वकील चटर्जी ने चौंककर कहा, “क्या कहा, वसीयत मिस्टर खन्ना ने तैयार की है?”
“जी हां!” अनिल ने हाथ मलते हुए कहा, “इसीलिए तो हम आपके पास आए हैं...इस नगर में आपके अतिरिक्त और कौन-सा वकील खन्ना साहब से टक्कर ले सकता है?”
“यह तो ठीक है मिस्टर अनिल...” चटर्जी ने कहा, “किन्तु, मेरे परामर्श की फीस पांच सौ रुपये है...पहले...फिर परामर्श...”
अनिल ने राज की ओर देखा। राज जेब टटोलने लगा। अनिल ने अपनी जेब में से सौ रुपये का एक नोट निकाला और कुमुद इत्यादि की ओर देखकर बोला, “लाओ भई....पांच सौ रुपये पूरे करो....एक दोस्त का काम है.....मेरे पास केवल तीन सौ हैं, दूसरे दो दिन के खर्च के लिए रखे हैं....”
कुमुद, धर्मचन्द और फकीरचन्द ने अनमने मन से अपनी-अपनी जेबें टटोलीं और बड़ी कठिनाई से फीस के पांच सौ रुपये पूरे किए गए। मिस्टर चटर्जी ने पैसे गिने और बोले, “हां, अब विस्तार से पूरी बात बताइए....”
अनिल ने एक बार फिर वर्णन किया। चटर्जी ने आंख से चश्मा उतारकर पोंछते हुए कहा, “भई! देखिए.....हो सकता है आप लोग अपने स्थान पर ठीक सोचे रहे होंगे.....किन्तु अभी तक खन्ना साहब का पहला रिकार्ड बिल्कुल उजला है और मेरा विचार है कि वह इतनी बड़ी भूल करके अपने कैरियर को दागदार न बना सकेंगे.....मेरा परामर्श है कि जो दस-पन्द्रह हजार रुपये आप मुकदमेबाजी में लगाएंगे इससे कोई व्यापार आरम्भ कीजिए और संतोष से बैठ जाइए। व्यर्थ के मुकदमे की घुन निकाल दीजिए....”
“जी....!” अनिल ने आश्चर्य से कहा।
सभी दोस्तों ने एक-दूसरे की ओर देखा और फिर अनिल शुष्क स्वर में बोला, “यदि यही परामर्श देना था आपको तो हमारे पांच सौ रुपये क्यों आपने जेब में रख लिए....”
“वह तो परामर्श की फीस है जनाब!” चटर्जी....मुस्कराकर बोला, “चूंकि आपका केस था इसलिए मैं रात के ग्यारह बजे भी परामर्श देने के लिए तैयार हो गया वरना आठ बजे के बाद मेरे मुवक्किल द्वार से ही लौटा दिए जाते हैं....”
“किन्तु मिस्टर चटर्जी। मुझे विश्वास है कि मेरे डैडी मेरे प्रति इतना अन्याय नहीं कर सकते थे....मेरे भाई ने मुझसे धोखा किया है....”
“ठीक है....यदि आपको विश्वास है तो मैं क्या कह सकता हूं....मैं तो वकील हूं और वकील का काम केस लड़ना है....आप लोग कल किसी समय कोर्ट में आ जाइए....पांच हजार रुपये मेरी फीस के लेते आइए, केस फाइल कर दिया जाएगा....”
उन लोगों ने फिर एक-दूसरे की ओर देखा और चटर्जी ने उकताए हुए ढंग से घड़ी पर दृष्टि डालते हुए कहा, “मेरा विचार है आप रात में सोचकर किसी निर्णय पर पहुंच सकते हैं....मुझे कल के मुकदमे का अध्ययन करना है....”
“एक मिनट ठहरिए.....वकील साहब। हम लोग जरा सा आपस में परामर्श कर लें....” अनिल ने उठते हुए कहा।
राज उठने लगा तो अनिल ने कहा, “तुम यहीं ठहरो राज।”
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Re: लव स्टोरी
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(शिद्द्त - सफ़र प्यार का ) ......(प्यार का अहसास ) ......(वापसी : गुलशन नंदा) ......(विधवा माँ के अनौखे लाल) ......(हसीनों का मेला वासना का रेला ) ......(ये प्यास है कि बुझती ही नही ) ...... (Thriller एक ही अंजाम ) ......(फरेब ) ......(लव स्टोरी / राजवंश running) ...... (दस जनवरी की रात ) ...... ( गदरायी लड़कियाँ Running)...... (ओह माय फ़किंग गॉड running) ...... (कुमकुम complete)......
साधू सा आलाप कर लेता हूँ ,
मंदिर जाकर जाप भी कर लेता हूँ ..
मानव से देव ना बन जाऊं कहीं,,,,
बस यही सोचकर थोडा सा पाप भी कर लेता हूँ
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Re: लव स्टोरी
राज हक्का-बक्का इन लोगों को देखता रह गया। अनिल, धर्मचन्द, फकीरचन्द और कुमुद पर्दे की ओट में चले गए। राज के कान उधर ही लगे हुए थे। उसके कानों में यह वार्तालाप पड़ा।
“अब क्या विचार है यारो....।” अनिल ने कहा।
“तुम्हीं बताओ?” यह कुमुद की आवाज थी।
“विचार क्या है भाई।” धर्मचन्द बोला, “यदि राज केस जीत गया तो समझ लो कि हम लोगों की पांचों उंगलियां घी में हैं....”
