एक सप्ताह पहले।
आदमी ने चेहरे के पसीने को आस्तीन से पोछा, फिर सूरज के भीषण क्रोध पर बड़बड़ाया और पुनः पैसेन्जर हॉल से बाहर निकलने वाले लोगों पर नजर दौड़ाने लगा। वेटिंग एरिया में खड़े अन्य लोगों की तरह उसके हाथ में भी एक नेम बोर्ड था।
“टाइम क्या हुआ भाई?” उसने बगल में खड़े अपने जैसे ही एक अन्य आदमी से पूछा।
बगल वाले आदमी ने पहले उसके नेमबोर्ड को घूरा, फिर कहा- “बारह बज कर दस मिनट।”
“छोटी मालकिन कहां रह गयीं?” वह व्यग्र भाव से बड़बड़ाते हुए पहलू बदलने लगा।
वहां से गुजरने वाला हर शख्स उसके नेम बोर्ड को देख कर हंसते हुए आगे बढ़ रहा था, किन्तु आदमी पर इसका कोई असर नहीं नजर आ रहा था। दस मिनट बाद एक युवती पैसेंजर हॉल से बाहर आयी। उसके साथ एक लोडर भी था, जो लगेज ट्रॉली को धकेल रहा था। युवती ने ‘रिसीवर्स’ की पंक्ति पर एक नजर डाली, किन्तु किसी भी नेमबोर्ड पर अपना नाम न पाकर उसके चेहरे पर शिकन के भाव आ गये। उसने रिस्टवॉच देखा, और फिर निचला होंठ दांतो तले दबा कर इधर-उधर देखने लगी। थोड़े अन्तराल के बाद उसने जीन्स के साइड पॉकेट से सेलफोन बाहर निकाला, कुछ पलों तक डिस्प्ले पर उंगलियां फिरायी, तत्पश्चात कान से लगा लिया। क्षण भर भी नहीं गुजरे होंगे कि उसे सेलफोन कान से हटाना पड़ा। उसके चेहरे पर व्याप्त उलझन पहले की अपेक्षा अब और गहरी हो गयी।
‘रिसीवर्स’ की लाइन में खड़ा वह आदमी युवती की हरकत को ध्यान से देख रहा था। पांच मिनट गुजर गये। इस अवधि में युवती कई दफे अपना सेलफोन कान के पास ले गयी, किन्तु हर बार सम्पर्क स्थापित करने में विफल रही। आखिरकार उस आदमी से रहा नहीं गया और वह लाइन से निकलकर युवती के पास पहुंचा।
“आप किसी को ढूंढ रही हैं बहन जी?”
स्वयं के लिये ‘बहन जी’ सम्बोधन सुनकर युवती ने बुरा सा मुंह बनाया, किन्तु फिर सामने खड़े आदमी की गंवार शैली की वेशभूषा देख उसे लगा कि उस आदमी के पास सम्बोधन हेतु ‘बहन जी’ से बेहतर शब्द रहा ही नहीं होगा।
“जी हां! आप कौन?”
“जी मेरा नाम बंशीधर है। अपनी छोटी मालकिन को लेने आया हूं, जो विलायत से अपनी पढ़ाई पूरी करके पूरे दस साल बाद लौट रही हैं।”
“तुम्हारी मालकिन का नाम क्या है?”
“संस्कृति ठाकुर।”
नाम सुनते ही युवती ने मुट्ठी भींच ली। और गुस्सा पीने का प्रयत्न करते हुए बोली- “मि. बंशीधर?”
“जी बहन जी!”
“तुमने नेमबोर्ड उल्टा पकड़ रखा है।”
“उई तेरी....।” नेमबोर्ड पर नजर पड़ते ही बंशीधर की जीभ बाहर निकल गयी। उसने सचमुच नेमबोर्ड उल्टा पकड़ रखा था। अब उसे समझ आया कि लोग उसके नेमप्लेट घूर-घूर कर हंस क्यों रहे थे। पल भर में ही उसने नेमबोर्ड सीधा कर लिया, जिस पर ‘संस्कृति ठाकुर’ लिखा हुआ था।
“यदि तुमने नेमबोर्ड सीधा पकड़ा होता तो तुम्हें मेरे पास नहीं आता होता, मैं खुद तुम्हारे पास आ जाती।”
“तो क्या.....तो क्या आप ही संस्कृति....मेरा मतलब कि छोटी मालकिन हैं....?”
“हां....मैं ही हूं, जिसे रिसीव करने के लिये तुम उल्टे नेमबोर्ड के साथ खड़े हो।”
“हे भगवान! कितना बड़ी हो गयीं आप। दस साल पहले....।”
“मुझे धूप लग रही है। गाड़ी कहां पार्क की है तुमने?”
“इस तरफ....इस तरफ आइए छोटी मालकिन।”
बंशीधर ने पार्किंग एरिया की दिशा में इशारा किया, जहाँ उसने वाइट इण्डिगो पार्क की थी। संस्कृति और लोडर, दोनो बंशी की बताई हुई दिशा में मुड़ गये।
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Horror ख़ौफ़
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Re: Horror ख़ौफ़
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(प्यार का अहसास ) ......(वापसी : गुलशन नंदा) ......(विधवा माँ के अनौखे लाल) ......(हसीनों का मेला वासना का रेला ) ......(ये प्यास है कि बुझती ही नही ) ...... (Thriller एक ही अंजाम ) ......(फरेब ) ......(लव स्टोरी / राजवंश running) ...... (दस जनवरी की रात ) ...... ( गदरायी लड़कियाँ Running)...... (ओह माय फ़किंग गॉड running) ...... (कुमकुम complete)......
साधू सा आलाप कर लेता हूँ ,
मंदिर जाकर जाप भी कर लेता हूँ ..
