अर्जुन अब निरुत्तर था. वो भी तो अब जो सब कुछ हुआ उसको बदल नही सकता था. और जो भी ज़िंदगी मे उसके पिता ने किया था उसके साथ वो भी तो किसी बात को ध्यान मे रख कर किया होगा. संजीव भैया ने भी कहा था कि जब मैं पैदा हुआ तो उनको मुझमे उम्मीद नज़र आई थी. आज यही सब है जो मैं इतने अच्छे से पढ़ पा रहा हूँ और ये शरीर जो पैदा होने पर रोगी था वो आज स्वस्थ है.
"बेटा आओ थोड़ा साथ मे टहल ले. फिर तो हम अब एक हफ्ते बाद मिलेंगे." इतना कह कर वो उसको अपने साथ लिए पार्क मे चक्कर काटने लगे. धीमे कदमो से अर्जुन को अब कोई सवाल किसी से नही पूछना था. क्योंकि उसको पता चल गया था की किसी बीमारी को ठीक करने के लिए जो इंजेक्षन दिया जाता है वो दुख़्ता है लेकिन फिर मरीज ठीक भी उस से ही होता है. उसके सभी अवगुनन उसके पिता जी ने सख्ती से ही सही लेकिन ख़तम कर ही दिए थे. और अब उसको अपने आप को साबित करना था.
"आप कहाँ जा रहे है सर?" उसको जानकार अच्छा नही लगा था
"बेटा एक योगा और हृषि महोत्सव है हरिद्वार मे. बस वही. तुम सबसे ज़्यादा तब सीखते हो जब तुम उन्हीं लोगो की संगत मे रहो जिसमे वो सब या तो महारत रखते हो या फिर उनका दिल उसमे लगा हो. मेरे भी कुछ गुरु/दोस्त वहाँ मिलेंगे तो कुछ शायद सीख सकूँ ."
ऐसे ही चलते हुए वो अर्जुन को आसपास ज़िंदगी दिखा रहे थे. कही कोई बातें कर रहा था, कही बुजुर्ग बॅडमिंटन खेलते हुए भी मुस्कुरा रहे थे.
5 से उपर का समय हो चुका था और अच्छी ख़ासी रोशनी हो चुकी थी. उनके साथ अर्जुन समय भूल ही चुका था. घर से निकला था तो शरीर हल्का था
लेकिन अब तो उसका दिल और मन दोनो शांत थे.
"आपका इंतजार करूँगा." पहली बार अर्जुन ने उनके पाव स्पर्श किए तब तक आचार्य जी मित्र भी उधर गेट के पास आ चुके थे. आचार्य जी ने उसको गले से लगाकर सिर्फ़ इतना कहा, "प्रेम से जिंदगी जी ली जाए तो बेहतर है बेटा, सबके साथ. अकेला तो देखो सूरज भी गरम ही रहता है." उनके मज़ाक के भाव मे भी गहरी बात थी. "अपना ख़याल रखना और हमेशा ऐसे ही निश्चल्ल रहना." वो दोनो ही साथ मे बाहर चल दिए.
"बेटा आज भी दौड़ने गये थे?", रामेश्वर जी ने अर्जुन को घर मे आते देखा. 5:30 हुए थे अभी और वो चाय पी रहे थे.
"आज जल्दी चला गया था दादाजी. फिर एक दोस्त जैसे गुरुजी है और आज उनके साथ समय का पता ही नहीं चला."
"अच्छा तो अब तेरे दोस्त भी है? और गुरुजी?"
अपने दादाजी को तात्पर्य समझ उसने अच्छे से बताना ही सही समझा, "वो कोई साधु महाराज नही है दादा जी. वो योग और प्राणायाम वाले गुरु है. और 70 साल के भी होकर मुश्किल से पापा जीतने लगते है, बस सारे बाल आपकी तरह सफेद है. रोज एक पाठ सीखते है मेरी दौड़ पूरी होने के बाद और अगले दिन सबक पूछते है नया पाठ सीखने से पहले." अपने पोते का आचरण और लोगो का चुनाव भी पंडित जी को गदगद कर गया.
"आज का क्या पाठ सिखाया तेरे गुरुजी ने?"