“इसलिए हम पांच हजार का प्रबन्ध कर दें....”
“बिल्कुल....”
“और यदि केस हार गया तो.....पांच सौ तो डूब ही गए हैं....यह पांच हजार भी डूबे ही समझो।”
“ओहो....” फकीरचन्द चिन्तामय स्वर में बोला, “इस विषय पर तो विचार ही नहीं किया था मैंने...”
“हमें हर पहलू पर विचार करना चाहिए....खन्ना साहब वास्तव में अपनी ईमानदारी के लिए बहुत प्रसिद्ध हैं....यदि सच ही वसीयत जाली प्रमाणित न हुई तो सब कुछ चौपट हो जाएगा....जय से दुश्मनी अलग हो जाएगी....धनी आदमी है, व्यर्थ में किसी ढंग से हमसे बदला लेने पर उतर आया तो किससे प्रार्थना करते फिरेंगे?”
“यह भी ठीक है भाई! अपनी गांठ में इतने पैसे हैं नहीं कि इतना बड़ा जुआ खेला जाए....” फकीरचन्द ने अपना अन्तिम निर्णय दिया।
“फिर मेरे ही पास कोई फालतू थोड़े ही है...” कुमुद ने कहा।
राज को ऐसे अनुभव हो रहा था जैसे उसका मस्तिष्क झाएं-झाएं कर रहा हो....उसकी आंखों के आगे अंधेरा सा छाने लगा, शरीर पसीने से भीग गया। धीरे-धीरे उसने आंखें खोलीं और घबराया हुआ शून्य में देखने लगा। फिर उसने अनिल, धर्मचन्द, फकीरचन्द और कुमुद को चटर्जी से बातें करते हुए देखा। अनिल कह रहा था‒
“अच्छा वकील साहब! इस समय हम लोग चलते हैं....हम लोग कल सुबह तक किसी निर्णय पर पहुंचकर आपको सूचित करेंगे....”
“ठीक है....” चटर्जी ने कहा।
“आओ राज! चलें....” अनिल ने राज की ओर मुड़ते हुए कहा।
राज चुपचाप उठकर उन लोगों के साथ बाहर निकल आया। अनिल ने अपनी कार के पास पहुंचकर घड़ी देखी और चौंकते हुए बोला, “अच्छा भई मैं तो चलता हूं....ग्यारह बज चुके हैं....मुझे याद ही नहीं रहा था आज मेरी सास का ऑपरेशन हुआ है....मेरी पत्नी अपनी मां के पास ही अस्पताल में होगी....उसे यहां से लेकर मुझे घर पहुंचना है।”
यह कहकर अनिल बिना किसी का उत्तर सुने ही गाड़ी की खिड़की खोलकर ड्राइविंग-सीट पर बैठ गया। दूसरी ओर से खिड़की खोलकर धर्मचन्द उसके बराबर वाली सीट पर आ विराजा और बोला, “चलो यार! मुझे रास्ते में छोड़ते जाना....मेरा सिर पीड़ा से फटा जा रहा है।”
गाड़ी स्टार्ट हुई और तेजी से आगे बढ़ गई। राज कुछ भी न बोला। कुछ क्षण बाद फकीरचन्द ने उकता कर कहा, “आखिर हम यहां कब तक खड़े रहेंगे?”
राज ने चौंककर फकीरचन्द की ओर देखा किन्तु, कुछ बोला नहीं। फकीरचन्द ने एक लम्बी जम्हाई ली और बोला, “मेरा घर तो इस ओर है भई....अरे हां, तुम कहां जाओगे?”
“मैं...?” राज धीरे से बड़बड़ाया, “हां, मैं कहां जाऊंगा? मैं कहां जाऊंगा?”
“मेरा विचार है आज की रात तुम कुमुद के यहां काट लो....कल फिर कहीं प्रबन्ध कर लेना....क्यों कुमुद...?”
‘‘ईं....ह....हां....हां....क्या हानि है इसमें.....आज की रात मेरे यहां रहो....कल कहीं प्रबन्ध कर लेना।’’
“तो फिर मैं चलता हूं...”
उत्तर की प्रतीक्षा किए बिना ही फकीरचन्द तेजी से एक गुजरती हुई टैक्सी को रुकवा कर उसमें सवार हो गया। टैक्सी चल पड़ी और राज टैक्सी को जाते देखता रह गया। कुमुद कुछ चिन्तित, कुछ उकताया हुआ-सा खड़ा था। उसने चोर-दृष्टि से राज को देखा और बोला, “तो फिर चल रहे हो?”