मानव से देव ना बन जाऊं कहीं,,,,
बस यही सोचकर थोडा सा पाप भी कर लेता हूँ
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Re: Horror ख़ौफ़
“दस साल बाद गांव में आकर कैसा लग रहा है छोटी मालकिन?” स्टीयरिंग को दाहिनी दिशा में घुमाते हुए बंशीधर ने पूछा।
कई क्षण गुजर जाने के बाद भी कोई जवाब न पाकर उसने गर्दन पीछे घुमायी। पिछली सीट पर मौजूद संस्कृति कोई मैगजीन पढ़ने में व्यस्त थी। व्यवधान के डर से बंशीधर ने अपना सवाल नहीं दोहराया और खामोशी के साथ गाड़ी चलाता रहा। लगभग आधे घण्टे बाद उसने गाड़ी रोक दी।
“गाड़ी क्यों रोकी आपने?”
“मालिक-मालकिन ने आपको ‘ब्रह्म बाबा’ के दर्शन कराते हुए राजमहल ले आने के लिये कहा था।” बंशीधर ने ड्राइविंग डोर खोलते हुए कहा।
“ब्रह्म बाबा?”
“हां मालकिन। राजमहल के लोग इन्हें कुलदेवता के रूप में पूजते हैं। चलिये,
अब बाहर आ जाइए। हमें ज्यादा समय नहीं लगेगा।” बंशीधर ने इण्डिगो का पिछला डोर खोलते हुए कहा।
“हाउ इरिटेटिंग।” बुदबुदाते हुए संस्कृति ने मैगजीन को सीट पर रखा और सनग्लास तथा स्टॉल लिए हुए गाड़ी से बाहर आ गयी।
वह इलाका वीरान था। दूर-दूर तक फैली हुई बंजर भूमि और दृष्टि के अंतिम छोर पर दिखाई पड़ रहे ऊंचे-ऊंचे पहाड़ों के अलावा कुछ भी नहीं नजर आ रहा था। आठ फीट चौड़ी पक्की सड़क, धूल से भरे उस मैदान की छाती को रौंदती हुई ‘शंकर गढ़’ तक चली गयी थी। जिस जगह बंशीधर ने गाड़ी किनारे लगायी थी, उससे थोड़ी ही दूर पर माइल स्टोन था, जिस पर ‘शंकरगढ-2 किमी’ लिखा हुआ था। इस जगह पर छाया के नाम पर सड़क से लगभग पचास मीटर के फासले पर केवल एक पीपल का पेड़ था। जिसके चारों ओर पक्का और सीमेंटेड चबूतरा बना हुआ था। चबूतरे पर, पीपल के तने से सटा हुआ ‘पिंजरानुमा’ एक छोटा सा मन्दिर था, जिसमें मूर्ति के नाम पर लाल रंग की एक शंक्वाकार संरचना नजर आ रही थी। पीपल के तने से दर्जन भर छोटी-छोटी घण्टियां बंधी हुई थीं और सफेद कच्चे धागे के अनगिनत फेरे भी लपेटे हुए थे। चबूतरे पर चढ़ने के लिये तीन सीढ़ियां थीं। तपती धूप और धूल भरे लू के कारण वहां पल भर भी ठहरना मुश्किल था। संस्कृति ने तेजी से कदम बढ़ा कर पीपल की छांव में शरण ले लिया।
“यही ब्रह्म बाबा हैं।” बंशीधर ने पिंजरेनुमा मन्दिर की ओर इशारा किया और सीढ़ियों के पास चप्पल उतारकर चबूतरे पर चढ़ गया।
संस्कृति ने पीपल का मुआयना किया। सैकड़ों साल पुराने उस दैत्य सरीखे पीपल को देख संस्कृति अचम्भित रह गयी। उसके तने से अनगिनत शाखाएं निकलकर प्रत्येक दिशा में गयी थीं, और फिर उन शाखाओं से अन्य शाखाएं विकसित होकर लगभग दस मीटर की त्रिज्या के गोल घेरे को शीतल छाया प्रदान कर रही थीं। पीपल की कई पुरानी शाखाएं ऐसी थीं, जिन पर काले निशान नजर आ रहे थे। ठीक वैसे ही निशान, जो आधी जली हुई लकड़ियों पर होते हैं।
“ऊपर आइए छोटी मालकिन।”
बंशीधर की आवाज सुन संस्कृति की तंद्रा भंग हुई। उसने भी अपना सैण्डल सीढ़ियों के पास उतारा और चबूतरे पर चढ़ गयी। बंशीधर ने पीपल के तने से बंधी घण्टियों को बजाया। और ‘शंक्वाकार संरचना’ के सामने हाथ जोड़ कर, आँखें बन्द किये हुए कुछ बुदबुदाने लगा। संस्कृति ने भी उसका अनुसरण किया। लगभग दो मिनट बाद बंशीधर ने आंखें खोली। अब-तक संस्कृति भी ‘दर्शन’ की औपचारिकता पूरी कर चुकी थी।
“आइए अब चलते हैं छोटी मालकिन।”
दोनों चबूतरे से नीचे आये।
“यही ब्रह्म बाबा हैं?”
“जी छोटी मालकिन।”
संस्कृति ठहर गयी। उसने पलट कर पिंजरेनुमा मन्दिर में बनी शंक्वाकार संरचना को हैरत से देखा।
“ये कोन जैसा पत्थर ही ब्रह्म बाबा के रूप में पूजा जाता है?”
“पत्थर कह कर ब्रह्म बाबा का अपमान मत कीजिए छोटी मालकिन।” बंशीधर ने थोड़े नाराज स्वर में कहा- “राजमहल का प्रत्येक सदस्य इनके प्रति अगाध श्रध्दा रखता है। ये राजमहल के कुल देवता हैं। राजमहल में आयोजित होने वाले हर शुभ कार्य का पहला निमंत्रण इन्हें ही दिया जाता है।”
“इनके हमारे खानदान का कुल देवता होने के पीछे कोई वजह तो होगी?”
