Horror ख़ौफ़

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rajsharma
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Re: Horror ख़ौफ़

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(शिद्द्त - सफ़र प्यार का ) ......(प्यार का अहसास ) ......(वापसी : गुलशन नंदा) ......(विधवा माँ के अनौखे लाल) ......(हसीनों का मेला वासना का रेला ) ......(ये प्यास है कि बुझती ही नही ) ...... (Thriller एक ही अंजाम ) ......(फरेब ) ......(लव स्टोरी / राजवंश running) ...... (दस जनवरी की रात ) ...... ( गदरायी लड़कियाँ Running)...... (ओह माय फ़किंग गॉड running) ...... (कुमकुम complete)......


साधू सा आलाप कर लेता हूँ ,
मंदिर जाकर जाप भी कर लेता हूँ ..
मानव से देव ना बन जाऊं कहीं,,,,
बस यही सोचकर थोडा सा पाप भी कर लेता हूँ
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Re: Horror ख़ौफ़

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11
“इतना दुस्साहस?” अभयानन्द की भीषण गर्जना से अरुणा कांप गयी- “इतना दुस्साहस कि वे हमारे साम्राज्य की परिधि में प्रविष्ट होकर हमारे ही विरुध्द षड़यंत्र रच रहे हैं?”
अरुणा समझ गयी कि अभयानन्द का संकेत किस ओर है।
“आप निश्चिन्त रहें प्रभु।” अरुणा ने उसे शांत करने के ध्येय से कहा- “वे व्दिज को लेकर शंकरगढ़ में आए अवश्य हैं, किन्तु वे जात स्मरण की प्रक्रिया पूर्ण नहीं कर पाएंगे। वे व्दिज के वर्तमान जन्म को पूर्वजन्म की स्मृतियों का स्मरण नहीं करा पाएंगे।”
“ज्ञात करो कि उनकी योजना क्या है?” अभयानन्द का व्याकुल स्वर।
आदेश सुनकर अरुणा के चेहरे पर कातर भाव छा गये।
“क्षमा कर दीजिए प्रभु।” उसने करबध्द होकर यूं कहा, मानो कोई अक्षम्य अपराध कर बैठी हो- “मेरी तंत्र दृष्टि राजमहल के क्षेत्र में दाखिल नहीं हो पा रही है। मैं ये ज्ञात करने में स्वयं को असमर्थ पा रही हूं कि व्दिज का इस जन्म का भाई किस योजना के साथ यहां आया है।”
अभयानन्द ने अरुणा के अनुमान के विपरित प्रतिक्रिया दी। वह कुपित होने के स्थान पर विचारमग्न होकर दूर जलती हुई चीता को देखने लगा।
“तंत्रदृष्टि राजमहल की दीवारों को भेद नहीं पा रही है, इसका तात्पर्य केवल एक ही हो सकता है कि राजमहल की परम्पराओं के संरक्षक कुलगुरु ने राजमहल को सुरक्षा घेरे में ले लिया है।”
“हां प्रभु।”
अभयानन्द के होठों पर कुटिल मुस्कान थिरकती चली गयी।
“राजमहल वासियों की कोई युक्ति सफल नहीं हो सकती है अरुणा। हम किसी भी मूल्य पर द्विज को उसका पूर्व जन्म याद नहीं आने देंगे। जात-स्मरण की प्रक्रिया को कभी पूर्ण नहीं होने देंगे हम।”
“किन्तु प्रभु....!” अरुणा का चिंतित स्वर- “यदि उनकी युक्ति सफल हो गयी तो...।”
“नहीं! नहीं सफल हो सकती।” अभयानन्द की बड़ी-बड़ी आँखें रहस्यमयी हो उठीं- “तुम गौण कापालिकों का वंश हमारे एक रहस्य से आज तक अनभिज्ञ रहा है। वह रहस्य ही आज द्विज के जात-स्मरण की प्रक्रिया का सबसे बड़ा बाधक बनेगा।”
“रहस्य? कैसा रहस्य प्रभु?” अरुणा चौंकी। उसने स्वप्न में भी कल्पना नहीं
की थी कि अभयानन्द का कोई रहस्य ऐसा भी होगा, जो उसकी निगाहों से ओझल होगा।
अभयानन्द ने अरुणा के प्रश्न का कोई उत्तर नहीं दिया। वह सधी हुई चाल चलते हुए श्मशानेश्वर की प्रतिमा के सम्मुख पहुंचा। दोनों भुजाएं फैलाकर उसने आँखें बंद कर ली। उसके गले से भेड़िये की गुर्राहट निकली। जिस्म थरथराया।
अरुणा हैरान थी। ये बात उसकी समझ से परे थी कि जिस राजमहल की दीवारों को कोई तंत्र-युक्ति नहीं भेद सकती थी, उस राजमहल में चल रही योजना को अभयानन्द किस प्रक्रिया के तहत विफल करने की कोशिश कर रहा था।
“तुम पापी हो द्विज। तुमने पाप किया है।”
अभयानन्द के गले से कांपता स्वर निकला। अरुणा की आँखें कुछ सोचने के प्रयास में गोल हो गयीं।
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“मैं पापी हूँ। मैंने पाप किया है।”