“ई....हां, चल रहा हूं....” राज बड़बड़ाया।
दोनों साथ-साथ चल पड़े। कुमुद कुछ इस प्रकार उदास, अनमना-सा उकताता हुआ धीरे-धीरे चल रहा था मानो किसी परिचित की अर्थी के संग विवशतः श्मशान-घाट की ओर चल रहा हो....और राज कुछ इस दशा में चल रहा था मानो अपनी अर्थी स्वयं उठाए हो। उसका माथा सपाट था, होंठ बन्द थे और आंखें भावहीन, बस वह चुपचाप फैली हुई थीं....वह पलक भी नहीं झपक रहा था। कुछ दूर चलने के बाद कुमुद ने राज को सिगरेट सुलगा कर दिया और कहा, “लो सिगरेट पियो....।”
“ऊ हूं....” राज ने सिगरेट की ओर देखा और बोला, “मूड नहीं है....”
“अब क्या विचार है यारो....।” अनिल ने कहा।
“तुम्हीं बताओ?” यह कुमुद की आवाज थी।
“विचार क्या है भाई।” धर्मचन्द बोला, “यदि राज केस जीत गया तो समझ लो कि हम लोगों की पांचों उंगलियां घी में हैं....”
“इसलिए हम पांच हजार का प्रबन्ध कर दें....”
“बिल्कुल....”
“और यदि केस हार गया तो.....पांच सौ तो डूब ही गए हैं....यह पांच हजार भी डूबे ही समझो।”
“ओहो....” फकीरचन्द चिन्तामय स्वर में बोला, “इस विषय पर तो विचार ही नहीं किया था मैंने...”
“हमें हर पहलू पर विचार करना चाहिए....खन्ना साहब वास्तव में अपनी ईमानदारी के लिए बहुत प्रसिद्ध हैं....यदि सच ही वसीयत जाली प्रमाणित न हुई तो सब कुछ चौपट हो जाएगा....जय से दुश्मनी अलग हो जाएगी....धनी आदमी है, व्यर्थ में किसी ढंग से हमसे बदला लेने पर उतर आया तो किससे प्रार्थना करते फिरेंगे?”
“यह भी ठीक है भाई! अपनी गांठ में इतने पैसे हैं नहीं कि इतना बड़ा जुआ खेला जाए....” फकीरचन्द ने अपना अन्तिम निर्णय दिया।
“फिर मेरे ही पास कोई फालतू थोड़े ही है...” कुमुद ने कहा।
राज को ऐसे अनुभव हो रहा था जैसे उसका मस्तिष्क झाएं-झाएं कर रहा हो....उसकी आंखों के आगे अंधेरा सा छाने लगा, शरीर पसीने से भीग गया। धीरे-धीरे उसने आंखें खोलीं और घबराया हुआ शून्य में देखने लगा। फिर उसने अनिल, धर्मचन्द, फकीरचन्द और कुमुद को चटर्जी से बातें करते हुए देखा। अनिल कह रहा था‒
“अच्छा वकील साहब! इस समय हम लोग चलते हैं....हम लोग कल सुबह तक किसी निर्णय पर पहुंचकर आपको सूचित करेंगे....”
“ठीक है....” चटर्जी ने कहा।
“आओ राज! चलें....” अनिल ने राज की ओर मुड़ते हुए कहा।
राज चुपचाप उठकर उन लोगों के साथ बाहर निकल आया। अनिल ने अपनी कार के पास पहुंचकर घड़ी देखी और चौंकते हुए बोला, “अच्छा भई मैं तो चलता हूं....ग्यारह बज चुके हैं....मुझे याद ही नहीं रहा था आज मेरी सास का ऑपरेशन हुआ है....मेरी पत्नी अपनी मां के पास ही अस्पताल में होगी....उसे यहां से लेकर मुझे घर पहुंचना है।”
यह कहकर अनिल बिना किसी का उत्तर सुने ही गाड़ी की खिड़की खोलकर ड्राइविंग-सीट पर बैठ गया। दूसरी ओर से खिड़की खोलकर धर्मचन्द उसके बराबर वाली सीट पर आ विराजा और बोला, “चलो यार! मुझे रास्ते में छोड़ते जाना....मेरा सिर पीड़ा से फटा जा रहा है।”
गाड़ी स्टार्ट हुई और तेजी से आगे बढ़ गई। राज कुछ भी न बोला। कुछ क्षण बाद फकीरचन्द ने उकता कर कहा, “आखिर हम यहां कब तक खड़े रहेंगे?”
राज ने चौंककर फकीरचन्द की ओर देखा किन्तु, कुछ बोला नहीं। फकीरचन्द ने एक लम्बी जम्हाई ली और बोला, “मेरा घर तो इस ओर है भई....अरे हां, तुम कहां जाओगे?”
“मैं...?” राज धीरे से बड़बड़ाया, “हां, मैं कहां जाऊंगा? मैं कहां जाऊंगा?”
“मेरा विचार है आज की रात तुम कुमुद के यहां काट लो....कल फिर कहीं प्रबन्ध कर लेना....क्यों कुमुद...?”
‘‘ईं....ह....हां....हां....क्या हानि है इसमें.....आज की रात मेरे यहां रहो....कल कहीं प्रबन्ध कर लेना।’’
“तो फिर मैं चलता हूं...”