“कई सौ साल पुरानी कहानी है छोटी मालकिन। मुझे भी वह कहानी नहीं मालूम। मुझे ही नहीं, राजमहल के किसी भी नौकर को नहीं मालूम है। दरअसल हम नौकर हैं, इसलिये हमने कभी भी राजमहल की मान्यताओं और तौर-तरिकों के पीछे छिपे वजहों को जानने की कोशिश नहीं की।”
संस्कृति ने कुछ नहीं कहा। उसकी निगाहें दोबारा पीपल के पेड़ पर ठहरीं, तो फिर वहीं ठहर कर रह गयीं।
“क्या सोचने लगीं छोटी मालकिन?”
“मुझे ऐसा क्यों लग रहा है कि इस जगह से मेरा पुराना नाता है।”
संस्कृति की बात सुन बंशीधर जोर से हंसा।
“आपका इस जगह से सच में पुराना नाता है।”
“मतलब?”
“मतलब ये छोटी मालकिन कि ब्रह्म बाबा के इस मन्दिर का शिलान्यास आपके ही हाथों हुआ था। उस समय आप केवल छः महिने की थी।”
“इण्टरेस्टिंग।”
“इतना ही नहीं छोटी मालकिन, ठाकुर और ठकुराइन जी तो आपको ब्रह्म बाबा की नेमत मानते हैं। बचपन से लेकर विलायत जाने तक, आप हर इतवार को यहां ठाकुर साहब के साथ ब्रह्म बाबा की पूजा करने आया करती थी।”
“ओह।”
“दस सालों में आप शायद ये भी भूल चुकी होंगी कि यहां हर वर्ष दशहरे को साल का सबसे बड़ा मेला लगता है। उसी समय ब्रह्म बाबा का भव्य श्रृंगार होता है। इस समारोह के उपलक्ष्य में राजमहल की ओर से गरीबों को भोजन और कपड़े दान में दिये जाते हैं।”
“याद आ रहा है।” पुरानी स्मृतियां ताजा होते ही संस्कृति के होठों पर मुस्कान थिरक उठी- “उस मेले में राम के व्दारा रावण के वध का मंचन भी किया जाता था। मैं रावण की बड़ी-बड़ी मूंछें देख कर हमेशा डर जाती थी।”
“आपको तो सब-कुछ याद आ गया छोटी मालकिन।” बंशीधर ठहाके लगा पड़ा- “आइए अब चलें, वरना देरी करने के अपराध में ठाकुर साहब मुझ पर बरस पड़ेंगे।”
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“ब्रह्म बाबा?”
“हां मालकिन। राजमहल के लोग इन्हें कुलदेवता के रूप में पूजते हैं। चलिये,
अब बाहर आ जाइए। हमें ज्यादा समय नहीं लगेगा।” बंशीधर ने इण्डिगो का पिछला डोर खोलते हुए कहा।
“हाउ इरिटेटिंग।” बुदबुदाते हुए संस्कृति ने मैगजीन को सीट पर रखा और सनग्लास तथा स्टॉल लिए हुए गाड़ी से बाहर आ गयी।
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Re: Horror ख़ौफ़
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Re: Horror ख़ौफ़
राजमहल।
शंकरगढ़ का सबसे आलीशान आवास होने के साथ-साथ इस बात का भी गवाह कि बीते हुए दौर में शंकरगढ़ एक सम्पन्न रजवाड़ा हुआ करता था, जिसके हुक्मरान राजमहल जैसे भव्य भवन में रहा करते थे। कई एकड़ में फैला राजमहल आज भी पांच सौ साल पुरानी वास्तुकला की भव्यता से लोगों को दांतों तले उंगली दबाने पर विवश करता था। राजमहल देश की उन ऐतिहासिक इमारतों में से एक था, जो मुस्लिम शासकों की बादशाहत से लेकर अंग्रेजों की गुलामी तक के प्रत्यक्षदर्शी रहे हैं। महल, प्राचीर से पांच सौ मीटर अन्दर स्थित था, जहां तक पहुंचने के लिये मुख्य व्दार से दो पक्की सड़कें विपरित दिशा में गयी हुई थीं, जिनके दोनों ओर अमरैन्थस की घनी क्यारियां थीं। महल के प्रांगण के ठीक मध्य में, लगभग पन्द्रह मीटर त्रिज्या के वृत्ताकार घेरे में मखमली और मुलायम घास उगायी गयी थी। उस घेरे की परिधि पर गेंदा, गुलाब, कुमुदनी इत्यादि भिन्न-भिन्न फूलों के पौधे बगैर किसी अन्तराल के लगाये गये थे, जिनमें उगने वाले भिन्न-भिन्न रंगों और अलग-अलग प्रजाति के फूल शोभायमान थे। उस वृत्ताकार घेरे के बीच में कमर पर घड़ा टिकाए हुए एक युवती की संगमरमर की मूर्ति थी। उसके घड़े से निकलने वाली पानी की पतली धारा को इस प्रकार समायोजित किया गया था कि थोड़ी उंचाई तक उठने के बाद धारा सीधे मैदान की परिधि पर लगाए गये फूलों के पौधों पर ही गिरती थी।
युवती की प्रतिमा विद्युत युक्ति के जरिये अपने स्थान पर घूर्णन भी कर सकती थी। इस युक्ति का सबसे बड़ा लाभ राजमहल के मालियों को होता था, क्योंकि उन्हें फूलों के पौधों को अलग से पानी नहीं देना पड़ता था, यह काम फब्बारे के रूप में घूर्णन करती युवती की बेजान प्रतिमा कर देती थी। रात के समय फूलों के पौधों तथा प्रतिमा की दोनों आंखों में पुतलियों के स्थान पर लगे सजावटी बल्बों की रोशनी स्वार्गिक सौन्दर्य का बोध कराती थी। संगमरमर की प्रतिमा के जूड़े से भी जल की धारा निकलती थी, जो घड़े से निकलने वाली धारा की अपेक्षाकृत अधिक मोटी थी। ये धारा वैकल्पिक थी, जिसे किसी विशेष आयोजन पर ही, जब फब्बारे को आकर्षण का प्रमुख केन्द्र बनाना आवश्यक होता था, तब छोड़ा जाता था।