बड़बड़ाते हुए द्विज ने दीप जलाकर अभयानन्द की झोपड़ी में प्रकाश किया। बाहर मूसलाधार बारीश उफान पर थी। उसने कम्बल में लिपटा अभयानन्द का जिस्म शय्या पर लिटाया, जो लगभग पूरा जल चुका था। गला हुआ मांस तरल के रूप में बह रहा था। द्विज इस हृदयविदारक दृश्य पर इस कदर विचलित नजर आ रहा था, मानो अभयानन्द उसके लिए प्राणों से भी अधिक प्रिय रहा हो।
बुरी तरह भीगे हुए द्विज ने कंधे से लटका कपड़े का थैला उतारा और उसमें से जलारोधि आवरण में लिपटी औषधियां बाहर निकालीं। तत्पश्चात उन्हें पीस कर लेप तैयार करने में जुट गया।
अभयानन्द के मुंह से हल्की-हल्की कराह निकल रही थी। आँखें बाहर निकल गयी थीं। जलने के कारण वीभत्स हो गये होंठ नीचे की ओर लटक गये थे। जीभ बाहर निकल गयी थी। उसकी कराहट जीवन के अंतिम क्षणों की कराहट प्रतीत हो रही थी। उसके बचने का एक भी लक्षण इंगित नहीं हो रहा था, तथापि द्विज न जाने किस अज्ञात आस के तहत उसे पीपल के तने से उतार लाया था और उसे राहत पहुंचने के ध्येय से शीतल औषधियों का लेप तैयार करने में व्यस्त था, ये ज्ञात होते हुए भी कि अभयानन्द की दूषित काया में अब एक नरपिशाच सो रहा था।
संयोगवश हुई भीषण बारिश को द्विज ने एक संकेत के रूप में ग्रहण किया था। इस संकेत के रूप में कि प्रकृति देवी स्वयं अभयानन्द के प्राणों की रक्षा करने को उद्यत थीं। उसी संकेत के वशीभूत होकर जब वह देवी-मंदिर से दौड़ा था तो उसके कदम सीधे पीपल के पास पहुंचकर ही रुके थे। वह अभयानन्द का जीवन
बचाने जैसे असंभव कृत्य को संभव बनाने में जुटा हुआ था।
उसने लेप लगाने के लिए हाथ आगे बढ़ाया। अभयानन्द के कराहने का स्वर तीव्र हुआ और रुई के फाहे के बदन से स्पर्श करते ही वह दर्द से तड़प उठा।
“मुझे क्षमा कर दो भइया।” होठों से ‘भइया’ शब्द प्रस्फुटित होते ही द्विज की आँखों से आंसू छलक उठे- “मैं पापी हूँ। आपकी इस दयनीय दशा का उत्तरदायी मैं ही हूँ। मैंने महाराज के सम्मुख ये सोचकर आपके विरूद्ध न्याय की याचना की थी कि जब आप कारावास में चले जायेंगे तो इसी बहाने तामसी साधनाओं से दूर हो जायेंगे, किन्तु मुझे लेशमात्र भी भनक नहीं था कि महाराज आपको इतना भीषण मृत्युदंड दे देंगे।”
अभयानन्द का जिस्म फड़फड़ाया। वह द्विज की बातों का जवाब देने का यत्न
करता नजर आ रहा था, किन्तु स्थिति प्रतिकूल होने के कारण अपने यत्न में सफल नहीं हो पा रहा था।
“भीषण त्रासदी वाली उस रात जब आप मुझे अलाव के पास बैठाकर किसी अनजान स्त्री की चीख का उद्गम स्थल तलाशने गये थे तब क्या मैंने सोचा था कि आप फिर दोबारा नहीं लौटेंगे? नहीं भइया! मैंने स्वप्न में भी कल्पना नहीं की थी कि भयानक त्रासदी वाली उस रात के बाद आप मेरे बड़े भाई के रूप में नहीं अपितु एक भयानक कापालिक के रूप में लौटेंगे। आपकी आँखों में मेरे लिए प्रेम नहीं, प्रतिद्वंदिता का भाव होगा। तामसी साधनाओं की बुरी शक्तियां आपको नैतिक मार्ग से पथभ्रष्ट कर चुकी होंगी और आप जीवित अवस्था में ही एक पिशाच जैसा जीवन-यापन करने वाले बन चुके होंगे।”
अभयानन्द का जिस्म फड़फड़ाया। तात्पर्य ये था कि व्दिज के रहस्योद्घाटन ने उसे अचम्भित किया था।
“ये सत्य है भइया। मैं आपका वही व्दिज हूं, जिसे आपने शीत से बचाने के लिए अपना कम्बल उतारकर दे दिया था। आप मुझे नहीं पहचान पाए भइया, किन्तु मैं आपको तभी पहचान गया था, जब आप प्रथम बार शंकरगढ़ आए थे और मेरी दृष्टि आपके गले से लटके तांबे के छल्ले पर पड़ी थी, जिसे मां ने हम-दोनों को बुरी बलाओं से बचाने के लिए हमारे गले में डाला था।”
व्दिज ठहरा। उसने अपने गले से लटक रहे काले धागे को देखा। उसमें तांबे का एक ‘रिंग’ पिरोया हुआ था।
“मुझे नहीं ज्ञात कि उस शापित वन में क्या था, जिसने मेरे भइया को बड़ी निर्ममता से एक भयानक पिशाच में परिवर्तित कर दिया। मुझे नहीं ज्ञात कि उस वन में आपके साथ क्या हुआ था? कौन मिला था आपसे, जिसकी बला आपके ऊपर आ गयी और मां का दिया हुआ छल्ला भी उससे आपकी रक्षा नहीं कर
पाया।”
व्दिज सिसकने लगा। यदि अभयानन्द बोल पाने में सक्षम होता तो निःसंदेह यही पूछता-
‘यदि तुम मुझे पहचान गये थे तो तुमने इस बात का बोध क्यों नहीं कराया कि तुम मेरे बिछड़े हुए भाई हो?’
