Romance कुमकुम complete

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Re: Romance कुमकुम

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चौदह

पर्णिक की माता अपने झोंपड़े में किसी आवश्यक कार्य में व्यस्त थी। उसी समय झोंपड़े के द्वार से किसी ने पुकारा—'माताजी!'

पर्णिक की माता हर्ष-विह्वल हो दौड़ पड़ी, झोंपड़ी के द्वार की ओर। उसे लगा, जैसे स्वयं पर्णिक युद्धक्षेत्र से लौट आकर स्नेहमयी वाणी में उसे पुकार रहा हो, परन्तु द्वार पर दुमुख को खड़ा देखकर उसका हृदय धड़क उठा। पर्णिक का भेजा हुआ दुर्मुर्ख अभी-अभी ही वहां पहुंचा था। 'दुर्मुख तुम...!' पर्णिक की माता आश्चर्य से बोली—'युद्ध क्षेत्र से आ रहे हो न? पर्णिक सकुशल तो है...?' ___

'हां माताजी।' दुर्मख ने उत्तर दिया-'पर्णिक सकुशल है...युद्ध की प्रगति इधर कुछ ही दिनों से बड़ी भयंकरता धारण करती जा रही है। यदि युद्ध इसी प्रकार भयावह गति से चलता रहा तो हमारी पराजय निश्चित है।'
-
'आर्य सम्राट की सेना अधिक बलशाली है क्या...?'

'आर्य सम्राट की सेना।' चौंक पड़ा दुर्मुख।

एक पल तक चुप रहकर उसने न जाने क्या सोचा। तुरंत ही उसे ध्यान हो आया कि अभी तक पर्णिक की माता यही समझ रही है कि पर्णिक की किरात सेना स्वदेश के रक्षार्थ, आर्य सम्माट से युद्ध कर रही है।

अभी तक इस बात का तनिक भी आभास नहीं होने दिया था उसने कि उसका पुत्र इस समय आर्य सम्राट की सहायता कर रहा है 'नहीं माताजी। हम लोग आर्य सम्राट से युद्ध नहीं कर रहे हैं...।' दुर्मुख ने कहा।

'आर्य सम्राट से युद्ध नहीं कर रहे हो...?' आश्चर्यचकित हो उठी पर्णिक की माता—'तब किससे युद्ध कर रहे हो तुम लोग?'

'द्रविड़राज की सेना से।' दुर्मुख बोला।

'तो आर्य सम्राट की सहायता कर रहे हो तुम लोग?' तड़प उठी बह—'जो उतनी दर से तुम्हारे देश को नष्ट करने आया है, उसी की सहायता कर रहे हो तुम लोग दुर्मुख...! अपने प्राचीन गौरव की निर्मूल कर विदेशी सत्ता की जड़ें स्थापित करना चाहते हो तुम लोग। क्या पार्णिक की सम्मति से यह सब कार्य हुआ है...?'

'जी हां माताजी। उनकी पूर्ण सम्मति से।' पर्णिक की माता का उग्ररूप देखकर दुर्मुख भयभीत हो गया था।

'पर्णिक इतना निकृष्ट कैसे हो गया? मेरी शिक्षा को उसने एकदम विस्मृत कैसे कर दिया।'

'माताजी! पहले पर्णिक आर्य सम्राट की सहायता करने को सहमत नहीं थे, परन्तु स्वयं आर्य सम्राट ने उनके पास आकर सहायता की याचना की...।'

'सहायता की याचना की और पर्णिक ने उन्हें सहायता देना स्वीकार कर लिया, क्यों?'