मुख्य प्रवेश व्दार से विपरित दिशाओं में जाने वाली दोनों सड़कें, इसी फब्बारे वाले वृत्ताकार घेरे के दोनों ओर से होते हुए महल के मुख्य व्दार पर आकर मिल जाती थीं। राजमहल के प्रत्येक मंजिल के बरामदे में बैंगनी रंग के रेशमी लटक रहे थे, जिनके किनारों पर सितारे टंकी हुई सुनहरी पट्टियां लगी हुई थीं, ताकि सूरज की रोशनी में वे चमक सके। कम शब्दों में इतना ही कहना पर्याप्त था कि शंकरगढ़ का राजमहल ऐसे लोगों की तलाश का अंत था, जो इस आधुनिक युग में राजसी ठाठ देखने हेतु लालायित रहते हैं।
दिग्विजय ठाकुर।
शंकरगढ़ रियासत की बागडोर सम्भालने वाले वंश की वर्तमान पीढ़ी के अगुआ। वक्त के सदैव परिवर्तित होने के सर्वोत्तम गुण और भारत में लोकतंत्र के आगमन के बाद राजशाही प्रथा का अन्त भले ही हो गया था, किन्तु आजादी के सत्तर साल बाद भी शंकरगढ़ में दिग्विजय ठाकुर का वही रुतबा था, जो भारत में लोकतंत्र आने से पहले इनके पूर्वजों का हुआ करता था।
सत्ता के गलियारे में गहरी पैठ होने के कारण दिग्विजय ठाकुर आज भी अपने पूर्वजों की राजशाही प्रथा को जीवित रखने का ‘गौरवशाली’ कार्य कर रहे थे। हालांकि तीन भाइयों में सबसे बड़े दिग्विजय की गोद में ईश्वर ने संतान के रूप में केवल संस्कृति को ही डाला था, किन्तु अन्य दो भाइयों अरुणोदय और चन्द्रोदय के सन्दर्भ में ईश्वर ने ऐसा नहीं किया था और उन्हें संतान के रूप में लड़कों के सुख से नवाजा था। अरुणोदय और चन्द्रोदय, दोनों के ही एकलौते लड़के संस्कृति से छोटे थे और बोर्डिंग स्कूल में रहकर पढ़ाई कर रहे थे। कुल मिलाकर संस्कृति अगली पीढ़ी में सबसे उम्रदराज थी, जो आज पूरे दस साल बाद, ‘यूनिवर्सिटी ऑफ़ कैम्ब्रिज’ के ट्रिनिट हॉल से मैथेमैटिक्स में ग्रेजुएट होकर शंकरगढ़ लौट रही थी।
राजमहल के प्रत्येक नौकर की सुबह से ही भागदौड़ जारी थी। दर्जन भर नौकरों में से शायद ही ऐसा कोई नौकर था, जिसने चैन से बैठकर कुछ देर तक आराम किया था। राजमहल के प्रांगण में सफेद तम्बू लगा हुआ था। जगह-जगह पर हवा के लिये मिनी कुलर्स और लोगों के बैठने के लिये वीआईपी चेयर्स के इन्तजाम थे। जमीन पर ईरानी कालीन बिछाये गये थे। पण्डाल में एक तरफ मंच भी बना हुआ था, जो धरातल से छः फीट ऊंचा था। चारों ओर ईत्र और गुलाब जल के छिड़काव के कारण वातावरण सुगन्ध से परिपूर्ण था। फब्बारा ऑन था। हर रोज दोपहर के वक्त कुम्हलाये रहने वाले फूल भी आज रोज की अपेक्षाकृत मुस्कुराते से लग रहे थे। प्रत्येक रोज भीषण गर्मी से झुलसने वाला राजमहल का प्रांगण आज लोगों की चहल-पहल से गुलजार था। मेहमानों का आगमन शुरू हो गया था, अत: लोगों की गर्दिश में भी धीरे-धीरे इजाफा होने लगा था। शाही पोशाक पहने हुए कुछ नौकर हाथ में ट्रे लिये हुए टहल रहे थे। दिग्विजय के खानदान अथवा रिश्ते से ताल्लुक रखने वाला हर शख्स केसरिया साफा बांधे हुए था, क्योंकि राजमहल के प्रत्येक समारोह में सिर पर केसरिया साफा बांधना उनके खानदानी उसूलों में से एक था।
अचानक गूंज उठी गाड़ी की आवाज ने पण्डाल में मौजूद सभी लोगों का ध्यान अपनी ओर खींच लिया। सफेद इण्डिगो मेन गेट से अन्दर दाखिल हुई थी, और अब सड़क को रौंदते हुए तेजी से राजमहल के मुख्य व्दार की ओर बढ़ रही थी।
‘छोटी मालकिन आ गयीं...छोटी मालकिन आ गयीं।’
पण्डाल में मेहमानों का स्वागत कर रहे नौकर इण्डिगो को देखते ही खुशी से चिल्ला उठे। अन्य सदस्यों को सूचित करने के ध्येय से एक नौकर सारे काम छोड़कर अन्दर की ओर भाग खड़ा हुआ।
इण्डिगो महल के मुख्य व्दार पर रुकी। पहले ड्राइविंग डोर खोलकर बंशीधर बाहर आया। फिर उसने पिछला डोर खोलकर संस्कृति को बाहर आने का इशारा किया। अब-तक राजमहल की महिलाओं के साथ-साथ संस्कृति के पिता दिग्विजय और उसके दोनों चाचा भी बाहर आ चुके थे। सबसे आगे संस्कृति की मां सुजाता थीं, उनके हाथ में पूजा की थाली थी।
गाड़ी से बाहर आते ही संस्कृति दौड़ कर दिग्विजय से जा चिपकी।
“मिस्ड यू अ लॉट डैडी।”
संस्कृति ने दिग्विजय के ऊपर चुम्बनों की बौछार कर दी। बाप-बेटी का प्यार देख पण्डाल में उपस्थित सभी मेहमानों के होठों पर मुस्कान रेंग गयी। कुछ देर तक दिग्विजय के साथ प्रेमालाप करने के बाद संस्कृति अपने दोनो चाचाओं और छोटी मांओं से भी उतने ही उत्साह से रूबरू हुई, जितने उत्साह से दिग्विजय से रूबरू हुई थी। अंतत: वह सुजाता की ओर मुड़ी।
“फाइनली...इट्स योर टाइम मम्मम।”
“सबसे अन्त में हमारी याद आई तुम्हें?” सुजाता ने शिकायती स्वर में कहा।
संस्कृति, सुजाता के गले लगने को आतुर हुई, किन्तु उनके हाथ में पूजा की थाली होने के कारण ठहर गयी।
“ये क्या मम्मी? आते ही पूजा की थाली?”