उत्तर की प्रतीक्षा किए बिना ही फकीरचन्द तेजी से एक गुजरती हुई टैक्सी को रुकवा कर उसमें सवार हो गया। टैक्सी चल पड़ी और राज टैक्सी को जाते देखता रह गया। कुमुद कुछ चिन्तित, कुछ उकताया हुआ-सा खड़ा था। उसने चोर-दृष्टि से राज को देखा और बोला, “तो फिर चल रहे हो?”
“ई....हां, चल रहा हूं....” राज बड़बड़ाया।
दोनों साथ-साथ चल पड़े। कुमुद कुछ इस प्रकार उदास, अनमना-सा उकताता हुआ धीरे-धीरे चल रहा था मानो किसी परिचित की अर्थी के संग विवशतः श्मशान-घाट की ओर चल रहा हो....और राज कुछ इस दशा में चल रहा था मानो अपनी अर्थी स्वयं उठाए हो। उसका माथा सपाट था, होंठ बन्द थे और आंखें भावहीन, बस वह चुपचाप फैली हुई थीं....वह पलक भी नहीं झपक रहा था। कुछ दूर चलने के बाद कुमुद ने राज को सिगरेट सुलगा कर दिया और कहा, “लो सिगरेट पियो....।”
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साधू सा आलाप कर लेता हूँ ,
मंदिर जाकर जाप भी कर लेता हूँ ..
मानव से देव ना बन जाऊं कहीं,,,,
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Re: लव स्टोरी
कुमुद ने सिगरेट अपने होंठों में दबा लिया और माचिस की तीली हवा में उछालता हुआ चिन्तित स्वर में बोला, “समझ में नहीं आता आखिर अब होगा क्या।”
राज कुछ न बोला....चुपचाप चलता रहा। कुमुद ने फिर निस्तब्धता को तोड़ा, “तुमने भी कुछ सोचा इस विषय पर?”
“ऊं हूं....” राज बहुत धीमे स्वर में बोला।
“क्या होगा?”
“कुछ नहीं होगा....” राज बड़बड़ाया।
“मेरा भी यही विचार है....” कुमुद शीघ्रता में बोला “अनिल, धर्मचन्द और फकीरचन्द भी यही कह रहे थे....यदि वसीयत सच्ची निकल आई तो व्यर्थ ही समय और धन नष्ट होगा....बेहतर यह होगा कि तुम हालात के साथ समझौता कर लो....”
“हूं....” राज चलते हुए अपने ध्यान में खोया बोला।
“तुम्हें डिग्री मिल ही गई है....इसके द्वारा तुम्हें कहीं कोई उचित नौकरी अवश्य मिल जाएगी और रोटी का सहारा हो जाएगा....आजकल आदमी को दो जून रोटी और तन ढांपने को कपड़ा मिल जाए तो भगवान की बड़ी कृपा है.....मैं भी तुम्हारे लिए कोई काम ढूंढूंगा.....तुम स्वयं भी प्रयत्न करना....”
“हूं....” राज उसी मुद्रा में बोला।
चलते चलते कुमुद अपने फ्लैट पर पहुंच गया....फिर घंटी बजाकर उसने द्वार खुलवाया और राज को वहीं छोड़कर स्वयं भीतर चला गया। राज चुपचाप वहीं खड़ा रहा....उसकी आंखें वैसे ही शून्य में घूर रही थीं....। लगभग पन्द्रह मिनट उसे वहीं खड़े रहना पड़ा....फिर कुमुद बाहर निकला और हाथ मलता हुआ बोला, “क्षमा करना मैं जरा बाथ-रूम में चला गया था।”
“हूं....” राज बहुत धीमे स्वर में बोला।
मैंने तुम्हारी भाभी से कहा था कि राज यहीं सोएगा...
“हूं....”
“किन्तु, भई क्या बताऊं....बड़ी विचित्र नारी है...इतनी डरपोक नारी तो मैंने आज तक नहीं देखी....वह कहती है कि यदि कोई पराया पुरुष यों हार में रात को रहेगा तो अड़ोस-पड़ोस वाले क्या सोचेंगे....तुम तो जानते हो कि घर में हम दोनों पति पत्नी के अतिरिक्त कोई तीसरा व्यक्ति नहीं रहता....”
“हूं....” राज ने बिना कोई चिन्ता प्रकट किए उसी सन्तोष में उत्तर दिया।
“यार! बुरा न मानना, कुछ विचित्र सी स्थिति बन गई है...”
“चुप रहो...” अचानक राज इतनी तेजी से चिल्लाया कि कुमुद अनायास उछल पड़ा।
फिर घबरा कर वह अपने फ्लैट में घुस गया और उसने भीतर से द्वार बन्द कर लिया। राज चीख-चीख कर कहता रहा, “तुम सब नीच हो, स्वार्थी हो, कृतघ्न हो...”
“यार! क्या मूर्खता है....” कुमुद ने द्वार में से गर्दन निकालते हुए कहा, पड़ोस वाले क्या कहेंगे?
“चुप रह....” राज फिर दहाड़ा।
कुमुद ने झट द्वार बन्द कर लिया...राज क्रोधित दृष्टि से द्वार को यों देखता रहा जैसे अब किसी ने सिर निकालकर बाहर झांका तो वह उसका सिर फोड़ देगा....किन्तु, अब कुमुद ने द्वार नहीं खोला.....हां अब दूसरे फ्लैटों के द्वार बारी-बारी खुलने लगे थे....और आवाजें आ रही थीं।
“कौन चीख रहा है?”
