Romance कुमकुम complete

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Re: Romance कुमकुम

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(^%$^-1rs((7)
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Re: Romance कुमकुम

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रात्रिपर्यन्त पर्णिक विचारों में तल्लीन रहा। प्रात:काल वह एक सघन वृक्ष के नीचे बैठकर प्रात:कालीन वायु का सेवन कर रहा था। तभी एक आर्य सैनिक ने आकर निवेदन किया—'सम्राट का कहीं पता नहीं। अर्धरात्रि से ही वे लुप्त हैं। प्रहरी कह रहे हैं कि उन्होंने अर्द्धरात्रि से ही वे लुप्त हैं प्रहरी कह रहे हैं कि उन्होंने लगभग अर्द्धरात्रि को एक गुप्तचर के साथ, पैदल ही दक्षिण की और उन्हें जाते हुए देखा था।'

पर्णिक पर जैसे वज्रपात हुआ, यह अघटित घटना सुनकर। कल उसका रत्नहार गया और आज सम्राट भी। 'तुमने आस-पास खोज की?' पूछा पर्णिक ने।

'जी हां, गुप्तचरों ने आसपास का सारा वन्य-प्रदेश छान डाला, परन्तु निराशा ही हाथ लगी।'

'अभी तक इस बात को कितने लोग जानते हैं ?'

'केवल कुछ लोग...।' सैनिक ने उत्तर दिया।

'देखो यह बात फैलने न पाये, नहीं तो आर्य सेना शिथिल पड़ जायेगी। तुम युद्ध की तैयारी करो और दुर्मुख को शीघ्र ही मेरे पास भेज दो।' पर्णिक ने कहा।

सैनिक चला गया। पर्णिक व्यग्रतापूर्वक उसी सघन वृक्ष के नीचे टहलता रहा। दुर्मुख किरात-नायक पर्णिक का मित्र और उसका प्रमुख सहायक था। उसने पर्णिक की म्लान मुखाकृति को देखकर व्यग्रता से पूछा
'क्या है पर्णिक ? क्या बात है?'

'देखो।' पर्णिक ने कहा—'युद्ध का परिणाम भयंकर होता जा रहा है। माताजी से मैं स्वदेश रक्षा की प्रतिज्ञा करके आया हूं, परन्तु यहां आकर आर्य सम्राट का सहायक बन बैठा। कितनी बड़ी त्रुटि हई मुझसे। कल शत्रु सेना के हाथ मेरे गले का वह पवित्र रत्नहार पड़ गया, आज आर्य सम्राट तिग्मांशु न जाने कहां लुप्त हो गये। मुझे तो ऐसा लगता है कि शीघ्र ही कोई भयंकर घटना होने वाली है।

'आर्य सम्राट की सहायता तुम्हें नहीं करनी चाहिये थी नायक'

'कैसे न करता, दुर्मुख। अपने पास याचनार्थ आये हुए भिखारी का तिरस्कार कैसे करता। आर्य सम्राट ने मेरी माता पर आक्षेप किया था-भला कैसे सहन कर सकता था यह...। केवल माताजी के सम्मान की रक्षार्थ मैंने आर्य सम्राट को सहायता देना स्वीकार किया था।'

'तो अब मेरे लिये क्या आज्ञा है?'

'तुम अभी इसी समय माताजी के पास जाओ। केवल तीन-चार घड़ी का मार्ग है। उनसे मेरा प्रणाम कहकर यहां का समाचार निवेदन कर देना कि वह पवित्र रत्नहार शत्रु सेना के हाथ पड़ गया है। उनसे यह भी पूछ लेना कि अब मेरे लिए क्या आज्ञा है? यथाशक्ति, अतिशीघ्र आने का प्रयत्न करना। मेरे हृदय में जाने क्यों झंझावात-सा उठ खड़ा हुआ है।'

दुर्मुख शीघ्र ही अश्वारूढ़ होकर चल पड़ा। उस समय सूर्य की सुनहरी किरणें वृक्षों की चोटियों पर नृत्य करने लगी थीं।
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साधू सा आलाप कर लेता हूँ ,
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Re: Romance कुमकुम

Post by rajsharma »

