सुषमा शंकर के घर में आई तो सबसे पहले उसकी दृष्टि शंकर पर ही पड़ी जो सुषमा को देखकर ठिठक गया था। सुषमा क्षण-भर के लिए रुकी और फिर सीधी बेबी के कमरे में चली गई। बेबी पुस्तक खोले बैठी थी....सुषमा को देखकर उसके चेहरे पर प्रसन्नता की लकीरें दौड़ गईं। वह उठती हुई बोली, “नमस्ते दीदी....”
“जीती रहो....” सुषमा ने प्यार से बेबी के सिर पर हाथ फेरते हुए कहा, “बैठ जाओ...”
“बेबी बैठकर पढ़ने लगी। सुषमा ने पूछा, “कल तुम्हारी कौन-सी परीक्षा है?”
“गणित की....अन्तिम पर्चा है...दीदी।”
“ठीक है...आज मन लगाकर पढ़ समझ लो....और देखो...कल अन्तिम पर्चा समाप्त हो जाने पर मत समझना कि यह परीक्षा भी अन्तिम थी....मैं कल भी पढ़ाने आऊंगी....और रोज आती रहूंगी....”
“अच्छा दीदी....” बेबी ने खुशामद-भरे स्वर में कहा, “केवल कल की छुट्टी दे दीजिए....”
“अच्छा, कल की छुट्टी रही।” सुषमा मुस्कराकर बोली।
बेबी ने उठकर सुषमा के गले में प्यार से बांहें डाले दीं....फिर वह पुस्तक खोलकर बैठ गई।
लगभग एक घंटा बाद सुषमा बेबी के कमरे से निकली। बाहर शंकर खड़ा उसे ध्यानपूर्वक देख रहा था। उसने सुषमा से कहा‒
“मैं तुसमे कुछ बातें करना चाहता हूं....मेरे साथ आओ...”
“बातें यहां खड़े-खड़े भी हो सकती हैं....” सुषमा, ने गंभीर स्वर में उत्तर दिया।
“घबराओ नहीं...” शंकर फीकी मुस्कराहट से बोला, “अभी रात इतनी सुनसान नहीं हुई कि अन्धेरे शैतान की आंखों में चमक उत्पन्न हो जाए...”
शंकर घूमकर कमरे में चला गया। सुषमा सन्तोष से कमरे में आई। उसके चेहरे पर कोई भय नहीं था...एक आत्मविश्वास था। अचानक शंकर ने घूमकर कठोर स्वर में पूछा‒
“तुम यहां अब क्यों आई हो?”
“बेबी को पढ़ाने के लिए...” सुषमा ने गंभीर होकर उत्तर दिया, “आप भूल रहे हैं कि आप ही ने बेबी के भविष्य का उत्तरदायित्व मेरे कंधों पर डाल रखा है...”
“बेबी को पढ़ाने के लिए या मुझे मेरी गिरावट का भास दिलाने के लिए...”
“नहीं...!” सुषमा के होंठों पर एक हल्की-सी आत्मविश्वास की हंसी फैल गई, “बल्कि इसलिए आती हूं कि मानव-मानव से कभी निराश नहीं होता...अमावस की रात के अंधेरे में भी कहीं न कहीं मानव को प्रकाश की चमक आ ही जाती है...मन का शैतान उसे ही डराता है जो उससे डर कर भागे...और शैतान उससे भागता है जो उसके पीछे मानवता का प्रकाश लेकर दौड़ पड़े। मैं आपसे डरने लगती तो आप पर शैतान की पकड़ और दृढ़ हो जाती...किन्तु मैं आपसे नहीं डरती और इसी कारण आपका शैतान निर्बल पड़ रहा है...क्योंकि आप स्वयं ही जानते हैं कि आपके भीतर कहीं-न-कहीं मानवता का कोई अंश अवश्य छिपा है...बेबी आपकी बेटी है और बेबी ही के समान पलकर बड़ी होने वाली कोई लड़की आपकी बहन भी हो सकती है...जो किरणें आपके अन्तर में छिपे हाथ बेबी को प्रदान करते हैं वही किरणें एक बहन को भी दे सकते हैं।”
शंकर हक्का-बक्का सुषमा की ओर देखता रहा। उसकी आंखें फटी हुई थीं। सुषमा ने ठंडी सांस लेकर कहा, “दुनिया की हर नारी से केवल एक ही सम्बन्ध तो आवश्यक नहीं होता...मैं जानती हूं आपके मन में मेरे प्रति असीम प्यार है...बहुत स्थान है...आपने मुझे सपनों में देखा होगा...रातों को जाग-जागकर मेरे बारे में सोचा होगा...किन्तु कभी आपके मनोमस्तिष्क पर छाए शैतान ने आपकी सोचों की दशा बदल दो होगी...मैं आपको आमन्त्रित करती हूं शंकरजी! आप मुझसे प्रेम कीजिए...मैं भी आपसे असीम प्यार करूंगी...क्योंकि मैं वह वृक्ष हूं जिसने उस समय जब वह केवल पौधा था कभी प्यार के बादल के छोटे-से टुकड़े की भी छांव नहीं देखी।”
“सुषमा...” शंकर की आवाज कंपकंपा उठी, “मुझे क्षमा कर दो सुषमा, मैंने तुम्हें समझने में कितनी भूल की थी...मैंने यह स्वप्न में भी न सोचा था कि तुम्हारा इतना मूल्य है कि मैं सौ जन्म लेने पर भी इसे नहीं चुका सकता।”
“चुका सकते हैं आप...” सुषमा की मुस्कराहट गहरी हो गई।
“हां चुका सकता हूं...अपने भैया से कह दो कि मैंने तुम्हारे साथ बुरा व्यवहार किया है, वह मुझे इसका दण्ड दे तो मेरी आत्मा को शान्ति मिल पाएगी...”
