चात बाहर आकर गर्भगृह के कपाट बंद कर दिये।
“हमारी नींद का अचानक खुलना, भेड़ियों का भयानक रुदन और गर्भगृह में रात भर जलने वाले दीपक का आज बुझ जाना, ये सब शुभ संकेत नहीं हैं। कोई बड़ा संकट राज्य पर मंडरा रहा है।”
“क्या हुआ बाबा? आप यहाँ क्यों?”
पुजारी को अपने पीछे द्विज का स्वर सुनाई दिया। वे पलटे। द्विज सीढ़ियों के नीचे खड़ा था। पुजारी उसके पास पहुंचे।
“कुछ होने वाला है द्विज। गुजरे हुए क्षणों में कई अशुभ संकेत प्राप्त हुए हैं हमें।”
“कैसे अशुभ संकेत?”
पुजारी बगैर जवाब दिए, दोनों हाथ पीछे किये हुए व्यग्र भाव से प्रांगण में टहलने लगे।
“कैसे अशुभ संकेत बाबा?” द्विज ने अपना सवाल दोहराया।
“क्या भेड़ियों का रुदन तुम्हें नहीं सुनाई नहीं दे रहा?”
“ये तो उनका नित्य का कर्म है बाबा।”
“नहीं द्विज! आज रात का उनका ये रुदन साधारण नहीं है। क्या तुम्हें प्रकृति के रूप में कोई परिवर्तन नहीं नजर आ रहा है? क्या वातावरण में घुला अनिष्ट का अशुभ संगीत तुम्हारे कानों में पिघले शीशे नहीं उड़ेल रहा?”
अब द्विज को भी भान हुआ कि पुजारी का संकेत किस ओर था।
“केवल इतना ही नहीं द्विज। आज तो वह अपशकुन भी हो गया, जो आज तक नहीं हुआ था।”
“क्या?” द्विज का लहजा भी रोमांच से काँप गया।
“भगवती के सम्मुख जलने वाला दीप बुझा हुआ था।”
“हे माँ अम्बे!” द्विज थर्रा उठा- “इतना बड़ा अपशकुन?”
“हाँ द्विज! न जाने किस भावी अनिष्ट के द्योतक हैं ये संकेत।”
सहसा द्विज के मस्तिष्क में अभयानन्द का कथन गूंजा-
‘हम मनुष्यों की श्रेणी से ऊपर उठ चुके हैं। हम उस भयावह प्राणी में परिवर्तित हो चुके हैं, जो यमराज का दूसरा अवतार माना जाता है।’
और इसी के साथ उसकी आख़िरी चेतावनी भी-
‘द्विज! हमारी आपसे कोई शत्रुता नहीं थी, किन्तु आज आपने हमारे जैसे एक नरपिशाच से अनायास ही शत्रुता मोल ले ली। आपकी मृत्यु बहुत दारुण होगी द्विज। हमें दिखाई दे रहा है कि श्मशानेश्वर स्वयं अपनी कटार से आपको मुंडविहीन करेंगे। वे अपने भयानक दांत से तुम्हारी गर्दन का मांस काट खायेंगे।’
“आज राज्य के सैनिकों ने अभयानन्द को बंधक बनाया, इस घटना में मेरी भूमिका भी थी। कहीं...कहीं ऐसा तो नहीं कि अभयानन्द किसी भयानक रक्तपात का सूत्रधार बनने वाला है? उसने मुझे चेतावनी दी थी कि वह अब एक सामान्य मनुष्य से ऊपर उठ चुका है। वह ऐसे प्राणी में परिवर्तित हो चुका है, जिसे यमराज का दूसरा रूप माना जाता है। आपको तो ज्ञात है बाबा कि वह श्मशानेश्वर की साधना कर रहा था। अनिष्ट के संकेत इस संभावना को प्रबल बना रहे हैं कि अभयानन्द की साधना सफल हो चुकी है।”
“माँ अम्बे हम पर कृपा करें और तुम्हारी ये संभावना गलत सिद्ध हो जाए। क्योंकि यदि अभयानन्द की साधना पूर्ण हो चुकी होगी तो शंकरगढ़ की भूमि पर भीषण रक्तपात होगा, जिसे कोई नहीं रोक पायेगा। कोई भी नहीं।”
द्विज कुछ नहीं बोल पाया केवल काँप कर रहा गया।
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(प्यार का अहसास ) ......(वापसी : गुलशन नंदा) ......(विधवा माँ के अनौखे लाल) ......(हसीनों का मेला वासना का रेला ) ......(ये प्यास है कि बुझती ही नही ) ...... (Thriller एक ही अंजाम ) ......(फरेब ) ......(लव स्टोरी / राजवंश running) ...... (दस जनवरी की रात ) ...... ( गदरायी लड़कियाँ Running)...... (ओह माय फ़किंग गॉड running) ...... (कुमकुम complete)......
