Romance कुमकुम complete

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naik
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Re: Romance कुमकुम

Post by naik »

excellent update brother
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rajsharma
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Re: Romance कुमकुम

Post by rajsharma »

'संभालिए, आर्य-सम्राट!' द्रविड़राज बोले। इस समय उस प्रशस्त सुरंग में आर्य-सम्राट एवं द्रविड़राज परस्पर युद्ध में तल्लीन थे। घड़ी भर में कृपाण युद्ध हो रहा था, परन्तु अभी तक कोई भी किसी पर विजय नहीं पा सका था।

दोनों सम्राट नाना प्रकार के कौशल, युद्ध में प्रयोग कर रहे थे। महापुजारी एवं गुप्तचर खड़े थे, मौन होकर।

'अद्भुत है। आपका प्रतिघात अद्भुत है, द्रविड़राज।' आर्य सम्राट आश्चर्य से बोले।

'सावधान आर्य सम्राट।'

'द्रविड़राज का कृपाण प्रबल वेग से लपका आर्य-सम्राट की ओर परन्तु आर्य-सम्राट ने अतीव सावधानी से उस प्रतिघात का निवारण कर लिया।

'द्रविड़राज को विदित हो।' आर्य-सम्राट केवल एक ही व्यक्ति द्वारा पराजित हुए हैं—अन्यथा इस संसार का कोई वीर सम्राट को विजित नहीं कर सका है...।'

द्रविड़राज कुछ न बोले। उनका घात-प्रतिघात तीव्र वेग से चल रहा था।

आर्य-सम्राट अत्यंत ही विस्मयग्रस्त होकर बोले—'आश्चर्य है द्रविडराज, आपकी युद्ध प्रणाली एकदम वैसी ही है जैसी किरात नायक पर्णिक की।'

'किरात-नायक पर्णिक आश्चर्य-विस्फारित नेत्रों से आर्य-सम्राट की ओर देखते हुए बोले द्रविड़राज। _

'जी हां। उस युवक से मैं युद्ध कर चुका हूं वह भी आप ही जैसा घात-प्रतिघात करता है...इस संसार में केवल वही व्यक्ति है, जिसने आर्य-सम्राट को पराजित किया है।'

'उसने पराजित किया है आपको?' विस्मय से द्रविड़राज पूछ बैठे—'उस बच्चे ने आपको पराजित किया है? आश्चर्य!' और द्रविड़राज का कृपाण रुक गया—'मुझे अब आपसे युद्ध करने की आवश्यकता नहीं।'

'क्यों?'

'जब आप उस बच्चे को पराजित न कर सके तो मुझ पर विजय पाना आपकी दुराशा मात्र है।' द्रविड़राज ने कहा।

परन्तु न समझ सके आर्य-सम्माट द्रविड़राज की इस अद्भुत पहेली को। कुछ अस्थिर होकर उन्होंने शीघ्रता से कहा।
'हैं मेरे बाम नेत्र के इस तरह फड़कने का कारण....?' चलिए महापुजारी जी, अत्यधिक विलम्ब हो गया...अब रणक्षेत्र की ओर चलना परम आवश्यक है....सन्ध्याकाल सन्निकट है।'

'सन्निकट है...अब आपकी मृत्यु सन्निकट है युवराज सावधान !' पर्णिक ने कृपाण का भरपूर घात किया युवराज पर, परन्तु युवराज ने अतीव शीघ्रतापूर्वक उस घात को रोक लिया।

जब दोनों विकट प्रतिद्वन्द्वी बाण-युद्ध में एक-दूसरे पर विजय। प्राप्त कर सके, तो कृपाण-युद्ध में तल्लीन हो गये।

आर्य एवं द्रविड़ सेनायें अपने संचालकों का यह विकट युद्ध देखकर देखकर अतीव उत्साह के साथ युद्ध कर रही थीं।

'तुमने हमारे कुल के पवित्र रत्नाहार की चोरी की थी पर्णिक तुम्हारा अपराध अक्षम्य है।' युवराज ने कहा।