“नहीं, एक और मार्ग भी है...” सुषमा ने मुस्कराकर कहा, “अभी-अभी आप मुझे बहन कहकर देखिए...आप यों अनुभव करेंगे कि आपने एक पवित्र मार्ग मुझे देकर अपने पाप के मूल्य से कहीं अधिक चुका दिया है...”
“सुषमा! मेरी बहन...”
शंकर ने आगे बढ़कर सुषमा को गले लगा लिया और उसके माथे पर स्नेह-भरे होंठ रख दिए...सुषमा रो पड़ी। उसके गले से भर्राई हुई आवाज निकली।
“आज, आज जीवन में पहली बार मैंने कुछ जीता है शंकर भैया!” कहते-कहते सुषमा शंकर के कंधे पर सिर रखकर रोने लगी।
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Romance लव स्टोरी
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Re: लव स्टोरी
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(शिद्द्त - सफ़र प्यार का ) ......(प्यार का अहसास ) ......(वापसी : गुलशन नंदा) ......(विधवा माँ के अनौखे लाल) ......(हसीनों का मेला वासना का रेला ) ......(ये प्यास है कि बुझती ही नही ) ...... (Thriller एक ही अंजाम ) ......(फरेब ) ......(लव स्टोरी / राजवंश running) ...... (दस जनवरी की रात ) ...... ( गदरायी लड़कियाँ Running)...... (ओह माय फ़किंग गॉड running) ...... (कुमकुम complete)......
साधू सा आलाप कर लेता हूँ ,
मंदिर जाकर जाप भी कर लेता हूँ ..
मानव से देव ना बन जाऊं कहीं,,,,
बस यही सोचकर थोडा सा पाप भी कर लेता हूँ
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Re: लव स्टोरी
“टैक्सी...”
राज के कानों से आवाज टकराई और उसने एकाएक ब्रेक लगा दिए। राधा एक दुकान से निकली थी और दुकान का नौकर हाथों में आठ-दस पैकेट उठाए हुए उसके पीछे था। राधा ने पैकेट पिछली सीट पर रख दिए और नौकर को एक रुपये का नोट देकर गाड़ी में बैठ गई।
टैक्सी चल पड़ी। राज ने सामने लगे शीशे में से देखा। एकाएक राधा सीधी बैठती हुई चौंककर बोली, “ओह...गांधी नगर चलना है...”
राधा ने पीठ से टेक लगा ली। अचानक उसकी दृष्टि सामने लगे शीशे पर पड़ी और वह आश्चर्य भरे स्वर में बोली, “अरे राज!”
राज कुछ न बोला। उसकी आंखें बिना पलकें झपकाए सामने मार्ग पर लगी हुई थीं। टैक्सी पूरी गति से दौड़ रही थी। राधा ने व्यंग्य के स्वर में फिर पूछा, “कहां थे तुम इतने दिनों से? कहां रहते हो अब?”
राज अब भी मौन रहा। राधा ने फिर कहा, “यह टैक्सी कब से चलाना आरम्भ किया है?”
“.........”
“राजा तुम्हें बहुत याद करता है...कभी-कभी तो तुम्हारी तस्वीर देखकर रोते-रोते बुरा हाल कर लेता है।”
“..........”
“तुम बोलते क्यों नहीं! चुप क्यों हो?”
राज फिर भी कुछ न बोला। राधा चुप बैठी रह गई। टैक्सी पूरी गति से दौड़ती रही। थोड़ी देर बाद टैक्सी गांधी नगर में आत्मभवन के पोर्टिकों में आकर रुक गई। राधा पिछला द्वार खोलकर उतरी और अगले द्वार के पास आकर धीरे से बोली, “राजा से नहीं मिलोगे राज?”
राज ने एक झटके के साथ हाथ आगे कर दिया। उसके दांत मजबूती से भिंच गए थे। राधा ने चुपचाप पर्स में से दस रुपये का नोट निकालकर राज के हाथ में रख दिया। राधा ने पिछली सीट से पैकेट उठाए और टैक्सी फर्राटे भरती हुई फाटक से बाहर निकल गई। राधा कुछ देर तक खड़ी उस फाटक को देखती रही जिसमें से टैक्सी अभी-अभी बाहर गई थी। उसकी आंखें डबडबा आईं और फिर वह बोझल पांव उठाती हुई भीतर चली गई।
हॉल में राजा तेजी से ट्राइसिकल चला रहा था, जय लम्बी आराम कुर्सी पर अधलेटा सिगार के कश लगा रहा था। उसने राधा को आते देखा और मुस्कराकर बोला, “बड़ी देर लगा दी तुमने?” अचानक वह चौंककर सीधा बैठता हुआ बोला, “क्या हो गया है तुम्हें? बीमार दिखाई दे रही हो...”
“राज मिला था मुझे आज।”
“हूं...” जय राधा को ध्यानपूर्वक देखता हुआ धीरे से बोला।
“एक बात कहूं...कहा मानोगे मेरा?” राधा ने अचानक कहा।
“हूं...” जय का चेहरा गंभीर हो गया।
“बुला लाओ उसे...छोटा भाई ही तो है, भूल कर बैठा है...बड़ों का काम छोटों की भूलें क्षमा कर देना होता है।”
“हूं....” जय ने लम्बी सांस ली, “तो उसे बुला लूं...अपनी धन-सम्पत्ति का आधे का साझीदार बना लूं...उसे एक बार फिर बेधड़क ऐश करने का अवसर दे दूं ताकि कुछ समय बाद तुम्हें और राजा को किसी के आगे हाथ फैलाकर भीख मांगने के लिए छोड़ दूं...यही चाहती हो ना तुम...!”