तेरह
इतस्ततः शरण खोजने लग
विद्युत-रेखा से आलोकित आलोक में मेघाच्छन्न नभ मण्डल ने अपना कृष्णकाय मुख देखा।
चमचम चमकती हुई मणिमाला जैसी तारकावली ने श्यामल मेघों के कोड़ में अपना प्रोज्वल मुख छिपा लिया।
प्रबल वेगवान समीरण, कर्कश ध्वनि करता हुआ उस समय पुष्पपुर नगरी पर हाहाकार करने लगा।
मानवी संसार इस प्रबल झंझावात से त्रस्त एवं व्यग्र होकर इतस्तत: शरण खोजने लगा। मेघावरण से छन-छनकर आती हुई मुक्ता सदृश जल-बिन्दुएं अबाध गति से भूमि का सिंचन करने लगीं।
वृक्ष अपनी शाखा-प्रशाखा समेत झूमने लगे। हिमराज के सर्वोच्च शिखर पर से आता हुआ प्रबलानिल, मानो मृत्यु का संदेश लेकर द्वार-द्वार घूमने लगा।

समग्र पुष्पपुर नगरी पर भयंकर वर्षा हो रही थी। घनघोर एवं पिशाचाकार मेघों के प्रलयंकारी गर्जन से राजप्रकोष्ठ की दीवारें प्रकम्पित हो रही थीं।

महामाया मंदिर के स्वर्ण-निर्मित घंटे वायु का प्रबल वेग पाकर भयंकर गति से हिल पड़ते थे और उनके द्वारा उत्पन्न टन्न-टन्न शब्द उस विकट रात्रि में सुदूर तक प्रसारित होकर एक भयंकर वातावरण की सृष्टि कर देते थे।

अर्धरात्रि की ऐसी भयानक स्थिति में जबकि पुष्पपुर राजप्रकोष्ठ के सभी लोग निद्राभिभूत थे एवं महामाया के सुविशाल मंदिर में सघन अंधकार आच्छादित था, चक्रवाल के प्रकोष्ठ की खिड़की खुली थी और उस पर बैठा हुआ महान कलाकार अपनी कला में तन्मय था।

उसके प्रकोष्ठ का द्वार खुला था, जिसमें वर्षा के जलकण भीतर प्रवेश कर भूमि पर बिछे कालीन को भिगो रहे थे, परन्तु उसे मानो किसी बात की चिंता ही न थी।

उसके नेत्रद्वय खिड़की के वहिप्रदेश के घनीभूत अंधकार में न जाने किसे ढूंढने का प्रयत्न कर रहे थे, परन्तु कभी-कभी विद्युत-प्रकाश में नन्हीं-नन्हीं जल-बिन्दुओं के गिरने से उत्पन्न बुलबुलों के अतिरिक्त कुछ दृष्टिगोचर नहीं होता था।

कैवल उसकी मधुर स्वर लहरी वर्षा के घोर रव में मिलकर विलीन हुई जा रही थी। 'घन उमड़-घुमड़कर बरस रहे, लोचन उन बिन तरस रहे।'
चक्रवाल जाने कब तक अपनी स्वर साधना में तल्लीन रहता, यदि उसे दीपशिक्षा के कम्पित आलोक में प्रकोष्ठ के द्वार पर किसी की छाया न दृष्टिगोर हुई होती।।

चलवाल का हृदय तीव्र वेग से सिर उठा—अनु-सिक्त किन्नरी निहारिका को द्वार पर खड़ी देखकर।

किन्नरी प्रकोष्ठ के भीतर चली आई। चक्रवाल ने देखा उसका सारा शरीर भीगा हुआ था और वस्त्रों से टप-टप जल चू रहा था। 'किन्नरी...!' कित स्वर में बोला चक्रवाल—'कहां से आ रही हो तुम...?'