'मैंने आपका रत्नहार चुराया है, युवराज...!' पर्णिक व्यंग्यपूर्ण स्वर में हुंकार उठा —'असत्य है यह बात-मेरी माताजी का वह रत्नहार था। आप असत्य भाषण करने का दुस्साह न करें।

'दुस्साहस...!' क्रोध से कांप उठे युवराज और उनका कृपाण वायुमंडल में नृत्य कर उठा तीन वेग से।

'अस्त्र-संचालन परिहास नहीं है युवराज। पर्णिक को सरलता से परास्त करना परिहास नहीं...।' पर्णिक ने सावधान किया।

'साबधान किरात कुमार ... !' युवराज गरजे—'मेरा घात सम्भालो।' युवराज का कृपाण पर्णिक की ओर लपका। पर्णिक ने अपना कृपाण, घात के निवारणार्थ युवराज के कृपाण के आगे कर दिया। परन्तु युवराज का प्रहार इतने प्रबल वेग से हुआ कि पर्णिक का कृपाण भयानक झन्नाटे के साथ उसके हाथों से छूटकर दूर जा गिरा।

युवराज का कृपाण सन्निकट ही था कि पर्णिक के वक्ष में प्रवेश कर अपनी रक्त-पिपासा शांत करता परन्तु न जाने क्यों युवराज का हाथ एकाएक कांप गया।

उनका हृदय करुण चीत्कार कर उठा। 'रुक क्यों गये युवराज...?' पर्णिक ने गर्वयुक्त वाणी में कहा—'शत्रु की दया का मैं आकांक्षी नहीं। आप विजेता हैं—मेरे रक्त से अपनी कृपाण की प्यास बुझा लें...आप न जानते होंगे युवराज–कि पर्णिक की माता ने उसे वीरतापूर्वक मरना सिखाया है।'

'और तुम नहीं जानते होंगे, पर्णिक युवराज बोले-'कि युवराज के पिता ने उन्हें निर्बलों को क्षमा कर देने की सीख दी है।'
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साधू सा आलाप कर लेता हूँ ,
मंदिर जाकर जाप भी कर लेता हूँ ..
मानव से देव ना बन जाऊं कहीं,,,,
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Re: Romance कुमकुम

Post by rajsharma »

"धन्य हैं आपके पिता...।'

'केवल मेरे ही पिता नहीं, तुम्हारी भी पिता-जम्बद्वीप के प्रत्येक प्राणी के पिता है वे।' युवराज बोले-'अपना कृपाण उठाओ...अभी तुमसे मेरी रणलालसा शांत नहीं हुई है....।'

युवराज ने पर्णिक का कृपाण स्वयं उठाकर उसके हाथ में दे दिया।

'युवराज बड़े सहृदय हैं...।' पर्णिक ने कहा। दोनों दुर्दान्त प्रतिद्वन्द्वी कृपाण युद्ध में संलग्न हो गये।

पुन: दोनों की मुखाकृति पर क्रोध की लालिमा दौड़ गई और दोनों एक-दूसरे पर भयंकर घात-प्रतिघात करने लगे।
उसी समय उच्च-स्वर में एक श्रृंगाल आर्तनाद कर उठा।
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श्रृंगाल आर्तनाद कर रहे हैं अंग फड़क रहे हैं...सर्वनाश होने वाला है, चक्रवाल।'

'महामाया का स्मरण करो...।' चक्रवाल ने गंभीर स्वर में कहा। इस समय रथ घनघोर जंगल के मध्य से चला जा रहा था। स्वयं चक्रवाल रथ संचालन कर रहा था और भीतर बैठी थी किन्नरी निहारिका। उसका हृदय तीव्रगति से स्पन्दित हो रहा था।

"रथ और वेग से चलाओ चक्रवाल...। संध्या सन्निकट है. न जाने क्यों हृदय-प्रदेश पर एक अनिर्वचनीय भय की सृष्टि होती जा रही है। मुझे शीघ्र से शीघ्र रणक्षेत्र में पहुंचा दो। मैं उन्हें एक बार देखना चाहती हूं-केवल एक बार।' उसके नेत्रों में अश्रु-कण झिलमिला उठे थे।