“मुझे विश्वास है अब उसे समझ आ गई होगी....”
“चुप रहो...” जय ने अचानक जोर से राधा को डांटते हुए कहा, “यदि अब तुम्हारे होंठों पर उसका नाम भी आया तो देखना मुझसे बुरा न होगा।”
राधा की आंखें अनायास ही भर आईं। इसी समय राजा की साईकिल लुढ़क गई और राजा फर्श पर गिर कर रोने-बिलखने लगा। राधा शीघ्र दौड़कर उसकी ओर चली गई।
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राज के कानों से आवाज टकराई और उसने एकाएक ब्रेक लगा दिए। राधा एक दुकान से निकली थी और दुकान का नौकर हाथों में आठ-दस पैकेट उठाए हुए उसके पीछे था। राधा ने पैकेट पिछली सीट पर रख दिए और नौकर को एक रुपये का नोट देकर गाड़ी में बैठ गई।
टैक्सी चल पड़ी। राज ने सामने लगे शीशे में से देखा। एकाएक राधा सीधी बैठती हुई चौंककर बोली, “ओह...गांधी नगर चलना है...”
राधा ने पीठ से टेक लगा ली। अचानक उसकी दृष्टि सामने लगे शीशे पर पड़ी और वह आश्चर्य भरे स्वर में बोली, “अरे राज!”
राज कुछ न बोला। उसकी आंखें बिना पलकें झपकाए सामने मार्ग पर लगी हुई थीं। टैक्सी पूरी गति से दौड़ रही थी। राधा ने व्यंग्य के स्वर में फिर पूछा, “कहां थे तुम इतने दिनों से? कहां रहते हो अब?”
राज अब भी मौन रहा। राधा ने फिर कहा, “यह टैक्सी कब से चलाना आरम्भ किया है?”
“.........”
“राजा तुम्हें बहुत याद करता है...कभी-कभी तो तुम्हारी तस्वीर देखकर रोते-रोते बुरा हाल कर लेता है।”
“..........”
“तुम बोलते क्यों नहीं! चुप क्यों हो?”
राज फिर भी कुछ न बोला। राधा चुप बैठी रह गई। टैक्सी पूरी गति से दौड़ती रही। थोड़ी देर बाद टैक्सी गांधी नगर में आत्मभवन के पोर्टिकों में आकर रुक गई। राधा पिछला द्वार खोलकर उतरी और अगले द्वार के पास आकर धीरे से बोली, “राजा से नहीं मिलोगे राज?”
राज ने एक झटके के साथ हाथ आगे कर दिया। उसके दांत मजबूती से भिंच गए थे। राधा ने चुपचाप पर्स में से दस रुपये का नोट निकालकर राज के हाथ में रख दिया। राधा ने पिछली सीट से पैकेट उठाए और टैक्सी फर्राटे भरती हुई फाटक से बाहर निकल गई। राधा कुछ देर तक खड़ी उस फाटक को देखती रही जिसमें से टैक्सी अभी-अभी बाहर गई थी। उसकी आंखें डबडबा आईं और फिर वह बोझल पांव उठाती हुई भीतर चली गई।
हॉल में राजा तेजी से ट्राइसिकल चला रहा था, जय लम्बी आराम कुर्सी पर अधलेटा सिगार के कश लगा रहा था। उसने राधा को आते देखा और मुस्कराकर बोला, “बड़ी देर लगा दी तुमने?” अचानक वह चौंककर सीधा बैठता हुआ बोला, “क्या हो गया है तुम्हें? बीमार दिखाई दे रही हो...”
“राज मिला था मुझे आज।”
“हूं...” जय राधा को ध्यानपूर्वक देखता हुआ धीरे से बोला।
“एक बात कहूं...कहा मानोगे मेरा?” राधा ने अचानक कहा।
“हूं...” जय का चेहरा गंभीर हो गया।
“बुला लाओ उसे...छोटा भाई ही तो है, भूल कर बैठा है...बड़ों का काम छोटों की भूलें क्षमा कर देना होता है।”
“हूं....” जय ने लम्बी सांस ली, “तो उसे बुला लूं...अपनी धन-सम्पत्ति का आधे का साझीदार बना लूं...उसे एक बार फिर बेधड़क ऐश करने का अवसर दे दूं ताकि कुछ समय बाद तुम्हें और राजा को किसी के आगे हाथ फैलाकर भीख मांगने के लिए छोड़ दूं...यही चाहती हो ना तुम...!”
“मुझे विश्वास है अब उसे समझ आ गई होगी....”
“चुप रहो...” जय ने अचानक जोर से राधा को डांटते हुए कहा, “यदि अब तुम्हारे होंठों पर उसका नाम भी आया तो देखना मुझसे बुरा न होगा।”
राधा की आंखें अनायास ही भर आईं। इसी समय राजा की साईकिल लुढ़क गई और राजा फर्श पर गिर कर रोने-बिलखने लगा। राधा शीघ्र दौड़कर उसकी ओर चली गई।
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Re: लव स्टोरी
राज बस-स्टाप पर लगी हुई सवारियों की लम्बी लाइन के पास से टैक्सी को धीरे-धीरे चलाता हुआ गुजरने लगा। साथ ही वह गर्दन निकालकर पूछता जाता था‒
“टैक्सी चाहिए साहब...टैक्सी...टैक्सी...”
अचानक राज की दृष्टि क्यू में खड़े हुए राजा पर पड़ी और उसने उसके पास पहुंचकर टैक्सी को ब्रेक लगा लिए। राजा की दृष्टि भी राज से मिली और वह अनायास पुकारा उठा, “अंकल...”
राजा क्यू में से निकलकर तेजी से राज की ओर भागा। राजा उसके पास पहुंचकर चीखा, “अंकल...!”