“पूरे दस साल बाद हमारी लक्ष्मी घर लौटी है। बिना आरती के घर में प्रवेश करेगी तो इसे अशुभ माना जाएगा।”
“एक्सक्यूज मी मम्मी।” संस्कृति चिढ़ कर बोली- “आई एम संस्कृति, नॉट लक्ष्मी।”
सुजाता बगैर कुछ बोले थाली में रखा कपूर जलाने लगी।
“ये क्या जला रही हो मम्मी?”
“कपूर जला रही हूं, आरती के लिये। दस साल के लिये विलायत क्या चली गयी, सारे कायदे ही भूल गयी?”
“नो मम्मी। प्लीज।” संस्कृति ने झपटकर सुजाता के हाथ से थाली छिनते हुए कहा- “प्लीज ये आरती वाला आइडिया ड्रॉप कर दीजिए। आप तो जानती ही हैं कि मुझे बचपन से ही आग से डर लगता है।”
शंकरगढ़ का सबसे आलीशान आवास होने के साथ-साथ इस बात का भी गवाह कि बीते हुए दौर में शंकरगढ़ एक सम्पन्न रजवाड़ा हुआ करता था, जिसके हुक्मरान राजमहल जैसे भव्य भवन में रहा करते थे। कई एकड़ में फैला राजमहल आज भी पांच सौ साल पुरानी वास्तुकला की भव्यता से लोगों को दांतों तले उंगली दबाने पर विवश करता था। राजमहल देश की उन ऐतिहासिक इमारतों में से एक था, जो मुस्लिम शासकों की बादशाहत से लेकर अंग्रेजों की गुलामी तक के प्रत्यक्षदर्शी रहे हैं। महल, प्राचीर से पांच सौ मीटर अन्दर स्थित था, जहां तक पहुंचने के लिये मुख्य व्दार से दो पक्की सड़कें विपरित दिशा में गयी हुई थीं, जिनके दोनों ओर अमरैन्थस की घनी क्यारियां थीं। महल के प्रांगण के ठीक मध्य में, लगभग पन्द्रह मीटर त्रिज्या के वृत्ताकार घेरे में मखमली और मुलायम घास उगायी गयी थी। उस घेरे की परिधि पर गेंदा, गुलाब, कुमुदनी इत्यादि भिन्न-भिन्न फूलों के पौधे बगैर किसी अन्तराल के लगाये गये थे, जिनमें उगने वाले भिन्न-भिन्न रंगों और अलग-अलग प्रजाति के फूल शोभायमान थे। उस वृत्ताकार घेरे के बीच में कमर पर घड़ा टिकाए हुए एक युवती की संगमरमर की मूर्ति थी। उसके घड़े से निकलने वाली पानी की पतली धारा को इस प्रकार समायोजित किया गया था कि थोड़ी उंचाई तक उठने के बाद धारा सीधे मैदान की परिधि पर लगाए गये फूलों के पौधों पर ही गिरती थी।
युवती की प्रतिमा विद्युत युक्ति के जरिये अपने स्थान पर घूर्णन भी कर सकती थी। इस युक्ति का सबसे बड़ा लाभ राजमहल के मालियों को होता था, क्योंकि उन्हें फूलों के पौधों को अलग से पानी नहीं देना पड़ता था, यह काम फब्बारे के रूप में घूर्णन करती युवती की बेजान प्रतिमा कर देती थी। रात के समय फूलों के पौधों तथा प्रतिमा की दोनों आंखों में पुतलियों के स्थान पर लगे सजावटी बल्बों की रोशनी स्वार्गिक सौन्दर्य का बोध कराती थी। संगमरमर की प्रतिमा के जूड़े से भी जल की धारा निकलती थी, जो घड़े से निकलने वाली धारा की अपेक्षाकृत अधिक मोटी थी। ये धारा वैकल्पिक थी, जिसे किसी विशेष आयोजन पर ही, जब फब्बारे को आकर्षण का प्रमुख केन्द्र बनाना आवश्यक होता था, तब छोड़ा जाता था।
मुख्य प्रवेश व्दार से विपरित दिशाओं में जाने वाली दोनों सड़कें, इसी फब्बारे वाले वृत्ताकार घेरे के दोनों ओर से होते हुए महल के मुख्य व्दार पर आकर मिल जाती थीं। राजमहल के प्रत्येक मंजिल के बरामदे में बैंगनी रंग के रेशमी लटक रहे थे, जिनके किनारों पर सितारे टंकी हुई सुनहरी पट्टियां लगी हुई थीं, ताकि सूरज की रोशनी में वे चमक सके। कम शब्दों में इतना ही कहना पर्याप्त था कि शंकरगढ़ का राजमहल ऐसे लोगों की तलाश का अंत था, जो इस आधुनिक युग में राजसी ठाठ देखने हेतु लालायित रहते हैं।
दिग्विजय ठाकुर।
शंकरगढ़ रियासत की बागडोर सम्भालने वाले वंश की वर्तमान पीढ़ी के अगुआ। वक्त के सदैव परिवर्तित होने के सर्वोत्तम गुण और भारत में लोकतंत्र के आगमन के बाद राजशाही प्रथा का अन्त भले ही हो गया था, किन्तु आजादी के सत्तर साल बाद भी शंकरगढ़ में दिग्विजय ठाकुर का वही रुतबा था, जो भारत में लोकतंत्र आने से पहले इनके पूर्वजों का हुआ करता था।