'यह तुम क्या कह रही हो...?'
'ऐसा प्रतीत होता है, चक्रवाल ! मानो शीघ्र ही मेरा सर्वनाश होना चाहता है। तुम मेरे ऊपर दया करो। रथ और बैग से ले चलो।'

चक्रवाल ने अश्वों को चाबुक मारी। अश्व तीव्र गति से भाग चला। रथ के भारी पहियों द्वारा उठता धड-धड़ शब्द शून्य बनस्थली को कम्पित करने लगा।
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'जी चाहता है, सदैव इसी प्रकार हमारा तुम्हारा युद्ध होता रहे।' युवराज कहते रहे थे –'दिवस के प्रोज्जवल प्रकाश में, रात्रि के प्रगाढ़ अंधकार में, ग्रीष्म की विदग्धकारी ऊष्णता में, वर्षा के अविरल बिन्दुपात में एवं हेमन्त की शीतलता में हमारे ये कृपाण इसी प्रकार संचालित रहें। ओह! कितना अच्छा प्रतीत हो रहा है, तुमसे युद्ध करना पर्णिक, अद्भुत हो तुम...?'

'युवराज अन्यमनस्क क्यों होते जा रहे हैं?'

'नहीं तो...अब तो हम अनन्त काल तक युद्ध करने में तल्लीन रहेंगे। वह देखो, सूर्य की अंतिम किरणे अस्तांचल की ओट में अन्तर्हित होने जा रही हैं। प्रतीच्याकाश पर रक्त रंजित प्रदोष का नृत्य क्या ही मनोरम प्रतीत हो रहा है। तुम देख रहे हो न...?'
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-- 'देख रही हूं, वह युद्ध शिविर है न?' पर्णिक की माता ने सामने के शिविरों की और संकेत कर दुर्मुख से पूछा। दुर्मुख ने मस्तक हिलाकर स्वीकृति दी। दोनों इस समय आर्य-शिविर के सन्निकट आ पहुंचे थे। 'मुझे शीघ्र उस स्थल पर ले चलो, जहां युद्ध हो रहा है।' पर्णिक की माता ने कहा और घोड़े से उतर पड़ी बह।

द्रविड़राज युगपाणि भी आर्य सम्राट एवं महापुजारी के साथ अभी-अभी ही गुप्त मार्ग से बाहर निकलकर युद्ध शिविर में पहुंचे थे।

पर्णिक की माता की दृष्टि द्रविड़राज पर घड़ी और द्रविड़राज की दृष्टि पर्णिक की माता पर। एक क्षण के लिए दोनों स्तब्ध रह गये 'राजमहिषी...!' आर्त स्वर में पुकारा द्रविड़राज ने।

'नाथ...।' दौड़कर पर्णिक की माता गिर पड़ी उनके चरणों पर।

'प्रिये...।' हर्षतिरेक से द्रविड़राज के मुख से शब्द ही नहीं निकल रहे थे—'मुझे क्षमा कर दो देवी।'

वे थीं राजमहिषी त्रिधारा।
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Re: Romance कुमकुम

Post by rajsharma »

- - 'अब रहने दीजिये युवराज। संध्या का आगमन हो रहा है, अब युद्ध स्थगित कर देना चाहिये।' पर्णिक ने कहा।

"अब तो युद्ध रुकना असम्भव है पर्णिक संध्या का आगमन एवं रात्रि का प्रगाढ़ अंधकार इस युद्ध में बाधा नहीं पहुंचा सकते...।' युवराज ने कहा।

उन पर न जाने कैसा उन्माद-सा छा गया था। पर्णिक धीरे-धीरे क्रुद्ध होता जा रहा था, युवराज का युद्ध के लिए हठ देखकर।

'अब बचाना युवराज।' वह चिल्लाया और उसका कृपाण प्रलयंकर गति से युवराज की ओर बढ़ा।

युवरजा इस समय कुछ भूले-से हो रहे थे। उनके नेत्र पश्चिमाकाश की अरुणिमा पर केन्द्रित हो रहे थे। पर्णिक की तड़प सुनकर वे सचेत हुए। उन्होंने प्रतिघात के अपना कृपाण सम्भाला। उसी समय दौड़कर आते द्रविड़राज का स्वर गूंज उठा युद्धस्थली में— 'युवराज रोक लो कृपाण...!'