"प्रेम और स्वार्थ. इसके साथ ही ये भी कहा की इंसान के प्रतिदिन के जीवन मे सत्या और असत्य जैसा कुछ नही होता. एक बात जिस व्यक्ति ने महसूस की हो वही बात दूसरे ने नही की हो तो वो सिर्फ़ उन दोनो के लिए एक भाव भर है. और उन्होने ये भी सिखाया की दुख देने वाला व्यक्ति आपका दुश्मन हो ऐसा ज़रूरी नही. शायद जब आपको वो बात दुख देती होगी तब आप कमजोर होंगे और उस से उबरने के बाद पता चले की ये सब उस सख़्त निर्णया का ही परिणाम है जो आज हम शक्तिशाली है." यहा अर्जुन ने द्वियार्थी बात करी थी. दादाजी को ये भी बता दिया की जो भी परिवार नि उसके साथ किया था
उसको अब उस बात का कोई गीला-शिकवा नही है.
"असाधारण बात कही है बेटे उन्होने. इतनी बड़ी शिक्षा देने वाला व्यक्ति कोआई आम गुरु तो नही हो सकता. क्या नाम बताया तुमने उसका?" रामेश्वर जी थोड़ा हतप्रभ हो गये थे उसकी बातों से.
"जी कोई आचार्य प्रमोद शास्त्री है. मेरे से भी लंबे और तगड़े है वो." रामेश्वर जी की भी आँखें चमक उठी नाम सुनकर
"खुशनसीब हो बेटा जो तुम उन जैसी शक्षियात के सान्निध्य मे हो. पूरे विश्वा मे जिनका नाम प्रचलती है वो तुम्हारे साथ समय बिता रहे है."
उन्होने अपने पोते का माथा चूमा. उनका मन भी प्रसन्न था. "चल उठ और दूध पी ले. फिर तेरा पता नही कहा निकल जाएगा." लाड से उन्होने कहा
और अर्जुन अंदर आ गया जहाँ मा रसोई मे सबके लिए चाय बना रही थी और ऋतु/अलका के लिए कॉफी.
Incest ये प्यास है कि बुझती ही नही
- rajsharma
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Re: Incest ये प्यास है कि बुझती ही नही
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Re: Incest ये प्यास है कि बुझती ही नही
excellent story, very interesting...
- rajsharma
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Re: Incest ये प्यास है कि बुझती ही नही
तुम साथ हो
"काम-क्रोध-कुकर्म ये ऐसे त्रिकाल है की मनुष्य इनके बस मे हो जाए तो उसको रक्षश बन-ने से फिर भगवान भी नही बचा सकते. जनम से हर व्यक्ति किसी सफेद पन्ने की तरह कोरा होता है. वो वही धारण करता है जो उसपे लिखा जाए. जैसे महॉल हो मे वो बड़ा होता है, जैसी शिक्षा वो ग्रहण करता है और जैसे निर्णय वो अपने आसपास के लोगो को लेते हुए देखता है. फिर हम कैसे कह सकते है के सिर्फ़ उस शख्स की ही ग़लती है? असुर भी गयानी होते है और देव भी काम-पीपसा के भोगी. सुख मे रहता साधु और दरिद्रता मे जीता शख्स एक समान ही तो है."
.
.
"ले बेटा तू दूध पी तबतक मैं तेरी बहनो को उठा डू. आज तो मधुरी भी अभी तक सोई हुई है. पता नही इतना कितना थक गई ये सब कल के संगीत मे. अपने घर जाएँगी तब भुगतेंगी." रेखा अपने बेटे के सर पर हाथ फिरते हुए बोल रही थी.
अपनी मा के इस दुलार भरे स्पर्श और उनके शरीर से आती एक मदमस्त सी खुसबु मे अर्जुन बस आँखें मुंडे बैठा रहा. कोमल दीदी जब उसके पास बैठी तब पता चला के मा तो कब की चली गई है वहाँ से. दूध की तरफ ध्यान लगाया और फिर मुस्कुराकर अपनी बड़ी बेहन को देखा. "सारी मे बहुत अच्छी लग रही थी दीदी आप."
"रहने दे तू तो. मेरे से ज़्यादा अच्छी माधुरी दीदी लग रही थी और कल तो तू भी कुछ अलग चमक रहा था." कोमल दीदी को दिल मे खुशी हुई के उसके भाई ने उसको ध्यान से देखा तो सही.
"अर्रे दीदी ऐसा नही है. माधुरी दीदी भी ठीक लग रही थी, लेकिन आपके शरीर पर तो सारी इतना ज़्यादा खिल रही थी के जैसे वो बनी ही सिर्फ़
आपके लिए हो. मैने तो एक सदा कुर्ता पाजामा ही तो पहना था." अर्जुन की बातों ने तो कोमल दीदी का आज दिन ही खिला दिया था.
"अच्छा बचु. मेरे पर सारी ठीक ठाक ही लग रही थी?" माधुरी दीदी जो कब से अर्जुन के पीछे खड़ी थी आख़िर मे बोली.