'राजोद्यान से आ रही हूं....।' किन्नरी ने केवल इतना ही कहा।

चक्रवाल तड़प उड़ा—'हे महामाया...। तुम क्या करने गई थीं वहां? ऐसी विकट रात्रि में, ऐसी भयंकर वर्षा में, वायु की हाहाकारमय सनसनाहट में, तुम राजोद्यान में गई थी? क्यों...? किसलिए? बोलो।'

'वर्षा के दुस्सह वातावरण एवं तुम्हारे गायन से उत्पन्न असह्य वेदना से व्यथित होकर, मैंने सोचा चलकर राजोद्यान में ही हृदय की दारुण ज्वाला शांत करूं।'

'वहां कैसे शांत हो सकती थी तुम्हारी दारुण ज्वाला...? कौन बैठा था वहां, जो तुम्हारी कला की श्रेष्ठता में तन्मय हो तुम्हारा गुणगान करता और तुम भी उसके मधुर वार्तालाप से प्रभावित होकर अपने हृदय की सारी वेदना चारुचन्द्रिका के कल्लोल में विलीन कर देती...कौन था वहां, बोलो।'

'वहां उनकी मधुर स्मृति विराजमान है...।' किन्नरी ने करुण दृष्टि से देखा चक्रवाल की ओर - वहां के पल्लवों में, वहां के कण-कण में उनकी मधुर ध्वनि गुंजरित होती रहती है। जब मैं वहां जाती हूं, मुझे ऐसा प्रतीत होता है जैसे वृक्षों की शाखायें, सरोवर की कुमुदिनियां एवं भूमि के रजकण सब उन्हें के स्वर में मेरा आह्वान कर रहे हों, कलामयी। आओ न! चक्रवाल! जब-जब मैं वहां जाती हूं, उस स्थान का मंदिर वातावरण मुझे विकल, क्षुब्ध एवं द्रवित कर देता है।'

'श्रीयुवराज के लिए इतना व्यथित होना उचित नहीं, किन्नरी। अपनी अवस्था पर ध्यान दो। देखो जब से वे गये हैं, तुम्हारा शरीर सूखकर कांटा हो गया—तुम्हारे, नेत्र अहर्निश अश्रु वर्षा करते करते रक्तवर्ण हो उठे हैं—तुम्हारी देदीप्यमान मुखश्री से हाहाकारमयी करुणा का स्रोत प्रवाहित होता रहता है। अपने ही संयत करो, निहारिका।'

'व्यर्थ है चक्रवाल। हृदय की अगम सुख-शांति एवं नेत्रों का समस्त आलोक तो उनके साथ चला गया है।'

'तुम्हें हो क्या गया है किन्नरी...? क्या अब फिर लौटेंगे नहीं वे? तुम किन प्रलयंकर विचारों में विदग्ध हो रही हो निहारिका?'

'नहीं लौटेंगे, चक्रवाल। मेरा अंतस्थल कहता है कि अब वे नहीं लौटेंगे, मझसे छल करके कहीं दूर चल देंगे...मैं भयानक अनल में जली जा रही हूँ—यदि एक बार उनके दर्शन कर पाती?' निहारिका ने कहा।

चक्रवाल ने देखा, निहारिका के नेत्रों में उन्माद के लक्षण स्पष्ट दृष्टिगोचर हो रहे हैं। 'तुम्हारी दशा शोचनीय है, तुम अपने प्रकोष्ठ में जाकर विश्राम करो।'

चक्रवाल ने किन्नरी का हाथ पकड़ लिया, परन्तु वह चौंक पड़ा—'यह क्या...? यह क्या अनर्थ कर रही हो, निहारिका तुम...तुम्हारा शरीर इतना तप्त है...और तुम यहां भीगी हुई खड़ी हो। जाओ किन्नरी तुम्हें विश्राम की आवश्यकता है।'

'रहने दो। मुझ व्यथित को यहीं, अपने प्रकोष्ठ के द्वार पर ही खड़ी रहने दो...।' निहारिका बोली-'और तुम गाओ। कोई दु:खद गीत। गाकर यावत जगत को विह्वल कर दो, मेरे सन्तप्त हृदय को इतना सन्तप्त कर दो...कि में प्राणहीन हो जाऊं।'

चक्रवाल ने गंभीरता को समझा। समझकर उसने वीणा उठा ली। वीणा मधुर स्वर में गुंजरित हो उठी। उसका सिक्त स्वर धीमी गति से प्रवाहित हो उठा