“पागल मालूम होता है?”
“शराब पीकर आया है....”
“यह तो कुमुद के घर के सामने खड़ा है....”
“नहीं भई। कुमुद साहब तो बहुत भले आदमी हैं...”
“तब तो कोई शराबी ही है...”
राज ने चारों ओर दृष्टि घुमा कर अपने-अपने द्वारों में से झांकती हुई आंखों को देखा....जिधर भी वह देखता वे आंखें डर कर पीछे हट जातीं और खट से द्वार बन्द हो जाता। आखिर जब एक द्वार पर उसकी दृष्टि टिकी तो एक अधेड़ आयु के व्यक्ति ने डरते-डरते कहा, “आगे जाओ भाई। क्यों शरीफ आदमियों की नींद नष्ट करते हो...”
“खामोश...” राज पागलों के समान चीखता हुआ उस द्वार की ओर झपटा।
अधेड़ आयु के व्यक्ति ने झट द्वार बन्द कर लिया....और राज मुट्ठियां भींचकर बड़बड़ाया, “यह कोई शरीफ नहीं....सभी कमीने हैं....नीच....”
इसी प्रकार बड़बड़ाता हुआ वह धीरे-धीरे एक ओर चलने लगा....“कोई शरीफ नहीं है....सभी कमीन हैं....नीच....।”
पास ही कोई कुत्ता भौंककर राज की आवाज में आवाज मिलाने लगा...राज ने मुट्ठियां भींचकर कुत्ते की ओर देखा और फिर एक पत्थर उठाकर उसने कुत्ते की ओर फेंका-कुत्ता चाओं-चाओं करता हुआ तेजी से भागा....राज पत्थर उठा-उठाकर मारता हुआ कुत्ते के पीछे दौड़ता चला गया।
*****************************************
राज कुछ न बोला....चुपचाप चलता रहा। कुमुद ने फिर निस्तब्धता को तोड़ा, “तुमने भी कुछ सोचा इस विषय पर?”
“ऊं हूं....” राज बहुत धीमे स्वर में बोला।
“क्या होगा?”
“कुछ नहीं होगा....” राज बड़बड़ाया।
“मेरा भी यही विचार है....” कुमुद शीघ्रता में बोला “अनिल, धर्मचन्द और फकीरचन्द भी यही कह रहे थे....यदि वसीयत सच्ची निकल आई तो व्यर्थ ही समय और धन नष्ट होगा....बेहतर यह होगा कि तुम हालात के साथ समझौता कर लो....”
“हूं....” राज चलते हुए अपने ध्यान में खोया बोला।
“तुम्हें डिग्री मिल ही गई है....इसके द्वारा तुम्हें कहीं कोई उचित नौकरी अवश्य मिल जाएगी और रोटी का सहारा हो जाएगा....आजकल आदमी को दो जून रोटी और तन ढांपने को कपड़ा मिल जाए तो भगवान की बड़ी कृपा है.....मैं भी तुम्हारे लिए कोई काम ढूंढूंगा.....तुम स्वयं भी प्रयत्न करना....”
“हूं....” राज उसी मुद्रा में बोला।
चलते चलते कुमुद अपने फ्लैट पर पहुंच गया....फिर घंटी बजाकर उसने द्वार खुलवाया और राज को वहीं छोड़कर स्वयं भीतर चला गया। राज चुपचाप वहीं खड़ा रहा....उसकी आंखें वैसे ही शून्य में घूर रही थीं....। लगभग पन्द्रह मिनट उसे वहीं खड़े रहना पड़ा....फिर कुमुद बाहर निकला और हाथ मलता हुआ बोला, “क्षमा करना मैं जरा बाथ-रूम में चला गया था।”
“हूं....” राज बहुत धीमे स्वर में बोला।
मैंने तुम्हारी भाभी से कहा था कि राज यहीं सोएगा...
“हूं....”
“किन्तु, भई क्या बताऊं....बड़ी विचित्र नारी है...इतनी डरपोक नारी तो मैंने आज तक नहीं देखी....वह कहती है कि यदि कोई पराया पुरुष यों हार में रात को रहेगा तो अड़ोस-पड़ोस वाले क्या सोचेंगे....तुम तो जानते हो कि घर में हम दोनों पति पत्नी के अतिरिक्त कोई तीसरा व्यक्ति नहीं रहता....”
“हूं....” राज ने बिना कोई चिन्ता प्रकट किए उसी सन्तोष में उत्तर दिया।
“यार! बुरा न मानना, कुछ विचित्र सी स्थिति बन गई है...”
“चुप रहो...” अचानक राज इतनी तेजी से चिल्लाया कि कुमुद अनायास उछल पड़ा।
फिर घबरा कर वह अपने फ्लैट में घुस गया और उसने भीतर से द्वार बन्द कर लिया। राज चीख-चीख कर कहता रहा, “तुम सब नीच हो, स्वार्थी हो, कृतघ्न हो...”