साधू सा आलाप कर लेता हूँ ,
मंदिर जाकर जाप भी कर लेता हूँ ..
मानव से देव ना बन जाऊं कहीं,,,,
बस यही सोचकर थोडा सा पाप भी कर लेता हूँ
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`·.¸.·´ -- raj sharma
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Re: Horror ख़ौफ़
कारागार प्रमुख की घोड़ागाड़ी राजमहल के सामने पहुँच कर रुकी। गाड़ीवान के द्वार खोलने की प्रतीक्षा किये बिना ही वे स्वयं द्वार खोलकर बाहर आ गये। दरबानों की ओर लपकते हुए उनके चाल की तेजी असाधारण थी। पद की गरिमा को दृष्टिगत रखते हुए दरबानों ने बिना कोई प्रश्न किये उनका मार्ग प्रशस्त कर दिया। मंत्रणा कक्ष की ओर जाते हुए उन्होंने राह में मिलने वाले सेवकों के अभिवादन का भी जवाब नहीं दिया।
“महाराज को सूचना दो कि कारागार प्रमुख एक अत्यंत आवश्यक कार्य से उनसे मिलना चाहते हैं।” मंत्रणा कक्ष में पहुंचकर उन्होंने एक सेवक को लक्ष्य को करके कहा।
“इतनी रात गये? ये तो महाराज के शयन....।”
“जितना आदेश दिया जाए उतना ही करो।” कारागार प्रमुख ने सेवक को डपटते हुए कहा- “ये हमें भी ज्ञात है कि ये न केवल महाराज के अपितु प्रत्येक मनुष्य के शयन का समय है।”
सेवक को कुछ और बोलने का साहस नहीं हुआ। वह ऊहापोह में डूबा हुआ आदेश का पालन करने चला गया। कारागार प्रमुख की प्रतीक्षा अधिक लम्बी नहीं हुई। कुछ ही समय बाद महाराज उदयभान सिंह मंत्रणा कक्ष में प्रविष्ट हुए। उनकी आँखों में नींद की खुमारी नजर आ रही थी।
“आपसे अभी इसी क्षण कारागार चलने का अनुरोध है महाराज।” कारागार प्रमुख ने व्यग्र लहजे में कहा।
“कारण?”
“ये आपको वहां चलकर ही स्पष्ट हो सकेगा। हमने एक सेवक के जरिये कुलगुरु को भी सूचना भिजवा दी है। वह उन्हें लेकर कारागार पहुंचता ही होगा।”
“तो क्या आप कुलगुरु को भी कारागार बुला रहे हैं?”