व्यथित बाला के शुन्य द्वार, आती समझाने मृदु बयान, करती-बिखरा तन पर फुहार, सखि, वे दिन कितने सरस रहे, ये लोचन उन बिन तरस रहे।। उसी समय मृदु बयान का एक झोंका आया जो प्रकोष्ठ के द्वार पर खड़ी हुई निहारिका के उज्जवल तन पर फुहारों की वर्षा कर गया। मानो उसे संकेत कर रही हो—'सखि! वे दिन कितने सरस रहे...।'

एक तीव्र कम्पन स्वर के साथ चक्रवाल की वीणा रुक गई, परन्तु निहारिका के नेत्रों से बहते हुए जलकण न रुके...।
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Re: Romance कुमकुम

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'श्री सम्राट....।' द्वारपाल ने पुकारा। '...........।' द्रविड़राज मौन रहे, मानो उन्होंने कुछ सुना ही नहीं। 'श्री सम्राट...!' द्वारपाल ने पुन: पुकारा, नतमस्तक होकर।

वास्तव में वह एक आवश्यक संदेश लेकर द्रविड़राज के प्रकोष्ठ में लगभग आधी घड़ी में खड़ा था।

द्वारपाल की दूसरी पुकार पर सम्राट ने प्रकोष्ठ के द्वार की ओर देखा। द्वारपाल ने नतमस्तक होकर सम्राट का सम्मान प्रदर्शन किया। "द्वारदेश पर युद्ध शिविर से श्रीयुवराज का संदेश लेकर एक सैनिक उपस्थित है और लगभग आधी घड़ी से श्रीसम्राट की आज्ञा की प्रतीक्षा कर रहा है...।' उसने कहा। '

आधी घड़ी से...?' द्रविड़राज चौंककर बोले-'और तुम अब मुझे सूचित कर रहे हो।'

'मैं सम्राट की सेवा में बहुत देर से खड़ा हूं, परन्तु श्री सम्राट विचारों में इतने तल्लीन थे कि व्यवधान उपस्थित करना मैंने उचित नहीं समझा...।'

'उसे तुरंत उपस्थित करो।' सम्राट ने उतावली भरे स्वर में आज्ञा दी। सैनिक आया। उसने सम्राट को सम्मान प्रदर्शन किया। 'तुम युद्ध शिविर से आ रहे हो न...? कहो, वहां का क्या समाचार है?' द्रविडराज ने पूछा।

'श्री सम्राट के अतुलित प्रताप से सब कुशल है।'

'युवराज तो सकुशल हैं।' 'स्वयं महामाया का वरदहस्त उनकी रक्षा कर रहा है, श्रीसम्राट।'

'श्रीयुवराज पर किसी अनिष्ट की आशंका तो नहीं...?'

'नहीं श्रीसम्राट।'

'युद्ध का क्या समाचार है?'

'अब तक तो सभी युद्धों में हमारी विजय हुई है, श्रीयुवराज की संचालन प्रतिभा अद्भुत है। शत्रु भी आश्चर्यचकित हो उठे हैं श्रीयुवराज का प्रबल प्रताप देखकर।'

अब तक सम्राट के निरंतर प्रश्नों के आगे, सैनिक को न तो युवराज का पत्र देने का और न रत्नहार ही उनके सम्मुख उपस्थित करने का अवसर मिला था।

जब द्रविड़राज सब तरह के प्रश्न पूछकर अपने को आश्वस्त कर चुके तो सैनिक ने उनके सामने युवराज का पत्र और रत्नहार रख दिया।

'यह क्या...?' रत्नहार देखते ही द्रविड़राज इस प्रकार चौंक उठे जैसे उनके शरीर में प्रखर विद्युत रेखा प्रवेश कर गई हो।
उन्होंने भयभीत नेत्रों से उस रत्नहार की ओर देखा। पुन: कम्पित करों द्वारा उठाकर उसे मस्तक से लगाया।