“मैं करा सकता था।” व्दिज ने मानो भाई के अन्तर्मन के प्रश्न को महसूस कर लिया- “मैं आपको बोध करा सकता था कि मैं ही आपका भाई हूं, किन्तु नहीं करा सका, क्योंकि आप वाममार्गी साधक बन चुके थे और मैं एक वाममार्गी साधक का भाई हूं, ये सत्य मेरे भविष्य पर एक प्रश्नचिह्न लगा देता। देवी-मन्दिर के पुजारी मेरी आध्यात्मिक उपलब्धियों पर प्रश्न उठाने लगते। उन्हें मेरे रक्त में दोष नजर आने लगता। मैं स्वार्थी बन गया था भइया। मैं आपके बिना जी सकता था क्योंकि बीस सालों में मैं इसका अभ्यस्त हो चुका था, किन्तु समाज व्दारा उपेक्षित होकर जीने का साहस मुझमें नहीं था। मैं आपका अपराधी हूं। मां और पिता का अपराधी हूं। मैंने ईश्वर के मार्ग से भटके हुए भाई को सद्मार्ग पर लाने का प्रयत्न नहीं किया। मैं मां को क्या मुंह दिखाऊंगा?”
व्दिज की आंखों में तैरता पानी अब गालों पर लुढ़कने लगा था। वह आगे भी कुछ कहने वाला था कि अचानक उसने अपने सिर पर किसी लाठी का प्रहार महसूस किया। प्रहार इतना भीषण था की व्दिज का चेतना पर से नियंत्रण हट गया और वह अंधकार के गहरे गर्त में डूबता चला गया।
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Re: Horror ख़ौफ़

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यश ने आंखें खोल दी। उसे अभी-अभी महसूस हुआ था कि किसी ने उसके सिर पर लाठी से प्रहार किया था। उसके जिस्म पर बीते हुए दिनों के कपड़े थे। किताबों में उसने ऐसे कपड़े सत्रहवीं शताब्दी के ब्राह्मणों के जिस्म पर देखे थे।
‘तो क्या यह मात्र एक सपना था?’
तरद्दूद में फंसे यश ने कमरे का मुआयना किया। कमरा भी सत्रहवीं शताब्दी का कोई स्टडीरूम लग रहा था। उसके सामने एक लड़की बैठी हुई थी, जिसके जिस्म पर भी उसी काल के कपड़े थे। उसके सामने भोजपत्र थे और हाथ में लकड़ी का कलम था। यश के जागने तक वह भोजपत्रों पर कुछ लिख रही थी, किन्तु अब यश को कौतुहलपूर्ण नेत्रों से घूरने लगी थी।
“म....मैं कहां हूं...?” यश ने उस लड़की से हकलाते हुए पूछा।
“ये कैसा प्रश्न है व्दिज? क्या आप अपनी शिष्या माया को भूल गये?” लड़की के आश्चर्य के भाव आए।
“माया...?” यश को अपने जेहन पर कोई दबाव महसूस हुआ। उसे ‘माया’
नाम कहीं सुना हुआ लगा। उस वक्त वह बुरी तरह चीख पड़ा, जब उसे महसूस हुआ कि उसके सिर पर एक भी बाल नहीं है। जिस्म पर हुए अनगिनत जख्मों की परवाह न करते हुए वह एक झटके से उठा और दौड़कर आइने के सामने पहुंचा।
“य...ये क्या हो रहा है मेरे साथ..? मुझ पर कैसा प्रयोग किया जा रहा है?”