झटके के साथ युवराज का कृपाण रुक गया, अपने पिता का स्वर सुनकर। परन्तु पर्णिक का कृपाण न रुका। तीव्र वेग से आते हुए विकराल कृपाण ने युवराज के वक्ष का चुम्बन कर ही लिया। उनके मुख से एक करुण चीत्कार निकलकर दिशाओं को प्रताड़ित कर उठी। वे चेतनाहीन होकर भूमि पर गिर पड़े—कटे हुए वृक्ष की तरह। घाव भयानक था।

'क्या हुआ...? क्या हुआ...?'द्रविड़राज दौड़े आये युवराज के पास। पर्णिक की माता भी आई। देखा—युवराज का जीवन प्रदीप बुझने के समीप था।

'युवराज! मेरे लाल...।' द्रविड़राज रो पड़े। __

'पिताजी...?' युवराज ने नेत्र खोले—'मैंने अपने विपक्षी पर विजय पाई है। द्रविडराज की उज्जवल कीर्ति पर कलंक-कालिमा नहीं लगाने दी है...मैंने उसे निर्बल जानकर क्षमा कर दिया है।

'कौन है तुम्हारा वह विपक्षी युवराज?

"वह है पिताजी...। यह ... यही एक दिन जंगल में मुझसे मिला था...।' युवराज ने अपने अशक्त करों से पर्णिक की और संकेत किया, जो इस समय प्रस्तरवत् खड़ा आश्चर्यचकित नेत्रों से आश्चर्यमय घटना देख रहा था।

'यही है तुम्हारा विपक्षी...?' द्रविड़राज हाय कर उठे—'वत्स! यह तुम्हारा लघु भ्राता है।'

'लघु भ्राता...।' युवराज कांप उठे।

उन्होंने उठने का प्रयत्न किया, परन्तु चेतनाहीन होकर गिर पड़े। पर्णिक ने झपटकर उन्हें संभाला। धीरे-धीरे युवराज ने पुन: अपने नेत्र खोले।

पर्णिक ने देखा, उन नेत्रों में मृत्यु की स्पष्ट छाया विराजमान है। अब जीवन की आशा दुराशामात्र है।

"पर्णिक!' युवराज ने कांपते स्वर में पुकारा। 'भ्रातृवर...' रो पड़ा अभागा पर्णिक—'मुझे क्षमा करो भ्रातृवर।'

और युवराज ने पर्णिक के मस्तक पर अपना शिथिल हाथ रख दिया। पर्णिक की माता चेतनाहीन होकर एक और लुढ़की पड़ी थी। महापुजारी उन्हें चेतना में लाने का प्रयत्न कर रहे थे।

'आपने हमें विनष्ट कर दिया आर्य-सम्राट!' द्रविड़राज बोले। आर्य-सम्राट सिक्त नेत्रों से यह सारा दृश्य देखते हुए खड़े थे।

'हम क्षमा चाहते हैं द्रविड़राज। हम हारे, आप जीते। कल हमारी सेना जम्बूद्वीप से प्रस्थान कर देगी | आर्य सम्राट तिग्मांशु बोले।