'निश्चय ही यह वही पवित्र रत्नहार है...द्रविड़कुल का उज्जवलतम दीपक यह कहां मिला? यह विलुप्त रलहार कैसे प्राप्त हुआ तुम्हें ?' द्रविड़राज ने उत्सुक नेत्रों से शीघ्रतापूर्वक युवराज नारिकेल का पत्र पढ़ा।
और उनके हृदय में ध्वंसक संघर्ष मच गया। बहुत वर्षों पूर्व की घटना उनके नेत्रों के सम्मुख तीव्र गति से चित्रित होने लगी। वे बारम्बार युवराज का पत्र पढ़ने एवं उस पवित्र रत्नहार को मस्तक से लगाने लगे। उन्हें तीव्रोन्माद-सा हो गया। 'यह पवित्र रत्नाहार शत्रु सेना के संचालक के पास से मिला है...?' पूछा उन्होंने।

'जी हां, किरातों का नायक आजकल आर्य सेना का संचालक है...।' सैनिक ने उत्तर दिया।

'किरातों का नायक...!' बोले द्रविड़राज—'क्या अवस्था होगी उसकी?'

'प्राय: बीस वर्ष।' '.....।' सम्राट चौंक पड़े सेनानायक का यह उत्तर सुनकर। उन्हें उस बीस-वर्षीय नायक की रण-कौशलता पर आश्चर्य हो रहा था। वे उस नायक के विषय में सोचने में ध्यान-मग्न हो गये थे। पास ही खड़े सैनिक ने उनका ध्यान भंग करते हुए पूछा 'श्रीसम्राट की क्या आज्ञा है...?'

'तुम जाओ, विश्राम करो...।' सम्राट ने सैनिक को आज्ञा दी।

सैनिक अभिवादन कर चला गया। द्रविड़राज ने श्वेताम्बर से अपना शरीर आच्छादित किया, पुन: उस रत्नहार को यत्नपूर्वक उस श्वेताम्बर की ओट में छिपाया, तत्पश्चात् महामाया के मंदिर की ओर महापुजारी के दर्शनार्थ चल पड़े।

'श्रीसम्राट आप...!' महापुजारी को महान आश्चर्य हुआ, द्रविड़राज का ऐसे समय में पदार्पण देखकर। साथ ही चिंता हुई उनके मुख पर दुश्चिंता की रेखायें अवलोकन कर।

'पधारिये सम्राट...।' महापुजरी ने कहा। किन्नरी एवं चक्रवाल, जो इस समय महापुजारी के पास ही उपस्थित थे ने द्रविड़राज को सम्मान प्रदर्शित किया।

'तुम लोग जाओ।' सम्राट ने चक्रवाल एवं किन्नरी को आज्ञा दी।

उनके स्वर से हृदय का उद्वेग स्पष्ट हो गया था। चक्रवाल एवं किन्नरी उठकर चले गए।

'श्रीसम्राट की मुखाकृति मलिन क्यों है?' महापुजारी ने पूछा- क्या श्रीयुवराज की चिंता श्रीसम्राट को उद्वेलित कर रही है या किसी मानसिक आवेग ने हृदय प्रदेश में उथल-पुथल उत्पन्न कर दी है?'

..........' द्रविड़राज निस्तब्ध रहे। केवल एक बार उन्होंने सिक्त नेत्रों से महामाया की स्वर्ण प्रतिमा की ओर देखा एवं मन ही मन श्रद्धा तथा भक्तिपूर्वक प्रणाम किया।

'श्रीसम्राट ने मेरे प्रश्नों का कोई भी उत्तर देने का कष्ट नहीं किया...?' महापुजारी ने उन्हें सचेत किया, परन्तु सम्राट नीरव ही रहे।

' चक्रवाल...!' महापुजारी ने पुकारा।

'चक्रवाल को किस तात्पर्य से बुला रहे हैं आप?' सम्राट ने पूछा।

'श्रीसम्राट का हृदय उद्विग्न है—ऐसे समय में चक्रवाल की कला अमूल्य औषधि प्रमाणित होगी...।'

'नहीं? आवश्यकता नहीं...।' द्रविड़राज बोले—'एक चिंताजनक समाचार आपको सुनाने आया हूं।'

'वह क्या...?' महापुजारी ने शंकित नेत्रों से द्रविड़राज के गंभीर एवं पीत मुख की और देखा।