यश चीखते हुए खुद को ‘माया’ कहने वाली लड़की की ओर पलटा। उसका सिर सफाचट हो चुका था। वहां पर बालों के तौर पर केवल मोटी शिखा भर थी, जो उसकी गर्दन तक लटक रही थी।
‘माया’ नाम से सम्बोधित लड़की यश की हरकतों का पैनी दृष्टि से मुआयना कर रही थी।
“तुम कुछ बोलती क्यों नहीं? मेरे साथ कैसा प्रयोग किया जा रहा है? मेरे भइया कहां हैं?”
माया ने इस बार भी कोई जवाब नहीं दिया तो यश उस पर झपट पड़ा। उसकी पतली गर्दन को उसने शिकंजे में जकड़ा और उस पर दबाव बढ़ाता हुआ गुर्राया- “कौन हो तुम?”
माया खौफजदा स्वर में चीखी। उसकी चीख के बाहर जाने भर की देरी थी कि कमरे का दरवाजा तेजी से खुला और साहिल, दिग्विजय समेत कई लोगों ने भीतर प्रवेश किया।
साहिल पर दृष्टि पड़ते ही यश, माया को छोड़कर उसकी ओर लपका।
“ये सब क्या हो रहा है भइया?”
“संस्कृति तुम ठीक तो हो?” दिग्विजय ने संस्कृति को लक्ष्य करके पूछा। वह खांसने लगी थी। उसकी आंखों में पानी भर आया था।
यश के सवाल का जवाब देने से पहले साहिल ने संस्कृति की ओर से देखा।
“आपका प्लान फेल हो चुका है साहिल। यश को कुछ नहीं याद आया।”
रिजल्ट की घोषणा सुनते ही सभी पर मानो बज्रपात हुआ।
दिग्विजय ने घड़ी की ओर देखा।
“अब क्या होगा? दस बजने में तो अब आधा घण्टा ही बचा है।”
“कैसा प्लान भइया?” यश भौचक्क- “ये लोग....ये लोग किस प्लान की बात कर रहे हैं?”
साहिल एक बार फिर खामोश रहा। उसका दिमाग तेजी से कुछ सोच रहा था।
उसके रोंगटे खड़े हो रहे थे। दिल बैठा जा रहा था। हौसले क्षण-प्रतिक्षण क्षीण पड़ते जा रहे थे। अंततः वह भी साधारण इंसान था और किसी पैशाचिक शक्ति से प्रत्यक्ष मुकाबले की कल्पना से उस पर भी दहशत हावी होती जा रही थी।
“होश में आने से पहले तुमने कोई विजन देखा था?” डॉक्टर पुष्कर त्रिवेदी ने
यश से पूछा।
“हां। वह विजन मैं पहले भी देख चुका हूं।”
“क्या था उस विजन में?”
“कोई आदमी था, जो बुरी तरह जले हुए एक आदमी के जख्मों पर मरहम लगा रहा था।”
“तुमने चेहरा देखा उसका?”
“नहीं। मेरी ओर उसकी पीठ थी।”
“तुमने ऐसा विजन पहले कब देखा था?”
“याद नहीं।”
“तुमने अपने जिस्म पर जख्म क्यों बनाए थे? तुमने दीवार पर ये क्यों लिखा कि मैं पापी हूं? तुमने अपने बेडरूम के फर्श पर अपने ही खून से बिना धड़ वाले आदमी का स्केच क्यों बनाया? आखिर उस वक्त चल क्या रहा था तुम्हारे दिमाग में?”
“मुझे नहीं मालूम। दिमाग के हर कोने से यही विचार आ रहा था कि मैं पापी हूं। विजन में नजर आने वाला आदमी भी जले हुए आदमी से यही कह रहा था।”
यश की बातें सुनने के बाद त्रिवेदी ने साहिल के लक्ष्य करके कहा- “हमारा प्लान सचमुच फेल हो गया साहिल। यश को मेमोरी रिगेन में जरा भी बढ़त नहीं मिली। हमें लगा था कि हम सेवेंटीन्थ सेंचुरी का एटमॉस्फियर क्रियेट करके, संस्कृति को यश के सामने माया के रूप में प्रस्तुत करके, उसे उसके पिछने जन्म की याद दिलाने में सफल हो जाएंगे, किन्तु ऐसा नहीं हुआ। हमारी मेहनत बेकार गयी और इसी के साथ किमती समय भी।”
माहौल बोझिल हो उठा। साहिल को गहरी सोच में डूबा देख, उसे डिस्टर्ब करने की किसी में हिम्मत नहीं हुई। यश झुंझलाया हुआ था। इसकी एक वजह ये भी थी कि केशरहित खोपड़ी के कारण उसे अपना चेहरा अजीबोगरीब लग रहा था।
“ये नहीं हो सकता।” साहिल ने हथेली पर मुक्का मारते हुए कहा- “हम एक शैतान से कैसे हार सकते हैं? मेरा प्लान कैसे फेल हो सकता है?”