'नहीं आर्य सम्राट! आपने जिस लालसा से जम्बूद्वीप में पदार्पण किया है वह अवश्य पूर्ण होगी...यह देखिये, आज युगों की असहनीय ज्वाला में विदग्ध होने के पश्चात यह देवी मुझे प्राप्त हुई है। एक दिन मैंने अपने इसी मुख द्वारा इन्हें आजन्म निर्वासन की दण्डाज्ञा सुनाई थी और आज इसी अपने अधूरे न्याय पर पश्चाताप कर रहा हूँ। इन्होंने न्याय धर्म का पालन किया था, परन्तु पति धर्म का पालन में न कर सका था। आज इस देवी के साथ में भी निर्वासन दण्ड स्वीकार कर पति धर्म पालन करूंगा...आज से यह सारा विशाल साम्राज्य आपका है और वह मेरा पर्णिक आपका सहकारी...आप भिक्षुक हैं...मैंने आपको अपना विशाल साम्राज्य एवं वीर पुत्र प्रदान कर दिया। द्वार पर आये हुए भिक्षुक को द्रविड़राज निराश नहीं लौटाते, आर्य-सम्राट! अब हम दोनों पति-पत्नी जंगलों में विचरण करते हुए निर्वासन दण्ड की पूर्ति करेंगे।'

और द्रविड़राज फूट-फूटकर रो पड़े। आर्य सम्राट के नेत्रों से भी अश्नु-बिन्दु गिरकर भूमि का सिंचन करने लगे। --

नोट : यह इतिहास प्रसिद्ध बात है कि द्रविड़ और आर्यों के युद्ध के पश्चात् यह सारा देश आर्यों के हाथ में आ गया था। इसे हमने इस प्रकार दिखाया है कि द्रविड़राज ने आर्य सम्राट को साम्राज्य प्रदान कर दिया। पाठकों। यह उपन्यास ऐतिहासिक प्रतीत होगा, परन्तु वास्तव में ऐतिहासिक नहीं है—हिस्टोरीकल टच मात्र दिया गया है इस उपन्यास में जिस काल का वर्णन है, यदि उस काल के इतिहास से पाठक मिलान करने लगेंगे, तो इसमें बहुत-सी अत्युक्तियां पायेंगे।
—लेखक

द्रविड़राज के नेत्रों की ज्योति क्षीण होती जा रही थी। उनकी म्लान मुखाकृति पर मृत्यु के क्रूर लक्षण दृष्टिगत होने लगे थे। उनके मरणासन्न हृदय में भयानक अंधकार प्रसार पाता जा रहा था। उसी प्रगाढ़ अंधकार में युवराज ने देखा कलामयी किन्नरी की मनोहारी प्रतिमा। युवराज का शरीर उस प्रतिमा को देखकर प्रकम्पित हो उठा। एक क्षण के लिए उनके नेत्रों की ज्योति लौट आई।

उन्होंने देखा, किन्नरी निहारिका विह्वल भंगिमा लिए उसी ओर एक रथ पर से उतरकर दौड़ी जा रही है और गायक चक्रवाल भी उसके पीछे भागा आ रहा है। उसके नेत्रों से अश्रुकण लुढ़ककर उसके गालों को भिगो रहे हैं।
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Re: Romance कुमकुम

Post by rajsharma »

'किन्नरी!' युवराज के मुख से अस्फुट स्वर निकले।

'देव!' किन्नरी हाहाकार करती हुई युवराज के रक्तरंजित शरीर पर पछाड़ खाकर गिर पीड़ी।

'किन्नरी! कलामयी!'

'देव...!' यह क्या हो गया, देव। तुमने मुझसे ऐसा छल क्यों किया...?' किन्नरी ने अपनी हथेलियों से युवराज का मुख पकड़ लिया—'बोलो देव! मुझे असहाय बनाकर तुम्हें क्या मिला? मुझे विनष्ट कर देने में तुम कौन-सी निधि पा गये—मुझसे नाता तोड़कर तुमने कौन सा संसार बसा लिया...?' किन्नरी के आरक्त कपोल अश्रु धारा से भीग गये थे।

चक्रवाल एक वृक्ष के नीचे अश्रुपूर्ण नेत्रों से खड़ा था। 'तुम मुझे छोड़कर जा रहे हो, सदैव के लिए जा रहे हो...कहां जा रहे हो, देव...न जाओ। मेरा संसार नष्ट कर, तुम अपना दूसरा संसार बसाने न जाओ।'