'युद्ध शिविर से अभी-अभी एक सैनिक आया है।'

'क्या समाचार लाया है...? युद्ध की प्रगति संतोषजनक तो है न...? श्रीयुवराज तो सकुशल हैं?'
एक साथ ही महापुजारी ने कई प्रश्न कर डाले।

'युद्ध की प्रगति अनुकूल है, युवराज भी सकुशल हैं परन्तु अवस्था सोचनीय होती जा रही है। जिन बातों को मैं सतत् प्रयत्न कर भूलने की चेष्टा करता हूं, दैव दुर्विपाक से वही बातें पुन: पुन: उपस्थित होकर मन को अशांत बना देती हैं आप ही बताइये महापुजारी जी कि ऐसी शोचनीय अवस्था में मैं किस प्रकार धैर्य धारण करूंगा...? यद्यपि मैं सम्राट हूं और एक सम्राट को साधारण मनुष्यों की अपेक्षा अधिक संयत एवं अधिक सहनशील होना चाहिये। परन्तु सहनशीलता की भी कोई सीमा होती है, महापुजारी जी। जिन-जिन असहनीय यातनाओं को मैंने मौन रहकर सहन किया है वे क्या साधारण हैं।'

'श्रीसम्राट का तात्पर्य क्या है...?' महापुजारी ने पूछा।

द्रविड़राज कुछ बोल नहीं पाये। उनका दाहिना हाथ एक क्षण के लिए श्वेत आवरण के अंतप्रदेश में गया और दूसरे ही क्षण उन्होंने महापुजारी के हाथों पर वह बहुमूल्य रत्नहार निकालकर रख दिया- 'मेरा तात्पर्य बहुत सरल हैं, महापुजारी जी...।'

...............।' महापुजारी आश्चर्य एवं महान विस्मय से चीख उठे—'यही वह रत्नहार है...। जिसके कारण राजमहिषी त्रिधारा को आजन्म निर्वासन दण्ड का भागी होना पड़ा। यही वह रत्नहार है...जिसने श्रीसम्राट का संहार विनष्टप्राय कर दिया...वही...।'

"जी हाँ वही रत्नहार है यह। हमारे कुल का उज्जवल दीपक आज अकस्मात् हमारे समक्ष पुन: उपस्थित है...अब न जाने क्या अघटित घटना घटने वाली है....?'

"श्रीसम्राट को यह कैसे प्राप्त हुआ?'

"यह किरात नायक के पास से मिला है, जो वर्तमान युद्ध में शत्रु सेना का संचालन कर रहा है। सुनता हूं, नायक की अवस्था केवल बीस वर्ष की है...।' द्रविड़राज के मुख पर उद्वेग एवं चिंता स्पष्ट हो उठी थी।

'केवल बीस वर्ष की अवस्था में इतनी बड़ी सेना का संचालन करना असम्भव-सा प्रतीत होता है और किरातों में इतना शौर्य कहां कि वे युद्ध का तीव्र गति से संचालन कर सकें? महापुजारी बोले।

'किरात नहीं हो सकता वह महापुजारी जी।'

'श्रीसम्राट का केवल अनुमान मात्र है या विश्वास भी...?'

'न जाने क्यों हृदय में यह विश्वास दृढ़ होता जा रहा है, महापुजारी जी कि वह किरात नहीं हो सकता। मेरे अंत:स्थल में कौतूहल-मिश्रित हाहाकार मूत हो उठा है । उसे सहन करना असह्य हो गया हैं असीम वेदना का मार वहन करना अब मेरे लिए दुष्कर है। सांत्वना दीजिये महापुजारी जी।' द्रविड़राज ने अवरुद्ध कंठ से कहा।

महापुजारी मौन रहे।
एक क्षण के लिए उन्होंने नेत्र बंद कर न जाने क्या सोचा। तब उनकी गंभीर आकृति ने और गंभीरता धारण कर ली।