साहिल का व्यग्र लहजा बता रहा था कि अब वह भी परिस्थितियों के आगे घुटने टेकने लगा था। यश के चेहरे पर उलझन गहराती जा रही थी। डॉक्टर त्रिवेदी भांप गये कि मौजूदा हालात उसकी मानसिक दशा के प्रतिकूल थे। उन्होंने लोगों को सम्बोधित करते हुए कहा- “हमें बाहर चलना चाहिए। यश को आराम की जरूरत है।”
सभी ने निर्देश का पालन किया। यश को नींद का इंजेक्शन देने के बाद डॉक्टर
त्रिवेदी भी बाहर आ गये।
“अब तो आप ही कोई उपाय बता सकते हैं कुलगुरु।” दिग्विजय कुलगुरु की ओर मुखातिब हुए।
“ब्रह्मराक्षस को नियंत्रित करने वाले अनुष्ठान अत्यन्त दुर्लभ हैं और उनका वर्णन वर्तमान युग के ग्रन्थों में मिलना असंभव है। हमारे पास आशा की एक किरण थी, किन्तु वह भी बुझ गयी। हमने सोचा था कि शंकरगढ़ के इतिहास में मौजूद प्रकरण से हमें वह अनुष्ठान ज्ञात हो जाएगा, जिसके जरिए उस समय अभयानन्द पर नियंत्रण पाया गया था, किन्तु अरुणा के हाथों की कठपुतली बने भीमा ने भोजपत्रों को गायब करके हमारी सोच को निरर्थक साबित कर दिया। साहिल ने संस्कृति को जात स्मरण की प्रक्रिया से गुजारकर उस प्रकरण को जानना चाहा, किन्तु उसमें भी विफलता ही हाथ लगी। और अब यश के सन्दर्भ में भी हम असफल रहे।”
“कोई तो उपाय होगा कुलगुरु।” सुजाता का स्वर रुआंसा हो उठा- “क्या ऐसा नहीं हो सकता कि हम अभयानन्द से अपने गुनाहों की माफी मांग ले?”
“जो गुनाह राजमहल वालों ने कभी किये ही नहीं, उसकी माफी कैसे मांग लेंगी आप? ये तो बुराई के सामने पराजित हो जाने की स्थिति होगी।”
“अगर हमारी ये पराजय संस्कृति की जान बचा सकती है, तो हम तैयार हैं। हम पराजित होने को भी तैयार हैं।”
“किन्तु इस बात को लेकर किस हद तक निश्चित हुआ जा सकता है भाभी कि अभयानन्द हमें उन गुनाहों के लिए माफ कर देगा, जो हमारे पूर्वजों ने कभी किये ही नहीं?”अरुणोदय ने कहा।
“न ही इस बात की गारण्टी है कि अभयानन्द हमें माफ कर देगा।” लम्बे समय से खामोश संस्कृति ने मुंह खोला- “और न ही इस बात की गारण्टी है कि मुझे हासिल कर लेने के बाद वह शंकरगढ़ पर कहर नहीं बरपाएगा। अब रास्ता केवल एक ही है।”
संस्कृति का लहजा निर्णायक हो उठा। वह साहिल और कुलगुरु समेत सभी की निगाहों का केन्द्रबिन्दु बन गयी। उसके चेहरे के भाव बयां कर रहे थे कि लम्बी
खामोशी के दौरान वह किसी निर्णय पर पहुंचने में कामायाब हो चुकी थी।
“किस रास्ते की बात कर रही हो तुम?” साहिल का आशंकित लहजा।
“मैं उसके पास जाने को तैयार हूं। इससे पहले कि एक वेयरवुल्फ कटार लेकर हम इंसानों की बस्ती में आए, मैं उसके पास चली जाऊंगी।”
“तुम्हें क्या लगता है, तुम्हारे सरेण्डर कर देने से वह मेरे भाई को छोड़ देगा? शंकरगढ़ के लोगों को बख्श देगा?”
“नहीं जानती कि वह ऐसा करेगा या नहीं, लेकिन फिर भी नरसंहार को रोकने के लिए नहीं तो कम से कम टालने के लिए मुझे ये कदम उठाना पड़ेगा। तब तक हो सकता है कि आपको कोई रास्ता मिल जाए।”
“और अगर रास्ता नहीं मिला तो?”