“हाँ महाराज!” उदयभान कुछ पूछने के लिए मुंह खोलने को उद्यत हुए ही थे कि कारागार प्रमुख ने उन्हें बोलने का अवसर नहीं दिया- “हमारे पास समय बिल्कुल भी नहीं है महाराज। आपको आपके समस्त प्रश्नों के उत्तर कारागार में ही मिलेंगे।”
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अभयानन्द की काल-कोठरी का दृश्य रगों में सिहरन भर देने वाला था।
उसके अपलक नेत्र रोशनदान से नजर आ रहे पूनम के चाँद पर ठहरे हुए थे। उसके जिस्म में ज़रा भी कम्पन नहीं था। ऐसा प्रतीत हो रहा था मानो कोई लाश चाँद को घूर रही हो। यदि केवल इतना ही होता तो शायद कम भयावह होता। भयावहता की असली वजह तो कुछ और थी।
“इसके नेत्र भेड़ियों के नेत्र के समान कैसे हो गये?” महाराज की आँखें भय और विस्मय से फैल गयीं। कारागार की वह राहदारी सैनिकों और राज्य के उच्चाधिकारियों से भर गयी थी। उनमें से अधिकतर के चेहरे भय के कारण पीले पड़े हुए थे।
‘ये तो धीरे-धीरे भेड़िया बन रहा है।’
‘हाँ! अभी तो केवल आँखें ही भेड़िये की हुई हैं। धीरे-धीरे सभी अंग भेड़िये के हो जायेंगे।’
‘और फिर यह एक भेड़िया-मानव बन जाएगा।’
‘हमें तो पहले ही संदेह था कि अभयानन्द कोई मनुष्य नहीं बल्कि नर पिशाच है।’
‘माँ भगवती शंकरगढ़ की रक्षा करें।’
‘कुलगुरु को संदेश भेजा गया है। वे आते ही होंगे। अब तो वे ही कोई युक्ति बता सकते हैं।’
राहदरी में उपस्थित लोगों के बीच इसी तरह की चर्चाएँ हो रही थीं। अभयानन्द की सलाखों वाली कोठरी अभी तक नहीं खोली गयी थी। महाराज समेत सभी लोगों को कुलगुरु के आगमन की प्रतीक्षा थी, जो कि अधिक लम्बी नहीं हुई।
“क्या महाराज पधार चुके हैं?” वातावरण में कुलगुरु का गंभीर स्वर गूंजा।
लोगों की परिचर्चा पर विराम लग गया। उन्होंने कुलगुरु आचार्य दिव्यपाणी को आगे आने का रास्ता दिया। महाराज और कारागार प्रमुख के प्रणाम का अभिवादन करने के पश्चात कुलगुरु ने कहा- “रात्रि की इस बेला में हमें यहाँ उपस्थित होने का सन्देश भेजने का क्या कारण था कारागार प्रमुख?”
“कारण था नहीं अपितु है कुलगुरु।” कारागार प्रमुख ने विनीत स्वर में कहा- “आप स्वयं अपने नेत्रों से देख लीजिये।”
कुलगुरु ने सलाखों से कोठरी के भीतर नजर डाली।
अभयानन्द की डरावनी मुद्रा में कोई परिवर्तन नहीं आया था। भेड़िये जैसी उसकी भयानक आंखें अभी भी अपलक चाँद को घूर रही थीं।
“कोई अन्दर प्रविष्ट हुआ था?”
“नहीं कुलगुरु।” उत्तर महाराज ने दिया- “आपके आगमन तक हमने सुरक्षा की दृष्टि से किसी को भी भीतर प्रविष्ट होने की अनुमति नहीं दी और न ही कोई इस हेतु तत्पर हुआ।”
“हूं!” गहरी हुंकार भरने के बाद कुलगुरु बाहर से ही अभयानन्द का निरिक्षण करने लगे।
“सभी राज कर्मचारियों को बाहर भेज दीजिए। यहां आपके और कारागार प्रमुख के अलावा केवल कुछ सैनिक ही उपस्थित रहें।”
आदेश का पालन किया गया।
“व्दार खोला जाए।”
एक सैनिक ने सलाखों वाला व्दार खोल दिया। कुलगुरु ने सभी को बाहर रुकने का संकेत किया और अकेले ही अभयानन्द की कोठरी में दाखिल हो गये। महाराज, कारागार प्रमुख और सैनिकों की निगाहें उनकी गतिविधियों पर ठहर गयीं। उन्होंने कमण्डल से जल निकाला, अभयानन्द के ऊपर छिड़का। वातावरण में ‘छन्न’ की वैसी ही आवाज गूंजी, जैसी जलते अंगारे पर पानी छिड़कने से उत्पन्न होती है। अभयानन्द की मुद्रा में अब भी कोई परिवर्तन नहीं हुआ। वह निश्चल ही पड़ा रहा। कुलगुरु ने उसकी नब्ज टटोली। फिर उसकी छाती पर कान रख कर धड़कनों का स्वर सुना, तत्पश्चात कोठरी से बाहर आ गये।
“समाचार अशुभ है राजन!” उन्होंने महाराज को सम्बोधित करके कहा-“अभयानन्द बेहद द्रुत गति से पिशाच बनने की ओर अग्रसर है। प्रतीत हो रहा है कि इसने थोड़े समय पूर्व ही किसी दुर्लभ अनुष्ठान को पूर्ण किया है। इसकी दशा देखकर हमें एक सन्देह हो रहा है। ईश्वर न करे कि वह संदेह सत्य सिध्द हो।”
“कैसा संदेह कुलगुरु?” महाराज और कारागार प्रमुख ने समवेत स्वर में पूछा।
“इस विषय में हम विस्तृत परिचर्चा करेंगे और इसके लिये आपको अभी इस क्षण हमारे आवास पर न्यायाधीश के साथ उपस्थित होना होगा।”
“न्यायाधीश के साथ? किन्तु...?”