'जाना ही होगा किन्नरी...।' युवराज अत्यंत शिथिल वाणी में बोले—'यमदूत मेरा आह्वान कर रहे हैं...मैं प्रसन्न हूं-अत्यंत प्रसन्न हूं, शोक केवल इस बात का है कि नन्दन कानन में समग्र ऐश्वर्य की प्राप्ति करके भी, तुम्हारी मधुर मूर्ति का दर्शन न कर सकुंगा-जहां चन्द्र एवं तारागणों की कला अवलोकन करने को मिलेगी-वहां तुम्हारी मुग्धकारी कला न मिल सकेगी देखने को....।'

'तुम जो रहे हो स्वर्गीय अप्सराओं की कला का रसास्वादन करने, तुम भूल जाओगे इस भू किन्नरी की कला को? जाओ। मेरा संसार विनष्ट कर देने से, यदि तुम्हारा संसार हरा-भरा हो सके तो जाओ। मेरे हृदय में अनिर्वचनीय आनंद की सृष्टि कर, अब सदैव के लिए चले जा रहे हो, मधुर प्रेम का नाता तुड़ाकर...।'

'तुड़ाकर सभी से मधुर प्रेम नाता।
चढ़ा भाग्य की नाव पर बहा जा रहा हूं।' चक्रवाल गाने में तन्मय था।

ऐसा न कहो न कहो, कलामयी! मेरा रोम-रोम तुम्हारी सर्वतोमुखी कला द्वारा परिपूर्ण है। मैं ही जानता हूं कि तुम्हें सदैव के लिए त्याग देने में मुझे कितनी वेदना हो रही है, मैं कितना व्यथित हूं।'

युवराज के मुख से रक्त की धार बह चली, परन्तु वे शिथिल एवं अस्फुट-स्वर में कहते ही गये—'तुम्हारी कला! ओह...उसका स्मरण न दिलाओ, कलामयी। तुम्हारी कला पर यदि सब-कुछ निछावर कर दूं तो भी वह पूर्ण नहीं हो सकती। जब तुम अपनी समग्र प्रभा का एकत्रीकरण कर, अपनी सम्पूर्ण कला का संचरण कर, महामाया के समक्ष नृत्य करती थीं तो मुझे ऐसा लगता था मानो तुम्हारे अवयव के संचालन के साथ जगत के यावत कार्य संचालित हो रहे हैं, मानो तुम्हारे नृत्य के साथ-साथ प्रकृति नटी का समस्त सौंदर्य नर्तन करने में तल्लीन है। मैं तुम्हारा यह अपूर्व नर्तन अवलोकन करते-करते मुग्ध हो जाता था, आत्मविस्मृत-सा हो उठता था, उस समय तुम कलामयी ! सुंदर प्रतिमा-सी प्रतीत होती थी। देवी-सा प्रोज्जवल मुख हो जाता था तुम्हारा। मानो स्वयं जगत् रचयित्री देवी महामाया अपने अपूर्व नर्तन से अपनी शक्ति की प्रभा बिखेर रह हो। उस समय मैं स्वयं मातेश्वरी महामाया का प्रतिरूप मानकर, तुम्हें भक्तिपूर्वक सादर प्रणाम करता था। तुम्हारा सौंदर्य मातेश्वरी महामाया-सा देदीप्यमान है, कलामयी? जहाँ उपासना की सद्भावना विराजमान है, वहां कलुषता की कालिमा का आभास कहां ...।'

युवराज की वाणी अवरुद्ध होनी लगी। उनके मुख पर आसन्न मृत्यु के स्पष्ट लक्षण प्रकट होने लगे। फिर भी उनके मुख से अत्यंत क्षीण स्वर निकला—'अब विदा दो कलामयी...।'