सत्ता के गलियारे में गहरी पैठ होने के कारण दिग्विजय ठाकुर आज भी अपने पूर्वजों की राजशाही प्रथा को जीवित रखने का ‘गौरवशाली’ कार्य कर रहे थे। हालांकि तीन भाइयों में सबसे बड़े दिग्विजय की गोद में ईश्वर ने संतान के रूप में केवल संस्कृति को ही डाला था, किन्तु अन्य दो भाइयों अरुणोदय और चन्द्रोदय के सन्दर्भ में ईश्वर ने ऐसा नहीं किया था और उन्हें संतान के रूप में लड़कों के सुख से नवाजा था। अरुणोदय और चन्द्रोदय, दोनों के ही एकलौते लड़के संस्कृति से छोटे थे और बोर्डिंग स्कूल में रहकर पढ़ाई कर रहे थे। कुल मिलाकर संस्कृति अगली पीढ़ी में सबसे उम्रदराज थी, जो आज पूरे दस साल बाद, ‘यूनिवर्सिटी ऑफ़ कैम्ब्रिज’ के ट्रिनिट हॉल से मैथेमैटिक्स में ग्रेजुएट होकर शंकरगढ़ लौट रही थी।
राजमहल के प्रत्येक नौकर की सुबह से ही भागदौड़ जारी थी। दर्जन भर नौकरों में से शायद ही ऐसा कोई नौकर था, जिसने चैन से बैठकर कुछ देर तक आराम किया था। राजमहल के प्रांगण में सफेद तम्बू लगा हुआ था। जगह-जगह पर हवा के लिये मिनी कुलर्स और लोगों के बैठने के लिये वीआईपी चेयर्स के इन्तजाम थे। जमीन पर ईरानी कालीन बिछाये गये थे। पण्डाल में एक तरफ मंच भी बना हुआ था, जो धरातल से छः फीट ऊंचा था। चारों ओर ईत्र और गुलाब जल के छिड़काव के कारण वातावरण सुगन्ध से परिपूर्ण था। फब्बारा ऑन था। हर रोज दोपहर के वक्त कुम्हलाये रहने वाले फूल भी आज रोज की अपेक्षाकृत मुस्कुराते से लग रहे थे। प्रत्येक रोज भीषण गर्मी से झुलसने वाला राजमहल का प्रांगण आज लोगों की चहल-पहल से गुलजार था। मेहमानों का आगमन शुरू हो गया था, अत: लोगों की गर्दिश में भी धीरे-धीरे इजाफा होने लगा था। शाही पोशाक पहने हुए कुछ नौकर हाथ में ट्रे लिये हुए टहल रहे थे। दिग्विजय के खानदान अथवा रिश्ते से ताल्लुक रखने वाला हर शख्स केसरिया साफा बांधे हुए था, क्योंकि राजमहल के प्रत्येक समारोह में सिर पर केसरिया साफा बांधना उनके खानदानी उसूलों में से एक था।
अचानक गूंज उठी गाड़ी की आवाज ने पण्डाल में मौजूद सभी लोगों का ध्यान अपनी ओर खींच लिया। सफेद इण्डिगो मेन गेट से अन्दर दाखिल हुई थी, और अब सड़क को रौंदते हुए तेजी से राजमहल के मुख्य व्दार की ओर बढ़ रही थी।
‘छोटी मालकिन आ गयीं...छोटी मालकिन आ गयीं।’
पण्डाल में मेहमानों का स्वागत कर रहे नौकर इण्डिगो को देखते ही खुशी से चिल्ला उठे। अन्य सदस्यों को सूचित करने के ध्येय से एक नौकर सारे काम छोड़कर अन्दर की ओर भाग खड़ा हुआ।
इण्डिगो महल के मुख्य व्दार पर रुकी। पहले ड्राइविंग डोर खोलकर बंशीधर बाहर आया। फिर उसने पिछला डोर खोलकर संस्कृति को बाहर आने का इशारा किया। अब-तक राजमहल की महिलाओं के साथ-साथ संस्कृति के पिता दिग्विजय और उसके दोनों चाचा भी बाहर आ चुके थे। सबसे आगे संस्कृति की मां सुजाता थीं, उनके हाथ में पूजा की थाली थी।
गाड़ी से बाहर आते ही संस्कृति दौड़ कर दिग्विजय से जा चिपकी।
“मिस्ड यू अ लॉट डैडी।”
संस्कृति ने दिग्विजय के ऊपर चुम्बनों की बौछार कर दी। बाप-बेटी का प्यार देख पण्डाल में उपस्थित सभी मेहमानों के होठों पर मुस्कान रेंग गयी। कुछ देर तक दिग्विजय के साथ प्रेमालाप करने के बाद संस्कृति अपने दोनो चाचाओं और छोटी मांओं से भी उतने ही उत्साह से रूबरू हुई, जितने उत्साह से दिग्विजय से रूबरू हुई थी। अंतत: वह सुजाता की ओर मुड़ी।
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“सबसे अन्त में हमारी याद आई तुम्हें?” सुजाता ने शिकायती स्वर में कहा।
संस्कृति, सुजाता के गले लगने को आतुर हुई, किन्तु उनके हाथ में पूजा की थाली होने के कारण ठहर गयी।
“ये क्या मम्मी? आते ही पूजा की थाली?”