दूसरे ही क्षण राज ने उसे गोद में उठा लिया और छाती से लगाते हुए बोला, “राजा...मेरे बेटे...” उसकी आवाज भर्रा गई थी और उसने राजा का मुंह चूम लिया।
“अंकल, अंकल...” राजा जोर से राज से चिमटता हुआ बोला, “आप कहां चले गए हैं अंकल! आप कहां रहते हैं?”
“यहीं रहता हूं बेटे...इसी शहर में...”
“तो आप घर क्यों नहीं आते अंकल...” राजा ने हिचकियां लेते हुए राज का चेहरा दोनों हाथों में थामते हुए कहा, “आप घर क्यों नहीं आते?”
“वह घर मेरा नहीं है बेटे...वह घर तुम्हारे डैडी का है।”
“डैडी बहुत बुरे हैं अंकल!” राजा सिसकियां लेते हुए बोला, “आप मुझे बहुत याद आते हैं...जब मैं आपको याद करके रोता हूं तो डैडी मुझे बहुत डांटते हैं...एक बार...एक बार मम्मी ने आपको वापस बुलाने को कहा था तो डैडी उन पर बहुत बिगड़े और बोले कि अब आगे से आपका नाम भी उन्होंने लिया तो अच्छा न होगा...”
“डैडी ठीक कहते हैं...” राज ठंडी सांस लेकर बोला, “उनके सामने किसी को मेरा नाम न लेना चाहिए...”
“किन्तु, क्यों अंकल! आप हैं तो डैडी के छोटे भाई।”
“बेटे! तुम्हारे डैडी जिस दुनिया में रहते हैं वहां कोई किसी का भाई नहीं होता...किन्तु छोड़ो इस बात को, तुम आज बस के क्यू में क्यों खड़े हो?”
“आज छुट्टी शीघ्र हो गई थी। ड्राइवर तो पांच बजे ही लेने आता इसलिए मैं बस से वापस घर जा रहा था।”
“चलो बेटे! मैं तुम्हें दूसरी टैक्सी में बिठाए देता हूं...”
“नहीं अंकल! आप मुझे अपनी टैक्सी में ले चलिए....”
“ले चलूंगा किन्तु एक शर्त पर...”
“आप अपनी टैक्सी में ले चलेंगे तो आपकी हर बात मान लूंगा।”
“तुम मुझे घर के भीतर चलने को नहीं कहोगे...”
“नहीं कहूंगा...आपको भी मेरी एक बात माननी पड़ेगी।”
“क्या?”
“आप मुझे हर दिन स्कूल में मिलने आया करें...मुझे आप बहुत याद आते हैं अंकल!”
“मेरे बेटे!” राज ने राजा को कलेजे से चिपटा कर कहा, “मैं अवश्य ही तुझे मिलने तेरे स्कूल में आया करूंगा। इस अंधेरे संसार में तू ही तो एक चमकता हुआ तारा है मेरे लिए...”
राजा जोर से राज से चिपट गया। राज ने एक बार फिर उसे प्यार किया और टैक्सी में अपने साथ वाली सीट पर बिठा लिया। टैक्सी सड़क पर दौड़ने लगी। राजा ने रास्ते में पूछा, “अंकल! आपने दूसरा घर ले लिया है?”
“नहीं बेटे!”
“फिर कहां रहते हैं?” राजा ने आश्चर्य से पूछा।
“एक मित्र के घर में रहता हूं...”
“मित्र के घर में क्यों रहते हैं अंकल! आप अपना घर क्यों नहीं ले लेते...?”
“अपना घर बनाने का यत्न कर रहा हूं...”
“तो अपना घर बहुत अच्छा बनाइएगा अंकल। डैडी के घर से भी बहुत बड़ा...और बहुत सुन्दर घर।”
राज कुछ न बोला और चुपचाप गाड़ी ड्राइव करता रहा। राजा उसके बहुत निकट साथ लगा बैठा था।
“टैक्सी चाहिए साहब...टैक्सी...टैक्सी...”
अचानक राज की दृष्टि क्यू में खड़े हुए राजा पर पड़ी और उसने उसके पास पहुंचकर टैक्सी को ब्रेक लगा लिए। राजा की दृष्टि भी राज से मिली और वह अनायास पुकारा उठा, “अंकल...”
राजा क्यू में से निकलकर तेजी से राज की ओर भागा। राजा उसके पास पहुंचकर चीखा, “अंकल...!”
दूसरे ही क्षण राज ने उसे गोद में उठा लिया और छाती से लगाते हुए बोला, “राजा...मेरे बेटे...” उसकी आवाज भर्रा गई थी और उसने राजा का मुंह चूम लिया।
“अंकल, अंकल...” राजा जोर से राज से चिमटता हुआ बोला, “आप कहां चले गए हैं अंकल! आप कहां रहते हैं?”
“यहीं रहता हूं बेटे...इसी शहर में...”
“तो आप घर क्यों नहीं आते अंकल...” राजा ने हिचकियां लेते हुए राज का चेहरा दोनों हाथों में थामते हुए कहा, “आप घर क्यों नहीं आते?”
“वह घर मेरा नहीं है बेटे...वह घर तुम्हारे डैडी का है।”
“डैडी बहुत बुरे हैं अंकल!” राजा सिसकियां लेते हुए बोला, “आप मुझे बहुत याद आते हैं...जब मैं आपको याद करके रोता हूं तो डैडी मुझे बहुत डांटते हैं...एक बार...एक बार मम्मी ने आपको वापस बुलाने को कहा था तो डैडी उन पर बहुत बिगड़े और बोले कि अब आगे से आपका नाम भी उन्होंने लिया तो अच्छा न होगा...”