"वो.. वो दीदी मेरा कहने का मतलब था कि .. आप दोनो खूब अच्छी लग रही थी." इतना बोलकर वो भाग लिया वॉया से. और इधर ऋतु/अलका दीदी भी आ
गई थी.
"आ." माधुरी दीदी जैसे ही बैठी उनके मूह से निकली ये हल्की सीत्कार तीनो बहनो ने सुनी. अलका और ऋतु तो सिर्फ़ होल से हंस दी लेकिन कोमल ने पूछ ही लिया. "क्या हुआ दीदी? आपको अभी भी दर्द है क्या?"
"अर्रे कुछ नही वो छत पर सोने से शायद पैर की नास्स चढ़ गई थोड़ी. लेकिन ठीक हूँ मैं इतना भी कुछ नही हुआ है." जवाब देते हुए हे उन्होने
मॅन मे ही कहा, " एक बार तू लेके देख तो ज़रा उस घोड़े का अपने अंदर. मैं तो चल कर नीचे आ गई तू तो घिसट कर ही आती. हाए कितनी बुरी
तरह फाड़ कर रख दी है मेरी."
"दीदी कहा खोई हुई हो. चाय ठंडी हो जाएगी." अलका की आवाज़ से माधुरी दीदी ने चुदाई याद करके बस कप उठाया और उनके मूह पर लाली छा गई.
"काम-क्रोध-कुकर्म ये ऐसे त्रिकाल है की मनुष्य इनके बस मे हो जाए तो उसको रक्षश बन-ने से फिर भगवान भी नही बचा सकते. जनम से हर व्यक्ति किसी सफेद पन्ने की तरह कोरा होता है. वो वही धारण करता है जो उसपे लिखा जाए. जैसे महॉल हो मे वो बड़ा होता है, जैसी शिक्षा वो ग्रहण करता है और जैसे निर्णय वो अपने आसपास के लोगो को लेते हुए देखता है. फिर हम कैसे कह सकते है के सिर्फ़ उस शख्स की ही ग़लती है? असुर भी गयानी होते है और देव भी काम-पीपसा के भोगी. सुख मे रहता साधु और दरिद्रता मे जीता शख्स एक समान ही तो है."
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"ले बेटा तू दूध पी तबतक मैं तेरी बहनो को उठा डू. आज तो मधुरी भी अभी तक सोई हुई है. पता नही इतना कितना थक गई ये सब कल के संगीत मे. अपने घर जाएँगी तब भुगतेंगी." रेखा अपने बेटे के सर पर हाथ फिरते हुए बोल रही थी.
अपनी मा के इस दुलार भरे स्पर्श और उनके शरीर से आती एक मदमस्त सी खुसबु मे अर्जुन बस आँखें मुंडे बैठा रहा. कोमल दीदी जब उसके पास बैठी तब पता चला के मा तो कब की चली गई है वहाँ से. दूध की तरफ ध्यान लगाया और फिर मुस्कुराकर अपनी बड़ी बेहन को देखा. "सारी मे बहुत अच्छी लग रही थी दीदी आप."
"रहने दे तू तो. मेरे से ज़्यादा अच्छी माधुरी दीदी लग रही थी और कल तो तू भी कुछ अलग चमक रहा था." कोमल दीदी को दिल मे खुशी हुई के उसके भाई ने उसको ध्यान से देखा तो सही.
"अर्रे दीदी ऐसा नही है. माधुरी दीदी भी ठीक लग रही थी, लेकिन आपके शरीर पर तो सारी इतना ज़्यादा खिल रही थी के जैसे वो बनी ही सिर्फ़
आपके लिए हो. मैने तो एक सदा कुर्ता पाजामा ही तो पहना था." अर्जुन की बातों ने तो कोमल दीदी का आज दिन ही खिला दिया था.
"अच्छा बचु. मेरे पर सारी ठीक ठाक ही लग रही थी?" माधुरी दीदी जो कब से अर्जुन के पीछे खड़ी थी आख़िर मे बोली.
"वो.. वो दीदी मेरा कहने का मतलब था कि .. आप दोनो खूब अच्छी लग रही थी." इतना बोलकर वो भाग लिया वॉया से. और इधर ऋतु/अलका दीदी भी आ
गई थी.
"आ." माधुरी दीदी जैसे ही बैठी उनके मूह से निकली ये हल्की सीत्कार तीनो बहनो ने सुनी. अलका और ऋतु तो सिर्फ़ होल से हंस दी लेकिन कोमल ने पूछ ही लिया. "क्या हुआ दीदी? आपको अभी भी दर्द है क्या?"