उनके नेत्रों से अश्रुकण प्रवाहित हो चले। निहारिका उनके मुख की ओर अपलक नयनों से निहारती रही। निहारो नयीं प्रयेसी राह पर अब, सदा के लिए मैं चला जा रहा हूं। तुड़ाकर सभी से मधुर प्रेम नाता, चढ़ा भाग्य की नाव पर बहा जा रहा हूं। एक वृक्ष के नीचे बैठा हुआ चक्रवाल सिक्त स्वर में गा रहा था। किन्नरी ने अपने आंचल द्वारा युवराज के अथकण पोंछ पुन: आंचल के छोर से थोड़ा-सा कुंकुम निकालकर युवराज के ललाट पर लगा दिया।

युवराज का शरीर तीव्र वेग से कम्पित हो उठा। वायु गर्जन करता हुआ प्रवाहित होने लगा। वृक्षों पर बैठे हुए पक्षीगण आर्तनाद करते हुए दूर उड़ चले। किन्नरी निहारिका युवराज के निर्जीव शरीर पर चेतनाहीन होकर गिर पड़ी। शीघ्र ही चंदन की चिता तैयार की गई। उस पर युवराज का निर्जीव शरीर रख दिया गया। रुदन करते हुए पर्णिक ने अपने देवतुल्य भ्राता की चिता में अग्नि दी। अश्नुपूर्ण नेत्रों से महापुजारी पौत्तालिक ने महामाया का प्रार्थना की एवं शांति पाठ पड़ा। वायु का वेग पाकर चिता की प्रखर ज्वाला धू-धू कर प्रज्जवलित हो उठी।

और उसी के साथ-साथ प्रज्जवलित हो उठा निहारिका का सन्तप्त हृदय। उसने अपने कंठ प्रदेश से वह रत्नमाला एवं अनामिका से मुद्रिका निकाली, जिसे स्वयं युवराज नारिकेल ने उसे प्रदान किया था।

एक क्षण तक वह कुछ विचार करती रही, तत्पश्चात हाथ बढ़ाकर उसने वे दोनों वस्तुएं उस प्रज्जवलित चिता की गोद में फेंक दी।
चक्रवाल देख रहा था। वह दौड़कर उसके पास आया—'यह क्या किया तुमने।' वह बोला—'उनके अनुपम उपहारों को अपने से विलग क्यों कर दिया तुमने, निहारिका।'

'जाने दो...जाने दो चक्रवाल...।' निहारिका रो पड़ी—'इन वस्तुओं को उनके साथ ही जाने दो। मेरे पास रहकर ये सदा मुझे सन्तप्त करती रहनीं।'

चक्रवाल कुछ न बोला। उसके भी नेत्र अश्नुपूर्ण थे।

'चलो चक्रवाल... ! यहां से कहीं दूर निकल चलो...?' मैं यहां नहीं रह सकती—रहूं भी तो किसके लिए।'

'चलोगी...?' चक्रवाल ने शून्य दृष्टि से किन्नरी के मुख की ओर देखा—'व्योम की ओर चलोगी निहारिका।

'चलूंगी। जहां कहीं भी ले चलो।' निहारिका ने कहा।

चक्रवाल रथ की ओर बढ़ा।
निहारिका ने उसका अनुसरण किया। दोनों आकर रथ पर आकर बैठ गये। रथ तीव्र गति से भयानक बनस्थली का वक्ष भेदन करता हुआ भाग चला। चक्रवाल की मधुर स्वर-लहरी रुदन स्वर में परिवर्तित होकर अलाप उठी तुड़ाकर सभी से मधुर प्रेम नाता। चढ़ा भाग्य की नाव पर बहा जा रहा हूं। उस समय भगवान अंशुमाली ने अस्तांचल के कोड में अपना प्रोज्जवल मुख छिपा लिया था। वृक्षों के हरित पल्लव वेदनापूर्ण गति से हिल रहे थे। प्रतीच्याकाश पर रक्तरंजित लालिमा अभी तक विद्यमान थी मानो प्रकृति किन्नरी के कलापूर्ण करों ने शुभ्र नभमण्डल के देदीप्यमान ललाट पर कुंकुम की एक अरुणिम रेखा खींच दी हो।



*** समाप्त ***
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