“ये समय प्रश्न करने या तर्क-वितर्क का नहीं है राजन।” कुलगुरु ने महाराज की बात काटकर सख्त स्वर में कहा- “तीर प्रत्यंचा से छूट चुका है। अब हम केवल अपने बचाव का प्रबन्ध कर सकते हैं। मंत्रणा में न्यायाधीश की उपस्थिति इसलिये अनिवार्य है क्योंकि कल के सूर्योदय से पूर्व ही अभयानन्द को उसके पापों का दण्ड मिलना आवश्यक है।”
महाराज का कोई अन्य प्रश्न करने का साहस नहीं हुआ। कुलगुरु ने एक नजर अभयानन्द पर डाली और सैनिकों की ओर मुखातिब होते हुए बोले- “रंग और तूलिका तथा काले कपड़े का प्रबन्ध करो। साथ ही लोहे की एक मजबूत जंजीर का भी, जिसमें इस नराधम को जकड़ा जा सके।”
दो सैनिक आदेश का पालन करने चले गये। जब वे वापस लौटे तो उनके साथ उपर्युक्त चीजें थीं। कुलगुरु ने रंग का पात्र, तूलिका और काले कपड़ा ले लिया।
“उसे बांध दो, किन्तु सावधानीपूर्वक। उसे निष्क्रिय समझने की भूल मत करना। वह आक्रामक हो सकता है।”
कुलगुरु की चेतावनी सुन सैनिक भयभीय हो उठे। उन्होंने मन ही मन अपने
ईष्ट का स्मरण किया और अभयानन्द को बांधने के ध्येय से जंजीर लिये हुए कारागार की उस कोठरी में प्रविष्ट हुये। उसकी ओर बढ़ने से पूर्व उन्होंने सुखे अधरों पर जुबान फेरी और कुलगुरु की ओर देखा।
“बांधो।”
एक सैनिक साहस एकत्र करके आगे बढ़ा और जंजीर का वलय अभयानन्द के गले में डाल दिया। उसकी ओर से कोई प्रतिकार न होता देखकर दो अन्य सैनिकों का भी हौसला बढ़ा और वे पहले सैनिक की मदद को आगे आ गये। थोड़ी ही देर बाद अभयानन्द जंजीरों में इस कदर जकड़ चुका था कि वह लेशमात्र भी हरकत नहीं कर सकता था। बांधे जाने के दौरान उसने जरा भी प्रतिकार नहीं किया था। केवल निश्चल पड़ा हुआ था। भेड़िये की आंखों वाला वह पिशाच जंजीरों में जकड़ जाने के बाद और भी भयानक नजर आने लगा। उसे बांधने के बाद सैनिक ऐसे आश्वस्त नजर आ रहे थे, जैसे उन्होंने किसी बड़े युध्द में विजय प्राप्त कर ली हो।
“बाहर आ जाओ।” कुलगुरु ने काले कपड़े को कई तहों में लपटते हुये सैनिकों को आदेश दिया।
सैनिकों के बाहर आ जाने के बाद कुलगुरु रंग के पात्र और कूचे के साथ अभयानन्द की कोठरी में प्रविष्ट हो गये। महाराज और कारागार प्रमुख भी उनके साथ भीतर आने को उद्यत हुये थे, किन्तु उन्होंने उन दोनों को बाहर ही रुकने का संकेत कर दिया था।