“डैडी ठीक कहते हैं...” राज ठंडी सांस लेकर बोला, “उनके सामने किसी को मेरा नाम न लेना चाहिए...”
“किन्तु, क्यों अंकल! आप हैं तो डैडी के छोटे भाई।”
“बेटे! तुम्हारे डैडी जिस दुनिया में रहते हैं वहां कोई किसी का भाई नहीं होता...किन्तु छोड़ो इस बात को, तुम आज बस के क्यू में क्यों खड़े हो?”
“आज छुट्टी शीघ्र हो गई थी। ड्राइवर तो पांच बजे ही लेने आता इसलिए मैं बस से वापस घर जा रहा था।”
“चलो बेटे! मैं तुम्हें दूसरी टैक्सी में बिठाए देता हूं...”
“नहीं अंकल! आप मुझे अपनी टैक्सी में ले चलिए....”
“ले चलूंगा किन्तु एक शर्त पर...”
“आप अपनी टैक्सी में ले चलेंगे तो आपकी हर बात मान लूंगा।”
“तुम मुझे घर के भीतर चलने को नहीं कहोगे...”
“नहीं कहूंगा...आपको भी मेरी एक बात माननी पड़ेगी।”
“क्या?”
“आप मुझे हर दिन स्कूल में मिलने आया करें...मुझे आप बहुत याद आते हैं अंकल!”
“मेरे बेटे!” राज ने राजा को कलेजे से चिपटा कर कहा, “मैं अवश्य ही तुझे मिलने तेरे स्कूल में आया करूंगा। इस अंधेरे संसार में तू ही तो एक चमकता हुआ तारा है मेरे लिए...”
राजा जोर से राज से चिपट गया। राज ने एक बार फिर उसे प्यार किया और टैक्सी में अपने साथ वाली सीट पर बिठा लिया। टैक्सी सड़क पर दौड़ने लगी। राजा ने रास्ते में पूछा, “अंकल! आपने दूसरा घर ले लिया है?”
“नहीं बेटे!”
“फिर कहां रहते हैं?” राजा ने आश्चर्य से पूछा।
“एक मित्र के घर में रहता हूं...”
“मित्र के घर में क्यों रहते हैं अंकल! आप अपना घर क्यों नहीं ले लेते...?”
“अपना घर बनाने का यत्न कर रहा हूं...”
“तो अपना घर बहुत अच्छा बनाइएगा अंकल। डैडी के घर से भी बहुत बड़ा...और बहुत सुन्दर घर।”
राज कुछ न बोला और चुपचाप गाड़ी ड्राइव करता रहा। राजा उसके बहुत निकट साथ लगा बैठा था।
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(शिद्द्त - सफ़र प्यार का ) ......(प्यार का अहसास ) ......(वापसी : गुलशन नंदा) ......(विधवा माँ के अनौखे लाल) ......(हसीनों का मेला वासना का रेला ) ......(ये प्यास है कि बुझती ही नही ) ...... (Thriller एक ही अंजाम ) ......(फरेब ) ......(लव स्टोरी / राजवंश running) ...... (दस जनवरी की रात ) ...... ( गदरायी लड़कियाँ Running)...... (ओह माय फ़किंग गॉड running) ...... (कुमकुम complete)......
साधू सा आलाप कर लेता हूँ ,
मंदिर जाकर जाप भी कर लेता हूँ ..
मानव से देव ना बन जाऊं कहीं,,,,
बस यही सोचकर थोडा सा पाप भी कर लेता हूँ
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- rajsharma
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Re: लव स्टोरी
एक होटल के पास से गुजरते हुए अचानक एक महिला ने पुकारा ‘टैक्सी’। राज ने टैक्सी रोक ली। होटल के फाटक से निकल कर एक जोड़ा टैक्सी के पास पहुंचा और राज के मस्तिष्क में इतना तीव्र झटका लगा मानो किसी ने उसके कानों के पास बम दे मारा हो। वह सन्नाटे में बैठा रह गया। टैक्सी के पास आने वाली महिला ‘संध्या’ थी...संध्या जो राज की प्रेमिका थी...संध्या, जिसे राज मन से प्यार करता था...प्राणों से बढ़कर उसका आदर करता था। संध्या, वही संध्या जिसने राज के पास होने की खुशी में होने वाले समारोह में उसे भेंट करने के लिए डेढ़ हजार रुपये का टाई पिन खरीदा था। इस समय संध्या अनिल के साथ नहीं थी...इस समय संध्या के साथ सन्तोष था...सन्तोष जिसे राज बहुत अच्छी प्रकार से जानता था...सन्तोष शहर के रईस का इकलौता बैठा था।
अचानक पास ही से राज ने आवाज सुनी, “जरा सुनिए मिस संध्या!” यह अनिल की आवाज थी।
राज चुपचाप सामने मुंह किए; बिना उनकी ओर मुड़े देखता बैठा रहा। उसने संध्या की आवाज सुनी जो अनिल से कठोर स्वर में कह रही थी, “आपको सामाजिक शिष्टाचार का ध्यान नहीं, मिस्टर अनिल। ...आप देख नहीं रहे क्या, मैं एक फ्रेंड के साथ जा रही हूं” फिर उसने सन्तोष से कहा, “चलिए मिस्टर सन्तोष!”
राज ने कनखियों से अनिल को देखा जो सन्नाटे में खड़ा हुआ था। उसके मुंह पर कुछ ऐसे चिन्ह थे जैसे कोई यात्री मंजिल के पास आकर लुट गया हो। राज के चेहरे पर एक गहरी सन्तोष भरी मुस्कराहट रेंग गई। संध्या और सन्तोष पिछली सीट पर बैठ गए। संध्या ने कहा, “चलो ड्राइवर...”