“तो भी हमारे हाथ में कुछ नहीं है। हमारी हालत बिन मांझी के किश्ती जैसी है, जिसका भविष्य दरिया की लहरों पर टिका होता है।”
साहिल कसमसा कर रह गया। बोलना चाहते हुए भी कुछ न बोल सका। उसने खुद को इतना विवश पहले कभी नहीं पाया था। संस्कृति की निगाह उस पर ठहरी हुई थी। उसे अभी तक विश्वास था कि वह अपने दृढ़ आत्मविश्वास, प्रबल इच्छाशक्ति और बौध्दिक कौशल से कोई न कोई रास्ता जरूर निकाल लेगा।
साहिल, यश के कमरे में जाने को मुड़ा।
“कहां जा रहे हो....।”
डॉक्टर त्रिवेदी ने उसे रोकना चाहा, किन्तु वह रुका नहीं।
कमरे में पहुंचकर उसने दरवाजा अन्दर से बन्द किया और लम्बी-लम्बी सांसें लेते हुए सोये हुए यश को घूरने लगा।
“तुम्हें याद करना होगा। तुम्हें तुम्हारा पिछला जन्म याद करना होगा।” उसने यश के पास पहुंचकर उसे झकझोरा, किन्तु दवा के प्रभाव से गहरी नींद में जा चुके यश की ओर से कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई। भावनाओं का आवेग थमने के बाद जब साहिल को होश आया तो वह यश को जगाने का प्रयास छोड़कर इधर-उधर निगाहें दौड़ाने लगा।
“कोई तो रास्ता जरूर होगा। उम्मीद की कोई किरण अभी भी कहीं बाकी होगी।”
साहिल की ईश्वर में अगाध श्रध्दा थी।
‘ईश्वर संकेतों के जरिए हमसे बात करता है। जो उसके संकेतों को समय रहते समझ लेते हैं, वे अपनी हार को भी जीत में बदल देते हैं।’
उपरोक्त वाक्य को साहिल ने अपने अनुभवों की डायरी के पहले पन्ने पर लिख रखा था।
“मुझे रास्ता दिखाओ। मुझे तुम्हारे मार्गदर्शन की जरूरत है।”
उसने आंखें बन्द करके अपने अंतरात्मा को सम्बोधित किया। सभी रास्ते बन्द हो जाने पर वह ऐसा ही करता था।
अचानक हवा के तेज झोंके से खिड़की के दरवाजे खड़खड़ाये और साहिल ने आंखें खोल दी।
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“हमें हमारे विजय श्री की पदचाप सुनाई दे रही है अरुणा।” अभयानन्द ने सर्द लहजे में कहा। वह मानवीय काया में था।
उसका रुख शंकरगढ़ के आबादी वाले क्षेत्र की ओर था। कुछ साये बड़ी तेजी से मरघट की ओर बढ़ रहे थे। वातावरण में फैली शुक्ल पक्ष की चाँदनी में परिवेश का हर एक कोना नुमाया हो रहा था। श्मशानेश्वर की प्रतिमा नित्य की अपेक्षा अधिक भयावह हो रही थी।
चूल्हे पर हांडी चढ़ाने की कोशिश छोड़कर अरुणा अपने स्थान से उठी और मरघट की ओर कदम बढ़ा रहे सायों पर दृष्टिपात करते हुए हिंसक स्वर में बोली- “आपकी प्रतीक्षा का अन्त हुआ प्रभु। और इसी के साथ हम कापालिकों की सैकड़ों साल पुरानी तपस्या भी पूर्ण हुई। आपको आपकी माया का सानिध्य प्राप्त होने वाला है। माया स्वयं आपको समर्पित होने हेतु चली आ रही है। उसने अपने ईश्वर की उपेक्षा कर दी है, इसलिए उसके दैवीय स्वास्तिक की शक्तियां निष्क्रिय हो चुकी होंगी।”
अभयानन्द भयानक ढंग से मुस्कुराते हुए अपनी जगह से हिला। मन्दिर के अहाते के एक छोर से चलकर दूसरे पर पहुंचा। दूधियां चाँदनी में हरकत करती उसकी परछायीं स्वयं अरुणा को भी डरावनी लगी। अभयानन्द के चेहरे पर ऐसे भाव थे, जैसे पूर्वजन्म की तृष्णा के तृप्त होने का अवसर निकट पाकर वह अपने हर्ष की अभिव्यक्ति में असमर्थ हो। उसकी डरावनी और हमेशा अपलक दृष्टि से शून्य को घूरते रहने वाली बड़ी-बड़ी रक्तिम आंखों में पैशाचिक चमक थी। सामान्य मानव का रूप भी उसकी रक्तपिपासु प्रवृत्ति को छिपा नहीं पा रहा था।