"अर्रे कुछ नही वो छत पर सोने से शायद पैर की नास्स चढ़ गई थोड़ी. लेकिन ठीक हूँ मैं इतना भी कुछ नही हुआ है." जवाब देते हुए हे उन्होने
मॅन मे ही कहा, " एक बार तू लेके देख तो ज़रा उस घोड़े का अपने अंदर. मैं तो चल कर नीचे आ गई तू तो घिसट कर ही आती. हाए कितनी बुरी
तरह फाड़ कर रख दी है मेरी."
"दीदी कहा खोई हुई हो. चाय ठंडी हो जाएगी." अलका की आवाज़ से माधुरी दीदी ने चुदाई याद करके बस कप उठाया और उनके मूह पर लाली छा गई.
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Re: Incest ये प्यास है कि बुझती ही नही
"दीदी कहा खोई हुई हो. चाय ठंडी हो जाएगी." अलका की आवाज़ से माधुरी दीदी ने चुदाई याद करके बस कप उठाया और उनके मूह पर लाली छा गई.
"आज तो फंक्षन शाम को जल्दी ही शुरू हो जाएगा. मा, दादी और ताईजी तो शायद अभी नाश्ता बना कर ही कामिनी आंटी के घर चले जाएँगे."
ऋतु को शादी के फंक्षन का बड़ा चाव था. उन दिनों यही तो एक समय होता था घर की लड़कियो का जब वो खुल कर शृंगार करती थी, अपने दिल के वो अरमान जीती थी जो अधिकतर दिनों मे घर की चार दीवारी मे क़ैद रहते थे. खाना पीना, भाभियों से मस्ती, उनके द्वियार्थी चुटकुले और आप बीती
को मज़े लेकर सुन-ना और फिर अपने मन मे उनके सपने देखना जब उनकी भी शादी होगी और वो किसी राजकुमारी की तरह दुल्हन बनेंगी. शादी-ब्याह मे इतनी रस्मे-रिवाज थे की 3-4 दिन तक बस वही होते थे. परिवार मे दूर दराज के सभी संबंधी एकसाथ होते थे.
"हा तो आज ज़्यादा कुछ तो करना नही है. वॅक्सिंग और फेशियल तो कल ही सबका हो चुका है. जो भी थोड़ा बहुत है वो आज कर लेंगे."कोमल ने बातजारी रखी.
"मेरी भव की भी थोड़ी शेप ठीक कर देना यार कोमल. और यहा की वॅक्सिंग भी." माधुरी दीदी ने शरम से अपनी कांख की तरफ इशारा किया तो बाकी सब हंस पड़ी. "हा हा क्यो नही. अगला नंबर आपका ही तो है अब. मैने सुना था कल एक आंटी को दादी से बात करते हुए और शायद दादी ने बाबा से बात भी करी होगी."
माधुरी दीदी तो ये बात सुनकर ही वहाँ से खड़ी हो गई. उनको बड़ी मुश्किल से तो एक प्यार करने वाला मिला था. "मैं मना कर दूँगी दादा जी को. अभी मैने कोई शादी नही करनी." ये कहकर वो बाथरूम मे चली गई लेकिन ये तीनो हँसती रही. ऐसे ही कुछ देर मे सब अपने कामो से फारिग हो कर नाश्ते मे लग गये.
………………………..
"बेटा वो तुम्हारी ड्रेस लाने के लिए मैं अर्जुन को कह देता हूँ. रामेश्वर जी के घर ही जा रहा हूँ तो वही बोल दूँगा. कुछ और भी चाहिए तुम्हे?"
कॉल साहब खाने की टेबल से हाथ सॉफ करते उठे. उनके सामने हे कमीज़ पाजामे मे बैठी प्रीति अपने हाथ मे पकड़ी ब्रेड पर माखन लगा रही थी.
"नही दादू. मैं भी वही जा रही हूँ तो खुद ही उसको बोल दूँगी. कुछ फिटिंग की प्राब्लम हुई तो बेचारे का एक और चक्कर लग जाएगा." और हँसती हुई खड़ी हो कर अपने दादाजी को एक गिलास जूस का थमा कर वापिस बैठ गई.
"इतना ख़याल मत रखा कर अपने इस बूढ़े दादा का बिटिया. तू जब अपने घर चली जाएगी तो फिर मैं खुद को संभाल नही पाउन्गा."
उनकी बात सुनकर प्रीति वापिस आ उनके बाह से लिपट ते हुए बोली, "तो ऐसा करना के लड़का घर ही रख लेना." और हँसने लगी.