उनके नेत्रद्वय अरुणिम हो उठे। द्रविड़राज स्थिर दृष्टि से महापुजारी की उद्दीप्त मुखाकृति की और देखते रहे। 'महामाया जो कुछ करती है, अच्छा ही करती है श्रीसम्राट !' महापुजारी बोले-'प्रत्येक कार्य में उनकी आगम महिमा अंतर्हित रहती है। आपको यही उचित है कि धैर्य स्मरण कर अपनी सारी मानसिक अशांति एवं प्रलयंकार उद्वेग अपने से दूर भगा दें, इसी में आपका कल्याण है...।'

"यह असम्भव है महापुजारी जी।' द्रविड़राज व्यथित हो उठे—'मेरी दशा तो देखिये, मैं अभागा सम्राट एक साधारण व्यक्ति से भी अधिक संतप्त हूं। ऐश्वर्यवान होकर ही मैंने दुश्चिन्ता में अपना शरीर विदग्ध कर डाला है। मेरी सहायता कीजिये महापुजारी जी।'

'श्रीसम्राट क्या चाहते हैं?' महापुजारी ने पूछा।

उनके नेत्र सम्राट की मुखाकृति पर स्थिर हो गये—द्रविड़राज को ऐसा लगा मानो उन दोनों नेत्रों से दो दाहक ज्वालायें निकलकर उनके अंत:स्थल में प्रविष्ट हो गई हों और अपनी समस्त दाहक शक्ति द्वारा उनके हृदय का रक्त शोषण कर रही हों।

'मैं एक बार युद्ध में चलकर उस किरात युवक को देखना चाहता हूं।' द्रविड़राज ने कहा।

'इस से लाभ।' महापुजारी ने पूछा।

'मेरे हृदय की पुकार है यह।'

आपके हृदय में ममत्व का रोर मच रहा है, श्रीसम्राट।' महापुजारी कठोर स्वर में बोले —'सम्राट होकर आप अपने हृदय पर नियन्त्रण नहीं रख सकते।'

'मैं इस समय सम्राट नहीं, एक संतप्त व्यक्ति हूं, महापुजारी जी। मैं किसी देवी प्रकोप से अक्रांत एक दयनीय प्राणी हूं, मेरी अवस्था पर दया कीजिये-अब तक आपकी समस्त आज्ञाओं का पालन मैंने किया है, आज मेरे इस क्षुद्र अनुरोध का तिरस्कार आप न करें।'

'श्री सम्राट...!'

'अधिक विलम्ब होने से सम्भव है कोई बहुत बड़ा अनिष्ट हो जाये। जाने क्यों मेरा हृदय तीव्र वैग से प्रकम्पित हो रहा है।'

'चलिए। मैं युद्ध शिविर में चलने को प्रस्तुत हूं।' महापुजारी बोले- 'गुप्तमार्ग द्वारा चलने से हम लोग तीसरे प्रहर तक युद्ध शिविर में पहुंच जायेंगे।'

महापुजारी उठे। प्रकोष्ठ से अपना पीताम्बर लेकर कंधे पर रखा और तीव्र वेग से सम्राट के साथ बाहर हो गये।
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-- 'किन्नरी...!' चक्रवाल ने पुकारा परन्तु कुछ उत्तर न मिला। चक्रवाल ने प्रकोष्ठ के बंद द्वार पर कई थपकी दी, परन्तु भीतर से कुछ भी उत्तर न मिला। चक्रवाल को आश्चर्य हुआ एवं भय भी। न जाने प्रकोष्ठ के भीतर किन्नरी क्या कर रही है?

'किन्नरी! निहारिका...!' चक्रवाल ने पुन: कई बार पुकारा, परन्तु उत्तर न मिला था, न मिला।

चक्रवाल का हृदय आशंका से भर गया। वह किन्नरी के प्रकोष्ठ की छोटी सी खिड़की के नीचे आया। खिड़की के कपाट बंद थे, परन्तु हल्का-सा धक्का देते ही खुल गये। उसने प्रकोष्ठ के भीतर झांका। देखा, किन्नरी निहारिका अस्त-व्यस्त सी पलंग के किनारे पड़ी है। उसके नेत्र बंद है। कपोलों पर मुक्ता। सदृश अश्रु-बिन्दु झलक रहे हैं।