कई तह में लपेट चुके काले कपड़े को उन्होंने अभयानन्द के खुले नेत्रों पर बांध दिया। अभयानन्द ने कोई विरोध नहीं किया। डरावनी हो गयी आंखों के ढक जाने के बाद उसके रूप की भयावहता थोड़ी कम हुई। इसके पश्चात वे तूलिका और रंग की सहायता से कोठरी की दीवारों पर गीता के श्लोक लिखने लगे। आधे घण्टे बाद कोठरी की तीनों दिवारें, गीता के श्लोक और पवित्र स्वास्तिक चिह्नों से भर गयीं।
कुलगुरु के उपरोक्त क्रियाकलापों के दैरान महाराज, कारागार-प्रमुख और सैनिकों में से किसी का भी इतना साहस नहीं हुआ कि वह कोई ध्वनि उत्पन्न कर सके। कोठरी से बाहर आने के बाद उन्होंने चौखट को भी स्वास्तिक चिह्नों से लगभग रंग दिया। अंततः कार्य समाप्त करने के बाद उन्होंने रंग का पात्र और तूलिका एक सैनिक को सौंप दिया।
“इस कालकोठरी के निकट जितनी भी कोठरियां हैं, उन्हें अतिशीघ्र बंदियों से रिक्त कर दिया जाए। इसकी कोठरी व राहदारी में किसी का भी अनावश्यक आवागमन न हो।”
“जैसी आपकी इच्छा कुलगुरु।”
महाराज का स्वर उत्कंठा के बोझ तले दबा हुआ था। उन्हें कुलगुरु के चेहरे और उनके कृत्य में निहित गंभीरता को देखकर आभास हो चुका था कि जो कुछ हो रहा था, या होने वाला था, अत्यंत अनिष्टकारी था।
“आपको न्यायाधीश के साथ हमारे आवास पर उपस्थित होना होगा महाराज। हम चन्द्रमा के इस शापित प्रकाश में विनाश के धुंध को शंकरगढ़ में प्रवेश करते हुये देख रहे हैं।”
महाराज को अंतिम परामर्श देने के बाद कुलगुरु वातावरण की निस्तब्धता को अपने खडाऊं की ‘ख़ट-खट’ से भंग करते हुये प्रस्थान कर गये।
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“महाराज को सूचना दो कि कारागार प्रमुख एक अत्यंत आवश्यक कार्य से उनसे मिलना चाहते हैं।” मंत्रणा कक्ष में पहुंचकर उन्होंने एक सेवक को लक्ष्य को करके कहा।
“इतनी रात गये? ये तो महाराज के शयन....।”
“जितना आदेश दिया जाए उतना ही करो।” कारागार प्रमुख ने सेवक को डपटते हुए कहा- “ये हमें भी ज्ञात है कि ये न केवल महाराज के अपितु प्रत्येक मनुष्य के शयन का समय है।”
सेवक को कुछ और बोलने का साहस नहीं हुआ। वह ऊहापोह में डूबा हुआ आदेश का पालन करने चला गया। कारागार प्रमुख की प्रतीक्षा अधिक लम्बी नहीं हुई। कुछ ही समय बाद महाराज उदयभान सिंह मंत्रणा कक्ष में प्रविष्ट हुए। उनकी आँखों में नींद की खुमारी नजर आ रही थी।
“आपसे अभी इसी क्षण कारागार चलने का अनुरोध है महाराज।” कारागार प्रमुख ने व्यग्र लहजे में कहा।
“कारण?”