'नहीं, उन्होंने फिर अस्वीकार कर दिया था। परन्तु जब आर्य सम्राट आपका अपमान करने लगे—'क्या तुम्हारी माता ने तुम्हें यही सिखाया है कि अपने चरणों में आये हुए भिक्षुक को ठोकर मारकर लौटा दो तो वे चिंता में पड़ गये...।'

'.........।' चौंक पड़ी पर्णिक की माता अपनी शिक्षा का विपरीत परिणाम सुनकर।

'इसी प्रकार आर्य सम्राट ने अन्य बहुत-सी बातें कहकर आपका अनादर किया। जिसे सुनकर पर्णिक को बहुत क्रोध आया। उन्होंने आर्य सम्राट को द्वन्द्व युद्ध में पराजित कर आपके अपमान का प्रतिशोध लिया, तत्पश्चात् आपके सम्मान की रक्षार्थ उन्होंने आर्य सम्राट को सहायता देना स्वीकार कर लिया।

'मेरे सम्मान की रक्षार्थ...' पुलकित हो उठी वे, परन्तु दूसरे ही क्षण उनकी मुखाकृति परिवर्तित हो गई—'मेरे सम्मान की रक्षार्थ उसने एक विदेशी की सहायता करना स्वीकार कर लिया? मेरे सम्मान की रक्षार्थ उसने अनहोनी को होनी कर दिखाया, परन्तु उसने अपनी जन्मभूमि के सम्मान की रक्षार्थ क्या किया...?''

आवेश में रो पड़ी वे—'एक क्षुद्र जननी के लिए उसने इतना किया तो क्या जननी जन्मभूमि के लिए आत्मोत्सर्ग करना उसने आवश्यक नहीं समझा? जन्मभूमि के सम्मान से अधिक उसने मेरे अपमान को महत्त्व दिया? ओह दुर्मुख! क्या किया तुम लोगों ने? क्या यही है तुम लोगों का स्वदेशाभिमान...?'

'आज कई दिनों से हमारी पराजय हो रही है। आर्य सम्राट की असंख्य सेना को शत्रु की एक सीमित सेना शिथिल करती जा रही है। स्वयं पर्णिक जो कि आजकल आर्य सेना के प्रमुख संचालक हैं अत्यधिक आश्चर्यचकित हो उठे हैं...? कल युद्ध में एक अघटित घटना घट गई, जिसके लिए मुझे यहां तक आना पड़ा...।'

'कौन सी घटना?'

'कल मध्यान्ह में जबकि युद्ध भयानक गति पर था, पर्णिक के गले से आपका दिया हुआ रत्नहार कहीं गिर गया...।'

'गिर गया?' आश्चर्य एवं उद्वेग से चीत्कार कर उठी वे—'कहां गिर गया?'

'रणक्षेत्र में।'

'आजकल आर्य सेना किससे युद्ध कर रही है...?' पर्णिक की माता ने पुन: पूछ।

'द्रविड़राज से?'

'द्रविड़राज से...? द्रविड़राज से युद्ध हो रहा है? और पर्णिक उनके विरुद्ध आर्य सेना का संचालन कर रहा है? धड़ाम से गिर पड़ी भूमि पर।
उनके नेत्रों के समक्ष अंधकार छा गया। उनके अन्त:स्थल में हाहाकार पूर्ण कोलाहल उठ खड़ा हुआ।

'महामाया! यह सब क्या हो रहा है। आज बीस वर्षों के पश्चात् अब कौन-सा प्रलयंकारी दृश्य देखने को मिलेगा...?

' उन्हें स्नेहपूर्वक उठाते हुए सांत्वनापूर्ण स्वर में दुर्मुख बोला
—'क्या है माताजी...आप इतनी उद्विग्न क्यों हो गई?' __

'प्रलय का आह्वान कर अब पूछ हरे हो मेरी उद्विग्नता का कारण? मेरे हृदय के शत्-शत् खंड करके अब चाहते हो सांत्वना देना?'