“यार! क्या मूर्खता है....” कुमुद ने द्वार में से गर्दन निकालते हुए कहा, पड़ोस वाले क्या कहेंगे?
“चुप रह....” राज फिर दहाड़ा।
कुमुद ने झट द्वार बन्द कर लिया...राज क्रोधित दृष्टि से द्वार को यों देखता रहा जैसे अब किसी ने सिर निकालकर बाहर झांका तो वह उसका सिर फोड़ देगा....किन्तु, अब कुमुद ने द्वार नहीं खोला.....हां अब दूसरे फ्लैटों के द्वार बारी-बारी खुलने लगे थे....और आवाजें आ रही थीं।
“कौन चीख रहा है?”
“पागल मालूम होता है?”
“शराब पीकर आया है....”
“यह तो कुमुद के घर के सामने खड़ा है....”
“नहीं भई। कुमुद साहब तो बहुत भले आदमी हैं...”
“तब तो कोई शराबी ही है...”
राज ने चारों ओर दृष्टि घुमा कर अपने-अपने द्वारों में से झांकती हुई आंखों को देखा....जिधर भी वह देखता वे आंखें डर कर पीछे हट जातीं और खट से द्वार बन्द हो जाता। आखिर जब एक द्वार पर उसकी दृष्टि टिकी तो एक अधेड़ आयु के व्यक्ति ने डरते-डरते कहा, “आगे जाओ भाई। क्यों शरीफ आदमियों की नींद नष्ट करते हो...”
“खामोश...” राज पागलों के समान चीखता हुआ उस द्वार की ओर झपटा।
अधेड़ आयु के व्यक्ति ने झट द्वार बन्द कर लिया....और राज मुट्ठियां भींचकर बड़बड़ाया, “यह कोई शरीफ नहीं....सभी कमीने हैं....नीच....”
इसी प्रकार बड़बड़ाता हुआ वह धीरे-धीरे एक ओर चलने लगा....“कोई शरीफ नहीं है....सभी कमीन हैं....नीच....।”
पास ही कोई कुत्ता भौंककर राज की आवाज में आवाज मिलाने लगा...राज ने मुट्ठियां भींचकर कुत्ते की ओर देखा और फिर एक पत्थर उठाकर उसने कुत्ते की ओर फेंका-कुत्ता चाओं-चाओं करता हुआ तेजी से भागा....राज पत्थर उठा-उठाकर मारता हुआ कुत्ते के पीछे दौड़ता चला गया।
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(शिद्द्त - सफ़र प्यार का ) ......(प्यार का अहसास ) ......(वापसी : गुलशन नंदा) ......(विधवा माँ के अनौखे लाल) ......(हसीनों का मेला वासना का रेला ) ......(ये प्यास है कि बुझती ही नही ) ...... (Thriller एक ही अंजाम ) ......(फरेब ) ......(लव स्टोरी / राजवंश running) ...... (दस जनवरी की रात ) ...... ( गदरायी लड़कियाँ Running)...... (ओह माय फ़किंग गॉड running) ...... (कुमकुम complete)......
साधू सा आलाप कर लेता हूँ ,
मंदिर जाकर जाप भी कर लेता हूँ ..
मानव से देव ना बन जाऊं कहीं,,,,
बस यही सोचकर थोडा सा पाप भी कर लेता हूँ
(¨`·.·´¨) Always
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`·.¸.·´ -- raj sharma
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Re: लव स्टोरी
“क्या बात है?” संध्या ने नौकर की ओर देखा।
“बेटा! राज बाबू आपसे मिलना चाहते है....”
“राज!” अनिल हड़बड़ा कर खड़ा हो गया।
“अरे-अरे...।” संध्या उसकी बांह पकड़ कर बिठाती हुई बोली, ‘‘बैठो तुम्हें क्या हो गया है?’’
“अरे कहीं वह मुझे यहां न देख ले...” अनिल घबराया।
“देख लेगा तो क्या हुआ!” संध्या ने मुस्कराकर कहा।
“पागल हो रहा है वह...” अनिल ने चिन्तामय स्वर में कहा, “रात कुमुद को ही मारने दौड़ पड़ा था...बड़ी कठिनाई से उस बेचारे ने अपने प्राण बचाए....पड़ोसियों से अलग बहाना करना पड़ा कि एक दोस्त था जो शराब पीकर आ गया। कुछ रुपये ऋण मांग रहा है.....तुम्हारे साथ मुझे देखकर और भड़क उठेगा....”
“क्यों भड़क उठेगा....क्यों भड़क उठेगा....” संध्या ने विषैली मुस्कराहट से कहा, “क्या मैं कोई उसकी खरीदी हुई दासी हूं?”
“तुम उससे प्रेम करती थीं ना...” अनिल मुस्कराया।
“प्रेम हूं” संध्या ने बुरा सा मुंह बनाकर कहा, “प्रेम तो एक हल्के नाजुक कूंजे से भी अधिक कोमल होता है, अनिल बाबू! मैं जीवन भर उस अपमान को नहीं भूल सकती जो भरी सभा में मेरे प्रति किया गया है....उसके भाई ने मुझे क्या समझ रखा है.....क्या मैं किसी भिखारी की बेटी हूं....मेरा बाप भी लखपति था....इन दिनों कुछ उलझनों की फेरी में आ गए हैं हम लोग तो क्या हुआ....सेठ शंभूनाथ तो इतना पीछे पड़ा है कि डैडी उससे दस-बीस हजार रुपये लेकर कारोबार की साख संभाल लें..”