“ये आपको वहां चलकर ही स्पष्ट हो सकेगा। हमने एक सेवक के जरिये कुलगुरु को भी सूचना भिजवा दी है। वह उन्हें लेकर कारागार पहुंचता ही होगा।”
“तो क्या आप कुलगुरु को भी कारागार बुला रहे हैं?”
“हाँ महाराज!” उदयभान कुछ पूछने के लिए मुंह खोलने को उद्यत हुए ही थे कि कारागार प्रमुख ने उन्हें बोलने का अवसर नहीं दिया- “हमारे पास समय बिल्कुल भी नहीं है महाराज। आपको आपके समस्त प्रश्नों के उत्तर कारागार में ही मिलेंगे।”
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अभयानन्द की काल-कोठरी का दृश्य रगों में सिहरन भर देने वाला था।
उसके अपलक नेत्र रोशनदान से नजर आ रहे पूनम के चाँद पर ठहरे हुए थे। उसके जिस्म में ज़रा भी कम्पन नहीं था। ऐसा प्रतीत हो रहा था मानो कोई लाश चाँद को घूर रही हो। यदि केवल इतना ही होता तो शायद कम भयावह होता। भयावहता की असली वजह तो कुछ और थी।
“इसके नेत्र भेड़ियों के नेत्र के समान कैसे हो गये?” महाराज की आँखें भय और विस्मय से फैल गयीं। कारागार की वह राहदारी सैनिकों और राज्य के उच्चाधिकारियों से भर गयी थी। उनमें से अधिकतर के चेहरे भय के कारण पीले पड़े हुए थे।
‘ये तो धीरे-धीरे भेड़िया बन रहा है।’
‘हाँ! अभी तो केवल आँखें ही भेड़िये की हुई हैं। धीरे-धीरे सभी अंग भेड़िये के हो जायेंगे।’
‘और फिर यह एक भेड़िया-मानव बन जाएगा।’
‘हमें तो पहले ही संदेह था कि अभयानन्द कोई मनुष्य नहीं बल्कि नर पिशाच है।’
‘माँ भगवती शंकरगढ़ की रक्षा करें।’
‘कुलगुरु को संदेश भेजा गया है। वे आते ही होंगे। अब तो वे ही कोई युक्ति बता सकते हैं।’
राहदरी में उपस्थित लोगों के बीच इसी तरह की चर्चाएँ हो रही थीं। अभयानन्द की सलाखों वाली कोठरी अभी तक नहीं खोली गयी थी। महाराज समेत सभी लोगों को कुलगुरु के आगमन की प्रतीक्षा थी, जो कि अधिक लम्बी नहीं हुई।
“क्या महाराज पधार चुके हैं?” वातावरण में कुलगुरु का गंभीर स्वर गूंजा।
लोगों की परिचर्चा पर विराम लग गया। उन्होंने कुलगुरु आचार्य दिव्यपाणी को आगे आने का रास्ता दिया। महाराज और कारागार प्रमुख के प्रणाम का अभिवादन करने के पश्चात कुलगुरु ने कहा- “रात्रि की इस बेला में हमें यहाँ उपस्थित होने का सन्देश भेजने का क्या कारण था कारागार प्रमुख?”
“कारण था नहीं अपितु है कुलगुरु।” कारागार प्रमुख ने विनीत स्वर में कहा- “आप स्वयं अपने नेत्रों से देख लीजिये।”
कुलगुरु ने सलाखों से कोठरी के भीतर नजर डाली।
अभयानन्द की डरावनी मुद्रा में कोई परिवर्तन नहीं आया था। भेड़िये जैसी उसकी भयानक आंखें अभी भी अपलक चाँद को घूर रही थीं।
“कोई अन्दर प्रविष्ट हुआ था?”