“पूरे दस साल बाद हमारी लक्ष्मी घर लौटी है। बिना आरती के घर में प्रवेश करेगी तो इसे अशुभ माना जाएगा।”
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(प्यार का अहसास ) ......(वापसी : गुलशन नंदा) ......(विधवा माँ के अनौखे लाल) ......(हसीनों का मेला वासना का रेला ) ......(ये प्यास है कि बुझती ही नही ) ...... (Thriller एक ही अंजाम ) ......(फरेब ) ......(लव स्टोरी / राजवंश running) ...... (दस जनवरी की रात ) ...... ( गदरायी लड़कियाँ Running)...... (ओह माय फ़किंग गॉड running) ...... (कुमकुम complete)......
साधू सा आलाप कर लेता हूँ ,
मंदिर जाकर जाप भी कर लेता हूँ ..
मानव से देव ना बन जाऊं कहीं,,,,
बस यही सोचकर थोडा सा पाप भी कर लेता हूँ
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Re: Horror ख़ौफ़
“लेकिन.....।” सुजाता ने कुछ कहना चाहा, किन्तु उनका वाक्य पूरा होने से पहले ही संस्कृति ने थाली दिग्विजय को थमाते हुए कहा- “प्लीज पापा। ये आरती वाला आइडिया ड्रॉप करवाइए न?”
“रहने दो सुजाता। जब बिटिया मना कर रही है, तो तुम्हें जबरदस्ती नहीं करनी चाहिए।”
दिग्विजय ने संस्कृति का पक्ष लिया। इस वजह से नहीं कि वह दस साल बाद लौटी थी। दरअसल वजह ये थी कि उन्हें संस्कृति की हर छोटी-बड़ी मांग के आगे घुटने टेकने की आदत थी। उनकी इस आदत के कारण कभी-कभी सुजाता बुरी तरह चिढ़ जाती थीं, ठीक वैसे ही जैसे इस समय चिढ़ गयी थीं। उन्होंने आरती की थाली को अनमने ढंग से एक नौकर की ओर बढ़ा दिया।
“थैंक यू, माय क्यूट मम्मम।”
कहने के बाद संस्कृति ने सुजाता को जोर की झप्पी दी।
“चलो अब जल्दी करो। संस्कृति को अभी तैयार भी होना है। हमारे स्पेशल गेस्ट आधे घण्टे में पहुंचने वाले हैं।”
दिग्विजय की उपरोक्त घोषणा सुनते ही सबने मानो यथार्थ में वापसी की।
“पापा किस स्पेशल गेस्ट की बात कर रहे हैं मम्मी?” संस्कृति, सुजाता की कान में फुसफुसायी।
“सब्र रख। जल्द ही पता चल जाएगा।” सुजाता ने मुस्कुराते हुए कहा।
☐☐☐☐☐☐☐☐☐☐☐☐☐☐☐☐☐☐
मृत्युंजय सिंह ठाकुर, राज्य मंत्रिमण्डल में ऊर्जा मंत्री था। फितरत से इस दर्जे का अय्याश था कि कई बार पार्टी की साख पर बट्टा लगने का प्रमुख कारण बन चुका था। लूट-खसोट को वह राजनेताओं का जन्मसिध्द अधिकार समझता था। उसका मानना था कि कोई भी राजनेता हंस के सदृश जीवनपर्यन्त उजला नहीं बना रह सकता। यदि सच्चाई और ईमानदारी जैसे घातक रोग की वजह से वह अपना कुर्ता सफेद रखने में सफल होता भी है, तो देर से ही सही, अपोजिशन की ओर से उछाले गये किचड़ उसे गन्दा कर ही देते हैं। दिग्विजय का करीबी होने के कारण राजमहल के हर छोटे-बड़े समारोह में उसकी उपस्थिति अनिवार्य होती थी, इसीलिये संस्कृति के आगमन के उपलक्ष्य में आयोजित पार्टी में उसका आना तय था। दिग्विजय-सुजाता के साथ-साथ अरुणोदय और चन्द्रोदय भी सपत्निक पण्डाल में ही थे। मेहमानों की आवाभगत के साथ-साथ दिग्विजय क्षणिक अन्तराल पर मेन गेट की ओर भी देखते जा रहे थे। पण्डाल में कोई वेस्टर्न धुन चल रही थी।
“मृत्युंजय कहां रह गया?” दिग्विजय रिस्टवॉच देखते हुए बड़बड़ाये।
“पॉलिटिशियन लोग हैं भइया। समारोहों में प्रतीक्षा करवाना इनकी आदत में शुमार होता है।” चन्द्रोदय ने कहा।
इससे पहले कि चन्द्रोदय की बात पर दिग्विजय ठहाका लगा पाते, उनकी प्रतीक्षा अन्त को प्राप्त हो गयी। मेन गेट से कई गाडियां अप्रत्याशित तेजी के साथ अन्दर दाखिल हुयीं।
“मंत्री साहब आ गये भइया।” अरुणोदय ने उत्साहित स्वर में कहा।
मंत्री महोदय की बीएमडब्ल्यू के आगे और पीछे चार-चार काले मार्शल थे, जिन पर चढ़े ब्लैक शीशों में पण्डाल के ज्यादातर हिस्सों के अक्स छप गये। सारी गाड़ियां एक ही स्विच से जुड़ी हों, कुछ इसी अंदाज में रुकीं। सभी मार्शल्स के डोर एक साथ खुले। सुरक्षाकर्मी बाहर निकले और पण्डाल में छिटककर पोजीशन अख्तियार कर लिए। इस गहमागहमी के बीच पण्डाल की हलचल थम सी गयी। थोड़ी देर पहले चल रही वेस्टर्न धुन भी रोक दी गयी। गाड़ियों की कतार के ठीक बीच में खड़ी बीएमडब्ल्यू के भी डोर खुले। सबसे पहले मंत्री महोदय के चार निजी अंगरक्षक बाहर आये, तत्पश्चात मंत्री महोदय के पाँव गाड़ी से बाहर आये। दिग्विजय इत्यादि एक साथ उनकी ओर लपके।