उसको देख कॉल साहब भी हंस दिए. "तू कभी बड़ी नही होगी. है ना? और मैं तो बस यही सोचता रहता हूँ के कब तू मेरा पीछा छोड़े." गिलास टेबल पर रख उन्होने प्यार से अपनी इस बिटिया को गले लगाया और बाहर निकल दिए.
कुछ सोचते हुए प्रीति ने ब्रेड का पीस ख़तम कर अपना जूस का गिलास खाली किया और मुस्कुराती सी अपने कमरे मे भागगई.
……………………….
"आज तो फंक्षन शाम को जल्दी ही शुरू हो जाएगा. मा, दादी और ताईजी तो शायद अभी नाश्ता बना कर ही कामिनी आंटी के घर चले जाएँगे."
ऋतु को शादी के फंक्षन का बड़ा चाव था. उन दिनों यही तो एक समय होता था घर की लड़कियो का जब वो खुल कर शृंगार करती थी, अपने दिल के वो अरमान जीती थी जो अधिकतर दिनों मे घर की चार दीवारी मे क़ैद रहते थे. खाना पीना, भाभियों से मस्ती, उनके द्वियार्थी चुटकुले और आप बीती
को मज़े लेकर सुन-ना और फिर अपने मन मे उनके सपने देखना जब उनकी भी शादी होगी और वो किसी राजकुमारी की तरह दुल्हन बनेंगी. शादी-ब्याह मे इतनी रस्मे-रिवाज थे की 3-4 दिन तक बस वही होते थे. परिवार मे दूर दराज के सभी संबंधी एकसाथ होते थे.
"हा तो आज ज़्यादा कुछ तो करना नही है. वॅक्सिंग और फेशियल तो कल ही सबका हो चुका है. जो भी थोड़ा बहुत है वो आज कर लेंगे."कोमल ने बातजारी रखी.
"मेरी भव की भी थोड़ी शेप ठीक कर देना यार कोमल. और यहा की वॅक्सिंग भी." माधुरी दीदी ने शरम से अपनी कांख की तरफ इशारा किया तो बाकी सब हंस पड़ी. "हा हा क्यो नही. अगला नंबर आपका ही तो है अब. मैने सुना था कल एक आंटी को दादी से बात करते हुए और शायद दादी ने बाबा से बात भी करी होगी."
माधुरी दीदी तो ये बात सुनकर ही वहाँ से खड़ी हो गई. उनको बड़ी मुश्किल से तो एक प्यार करने वाला मिला था. "मैं मना कर दूँगी दादा जी को. अभी मैने कोई शादी नही करनी." ये कहकर वो बाथरूम मे चली गई लेकिन ये तीनो हँसती रही. ऐसे ही कुछ देर मे सब अपने कामो से फारिग हो कर नाश्ते मे लग गये.
………………………..
"बेटा वो तुम्हारी ड्रेस लाने के लिए मैं अर्जुन को कह देता हूँ. रामेश्वर जी के घर ही जा रहा हूँ तो वही बोल दूँगा. कुछ और भी चाहिए तुम्हे?"
कॉल साहब खाने की टेबल से हाथ सॉफ करते उठे. उनके सामने हे कमीज़ पाजामे मे बैठी प्रीति अपने हाथ मे पकड़ी ब्रेड पर माखन लगा रही थी.
"नही दादू. मैं भी वही जा रही हूँ तो खुद ही उसको बोल दूँगी. कुछ फिटिंग की प्राब्लम हुई तो बेचारे का एक और चक्कर लग जाएगा." और हँसती हुई खड़ी हो कर अपने दादाजी को एक गिलास जूस का थमा कर वापिस बैठ गई.
"इतना ख़याल मत रखा कर अपने इस बूढ़े दादा का बिटिया. तू जब अपने घर चली जाएगी तो फिर मैं खुद को संभाल नही पाउन्गा."
उनकी बात सुनकर प्रीति वापिस आ उनके बाह से लिपट ते हुए बोली, "तो ऐसा करना के लड़का घर ही रख लेना." और हँसने लगी.
उसको देख कॉल साहब भी हंस दिए. "तू कभी बड़ी नही होगी. है ना? और मैं तो बस यही सोचता रहता हूँ के कब तू मेरा पीछा छोड़े." गिलास टेबल पर रख उन्होने प्यार से अपनी इस बिटिया को गले लगाया और बाहर निकल दिए.
कुछ सोचते हुए प्रीति ने ब्रेड का पीस ख़तम कर अपना जूस का गिलास खाली किया और मुस्कुराती सी अपने कमरे मे भागगई.
……………………….
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