'माताजी! यदि कोई अक्षम्य अपराध हुआ है तो उसके लिए समुदाय की ओर से क्षमाप्रार्थी हूं। कल जो आपकी आज्ञा होगी, उसके अनुसार कार्य करने को हम प्रस्तुत है।'

'आज्ञा?' एक क्षण तक कुछ सोचा पर्णिक की माता ने—'मैं इसी क्षण युद्धक्षेत्र को प्रस्थान करना चाहती हूं...यह क्या? मेरी दक्षिण भुजा फड़कने का कारण? दुर्मुख! कोई प्रलयंकारी अनिष्ट सन्निकट है। तुम एक द्रुतगामी अश्व अभी लाओ। मैं इसी समय युद्ध-क्षेत्र को प्रस्थान करूंगी, नहीं तो अनर्थ हो जायेगा, प्रलय हो जायेगा।'

दुर्मुख दौड़ गया और कुछ ही देर में एक अश्व लिए हुए आ उपस्थित हुआ। एक अश्व पर दुर्मुख और दूसरे पर पर्णिक की माता सवार हो रणक्षेत्र की और चल पड़े।
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Re: Romance कुमकुम

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'अब क्या होगा गुप्तचर।' उस गुप्त कन्दरा में, असहाय अवस्था में पड़े हुए आर्य सम्राट अपने गुप्तचर से कह रहे थे— 'कई प्रहर हो गये, हम लोग ऐसे बुरे फंसे कि बाहर निकलने का कोई मार्ग ही नहीं रह गया। शत्रुओं ने दोनों ओर से मार्ग बंद कर दिया। है। अब हम इसी कंदरा में शोकजनक मृत्यु को प्राप्त होंगे। युद्ध का न जाने क्या समाचार होगा? कैसे एकाएक विलुप्त हो जाने से पर्णिक न जाने क्या सोचेगा? सेना तो एकदम शिथिल पड़ जाएगी।'

'नहीं जानता था कि गुप्त कंदरा में इतना रहस्य प्रच्छन्न है, नहीं तो श्रीमान् को मैं कभी यहां आने की सम्मति न देता।' गुप्तचर ने कहा।

'हमारी सारी आशाओं का तुषारापात हो गया, हमारी सारी अभिलाषाएं धूल-धूसरित हो गई !' आर्य सम्राट हताश वाणी में बोले।
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-- 'मुझे दृढ़ विश्वास है, महापुजारी।' द्रविड़राज ने कहा। द्रविड़राज एवं महापुजारी पौत्तालिक तीव्रगति से गुप्त मार्ग द्वारा युद्ध की ओर अग्रसर हो रहे थे।

उस गुप्त मार्ग में प्रकाश आने की पूर्ण व्यवस्था थी। इस समय दिन होने के कारण कन्दरा में मद्धिम प्रकाश फैल रहा था।

'महामाया करें, आपका अनुमान सत्य हो, श्रीसम्राट।' महापुजारी बोले।

'मेरे हृदय में ममत्व का दारुण रोर मचा हुआ है। अवश्य मेरा अनुमान सत्य प्रमाणित होगा।' द्रविड़राज ने कहा।

दोनों व्यक्तियों ने अपनी चाल तेज कर दी। इस समय द्रविड़राज की विचित्र दशा थी। उनके हृदय में हर्ष एवं रुदन का ज्वालामुखी फूट पड़ा था।

कभी वह चाहते थे करुण चीत्कार करना और कभी चाहते थे हर्षतिरेक से हंस पड़ना।

आज वर्षों की शोकाग्नि के पश्चात् हर्षाग्नि प्रज्जवलित हुई थीं, परन्तु उन्हें ऐसा प्रतीत हो रहा था, जैसे देवीचक्र अब भी उनके सर्वथा प्रतिकूल कार्य कर रहा है।

'यह क्या...?' द्रविड़राज एकाएक आश्चर्यचकित हो उठे अपने सामने से सुविशाल प्रवेश द्वार को बंद देखकर कहा-यह द्वार किसने बंद किया...?' क्या यहाँ बाहरी मनुष्य भी उपस्थित हैं।'