“नहीं कुलगुरु।” उत्तर महाराज ने दिया- “आपके आगमन तक हमने सुरक्षा की दृष्टि से किसी को भी भीतर प्रविष्ट होने की अनुमति नहीं दी और न ही कोई इस हेतु तत्पर हुआ।”
“हूं!” गहरी हुंकार भरने के बाद कुलगुरु बाहर से ही अभयानन्द का निरिक्षण करने लगे।
“सभी राज कर्मचारियों को बाहर भेज दीजिए। यहां आपके और कारागार प्रमुख के अलावा केवल कुछ सैनिक ही उपस्थित रहें।”
आदेश का पालन किया गया।
“व्दार खोला जाए।”
एक सैनिक ने सलाखों वाला व्दार खोल दिया। कुलगुरु ने सभी को बाहर रुकने का संकेत किया और अकेले ही अभयानन्द की कोठरी में दाखिल हो गये। महाराज, कारागार प्रमुख और सैनिकों की निगाहें उनकी गतिविधियों पर ठहर गयीं। उन्होंने कमण्डल से जल निकाला, अभयानन्द के ऊपर छिड़का। वातावरण में ‘छन्न’ की वैसी ही आवाज गूंजी, जैसी जलते अंगारे पर पानी छिड़कने से उत्पन्न होती है। अभयानन्द की मुद्रा में अब भी कोई परिवर्तन नहीं हुआ। वह निश्चल ही पड़ा रहा। कुलगुरु ने उसकी नब्ज टटोली। फिर उसकी छाती पर कान रख कर धड़कनों का स्वर सुना, तत्पश्चात कोठरी से बाहर आ गये।
“समाचार अशुभ है राजन!” उन्होंने महाराज को सम्बोधित करके कहा-“अभयानन्द बेहद द्रुत गति से पिशाच बनने की ओर अग्रसर है। प्रतीत हो रहा है कि इसने थोड़े समय पूर्व ही किसी दुर्लभ अनुष्ठान को पूर्ण किया है। इसकी दशा देखकर हमें एक सन्देह हो रहा है। ईश्वर न करे कि वह संदेह सत्य सिध्द हो।”
“कैसा संदेह कुलगुरु?” महाराज और कारागार प्रमुख ने समवेत स्वर में पूछा।
“इस विषय में हम विस्तृत परिचर्चा करेंगे और इसके लिये आपको अभी इस क्षण हमारे आवास पर न्यायाधीश के साथ उपस्थित होना होगा।”
“न्यायाधीश के साथ? किन्तु...?”
“ये समय प्रश्न करने या तर्क-वितर्क का नहीं है राजन।” कुलगुरु ने महाराज की बात काटकर सख्त स्वर में कहा- “तीर प्रत्यंचा से छूट चुका है। अब हम केवल अपने बचाव का प्रबन्ध कर सकते हैं। मंत्रणा में न्यायाधीश की उपस्थिति इसलिये अनिवार्य है क्योंकि कल के सूर्योदय से पूर्व ही अभयानन्द को उसके पापों का दण्ड मिलना आवश्यक है।”
महाराज का कोई अन्य प्रश्न करने का साहस नहीं हुआ। कुलगुरु ने एक नजर अभयानन्द पर डाली और सैनिकों की ओर मुखातिब होते हुए बोले- “रंग और तूलिका तथा काले कपड़े का प्रबन्ध करो। साथ ही लोहे की एक मजबूत जंजीर का भी, जिसमें इस नराधम को जकड़ा जा सके।”
दो सैनिक आदेश का पालन करने चले गये। जब वे वापस लौटे तो उनके साथ उपर्युक्त चीजें थीं। कुलगुरु ने रंग का पात्र, तूलिका और काले कपड़ा ले लिया।
“उसे बांध दो, किन्तु सावधानीपूर्वक। उसे निष्क्रिय समझने की भूल मत करना। वह आक्रामक हो सकता है।”
कुलगुरु की चेतावनी सुन सैनिक भयभीय हो उठे। उन्होंने मन ही मन अपने
ईष्ट का स्मरण किया और अभयानन्द को बांधने के ध्येय से जंजीर लिये हुए कारागार की उस कोठरी में प्रविष्ट हुये। उसकी ओर बढ़ने से पूर्व उन्होंने सुखे अधरों पर जुबान फेरी और कुलगुरु की ओर देखा।
“बांधो।”