टैक्सी स्टार्ट होकर चल पड़ी, राज ने अपने सामने लगे शीशे की दिशा बदल दी थी। सन्तोष संध्या से कह रहा था, “यह अनिल तुमसे क्या कहना चाहता था?”
“कहता क्या...?” संध्या ने कठोर स्वर में कहा, “हर युवक हर युवा से एक ही बात कहता है, मैं तुमसे प्यार करता हूं...आप स्वयं सोचिए सन्तोष जी! क्या प्यार भी ऐसी वस्तु है जिसे नारी सभाओं में बांटती फिरे...मैं तो तंग आ गई हूं आजकल के युवकों की मानसिक दशा देख-देखकर, जरा किसी से हंसकर दो-चार बातें कीं, बस वह यही समझ लेता है कि मैं उसके ठेके में आ गई हूं...किसी से मिल-जुल नहीं सकती, कोई बात नहीं कर सकती...बस अधिकार जमाना चाहते हैं...इन महोदय के साथ दो दिन क्या बिताए कि भूल के शिकार हो गए...मैंने अनुभव किया कि इनके मन में कुछ खोट उत्पन्न हो रहा है सो रिजर्व हो जाना पड़ा...”
“यह दोष अनिल का नहीं है संध्या!” सन्तोष के स्वर में हल्की-सी लड़खड़ाहट थी, “दोष तुम्हारे सौन्दर्य का है...”
“तो क्या मैं इतनी सुन्दर हूं?” संध्या ने एक मोहिनी अदा से पूछा।
“तुम अत्यधिक सुन्दर हो...तुम्हें अपनी सुन्दरता का भास नहीं, जिस दिन भास हो जाएगा तो तुम स्वयं जान जाओगी कि जो भी तुमसे मिलता है वह तुम्हारी ओर किसी दूसरे का देखना क्यों पसन्द नहीं करता।”
“हटिए भी आप तो मजाक करते हैं।”
“चलो अच्छा है, इसे मजाक समझकर ही टाल जाना...कहीं मेरा नाम भी अनिल जैसे लोगों की सूची में लिख डालो।”
“यह आप क्या कह रहे हैं सन्तोष बाबू!” संध्या गम्भीर होकर बोली, “आपका नाम भी यदि इन्हीं लोगों की सूची में लिखना होता तो मैं स्वयं किसी से सम्बन्ध बढ़ाने का प्रयत्न नहीं करती...लोग स्वयं ही मेरी ओर बढ़े हैं...मैंने सामाजिक शिष्टाचार के नाते उनका स्वागत किया और लोगों ने न जाने क्या-क्या आशाएं मुझसे लगाए रखीं...आप तो जानते हैं सन्तोषजी! मैं एक नारी हूं और नारी जीवन में केवल एक बार किसी पुरुष को चाहती है...उसी के लिए जीती है और उसी के लिए प्राण भी दे देती है।”
“अच्छा...” सन्तोष ने एक व्यंग्यपूर्ण ठहाका लगाया।
“और क्या? आप अब स्वयं सोचिए पन्द्रह हजार भी कोई चीज है...अचानक डैडी का सारा बैलेंस रोटेशन में फंस गया और पन्द्रह हजार कैश की आवश्यकता आ पड़ी...किन्तु अनिल साहब के पास पन्द्रह हजार रुपये होते तो देते...”
“सच है...” सन्तोष ने जेब में हाथ डालते हुए कहा, “जिसके पास होंगे ही नहीं वह देगा ही कहां से...”
“अरे-अरे...यह आप क्या कह रहे हैं?” संध्या ने घबराकर कहा।
“मैं अनिल नहीं हूं संध्या! बीस-पच्चीस हजार के नोट तो हर समय पर्स में रहते हैं।”
“उफ...फो...देखिए, आप तो व्यर्थ ही लज्जित कर रहे हैं...’’ संध्या ने कहा।
“इसका मतलब है तुम मुझे पराया समझ रही हो?”
“अरे अरे...यह आप क्या कह रहे हैं सन्तोष बाबू! आपको पराया समझती तो इतने आदमियों में आप ही का चुनाव कैसे करती?”
राज चुपचाप ड्राइव करता रहा। उसका निचला होंठ दांतों के बीच दबा हुआ था। उसने शीशे में से देखा सन्तोष हजार-हजार रुपये के पन्द्रह नोट संध्या की ओर बढ़ा रहा था। संध्या ने हाथ बढ़ाते हुए कहा, “अब नहीं लेती तो आप नाराज हो जाएंगे...” नोट लेकर पर्स में रखते हुए वह बोली, “आप कितने अच्छे हैं सन्तोष बाबू!”
“यह अंगूठी पहनो” सन्तोष ने उंगली से अंगूठी उतार कर संध्या को पहनाते हुए कहा, “इक्कीस हजार के नग जड़े हैं इसमें!”
“ओह...सच!” संध्या की आंखें चमक उठीं।
“अगले इतवार को मैं एक बहुत बड़ी पार्टी का आयोजन कर रहा हूं। पार्टी में हमारी मंगनी की घोषणा कर दी जाएगी।”
“ओह...सच, सन्तोष बाबू।” संध्या की आवाज कंपकंपा रही थी।
“सच मेरी जान! बिल्कुल सच, मुझे भी जीवन साथी बनाने के लिए ऐसी ही नियम की पक्की और भली लड़की की आवश्यकता है...खोज है।”
यह कहते-कहते सन्तोष ने संध्या की कमर में हाथ डालना चाहा। संध्या हल्के-से हंसकर सिकुड़ गई और धीरे से सन्तोष का हाथ अपनी कमर से हटा दिया।
अचानक टैक्सी के इंजन ने चलते-चलते दो-तीन छीकें लीं और दो-तीन धक्के लेकर गाड़ी रुक गई। संध्या ने घबरा कर पूछा, “क्या हो गया? ड्राइवर! यह क्या हो गया?”