'हो सकता है कि श्रीयुवराज ही ने इसे बंद किया हो।' महापुजारी बोले। द्रविड़राज ने हाथ बढ़ाकर उस विशाल प्रवेश द्वार के पार्श्व में न जाने क्या किया। दूसरे ही क्षण बह प्रवेश द्वार धड़-धड़ शब्द करता हुआ खुल गया। द्रविड़राज एवं महापुजारी दोनों व्यक्ति चौक कपड़े, सुरंग में दूरी पर दो मनुष्यों की स्पष्ट आकृति का अवलोकन कर।

'कौन है ? कौन है? जो द्रविड़राज की क्रोधाग्नि में भस्म होना चाहता है।' द्रविड़राज का कठोर गर्जन गूंज उठा, उस गुप्त सुरंग में।

'मैं हूं। आर्य सम्राट तिग्मांशु।' दूसरी ओर से उत्तर आया।

'आर्य सम्राट तिग्मांशु ! यहां ...।' द्रविड़राज आश्चर्य से अधीर हो उठे।

उन्होंने महापुजारी की ओर देखा और महापुजारी ने उनकी ओर। दोनों व्यक्ति उस ओर बढ़े जिधर आर्य सम्राट एवं गुप्तचर खड़े हुए स्वयं द्रविड़राज के पदार्पण पर आश्चर्य कर रहे थे।

दोनों महान् सम्राट एक-दूसरे के समक्ष आ खड़े हुए। दोनों ने अपनी प्रथानुसार एक-दूसरे को अभिवादन किया। तत्पश्चात् द्रविड़राज बोले-'आर्य सम्राट से साक्षात् कर मैं अतीव प्रसन्न हुआ।'

'मेरा अहोभाग्य कि श्रीमान् के दर्शन हुए। कहा आर्य सम्राट ने।

'मगर आर्य सम्राट के यहां पधारने का कारण...?' महापुजारी ने पूछा।

'हम बंदी हैं।'

'बंदी...? बन्दी हैं आप...?' द्रविड़राज बोले-'किसने बंदी बनाया आपको...?'

'स्वयं युवराज नारिकेल ने।' आर्य सम्राट ने उत्तर दिया।

"युवराज नारिकेल...!' द्रविड़राज के मुख पर दुख के भाव प्रकट हो उठे—तनिक भी सभ्यता नहीं उसमें। नहीं जानता कि एक सम्राट के साथ, दूसरे सम्राट को किस प्रकार व्यवहार करना चाहिये।'

'परन्तु अपराध मेरा ही था, श्रीमान्। मैं आपके इस गुप्तमार्ग का पता लगाने आया था।'

'आपने अपराध किया था, परन्तु दुर्व्यवहार तो उसका दंड नहीं हो सकता। अपने घर में आये शत्रु से मित्र का सा आचरण करना ही द्रविड़कुल की परम्परा रह आई है, आर्य सम्राट।

'यहां आपके इस समय कष्ट उठाने का कारण।'

'यही बात मैं आपसे पूछना चाहता हूं, जम्बूद्वीप पर आपके असमय में आक्रमण करने का कारण...?'
द्रविड़राज के स्वर में कुछ तीव्रता आ गई।

'मित्रता का हाथ खींच लेने और याचना ठुकरा देने पर ही आक्रमण हुआ है, श्रीमान्।

' 'याचना?' आश्चर्यचकित होकर पूछा द्रविड़राज ने।

'जी हां। सहअस्तित्व की भावना निहित थी हमारी याचना में, परन्तु द्वार पर आये हुए याचक की बातों पर आपने कोई ध्यान नहीं दिया?'