एक सैनिक साहस एकत्र करके आगे बढ़ा और जंजीर का वलय अभयानन्द के गले में डाल दिया। उसकी ओर से कोई प्रतिकार न होता देखकर दो अन्य सैनिकों का भी हौसला बढ़ा और वे पहले सैनिक की मदद को आगे आ गये। थोड़ी ही देर बाद अभयानन्द जंजीरों में इस कदर जकड़ चुका था कि वह लेशमात्र भी हरकत नहीं कर सकता था। बांधे जाने के दौरान उसने जरा भी प्रतिकार नहीं किया था। केवल निश्चल पड़ा हुआ था। भेड़िये की आंखों वाला वह पिशाच जंजीरों में जकड़ जाने के बाद और भी भयानक नजर आने लगा। उसे बांधने के बाद सैनिक ऐसे आश्वस्त नजर आ रहे थे, जैसे उन्होंने किसी बड़े युध्द में विजय प्राप्त कर ली हो।
“बाहर आ जाओ।” कुलगुरु ने काले कपड़े को कई तहों में लपटते हुये सैनिकों को आदेश दिया।
सैनिकों के बाहर आ जाने के बाद कुलगुरु रंग के पात्र और कूचे के साथ अभयानन्द की कोठरी में प्रविष्ट हो गये। महाराज और कारागार प्रमुख भी उनके साथ भीतर आने को उद्यत हुये थे, किन्तु उन्होंने उन दोनों को बाहर ही रुकने का संकेत कर दिया था।
कई तह में लपेट चुके काले कपड़े को उन्होंने अभयानन्द के खुले नेत्रों पर बांध दिया। अभयानन्द ने कोई विरोध नहीं किया। डरावनी हो गयी आंखों के ढक जाने के बाद उसके रूप की भयावहता थोड़ी कम हुई। इसके पश्चात वे तूलिका और रंग की सहायता से कोठरी की दीवारों पर गीता के श्लोक लिखने लगे। आधे घण्टे बाद कोठरी की तीनों दिवारें, गीता के श्लोक और पवित्र स्वास्तिक चिह्नों से भर गयीं।
कुलगुरु के उपरोक्त क्रियाकलापों के दैरान महाराज, कारागार-प्रमुख और सैनिकों में से किसी का भी इतना साहस नहीं हुआ कि वह कोई ध्वनि उत्पन्न कर सके। कोठरी से बाहर आने के बाद उन्होंने चौखट को भी स्वास्तिक चिह्नों से लगभग रंग दिया। अंततः कार्य समाप्त करने के बाद उन्होंने रंग का पात्र और तूलिका एक सैनिक को सौंप दिया।
“इस कालकोठरी के निकट जितनी भी कोठरियां हैं, उन्हें अतिशीघ्र बंदियों से रिक्त कर दिया जाए। इसकी कोठरी व राहदारी में किसी का भी अनावश्यक आवागमन न हो।”
“जैसी आपकी इच्छा कुलगुरु।”
महाराज का स्वर उत्कंठा के बोझ तले दबा हुआ था। उन्हें कुलगुरु के चेहरे और उनके कृत्य में निहित गंभीरता को देखकर आभास हो चुका था कि जो कुछ हो रहा था, या होने वाला था, अत्यंत अनिष्टकारी था।
“आपको न्यायाधीश के साथ हमारे आवास पर उपस्थित होना होगा महाराज। हम चन्द्रमा के इस शापित प्रकाश में विनाश के धुंध को शंकरगढ़ में प्रवेश करते हुये देख रहे हैं।”
महाराज को अंतिम परामर्श देने के बाद कुलगुरु वातावरण की निस्तब्धता को अपने खडाऊं की ‘ख़ट-खट’ से भंग करते हुये प्रस्थान कर गये।
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साधू सा आलाप कर लेता हूँ ,
मंदिर जाकर जाप भी कर लेता हूँ ..
मानव से देव ना बन जाऊं कहीं,,,,
बस यही सोचकर थोडा सा पाप भी कर लेता हूँ
(¨`·.·´¨) Always
`·.¸(¨`·.·´¨) Keep Loving &
(¨`·.·´¨)¸.·´ Keep Smiling !
`·.¸.·´ -- raj sharma
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