“इंजन में कुछ खराबी हो गई है।” राज ने गम्भीरता से कहा।
संध्या राज की आवाज पहचान कर कुछ चौंक पड़ी। राज टैक्सी से उतरा और इंजन का बोनट उठा कर उस पर झुक गया। संध्या के चेहरे पर कई रंग आए और चले गए। बड़ी कठिनाई से उसने अपने भावों पर नियन्त्रण पाया। उसने इस बीच यह भी नहीं सुना कि सन्तोष उससे क्या कहता रहा। थोड़ी देर बाद राज ने बोनट बन्द कर दिया। सन्तोष ने गर्दन निकालकर पूछा, “इंजन ठीक हो गया क्या?”
“नहीं साहब!” बिना उसकी ओर देखे राज ने उत्तर दिया, “समझ में नहीं आ रहा क्या खराबी हो गई है?”
“कैसे ड्राइवर हो तुम?” सन्तोष झुंझला कर बोला, “इंजन की खराबी समझ में नहीं आती?”
“मेरी समझ जरा कमजोर है साहब!” राज सिगरेट पैकेट से निकालकर होंठों में दबाता हुआ बोला, “किसी चीज के भीतर क्या खराबी है, यह जरा देर से समझता हूं....”
“अब फिर क्या तुम्हारे बाप के कंधों पर सवार होकर जाएं?”
अचानक राज की आंखें क्रोध से लाल हो गईं। उसने खिड़की के पास आकर कहा, “जरा एक बार फिर तो कहिए साहब! फिर मैं आपको चार आदमियों के कंधों पर सवार करा दूं।”
“क्या कहते हो?” सन्तोष ने नथुने फुलाकर क्रोध में कहा।
अचानक राज ने झटके से गाड़ी की खिड़की खोली और सन्तोष की बांह पकड़कर झटके से उसे बाहर खींच लिया। सन्तोष अरे-अरे करता रह गया। राज ने भीतर झांककर संध्या से कहा, “कहिए तो आपके साथ भी यही व्यवहार किया जाए?”
संध्या बौखलाई हुई दूसरी ओर की खिड़की खोलकर नीचे उतर गई। सन्तोष ने राज के बल का अनुमान लगा लिया था। संतोष अपने कोट का कॉलर और आस्तीन बार-बार झटककर ठीक करता हुआ संध्या और राज की ओर देखकर बोला, “जानते नहीं हो मैं कौन हूं? टैक्सी नीलाम करा दूंगा तुम्हारी।”
राज ने उत्तर दिए बिना असावधानी से नया सिगरेट सुलगाया और फिर एक हाथ भीतर डालकर स्टेयरिंग थामा और दूसरे हाथ से टैक्सी को धकेलता हुआ चल पड़ा।
अचानक पास ही से राज ने आवाज सुनी, “जरा सुनिए मिस संध्या!” यह अनिल की आवाज थी।
राज चुपचाप सामने मुंह किए; बिना उनकी ओर मुड़े देखता बैठा रहा। उसने संध्या की आवाज सुनी जो अनिल से कठोर स्वर में कह रही थी, “आपको सामाजिक शिष्टाचार का ध्यान नहीं, मिस्टर अनिल। ...आप देख नहीं रहे क्या, मैं एक फ्रेंड के साथ जा रही हूं” फिर उसने सन्तोष से कहा, “चलिए मिस्टर सन्तोष!”
राज ने कनखियों से अनिल को देखा जो सन्नाटे में खड़ा हुआ था। उसके मुंह पर कुछ ऐसे चिन्ह थे जैसे कोई यात्री मंजिल के पास आकर लुट गया हो। राज के चेहरे पर एक गहरी सन्तोष भरी मुस्कराहट रेंग गई। संध्या और सन्तोष पिछली सीट पर बैठ गए। संध्या ने कहा, “चलो ड्राइवर...”
टैक्सी स्टार्ट होकर चल पड़ी, राज ने अपने सामने लगे शीशे की दिशा बदल दी थी। सन्तोष संध्या से कह रहा था, “यह अनिल तुमसे क्या कहना चाहता था?”
“कहता क्या...?” संध्या ने कठोर स्वर में कहा, “हर युवक हर युवा से एक ही बात कहता है, मैं तुमसे प्यार करता हूं...आप स्वयं सोचिए सन्तोष जी! क्या प्यार भी ऐसी वस्तु है जिसे नारी सभाओं में बांटती फिरे...मैं तो तंग आ गई हूं आजकल के युवकों की मानसिक दशा देख-देखकर, जरा किसी से हंसकर दो-चार बातें कीं, बस वह यही समझ लेता है कि मैं उसके ठेके में आ गई हूं...किसी से मिल-जुल नहीं सकती, कोई बात नहीं कर सकती...बस अधिकार जमाना चाहते हैं...इन महोदय के साथ दो दिन क्या बिताए कि भूल के शिकार हो गए...मैंने अनुभव किया कि इनके मन में कुछ खोट उत्पन्न हो रहा है सो रिजर्व हो जाना पड़ा...”
“यह दोष अनिल का नहीं है संध्या!” सन्तोष के स्वर में हल्की-सी लड़खड़ाहट थी, “दोष तुम्हारे सौन्दर्य का है...”