'आप याचक हैं, आर्य सम्राट! आपने मुझसे भिक्षा की याचना की थी? यदि ऐसा हुआ होता तो द्रविड़राज इतने निकृष्ट नहीं थे। क्या आपकी सभ्यता में इसी को याचना कहते हैं? क्या आपके धर्म का यही उपदेश है कि जो भिक्षा न दे, उस पर बल प्रयोग कर भिक्षा प्राप्त करें।

'....' आर्य सम्राट मौन रहे।

'कहते हैं, आपने भिक्षा मांगी थी...।' क्या भिक्षा दत भेजकर मांगी जाती है और दत को यह कहने का भी अधिकार दिया जाता है कि भिक्षा न देने पर बलपूर्वक सर्वस्व अपहरण कर लिया जायेगा? यदि भिक्षा मांगनी थी तो उचित था कि आप स्वत: हमारे समक्ष उपस्थित होते और महापुजारी जी के चरणों पर मस्तक रखकर दया की भिक्षा मांगते। यदि महापुजारी जी का दयार्द्र हृदय आपकी पुकार पर द्रवित होता तो मैं उनकी आज्ञानुसार अपना सारा साम्राज्य आपके चरणों में अर्पित कर देता।'

'अब तक मैं अपनी नीति के अनुसार कार्य करता हूं...।' आर्य सम्राट बोले।

"ओह !' हंस पड़े द्रविड़राज'आपने सोचा था कि जिस प्रकार अन्य माण्डलिक राजाओं ने आपका आधिपत्य स्वीकार कर लिया है, उसी प्रकार द्रविड़राज भी कर लेंगे। यह भी नहीं समझा था आपने कि द्रविड़राज में आत्मसम्मान है, देश पर बलिदान हो जाने की भावना है। आपने बलप्रयोग की धमकी दी थी। आज संयोगवश हम दोनों का साक्षात्कार हो गया है। हम लोग आज निश्चय कर लेंगे कि कौन किस प्रकार बलप्रयोग कर सकता है।'

"आर्य सम्राट का कृपाण विपक्षी पर आघात करने के लिए सदैव प्रस्तुत रहता है, श्रीमान्।' आर्य सम्राट ने कहा।

'धन्यवाद...।' द्रविड़राज बोले—'यहां पर्याप्त स्थान नहीं है, मेरे साथ आइये।' द्रविड़राज आगे बढ़ चले। एक स्थान पर सुरंग बहुत प्रशस्त थी। वहीं आकर वे रुक गए। द्रविड़राज एवं आर्य सम्राट ने अपने-अपने कृपाण संभाल लिए। दोनों प्रतिद्वन्द्वी एक-दसरे के समक्ष खड़े होकर घात-प्रतिघात करने में तल्लीन हो गए। कृपाणों की भयानक झंकार से गुप्तमार्ग गुंजरित होने लगा।
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Re: Romance कुमकुम

Post by rajsharma »

पंद्रह
यह पर्णिक के ही बुद्धि चातुर्य का परिणाम था कि आर्य सेना अब तक युद्ध में संलग्न थी।
आर्य-सम्राट तिग्मांशु का विलुप्त होना अत्यंत सावधानीपूर्वक गोपनीय रखा गया था। केवल दो-चार गुप्तचरों एवं स्वयं पर्णिक के अतिरिक्त आर्य सेना का कोई व्यक्ति आर्यसम्राट के विलुप्त होने की बात नहीं जानता।

इस समय भी आर्य-सेना पूर्ण वेग से आक्रमण-प्रत्याक्रमण कर रही थी। समरांगण में रक्त की सरिता प्रवाहित हो रही थी। प्रत्येक सैनिक अपने विपक्षी पर विजय पाने की आशा से ओत प्रोत था।

एक सुंदर अश्व पर आसीन् पर्णिक अतीव चतुरतापूर्वक आर्य सेना का संचालन कर रहा था।

द्रविड़ सेना का नामधारी संचालक धेनुक, क्रोधोन्मत्त होकर तीक्ष्ण कृपाण से शत्रु का मान मर्दन कर रहा था।

उसका अतुलित पराक्रम देखकर द्रविड़ सैनिक उत्साहित होकर शत्रुओं का प्रबल आक्रमण कर रहे थे।

पर्णिक को महान् आश्चर्य हुआ, द्रविड़ों की उस छोटी-सी सेना को विकराल आर्य सेना से सफलतापूर्वक युद्ध करते हुए अवलोकन कर। साथ ही उसे क्रोध भी हो आया, धेनुक का प्रलव सदृश सहारा देखकर।