मृत्युंजय के साथ उसकी पत्नी और एकलौता बेटा भी था। मृत्युंजय सांवले वर्ण और औसत कद का पचास की उम्र पार कर चुका प्राणी था। उसकी आँखें छोटी-छोटी थीं, जो चेहरे के भरे हुए होने कारण कोटरों में धंसी हुई नजर आती थीं। जिस्म पर मौजूद सफेद कुर्ता उसकी तोंद पर से होते हुए घुटनों तक लटक रहा था।
“रहने दो सुजाता। जब बिटिया मना कर रही है, तो तुम्हें जबरदस्ती नहीं करनी चाहिए।”
दिग्विजय ने संस्कृति का पक्ष लिया। इस वजह से नहीं कि वह दस साल बाद लौटी थी। दरअसल वजह ये थी कि उन्हें संस्कृति की हर छोटी-बड़ी मांग के आगे घुटने टेकने की आदत थी। उनकी इस आदत के कारण कभी-कभी सुजाता बुरी तरह चिढ़ जाती थीं, ठीक वैसे ही जैसे इस समय चिढ़ गयी थीं। उन्होंने आरती की थाली को अनमने ढंग से एक नौकर की ओर बढ़ा दिया।
“थैंक यू, माय क्यूट मम्मम।”
कहने के बाद संस्कृति ने सुजाता को जोर की झप्पी दी।
“चलो अब जल्दी करो। संस्कृति को अभी तैयार भी होना है। हमारे स्पेशल गेस्ट आधे घण्टे में पहुंचने वाले हैं।”
दिग्विजय की उपरोक्त घोषणा सुनते ही सबने मानो यथार्थ में वापसी की।
“पापा किस स्पेशल गेस्ट की बात कर रहे हैं मम्मी?” संस्कृति, सुजाता की कान में फुसफुसायी।
“सब्र रख। जल्द ही पता चल जाएगा।” सुजाता ने मुस्कुराते हुए कहा।
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मृत्युंजय सिंह ठाकुर, राज्य मंत्रिमण्डल में ऊर्जा मंत्री था। फितरत से इस दर्जे का अय्याश था कि कई बार पार्टी की साख पर बट्टा लगने का प्रमुख कारण बन चुका था। लूट-खसोट को वह राजनेताओं का जन्मसिध्द अधिकार समझता था। उसका मानना था कि कोई भी राजनेता हंस के सदृश जीवनपर्यन्त उजला नहीं बना रह सकता। यदि सच्चाई और ईमानदारी जैसे घातक रोग की वजह से वह अपना कुर्ता सफेद रखने में सफल होता भी है, तो देर से ही सही, अपोजिशन की ओर से उछाले गये किचड़ उसे गन्दा कर ही देते हैं। दिग्विजय का करीबी होने के कारण राजमहल के हर छोटे-बड़े समारोह में उसकी उपस्थिति अनिवार्य होती थी, इसीलिये संस्कृति के आगमन के उपलक्ष्य में आयोजित पार्टी में उसका आना तय था। दिग्विजय-सुजाता के साथ-साथ अरुणोदय और चन्द्रोदय भी सपत्निक पण्डाल में ही थे। मेहमानों की आवाभगत के साथ-साथ दिग्विजय क्षणिक अन्तराल पर मेन गेट की ओर भी देखते जा रहे थे। पण्डाल में कोई वेस्टर्न धुन चल रही थी।
“मृत्युंजय कहां रह गया?” दिग्विजय रिस्टवॉच देखते हुए बड़बड़ाये।
“पॉलिटिशियन लोग हैं भइया। समारोहों में प्रतीक्षा करवाना इनकी आदत में शुमार होता है।” चन्द्रोदय ने कहा।
इससे पहले कि चन्द्रोदय की बात पर दिग्विजय ठहाका लगा पाते, उनकी प्रतीक्षा अन्त को प्राप्त हो गयी। मेन गेट से कई गाडियां अप्रत्याशित तेजी के साथ अन्दर दाखिल हुयीं।
“मंत्री साहब आ गये भइया।” अरुणोदय ने उत्साहित स्वर में कहा।
मंत्री महोदय की बीएमडब्ल्यू के आगे और पीछे चार-चार काले मार्शल थे, जिन पर चढ़े ब्लैक शीशों में पण्डाल के ज्यादातर हिस्सों के अक्स छप गये। सारी गाड़ियां एक ही स्विच से जुड़ी हों, कुछ इसी अंदाज में रुकीं। सभी मार्शल्स के डोर एक साथ खुले। सुरक्षाकर्मी बाहर निकले और पण्डाल में छिटककर पोजीशन अख्तियार कर लिए। इस गहमागहमी के बीच पण्डाल की हलचल थम सी गयी। थोड़ी देर पहले चल रही वेस्टर्न धुन भी रोक दी गयी। गाड़ियों की कतार के ठीक बीच में खड़ी बीएमडब्ल्यू के भी डोर खुले। सबसे पहले मंत्री महोदय के चार निजी अंगरक्षक बाहर आये, तत्पश्चात मंत्री महोदय के पाँव गाड़ी से बाहर आये। दिग्विजय इत्यादि एक साथ उनकी ओर लपके।
मृत्युंजय के साथ उसकी पत्नी और एकलौता बेटा भी था। मृत्युंजय सांवले वर्ण और औसत कद का पचास की उम्र पार कर चुका प्राणी था। उसकी आँखें छोटी-छोटी थीं, जो चेहरे के भरे हुए होने कारण कोटरों में धंसी हुई नजर आती थीं। जिस्म पर मौजूद सफेद कुर्ता उसकी तोंद पर से होते हुए घुटनों तक लटक रहा था।
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