“तो क्या मैं इतनी सुन्दर हूं?” संध्या ने एक मोहिनी अदा से पूछा।
“तुम अत्यधिक सुन्दर हो...तुम्हें अपनी सुन्दरता का भास नहीं, जिस दिन भास हो जाएगा तो तुम स्वयं जान जाओगी कि जो भी तुमसे मिलता है वह तुम्हारी ओर किसी दूसरे का देखना क्यों पसन्द नहीं करता।”
“हटिए भी आप तो मजाक करते हैं।”
“चलो अच्छा है, इसे मजाक समझकर ही टाल जाना...कहीं मेरा नाम भी अनिल जैसे लोगों की सूची में लिख डालो।”
“यह आप क्या कह रहे हैं सन्तोष बाबू!” संध्या गम्भीर होकर बोली, “आपका नाम भी यदि इन्हीं लोगों की सूची में लिखना होता तो मैं स्वयं किसी से सम्बन्ध बढ़ाने का प्रयत्न नहीं करती...लोग स्वयं ही मेरी ओर बढ़े हैं...मैंने सामाजिक शिष्टाचार के नाते उनका स्वागत किया और लोगों ने न जाने क्या-क्या आशाएं मुझसे लगाए रखीं...आप तो जानते हैं सन्तोषजी! मैं एक नारी हूं और नारी जीवन में केवल एक बार किसी पुरुष को चाहती है...उसी के लिए जीती है और उसी के लिए प्राण भी दे देती है।”
“अच्छा...” सन्तोष ने एक व्यंग्यपूर्ण ठहाका लगाया।
“और क्या? आप अब स्वयं सोचिए पन्द्रह हजार भी कोई चीज है...अचानक डैडी का सारा बैलेंस रोटेशन में फंस गया और पन्द्रह हजार कैश की आवश्यकता आ पड़ी...किन्तु अनिल साहब के पास पन्द्रह हजार रुपये होते तो देते...”
“सच है...” सन्तोष ने जेब में हाथ डालते हुए कहा, “जिसके पास होंगे ही नहीं वह देगा ही कहां से...”
“अरे-अरे...यह आप क्या कह रहे हैं?” संध्या ने घबराकर कहा।
“मैं अनिल नहीं हूं संध्या! बीस-पच्चीस हजार के नोट तो हर समय पर्स में रहते हैं।”
“उफ...फो...देखिए, आप तो व्यर्थ ही लज्जित कर रहे हैं...’’ संध्या ने कहा।
“इसका मतलब है तुम मुझे पराया समझ रही हो?”
“अरे अरे...यह आप क्या कह रहे हैं सन्तोष बाबू! आपको पराया समझती तो इतने आदमियों में आप ही का चुनाव कैसे करती?”
राज चुपचाप ड्राइव करता रहा। उसका निचला होंठ दांतों के बीच दबा हुआ था। उसने शीशे में से देखा सन्तोष हजार-हजार रुपये के पन्द्रह नोट संध्या की ओर बढ़ा रहा था। संध्या ने हाथ बढ़ाते हुए कहा, “अब नहीं लेती तो आप नाराज हो जाएंगे...” नोट लेकर पर्स में रखते हुए वह बोली, “आप कितने अच्छे हैं सन्तोष बाबू!”
“यह अंगूठी पहनो” सन्तोष ने उंगली से अंगूठी उतार कर संध्या को पहनाते हुए कहा, “इक्कीस हजार के नग जड़े हैं इसमें!”
“ओह...सच!” संध्या की आंखें चमक उठीं।
“अगले इतवार को मैं एक बहुत बड़ी पार्टी का आयोजन कर रहा हूं। पार्टी में हमारी मंगनी की घोषणा कर दी जाएगी।”
“ओह...सच, सन्तोष बाबू।” संध्या की आवाज कंपकंपा रही थी।
“सच मेरी जान! बिल्कुल सच, मुझे भी जीवन साथी बनाने के लिए ऐसी ही नियम की पक्की और भली लड़की की आवश्यकता है...खोज है।”
यह कहते-कहते सन्तोष ने संध्या की कमर में हाथ डालना चाहा। संध्या हल्के-से हंसकर सिकुड़ गई और धीरे से सन्तोष का हाथ अपनी कमर से हटा दिया।
अचानक टैक्सी के इंजन ने चलते-चलते दो-तीन छीकें लीं और दो-तीन धक्के लेकर गाड़ी रुक गई। संध्या ने घबरा कर पूछा, “क्या हो गया? ड्राइवर! यह क्या हो गया?”
“इंजन में कुछ खराबी हो गई है।” राज ने गम्भीरता से कहा।
संध्या राज की आवाज पहचान कर कुछ चौंक पड़ी। राज टैक्सी से उतरा और इंजन का बोनट उठा कर उस पर झुक गया। संध्या के चेहरे पर कई रंग आए और चले गए। बड़ी कठिनाई से उसने अपने भावों पर नियन्त्रण पाया। उसने इस बीच यह भी नहीं सुना कि सन्तोष उससे क्या कहता रहा। थोड़ी देर बाद राज ने बोनट बन्द कर दिया। सन्तोष ने गर्दन निकालकर पूछा, “इंजन ठीक हो गया क्या?”
“नहीं साहब!” बिना उसकी ओर देखे राज ने उत्तर दिया, “समझ में नहीं आ रहा क्या खराबी हो गई है?”
“कैसे ड्राइवर हो तुम?” सन्तोष झुंझला कर बोला, “इंजन की खराबी समझ में नहीं आती?”
“मेरी समझ जरा कमजोर है साहब!” राज सिगरेट पैकेट से निकालकर होंठों में दबाता हुआ बोला, “किसी चीज के भीतर क्या खराबी है, यह जरा देर से समझता हूं....”
“अब फिर क्या तुम्हारे बाप के कंधों पर सवार होकर जाएं?”
अचानक राज की आंखें क्रोध से लाल हो गईं। उसने खिड़की के पास आकर कहा, “जरा एक बार फिर तो कहिए साहब! फिर मैं आपको चार आदमियों के कंधों पर सवार करा दूं।”
“क्या कहते हो?” सन्तोष ने नथुने फुलाकर क्रोध में कहा।
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