'सावधान विपक्षी के संचालक उसने गर्जन किया।

'आर्य सेना के संचालक को विदित हो...।' धेनक बोला—'कि मझ जैसे क्षद्र सैनिक को संचालक कहकर अपने उस महान् व्यक्ति का अपमान किया है, जो द्रविड़ सेना का वास्तविक संचालक है...धेनुक इस अपमान का प्रतिशोध लेने को तत्पर है।'

"आ जाओ। आज पर्णिक का भी हस्त-कौशल देख लो....मैं देखना चाहता है कि द्रविड़ सेना का यह गुप्त संचालक है कौन? मैं प्रण करता हूं, आज मैं वह प्रलयवर्षा करूंगा कि बाध्य होकर उस गुप्त संचालक को युद्ध भूमि में आना ही होगा।'
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Re: Romance कुमकुम

Post by rajsharma »

अपने शिविर में बैठे हुए युवराज नारिकेल, सैनिक द्वारा लाये हुए युद्ध के समाचारों को प्रतिक्षण सुन रहे थे एवं उसे आवश्यक आज्ञा देकर पुन: रणक्षेत्र की ओर भेज रहे थे, परन्तु उनका हृदय आज न जाने क्यों अत्यधिक व्यग्न था।

सहसा युवराज का ध्यान भंग हो गया—युद्धभूमि से आये एक सैनिक का आर्तनाद सुनकर।

'अनर्थ! प्रलय! विनाश!' उस सैनिक के मुख से स्पष्ट स्वर निकल रहा था।

'क्या है. . है क्या...?' युवराज को घोर आश्चर्य हुआ उस सैनिक को पत्ते की तरफ कांपते देखकर।

'धेनुक मारा गया, श्रीयुवराज! आर्य सेना का प्रबल वेग सम्भालना असम्भव हो गया है...द्रविड़ सेना तीव्र बैग से पलायन कर रही है।'

"पलायन!' तड़प उठे युवराज।

'जी हां, श्रीयुवराज। यदि शीघ्र ही आप युद्धक्षेत्र में पदार्पण न करेंगे तो कुछ ही क्षणों में आर्य सेना...चलिए श्रीयुवराज, विलम्ब न कीजिये। बिना आपके चले द्रविड सेना के पैर स्थिर नहीं हो सकते।

'असंयत न होओ सैनिक युवराज गंभीर स्वर में बोले—'मैं चलता हूं, मेरा अश्व ठीक करो।'

वह सैनिक दौड़ता हुआ शिविर से बाहर चला गया। युवराज ने अतिशीघ्र सैनिक वस्त्र धारण किये और शिविर से बाहर आ गये। दो अश्व प्रस्तुत थे। एक पर उछलकर युवराज आसीन हो गये और दूसरे पर वह सैनिक तीव्र वेग से दोनों व्यक्तियों ने रणभूमि की ओर प्रस्थान किया। धेनुक के धराशायी होते ही समस्त द्रविड़ सेना हतोत्साह हो गई और उस समय जबकि आर्य सेना ने उन पर प्रबल शक्ति द्वारा आक्रमण करना प्रारंभ कर दिया तो द्रविड़ सेना रुक न सकी और भाग चली इधर-उधर जंगल व पहाड़ों के मध्य।

आर्य-सेना अपनी विजय पर हर्षोल्लास हो जय-जयकार कर उठी।

'ठहरो...।' विद्युत के समान युवराज का तीव्र गर्जन, सूर्य छिद्र से चतुर्दिक गूंज उठा।
तीव्र गर्जन के साथ ही भागती हुई द्रविड़ सेना के पैर जहां के तहां रुक गये, मानो किसी देवी शक्ति ने उनके पैर भूमि पर जकड़ दिये हों _ 'लौट जाओ...!' वीरत्व पर लगे कलंक को अपने रक्त से धो डालो-अपने शोणित से तृषित मेदिनी की तृष्णा शांत कर दो।' युवराज को देखते ही द्रविड़ सेना का उत्साह द्विगुणित हो गया।