'निहारिका!' चक्रवाल ने तीव्र स्वर में पुकारा। निहारिका नि:शब्द रही, केवल उसका शरीर एक बार मंथरगति से प्रकम्पित हुआ एवं उसके काली घटा जैसे केश, वायु का स्पर्श पाकर आरक्त कपोलों पर लौटने लगे।

'द्वार खोलो...कब से खड़ा पुकार रहा हूं मैं...।'

'........' अब निहारिका ने धीरे से अपना मस्तक उठाकर खिड़की की ओर देखा। चक्रवाल को महान् आश्चर्य हुआ, किन्नरी की दयनीय दशा देखकर। निहारिका के नेत्र रोते-रोते एकदम रक्तवर्ण हो रहे थे।

'तुम रो रही हो...? रो रही हो तुम... मैं एक आवश्यक संदेश लेकर कब से तुम्हारे द्वार पर खड़ा हूं और तुम रो रही हो?'

"क्या करूं चक्रवाल। सब कुछ तो खो चुकी हूं उस देवता की मधुर स्मृति में, ये अश्रुकण ही तो शेष हैं जो मेरे सुख-दुख के साथी हैं। इन्हें कैसे खो सकती हूं...?'

किन्नरी ने शिथिल पैरों से आगे बढ़कर द्वार खोला। चक्रवाल भीतर प्रविष्ट हुआ।

"युद्ध-शिविर से कोई भयानक समाचार आया है....।' चक्रवाल ने कहा।

'कैसा भयानक समाचार?'

'पता नहीं, परन्तु सेना है कि युद्धक्षेत्र से एक सैनिक आया था। देखा नहीं, जब हम और तुम महापुजारीजी के पास बैठे थे, तो श्रीसम्राट ने कैसी उदीप्त भंगिमा धारण किये हुए पदार्पण किया था...याद है?'

'ओह महामाया...! क्या होने वाला है...?' किन्नरी बोली— 'मैं मरण नृत्य करना चाहती हूं चक्रवाल। मुझे कुछ ऐसी विश्वास हो रहा है कि श्रीयुवराज कदाचित् अब...।'

'कैसी बातें करती हो...।' चक्रवाल ने मधुर झिकी दी— 'महापुजारी जी एवं श्रीसम्राट में बहुत काल तक वार्तालाप हुआ है और दोनों गुप्तमार्ग द्वारा युद्ध शिविर की ओर गये हैं।'

'युद्ध-शिविर की ओर...?'सिहर उठी निहारिका—'अवश्य चिन्तनीय समाचार रहा होगा। मुझे ले चलो, चक्रवाल। मैं भी युद्ध-शिविर की ओर चलना चाहती हूं।' चलो विलम्ब न करो...उन पर जाने क्या बीत रही होगी...?'

'गुप्त मार्ग द्वारा श्रीसम्राट एवं महापुजारी जी ने प्रस्थान किया है—हम लोग कैसे चलेंगे।'

'कोई द्रुतगामी रथ की व्यवस्था करो, चक्रवाल। मेरी अवस्था पर दया करो।'

'मैं अभी व्यवस्था करता हूं।' तीव्र गति से चक्रवाल किन्नरी के प्रकोष्ठ से बाहर हो गया।

लगभग घड़ी भर पश्चात् घनघोर बनस्थली को भेदन करता हुआ एक दुतगामी रथ वायुवेग से दौड़ा जा रहा था।

चालक के स्थान पर स्वयं चक्रवाल विराजमान था एवं रथ के अंतप्रदेश में आसीन थी सौंदर्यराशि किन्नरी निहारिका।

चक्रवाल का मधुर स्वर वातावरण को सरल बना रहा था जो केलि कुंज में तुमको, कंकड़ी उन्होंने मारी। क्या कसक रही है वह अब भी, तेरे उर में सुकुमारी...|

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साधू सा आलाप कर लेता हूँ ,
मंदिर जाकर जाप भी कर लेता हूँ ..
मानव से देव ना बन जाऊं कहीं,,,,
बस यही सोचकर थोडा सा पाप भी कर लेता हूँ
(¨`·.·´¨) Always
`·.¸(¨`·.·´¨) Keep Loving &
(¨`·.·´¨)¸.·´ Keep Smiling !
`·.¸.·´ -- raj sharma
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