“यदि स्वयं हमारे भाई व्दिज ने हमारे साथ छल नहीं किया होता तो माया को देखकर भड़की हमारी तृष्णा तीन सौ वर्ष पूर्व उसी जन्म में तृप्त हो गयी होती, जिस जन्म में हमने महातांत्रिक अघोरा की काया में निवास करने वाले श्मशानेश्वर को हमारी काया में आमंत्रित करके शंकरगढ़ की धरती को रक्त से धो डाला था। व्दिज के छल ने ही हमें लम्बी प्रतीक्षा हेतु विवश किया। अघोरनाथ ने स्वास्तिक चिह्नों और गीता के श्लोकों को प्रहरी बनाकर हमारी आत्मा को हमारे शरीर की राख के साथ राजमहल के भूमिगत कक्ष में भटकने को विवश किया। अंतहीन रक्ततृष्णा से तीन सौ सालों तक तड़पे हैं हम। माया की कामाग्नि में तीन सौ सालों तक झुलसे हैं हम। इतनी सहजता से हमारा प्रतिशोध नहीं पूर्ण होगा अरुणा।” प्रतिशोध साधने के अभयानन्द के भीषण संकल्प से वातावरण भी थरथरा उठा। उसकी आंखों में क्रोध, घृणा और वहशत का सम्मिलित प्रभाव लहू का रूप लेकर तैरने लगा।
“माया स्वयं को हमें सौंपकर हमसे शंकरगढ़ की रक्षा का वचन लेने की
कामना के साथ हमारे शरण में आ रही है, किन्तु उस कमनीय सुन्दरी को आभास तक नहीं है कि उसके समर्पण के कुछ ही क्षणोपरान्त हम शंकरगढ़ के समस्त नागरिकों के रक्त से अपनी सदियों पुरानी तृष्णा मिटाने के अभियान का आरम्भ करेंगे।”
अभयानन्द क्षण भर के लिए ठहरा, तत्पश्चात दांत पीसकर शून्य को घूरते हुए कह उठा- “व्दिज! पूर्व जन्म में भी हम तेरे काल कलवित होने का निमित्त बने थे, इस जन्म में भी हम ही तुझे काल का ग्रास बनने को बाध्य करेंगे। इस जन्म में भी हम अपनी धधकती क्रोधाग्नि को तेरे रक्त से शांत करेंगे।”
अभयानन्द अपने कुत्सित इरादों की घोषणा करता रहा और प्रारब्ध से अनभिज्ञ साये क्षण-प्रतिक्षण निकट आते गये।
आगन्तुकों में चार लोग थे। संस्कृति, दिग्विजय, कुलगुरु और डॉक्टर त्रिवेदी। त्रिवेदी को साथ चलने को लेकर कुलगुरु की संस्तुति नहीं थी, किन्तु ये त्रिवेदी की जिद थी, जो वे उनके साथ मरघट तक आये थे। त्रिवेदी की दिलचस्पी उस पिशाच को देखने में थी, जिसके वजूद को आम जनमानस मिथक अथवा अंधविश्वास कहकर खारिज कर देता है। हालांकि त्रिवेदी के परामनोविज्ञान की सीमा वहीं से शुरू होती थी, जहां विज्ञान की सीमा समाप्त होती थी, किन्तु फिर भी ये उनके कैरियर में पहली दफा था कि वे एक पिशाच से रूबरू होने जा रहे थे।
अभयानन्द का रूप देख दिग्विजय भी भय से कांप उठे थे।
“यही है वह शापित ब्राह्मण, जिसने ईश्वर को ठुकरा कर श्मशानेश्वर को अपना शरीर सौंपा।” कुलगुरु, दिग्विजय के कान में फुसफुसाए किन्तु दिग्विजय का पूरा ध्यान अभयानन्द पर था, जिसकी भयानक आंखें संस्कृति पर ठहरी हुई थीं। वह खामोशी अख्तियार किये हुए अहाते में टहल रहा था, मानो आगन्तुकों को पहले बोलने हेतु आमंत्रित कर रहा था। अरुणा के चेहरे पर व्यंग्यात्मक भाव थे, जो दिग्विजय और कुलगुरु को स्पष्ट लहजे में बता रहे थे कि आज रात मरघट में जो होने वाला है, उसकी सूत्रधार वही है। डॉक्टर त्रिवेदी आंखों में अविश्वास का भाव लिए हुए अभयानन्द का मुआयना कर रहे थे। उन्हें अब भी यकीन नहीं था कि सामने खड़ा आठ फीट ऊंचा मनुष्य वास्तव में एक नरभेड़िया है।
संस्कृति आगे बढ़ी।
“मुझे तुम्हारी शर्त मंजूर है।” उसने अभयानन्द के मुखमण्डल पर नजरें गड़ाए हुए निर्भीक स्वर में कहा- “किन्तु ब्रह्मराक्षस योनि स्वीकार करने से पूर्व मेरी भी कुछ शर्तें हैं।”
“तुम पराजित हो चुकी हो माया। और पराजित मनुष्य शर्त रखने की दशा में नहीं होते हैं। तुम्हारी विकलता बता रही है कि तुमने हमारे दिये हुए समय को हमारे विरुध्द छल करने के असफल प्रयत्न में गंवा दिया है।” अभयानन्द के होठों पर विषाक्त मुस्कान थिरक उठी- “पराजित होकर भी इतना अभिमान कि साक्षात काल के सम्मुख खड़ी होकर उसे प्रतिबन्ध में बांधने की चेष्टा कर रही हो?”