पलकमात्र में द्रविड़ सेना पुन: रणभूमि की ओर पलट पड़ी। देखते ही देखते पुन: घोर युद्ध प्रारंभ हो गया।

युवराज नारिकेल अपनी तीक्ष्ण कृपाण से शत्रुओं को गाजर मली की तरह काटने लगे। उनका हस्त-लाघव देखकर द्रविड़ सेना अतीव उत्साह के साथ शत्रुओं का मर्दन करने लगी। एक क्षण में ही आर्य सेना में हाहाकार मच गया।

द्रविड़ सेना का वह गुप्त संचालक रण में आ पहुंचा है श्रीमान्। एक सैनिक ने दूर खड़े हुए पर्णिक से कहा- देखिये, भागती हुई द्रविड़ सेना पुन: लौट पड़ी है और चपलतापूर्वक हमसे युद्ध कर रही हैं ऐसा ही बंग रहा तो हमारा पराजय निश्चित है।'

'मैं देखता हूं उस गुप्त संचालक को...।' पर्णिक तीव्रगति से उस ओर बढ़ा। दूसरे ही क्षण दोनों सेनाओं के संचालक एक-दूसरे के समक्ष खड़े थे, आश्चर्यचकित नेत्रों से एक-दूसरे को देखते हुए।

"किरात कुमार पर्णिक!' युवक के मुख से आश्चर्यचकित स्वर निकल पड़ा। भला उस किरात युवक को वे भूल कैसे सकते थे जिससे एक दिन भयानक वनस्थली के मध्य युद्ध हुआ था।

'युवराज आप!' पर्णिक की आश्चर्यचकित हो उठा।

'ओह !' इतने दिनों के पश्चात् आज हम लोगों का मिलन हो रहा है।

"हां युवराज! और ऐसे स्थान पर, ऐसे सुखमय वातावरण में कि हम दोनों अपनी विगत शत्रुता की अग्नि-ज्वाला को भली प्रकार शांत कर सकते हैं' पर्णिक बोला।

'यथार्थ कहते हो तुम। महामाया की कृपा से हमारे हृदयों में प्रज्जवलित प्रतिशोधाग्नि की प्रखर ज्वाला ने अन्ततोगत्वा हम दोनों को एक अत्यंत उचित स्थान पर एकत्रित कर ही दिया। यह युद्ध स्थल है और हम दोनों हैं एक-दूसरे के प्रतिद्वन्द्वी। आज हम दोनों की आकांक्षाएं अवश्य पूर्ण होगी, किरात कुमार।' युवराज ने कहा। __

'पर्णिक प्रस्तुत है, युवराज! आइये, आज हमारी शक्ति का निर्णय हो जाये।' पर्णिक ने अपना कार्मुक हाथ में ले लिया।

'तुम मेरे शत्रु हो और स्वदेशद्रोही भी...तुमने स्वदेश की पुकार के विरुद्ध विदेशी की सहायता की है, अत: तुम्हें प्राणदंड देना मेरा परम कर्तव्य है। युवराज ने भी अपना कामुक निकाल लिया।

पर्णिक ने कार्मुक पर तीर चढ़ाया और युवराज ने थी।

कान तक कार्मुक खींचकर पर्णिक ने अपना तीर युवराज के वक्ष को लक्ष्य करके छोड़ दिया।

युवराज के भी कार्मुक से तीव्र वेग से तीर निकला और बीच में ही दोनों तीर आपस में टकराकर छिन्न-भिन्न हो भूमि पर गिर पड़े।

इस बार युवराज ने तीर छोड़ा, परन्तु रण-विशारद पर्णिक ने युवराज के तीर का लक्ष्य अपने तीर से विलक्ष कर दिया। दोनों ओर से तीरों को बौछार होने लगी।
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