किन्तु डैडी ही उसके उपकार अधीन नहीं होता चाहते....क्योंकि सेठ शंभूनाथ का इंगलैंड-रिटर्न्ड अर्धपागल बेटा मुझे पसंद नहीं। डैडी मेरा ब्याह मेरी इच्छानुसार करना चाहते हैं...अब क्या इतने बड़े आदमी की बेटी के ससुराल वाले इतने गिरे-पड़े होंगे कि दस बीस हजार से हमारी सहायता करके कारोबार की गिरती हुई साख को न संभाल सकें...
“कदापि नहीं....” अनिल ने मुस्कराकर संध्या का हाथ अपने हाथ में लेते हुए कहा, “आखिर कारोबार होगा किसका? तुम भी तो अपने डैडी की इकलौती बेटी हो।”
“इकलौती बेटी....डैडी की सम्पत्ति की एकमात्र मालिक.... संध्या ने मुस्कराकर टाई-पिन अनिल की टाई में टांकते हुए कहा।”
“राज!” अनिल अचानक उछलते हुए चिल्लाया।
संध्या ने भी चौंककर द्वार की ओर देखा। राज मुट्ठियां भींचे, नथुने फुलाए हुए खूंखार दृष्टि से उन दोनों को घूर रहा था। उसके बाल बिखरे हुए थे, दाढ़ी बढ़ गई थी। और पतलून मसली हुई थी। उसकी आंखों से एक जुनून और पागलपन झांक रहा था। संध्या ने क्रोध-भरे स्वर में कहा‒
“यह क्या मूर्खता है? बिना अनुमति भीतर कैसे चले आए?”
राज कुछ न बोला। वह संध्या और अनिल को घूरे जा रहा था। उसकी आंखें आग उगल रही थीं। संध्या ने झुंझलाकर कहा, “सुना नहीं तुमने....यहां क्या लेने आए हो? निकल जाओ यहां से....”
राज कुछ न बोला....वह मुट्ठियां भींचे हुए उसी क्रोधित मुद्रा में संध्या की ओर बढ़ता रहा जैसे उसकी गर्दन दबोच डालेगा। संध्या घबराकर पीछे हटती हुइ बोली, “होश में आओ....राज कहीं तुम पागल तो नहीं हो गए?”
“होश में आ गया हूं...” राज दांतों पर दांत जमाकर बोला, “पागलपन की सीमा से निकल आया हूं...तुम सब कमीने हो कृतघ्न हो।”
“राज....!” संध्या क्रोध से चीख पड़ी।
उसी समय राज ने झपट कर संध्या की गर्दन दबोच ली और हांफते हुए फूली सांस से बोला, ‘‘जीवित नहीं छोड़ूंगा तुझे.....कमीनी...जीवित नहीं छोड़ूंगा।’’
संध्या की चीखे निकलने लगीं। अनिल ने झपटकर राज से संध्या को छुड़ाने का प्रयत्न किया....संध्या बिलबिला कर पूरी शक्ति लगाकर राज की पकड़ से निकल गई और चीख-चीखकर नौकरों को पुकारने लगी। राज ने फिर संध्या की ओर झपटने का प्रयत्न कियां। अनिल ने जोर से राज की ठोड़ी पर घूंसा मारा और राज उछलकर द्वार के पास जा गिरा। इतने में चारों ओर से नौकरों ने आकर उसे पकड़ लिया। संध्या कंकपाती हुई चीख रही थी, “निकाल दो इसे....धक्के मारकर निकाल दो....यह होश में नहीं है....पागल हो गया है।”
राज चीखता रहा और नौकरों ने उसे धक्के मारकर कोठी से बाहर निकाल दिया। राज सड़क पर गिर पड़ा और कोठी फाटक बन्द हो गया। राज ने होंठ और माथे का लहू पोंछा और कोठी के फाटक को जोर-जोर से हिलाते हुए चिल्लाया‒
“तुम सब कमीने हो....कमीने”
“बेटा! राज बाबू आपसे मिलना चाहते है....”
“राज!” अनिल हड़बड़ा कर खड़ा हो गया।
“अरे-अरे...।” संध्या उसकी बांह पकड़ कर बिठाती हुई बोली, ‘‘बैठो तुम्हें क्या हो गया है?’’
“अरे कहीं वह मुझे यहां न देख ले...” अनिल घबराया।
“देख लेगा तो क्या हुआ!” संध्या ने मुस्कराकर कहा।
“पागल हो रहा है वह...” अनिल ने चिन्तामय स्वर में कहा, “रात कुमुद को ही मारने दौड़ पड़ा था...बड़ी कठिनाई से उस बेचारे ने अपने प्राण बचाए....पड़ोसियों से अलग बहाना करना पड़ा कि एक दोस्त था जो शराब पीकर आ गया। कुछ रुपये ऋण मांग रहा है.....तुम्हारे साथ मुझे देखकर और भड़क उठेगा....”