खामोश खड़ी संस्कृति शैतान के चेहरे पर परवाज कर रहे अहंकार को देख रही थी। उसके चेहरे पर एक अलौकिक दीप्ती थी। किसी भी कोण से ऐसा नहीं प्रतीत हो रहा था कि वह विचलित थी। पिशाच के कहकहे उसके लिए भय का पर्याय नहीं बनने पाए थे।
“तुम हमें प्रसन्न करो माया। हमारी क्षुधा को तृप्त कर दो। यदि हम तृप्त हुए तो तुम्हारी विनती को पूर्ण करेंगे। किन्तु भूल कर भी अपनी विनती को प्रतिबन्ध की संज्ञा मत देना।”
अपनी बेटी के प्रति एक पिशाच के घिनौने इरादे सुन कर दिग्विजय का खून खौल उठा। अलौकिक शक्ति से मुकाबला न कर पाने की विवशता उनके चेहरे से क्रोध के रूप में प्रकट होने लगी। कुलगुरु गंभीर थे। उनके चेहरे पर भी संस्कृति की भांति कोई व्यथित भाव नहीं थे। डॉक्टर त्रिवेदी का मुंह खुला हुआ था। उनके चेहरे पर एक अविश्वसनीय घटना का साक्षी बनने का प्रबल कौतुहल व्याप्त था।
संस्कृति आगे बढ़ने को उद्यत थी कि दिग्विजय ने उसकी कलाई थाम ली।
“नहीं संस्कृति।” उनका लहजा भावुक था- “हम क्षत्रिय जरूर हैं किन्तु हमारा
कलेजा इतना मजबूत नहीं है कि अपनी निर्दोष और मासूम बेटी को एक हैवान को सौंप दें।”
“चित भी उसकी है पट भी उसकी है पापा।” संस्कृति के लहजे में भावुकता का पुट नहीं था- “मैं तो राजमहल से ही ये सोच कर चली थी कि खुद को इस पिशाच को सौंपना जुआ खेलने के बराबर है। आप मां भगवती पर भरोसा रखिये। वे हमें और शंकरगढ़ को कुछ नहीं होने देंगी।”
संस्कृति के अंतिम वाक्य में आत्मविश्वास की झलक थी। किसी अज्ञात कारण के वशीभूत होकर दिग्विजय ने उसकी कलाई छोड़ दी और इसी के साथ उसने कदम आगे बढ़ा दिया।
“अभयानन्द के अंकपाश में तुम्हारा स्वागत है सुन्दरी।” अभयानन्द ने दोनों बाहें फैलाकर अट्टहास किया- “किन्तु ठहरो। तुम्हारी कलाई के स्वास्तिक चिह्न का प्रबंध करना है हमें।”
संस्कृति चार कदम के फासले पर ठहर गयी। उसकी कलाई का स्वास्तिक चिह्न उसी प्रकार चमक उठा, जिस प्रकार तब चमका था, जब वह पहली दफा अभयानन्द के सामने गयी थी और साहिल की जान बचाई थी। अंतर था तो केवल इतना कि इस बार अभयानन्द के चेहरे पर भय की बजाय विजय का
अभिमान था।
“हा...हा...हा..!”
उसकी डरावनी हंसी मरघट में गूँज उठी। वातावरण में पहले से ही व्याप्त खौफ और भी गहरा हो गया। भेड़िये समवेत स्वर में इस कदर चिल्लाने लगे मानो आज की रात उनके लिए जश्न की रात हो। एक अतृप्त पिशाच अपनी तृप्ति से चंद क्षणों के फासले पर खड़ा था। बादलों का एक स्याह कतरा श्वेत चन्द्रमा पर मंडराया और अभयानन्द आकाश की ओर मुंह उठाकर भेड़िये के स्वर में चिंघाड़ उठा।
‘वुउऊऊ....!’
करीब पांच मिनट तक उसका स्वर परिवेश को गुंजाता रहा और फिर वहां उपस्थित साधारण मनुष्यों ने अपने जीवन की पहली अलौकिक घटना देखी।
अभयानन्द ने अपने मुंह से काले धुएं का गुब्बार इस प्रकार उगला मानो ईंट के भट्टे की चिमनी ने काला धुंआ उगला हो। धुंए का गुब्बार परिवेश में चक्कर काटता रहा और लोगों के देखते ही देखते एक नरभेड़िये की आकृति में बदल गया। अरुणा ने धुएं की उस आकृति के सम्मुख श्रद्धा से सिर झुका लिया।
डॉक्टर त्रिवेदी को महसूस हुआ मानो वे कोई भयानक स्वप्न देख रहे हों।
‘क्या यही है संसार से छुपा सृष्टि का रहस्य? क्या यही है पराविज्ञान की दुनिया का सच? क्या मैं स्थूल विज्ञान की सीमाओं को लांघ कर पराविज्ञान के संसार में दाखिल हो चुका हूँ?’
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साधू सा आलाप कर लेता हूँ ,
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मानव से देव ना बन जाऊं कहीं,,,,
बस यही सोचकर थोडा सा पाप भी कर लेता हूँ
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Re: Horror ख़ौफ़

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