“क्यों भड़क उठेगा....क्यों भड़क उठेगा....” संध्या ने विषैली मुस्कराहट से कहा, “क्या मैं कोई उसकी खरीदी हुई दासी हूं?”
“तुम उससे प्रेम करती थीं ना...” अनिल मुस्कराया।
“प्रेम हूं” संध्या ने बुरा सा मुंह बनाकर कहा, “प्रेम तो एक हल्के नाजुक कूंजे से भी अधिक कोमल होता है, अनिल बाबू! मैं जीवन भर उस अपमान को नहीं भूल सकती जो भरी सभा में मेरे प्रति किया गया है....उसके भाई ने मुझे क्या समझ रखा है.....क्या मैं किसी भिखारी की बेटी हूं....मेरा बाप भी लखपति था....इन दिनों कुछ उलझनों की फेरी में आ गए हैं हम लोग तो क्या हुआ....सेठ शंभूनाथ तो इतना पीछे पड़ा है कि डैडी उससे दस-बीस हजार रुपये लेकर कारोबार की साख संभाल लें..”
किन्तु डैडी ही उसके उपकार अधीन नहीं होता चाहते....क्योंकि सेठ शंभूनाथ का इंगलैंड-रिटर्न्ड अर्धपागल बेटा मुझे पसंद नहीं। डैडी मेरा ब्याह मेरी इच्छानुसार करना चाहते हैं...अब क्या इतने बड़े आदमी की बेटी के ससुराल वाले इतने गिरे-पड़े होंगे कि दस बीस हजार से हमारी सहायता करके कारोबार की गिरती हुई साख को न संभाल सकें...
“कदापि नहीं....” अनिल ने मुस्कराकर संध्या का हाथ अपने हाथ में लेते हुए कहा, “आखिर कारोबार होगा किसका? तुम भी तो अपने डैडी की इकलौती बेटी हो।”
“इकलौती बेटी....डैडी की सम्पत्ति की एकमात्र मालिक.... संध्या ने मुस्कराकर टाई-पिन अनिल की टाई में टांकते हुए कहा।”
“राज!” अनिल अचानक उछलते हुए चिल्लाया।
संध्या ने भी चौंककर द्वार की ओर देखा। राज मुट्ठियां भींचे, नथुने फुलाए हुए खूंखार दृष्टि से उन दोनों को घूर रहा था। उसके बाल बिखरे हुए थे, दाढ़ी बढ़ गई थी। और पतलून मसली हुई थी। उसकी आंखों से एक जुनून और पागलपन झांक रहा था। संध्या ने क्रोध-भरे स्वर में कहा‒
“यह क्या मूर्खता है? बिना अनुमति भीतर कैसे चले आए?”
राज कुछ न बोला। वह संध्या और अनिल को घूरे जा रहा था। उसकी आंखें आग उगल रही थीं। संध्या ने झुंझलाकर कहा, “सुना नहीं तुमने....यहां क्या लेने आए हो? निकल जाओ यहां से....”
राज कुछ न बोला....वह मुट्ठियां भींचे हुए उसी क्रोधित मुद्रा में संध्या की ओर बढ़ता रहा जैसे उसकी गर्दन दबोच डालेगा। संध्या घबराकर पीछे हटती हुइ बोली, “होश में आओ....राज कहीं तुम पागल तो नहीं हो गए?”
“होश में आ गया हूं...” राज दांतों पर दांत जमाकर बोला, “पागलपन की सीमा से निकल आया हूं...तुम सब कमीने हो कृतघ्न हो।”
“राज....!” संध्या क्रोध से चीख पड़ी।
उसी समय राज ने झपट कर संध्या की गर्दन दबोच ली और हांफते हुए फूली सांस से बोला, ‘‘जीवित नहीं छोड़ूंगा तुझे.....कमीनी...जीवित नहीं छोड़ूंगा।’’
संध्या की चीखे निकलने लगीं। अनिल ने झपटकर राज से संध्या को छुड़ाने का प्रयत्न किया....संध्या बिलबिला कर पूरी शक्ति लगाकर राज की पकड़ से निकल गई और चीख-चीखकर नौकरों को पुकारने लगी। राज ने फिर संध्या की ओर झपटने का प्रयत्न कियां। अनिल ने जोर से राज की ठोड़ी पर घूंसा मारा और राज उछलकर द्वार के पास जा गिरा। इतने में चारों ओर से नौकरों ने आकर उसे पकड़ लिया। संध्या कंकपाती हुई चीख रही थी, “निकाल दो इसे....धक्के मारकर निकाल दो....यह होश में नहीं है....पागल हो गया है।”
राज चीखता रहा और नौकरों ने उसे धक्के मारकर कोठी से बाहर निकाल दिया। राज सड़क पर गिर पड़ा और कोठी फाटक बन्द हो गया। राज ने होंठ और माथे का लहू पोंछा और कोठी के फाटक को जोर-जोर से हिलाते हुए चिल्लाया‒
“तुम सब कमीने हो....कमीने”
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मंदिर जाकर जाप भी कर लेता हूँ ..
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